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- विहरमान जिनवीसी
॥ कलश ॥ ढाल-शांति जिन भामणइ जाऊँ संप्रति वीस जिनेश्वर वंदउ,
विहरमान जिणराया जी। विचरंता भविजन मन मोहे,
सुरनर प्रणमइ पाया जी ॥१।। सं०॥ जंबूद्वीपई च्यार सोहावइ,
धातकी पुष्कर अर्द्धइ जी। आठ आठ विचरइ जयवंता,
अढी द्वीप नइ संधे जी ।।२।। सं०॥ मात पिता लंछन नइ नामइ,
भगति धरी नइ थुणिया जी। ए प्रभु ना अनुभाव थकी मंइ, . दुरित उपद्रव हणिया जी ।।३।। सं०॥ संवत सत्तर चउपन्नइ वरषइ, ।
राजनगर में रंगइ जी । बीसे गीत विजयदशमी दिन,
कर्या उलट धरि अंगइजी ॥४॥ सं॥ गच्छपति श्रीजिनचन्द्रसूरिन्दा,
हर्षनिधान उवझाया जी। ज्ञानतिलक गुरु नइ सुपसायइ,
'विनयचन्द्र' गुण गाया जी ।।५।। सं०॥
॥ इति विंशतिका समाप्ता ।। इति श्री विनयचन्द्र कवि विनिर्मिता विंशतीर्थकराणां विंशतिका संपूर्णम्
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