________________
१८ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि हारे लाला तूं रसियउ बातां तणौ,
सुणिनै नवि द्य को जबाब रे लाल । मन मिलीयां बिन प्रीतड़ी,
कहो नइ किम चढियइ आब रे लाल।। ५मा० ॥ हारे लाल निज फल तरुवर नवि भखइ,
सरवर न पियइ जल जेम रे लाल । पर उपगारइं थाय ते, तु पिण जिनजी हुइ तेम रे लाल ॥६ मा०॥ घणुं २ कहिये किसुँ, करिजे मुझ आप समान रे लाल । रयणि दिवस ताहरउ धरइ,
कवि 'विनयचन्द्र' मन ध्यान रे लाल ७ मा०।। || श्री कंथनाथ स्तवनम् ॥
___ ढाल-ईडर आंबा आंमली रे बहु दिवसां थी पामियौ रे, रतन अमोलख आज। जतने करि हुँ राखस्यु रे, जगवल्लभ जिनराज ॥१॥ मोरइ मन जाग्यउ राग अथाग, मई तउ पाम्यउ वारू लाग। माहरउ छइपिण मोटउ भाग, करस्युं भवसागर त्याग ।।आंकणी।। अणमिलियां हुँ जाणतउ रे, जिनवर केहवा होय । मिलियां जे सुख उपनउ रे, मन जाणइ छइ सोय ॥२ मो० ॥ मई साहिब ना गुण लह्या रे, आणी पूरण राग। कोइल आंबा गुण लहै रे, पिण स्यु जाणै काग ।। ३ मो० ॥ जे वेधक सहु बातना रे, गुण रस जाणइ खाश । मूरख पशु जाणइ नहीं रे, सेलड़ो कड़ा मिठास ॥४ मो० ॥
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org