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विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि समकित विण प्रतियोग थी, शक्ति न ताहरइ बांहि अज्ञानी ।
आ गुण सद्भाविक देखतां, न मिलइ तुझ घट मांहि अ० ॥३॥ वंदन अंग उपासके, वलि ठाणांग मझार अज्ञानी । रायपसेणी मइ काउ, सूरीयाभ सविचार' अज्ञानी ॥४॥oll' न्याता अंगइ जाणियइ, पदि नइ अधिकार अज्ञानी । तिम अंबड़ अधिकार थी, निरखि उवाई सार अज्ञानी ॥॥ए। चारण श्रमण नमइ सदा, जिन प्रतिमा सस्नेह अज्ञानी । ते छइ भगवई अंगमाँ, किम मन आणइ रेह अज्ञानी ॥६॥एका एक सदय गुण तूं करइ, सूत्र बहुल नउ लोप ।। अज्ञानी ।। तउ तुझ नइ दीठाँ विना, मन नई आवश् कोप अज्ञानी ॥७॥
ढाल (३)
___ चाल-जोसीडानी दृश्य पणइ आवश्यकै रे, भावित कायोत्सर्ग। प्रतिमा विण निःफल काउ रे, तौ स्यु वाक्यिक वर्ग ॥१॥ अधर्मी प्रतिमाये स्यउ बंध। जड़मति नइ अनुभाव थी, जाति तणउ तूं अंध ||शअ०॥ विजयदेव अति भक्ति सुरे, पूज्या श्री जिनराय । इम छइ जीवाभिगम मां रे, ते तुझ नावइ दाय ॥३०॥ वलि जिन पूज्या शुभ मनइ रे, श्री सिद्धारथ राय। कल्पसूत्र संपेखि नइ रे, तसु अवगम चित लाय ॥४॥अ०॥ दानादिक सम भाखियउ रे, अरचा नउ फल सूध । महानिशीथे ते लहइ रे, तो स्यूं तेह असूध ॥शाअ०॥
१-विचारेण सहित
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