SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १३१ लोकां ने कहै हुँ परदेशी, कीधो भाग्य सहाई, तो देखीजै केलि कुतूहल, खोड़ि नहीं छै काई ; ४ च० प्रथम तजि गृह ते चीत्रोड़े, जाई सगुणता पाई ; राज तिहां महसेन दियो पणि, न लीयो लोभ समाई ; ५ च० छोडाव्या नर रात्रिंचर स्यु, करि नै सबल लड़ाई; सांप्रत पाणी परगट कीधउ, सहु जाणे सुघडाई ; ६ च० हिव आगै स्यु थासी ते पिण, देखीजे मन लाई ; धरि हुँति अभ्यास अछै मुझ, करवी सहु सुं भलाई ; ७ च० चाल्यो तिणहीज द्वार थई नइ, मन मां आणि जिकाई; पांचे रंग तणा पाहण नी, बांधि वाट विछाई ; ८ च० कंचन में सोपान सुपेखित, रोमराइ उलसाई ; आगै एक भुवन अति सुंदर, वसुधा जाणि हसाई ; ६ च० रतन जड़ित अंगण तसु दीस, अधिकी जास सफाई ; भूमि प्रथम सोवन मां मंडित, विकसित रहै सदाई ; १० च० जोतां कुमर इसी पर बीजी, भूमि चढ्यौ वलि जाई ; ते पिण मणि माणक मां मंडित, तिहाँ रहै चित लोभाई; ११च० तीजी मुक्ताफल दीपति, तिम चौथी मन भाई ; वलि पांचमी छट्ठी मन मोहै, सातमी भूमि सुहाई ; १२ च० दसमी ढाल थई ए पूरी, विनयचन्द्र चतुराई ; सुणिज्यो आगलि कुमर कुतूहल, तजि मन विघन बुराई;१३च० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003819
Book TitleVinaychandra kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy