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________________ [ १८ । कोक परि विहू बोक करतो, विरह कलणइ हुँ कली। काढियइ तिहाँ थी बांह झाली, करूणा रसनइ अटकली।। अकुलाय धरणि तरुणि तरणी, किरण थी, शोषत धरै । उपपति परइ घन कन्त अलगु, करी घन वेदन करें ।। तिम तुम्हें पणि विरह तापइ, तापवउ छउ अतिघणुं । चांदणी शीतल झाल पावक, परई कहि केतउ भणु ॥ वीररस-कार्तिक काती कौतुक सांभरइ, वीर करइ संग्रामो जी। विकट कटक चाला घणु तिम कामी निज धामोजी।। निज धाम कामी कामिनी बे, लड़इ बेधक वयण सुं। रणतूर नेउर खड्ग वेणी, धनुष-रूपी नयण सुं॥ भयानक मगसिर भयानक रसइ भेदिय, मगिसिर मास सनूरो जी। मांग सिरहि गोरी धरइ, वर अरुणि मां सिन्दूरो जी ।। सिन्दूर पूरइ हर्ष जोरइ, मदन झाल अनल जिसी । तिहां पड़इ कामी नर पतंगा, धरी रंगा धसमसी। अद्भुत हेमन्त व माघ माघ निदाघ परइ दहै, ए अद्भुत रस देखुं जी। शीतल पणि जड़ता घणु, प्रीतम परतिख पेखु जी॥ - फाल्गुन सहज भाव सुगन्ध तैलई, पिचरकी सम जल रसई । गुण राग रंग गुलाल उड़इ, करुण ससबोही वसइ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003819
Book TitleVinaychandra kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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