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________________ चतुर्विंशतिका ते शिव बंदिर अनुभव मन्दिर सद्गुण सुन्दर तिहां छइ संभव स्वामि रे लो॥ मा०॥१॥ तिण दिशि लेख लिखइ प्रेमातुर चित नउ चातुर आतुर प्रेम प्रयासइ रे लो । मा०। प्रभु नइ प्रीति प्रतीत दिखाली रीति रसाली, पाली सेवक भासइ रे लो ॥ मा०॥२॥ सुगुण सनेही अरज सुणीजइ सुनिजर कीजइ, दीजइ दरस उमाही रे लो। मा० । मुझ चित्त माहें ए छइ चटकउ तुझ मुख मटकौ, . लटको दोसइ नाही रे लो । म० ॥३॥ तुतउ मोसु रहइ निरालउ, माया गालउ, इम टालउ किम कीजइ रे लो ॥ मा०॥ पोतानउ सेवक जाणीनइ हित आणीनइ, चित ताणी नइ लीजइ रे लो। म०॥४॥ निगुण थयां तउ नेह न व्यापइ मन थिर थापइ, तउ आपइ नवि डोलुं रे लो। मा० । बात कहुं वेधाले वयणे विकसित नयणे, गुण रयणे जस बोलु रे लो। मा० ॥५॥ कहतां कहतां सोहन वाधइ मोह न बाधइ, . साधइ कारिज तेही रे लो । मा० । मौन करइ जे मननी खांतइ बक दृष्टान्ते, . भ्रान्तइ रहत सनेही रे लो। मा० ॥ ६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003819
Book TitleVinaychandra kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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