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स्थूलिभद्र सज्झाय हुं गुफावासी नित उदासी रहत हुँ इन ठोर। स्याबास तोकुं मिली मोकुं चित लीयउ तें चोर ॥ भोगकउ हुं तउ अति भिख्यारी करौ प्यारी प्यार। अब विरह टारौ हृदय ठारौ मिलौ मिलौ प्रान आधार ।।१२।।इ तब चीर पहिरई सबद गुहिरइ अंग करिकइ गूढ़। राजुल सयांनी वदत वानी सुनि अग्यानी मूढ ।। मुनि मागे मूंकइ चित्त चूकइ वृथा तुं इन वैर। क्युं ब्रत विगोवइ लाज खोवइ रहि रहि जियकु फेरि ॥१३॥ ३०॥ निद्रान्ध सिंधुर बहुत बन्धुर उर्द्ध कन्धर होय । जब धरत अंकुश सिर महावत ठौर आवत सोय ।। त्यु सदुपदेश विशेष देकर विमल एकइ वइन । बूझव्यौ सो रहनेमि विषयी गई जहां यदुपति सईन ॥१४||३० ॥ यु सुलभ बोधी आत्म सोधी गये मुगति मझार । कलियुग उमगई नाम जाकउ लेत है संसार ।। धरि ज्ञान अन्तर दशा सुदसा मनह मच्छर छोड़ि। कवि विनयचन्द्र जिनेन्द्र भावै जपत है कर जोरि ॥ १५ ॥३०॥
इति श्री रहनेमि राजीमत्योः स्वाध्यायः ॥ श्री स्नेह निवारणे स्थलिभद्रमुनि सज्झाय ॥
राग-केदारो, ढाल-मेरे नन्दना, एहनी सांभलि भोली भामिनी रे हां, परदेशी नै साथ । नेह न कीजिये। भमर तणी परि जे भमै रे हां, ते नहीं केहनै हाथ ॥ नेह० ॥१॥
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