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________________ १२२ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि भाग्डिदि भुंइ लुटै खिण छुटै वलि अभ्भटै, प्रगट भट ऊछलै जिम पतंगा तिहां करै घाव देइ ओट वड वेग सु, मरद न मुडै ज्जुडै जिम मतंगा; ६ को० अंत तस बल घट्यौ कुमर तब ऊलट्यौ, कट्यौ जंजाल सहु लोक छूटा ; जुद्ध हुई रह्यौ हथियार रो जिण घड़ी, जोर धरि वले अंग जूटा ; १० को० झपटि द्य थापटे चापटे झापटे, गहग गंभीर मुख करै गाजां मुंठि अर मुठि पडि उठि भड दूठ मचि, लडि लगावै रखे कोइ लाजां ११ को० अधिक नहीं बात द्यई लात करि घात अति धग्डिदि धकि झबकि झुकि दीये धमका; जाणि बैंकार करती जिसी अपछरा । ठमकि पद ठावति करै ठमका ; १२ को प्रबल भुज जुद्ध खिण मां उपसम थयौ निठुर कायर भ्रमरकेतु नाठो धन्न हो धन्य जोगणि कहै चित्त धरि कीयौ राक्षस थकी हीयो काठौ १३को०. पोन्य पोते हुवै तेह जीपई सदा धरम न करै तिके धमधमीजै. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003819
Book TitleVinaychandra kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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