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स्थूलभद्र समाय
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सहज भाव सुगंध तेल, पिचरकी सम जल रसई । गुण राग रंग गुलाल उडइ, करुण ससबोही वसई || परभाग रंग मृदंग गूँजइ, सत्व ताल विशाल ए । समकित तंत्री तंत झणकर, सुमति सुमनस माल ए ॥ ॥ चैत्र विचित्र थह रही, अंब तणी वनरायो जी। थुड़ शाखा अंकुरित थइ, सोह वसंत पायो जी ॥ पाई वसंत सोह जिण परि, प्रियागमनइ' पदमिनी । सिणगार विन पिण मुदित होवइ, प्रेम पुलकित अंगिनी ॥ रति हास्य मुख अड़ स्थायि भावइ, शोभती कोशा कहइ । हुं कामिनी गजगामिनी मुझ, तो विना मन किम रहइ ||१०|| वैशाख वन फूलीया, द्राख रसाल सुसाखर जी 1 अंब सु कलरव कोकिला, पंचम रागई भाखर जी ॥ भाखइ तिहाँ वलि भाव आठे, सरस सात्विक सुखकरा । पुलक स्वेद अव्यक्त स्वर नई स्थंभ आँसू निर्झरा ॥ इहाँ काम केरी दस अवस्था, धरs देहइ दंपती । प्रिउ देखि मुझ नइ तेह प्रगटे, कोशा मुख इम जंपती ॥११॥ जेठ दीहाड़ा जेठ ना, लागइ ताप अथाहो जी । विरहानल तपई दियउ प्रियु तुम चंदन बाँहो जी ॥ बाँह चंदन सुगम सेव्यइ, भाव संचारिक वध३ । तेवीस धृति मति स्मरण लज्जा शोक निद्रादिक सधइ ॥ उन्मत्तता आनंद भय मद मोह उत्सुक दीनता । चालंभ वाधइ ए विशेषज्ञ, रहइ केम निरीहता ॥ १२ ॥
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