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विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि तृष्णा सुं लागी राउ, पिण न भज्यउ संतोष । ऋ०।। ठावा मुझ माहे मिलइ, सगलाई जे दोष। ऋ० ॥४॥ कुमति घणी मुझ मन वसइ, सुमति थकी नहीं नेह ऋ०। . माठी करणी मां पड्यउ, हुं अवगुण नउ गेह । ऋ०॥५॥ वलि झूठी सांची करूँ, वातां तणउ विचार । ऋ०। । हुं लंपट नइ लालची, कपट तणउ नहीं पार । ऋ० ॥६॥ ढाकुं अवगुण आपणा, केहनी न करूं काण । ०। पर दूषण लेवा भणी, हुँ छू आगेवाण । ऋ० |७|| मिथ्यादृष्टि देव सुं, धरियउ पूरउ राग । ०।। अर्थ तणउ अनरथ कियउ, देखी नइ निज लाग । ऋ० ॥८॥ थिरकि रह्यउ निज घाट में, चंचल माहरउ चित्त । ०। संसारी सुख ऊपरइ, हीयड़उ हीसइ नित्त । ० ॥६।। जीव संताप्या मई घणा, पर आशाये वींध । भृ०। वलि रात्रि भोजन कस्या, काज अकारज कीध । ऋ० ॥१०॥ हिव हुं किम करि छूटिहुँ, कीधा करम कठोर । ऋ०। भव दुख मां हुं भीड़ीयउ, कोई न चालइ जोर । ऋ० ॥१॥ पिण इक शरणउ ताहरउ, लीधउ छइ जग तात । भृ०। देस्युं ताहरी सानिधइ, दुर्जन नइ सिर लात । ऋ० ॥१२॥ 'विनयचन्द्र' प्रभु तूं अछइ, सेव॒जय सिणगार । ऋ०। । चरण ग्रह्या मैं ताहरा, मुझ कुमति नइ तार । ऋ० ॥१३॥
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