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________________ रहनेमि राजीमति स्वाध्याय निज प्राणपति कौ नाम जपती होत तृपती बाल । तहाँ मास पावस कइ उदै सैं अइस जगत कृपाल ||१|| इण भांति स सखि आयउ वरषाकाल, सउ तर वरनत कवि सुविसाल || आंकणी || सजि बुँद सारी हर्षकारी भूमि नारी हेत । भरलाय निर्भर भरत झरझर सजल जलद असेत || घन घटा गर्जित छटा तर्जित भये जर्जित गेह । ca cafe and hबकि भबकत बिच बिचि बीज कि रेह ॥२॥ अतर्हि अवाज गगन गाजइ वायु वाजइ त्युं हि । दिग चक्र झलकइ खाल खलकइ नीर ढलकर भुं हि ॥ हग श्याम वादर देखि दादुर रटत रस भरि रइन । वन मोर बोलइ पिच्छ डोलइ द्विरद खोलइ पुनि नइन ||३||३०|| उल्लसित हीयरौ करि पपीयरौ करत प्रिय प्रियु सोर । विरह सई पीरी अति अधीरी डरत विरहनि जोर अंधकार पसरइ वैर विसरs परस्पर भूपाल सर्वरी शंका देत डंका दिवसन मई घरीयाल ||४||३०|| जहाँ परत धारा अति उदारा जानि गृह जल यन्त्र स्वाधीन वनिता सौख्य जनिता करत कंत निमंत्र मदन के माते रंग राते रसिक लोक अपार इठि कइ गोखई मनई जोखई गावत मेघ पंचरंग चोपें अधिक ओपई इन्द्र धनुष सधीर । बक श्रेणि सोहर चित्त मोहर सर सरित के तीर ॥ मल्हार ||५||३०|| Jain Educationa International ७७ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003819
Book TitleVinaychandra kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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