________________
१५४
विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि तँ भद्रक परिणाम थी जी, सुविशेषै मन लाय ; ऊपरलै आडंबरे जी, राचि रहयो मुरझाय ; ७ न० प्रीतम मारा भमरलां जी, कांइक कीजै संक ; फुल्या दीसै फुटरां जी, आफु आडै अंक ; ८ न० नास थयौ जीवतव्यनौ जी, पिण सी पूगी आस ; तें कल्पद्रुम जाणि नै जी, सेव्यो निगुण पलास ; हन० लाज न आवै एहनें जी, वलि न करे निज सूल ; मुख कालो करि नै रह्यो जी, जिम केसूनो फूल ; १० न० यतः-धन्ना होइ सुलखणा, कुसती होइ सलज ; खारा होइ सीयला, बहु फल फलै अकज ; ११ न० हा हा हिवहुं किम रहुँ जी, ताहरइ विण खिण मात्र ; विरह व्यथा नी माहरे, हीयड़े बूही दात्र ; १२ न० बीजै अधिकारई करै जी, ढाल छट्ठी बहुलाज ; विनयचन्द इम उपदिस जी, रोयाँ नावै राज ; १३ न०
॥ दूहा ॥ वारंवार मदालसा, कहै निसासा नांखि किण आधारै जीविय, छेदी मांहरी पांख १ इवड़ा बखत किहां थकी, कायम रहै सोभाग सिर कदि आवै माहरै, अंगूठानी आगि २ पंखिण पंखी वीछडै, जिम शोकातुर थाय ; तिम कुमरी नै पिउ बिना, खिण इक खिण न सुहाय ३
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org