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विनयचन्द्रकृत कुसुमाञ्जलि
॥ श्री धर्मनाथ स्तवनम् ॥ ढाल-सासू काठा हे गोहूँ पीसाय आपण जास्यु मालवइ, सोनार भणइ वाल्हा सुणि हो मुझ अरदास, मइ अभिलाष इसउ धर्यो,
मोसुं महिर करउ । वाल्हा काढूँ हो मननी भास,
जे तुझ आगई पतगयौं । मो० ॥१॥ वाल्हा तुं तउ हो धरम धुरीण,
पर उपगारी परगड़उ ।। मो० ॥ वाल्हा मुझनइ हो देखी दीण,
सेवक करिनइ तेवड़उ ।। मो० ॥२॥ वाल्हा स्यु कहुँ माहरइ हो मुक्ख,
मंइ पगि २ लही आपदा ॥मो०॥ वाल्हा टालउ हो ते सहु दुक्ख,
सुख आपौ अविचल सदा। मो०।३।। बाल्हा पूरवइ हो. परषद मांहि,
धरम देशना तूं दियइ । मो० ॥ वाल्हा सगले हो सुणि रे उमाहि,
मई न सुणी इक पापियइ । मो० ॥४॥ वाल्हा लागी हो नहीं उपदेश,
छांट घड़इ जिम चीगटइ । मो० ॥ वाल्हा तेतउ हो न्याय अजेस,
कर्म अरि कहो किम कटइ ॥ मो० ॥५॥
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