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________________ कुगुरु स्वाध्याय अति विकसित चित सांभलउ रे लाल, अधिक प्रयोजन आणि रे ॥सका अंतरगत गुण पामिस्यउ रे लाल, ए समवाय प्रमाण रे ॥सका||श्रु०॥ प्रथम द्रव्य भावई रहइ रे लाल, विकल सकल आचार रे ॥स०।। चलन अवधि स्वच्छन्द हुँ रे लाल, नित निर्गत उपचार रे॥स०|३||श्रु०॥ बाह्य दृष्टि विरतंतनउ रे, भेदक विविध प्रकार रे ।।स०॥ प्रवहमान पर वृत्ति हुँ रे लाल, जेम जलदनी धार रे ॥स०|४||श्रु०॥ इन उन्मारग चालतां रे, नवि पामईतिहां लाग रे ॥स०॥ चित्त विचारि समाचरइ रे लाल, वलि मरकट वइराग रे ।।स०॥५॥श्रु०॥ ढाल २ सोरठ देश सुहामणउ, एहनी. अंतरगति आतप करइ, जप बहिरंग प्रधान लाल रे । अंबर माहे जे धरइ, शबकर पट उपमान लाल रे ॥१॥ अवयव तादृश आचरइ, वचन तथा विध थाय लाल रे । सविकल्प चिन्तन करइ, अहनिशि अध्यवसाय लाल रे ।।२।। चाहइ वेगि निरूपणा, सम पूरब पद चार लाल रे । पिण इण कलि माहे नहीं, सांप्रति सहु परिवार लाल रे ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003819
Book TitleVinaychandra kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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