SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तमकुमार रास सार प्रारम्भ में एक संस्कृत श्लोक द्वारा विनायक को नमस्कार किया गया है जो प्रति लेखक द्वारा लिखा हुआ है। रास के प्रारम्भ में १३ दोहों में ॐकार, सरस्वती और दादा श्री जिनकुशलसूरिजी को नमस्कार कर सुपात्रदान के अधिकार में उत्तमकुमार चरित्र रचना प्रस्ताव रखते हुए कवि श्रोताओं से बातचीत और कुमति क्लेश त्याग करने का निर्देश कर चरित्र का प्रारम्भ करता है। काशी देश स्थित वाराणसी नगरी का वर्णन करते हुए कवि लिखता है कि उस अलकापुरी के समकक्ष नगरी में ऊँची अट्टालिकाएँ, चारों ओर दुर्ग, चौरासी चौहटे और दण्ड-कलश युक्त जिनालय हैं जिन पर ध्वजाएँ फहराती हैं। इस नगरी के पुरुष देव और स्त्रियाँ अप्सरा तुल्य हैं। जल से लबालब भरे हुए सरोवरों में हंस आदि पक्षी कल्लोल करते है, फल फूलों से लदे हुए वृक्ष बारहों मास हरे भरे रहते हैं, टहूका करती हुई कोयल एवं अन्य पक्षी गण निर्भीक निवास करते हैं। इस नगरी का राजा मकरध्वज शूरवीर और दयालु था। राजा का वास्तविक गुण क्षमा ही है, यह बतलाने के लिए कवि ने निम्नोक्त दोहा उद्धत किया है : "उदै अटक्कै भूप नहीं, पहिरस्यां नांही रूप । खूद खमै सो राजवी, निरख सहै सो रूप ॥" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003819
Book TitleVinaychandra kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy