SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १३ ] जिम गोपी मन गोविन्द रे लाल, गौरी मन शंकर वसइ वलि जेम कुमुदिनी चंद रे लाल शांतिनाथ स्त०] नेह अकृत्रिम मंइ कियउ रे, कदे न विहड़इ तेह दिन दिन अधिकउ उलटइ रे, जिम आषाढ़ी मेह [ कुंथुनाथ स्त०] श्री मुनिसुव्रत स्वामी के स्तवन में प्रभु को उपालम्भ देते हुए कवि कहता है कि हुं रागी पिण तुं अछइ जी, नीरागी निरधार । मावै नहीं इक म्यान मइंजी, तीखी दोइ तरवार ।। जाणपणउ मई जाणियउ जी, जिनवर ताहरउ आज । तक ऊपर आव्यउ हतोजी, ते नवि राखी लाज ॥ जे लोभी तुझ सरिखाजी, वंछित नापइ रे अन्त । मुझ सरिखा जे लालचीजी, लीधा विण न रहंत ।। xxxx नेमजी हो मुगति रमणि मोह्या तुम्हे हो राजि, पिण तिण मां नहिं स्वाद। नेमजी हो तेह अनंते भोगवी हो राजि, छोड़उ छोकरवाद । [नेमिनाथ गीत पृ० ६०] कविवर ने उपमाओं एवं लोकोक्तियों को अपनी कृतियों में खचित करके उन्हें हृदयग्राही बना दिया है। यहाँ थोड़े से अवतरण प्रस्तुत किये जाते हैं :"साकर मां कांकर निकसइ ते साकर नौ नहिं दोष" [विमलनाथ स्तवन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003819
Book TitleVinaychandra kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy