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विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि
(३) श्री स्थानांग सत्र सज्झाय
ढाल-आठ टके कंकणो लीयो री नणदी थिरकि रही मोरी वाँह एदेशी त्रीजउ अंग भलउ काउ रे जिनजी, नामइ श्री ठाणांग। मोरो मन मगन थयउ । हां रे देखि देखि भाव,
हां रे जिहां जीवाजीव स्वभाव मो०। आंकणी ।। सबल युगति करि छाजतउ रे जिनजी, जीवाभिगम उपांग ॥१॥ एह अंग मुझ मन वस्यउ रे जिनजी, जिम कोकिल दिल अंब। गुहिर भाव करि गाजतउ रे जिनजी, आज तउ एह आलंब ॥२॥ कूट शैल शिखरी शिला रे जिनजी, कानन नइ वलि कुण्ड ।मो० गह्वर आगर द्रह नदी रे जिनजी, जेहमां अछइ उद्दण्ड मो० ॥३॥ दश ठाणा अति दीपता रे जिनजी, गुण पर्याय प्रयोग मो०। परित्त जेहनी वाचना रे जिनजी, संख्याता अनुयोग ॥४॥ वेष्ट सिलोक निजुत्तिते रे जिनजी, सगहणी पडिवत्ति ।मो। ए सहु संख्याता इहां रे जिनजी, सुणतां उल्लसइ चित्त ।मो० ॥ सुयक्खंध एक राजतउ रे जिनजी, दश अध्ययन उदार मो०। उद्देशा एकवीस छइ रे जिनजी, पद बहोत्तर हजार मो० ६।। रागी जिन शासन तणा रे जिनजी, सुणइ सिद्धांत वखाण मो०। विनयचन्द्र कहइ ते हुवइ रे जिनजी, परमारथ ना जाण |मो०७।।
॥ इति श्री स्थानांग सूत्र स्वाध्यायः॥
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