Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः
भाग
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
आगम १३ “राजप्रश्नीय" मूलं एवं वृत्ति:
मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब
अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
पूज्य शासनप्रभावक आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से
'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
श्री आगम मंदिर
पालिताणा
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
ਚਾਰ
ਰਜਕ
ਕਾਰਕਸ
ਹਸ ਹ नमो नमो निम्मलदसणस्स
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव संकलनकर्ता
353
-पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
प्रत-प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 982559885579825306275 |
~3~
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
ਸਤਰੰਗ ਭਾਗ ਵਾਗ
ਤਸਕ
ਗਲ
आगम
L
. वाचना शताब्दी वर्ष
ਪਹਿਲ ਕੀਤਾ ਯਸ਼ ਰਾਜ ਮਹਿਲ ਕਲਾਂ ਨੂੰ ਸਭ ਕੁਹਾੜਾ ਸ਼ ਸ਼ ਸ ਹ ਕ ਖ ੜ ਸ਼ ਹੈ
ਜਾ
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
[भाग-१५] श्री राजप्रश्नीय (उपांग) सूत्रम् - २
नमो नमो निम्मलदंसणस्स
पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित - सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः
“राजप्रश्नीय” मूलं एवं वृत्ति:
[मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ]
[आद्य संपादकश्री]
पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा.
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह )
पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.श्रुतमहर्षि)
28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५
'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि श्रेणि भाग-१५
->
श्री आगमोद्धारक-वाचना- शताब्दी वर्ष निमित्त 'आगम-वृत्ति - मुद्रण- प्रोजेक्ट'
~5~
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब |
.जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक् श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक : | अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी । गरुभक्ति बद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है।
.चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज
एकासणा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, । प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण-न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए।
.एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक
हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और निर्यक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया : || फिर पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और । : "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ |
.सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अवचूरी, संस्कृत-छाया आदि का | • भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो : की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की। |
.ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं। को प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे | सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था |
. सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ८७० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | ...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"...
......मुनि दीपरत्नसागर... . -.. -.. -..
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक । | पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या । शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हुए पुन्य के • साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य-परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेल दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि : आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही | रटण बारबार चालु हो गया- “अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनु शरण' इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे : | समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना |
... मुनि दीपरत्नसागर.... ... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक-प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुइ । पूज्य आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ । शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन-प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुजय-गिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां : |४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्षों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस-पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण | : के शास्त्र वर्णन-अनुसार आगम-मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है | ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है।
*मुनि दीपरत्नसागर... -.. -.. -.. -.. -..
~7~
.
.
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
.
____ 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब
पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं | समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर
का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के | पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का : परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई | ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है।
- मुनि दीपरत्नसागर
[कात्रजपूना, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब
(एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र
परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब
इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ :-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
मूलाका: ४३+३०
राजप्रश्नीय (उपांग) सूत्रस्य विषयानुक्रम
दीप-अनुक्रमा: ७
मूलांक:
विषय:
पृष्ठाक:
मुलांक:
विषय:
पृष्ठांक:
०१-४७
|४८-८५
२३८
०१० ०१०
०३६
सूर्याभदेव-प्रकरणं -आमलकल्पा नगरी -सूर्याभदेवस्य विमान, सभा,
पर्षदा, भगवद वंदन, -दिव्यविमान विकुर्वणा, नृत्य -सिध्धायतन: एवं... ...जिनप्रतिमा-अधिकार:
प्रदेशिराजन्-प्रकरणं -सूर्यकान्तादेवी, श्रावस्तीनगरी -केशिकुमारस्य धर्मदेशना, -प्रदेशीराज्ञ:...... .....केशिकुमार सार्धं धर्म-वार्ता -प्रदेशिराजस्य समाधिमरणं -सूर्याभविमाने उत्पत्ति:
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय" - उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
॥ अहम् ॥ श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविहितविवृत्तियुतं श्रीमद्राजप्रश्नीयमुपाङ्गम् ॥
॥ॐ नमः॥ प्रणमत बीरजिनेश्वरचरणयुगं परमपाटलच्छायम् । अधरीकृतनतवासवमुकुटस्थितरत्नरुचिचक्रम् ॥१॥ राजप्रश्नीयमहं विवृणोमि यथाऽऽगमं गुरुनियोगात् । तत्र च शक्तिमशक्तिं गुरवो जानन्ति का चिन्ता ? ॥२॥
अथ कस्मादिदमुपाङ्ग राजप्रश्नीयाभिधानमिति ?, उच्यते, इह प्रदेशिनामा राजा भगवतः केशिकुमारश्रमणस्य समीपे यान् जीयविषयान् प्रश्नानकात्,ि यानि च तस्मै केशिकुमारश्रमणो गणभव व्याकरणानि व्याकृतवान् , यच व्याकरणसम्यकपरिणतिभावतो ISबोधिमासाथ मरणान्ते शुभानुशययोगतः प्रथमे सौधर्मनानि नाकलोके विमानमाधिपत्येनाधितिष्ठत् , यथा च विमानाधिपत्य-II
प्राप्त्यनन्तरं सम्यगवधिज्ञानाभोगतः श्रीमदर्धमानस्वामिनं भगवन्तमालोक्य भक्त्पतिशयपरीतचेताः सर्वस्व सामग्रीसमेत इहावतीय भगवतः पुरतो द्वात्रिंशविधि नाट्यमनरीनृत्यत् , नर्तित्वा च यथाऽऽयुष्कं दिवि मुखमनुभूय ततश्चयुत्वा यत्र समागत्य मुक्तिपदमवा
प्स्यति, तदेतत्सर्वमस्मिन्नुपाङ्गेऽभिधेयं, परं सकलवक्तव्यतामूलं राजपनीय इति-राजप्रश्नेषु भवं राजप्रश्नीयं । अथ कस्याङ्गस्येदKIमुपाङ्ग, उच्यते, सूत्रकृताङ्गस्य, कथं तदुपाङ्गतेति चेत् , उच्यते, मूत्रकृते झङ्गे अशीत्यधिकं शतं क्रियावादिनां, चतुरशीति
रक्रियावादिना, सप्तपष्टिरशानिकाना, द्वात्रिंशदैनयिकानां, सर्वसख्यया त्रीणि शतानि त्रिपष्टयधिकानि पाखण्टिकशतानि प्रतिक्षिप्य
अनुक्रम
REaratini
| वृत्तिकारश्री कृत् शाश्त्र-प्रस्तावना
~10~
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[8]
दीप
अनुक्रम
[3]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
॥
श्रीराजमश्री मलयगिरीया वृत्तिः
॥ १ ॥
Jan Eucat
स्वसमयः स्थाप्यते, उक्तं च नन्यध्ययने- “सुरंगडे गं अभीयस किरिआवाईणं चतुरासीई अकिरियाबाईणं सत्तट्टी अण्णाणियवाईणं बत्तीसा वेणइयवाईणं तिष्टं तेवद्वाणं पासंडियसवाणं जियूहं किया ससमए अविज्जई"ति, प्रदेशी च राजा पूर्वमक्रियावादिमतभावितमना आसीत्, अक्रियावादिमतमेव चावलन्न्य जीव विषयान् प्रभानकरोत् केशिकुमारश्रमणथ गणधारी सूत्रकृताङ्गसूचितमक्रियावादिमतप्रक्षेपमुपजीव्य व्याकरणानि व्याकार्पित ततो यान्येव सूत्रकृताङ्गसूचितानि कैशिकुमारश्रमणेन व्याकरणानि व्याकृतानि तान्येवात्र सविस्तरमुक्तानीति सूत्रकृताङ्गगतविशेषप्रकटनादिदमुपाङ्ग सूत्रकृताङ्गस्येति । एतद्वक्तव्यता च भगवता वर्द्धमानस्वामिना गौतमाय साक्षादभिहिता, तत्र यस्यां नगर्यो येन प्रक्रमेणाभ्यधीयत तदेतत्सर्वमभिवित्सुरिदमाह
ते काले णं ते णं समए णं आमलकप्पा नामं नयरी होत्या, रिद्धत्थिमियसमिद्धा जाव पासा दीया दरिसणिजा अभिरुवा पडिरुवा (सू० १) ॥ तीसे णं आमलकप्पाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए अंबसालवणे नामं चेइए होत्था, पोराणे जाव पडिब्बे ( सू २)
' ते णं काले णं ते णमित्यादि ' 'ते' इति प्राकृतशैलीवशाचस्मिन्निति द्रष्टव्यं अस्यायमर्थो यस्मिन्काले भगवान् वर्द्धमानस्वामी स्वयं विहरति स्म तस्मिन्निति, 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे, दृष्टवान्यत्रापि शब्दो वाक्यालङ्कारार्थो यथा- 'इमा णं पुडवी' इत्यादाविति, 'काले' अधिकृतावसर्पिणीचतुर्थविभागरूपे, अत्रापि शब्दो वाक्यालङ्कृती, 'ते णं समए णं समयोऽवसर' १ मुरुते अशीतं शतं क्रियावादिनां चतुरशीतिमकिपावादिनां समष्टिमज्ञानिकानां द्वात्रिंशतं वैनयिकवादिनां त्रयाणां त्रिपष्टयधिकानां पाखण्डिकशतानां निर्मूड फत्वा स्वसमयः स्थाप्यते ।
आमलकल्पानगरी एवं आम्रशालवन चैत्यस्य वर्णनं
For Parts Only
~ 11~
आमलक
ल्पावर्णनं
मृ० १
आम्राशाल
वर्णनं
मृ० २
॥ १ ॥
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
चाची, तथा च लोके वक्तारो-नाद्याप्येतस्य वक्तव्यस्य समयो वर्चते, किमुक्तं भवति ?-नावाप्येतस्य वक्तव्यस्यावसरो वर्तते से इति, तस्मिन्निति यस्मिन् समये भगवान सूर्याभदेववक्तव्यतामचकथत् तस्मिन् समये आमलकल्या नाम नगरी अभवत् , नन्विदानीमपि सा नगरी वर्चते दतः कथमुक्तमभवदिति ?, उच्यते, वक्ष्यमाणवर्णकग्रन्थोक्तविभूतिसमन्विता तदैवाभवत्, न तु विवक्षितोपाङ्गविधानकाले, तदपि कथमवसेयमिति चेत् , उच्यते, अयं काल: अवसर्पिणी, अवसपिण्यां च प्रतिक्षणं शुभा भाषा हानिमुपगच्छन्ति, एतच्च सुप्रतीतं जिनवचनवेदिनामतोऽभवदित्युच्यमानं न विरोधमाक् । सम्पत्यस्या नगयों वर्णकमाहरिद्धस्थिमियसमिद्धा जाव पासाइया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा" इति ऋद्धा-भवनैः पौरजनैश्चातीव वृद्धिमुपागता, 'ऋषि वृद्धा विति वचनात् , स्तिमिता- स्वचक्रपरचक्रतस्करडमरादिसमुत्थभयकल्लोलमालाविवर्जिता, समृदा-धनधान्यादिविभूतियुक्ता, ततः पदत्रयस्य विशेषणसमासः, यावच्छब्देन 'पमुइयजणजाणवया' प्रमुदिताः-प्रमोदवन्तः प्रमोदहेस्तुवतूनां तत्र सद्भावात् , लनानगरीवास्तव्यलोकाः जानपदा:-जनपदभवास्तत्र प्रयोजनवशादायाताः सन्तो यत्र सा प्रमुदितजनजानपदा, 'आइपणजणमणूमा मनुष्यजनैराकीर्णा, माकृतत्वात्पदव्यत्ययः, "हलसयसहस्ससंकिदुविगिलट्ठपण्णतसेउसीमा" हलानां शनैः सहस्रश्च सहकृष्टाविलिखिता विकष्टा-नगर्या. दूरवर्तिनी बहितिनीति भावः, लष्टा मनोज्ञा पाई-टेकराला प्राज्ञाप्ता, छेफपुरुषपरिकर्मिनेति भावः, सेतुसीमा कुल्याजलसेक्यक्षेत्रसीमा यस्याः सा हलशतसहस्रसस्कृष्टविकृष्टलष्टमाशाप्तसेतुसीमा, 'कुकुडसंडेयगामपउरा' कुफुटसम्पात्या |ग्रामाः सवोसु दिक्षु विदिक्षु च प्रचुरा यस्याः सा कुकुटसण्डेयग्रामप्रचुराः, 'गोमहिसगवेलगप्पभूया गावा-चलीवदा महिपा:-अनीता गाव:-स्त्रीगन्य एडका:-उरभ्रास्ते प्रभूता यस्यां सा तथा, 'आयारवन्तचेइयजुबइविसिद्धसमिचिट्ठबहुला' आकारवन्ति-मुन्दराकाराणि
आमलकल्पानगरी एवं आमशालवन चैत्यस्य वर्णनं
~ 12~
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
-------------- मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
चैत्यानि युवतीनां च पण्यतरुणीनामिति भावः, विशिष्टानि सन्निविष्टानि, सन्निवेशपाटका इति भावः, बहुलानि-बहूनि यस्यां सा श्रीराजप्रश्नी , था, 'उकोडियगायगंउिभेदतकरखंडरकवरहिया' उत्कोटा-लञ्चा तया चरन्ति उत्कोटिकास्तगात्रभेदैः-शरीरविनाशकारिभिन्यिभेदैः
आमळकमलयगिरी-ST
स न्धिच्छेदैः तस्करः खण्डरक्षः-दण्डपाशिक रहिता, अनेन तत्रोपद्रवकारिणामभावमाह, 'क्षमा अशिवाभावात् , 'निरुवइबा' राजादिकृतो-काल या वृत्तिः
पद्रवाभावात् , 'सुभिक्षा' भिक्षुकाणां भिक्षायाः सुलभत्वात, 'विसत्थसुहाकासा' विश्वस्तो-निर्भयः मुखमावासो लोकानां ०१ ॥२॥ यस्यां सा तथा, 'अणेगकोटिकोडुचियाइण्णणिव्युत्तसुहा' अनेककोटीभिः-अनेककोटिसङ्ख्याकैः कौटुम्बिकैराकीपणा निर्दृत्ता
सन्तुष्टजनयोगात् शुभा शुभवस्तूपेतत्वात् , नतः पदत्रयस्य कर्मधारयः, "नडनजलमलमुट्ठियवेलंवगकहगपवकलासकआइक्खयलंखमंखतूणइलतुंबवीणियअणेगतालाचराणुचरिया" नटा-नाटयितारो, नर्तका ये नृत्यन्ति, जल्ला-राज्ञः स्तोत्रपाठकाः, मल्लाः प्रतीता मौष्ठिका-मल्ला एव ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति, विडम्बकाः-विदपकाः कथका:-प्रतीताः प्लवका-ये उल्लवन्ते नद्यादिकं चा तरन्ति, लासका-ये रासकान् गायन्ति, जयशब्दप्रयोक्तारो वा भाण्डा इत्यर्थः, आख्यायिका-ये शुभाशुभमाख्यान्ति लङ्ख्या- महावंशाग्र| खेलका मङ्ला:-चित्रफलकहस्ता भिक्षुकाः, 'तूणइल्ला' तणाभिधानवाद्यविशेषचन्तः तुम्बचीणिका:-तुम्बवीणावादका, अनेके च ये तालाचरा:-तालादानेन पेक्षाकारिणः, एतैः सर्वैरनुचरिता-आसेविता या सा तथा, "आरामुज्जाणअगडतलागदीहियवप्पिणिगुणो|ववेया" आरामा यत्र माधवीलतागृहादिषु दम्पत्यादीन्यागत्य रमन्ते, उद्यानानि-पुष्पादिमदृक्षसकुलान्युत्सवादी बहुजनभोग्यानि अगडत्ति-अवटाः कूपास्तडाकानि-प्रतीतानि दीपिका:-सारिण्यः, वप्पिणित्ति-केदाराः, एते गुणोपपेता-रम्यतादिगुणोपपेता ॥२॥ यस्यां सा तथा, 'उन्विद्धविउलगंभीरखातफलिहा' उचिदं-उण्डं विउल-विस्तीर्ण गम्भीरम्-अलब्धमध्यं खातम् उपरिविस्ती
CANA0000@be
आमलकल्पानगरी एवं आमशालवन चैत्यस्य वर्णनं
~13~
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[2]
दीप
अनुक्रम
[२]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
वर्णमधः सङ्कुचितं परिखा च अय उपरि च समखातरूपा यस्यां सा तथा, 'चकगयमुखंडि ओरोहसयग्धिजमलकवाड घणदुष्पवेसा' चक्राणि - प्रहरण विशेषरूपाणि गदाः प्रहरणविशेषाः मुषण्ढयोऽप्येवंरूपा अवरोधः-मतोलीद्वारेष्वन्तःप्राकारः सम्भाव्यते, शतघ्न्योमहाराष्ट्रयो महाशिला वा याः पातिताः शतानि पुरुषाणां नन्ति यमलानि समस्थितद्रव्यरूपाणि यानि कपाटानि धनानि च निश्छिॐ द्राणि तैर्दुष्प्रवेशा या सा तथा, 'वणुकुडिलवंकपागारपरिखित्ता' धनुकुडिलं- कुटिलं धनुस्ततोऽपि वक्रेण प्राकारेण परिक्षिप्ता या सा तथा, 'कविसीसयवट्टरइय संठियाविरायमाणा' कपिशीर्षकेत्तरचितसंस्थितैः- वर्तुलकृतसंस्थानैविराजमाना - शोभमाना या सा तथा, 'अट्टालयचरियदारगोपुरतोरणउन्नयसुविभत्तरायमग्गा' अट्टालकाः - प्राकारोपरिभृत्याश्रयविशेषाः चरिका - अष्टहस्तप्रमाणो मार्गः | द्वाराणि भवनदेवकुलादीनां गोपुराणि प्राकारद्वाराणि तोरणानि च उन्नतानि-उच्चानि यस्यां सा तथा सुविभक्ता- विविक्ता राजमागी यस्यां सा तथा ततः पदद्वयस्य कर्म्मधारयः, 'छेयायरियरइयदढफ लिहइंदकीला' छेकेन - निपुणेनाचार्येण-शिल्पोपाध्यायेन ॐ रचितो हो- बलवान् परिषः-अर्गाला इन्द्रकील- सम्पादितकपाटद्वयाधारभूतः प्रवेशमध्यभागो यस्यां सा तथा, 'विवणिवणिच्छित्त१) सिपिआइण्णनिव्यसुहा' विपणीनां वणिक्पथानां हट्टमार्गाणां वणिजांच क्षेत्रं स्थानं सा विपणिवणिकक्षेत्रं तथा शिल्पिभिःकुम्भकारादिभिनिर्वृतैः सुखिभिः शुभैः स्वस्वकर्मकुशलैराकीर्णा, प्राकृतत्वाच्च सूत्रेऽन्यथा पदोपन्यासः, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, 'सिंघाडगतियच उच्चच्चरपणियापविविश्वमुपरिमंडिया' शृङ्गाटक त्रिकचतुष्कचत्वरैः पणितानि - कयाणकानि तत्प्रधानेषु आवगेषु | यानि विविधानि वसूनि इन्याणि तैश्व परिमण्डिता, शृङ्गाटकं त्रिकोणं स्थानं, त्रिकं यत्र रध्यात्रयं मिलति, चतुष्कं रथ्याचतुष्कमीलनातार्क, चत्वरं बहुरथ्यापातस्थानं, 'सुरम्मा' सुरम्या- अतिरम्या, 'नरवइपविइन्नमहिवड़पहा ' नरपतिना - राज्ञा प्रविकीर्णो
आमलकल्पानगरी एवं आम्रशालवन चैत्यस्य वर्णनं
For Parts Only
~14~
930 303030305
nrary org
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
-------------- मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
गमनागमनाभ्यां व्याप्तो महीपतिपयो-राजमागों यस्यां सा तथा, 'अणेगवस्तुरगमत्तकुंजररहपहकरसीयसंदमागीआइण्णजाणजोगा'
अनेकैर्वरतरगाणां मत्तकाराणां स्थानां च पहकरैः सयातैः तथा शिविकाभिः स्यन्दमानीभिर्यानयुग्यश्चाकीपणा-त्याप्ता या सा नथा, मायागरी
आकीर्णशब्दस्य मध्यनिपातः प्राकृतत्वात् , तत्र शिविका:-कूटकारेणाच्छादिता जम्पानविशेषाः स्यन्दमानिकाः पुरुषप्रमाणा या दृत्तिः
जम्पानविशेषा यानानि-शकटादीनि युग्यानि-गोल्लविषयमसिद्धानि द्विहस्तपमाणानि वेदिकोपशोभितानि जम्पानान्येत्र, 'विमउलनव-या मू०२ ॥३॥ नलिणसोभियजला विमुकुलै:-विकसितैननलिनैः-कमलैः शोभितानि जलानि यस्यां सा तया, 'पंडुरवरभवगपतिमहिया उत्ताणयनयण-11
पिरछणिज्जा' इति सुगम, 'पासाइया' इत्यादि, प्रासादेष भवा प्रासादीया, प्रासादबहुला इत्यर्थः, अत एव दर्शनीया द्रष्टुं योग्या, प्रासादानामतिरमणीयत्वात् , तथा आभ द्रष्टन् प्रतिप्रत्येकमभिमुखमतीव चेतादारित्वात् रूपम्-आकारो यस्याः सा अभिरूपा, एतदेव च्याचष्टे-पतिरूपा, प्रतिविशिष्टम्-असाधारणम् रूपम्-आकारो यस्याः सा प्रतिरूपा ॥१॥ "तीसे ण"मित्पादि, तस्यां णमिति पूर्ववत् आमलकल्पायां नगर्या बहिः उत्तरपौरस्त्ये-उत्तरपूर्वारूपे ईशाणकोणे इत्पर्धः, दिग्भागे 'अम्बसालवण' इति आत्रैः
शालेचातिप्रचुरतयोपलक्षितं यदनं तदाम्रशालबनं तद्योगाचत्यमपि आम्रशालवन, चितेः-लेप्यादिचयनस्य भावः कम्मे वा चैत्य, जनम इह संज्ञाशब्दत्वात् देवतापतिविम्बे प्रसिद्धं, ततस्तदाश्रयभूतं यदेवताया गृहं तदप्युपचारात् चैत्य, तचेह व्यन्तरायतनं द्रष्टव्यं,12 न तु भगवतामहेतामायतनं, 'होत्य' चि अभवत् , तच्च किंविशिष्टमित्याह-चिरातीते पुराणे यावरछन्दकरणात् 'सदिए किनिए
॥३ ॥ कानाए सच्छत्ते सज्मए' इत्यायौपपातिकग्रन्थप्रसिद्धवर्णकपरिग्रहः । एवरूपं च चैत्यवर्णकमुक्त्वा बनखण्डवक्तव्यता वक्तव्या, सा चै-12
से गं अंबसालवणे चेहए एगेणं मइया वणसंडेणं सवओ समंता संपरिक्खिने, से णं वणसंटे किण्हाभासे इत्यादि यावत्पासाइएल
mar
आमलकल्पानगरी एवं आमशालवन चैत्यस्य वर्णनं
~15
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[2]
दीप
अनुक्रम
[२]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
Education &
दरिसणिज्जे अभिस्वे पढिरुवे ' तत्र प्रसादीयं कृष्णावभासत्वादिना गुणेन मनःप्रसादहेतुत्वादर्शनीयं चक्षुरानन्दहेतुत्वात्, अभिरूपप्रतिरूपशब्दार्थः प्राग्वत्, तत उक्तं- 'जाव पडिरुवे' ॥ २ ॥
अमीवर पायवपुढ विसिलावट्टयवत्तब्वया उववातियगमेणं नेया ( सू० ३ ) ॥
अशोकवरपादपस्य पृथिवीशिलापट्टकस्य च वक्तव्यता औपपातिकग्रन्थानुसारेण ज्ञेया, सा चैवं- 'तस्स णं वणसंडस्स बहुमज्झदेसभा इत्य णं महं एगे असीगवरपायत्रे पत्ते जाव पडिब्बे, से णं असोगवरपायचे अन्नेहिं बहूहिं तिलएहिं जाव नंदिरुखहिं ॐ सव्वओ समता संपरिकखित्ते, ते णं तिलगा जाव नन्दीरुक्खा कुसविकुसविसुद्धरुक्त्वमूला मूलमंतो कंदमंतो जाव पडिरुवा, ते णं तिलगा जाव नंदिरुकुखा अन्नाहि बहूहिं परमलयाहिं नागलयाहिं असोगलयाहिं चंपगलयाहिं चूयलयाहिं वणलयाहिं वासंनियलयाहिं अइमुत्तयलयाहिं कुंदलयाहिं सामलयाहिं सच्चतो समंता संपरिखित्ता, ताओ णं पउमलयाओ जाव सामलयाओ निबं कुसुमियाओ जाव पडिरुवाओ, तस्स णं असोगवरपायवस्स उवरिं बहवे अट्टमंगलगा पत्ता, तंजहा सोत्थियं सिरिवच्छ नंदियावत वद्धमाणग भासण कलस मच्छ दपणा सव्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्टा णीरया निम्मला निष्यंका निकंकडच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जीया पासादीया दरसणिज्जा अभिरुवा पडिख्वा, तस्स णं असोगवरपायवस्स उवरिं बहने किण्हचामरज्झया नीलचामरज्झया लोहियचामरज्झया हालिदचामरज्या सुकिलचामरज्या अच्छा सहा लम्हा रूप्पपट्टा वहरामयदंडा जलयामलगंधिया सुरम्मा पासाइया दरिसणिज्जा अभिरुबा पडिरुवा, तस्स णं असोगबरपायवरस उवरिं बहवे छत्ताइछत्ता पडागाइपडागा घंटाजुयला चामरजुयला उप्पलहत्थगा पडमहत्यगा कुमुयहत्थगा गलिणहत्थगा सुभगहत्थगा सोगंधियहत्थगा पौडरियहत्थगा
अशोकवृक्षस्य वर्णनं
For Park Use Only
~16~
anerary.org
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
-------------- मूलं [३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजप्रश्नी
प्रत
या वृत्तिः ॥४॥
महापोंदरियहत्यगा सयपत्तहत्यगा सहस्सपनहत्थगा सन्चरयणामया अच्छा जाव पडिरुवा । तस्स णं असोगवरपायवस्स हेदा एत्याग
अशोकक्ष णं मह एगे पुढविसिलापट्टए पबत्ते इसिखंधासमहीणे विक्खंभायामसुप्पमाणे किण्हे अंजणगघणकुवलयहलधरकोसेजसरिस-1 आगासकेसकज्जलककेयणइंदनीलअयसिकुसुमप्पगासे भिगंजणभंगभेयरिटुगगुलियगवलाइरेगे भमरनिकुरुंबभूते जंबूफलअसणकसम-II |सणवंधणनीलप्पलपत्तणिगरमरगयासासगणयणकीयसिवन्ननिदै घणे अझुसिरे स्वगपडिरूबगदरिसणिज्जे आर्यसगतलोवमे सुरम्मका | सीहासणसंठिते मुरुचे मुनाजालखईयतकम्मे आइणगरूयवूरणवणीयतूलफासे सम्बरयणामए अच्छे जात्र पडिरूवे इति. अस्य व्याख्या -'तम्स णमिति' पूर्ववत् बनखण्डस्य बहुमध्यदेशभागे 'अत्र' एतस्मिन् प्रदेशे महान् एकोऽशोकवरपादपः। प्रज्ञप्तस्तीर्थकरगणधरैः, स च किम्भूत इत्याह-'जाव पडिरूवे' अत्र यावच्छब्देन ग्रन्थान्तरप्रसिद्धं विशेषणजातं मुचित, तवेद-दरुग्णयकन्दमलबट्टलसंधिअसिलिट्टे पणमसिणसिणिद्धअणुपुचिमुजायणिरुवहतोन्विद्धपवरखंधी अणेगणरपवरभुय- अगेज्झे कुसुमभरसमोणमंतपत्तलविसालसाले महुकरिभमरगणगुमुगुमाइयणिलितउड़ेंतसस्सिरीए णाणासउणगणमिहुणसुमहुरकृष्णसुहपलत्तसहमहुरे कुसविकुसविसुद्धरुखमूले पासाइए दरिसणिज्ने अभिरूवे पडिरूवे' तत्र दुरमुत्-पावल्येन गतं कन्दस्याधस्तात् मूलं गस्य स दूरोद्गतकन्दमूलस्तथा वृत्तभावेन परिणत एवं नाम सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च शाखाभिः प्रशाखाभिश्च
॥४॥ अमृतो यथा वर्तुलः प्रतिभासते इति, तथा लष्टाः-मनोज्ञाः सन्धयः-शाखा मता यस्य स लष्टसन्धिस्तथा अश्लिए:-अन्यैः पादपैः सहाससम्पृक्तो, विविक्त इत्यर्थः, ततो विशेषणसमासः, स च पदद्वयमीलनेनावसेयो, बहूनां पदानां विशेषणसमासानभ्युपगमात्,
तथा धनो-निविडो ममणः-कोमलत्वक् न कर्कशस्पर्शः, स्निग्धः-शुभकान्तिः, आनुपूर्व्या-मूलादिपरिपाट्या सुष्टु जन्मदोषरहित
(३)
अशोकवृक्षस्य वर्णनं
~17~
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[3]
दीप
अनुक्रम
[3]
मूलं [३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
Education
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
-
यथा भवति एवं जात आनुपूर्वी सुजातः, तथा निरुपहत-उपदेहिकायुपद्रवरहित उद्विद्धः - उच्चः प्रवरः - प्रधानः स्कन्धो यस्य स ॐ धनमसृणस्त्रिग्धानुपूर्वी सुजातनिरुपहतोद्विद्धमवरस्कन्धः, तथा अनेकस्य नरस्य मनुषस्य ये प्रवरा:-मलम्बा भुजाः- वाहयस्तैरग्राह्यःअपरिमेयोऽनेकनरमवरभुजाग्राद्यः, अनेक पुरुषव्यामैरप्यप्रतिमेयस्थौल्य इत्यर्थः, तथा कुसुमभरेण - पुष्पसम्भारेण सम्-ईपदवनमन्त्यः पत्रसमृद्धाः 'पत्तसमिद्धति संघपित्तलमिति वचनात् विशाला - विस्तीर्णाः शाला:- शाखा यस्य स कुसुमभरसमंत्रनमत्पत्रलविशालशालः, तथा मधुकरीणां भ्रमराणां च ये गणा 'गुमगुमायिता' गुमगुमायन्ति स्म, ककर्तृत्वात्कर्त्तरि क्तमत्ययो, गुमगुमेति शब्दं कृतवन्तः सन्त इत्यर्थो, निलीयमानाः - आश्रयन्त उड्डीयमानाः- तत्प्रत्यासन्नमाका परिभ्रमन्तस्तैः सश्रीको मधुकरीभ्रमरगणगुमशुमानिनिलीयमानोड्डीयमानसश्रीकः, तथा नानाजातीयानां शकुनगणानां यानि मिथुनानि - स्त्रीपुंसयुग्मानि तेषां प्रमोदवशतो यानि परस्पस्सुमधुराण्यत एव कर्ष्णमुखानि - कर्णसुखदायकानि प्रलप्तानि भाषणानि, शकुनगणानां हि स्वेच्छया क्रीडतां प्रमोदॐ भरवशतो यानि भाषणानि तानि प्रलप्सानीति प्रसिद्धानि ततः 'पलत्ते' त्युक्तं तेषां यः शब्दो ध्वनिस्तेन मधुरो नानाशकुनगण मिथुनॐ सुमधुरकर्णमुखप्रलप्तशब्दमधुरः, तथा कुशा-दर्भादयो विकुशा-वल्यजादयाः तर्विशुद्धं रहितं वृक्षस्य सकलस्याशोकपादपस्य, दह मूलं शाखादीनामपि आदिमो भागो लक्षणया प्रोच्यते, यथा शाखामूलमिदं प्रशाखामूलमिदमित्यादि ततः सकलाशोकपादपसत्कमूलप्रतिपत्तये वृक्षग्रहणं, मूलं यस्य स कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूली, यश्चैवंविधः स द्रष्टृणां चित्तसन्तोषाय भवति, तत आहप्रासादीयः- प्रसादाय-चित्तसन्तीपाय - हितस्तदुत्पादकत्वात् प्रासादीय अन एव दर्शनीयो द्रष्टुं योग्यः कस्मादित्याह - 'अभिरूपो' ॐ द्रष्टारं २ प्रत्यभिमुखं न कस्यचिद्विरागहेतू रूपम् आकारो यस्यासावभिरूपः एवंरूपोऽपि कुतः ? इत्याह-प्रतिरूपः- प्रतिविशिष्टं
E
अशोकवृक्षस्य वर्णनं
For Parts Only
~18~
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
-------------- मूलं [३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
अशोकक्ष
वर्णनं
प्रत
०३
श्रीराजमना सकलजगदसाधारणं रूपं यस्य स प्रतिरूपः, 'से गं असोगवरपायवे' इत्यादि 'जाव नंदिरुक्वहिं' इत्यत्र यावच्छब्दकरणात, 'लजमलयगिरी- पहिं छत्तावहिं सिरीसेहिं सत्तवण्णेहिं लोद्धेहिं दधिवन्नेहि चंदणेहिं अज्जुणेहिं नीवहिं कर्यवेहि फणसेहिं दाडिमेहि सालेहं| या वृत्तिः । तभालेहिं पियालहिं पियंगहि रायरुकवेहिं नंदीरकखेहि इति परिग्रहः, एते च लवकच्छत्रोपगशिरीषसप्तपर्णदधिपणेलुब्धकधव॥५॥ चन्दनार्जुननीपकदम्बफनसदाडिमतालतमालप्रियालप्रियङ्गराजवृक्षनन्दितृक्षाः प्रायः सुप्रसिद्धाः, 'तेणं तिलगा जाव नंदिरुक्खा कुस
विकुसे त्यादि ते तिलका यावत्रंदिवृक्षाः कुशविकुशविशुद्धक्षमूलाः, अत्र व्याख्या पूर्ववत्, 'मूलबन्तः मूलानि प्रभूतानि दूरावगाढानि
च सन्त्येषामिति मूलचन्तः, कन्द एपामस्तीति कन्दवन्तः, यावच्छब्दकरणात् सन्धिमन्तो तयामन्तो सालमन्तो पवालमन्तो पत्तमंतो all पुष्फर्मतो फलमंतो वीयमंतो अणुपुचिमुजायरुइलबट्टभावपरिणया एगखंधा अणेगसाहप्पसाहविडिमा अणेगनरवाममुष्पसारियअगिज्झ-6
घणविपुलचट्टखंधा अच्छिदपत्ता अविरलपत्ता अबाईपचा अणईणपत्ता णिव्वुयजरढपंडुपत्ता नबहरियभिसंतपत्तभारंधयारगंभीरदरिसणिज्जा उवनिग्गयनवतरुणपत्तपल्लवा कोमलउज्जलचलंतकिसलयसकमालपवालसोभियवरंकरग्गसिहरा निवं फसमिया निधन मउलिया निचं लवइया निच्चं थवइया निच्चं गुलइया निचं गोच्छिया निच्चं जमलिया निचं जुयलिया णि णमिया - निचं पणमिया निचं कुसुमियमउलियलवइयथवइयगुलइयगुच्छियजमलियजुयालयविणमियपणमियसुविभत्तपिंडिमंजरिवर्डिसयधरा सुकवरहिणमयणसल्लागाकोइलकोरुगकभिंगारककोंडलकजीवंजीवकनंदीमुखकविलपिंगलक्खगकारंडवचकवाककलहंससारसअणेगसउणगणमिहुणविरइयसोबइयमहुरसरणाइया सुरम्मा सुपिडियदरियभमरमहुयरिपहकरपरिल्लवमत्तछप्षयकुसुमासवलो| लमहुरगुमगुमंतगुर्जुनदेसभागा अम्भिरपुष्फफला बाहिरपत्तोच्छण्णा पत्तेहि य पुप्फेहि य उच्छन्नपलिच्छिन्ना निरोगका सार
G
andiarary.org
अशोकवृक्षस्य वर्णनं
~19~
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३]
फला अकंटका णाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगसोहिया विचित्तसुहकेउपभूया वाविपुक्खरिणिदीहियासु य सुनिवेसियरम्मजालघरगा पिंडिमनीहारिमसुगंधिसुहसुरभिमणहरं च महया गंधद्धाणं मुंचंता मुहसेउकेतुबहुला अणेगसगडजाणजुम्मागिल्लिथिल्लिसीयसंदमाणिपडिमोयगा पासाइया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा' इति परिग्रहः, अस्य व्याख्या-दह मूलानि सुप्रतीतानि यानि कन्दस्याधः पसरन्ति, कन्दास्तेषां मूलानामुपरिवर्तिनस्ते अपि प्रतीताः, खन्धः-धुढं त्वक्-छल्ली शाला:शाखाः प्रवाल:-पाल्लबारः पत्रपुष्पफलबीजानि सुमसिद्धानि, सर्वत्रातिशयेन कचिद् भूम्नि वा मतुपत्ययः, 'अणुपुब्बसुजायरुचि
लबट्टभावपरिणया' इति आनुपूर्व्या-मूलादिपरिपाट्या सुष्टु जाता आनुपूर्वीसुजाता रुचिराः-स्निग्धतया देदीप्यमानच्छविमन्तः, तथा पत्तभावेन परिणता वृत्तभावपरिणताः, किमुक्तं भवति ?-एवं नाम सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च शाखाभिः प्रशाखाभिश्च प्रसूता यथा वर्तुलाः
संजाता इति, आनुपूर्वीसुजाताच ते रुचिराश्च आनुपूर्वीसुजातरुचिरास्ते च ते वृत्तभावपरिणताश्च आनुपूर्वीसुजातरुचिरवृत्तभावपरिणताः ते तथा, तिलकादयः पादपाः प्रत्येकमेकस्कन्धाः, प्राकृते चास्य स्त्रीत्वमिति 'एगखंधा' इति मूत्रपाठः, तथा अनेकाभिः शाखाभिः प्रशाखाभित्र मध्यभागे विटपो-विस्तारो येषां ते तथा, तिर्यग् बाहुद्वयं प्रसारणप्रमाणो व्यामः,व्यामीयन्ते-परिच्छिद्यन्ते रज्ज्वाधनेनेति व्यामः,वह लवच-1 नात् 'करणे कचिदिति डप्रत्ययः, अनेकनरव्यामः-पुरुषव्यामैः सुप्रसारितैरग्राह्यः अप्रमेयो घनो-निविडो विपुला-विस्तीर्णो वृक्ष:स्कन्धो येषां ते अनेकनरव्यामसुप्रसारिताग्राह्यघनविपुलवृत्तस्कन्धाः, तथा अच्छिद्राणि पत्राणि येषां ते अच्छिद्रपत्राः, किमुक्तं भवति?-2 नतेषां पत्रेषु वातदोपतः कालदोपतो वा गडरिकादिरितिरुपजातो येन तेषु पत्रेषु छिद्राण्यभविष्यन्नित्यच्छिद्रपत्राः अथमा एवं नामान्योन्य शाखापशाखानुप्रवेशात्पत्राणि पत्राणामुपरिजातानि येन मनागप्यपान्तरालरूपं छिद्रं नोपलक्ष्यते इति, तथा चाह-'अविरलपत्ता
अनुक्रम
(३)
SAMEairahin JANE
अशोकवृक्षस्य वर्णनं
~20~
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
-------------- मूलं [३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
अशोकक्ष
प्रत
मू०३
श्रीराजप्रश्नी । मालागिरी इति, अत्र हेतौ प्रथमा, ततोऽयमर्थः-यतः अविरलपत्रा अतोऽच्छिद्रपत्राः, अविरलपत्रा इति कुत इत्याह-अवातीनपत्रा वातीनानि-बातोया उत्तिःकापहतानि, वातेन पातितानीत्यर्थः, न वातीनानि अवातीनानि पत्राणि येषां ते तथा, किमुक्तं भवति?-न प्रवलेन खरपरुपेण बातेन |
तेषां पत्राणि भूमौ निपात्यन्ते, ततोऽवातीनपत्रत्वादविरलपत्रा इति अच्छिद्रपत्रा इति, अच्छिद्रपत्रा इत्यत्र प्रथमव्याख्यानपक्षमधि- ॥६॥ ऋत्य हेतमाह-'अइपत्ता' न विद्यते इति:-गडरिकादिरूपा ये तान्यतीतानि अतीतीनि पत्राणि येषां ते अतीतपत्राः, अतीतिपत्र
लाचाच्छिद्रपत्राः, 'निद्धयजरढपंदुपत्ता' इति निर्द्धतानि-अपनीतानि जरठानि पाण्डपत्राणि येभ्यस्ते निर्द्धतजरठपाण्ट्रपत्राः, किसक्तं भवति?-यानि वृक्षस्थानि जरठानि पाण्डुपत्राणि वातेन निर्द्धय भूमौ पातितानि भूमेरपि च पायो निर्द्धय निर्द्धयान्यत्रापसारितानीति, 'नवहरियभिसंतपत्तभारंधयारगंभीरदरिसणिज्जा' इति नवेन-प्रत्यग्रेण हरितेन-नीलेन भासमानेन स्निग्धत्वेन वा दीप्यमानेन पत्रभारेण-दलसञ्चयेन यो जातोऽन्धकारस्तेन गम्भीरा-अलब्धमध्यभागाः सन्तो दर्शनीया नवहरितभासमानपत्रभारान्ध
कारगम्भीरदर्शनीयाः, तथा उपविनिमतेः निरन्तरविनिर्गतरिति भावः, नवतरुणपत्रपटवैस्तथा कोमलैः-मनोजैरुज्ज्वलैः-शुद्धैश्चलन्द्रिःकापकम्पमानैः फिशलयैः-अवस्थाविशेषोपेतः पल्लवविशेषैस्तथा सुकुमारैः प्रवालैः-पलवारैः शोभितानि वराद्वाराणि-घराहु
रोपेतानि अग्रशिखराणि येषां ते उपविनिर्गतनवतरुणपत्रपल्लवकोमलोज्ज्वलचलत्किशलयसुकुमालपयालशोभितवरागुराग्रशिखराः, इहादुरपवालयोः कालकृतावस्थाविशेषाद्विशेषो भावनीयः, तथा नित्यं-सर्वकालं, पट्स्वापि ऋतुषु इत्यर्थः, 'कुसुमिताः कुसुमानि
पाणि सजातान्येषामिति कुसुमिताः, तारकादिदर्शनादितप्रत्ययः, 'निचं मालइया' (मउलिया ) इति नित्यं-सर्वकालं मुकुलितानि, मुकुलानि नाम कुड्मलानि कलिका इत्यर्थः, 'निचं लवइया' इति पल्लविताः, नित्यं 'थवइया' इति स्तबकिताः स्तवकभार
HOMEO
SAMEnirahini
| अशोकवृक्षस्य वर्णनं
~21~
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
-------------- मूलं [३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
वन्त इत्यर्थः, नित्यं 'गुलइया' इति गुल्मिताः स्तवकगुल्मौ गुच्छविशेषौ, नित्यं 'गोच्छिता' गोच्छवन्तः, नित्यं 'जमलिता' यमल-15 नाम समानजातीययोर्युग्मं तत् सञ्जातमेषामिति यमलिताः, नित्यं युगलिता युगलं-सजातीयविजातीययोर्द्वन्दं तदेषां सजातमिति युगलिताः, तथा नित्यं-सर्वकालं फलभरेण विनताः-ईपन्नताः, तथा नित्यं महता फलभरेण प्रकर्षणातिदूरं नताः प्रणताः, तथा नित्यं सर्वकालं सुविभक्तः सुविच्छित्तिकः प्रतिविशिष्टो मञ्जरीरूपो योऽवतंसकस्तद्धरास्तद्धारिणः, एवं सर्वोऽपि कुसुमितत्वादिको धर्म एकैकस्य वृक्षस्योक्तः, साम्पतं केषाश्चिदृक्षाणां सकलकुसुमितत्वादिधर्मप्रतिपादनार्थमाह-निच्चं कुसुमियमगलियेत्यादि । किमुक्तं भवति केचित्कुसुमितायेकैकगुणयुक्ताः केचित्समस्तकुसुमितादिगुणयुक्ता इति, अत एव कुसुमियमालइयमउलियेत्यादिपदेषु कर्मधारयः, तथा शुकचर्हिणमदनशालिकाकोकिलाकोरककोभवभिङ्गारककोण्डलकजीवंजीवकनन्दीमुखकपिलपिङ्गलाक्षकारण्डवचक्रवाककलहंससारसाख्यानामनेकेषां शकुनगणानां मिथुनैः-स्त्रीपुंसयुक्तर्यद्विचरितम् इतस्ततो गमनं यच्च शब्दोन्नतिक-उन्नतशब्दक मधुरस्वरं च नादितं-लषितं येषु ते तथा, अत एव सुरम्याः-सुष्टु रमणीयाः, अत्र शुकाः-कीराः, बहिणो-मयूराः, मदनशालिकाःशारिकाः, कोकिला:-पिकाः, चक्रवाककलहंससारसाः प्रतीताः, शेषास्तु जीवविशेषा लोकतो वेदितव्याः, तथा सम्पिण्डिताःएकत्र पिण्डीभूताः दृप्ताः- मदोन्मत्ततया दर्पाध्माता भ्रमरमधुकरीणां पहकराः-सङ्घाताः 'पइकर ओरोह संघाया' इति देशीनाममालावचनात् यत्र ते सम्पिण्डितहप्तभ्रमरमधुकरीपहकराः, तथा परिलीयमानाः-अन्यत आगत्याश्रयन्तो मत्ताः षट्पदाः कुसुमासवलोला:-किञ्जलपानलम्पटा मधुरं गुमगुमायमाना गुञ्जन्तक-शब्दविशेषं च विदधाना देशभागेषु येषां ते परिलीयमानमत्तपद-11 पदकुसुमासबलोलमधुरगुमगुमायमानगुञ्जद्देशभागाः, गमकत्वादेवमपि समासः, ततो भूयः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, तथा अभ्यन्तराणि
SAREaratinidi
लाudiorary.orm
अशोकवृक्षस्य वर्णनं
~22~
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[3]
दीप
अनुक्रम
[3]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
श्रीराजमश्री मलयगिरी
या वृत्तिः
॥ ७ ॥
अभ्यन्तरभागवतीनि पुष्पाणि च फलानि च पुष्पफलानि येषां ते तथा, 'बाहिरपत्तोच्छना इति' वहिस्तः पत्रैश्छन्ना- व्याप्ता वहिः पत्रच्छन्नाः, तथा पत्रै पुष्पैथ अवच्छन्न परिच्छन्नाः - अत्यन्तमाच्छादिताः, तथा नीरोगकाः- रोगबर्जिता अकण्टककाः कण्टकरहिताः, न तेषां प्रत्यासन्ना बब्बूलादिवृक्षाः सन्तीति भावः, तथा स्वादूनि फलानि येषां ते स्वादुफलाः, तथा स्निग्धानि फलानि येषां ते स्निग्धफलाः, तथा | प्रत्यासन्नैर्नानाविधैः- नानाप्रकारैर्गुच्छेः- वृन्ताकीप्रभृतिभिर्गुल्मैः - नवमालिकादिभिर्मण्डपकैः शोभिता नानाविधगुच्छगुल्ममण्डपकशोभिताः, तथा विचित्रैः - नानाप्रकारैः शुभैः - मण्डनभूतैः केतुभिः ध्वजैर्वहुला - व्याप्ता विचित्रशुभकेतुबहुलाः, तथा 'वाविषुवरिणीदीहियासु य सुनिवेसियरम्मजालघरगा' वाप्यश्चतुरस्राकारास्ता एव वृत्ताः पुष्करिण्यः, यदिवा पुष्कराणि वर्त्तन्ते यासु ताः पुष्क रिण्यः, दीर्घिका-ऋजुसारिण्यः, वापीषु पुष्करिणीषु दीर्घिकासु च सुष्ठु निवेशितानि रम्याणि जालग्रहकाणि येषु ते वापी पुष्करिणीदीर्घिकासु सुनिवेशितरम्यजालगृहकाः, तथा पिंडिमा पिण्डिता सती निर्धारिमा-दूरं विनिर्गच्छन्ती पिण्डिमनिहरिमा तां सुगन्धिसुगन्धिको शुभसुरभिभ्यो गन्धान्तरेभ्यः सकाशात् मनोहरा शुभमुरभिमनोहरा तो च, 'महया' इति प्राकृतत्वात् द्वितीयार्थे तृतीया, ॐ महतीमित्यर्थः, गन्धद्याणि यावद्भिर्गन्धपुद्गलैर्गन्धत्रिषये गन्धप्राणिरुपजायते तावती गन्धपुद्गलसंहतिरुपचारात् गन्धघाणिरित्युच्यते, तां निरन्तरं मुञ्चन्तः, तथा 'सुहसेउके बहुला' इति शुभाः प्रधाना इति सेतवो मार्गा आलवालपाल्यो वा केतवो-ध्वजा बहुलाबहवो येषां ते तथा, 'अणेगरहसगढजाणजुग्गगिल्लिथिल्लिसिवियदमाणियपडिमोयणा' इति, रथा द्विविधाः - क्रीडारथाः सङ्ग्रामरथाथ, शकटानि प्रतीतानि यानानि - सामान्यतः शेषाणि वाहनानि युम्यानि - गोल्लविषयप्रसिद्धानि द्विहस्तप्रमाणानि वेदिकोपशोभितानि जम्पानानि शिविकाः कृटाकारेणाच्छादिता जम्पानविशेषाः स्यन्दमानिकाः पुरुषप्रमाणजम्पानविशेषाः, अनेकेषां रथशकटा
Ecation96%
अशोकवृक्षस्य वर्णनं
For Par Lise Only
~23~
अशोकवृक्षवणनं
मृ० ३
॥ ७ ॥
nary org
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
Pादीनां मध्येऽतिविस्तीर्णत्वात् प्रतिमोचनं येषु तसथा, 'पासादीया' इत्यादिपदचतुष्टयं प्राग्वत्, 'ते णं तिलगा' इत्यादि पाठसिद्ध, जानवरं 'नागलयाहि ति नागा:-दुमविशेषाः 'वणलयाहि ति बना अपि दुमविशेषाः, द्रुमाणां च लतात्वमेकशाखाकानां
द्रष्टव्यं, ये हि दुमा ऊर्ध्वगतकशाखा न तु दिग्विदिक्रमतवहुशारखास्ते लता इति प्रसिद्धाः, 'निच्च कुसुमियाओ जाव पडिरूवाओ' जात्यत्र यावच्छन्दकरणात निचं कुसुमियाओ निचं मालइयाओ निच्च लवड्याओ निचं थवइयाओ नि गुच्छियाओ|
निचं गुम्मियाओ निचं जमलियाओ निच्च जुयलियाओ निचं विणमियाओ निचं पणमियाओ मुविभत्तपडिमंजरि-13 कावडिंसगधरीओ निचं कुसुमियमालइयथवइयलवइयगुम्मियजमालियजुयलियगुरिछयविणमियपणमियसुविभत्तपडिमंजरिवहिंसगध-19.
रीओ संपिडियदरियभमरमहुयरिपहफरपरिलेंतमत्तछप्पयकुसुमासवलोलमहुरगुमगुमैतगुंजंतदेसभागाओ पासाइयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरुवाओ पडिरूवाओ इति' एतच्च समस्तं प्राग्वद् व्याख्येयं, तस्य णिमिति प्राग्वन , अशोकवरपादपस्य उपरि बहूनि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-स्वस्तिकः श्रीवृक्षो 'नंदियावत्ते' इति नन्यावर्त्तः, कचिद् नन्दावत्त इति पाठः, तत्र नन्दावर्त इति शब्दसंस्कारः, वर्द्धमानक-शराबसम्पुटं भद्रासनं कलशो मत्स्ययुग्मं दर्पणः, एतानि चाष्टावपि , मङ्गलकानि सर्वरत्नमयानि अच्छानि-आकाशस्फटिकवदतीव स्वच्छानि श्लक्ष्णानि-श्लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिष्पन्नानि श्लक्ष्ण ( तन्तु) निष्पन्नपटवद् लण्हानि-समृणानि घुष्टितपटवद् 'घट्ठाईति घृष्टानीव घृष्टानि खरशाणया पाषाणप्रतिमावत् 'मट्ठाईति मृष्टानीव मष्टानि, सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमेव, अत एव नीरजांसि-स्वाभाविकरजोरहितत्वात , निर्मलानि-आगन्तुकमलाभावात् , निष्पकानि-कलङ्कविकलानि कर्दमरहितानि वा निष्कङ्कटा-निष्कवचा निरावरणा निरुषघातेति भावार्थः छाया दीप्तियेषां तानि
अनुक्रम
(३)
SAMEmirathindi
,
अशोकवृक्षस्य वर्णनं
~24~
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजमश्नी निष्कटच्छायानि 'सप्रभाणि' स्वरूपतः प्रभावन्ति 'समरीचीनि' बहिविनिर्गताकरणजालानि, अत एव सोयोतानि-बहिर्व्यवस्थि- अशोकवृक्षमलयगिरी- तवस्तुस्तोमप्रकाशकराणि 'पासाइया' इत्यादिपदचतुष्टयव्याख्या पूर्ववत् । 'तस्स णमित्यादि, तस्य 'ण'मिति प्राग्वत् , अशोकवर-19 वर्णनं या वृत्तिः पादपस्योपरि बहवः कृष्णचामरध्वजाः, चामराणि च ध्वजाश्च चामरध्वजाः कृष्णाश्च ते चामरध्वजाच कृष्णचामरध्वजाः, एवं नील-का
चामरध्वजाः, लोहितचामरध्वजाः, हारिद्रचामरध्वजाः, शुक्लचामरध्वजाः, एते च कथम्भूता इत्याह-अच्छा:-स्फटिकवदति|निमलाः, लक्ष्णा:-श्लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिष्पन्नाः, 'रूपपट्टा' इति रूप्यो-रूप्यमयो बञमयस्य दण्डस्योपरि पट्टो येषां ते रूप्यपट्टाः |'वहरदण्डा' इति बनो-बजरत्नमयो दण्डो रूप्यपट्टमध्यवर्ती येषां ते वजदण्डाः, तथा जलजानामिव-जलजकुसुमानां पद्मादीनामिवामलो गन्धो येषां ते जलजामलगन्धकाः अत एव मुरम्या:-अतिशयेन रमणीयाः 'पासाइया' इत्यादि पूर्ववत् , तस्स णमिति माग्वत् , अशोकवरपादपस्योपरि बहूनि छत्रातिच्छत्राणि छत्रात्-लोकमसिद्धादेकसख्याकादतिशायीनि उवाण उपर्यधोभागेन दिसल्यानि त्रिसस्यानि वा छत्राणि छत्रातिच्छत्राणि, तथा बह्वधः 'पढागाइपडागा' इति पताकाभ्यो लोकप्रसिद्धाभ्योऽतिशा-12 यिन्यः पताकाः पताकातिपताकाः बहूनि तेष्वेव छत्रानिच्छवादिषु घण्टायुगलानि चामरयुगलानि, तथा तत्र तत्र पदेशे उत्पलहस्तकाःउत्पलाख्या जलजकुसुमसङ्घातविशेषाः, एवं पमहस्तकाः कुमुदहस्तकाः नलिनहस्तकाः मुभगहस्तका सौगन्धिकहस्तकाः पुण्डरीक-12 हस्तका महापुण्डरीकहस्तकाः शतपत्रहस्तकाः सहस्रपत्रहस्तकाः सुभगहस्तकाः, उत्पलं-गर्दभकं पन-मूर्यविकाशि पडूज मुकुद-कैरवं 6 नलिनम्-ईषद्रक्तं पद्म सुभगं-पद्मविशेषः सौगन्धिक- कल्हारं पुण्डरीक-श्वेताम्बुजं तदेवातिविशालं महापुण्डरीकं शतपत्रसहस्रपत्रे पत्रसयाविशेषावच्छिन्नी पद्मविशेषौ, एते च त्रातिच्छत्रादयः सर्वेऽपि सर्वरत्नमयाः-सर्वात्मना रत्नमयाः 'अच्छा सण्हा'
U
अशोकवृक्षस्य वर्णनं
~25
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
इत्यादि विशेषणजातं पूर्ववत् , 'तस्स णमित्यादि, तस्य 'णामिति प्राग्वत् अशोकवरपादपस्याधस्तात, 'एत्य णमिति अशोकवरपादपस्य यदधो अत्र ‘णमिति पूर्ववत् एको महान् पृथ्वीशिलापट्टकः प्रज्ञप्तः, कथम्भूत इत्याह-'इसिखंघो समल्लीणे इत्यादि, इह स्कन्धः स्थुडमित्युच्यते, तस्याशोकवरपादपस्य यत् स्थुडं तत् ईषद्-मनाक् सम्यग् लीनस्तदासन्न इत्यर्थः, 'विक्खम्भायाममुष्पमाणे इति, विष्कम्भेनायामेन च शोभनम् --औचित्यानतिवति प्रमाणं यस्य स विष्कम्भायामसुप्रमाणः, कृष्णः, कृष्णत्वमेव निरूपयति-'अंजणघणकुवलयहलहरकोसेज्जसरिसो' अञ्जनको-वनस्पतिविशेषः घनो-मेघः कुवलय-नीलोत्पलं हलधरकौशेयं-बलदेववस्त्रे तैः सदृशा-समानवर्णः, 'आगासकेसकज्जलककेयणइंदनीलअयसिकुसुमपगासे आकाशं धूलीमेघादिविरहितं, केशाःशिरसिज़ाः, कजलं-अतीतं, कर्केतनेन्द्रनीलौ मणिविशेषौ अतसीकुसुमं प्रसिद्धमेतेषामिव प्रकाशो-दीप्तिर्यस्य स तथा, 'भिंगजगभंगभेयरिदुगनीलगुलियगवलाइरेगे' इति भृङ्गः-चतुरिन्द्रियः पक्षिविशेषः अञ्जनं सौवीराञ्जनं तस्य भङ्गेन-विच्छित्त्या | भेदः-छेदोऽञ्जनभङ्गभेदो रिष्ठको-रत्नविशेषः नीलगुटिकाः-प्रतीताः, गवलं माहिर्ष शृङ्गं तेभ्योऽपि कृष्णत्वेनातिरेको यस्य स तथा, 'भमरनिकुरम्पभूए' इति अत्र भूतशब्द औषम्यवाची, यथाऽयं लाटदेशः सुरलोकभूतः, सुरलोकोपम इत्यर्थः, ततोऽयमर्थः-भ्रमरनिकुरुम्बोपमः, 'जंबूफलअसणकुसुमबंधणनीलुप्पलपत्तनिकरमरगयआसासगनयणकीयासिवन्ने' जम्बूफलानि प्रतीतानि, असनकुसुमबन्धन-असनपुष्पवृन्तं नीलोत्पलपत्रनिकरो मरकतमणिः प्रतीतः, आसासको-बीयकाभिधानो वृक्षः, नयनकीको नेत्रमध्यताराः, असि खरं तेषामिव वणों यस्य स तथा, स्निग्धो न तु रूक्षः घनो निविडी न तु कोष्ठक इव मध्यशुपिरः 'अज्जुसिरे' इति श्लक्ष्णशुपिररहितः, 'रूवगपडिरूवगदरिसणिजे' इति रूपकाणां यानि तत्र सन्कान्तानि (प्रतिरूपकाणि)
Santaratindane
अशोकवृक्षस्य वर्णनं
~26~
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
-------------- मूलं [३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सना
॥९॥
श्रीराजपनी प्रतिबिम्बानि तैः दर्शनीयो रूपकमतिरूपकदर्शनीयः, 'आदर्शतलोपमः आदर्शो-दर्पणस्तस्य तलं तेन समतयोपमा यस्य स आदर्शतलो- चेतराजामलयगिरी- पमः, मुष्ठ मनांसि रमयतीति सुरम्यः 'कृढ़हुल मिति वचनात् कर्तरि यप्रत्ययः, 'सिंहासणसंठिए' इति सिंहासनस्येव संस्थितं- दिपर्युषाया वृत्तिः। संस्थानं यस्य स सिंहासनसंस्थितः, अत एव सुरूपः-शोभनं रूपम्-आकारो यस्य स सुरूपः, इतब सुरूपो यत आह-'मुत्ताजालखइयतकम्मे' मुक्ताजालानि-मुक्ताफलसमूहाः खचितानि अन्तकर्मसु-प्रान्तपदेशेषु यस्य स मुक्ताजालखचितान्तकर्मा, 'आइणगरूय-1
मू०४ बूरनवनीयतूलफासे' आजिनकं चर्ममयं बलं रूतं प्रतीतं घूरो-वनस्पतिविशेषः नवनीतं-म्रक्षणं तूलं अर्कतूलं तेषामिव कोमल-1 तया स्पर्थो यस्य स आजिनकरूतचूरनवनीततूलस्पर्शः, 'सल्वरयणामए' इत्यादिविशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ॥
सेओ राया धारिणी देवी. सामी समोसढे, परिसा निग्गया, जाव राया पज्जुवासद (सू०४) __'सेओ राया धारिणी देवी जाव समोसरणं समत्त'मिति तस्या आमलकल्यायो नगर्या वेतो नाम राजा, तस्य समस्तान्तःजापुरमधाना भार्या सकलगुणधारिणी धारिणीनामा देवी, 'जाव समोसरणं समत्त मिति यावच्छन्दकरणाद्राजवर्णको देवीवर्णक
समवसरणं चौपपातिकानुसारेण तायद्वक्तव्यं यावत्समवसरणं समाप्त तचैव-तत्थ णं आमलकप्पाए नयरीए सेओ नाम राजा जाहोत्था, महयाहिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे अञ्चतविसुद्धरायकुलवंसप्पमुए निरंतरं रायलकखणविराइयंगमगे बहुजणबहुमाणपूइएका
सब्बगुणसमिद्धे खत्तिए मुइए मुदाभिसिनेमाउपिउमुजाए दय(ब)पत्ते सीमंकरे सीमंधरे खेमकरे खेमंधरेमणुस्सिदे जणवयपिया जणवयपाले जणवयपुरोहिए सेउकरे केउकरे नरपवरे पुरिसवरे पुरिससीहे पुरिसवग्ये पुरिसआसीविसे पुरिसवरपोंडरीए पुरिसवरगंधहल्वी अड़े दिने विसे विच्छिन्नविपुलभवणसयणासणजाणवाहणाइन्ने बहुधणबहुजायरूबरजए आओगपओगसंपउचे विच्छड्डिय
MEnamala
Searn
श्वेत नामक राज्ञ: वर्णनं
~27~
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
-------------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
४
पउरभत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगबेलप्पभुए पहिपुनर्जतकोसकोट्ठागाराउहयरे बहुदुब्बलपच्चामित्ते ओहयकंटयं मलियकंटयं । उद्धियकंटयं अप्पडिकटयं ओहयसत्तुं नियसत्तुं मलियसत्तुं उद्वियसत्तुं निजियसत्तुं पराइयसत्तुं ववगयदुभिक्खदोसमारिभयविष्पमुकं खेम सिर्व सुभिकर्ता पसंतविडमरं रज पसासेमाणे विहरइ । तस्सण सेयोरपणो धारिणीनाम देवी होत्या, सुकुमालपाणि-16 पाया अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरा लक्षणवंजणगुणोक्वेया माणुम्माणपमाणपरिपुण्णमुजायसव्वंगसुदरंगा ससिसोमागारकतपि
यदसणा सुरूवा करयलपरिमियपसत्यतिवलिवलियमज्झा कुंडलुल्लिहिया वीण ]गंडलेहा कोमुइयरयणियरविमलपडिपुण्णसोमजायणा सिंगारागारचारुखेसा संगयगयहसियमणियचिट्रियविलासललियसलावनिउणजुत्तोचयारकुसला मुंदरचणजघणवयणकर
चरणणयणलायण्णविलासकलिया सेएण रण्णा सद्धिं अणुरत्ता अविरत्ता इट्टे सहफरिसे रसरूवगंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे. पचणुभवमाणा विहरइ' एप राजदेवीवर्णका, अस्य व्याख्या 'महयाहिमवंतेति' महाहिमवान् हैमवतस्य क्षेत्रस्योचरतः सीमाकारी वर्षधरपर्वतः मलयः पर्वतविशेषः सुप्रतीतो मन्दरो मेरुर्महेन्द्रः-शक्रादिको देवराजस्तद्वत् सारः प्रधानो महाहिमवन्तमहामलयमन्दर-1 महेन्द्रसारः, तथा अत्यन्तविशुद्ध राजकुलवंशे प्रमूतोऽत्यन्तविशुद्धराजकुलवंशप्रमूतः, तथा 'निरन्तरं रायलकखणविराइयंगमंगे' इति | निरन्तरम्-अपलक्षणव्यवधानाभावेन राजलक्षणैः-राज्यभूचकर्लक्षणविराजितानि अङ्गमङ्गानि-अङ्गमत्यङ्गानि यस्य स निरन्तरराजलक्षणविराजिताङ्गमङ्गः, तथा बहुभिर्जनः बहुमानेन-अन्तरङ्गप्रीत्या पूजितो बहुजनबहुमानपूजितः, कस्मादित्याह-'सव्वगुणस-1 सिद्धे' सः शौर्योपशमादिभिर्गुणैः समृद्धः स्फीतः सर्वगुणसमृद्धः ततो बहुजनबहुमानपूजितो,गुणवत्सु प्रायः सर्वेषामपि बहुमानसम्भवात् , तथा 'खत्तिये' इति क्षत्रस्यापत्यं क्षत्रियः 'क्षत्रादिय' इति इयपत्ययः, अनेन नवमाष्टमादिनन्दवत् राजकुलप्रमूतोऽपि न हीन-|
अनुक्रम
SED
धारिणी नामक राज्य: वर्णनं
~28~
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
श्रीराजपशी जातीयः, किन्तु उत्तमजातीय इत्यावेदितं, तथा 'मुदितः सर्वकालं हर्पवान् , प्रत्यनीकोपद्रवासम्भवात् , तदसम्भवश्च प्रत्यनीकाना- चेतराजामळयगिरी- मेवाभावात् , तथा चाह-'मुद्धाभिसिचे' प्रायः सर्वैरपि प्रत्यन्तराजः प्रतापमसहमान न्यथाऽस्माकं गतिरिति परिभाव्य मूर्द्धभिः- दिपर्युपाया दृचिःमस्तकैरभिषिक्त:-पूजितो मूर्धाभिषिक्तः, तथा मातृपितृभ्यां सुजातो मातृपितृसुजातः, अनेन समस्तगर्भाधानप्रभृतिसम्भाविदोषविकल सना
इत्यावेदितः, तथा दया(द्रव्य प्राप्तः स्वभावतः शुद्धजीवद्रव्यत्वात् , तथा सेवागतानामपूर्वापूर्वनृपाणां सीमां मर्यादा करोति यथा एवं वर्ति॥१०॥
तव्यमेवं नेति सीमङ्करः, तथा पूर्वपुरुषपरम्परायाता स्वदेशप्रवर्त्तमानां सीमां-मर्यादां धारयति पालयति न तु विलुम्पतीति सीमन्धरः, तथा क्षेमं वशवत्तिनां उपद्रवाभावं करोति लेमङ्करः चौरादिसंहारात् तथा तत् धारयति आरक्षकनियोजनात् क्षेमन्धरः, अत एव | मनुष्येन्द्रः, तथा जनपदस्य पितेव जनपदपिता, कथं पितेवेत्यत आह-'जनपदपाल: जनपदं पालयतीति जनपदपालः, ततो भवति जनपदस्य पितेव, तथा जनपदस्य शान्तिकारितया पुरोहित इच जनपदपुरोहितः, तथा सेतुः-मार्गस्तं करोतीति सेतुकरः, मार्ग-12 देशक इति भावः, केतुः-चिह्न तत्करोतीति केतुकरः, अद्भुतसंविधानकारीति भावः, तथा नरेषु मनुष्येषु मध्ये प्रवरो-नरपवरः, स च सामान्यमनुष्यापेक्षयापि स्यादत आह-'पुरिसवरे' पुरुषेषु-पुरुषाभिमानेषु मध्ये वरः-प्रधान उत्तमपौरुषोपेतत्वादिति पुरुषवरः, यतः पुरुषः सिंह इवापतिमल्लतया पुरुषसिंहः, तथा पुरुषो व्याघ्र इव शूरतया पुरुषव्याघ्रः, पुरुष आसीविष इव दोपविना|शनशीलतया पुरुषासीविषः पुरुषः वरपुण्डरीकमिवोत्तमतया भुवनसरोवरभूषकत्वात् पुरुषवरपुण्डरीकः, पुरुषः वरगन्धहस्तीव परानसह- |
मानान् प्रतीति पुरुषवरगन्धहस्ती ततो भवति पुरुषवरः, तथा आढयः समृद्धो दीमः शरीरत्वचा देदीप्यमानत्वात् दृप्सो वा हप्तारि-| Pमानमर्दनशीलत्वात् अत एव वित्तो-जगत्यतीतो, यदुक्तमाढ्य इति तदेव सास्तिरमुपदर्शयति-'विच्छिण्णेत्यादि, विस्तीर्णानि
SAREmiratanimIUM
aurary.au
~29~
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
-------------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
४
विस्तारवन्ति विपुलानि-अभूतानि भवनानि गृहाणि शयनानि आसनानि च प्रतीतानि यानानि-रथादीनि बाहनानि-अश्वादीन । एतैराकीणों व्याप्तो युक्तो विस्तीर्णविपुलभवनशयनासनयानवाहनाकीर्णः, तथा बहुधनं बहुजातरूपं सुवर्ण रजतं च-रूप्यं यस्य स बहुधनबहुजातरूपरजतः, तथा आयोगप्रयोगसम्पयुक्तः-आवाहनविसर्जनकुशलः, तथा विच्छदितं- तथाविधविशिष्टोपकाराकारितया विसृष्टमुकुरिटकादिषु प्रचुरं भक्तपानं यस्मिन् राज्यमनुशासति स विच्छर्दितप्रचुरभक्तपानः, अनेन पुण्याधिकतया न तस्मिन् । राज्यमनुशासति दुर्भिक्षमभूदिति कथितं, तथा बहूनां दासीनां दासानां गां-बलीवानां महिषाणां मां-स्त्रीगवानां एडकानां च प्रभुः बहुदासीदासगोमहिपगवेलगप्रभुः, ततः स्वार्थिकमत्ययविधानात् प्रभुकः, तथा परिपूर्णानि भृतानि यन्त्रकोशकोष्ठागाराणि यन्त्रगृहाणि कोशगृहाणि भाण्डागाराणि कोष्ठयहाणि धान्याना कोष्ठागाराणि गृहाणि इति भावः, आयुधगृहाणि च यस्य स पतिपूर्णयन्त्रकोशकोष्ठामारायुधगृहः, तथा बलं शारीरिक मानसिकं च यस्यास्ति सबलवान् , दुर्बलपत्ययमित्रो, दुर्बलानामकारणवत्सल इति भावः, एवंभूतः सन् राज्य प्रशासन विहरति अवतिष्ठते इति योगः, कथम्भूतं राज्यमित्याह-अपहतकण्टक, इह देशोपद्रवकारिणश्चरटाः कण्टकाः ते अपहता अवकाशानासादनेन स्थगिता यस्मिन् तत् अपहतकण्टकं, तथा मलिताः-उपद्रवं कुर्वाणा मान-17 ग्लानिमापादिताः कण्टका यत्र तन्मलितकण्टक, तथा उद्धताः स्वदेशत्याजनेन जीवितत्याजनेन वा कण्टका यत्र तत् उद्धृतकण्टक, तथा न विद्यते प्रतिमल्लः कण्टको यत्र तदप्रतिमल्लकण्टक, तथा 'ओहयसत्तु इति प्रत्यनीकाः राजानः शत्रबस्ते अपहताः स्वावकाशमलभमानीकता यत्र तत् अपहतशत्रु तथा निहताः-रणाङ्गणे पातिताः शत्रबो यत्र तनिहतशत्रु, तथा मलिता:-तगतसैन्यत्रासापादनतो मान-1 ग्लानिमापादिताः शत्रचो यत्र तत् मलितशत्र, तथा स्वातन्त्र्ययावनेन स्वदेशच्यावनेन जीवितच्यावनेन वा उद्धताः शत्रचा यत्र तत् ।
अनुक्रम
REaratunintawla
~30~
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[8]
दीप
अनुक्रम
[8]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
॥ ११ ॥
श्रीराजमश्री उद्धतशत्रु, एतदेव विशेषणद्वयेन व्याचष्टे - निर्जितशत्रु, पराजितशत्रु, तथा व्यपगतं दुर्भिक्षं दोषो मारिच यत्र तत् व्यपगतदुर्भिक्षदोषमलयगिरी- ॐ मारि, तथा भयेन स्वदेशोत्थेन परचक्रकृतेन वा विप्रमुक्तं, अत एव क्षेमं निरुपद्रवं शिवं शान्तं सुभिक्षं शोभना - शुभा भिक्षा दर्शनिनां या वृत्तिः दीनानाथादीनां च यत्र तत् सुभिक्षं, तथा प्रशान्तानि डिम्बानि विघ्ना डमराणि - राजकुमारादिकृतधिकृतविद्वरा यत्र तत्प्रशान्तडिम्बडमरं । देवीवर्णकं 'सुकुमालपाणिपाया' इति सुकुमारौ पाणी पादौ च यस्याः सा सुकुमारपाणिपादा, तथा अहीनानि अन्यूनानि स्वरूपतः प्रतिपूर्णानि लक्षणतः पञ्चापीन्द्रियाणि यस्मिन् तथाविधं शरीरं यस्याः सा अहीनप्रतिपूर्णपञ्चेन्द्रियशरीरा, तथा लक्षणानि स्वस्तिकचक्राॐ दीनि व्यञ्जनानि-मपीतिलकादीनि गुणाः- सौभाग्यादयस्तैरुपपेता लक्षणव्यञ्जनगुणोपेता, उप अप इत इतिशब्दत्रयस्थाने 'पृषोदरादय' इत्यपाकारस्य लोपे उपपेता इति द्रष्टव्यं, 'माणुम्माणपमाणपडिपुण्णसुजायसव्वंगसुंदरंगी' इति तत्र मानं जलद्रोणप्रमाणता, कथमिति चेत्, उच्यते, जलस्यातिभृते कुण्डे पुरुषे स्त्रियां वा निवेशितायां यज्जलं निस्सरति तयादे द्रोणप्रमाणं भवति तदा पुरुषः स्त्री वा मानप्राप्त उच्यते, तथा उन्मानं अर्द्धभारप्रमाणता, सा चैवं-तुलायामारोपितः पुरुषः स्त्री वा यद्यर्द्धभारं तुलति तदा स उन्मानप्राप्तोऽभिधीयते, प्रमाणं स्वालेनाष्टोत्तरशतोच्छ्रयिता, ततो मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णानि - अन्यूनानि सुजातानि - जन्मदोषरहितानि सर्वाणि अङ्गानि शिरःप्रभृतीनि यानि तैः सुन्दराङ्गी मानोन्मानप्रमाणप्रतिपूर्णसुजातसर्वाङ्गसुन्दराङ्गी, तथा | शशिवत्सोमाकारम् अरौद्राकारं कान्तं कमनीयं मियं द्रष्टृणामानन्दोत्पादकं दर्शनं रूपं यस्याः सा शशिसोमाकारकान्तभियदर्शना, अत एव सुरूपा, तथा करतलपरिमितो- मुष्टिग्राद्यः प्रशस्तलक्षणोपेतस्त्रिवलीको बलित्रयोपेतो रेखात्रयोपेतो बलिको - बलवान् मध्यो| मध्यभागी यस्याः सा करतलपरिमितप्रशस्तत्रिवलीकवलिकमध्या, तथा कुण्डलाभ्यां उल्लिखिता घृष्टा गण्डलेखा-कपोलविरचितमृग
Jan Education i
For Pale Only
~31~
चेतराजादिपर्युपा
सना
सू० ४
॥ ११ ॥
nary org
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
४
मदादिरेखा यस्याः सा कुण्डलोल्लिखितगण्डलेखा, 'कोमुईयरयणियरविमलपडिपुण्णसोमवयणा' कौमुदी-कार्तिकीपौर्णमासी तस्यां | रजनिकर:-चंद्रमास्तद्वद्विमलं-निर्मलं प्रतिपूर्णम्-अन्यूनातिरिक्तमानं सौम्यम्-अरौद्राकारं वदनं यस्याः सा तथा, शुङ्गारस्य-रसविशेषस्यागारमिवागारं, अथवा शृङ्गारो-मण्डनभूषणाटोपस्तत्प्रधान आकार:-आकृतिर्यस्याः सा तथा, चारु वेपो नेपथ्यं यस्याः सा तथा, ततः कर्मधारयः, शृङ्गारागारचारुवेपा, तथा सङ्गता ये गतहसितभणितचेष्टितविलासललितसलापनिपुणयुक्तोपचारकुशला, तत्र सङ्गन्तं नासङ्गतं गतं यदगुप्ततया तद्गृहस्यैवान्तर्गमन न तु बहिः स्वेच्छाचारितया सङ्गतं हसितं यत्कपोलविकाशमात्र 15 मूचितं न त्वट्टहासादि हसियं कपोलकहकहिय' मिति वचनात् , सङ्गतं भणितं यत्समागते प्रयोजने नर्मभाणितिपरिहारेण विवक्षितार्थमात्रप्रतिपादनं सङ्गतं चेष्टितं यत्कुचजघनाद्यवयवाच्छादनपरतयोपवेशनशयनोत्थानादि सङ्गन्तो विलासः स्वकुलाचित्येन शृङ्गारादिकरणं, तथा सुन्दरै स्तनजघनवदनकरचरणनयनलावण्यविलासैः कलिता, अत्र विलासः स्थानासनगमनादिरूपचेष्टाविशेषः, उक्तं च "स्थानासनगमनाना, हस्तभूनेत्रकर्मणां चैव । उत्पयते विशेषो यः श्लिष्टोऽसौ विलासः स्यात ॥१॥ अन्ये त्वाः-विलासो नेत्रजो विकारः, तथा चोक्त-" हावो मुखविकारः स्यात , भावश्चित्तसमुद्भवः । बिलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो भ्रूसमुद्भवः॥१॥"ते णं कालेणं ते णं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव च उतीसबुद्धवयणाइसेससंपते पणतीससचवयणातिसेससंपत्ते आगासगएणं चक्केणं आगासगतेणं छत्तेणं आगासगयाहिं सेयचामराहिं आगासफालिहमएणं सपायपीटेण सीहासणेण पुरतो धम्मज्झएणं पगढिजमाणेणं चउदसहि समणसाहस्सीहिं छत्तीसाए अज्जियासाहस्सीहिं सद्धिं सम्परिचुडे पुच्वाणुपुचि चरमाणे गामाणुगाम दुइज्जमाणे सुई सुहेणं विहरमाणे जेणेव आमलकप्पा नयरी जेणेच वणसंडे जेणेव
अनुक्रम
SaMEaration
Sam
~32~
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
श्रीराजपनी असोगवरपायवे जेणेव पुढविसिलाप? तेणेव उवागच्छद, २ ता अहापडिरूवं उग्गहं उम्पिण्डिचा असोगवरपायवस्स अहे चेतराजामलयगिरी- पुदविसिलापट्टगंसि पुरत्याभिमुहे संपलिअंनिसने संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति" । इदं सुगम, नवरं 'जाव | दिपर्युपाया वृत्तिः । चोचीसाए' इत्यत्र यावच्छब्दकरणात् 'आइफरे तित्वगरे' इत्यादिकः समस्तोऽपि औषपातिकग्रन्थप्रसिद्धो भगवद्वर्णको वाच्यः, स सना
चातिगरीयानिति न लिख्यते, केवलमौपपातिकग्रन्थादवसेयः, 'चोत्तीसाए बुद्धबयणातिसेससंपने ' चतुर्विंशद् बुद्धानां भगवता-IN १२॥
महतां वचनप्रमुखाः 'सर्वस्वभाषानुगतं वचनं धर्मावबोधकररमित्यादिना उक्तस्वरूपा ये अतिशेषा-अतिशयास्तान प्राप्तश्चतुखिंशकाबुद्धवचनातिशेपसम्पाप्तः, इह वचनातिशेषस्योपादानमत्यन्तोपकारितया प्राधान्यख्यापनार्थम् , अन्यथा देहवैमल्यादयस्ते पश्यन्ते,
तथा ( चाह)-देहं विमलमुगन्धं आमयपस्सेयवज्जियं अरयं । रुहिरं गोक्खीराभं निविसं पंडुरं मंस ॥१॥ मित्यादि, 'पणती|साए सवयणातिसेससंपत्ते पञ्चत्रिंशत् ये सत्यवचनस्यातिशेषा-अतिशयास्तान् सम्पाप्तः पञ्चत्रिंशद्वचनातिशेषसम्माप्तः, ते चामी सत्यवचनातिशेषाः-संस्कारवत्त्वं १ उदात्तत्वं २ उपचारोपेतत्वं ३ गम्भीरशब्दत्वं ४ अनुनादित्वं ५ दक्षिणत्वं ६ उपनीत
रागत्वं ७ महार्थत्वं ८ अव्याहतपौर्वापर्यत्वं ९ शिष्टत्वं १० असन्दिग्धत्वं ११ अपहृतान्योत्तरत्वं १२ हृदयग्राहित्वं १३ देशकालवायुतत्वं १४ तत्त्वानुरूपत्वं १५ अप्रकीर्णप्रसूतत्वं १६ अन्योन्यगृहीतत्वं १७ अभिजातत्वं १८ अतिस्निग्धमधुरत्वं १९ अपरममे-| विधित्वं २० अर्थधर्माभ्यासानपेतत्वं २१ उदारत्वं २२ परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रमुक्तत्वं २३ उपगतश्लाघत्वं २४ अनपनीतलं २५ उत्पादिताविच्छिन्नकौतूहलत्वं २६ अद्भुतत्वं २७ अनतिविलम्बित्वं २८ विभ्रमविक्षेपफिलिकिश्चितादिवियुक्तत्वं २९ अनेकजाति-|
॥१२॥ संश्रयाविचित्रत्वं ३० आहितविशेषत्वं ३१ साकारत्वं ३२ सत्त्वपरिगृहीतत्वं ३३ अपरिखेदितत्वं ३४ अव्युच्छेदित्वं ३५ चेति,
तिर्थकरस्य ३५ वचनातिशया:
~33~
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
---------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
४
तत्र संस्कारवत्त्वं संस्कृतादिलक्षणयुक्तत्वं, उदात्तत्वं उच्चैदृत्तिता उपचारोपेतत्वम्-अग्राम्यता, गम्भीरशब्दत्वं मेघस्येव, अनुनादिता प्रतिरचोपेतत्वं, दक्षिणत्वं सरलता, उपनीतरागत्वं-उत्पादिता श्रोतृजने स्वविषयवहुमानता, एते सप्त शब्दापेक्षा अतिशयाः, अत उर्दू त्वर्थाश्रयाः, तत्र महार्थत्वं-परिपुष्टार्थाभिधायिता, अव्याहतपौर्वापर्यत्वं-पूर्वापरवाक्याविरोधः, शिष्टत्वं वक्तः शिष्टत्वमूचनात , असन्दिग्धत्वं परिस्फुटार्थप्रतिपादनात् , अपद्रुतान्योचरत्वं-परदूषणाविषयता, हृदयग्राहित्वं-दुर्गमस्याप्यर्थस्य परहृदये मवेशकरणं, देशकालाव्यतीतत्वं प्रस्तावोचितता, तत्त्वानुरूपत्वं-विवक्षितवस्तुस्वरूपानुसारिता, अपकीर्णमस्तत्व-सम्बन्धाधिकारपरिमितता, अन्योऽन्यमगृहीतत्वं-पदानां गाक्यानां वा परस्परसापेक्षता, अभिजातत्व-यथाविवक्षितार्थाभिधानशीलता, अतिस्निग्ध
मधुरत्वं युभुक्षितस्य घृतगुहादिवत्परमसुखकारिता, अपरमर्मवेधित्वं परमर्मानुघट्टनशीलता, अर्थधर्माभ्यासानपेतत्व-अर्थधर्मप्रति-16 अबद्धता, उदारवं-अतिविशिष्टगुम्फगुणयुक्तता अतुच्छार्थप्रतिपादकता वा, परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्वं प्रतीतं, उपगतश्लाघवं-18
उक्तगुणयोगतः प्राप्तश्लाघता, अनुपनीतत्वं कारककालवचनलिङ्गादिव्यत्ययरूपवचनदोषापेतता, उत्पादिताविरिछन्नकुतूहलत्वंश्रोतृणां स्वविषये उत्पादितं-जनितमविच्छिन्नं कौतूहलं-कौतुकं येन तसथा तद्भावस्तत्त्वं, श्रोतृषु स्वविषयाद्भुतविस्मयकारितेति भावः, अद्रुतत्वमनतिविलम्बित्वं च प्रनीतं, विभ्रमविलेपकिलिकिञ्चितादिवियुक्तत्वमिति-विभ्रमो-वक्तर्धान्तमनस्कता विक्षेपी-वक्तरेचाभिधेयार्थ प्रत्यनासक्तता किलिकिश्चितं रोषभयलोभादिभावानां युगपदसकृत्करणं आदिशब्दान्मनोदोषान्तरपरिग्रहः तैविंयुक्तं यत्तत्तथा । तद्भावस्तत्त्वं, अनेकजातिसंश्रयाद्विचित्रत्वं-सर्वभाषानुयायितया चित्ररूपता, आहितविशेषत्वं-श्रेषपुरुषवचनापेक्षया शिष्येषूत्पादितमतिविशेषता, साकारत्वं-विच्छिन्नपदवाक्यता, सत्त्वपरिगृहीतत्वम्-ओजस्विता, अपरिखेदित्वम्-अनायाससम्बवात् , अव्यवच्छेदित्वं
अनुक्रम
3933
SAMEaintina
तिर्थकरस्य ३५ वचनातिशया
~34~
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी या वृत्तिः
॥ १३ ॥
विवक्षितार्थसम्यसिद्धिं यावदविच्छिन्नवचनप्रमेयतेति । आगासफालियामएण' आकाशस्फटिक-यदाकाशवत् अतिस्वच्छ स्फटिक राजादिपर्यतन्मयेन 'धम्मज्झएणं'ति धर्मचक्रवर्तित्वमुचकेन केतुना महेन्द्रध्वजेनेत्यर्थः, तथा 'पुन्वाणुपुचि चरमाणे' इति पूर्वानुपूर्व्या क्रमेणेत्यर्थः चरन् सश्चरन् , एतदेवाह-'गामाणुगाम दूइज्जमाणे' इति ग्रामश्चानुग्रामश्च-विवक्षितग्रामादनन्तरं ग्रामो ग्रामानुग्राम, तत् द्रवन्गच्छन् , एकस्मादनन्तरं ग्राममनुल्लायन् इत्यर्थः, अनेनापतिबद्धविहारिता ख्यापिता, तत्राप्यौत्सुक्याभावमाह-सुहसुहेणं म्०४ विहरमाणे' सुखसुखेन-शरीरखेदाभावेन संयमवाघाविरहेण च ग्रामादिषु विहरन-अवतिष्ठमानो 'जेणेवेति पाकृतत्वात्सप्तम्यर्थे । तृतीया यस्मिन्नेव देशे आमलकल्पा नगरी यस्मिन्नेव च प्रदेशे वनखण्डो यस्मिन्नेव देशे सोऽनन्तरोक्तस्वरूपः शिलापट्टकः 'तेणामेवेति| तस्मिन्नेव देशे उपागच्छति, उपागत्य च पृथिवीशिलापट्टके पूर्वाभिमुखः, तीर्थकृतो हि भगवन्तः सदा समवसरणे पृथिवीशिला-- पट्टके वा देशनाय पूर्वाभिमुखा अवतिष्ठन्ते संपर्यडूनिषण्णाः, संयमेन तपसा चात्मानं भावयन् विहरन आस्ते।। ततः पर्षनिगमो वाच्यः, स चवं 'तए णं आमलकप्पानयरीए सिंघाडगतियचउकचच्चरचउम्मुहमहापहेसु बहुजणो अण्णमण्णं एवमाइकखद एवं भासेइ एवं पण्णवेई एवं परूवेड-एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे जाव आगासगएणं छत्तेणं जाव संजमेणं तपसा अप्पाणं| भावमाणे विहरति, तं महाफलं खलु देवाणुप्पियाणं तहारूवाणं अरहताणं नामगोयस्सवि सवणयाए किमंग पुण अभिगमणवंदणनसणपटिपुच्छणपज्जुवासणयाए, सेयं खलु एगस्सवि आयरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स ॥१३॥ अस्स गहणयाए ?, तं गच्छामो णं देवाणुपिया! समणं भगवं महावीरं वदामी णमंसामो सकारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं इयं पज्जुवासेमो, एयं तं इहभवे परभवे य हियाए (मुहाए खमाए निस्सेसाए) आणुगामियत्ताए भविस्सइ, तए णं आमलकप्पाए.
~35
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
-------------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
४
नयरीए वहवे उग्गा भोगा' इत्याद्यौपपातिकग्रन्थोक्तं सर्वमवसातव्यं यावत् समग्राऽपि राजप्रभृतिका परिषत्पर्युपासीना अवतिष्ठते ॥
ते णं काले णं ते णं समए णं सूरिया देवे सोहम्मे कप्पे मूरियाभे विमाणे सभाए सुहम्माए सूरियाभांस सिंहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं अग्गमाहसीहिं सपरिवाराहि तिहिं परिसाहि सत्चहि अणियाहि सनहि अणियाहिवईहि सोलसहिं आयरकखदेवसाहसीहिं अन्नेहि य बाहिँ सूरियाभविमाणवासीहि वेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिबुडे महयाऽऽहयनहगीयवाइयततीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवादियरवणं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति,इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दी दीवं विउलणं ओहिणा आभोएमाणे २ पासति ।
'ते णं काले णमित्यादि, ते इति भाकृतशैलीवशात्तस्मिन्निति द्रष्टव्यं, यस्मिन्काले भगवान् बर्द्धमानस्वामी साक्षाद्विहरति तस्मि-16 काले 'ते णं समए णति तस्मिन् समये यस्मिन्नवसरे भगवानाम्रशालबने चैत्ये देशनां कृत्वोपरतस्तस्मिन्नवसरे इति भावः, मयोभो नाम्ना देवो, नामशब्दो हाव्ययरूपोऽप्यस्ति, ततो विभक्तिलोपः, ततो सौधौख्ये कल्पे यत्सूर्याभनामकं विमानं तस्मिन् या सभा सुधाभिधा तस्यां यत्सूर्याभाभिधानं सिंहासनं तत्रोपविष्टः सन्निति गम्यते, 'चरहिं सामाणियसाहस्सीहिं' इति समायुने तिविभवादी भवाः सामानिकाः, अध्यात्मादित्वादिकण, विमानाधिपतिमूर्याभदेवसदृशद्युतिविभवादिका देवा इत्यर्थः, ते च मातृपितृगुरूपाध्यायमहत्तरवत्सूर्याभदेवस्य पूजनीयाः, केवलविमानाधिपतित्वहीना इति सूर्याभं देवं स्वामिनं प्रतिपन्नाः, तेषां सहस्राणि सामा
अनुक्रम
3.GOOD
REaratinidina
com
सूर्याभदेवस्य वर्णनं
~36~
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[4]
दीप
अनुक्रम
[५]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
॥ १४ ॥
निकसहस्राणि तैश्रतुभिः, प्राकृतत्वाच्च सूत्रे सकारस्य दीर्घत्वं स्त्रीत्वं च ' चतसृभिरग्रमहिपीभिः इह कृताभिषेका देवी महिषीत्युच्यते, सा च स्वपरिवारभूतानां सर्वासामपि देवीनामग्रे इत्यग्राः, अग्राथ वा महिष्यथ अग्रमहिष्यस्ताभिश्रतसृभिः, कथम्भूताभिरित्याह- 'सपरिवाराभिः परिवारः सह यासां ताः सपरिवारास्ताभिः, परिवारचैकैकस्या देव्याः सहस्रं २ देवीनां तथा तिसृभिः पर्षद्भिः तिस्रो हि ॐ विमानाधिपतेः सर्वस्यापि पर्षदः, तद्यथा-अभ्यन्तरा मध्या बाह्या च तत्र या वयस्यमण्डलीकस्थानीया परममित्रसंहतिसदृशी सा अभ्यन्तरपर्षत्, तया सहापर्यालोचितं स्वल्पमपि प्रयोजनं न विदधाति, अभ्यन्तरपर्षदा सह पर्यालोचितं यस्यै निवेद्यते यथेदमस्माकं पर्यालोचितं सम्मतमागतं युष्माकमपीदं सम्पतं किंवा नेति सा मध्यमा, यस्याः पुनरभ्यन्तरपर्षदा सह पर्यालोचितं मध्यमया च सह टीकृतं यस्यै करणायैव निरूप्यते यथेदं क्रियतामिति सा बाह्या, तथा 'सत्तर्हि अणिएहिं' इति अनीकानि - सैन्यानि, तानि च सप्त, तद्यथा-हयानीकं गजानीकं रथानीकं पदात्यनीकं उपमानीकं गन्धर्वानीकं नाव्यानीकं तत्रायानि पञ्चानीकानि सङ्ग्रामाय कल्प्यन्ते, गन्धर्वनाय्यानकेि पुनरुपभोगाय, तैः सप्ताभिरनीकैः, अनीकानि स्वस्वाधिपतिव्यतिरेकेण न सम्यक् प्रयोजने समागते सत्युपकल्प्यन्ते ततः सप्तानीकाधिपतयोऽपि तस्य वेदितव्याः, तथा चाह- 'सत्तहिं अणियाहिवईहिं,' तथा 'पोडशभिरात्मरक्षदेवसहस्रै रिति विमानाधिपतेः सूर्याभस्य देवस्यात्मानं रक्षयन्तीत्यात्मरक्षाः, 'कर्मणोऽणि' त्यण् प्रत्ययः, ते च शिरस्त्राणकल्पाः, ॐ यथा हि शिरखाणं शिरस्याविद्धं प्राणरक्षकं भवति तथा तेऽप्यात्मरक्षका गृहीतधनुर्दण्डादिमरहरणाः समन्ततः पृष्ठतः पार्श्वतोऽग्रतश्रावस्थायिनी विमानाधिपतेः सूर्याभस्य देवस्य प्राणरक्षकाः, देवानामपायाभावात् तेषां तथाग्रहणपुरस्सरमवस्थानं निरर्थकमिति चेत्, न, स्थितिमात्रपरिपालनहेतुत्वात् प्रकर्षहेतुत्वाच्च तथा हि ते समन्ततः सर्वासु दिक्षु गृहीतमहरणा ऊर्द्धस्थिता अवति शनाः
श्रीराजश्री मलयगिरीया वृत्तिः
सूर्याभदेवस्य वर्णनं
For Penal Use Only
~37~
सूर्याभेण वीरदर्शनं
मृ० ५
॥ १४ ॥
nary or
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
-------------- मूलं [५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
स्वनायकशरीररक्षणपरायणाः स्वनायकैकनिषण्णदृष्टयः परेषामसहमानानां क्षोभमापादयन्तो जनयन्ति स्वनायकस्य परां प्रीतिमिति, एते च नियतसङ्ख्याकाः मूर्याभस्य देवस्य परिधारभूता देवा उक्ताः, ये तु तस्मिन् सूर्याभे विमाने पौरजनपदस्थानीया ये त्वाभि| योग्याः-दासकल्पास्तेऽतिभूयांसः आस्थानमण्डल्यामपि चानियत्तसङ्ख्याका इति तेषां सामान्यत उपादानमाह-'अन्नेहिं यहूहि मूरियाभविमाणवासीहिं देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिबुडे' एतैः सामानिकप्रभृतिभिः सार्द्ध संपरितृतः-सम्यग्नायकैकचित्ताराधनपरतया परिश्तः, 'महयाऽऽहये त्यादि, महता रवेणेति योगः 'आया' इति आख्यानकातिबद्धानीति वृद्धाः, अथवा अहतानि-अव्याहतानि, अक्षतानीति | भावः, नाट्यगीतवादितानि च तन्त्री-वीणा तला-हस्ततालाः कंसिका तुटितानि-शेषतूर्याणि, तथा घनो-धनसहशो ध्वनिसाधर्म्यत्वात यो मृदगी-मईल: पटुना-दक्षपुरुपेण प्रवादितः, तत एतेषां पदानां द्वन्दः, तेषां यो वस्तेन, दिव्यान्-दिवि भवान् अतिप्रधानानित्यर्थः, 'भोगभोगाई' इति भोगार्हा ये भोगाः-शब्दादयस्तान् , मूत्रे नपुंसकता पाकृतत्वात् , प्राकृते हि लिङ्गव्यभिचारः, यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे-लिङ्ग व्यभिचार्यपी ति, भुञ्जानो 'विहरति आस्ते, न केवलमास्ते किंत्विम-प्रत्यक्षतया उपलभ्यमान 'केबलकल्या ईपदपरिसमाप्त केवलं केवलज्ञानं केवलकल्पं, परिपूर्णतया केवलसदृशमिति भावः, जम्चा रत्नमय्या उत्तरकुरुवा|सिन्या उपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीपस्तं जम्बूद्रीपाभिधानं दीपं 'विपुलेन' विस्तीर्णनावधिना, तस्य हि मूर्याभस्य देवस्यावधिरधः प्रथमां पृथिवीं यावत्तिर्यक् असङ्ख्येयान् द्वीपसमुद्रानिति भवति विस्तीर्णस्तेनाभोगयन्-परिभावयन् पश्यति, अनेन सत्यप्यवधी यदि तं ज्ञेयविषयमाभोग न करोति तदा न किश्चिदपि तेन जानाति पश्यति वेत्यावेदितं ॥
तस्थ समणं भगवं महावीर जंबूद्दीवे भारहे वासे आमलकप्पाए नयरीए बहिया अंबसालवणे चेहए
अनुक्रम
REmiration
सूर्याभदेवस्य वर्णनं
~38~
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
---------- मूलं [५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
AO
| मर्याभेण
श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी या वृत्तिः
वीरदर्शनं
प्रत
॥१५॥
अहापडिरुवं उंग्गह उम्गिमिहत्ता संजमणं तवसा अप्पाणं भावमाणं पासति, पासित्ता हतचित्तमाणदिए णदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए विकसियवरकमलणयणे पयलियवरकडगतुडियकेउरमउडकुंडलहारविरायंतरइयवच्छे पालंबपलंबमाणघोलंतभूमणधरे ससंभमं तुरियचवलं सुरवरे (जाव)[सीहासणाओ अब्भुढेइ २ चा पायपीढाओ पञ्चोरुहति, २ चा एगसाडियं उत्तरासंगं करेति, २ता सत्नट्ठपयाई तित्थयराभिमुहे अणुगच्छति, २ ना बाम जाणुं अंचेति, २ ना दाहिणं जाणुं धरणितलंसि णिहहु तिखुनो मुद्धाणं धरणितलंसि णिवेसेइ, णिवेसित्ता ईसिं पचुन्नमइ, ईसिं पभुन्नमइत्ता करतलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावनं मत्थए अंजलिं कड्ड एवं वयासी-णमोऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं आदिगराणं तित्थगराणं सयंसंबुद्धाणं पुरिसोत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुंडरीयाणं पुरिसवरगंधहत्थीणं लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहिआणं लोगपईवाणं लोगपज्जोयगराणं अभयदयाणं चखुदयाणं मग्गदयाणं जीवदयाणं सरणयाण बोहिदयाणं धम्मयाणं धम्मदेसयाणं धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंतचक्कवट्ठीणं अप्पडिहयवरनाणदसणधराणं वियदृच्छउमाणं जिणाणं जावयाणं तिषणाणं तारयाण बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोयगाणं सम्वन्नूर्ण सव्वदरसीणं सिवमयलमरुयमणंतमल्सयमवाचाहमपुणरावनं सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपचाणं, नमोऽस्थु ण समणस्स भगवओ
Santauratoni
n
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आगमनं
~39~
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
---------- मूलं [५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स, वंदामि ण भगवन्तं तत्थगयं इह गते ] पास मे भगवं तत्थ गते इहगतंतिकडु वंदति णमंसति वंदित्ता णमंसित्ता सीहासणवरगए पुन्वाभिमुहं सण्णिसण्णे। (सू०५)तएणं तस्स सुरियाभस्स इमे एतारूवे अभत्थिते चिंतिते मणोगते संकप्पे समुपज्जित्था
'तत्र तस्मिन्विपुलेनावधिना जम्बूद्वीपविषये दर्शने प्रवर्तमाने सति 'श्रमण श्राम्यति-तपस्यति नानाविधमिति श्रमणः, भगःसमग्रैश्चर्यादिलक्षणः, उक्त च-"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, पण्णां भग इतीङ्गाना ॥१॥"
भगोऽस्यास्तीति भगवान भगवन्तं 'मूर वीर विक्रान्ती' वीरयति-पायान् प्रति विक्रामति स्मेति वीरः महांश्चासौ बीरच महा-| कावीरस्तं, जम्बूद्वीपे भारते वर्षे आमलकल्पायां नगयाँ बहिराम्रशालबने चैत्ये अशोकवरपादपस्याधः पृथिवीशिलापट्टके सम्पर्यङ्क
निषण्णं श्रमणगणसमृद्धिसंपरित प्रतिरूपमवग्रहं गृहीत्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन्तं पश्यति, दृष्टा च-'हद्वतुट्ठमाणदिए' इति, दृष्टतुष्टोऽतीवतुष्ट इति भावः, अथवा हृष्टो नाम विस्मयमापन्नो, यथा-अहो भगवानास्ते इति, तुष्टः सन्तोषं कृतवान्, यथा-भव्यमभूत् यन्मया भगवानालोकितः, तोषवशादेव चित्तमानन्दितं-स्फीतीभूतं 'टु नदि समृद्धाविति वचनात् , यस्य स चित्तानन्दितः, सुखादिदर्शनात्याक्षिको निष्ठान्तस्य परनिपातः, मकारः प्राकृतत्वादलाक्षणिकस्ततः पदत्रयस्य पदद्वय २ मीलने कर्मधारयः, 'पीइमणे, इति' प्रीतिमनसि यस्यासौं प्रीतिमनाः, भगवति बहुमानपरायण इति भावः, ततः कमेण बहुमानोत्कर्षवशात् 'परमसोमणस्सिएर इति शोभनं मनो यस्य स सुमनास्तस्य भावः सौमनस्यं परमं च तत्सौमनस्यं च परमसौमनस्यं तत्सञ्जातमस्येति परमसौमन
marary.orm
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आगमनं
~ 40~
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
-------------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीराजपनी स्थितः, एतदेव व्यक्तीकुर्वन्नाह-'हरिसवसविसप्पमाणहियए हर्षवशेन विसर्पत-विस्तारयायि हृदयं यस्य स हर्षवशविसर्पद्ध- वीरवन्दमलयगिरी- दयः, हर्षवशादेव 'वियसियवरकमलनएणे विकसिते वरकमलबत् नयने यस्य स तथा, हर्षवशादेव शरीरोद्धर्षेण 'पयलियवरकड- नाय जिगया वृत्तिःगतुडियकेउरमउडकुंडले ति प्रचलितानि बराणि कटकानिकलाचिकाभरणानि त्रुटितानि-बाहुरक्षकाः केउराणि-बाहाभरण- मिषा
विशेषरूपाणि मुकुटो-मौलिभूषणं कुण्डले कर्णाभरणे यस्य स प्रचलितवरकटकत्रुटितकेयूरमुकुटकुण्डलः, तथा हारेण विराजमानेन रचित-शोभितं वक्षो यस्य स हारविराजमानरचिववक्षाः, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः समासः, तथा प्रलम्बतेक
इति मलम्बा-पदकस्तं प्रलम्बमान-आभरणविशेष घोलन्ति च भूपणानि धरन्तीति प्रलम्बप्रलम्बमानघोलभूषणधरः, मूत्र डच प्रलम्बमानपदस्य विशेष्यात्परतो निपातः प्राकृतत्वात् , हर्षवंशादेव 'ससंभम संभ्रम इह विवक्षितक्रियाया बहुमानपूर्विका
प्रवृत्तिः सह सम्भ्रमो यस्य बन्दनस्य नमनस्य वा तत्ससम्भ्रम, क्रियाविशेषणमेतत् , त्वरित-शीघ्र चपलं-सम्भ्रमवशादेव व्याकुलं यथा भवत्येवं सुरवरो-देववरो यावत्करणात् 'सीहासणाओ अब्भुटेइ अब्भुद्वित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहति २ चा पाउयाओ ओमुयह ओमुयइत्ता तित्थयराभिमुहे सत्तटुपयाई अणुगच्छइ अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ [ उत्पाटयति ] दाहिणं जाणुं धरणितलांस | निहहु तिखुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि निमेइ निमित्ता (निवेसेइ २ ता ) ईसिं पच्चुन्नमइ पच्चुन्नमित्ता कडियतुडियर्थभियभुयाओ साहरइ साहरित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कदु एवं वयासी नमोऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव ठाणं संपत्ताणं, नमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स आदिगरस्स तित्थयरस्स जाय संपाविउकामस्स, बंदामि ण भगवंतं तत्व
O ॥१६॥ गयं इह गए' इति परिग्रहः, पश्यति मां स भगवान् तत्र गत इह गतमिति कृत्वा वन्दते-स्तौति नमस्पति-कायेन मनसा च
दीप
अनुक्रम
[६]
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आगमनं
~ 41~
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
-------------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
का वन्दित्या नमस्यित्वा च भूयः सिंहासनवरं गतो गत्वा च पूर्वाभिमुखं सन्निषण्णः ।। 'तएणं तस्से त्यादि. 'ततो' निपदनानन्तरं 'तस्य।
सूर्याभदेवस्य अयमेतद्रूपः सङ्कल्पः समुदपद्यत, कथम्भूत इत्याह-' मनोगतः' मनसि गतो-व्यवस्थितो, नाद्यापि वचसा प्रकाशितडास्वरूप इति भावः, पुनः कथम्भूत इत्याह-आध्यात्मिकः आत्मन्यध्यध्यात्म तत्र भव आध्यात्मिकः, आत्मविषय इति भावः, सङ्कल्पश्च द्विधा भवति-कश्चिद् ध्यानात्मकः अपरश्चिन्तात्मकः, तत्रायं चिन्तात्मक इति प्रतिपादनार्थमाह-चिन्तितः चिन्ता सञ्जातास्येति चिन्तितः, चिन्तात्मक इति भावः, सोऽपि कश्चिदभिलाषात्मको भवति कश्चिदन्यथा, तत्रायमभिलाषात्मकः, तथा चाहप्रार्थितं प्रार्थनं प्रार्थो णिजन्तत्वात् अल्पत्ययः, पार्थः सञ्जातोऽस्येति प्रार्थितः, अभिलाषात्मक इति भावः, किंस्वरूप इत्याह
एवं (सेयं ) (मे) खलु समणे भगवं महावीरे जंबूद्दीवे दीवे भारहे वामे आमलकप्पाणयरीए बहिया अंबसालवणे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उम्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति, तं महाफलं खलु तहारूवाणं भगवंताणं णामगोयस्सवि सवणयाए किमंग पुण अहिगमणवंदणणमंसणपडिपुच्छणपज्जुवासणयाए ?, एगस्सवि आयरियस्त धम्मियस्य सुवयणस्स सवणयाए ?, किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ?,तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वदामि णमंसामि सकारेमि सम्माणेमि कल्लाणं मंगलं चेतियं देवयं पज्जुवासामि, एयं मे पेच्चा हियाए सुहाए समाए णिस्सेसाए आणु१ बंदिऊँ नमंसिडे सकारेउं सम्माणेउं (वृत्तिः) २ पज्जुवासिङ ( निः)
अनुक्रम
SAREaratani
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आगमनं
~ 42~
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
वरिवन्दनजिग
प्रत
श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी या वृत्तिः ॥१७॥
मिषा
सुत्रांक
गामियत्ताए भविस्सतित्तिकहु एवं संपेहेइ, एवं संपेहिता आभिओगे देवे सदावेद २ ना एवं वयासी (सू०६) -एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे आमलकप्पाए नयरीए पहिया अंबसालवणे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हिता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरद
'सेयं खलु ' इत्यादि, श्रेयः 'खलु ' निश्चितं 'मे' मम श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दितुं कायेन मनसा च पणन्तुं सत्कारयितुं कुसुमाञ्जलिमोचनेन पूजयितुं सन्मानयितुम् उचितपतिपत्तिभिराराधयितुं कल्याणं कल्याणकारित्वात् मङ्गलं दुरितोपशमकारित्वात् दैवतं देवं त्रैलोक्याधिपतित्वात् चैत्यं सुप्रशस्तमनोहेतुत्वात् पर्युपासितुं सेवितुम् ' इतिकृत्वा ' इतिहेतोः ‘एवं' यथा वक्ष्यमाणं तथा 'सम्पेक्षते । बुद्धया परिभावयति, संप्रेक्ष्य च आभियोगिकान्-आभिमुख्येन योजनं अभियोगः--प्रेष्यकर्मसु व्यापार्यमाणत्वं अभियोगेन जीवन्तीत्याभियोगिकाः 'वेतनादेर्जीवन्तीति इकण्मत्ययः, आभियोगिकाः खकर्मकरास्तान् शब्दापयति-12 आकारयति शब्दापयित्वा च तेषां सम्मुखमेवमवादीत्-एवं खलु देवानां प्रियाः इत्यादि सुगम, नवरं देवानां मियाःजवः प्राज्ञाः,
तं गच्छह णं तुमे देवाणुप्पिया ! जंबूद्दीवं दीवं भारहं वासं आमलकप्पं णयरिं अंबसालवणं चेइयं समणं भगवं महावीरं तिखुनो आयाहिणपयाहिणं करेह करना बंदह णमंसह वंदिता णमंसित्ता साई साई नामगोयाई साहेह साहित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स (सव्वओ समंता) जोयणपरिमंडलं जंकिंचि
अनुक्रम
॥१७॥
SAMEnirahindi
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आगमनं
~ 43~
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
-------------- मूलं [७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
तणं वा पनं वा कटुं वा सक्करं वा असुई अचोक्खं वा पूइ दुभिगंध सर्व आहुणिय आहुणिय एगते एडेह एडेता णच्चोदगंणाइमट्टियं पविरलपप्फुसियं रयरेणुविणासणं दिव्यं सुरभिगंधोदयवासं वसह वासित्ता णिहयरयं णहरयं भट्ठरयं उवसंतरयं पसंतरयं करेह करित्ता जलथलयभासुरप्पभूयस्स बिंटट्ठाइस्स दसद्धवण्णस्स कुसुमस्स जाणुस्सेहपमाणमिनं ओहिं वासं वासह वासित्ता कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूवमधमघंतगंधुझ्याभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूतं दिव्यं सुरवराभिगमणजोगं करेह कारबह करिता य कारवेना य खिप्पामेव (मम ) एयमाणनियं पञ्चप्पिण्णह (सू०७)
'तं गच्छह णमित्यादि, यस्मादेवं भगवान विहरन् वर्तते तत्-तस्माद्देवानां प्रिया ! यूयं गच्छत जम्बूद्वीपं २ तत्रापि भारत वर्ष । तत्राप्यामलकल्पां नगरी तत्राप्याम्रशालवनं चैत्यं श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिकृत्व:-त्रीन् चारान् आदक्षिणप्रदक्षिणं कुरुत, आदक्षिणाद -दक्षिणहस्तादारभ्य मदक्षिणः परितो भ्राम्यतो दक्षिण आदक्षिणप्रदक्षिणस्तं कुरुत, कृत्वा च वन्दध्वं नमस्यत, बन्दित्वा नमस्यित्वाच 'साई साईति' स्वानि र आत्मीयानि २ नामगोत्राणि, गोत्रम्-अन्वर्थस्तेन युक्तानि नामानि नामगोत्राणि, राजदन्तादिदर्शनानामशब्दस्य पूर्वनिपातः, साधयत कथयत, कथयित्वा च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सर्वतः-सासु दिक्षु समन्ततः सर्वासु विदिक्ष योजनपरिमण्डलं-परिमाण्डल्येन योजनप्रमाणं यत् क्षेत्र तत्र यत् 'तृणं' किलिश्चादि काष्ठं वा काष्ठशकलं वा पत्रं वा निम्बाऽश्वत्यादिपत्रजातं कचवरं वा-श्लक्ष्णतृणधूल्यादिपुञ्जरूपं, कथम्भूतमित्याह-'अशुचि' अशुचिसमन्वितमचोक्षम्-अपवित्रं पूयितं-कुथितमत एव दुरभि
अनुक्रम
SAREaratim
a
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आगमनं
~44
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
-------------- मूलं [७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
श्रीराजप्रश्नीगन्धं तत्संवर्तकवातविकुर्वणेनाहत्याहत्य एकान्ते-योजनपरिमण्डलात्क्षेत्रादवीयसि देशे 'एडयत' अपनयत एडयित्वा च नात्युदक आभियोमलयगिरी- नाप्यतिमृत्तिकं यथा भवति एवं सुरभिगन्धोदकवर्ष वर्षत, कथम्भूतमित्याह-दिव्यं प्रधानं सुरभिगन्धोपेतत्वात् , पुनः कथ- गिकस्य बीया वृत्तिः शम्भूतमित्याह-'पविरलपफुसियामिति प्रकर्षण याबद्रेणवः स्थगिता भवन्ति तावन्मात्रेणोत्कर्षेणेति भावः, स्पर्शनानि प्रस्पृष्टानि प्रवि- रान्तिके
धरलानि धनभावे कर्दमसम्भवात् अस्पृष्टानि-प्रकर्षवन्ति स्पर्शनानि मन्दस्पर्शनसम्भवे रेणुस्थगनासम्भवात् यस्मिन्वये तत्प्रविरल- गमनम्
प्रस्पृष्टं, अत एव 'रयरेणुविणासणं' श्लक्ष्णतरा रेणुपुद्गला रजः त एव स्थूला रेणवः, रजांसि च रेणवश्च रजोरेणवस्तेषां विनाशनं, काएवम्भूतं च सुरभिगन्धोदक वर्ष वर्षिया योजनपरिमण्डलं क्षेत्रं निहतरजः कुरुतेति योगः, निहतं रजो भूय उत्थानासम्भवात् यत्र
