________________
ग्यारह अंग सज्झाय
(४) श्री समवायांग सूत्र सज्झाय
चाल - थांहरइ महलां ऊपरि मोर झरोखे कोइली हो लाल झरो० चथर समवायांग सुणौ श्रोता गुणी हो लाल | सु० पन्नवणा उवंग करी सोभा वणी हो लाल । क०) अर्द्धमागधी भाषा साखा सुरतरु तणी हो लाल । सा०| समकित भाव कुसुम परिमल व्यापी वणी हो लाल | प०||१|| जीव अजीव नइ जीवाजीव समास थी हो लाल कि जी० लहीयइ एह मां भाव विरोध कोई नथी हो लाल वि० भांगा तीन स्वसमयादिकना जाणीयइ हो लाल आदि० लोक अलोक नइ लोकालोक वखाणीयइ हो लाल कि लो० ||२|| एक थकी छ सत समवाय परूवणा हो लाल स० कोड़ाकोड़ि प्रमाण कि जाव निरूवणा हो लाल कि जा० बारस विह गणिपिटक तणी संख्या कही हो लाल त० शासता अर्थ अनन्त कि छइ एहना सही हो लाल कि० ||३|| सुयक्खंध अध्ययन उद्देशादिक भला हो लाल उ० संख्यायई एक एक प्रत्येक गुणनिला हो लाल प्र० पद एक लाख चउमाल सहस ते उत्तरा हो लाल स० पद नइ अग्र उदय संख्याता अक्खरा हो लाल सं० ||४|| भाष्य चूर्णि निर्युक्ति करी सोहइ सदा हो लाल क० सुणतां भेद गंभीर त्रिपति न हुबइ कदा हो लाल तृ० हेज न मावइ अंग कि अंतरगति हसी हो लाल कि अं० जल वसंत जोर कि कुण न हुवइ खुसी हो लाल किकु० ||५||
Jain Educationa International
८६
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org