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११६ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि देसी धणरी सोरठी होजी, तिण में तीजी ढाल ; रसीया मन रमी, कहतां हीज मन मां गमी होजी,
विनयचन्द्र सुविशाल ; १५ र०
॥हा॥ राज करंता राजवी, गेह गिणे मृग पास ; पुत्र तणी यौवन पणे, काय न पूगी आस ; १ सुखिया देखि सकै नहीं, दोषी दैव अकज्ज ; संपति द्य तो सुत नहीं, इण परि करै निर्लज्ज ; २ वई बूढो अंगज पखै, रहै मन मांहि उदास ; गृह जाणै सूनो सहु, दिन दिन थाय निरास ; ३ इक अवनीपति सुत विना, वलि वैस्यां में वास; नदी किराडै रूखड़ा, जद तद होइ विणास ; ४ दैव मनायां नवि थयौ, खरची धननी कोड़ि; तो कोई कारण अछै, का तन मांहे खोड़ि ; ५
ढाल ४ हमीरा नी किणही आस फली नहीं, तेह करमनी बात राजनजी विण सरज्यां सुत किम हुवै, जो जमवारो जात रा० १ कि० इम मन माहे चीतवी, पोताने परिवार रा० जायै वन में अंतरै, मंत्रि प्रमुख लेइ लार रा० २ कि० नील वरण हयवर ऊपरै, राज थयो असवार रा० सहु गुण लक्षण पूरीयौ, ते हयवर श्रीकार रा० ३ कि० पणि गति भंग करे घj, महीपति पूछ ताम रा० मुंहता नवलि किशोर नी, केम अवस्था आम रा०४ कि०
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