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चतुर्विशतिका तुं सद्भाव तणौ छइ धारक,
दुष्ट दुरासय नौ निर्वारक म०।। तिण कारण माहरौ मन लागौ,
भेद अपूरव सहजइ भागउ म०॥२॥ देव अवर सुं जे रहइ राता,
तेहनइ तउ छइ परम असाता ॥ म०॥ इम जाणी मुझ मन ऊमाहइ,
तुझ मुख कमल नरषिवा चाहइ ॥म०॥३॥ तुं छइ माहरह सगुण सनेही,
तउ करो पड़वज कीजै केही ।। म०॥ पिण तु मुगति महल मां वसियउ,
____ संपूरण समता गुण रसियउ ।।म०|४|| अवसर आयइ नवि संभारइ,
__केम भवोदधि हेलइ वारइ । म०॥ हिव हुं निश्चल थइ नइ बैठउ, ।
__ अनुभव रस मन मांहे पश्ठउ ।।म०।५।। जे खल नइ गुल सरिखा जाणइ,
ते स्यु नवलौ नेह पिछाणइ । म०॥ इण हेतइ माहरउ मन फिरियउ,
___ जाणे पवन हिलोल्यउ दरियउ ।।म०॥६॥ साची भगति कीधी मई ताहरी,
तउ मन इच्छा पूरउ माहरी । म०।। विनयचन्द्र कहै ते गुणवंता,
जे टालै मनड़ानी चिन्ता ||म०॥७॥
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