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कुगुरु स्वाध्याय
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शास्त्र लिखावर जे वली रे हां, पिण न रहइ व्यवहार | व० | इम अधिकता कहइ रे हां, प्रवचन सारोद्धार | व० ||४|| ( बात करइ जे मारगै रे हां, उत्तराध्ययनइ तेह |०|) व्याख्यानादिक नित करइ रे हां, उपदेशमाल में तेह | व० । इत्यादिक आगम तणी रे हां, साख कही निसंदेह | व० ॥ ५ ॥ ढाल ५ यत्तिन
हिव तास प्रसंगइ जेह, ते पिण कहीयइ ससनेह |
उसन्नउ दुविध प्रकार, तसु अन्त पणइ व्यभचार ||१|| वलि भाख्यउ त्रिविध कुशील, नाण दंसण चरण निमील | बिहुँ भेद काउ संसत्तउ, शुभ अशुभ प्रकृति संपत्तउ ॥२॥ जह छंद लगइ ए पंच, सद्भाविक सगलउ संच । चिहुँ नउ निर्णय नवि कीधउ, स्वाभाविक फल गुण लीधर ||३|| परमातम ग्रहण विशेष, ते संग्रहिज्यो अवशेष । भाषित त्रिहुँ नइ अनुयाय, व्याकृति समयादिक न्याय || ४ || निज कल्पित दोइ प्रकार, शास्त्रादिक पंच उदार । पासत्थादिक सूं दूर,
तसु वन्दन ऊगत सूर ||५||
॥ कलश ॥
इम युक्ति साधन धरी चितमइ कीध सबल सरूपता । जाणिस्य तौ पणि तेह लहिस्यै प्रबल अनवच्छिन लता || उच्छेदि असमर्थक तणड मत विनयचन्द विख्यात ए । उपदिस सहु नी प्रार्थना वशि इण पर आख्यात ए ॥१॥ ॥ इति श्री कुगुरु स्वाध्याय: || सर्वगाथा ३१
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