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सझाय व अन्य फुटकर रचनाएँ हैं जिसकी प्रशस्ति इसी पुस्तक पृ० ६८ में दी गई है। दूसरी प्रति ७ पत्रों की है, जिसमें ११ अंग सकाय, दुर्गति-निवारण सफाय व पार्श्वनाथ स्तवन है जिसकी लेखन प्रशस्ति इस प्रकार है :
" संवत् १७६७ रा फागुन सुदि १० शनिवारे श्री जैसलमेर दुर्गे लिखितमस्ति श्राविका मूली बाई पठनार्थ ||श्रीरस्तु || "
एक फुटकर पत्र में नयविमल रचित शत्रुंजय के २ स्तवनों के बाद विनयचन्द्र रचित संभवनाथ स्तवन है । यह पत्र पुण्यचंद्र ने सुश्राविका पुण्यप्रभाविका तत्वार्थ गुण भाविका झम्मा वाचनार्थ लिखा है । अन्य फुटकर पत्र में कुगुरु स्वाध्याय गा० ३१ की है वह कवि के स्वयं लिखित पत्र विदित होता है क्योंकि इसमें ऊपर व किनारे में पाठवृद्धि व पाठान्तर भी लिखे हु हैं, सम्भवतः यह रचना का खरड़ा या प्रथमादर्श होगा। और एक फुटकर पत्र में गौड़ी पर्श्व स्तवन और सूरप्रभ स्तवन मुनि हरिचंद्र के श्राविका आसां पठनार्थ लिखित प्राप्त है । कुगुरु सझाय हमारा अनुमान है कि यदि कवि के स्वयं लिखित है तो उनके हस्ताक्षर बहुत सुन्दर थे और उसकी प्रतिकृति इस ग्रंथ भी दी जा रही है। शिष्य परिवार
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कवि विनयचंद्र के कितने शिष्य थे और उनकी परम्परा कब तक चली ? साधनाभाव में यह बतलाना असम्भव है पर ज्ञानसागर कृत चौबीसी पत्र ७ की प्रशस्ति से मालूम होता है कि आपके एक शिष्य विनयमन्दिर और उनके शिष्य खुस्यालचंद्र
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