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श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई
१८३ पोपट अंतर हीय म राखो आगै भाखौ,
थास्यइ मन कंपई रे लो; मा० ११ पंडित ते निज बोल्यो पाले कुल उजवालै,
तुझ सरिखा गुणवंता रे लो ; मां० जो नवि आपै तो हुं जास्यु फेर न आस्यु,
मांनु पहुँची कंता रे लो ; मां० १२ स्वादवंत फलनो आहारी रहुँ वनचारी,
इण परि काल गमासुरे लो; मां० ढाल पांचमी ए थई पूरी बात अधूरी,
विनयचन्द्र इम भास्यु रे लो; मां० १३
॥ दहा ॥ मैं जाण्यो नर हुवै अधम, माया कपट निधान ; स्वार्थ करी जायै नटी, तुम सरिखा राजान ; १ ऊडेवा नै सज्ज थयौ, नृप झाल्यौ ततकाल ; देईसि राज सुधीर धरि, वर पंडित वाचाल ; २ उत्तमकुमर किहाँ अछै, आगलि कहि वृतांत ; जीवै छै किंवा मूऔ, भांजि भांजि मन भ्रांत ; ३ वली वचन कहै सूवटो, जो तिल मां तेल न होय; तो वेल्लू में किहाँ थकी, राय विचारी जोय ; ४ एतली बात कह्यां थका, जौ तु नापै राज; आगलि कह्यां हुवै किसु', कंठ शोष स्यौ काज ; ५
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