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________________ [ ४० ] यहाँ न मिला तो राजा ने सचिन्त होकर शुकराज से ही प्रार्थना की कि तुम्ही सब स्पष्ट अनुसंधान कहो ! उसने कहा- अनंगसेना ने देखा राज-जामाता को यों घर में रखना मुश्किल है अतः उसे सर्वदा अपने यहां रखने के लिये उसके पैर में मंत्रित डोरा बाँधकर शुक बना दिया। उसने शुक को स्वर्ण पिंजड़े में रखा। वह रात में उसे पुरुष और दिन में शुक बना देती है एवं गीतगान आदि से उसका मनोरंजन करती है। कुमार ने मन में सोचा-कर्मगति बड़ी विचित्र है! मैंने ऐसा क्या पाप किया जिससे मनुष्य भव में त्रियंच गति भोगनी पड़ती है। शायद मदालसा और पांचरत्न उसके पिता की आज्ञा बिना ग्रहण करने का तथा वृद्धा के आने पर त्रिलोचना से उसकी सखी पर स्वस्त्री जानकर क्षणिक मानसिक पाप किया तो उसी के फलस्वरूप साँप न डस गया हो ? कवि कहता है कि उत्तम पुरुष अपने थोड़े से अपराध को भी विशेष मानते हैं। . अनंगसेना के यहाँ रहते उसे एक मास हो गया आज वह दैवयोग से पिंजड़ा खुला छोड़कर किसी काम में लग गई। शुक ने पटहोद्घोषणा सुनकर उसे स्पर्श किया और इस समय वह आपके समक्ष उपस्थित है। राजा ने हर्षित होकर उसके पैर का डोरा खोला तो वह तुरत उत्तमकुमार हो गया। उत्तमकुमार को देखकर सर्वत्र आनन्द छा गया। मदालसा व त्रिलोचना के अपार हर्ष का तो कहना ही क्या ? सेठ माहेश्वरदत्त ने अपनी पुत्री सहस्त्रकला का कुमार के साथ पाणि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003819
Book TitleVinaychandra kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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