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विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि
कुगुरु स्वाध्याय
|| दूहा* जैन युक्ति सुं साधना, आगम सुं अनुकूल । नित अविहित लक्षण हरण, सुविहित लक्षण मूल ॥१॥ सिद्धि शक्ति धारक सदा, व्यक्ति गुणइ अनुबन्ध । निहत निरंजण भक्ति विधि, जानि हेतु निरबंध ।।२।। धंध गिणइ संसरण सुख, चरण करण गुण लीण । अतिशय सुध जसु आचरण, क्रिया धरण सुप्रवीण ॥३॥ मिथ्या भ्रम रूपक द्विरद, तिहां पंचायण जेह । चिदानंद चिद्रूप सुं, निस दिन अधिक सनेह ॥४॥ एहवा सदगुरु वंदियइ, जिम थायइ भव अंत । कुगुरु कपटधर वंदतां, तद्गुण न रहइ तंत ॥५॥
ढाल (१)
चाल-हठीला वयरीनी [सार सु] प्रवचन नउ ग्रही रे,
विदित प्रपंचक भाव रे ।।सगुण नर॥ अनुभव कहि [सुरं] गसुरे लाल,
कुगुरु तणइ प्रस्ताव रे ।।सगुण नर ॥१॥ * प्रारम्भ करनेके पूर्व आलिये पर लिखे दोहे :धर्म वचन साधक सदा, जिन वचनो पक्षीण। प्रस्तुतानुयोगिक सदा, जे सोधिक सुकुलीण ॥१॥ उपादान मित भुक्तविधि, अन्वेषणीय प्राय । प्रस्तुतानुयोगिक तणा, जे सोधिक मुनिराय ।।२।। मारग साधु तणउ काउ, दर्शन ज्ञान चरित्र । तिणथी खिण विरचइ नहीं, निशिदिन पुण्य पवित्र ।।३।।
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