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विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि
ते वीर रस मां थया कायर, जेह योगी बापड़ा । थरथर फिरता तेह दीसइ, उदासीन पणइ खड़ा ||५|| भयानक रस भेदियउ, मगिसिर मास सनूरो जी । मांग सिरइ गोरी धर, वर अरुणी मां सिन्दूरो जी ॥ सिन्दूर पूरइ हर्ष जोरs, मदन झाल अनल जिसी । तिहाँ पड़इ कामी नर पतंगा, धरी रंगा धसमसी । वलि अधर सधर सुधारसई करि सींचि नव पल्लव करइ । तिण प्रीति रीतई भीति न हुवइ एम कोशा उच्चरइ ||६|| रस वीभत्से वासियङ, पोष महीनउ जोयौ जी । दोषी पोषइ दिन दूबलु, हिम संकोचित होयो जी ॥ संकोच होवइ प्रौढ रमणी, संगथी लघु कंत ज्यु । तिम कंत तुमच वेष देखी, मई वीभत्स पणुं भजुं ॥ ए प्रौढ रयणी सयण सेजई एकलां किम जावए । हेमंत ऋतु म प्रिउ उछंग खेलवु मन भाव ए ||७|| माघ निदाघ परई दहै, ए अद्भुत रस देखूं जी । शीतल पणि जड़ता घणु प्रीतम परतिख पेखुं जी ॥ पेखु तुम्हा सित साधु हग पणि रह्या मुझ हृदयस्थलइ | ए मृषा संप्रति तुझ बिना मुझ प्राण क्षण क्षण टलवलइ ॥ इण परई व्रत ना भंग दीसइ परिग्रह भणी आविया I तर एह अचरिज रस विशेष शुद्ध चारित्र भाविया ॥८॥ फागुन शान्त रस रमइ, आणी नव नव भावो जी I अनुभव अतुल वसंत मां, परिमल सहज सभावो जी ॥
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