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विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि
॥ दूहा ॥ प्रीति परस्पर जाणि नै, वेश्या थापी नारि ; तिण पणि कीधी आखड़ी, इण भवि ए भरतार ; १ हिव तेड़ी वनमालिका, करि नै बहुविध बंध ; नलिका मांहे व्याल नो, पूछयौ सहु संबंध ; २ बोलै मालणि बीहती, दोष न को मुझ स्वामि ; समुद्रदत्त मुझनै दीया, परिष पांचसै दाम ; ३ बोल कीयो जिण एहवौ, भूप जमाई मारि; तिण लोभे ए मैं धस्यो, नलिका सर्प विचार ; ४ राजा बिहुँ नै मारिवा, हुकम कीयो करि क्रोध ; कुमरै राख्या जीवता, देई अति प्रतिबोध ; ५ बिहु नो धन लूटी लियौ, देश निकालौ दीध ; उत्तम कुमर भणी, सइहथ राजा कीध ; ६
ढाल (८)
लटको थारो रे लोहणी रे, एहनी नृप हुवो वैरागीयो रे, जीता विषय कषाय ; खटको जेहना रे मनथी टल्यौ रे। आं० सेठ सहित संयम लीयौ रे, सद्गुरु पासै जाय ; ख० १ लोभ रहित जे मुनिवरा रे, निर्मल निरहंकार ; ख० बाल वृद्ध गीतार्थ नो रे, वेयावच करै सार ; ख० २
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