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________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई परणी मैं छानै लज्जा करि कानै । मां० । 1 सायरमां तिण पाप रे, सागरदत्त नांख्यौ, राक्षस केरी पुत्री रे म हरी । धिग धिग मुझनै रे पांच ग्रह्मा मणी | मां० । निजकृत कर्म चाख्यौ ॥ ११ ॥ मां० ॥ पापी मुझ सरिखो, नहीं कोई रे परखो । मां० । १८७ राक्षसना अणदीधा रे । Jain Educationa International विनयचंद्रनी कीधरे, श्रवण सांभलजो, एतो छुट्टी रे ढाल सुहामणी । मां० । पातक थी टलज्यो ।। १२ ।। मां० ॥ ॥ दूहा ॥ तिम त्रिलोचना नै घरे, आवी वृद्धा नारि ; मैं पूछयौ एकुण अछे, मुझ प्रिया तिण वार ; १ सखी बतावी तेहनै, मुझ नारी मैं जाणि, राग बुद्धि क्षण इक करी, हुं थयो मूढ अजाण, ; २ मोटो पातक मन तणो, मुझनै लागो तेह ; सर्प डस्यो ति वार थी, श्री जिनवर नै गेह ; ३ ढाल (७) सासू काठा गेहूं पीसाय आपण जास्युं प्रेम सुं सोनारि भणै, नर फीटी हो थयौ तिरयंच पातकि वृक्ष कुसुम सही; सुक एम भणै For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003819
Book TitleVinaychandra kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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