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स्थूलिभद्र सम्झाय । श्रावण हास्य रस करी, विलसउ प्रीतम प्रेमइ जी। योगी भोगी नइ घरे, आवण लागा केमइ जी॥ तउ केम आवै मन सुहावै, वसी प्रमदा प्रीतड़ी एह हासी चित विमासी, जोअउ जगति किसी जड़ी। झरहरइ पावस मेघ वरसइ, नयण तिम मुख आंसुआं । तिम मलिन रूपी बाह्य दीसउ, तिम मलिन अंतर हुआ।।२।। भादउ कादउ मचि राउ, कलिण कल्या बहु लोकोजी। देखी करुणा ऊपजै, चन्द्रकान्ता जिम कोको जी॥ कोक परि विहू वोक करती, विरह कलणइ हुं कली। काढियइ तिहांथी बांह झाली, करुणा रस नइ अटकली।। मयमत्त तटिनी अनइ नारी, मेह प्रीतम नेह थी। अवसरइ जउ ते काम नावइ, स्युं करीजै तेह थी॥३॥ आसू आसिक दिहाड़ला, एकलडां किम जायो जी। रौद्र रसइ मुझ मन घणु, नित प्रति अति अकुलायोजी।
अकुलाय धरणि तरुणी तरणो, किरण थी शोषत धरै। उपपति परइ धन कंत अलगु, करी घन वेदन करै। तिम तुम्हे पणि विरह तापइ, तापवउ छउ अति घणुं। चाँद्रणी शीतल झाल पावक, परई कहि केतउ भणुं ||४||
काती कौतुक सांभरइ, वीर करइ संग्रामो जी। विकट कटक चाला घणु, तिम कामी निज धामोजी। निज धाम कामी कामिनी बे, लड़इ वेधक वयण सु । रणतूर नेउर खड़ग वेणी, धनुष रूपी नयण हुँ।
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