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६२ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि उत्तंग गिरिवर प्रवर फरसत, मेघ वरषत जोर । दमकती दामिनि बहुर भामिनी, चमकती तिहिं ठोर।। प्रियु प्रियु पपीयन रटत प्रगटत, पवन के झकझोर । इस मास सावन दिल दिढावन, सजन मानि निहोर ॥२ आoll दिहुँ दिसइ जलधर धार दीसत, हार के आकार । ता वीचि पहुवै नहीं कबही, सूई को संचार ॥ सा लगत है झरराट करती, मध्यवरती बान । भर मास भाद्रव द्रवत अंबर, सरस रस की खान ॥३ आ०|| सरसा सरोवर विमल जल सै, भरे हैं भरपूर । लख लोल करत हिलोल हर्षित, हंस पक्षि पडूर ।। चन्द्र की शीतल चन्द्रिका से, विकासई निशि नूर । आसोज मास उदास अबला, रहत तो बिनु झूरि ॥४ आ०॥ संयोगिनी को वेष देख्यउ, तब उवेख्यउ कंत । शृंगार शोभत सहल अंगइ, महल दीप दीपंत ।। उनमत पीवर अति घन स्तन, मध्य मुकुलित माल। सखी मास काती दहत छाती, माल तौ भई झाल |शाआका सिव रमनि संगति सई उमाहे. जात काहे दउरि । निज नारी प्यारी आसकारी, दीजियत फ्यु छोरि ॥ वनवास कीयइ भेष लीयइ, भला न कहु तोहि । इन मार्गसिर भई मार्ग सिर परि, देखि दुखिनी मोहि ।।६। आगा अति दिवस दुबल सबल दोषाकान्त निशिपति ज्योति । संकुचित हिम हिम कठिनता सई, कमल लटपट होत ।।
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