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[ १२ ] थे। नंदि अनुक्रम पत्र के अनुसार इन विनयमंदिर का पूर्वनाम अमीचंद था और सं० १७६६ मिती ज्येष्ठ बदि ५ को बीकानेर में दीक्षा हुई थी। इस प्रशस्ति में से विदित होता है कि कविवर के गुरु वाचनाचार्य एवं कवि स्वयं सं० १७७२ से पूर्व गणि पद विभूषित हो चुके थे। यहाँ उपर्युक्त प्रशस्ति की नकल दी जा रही है :
“संवत् १७७२ वर्षे मिती ज्येष्ठ सुदी १ रविवारे श्री राजनगरे वा० ज्ञानतिलक गणि शिष्य विनयचन्द्रगणि शिष्य विनयमंदिर शिष्य चिरं खुस्यालचंद लिखितं ॥ साध्वी कीर्तिमाला शिष्यणी हर्षमाला पठनार्थ ।। श्रीरस्तुः ।। शुभं भवतुः।।" भक्ति व काव्य प्रतिभा
कविवर का हृदय जिनेश्वर भगवान के भक्ति रस से ओत प्रोत था। चौबीसी, वीसी एवं स्तवनादि में आपने बड़े ही मार्मिक उद्गार प्रगट किये हैं। आपने अपनी कृतियों में कहीं सरल भक्ति, कहीं उत्प्रेक्षाएँ और वक्रोक्तिपूर्ण उपालंभ देते हुए विभिन्न रसों की भाव धारा प्रवाहित की है । भाषा प्रौढ और सटंक शब्दयोजना, फबती हुई उपमाएँ पाठकों के मन को सहज ही आकृष्ट करने में समर्थ है। यहाँ कुछ थोड़े से अवतरण पाठकों के रसास्वादनार्थ उद्धत किये जाते हैं।
"नयणे नयण मिलायने रे, जिन मुख रहीयइ जोय - तउ ही तृप्ति नहीं पामियइ रे, मनसा बिवणी होय"
[ ऋषभदेव स्त०]
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