तन्निहतरजः, तत्र निहत्तत्वं रजसः क्षणमात्रमुत्थानाभावेनापि सम्भवति तत आह नष्टरजः-नष्ट सर्वथाऽदृश्यीभूतं रजो यत्र तन्नष्टरजः, तथा भ्रष्टुं-बातोद्भूततया योजनमात्रात् क्षेत्रात दूरतः पलायितं रजो यस्मात्तद् भ्रष्टरजः, एतदेव एकाथिंकद्वयेन प्रकटयति-उपशान्तरजः प्रशान्तरजः कुरुत, कृत्वा च कुसुमस्य जाताबेकवचनं कुसुमजातस्य जानूत्सेधप्रमाणमात्रमोघेन-सामान्येन सर्वत्र योजनपरिमण्डले क्षेत्र वर्ष वपत, किंविशिष्टस्य कुसुमस्येत्याह-'जलथलयभासुरप्पभूयस्स' जलजं च स्थलजं च जलस्थलजं जलजं पनादि स्थल विचकिलादि भास्वर-दीप्यमानं प्रभू-अतिप्रचुर, ततः कर्मधारयः, भास्वरं च तत्पभूतं च भास्वरप्रभूतं जलजस्थलजं च तत् भास्वरप्रभूतं च जलजस्थलजभास्वरमभूतं तस्य, पुनः कथम्भूतस्पेत्याह-'विंटट्ठाइस्स' वृन्तेन अधोवर्तिनातिष्ठतीत्येवंशीलं वृन्तस्थायि तस्य वृन्तस्थायिनः, वृन्तमधोभागे उपरि पत्राणीत्येवं स्थानशीलस्येत्यर्थः, 'दसद्धवनस्स' दशानाम? पश्च दशार्दै वर्णा यस्य तद् दशार्द्धवर्णं तस्य पश्चवर्णस्येति भावः, इत्थम्भूतस्य च कुसुमजातस्य वर्ष वर्णित्वा ततः योजनपरि
REairatomindian
ForNEPAVASUNDH
| भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आभियोगिक-देवानाम् आगमनं
~45~
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
-------------- मूलं [७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
मण्डलं क्षेत्रं दिव्यं-प्रधान मुरवराभिगमनयोग्यं कुरुत, कथम्भूतं सत् कृत्वा सुरवराभिगमनयोग्यं कुरुतेत्यत आह-'कालागुरुपवरकुंद
रुकतुरुकधूवमघमघतगंधुद्धयाभिरामं कालागुरु प्रसिद्धः प्रवर:-प्रधानः कुन्दुरुकः चीडा तुरुक-सिल्हक कालागुरुच प्रवरकुन्दुरुक-10 कारुकी च कालागुरुमवरकुन्दुरुचतुरुकाः तेषां धूपस्य यो मघमघायमानो गन्धः उद्धृतः-इतस्ततो विप्रसतस्तेनाभिराम-रमणीय
कालागुरुपवरकुन्दुरुकतुरुकधूपमघमघायमानगन्धोद्भूताभिरामं तथा शोभनो गन्धो येषां ते सुगन्धास्ते च ने वरगन्धाक्ष बासाः। सुगन्धवरगन्धास्तेषां गन्धः सोऽस्यास्तीति सुगन्धवरगन्धिक 'अतोऽनेकस्वरादिति' इकप्रत्ययः, अत एव गन्धवनिंभूतं, सौरभ्यातिशयात् गन्धगुटिकाकारमिति भावः, न केवलं स्वयं कुरुत किन्त्वन्यैरपि कारयत, कृत्वा च कारयित्वा च एतो ममाप्तिको क्षिप्रमेव-शीघ्रमेव प्रत्यर्पयत, यथोक्तकार्यसम्पादनेन सफलां कृत्वा निवेदयत ॥
तए ण ते आभियोगिया देवा सूरियाभेणं देवेणं एवं बुना समाणा हट्टतुटू जाव हियया करयलपरिग्गहियं (दसनह) सिरसावत्नं मत्थए अंजलिं कडु एवं देवो तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति, एवं देवो तहनि आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेता उत्तरपुरच्छिमं दिसिभागं अवकमंति, उत्तरपुरच्छिमं दिसिभागं अवकमित्ता वेउब्बियसमुग्धाएणं समोहणंति २ ता संखेजाई जोयणाई दंड निस्सरन्ति, तंजहा-रयणाणं वयराणं बेरुलियाणं लोहियकूखाणं मसारगल्लाणं हंसगभाणं पुग्गलाणं सोगंधियाणं जोइरसाणं अंजणपुलगाणं अंजणाणं रयणाणं जायरूवाणं अंकाणं फलिहाणं रिट्ठाणं अहाबायरे पुग्गले
अनुक्रम
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आभियोगिक-देवानाम् आगमनं
~46~
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
-------------- मूलं [८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
या वृत्तिः
श्रीराजप्रश्नी परिसाईति अहाना अहासहुमे पुग्गले परियायंति ता दोच्चपि वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणंति मलयगिरी- २ ता उत्तरउब्बियाई रुवाई विउब्बति २ चा ताए उक्किट्ठाए ( पसत्थाए ) तुरियाए चवलाए चंडाए
जयणाए सिग्याए उद्ध्याए दिवाए देवगइए तिरियमसंखेजाणं दीवसमुदाणं मझं मज्झेणं वीईवयमाणे २ जेणेव जंबुद्दीवे २ जेणेव भारहे वासे जेणेव आमलकप्पा णयरी जेणेव अंबसालवणे चेतिए जेणेच समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छिता समणं भगवं महावीरं तिक्रखुनो आयाहिणपयाहिणं करेंति २ चा वंदति नमसंति वैदित्ता नमंसिना एवं वदासि-अम्हे णं भंते ! सूरियाभस्स देवस्स आभियोगा देवा देवाणप्पियाणं बंदामो णमंसामो सकारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामो (सू०८)
'तए णमित्यादि, ततो णमिति पूर्ववत् ते आभियोगिका देवाः सूर्याभेन देवेन एवमुक्ताः सन्तो 'हत? जाव शाहियया' इति, अत्र यावच्छन्दकरणात् 'तुचित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसपमाणहियया' इति । द्रष्टव्यं, 'करयलपरिग्गहियामित्यादि, द्वयोहस्तयोरन्योऽन्यान्तरितालिकयोः सम्पुटरूपतया यदेकर मीलनं सा अञ्जलिस्तां ||
करतलाभ्यां परिगृहीता-निष्पादिता करतलपरिगृहीता तो दश नखा यस्यां एफैकस्मिन् हस्ते नखपञ्चकसम्भवात् दशनखा कातो तथा आवर्तनमावर्तः शिरस्यायों यस्याः सा शिरस्यावर्ता 'कण्ठेकाल उरसिलोमे त्यादिवत् अलुक् समासः, ताम् ,
"१७
JMERurationा
Ganasurary.com
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आभियोगिक-देवानाम् आगमनं
~47~
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
-------------- मूलं [८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
अत एवाह-मस्तके कृत्वा विनयेन वचनं सूर्याभस्य देवस्य प्रतिशृण्वन्ति-अभ्युपगच्छन्ति, कथम्भूतेन विनयेनेत्याह-एवं देवो तहत्ति आणाए' इति हे देव ! 'एवं' यथैव यूयमादिशत तथैवाज्ञया भवदादेशेन कुर्म इत्येवंरूपेण, देवो इत्यत्रौकार आमत्रणे प्राकृतलक्षणवशात् , यथा 'अज्जो' इत्यत्र, प्रतिश्रुत्य वचनं 'उत्तरपुरच्छिम उत्तरपूर्व दिग्भागं, ईशानकोणमित्यर्थः, तस्या
त्यन्तप्रशस्तत्वात् , अपकामन्ति गच्छन्ति, अपक्रम्य च वैक्रियसमुद्घातेन-वैक्रियकरणाय प्रयत्नविशेषेण समोहनन्ति-समबहकान्यन्ते समवहता भवन्तीत्यर्थः, समवहताथात्मपदेशान् दूरतो विक्षिपन्ति, तथा चाह-'संखेजाणि जोयणाणि दंडं निस्सरन्ति' दण्ड भइव दण्डः-ऊोध आयतः शरीरबाहल्यो जीवप्रदेशसमूहस्तं शरीरादहिः सख्येयानि योजनानि यावन्निसजन्ति-निष्काशयन्ति, | निसृज्य तथाविधान् पुद्गलानाददते, एतदेव दर्शयति, तद्यथा-रत्नानां कर्केतनादीनां १ बत्राणां २ बर्याणां ३ लोहिताक्षाणां ४ मसारगल्लाणं ५ हंसगर्भाणां ६ पुद्गलानां ७ सुगन्धिकानां ८ ज्योतीरसानां ९ अञ्जनपुलकानां १० अञ्जनानां ११ रजतानां १२ जातरूपाणां १३ अडुनना १४ स्फटिकानां १५ रिष्टानां १६ योग्यान् यथावादरान्-असारान् पुद्गलान् परिशातयन्ति यथामूक्ष्मान -सारान् पुगलान् पर्याददते पयोदाय चिकीर्पितरूपनिर्माणार्थ द्वितीयमपि वारं वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्यन्ते, समवहत्य च यथोक्तानां रत्नादीनामयोग्यान् यथावादरान पुगलान परिभातयन्ति यथामूक्ष्मानाददते आदाय च ईप्सितानि उत्तरवैक्रियाणि विकुर्वन्ति, ननु । रत्नादीनां पायोग्याः पुद्गला औदारिका उत्तरवैक्रियरूपयोग्याश्च पुद्गला ग्राह्या वैक्रियास्ततः कथमेवं युक्तमिति ?, उच्यते, इह रत्नादिग्रहणं सारतामात्रप्रतिपादनार्थ, ततो रत्नादीनामिवेति द्रष्टव्यमिति न कश्चिदोषः, अथवा औदारिका अपि तैः गृहीताः सन्तो बक्रियतया परिणमन्ते, पुद्गलानां तत्तत्सामग्रीवशात् (तथा) तथापरिणमनस्वभावत्वादतोऽपि न कश्चिदोपः, तत एवमुसरक्रियाणि |
अनुक्रम
SAHEBucatun
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आभियोगिक-देवानाम् आगमनं
~48~
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
-------------- मूलं [८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
आभियो|गिकागमः
प्रत
चीन मतिः
श्रीराजमनी रूपाणि कृत्वा तया देवजनप्रसिद्धया उत्कृष्टया प्रशस्तविहायोगतिनामोदयात् प्रशस्तया शीघसञ्चरणात् 'त्वरितया त्वरा मलयगिरी- सञ्जाता अस्या इति त्वरिता तया प्रदेशान्तरक्रमणवती चपला तया क्रोधाविष्टस्येव श्रमासंवेदनात् चण्डेव चण्डा तया निरन्तरं या वृत्तिःशीघ्रत्वगुणयोगात् शीघ्रा तया शीघ्रया परमोत्कृष्टवेगपरिणामोपेता जवना तया वातोद्भूतस्य दिगन्तव्यापिनो रजस इव या गतिः
सा उदूना तया दिव्यया-दिवि देवलोके भवा दिव्या तया देवगत्या तिर्यगसङ्ख्येयाना द्वीपसमुद्राणां मध्यंमध्येन, मध्येनेत्यर्थः, ॥२०॥
गृहगृहेण मध्यंमध्येन पदंपदेन सुर्खसुखेनेत्यादयः शब्दाश्चिरन्तनव्याकरणेषु सुसाधवः प्रतिपादिता इति नायमपप्रयोगः, अब- पतन्तोऽवपतन्तः, समागच्छन्त इति भावः, पूर्वान् पूर्वान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिक्रामन्तो व्यतिक्रामन्तः, उल्लङ्घयन्त इत्ययः, शेष सुगम यावत्
देवाइ समणे भगवं महावीरे देवा एवं वदासी-पोराणमेयं देवा !जीयमेयं देवा! किञ्चमेयं देवा ! करणिजमेयं देवा! आइनमेयं देवा! अभणण्णायमेयं देवा! जण्णं भवणवइवाणमंतरजोइसियवेमाणिया देवा अरहते भगवते बंदति नमसंति बदिना नमंसिता तओ साई साई णामगोयाई साधिति तं पोराणमेयं देवा! जाव अम्भणुण्णायमेयं देवा ! ॥ (सू०९)
'देवाइ समणे स्यादि, देवादियोगात् देवादि श्रमणो भगवान महावीरस्तान देवानेवमवादीत-पुराणेषु भवं पौराणमेतत्कर्म सभी देवाः !, चिरन्तनैरपि देवैः कृतमिदं चिरन्तनान् तीर्थङ्करान् प्रतीति तात्पर्यार्थः, जीतमेतद्-वन्दनादिकं तीर्थकुद्यो भो देवा !
१ इतः पाक अभणुण्णायमेयमिति वृत्तिः ।
[८]
॥२०॥
SANERahimahinil
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आभियोगिक-देवानाम् आगमनं
~ 49~
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
-------------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
यतोऽभ्यनुज्ञातमेतत् सर्वैरपि तीर्थनिर्भो देवास्ततः कर्तव्यमेतद् युष्मादृशा भो देवाः!, एतदेव व्याचष्टे-करणीयमेतद् भो देवाः आचीर्णमेतत् कल्पभूतमेतद् भो देवाः, किं तदित्याह-'जन्न'मित्यादि, यत् 'णमिति पूर्ववत् भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवा अर्हतो भगवतो वन्दन्ते नमस्यन्ति, वन्दित्वा नमस्यित्वा च पश्चात्स्वानि २-आत्मीयानि २ नामगोत्राणि कथयन्ति, ततो युष्माकंमपि । भो देवाः ! पौराणमेतत् यावदाचीर्णमेतदिति ।।
तए णं ते आभिओगिया देवा समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ट जाब हियया समणं भगवं वदति णमंसंति बंदिता णमंसित्ता उत्तरपुरथिच्छिमं दिसीभागं अबक्कमंति अवकमित्ता देउब्धियसमग्याएणं समोहणंति २त्ता संखेज्जाई जोयणाई दंडं निस्सरंति, तंजहा-रयणाणं जाब रिद्वाणं अहाबायरे पोग्गले परिसाउँति अहाबायरे २ ना दोच्चपि बेउब्बियसमुग्धाएणं समोहणंति २ चा संवट्टवाए विउब्बति, से जहानामए भइयदारए सिया तरुणे जुगवं बलवं अप्पार्यके [थिरसंघयणे ] थिरग्गहत्थे पडिपुण्णपाणिपायपिटुंतरोरु [संघाय] परिणए घननिचियवट्टबलिय (बलियवट्ट) खंधे चम्मेलुगदुषणमुट्ठियसमाहयगने उरस्सबलसमन्नागए तलजमलजुयल [फलिहनिभ] बाहू लंघणपवणजइणपमहणसमत्थे छेए दक्खे पटे कुसले मेहावी णिउणसिप्पोवगए एगं महं दंडसंपुच्छणिं वा सलागाहत्थर्ग वा वेणुसलाइयं वा गहाय रायंगणं वा रायतेपुरं वा देवकुलं वा सभं वा पर्व वा आरामं वा उज्जाणं वा अतुरियम
Saintairatiniu
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आभियोगिक-देवानाम् आगमनं
~50~
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[१०]
दीप
अनुक्रम [१०]
मूलं [१०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
श्रीराजमश्री मलयगिरीया वृत्तिः
॥ २१ ॥
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
-
Ja Eucation D
चवलमसंभंते निरंतरं सुनिउणं सव्वतो समंता संपमज्जेज्जा, एवामेव तेऽवि सरियाभस्स देवस्स आभिओगिया देवा संवट्टवाए विउब्वंति, संवट्टवाए २ ता समणस्स भगवओ महावीरस्स सव्वतो समंता जोयणपरिमण्डलं जं किंचि तणं वा पत्तं वा तहेब सव्वं आहुणिय २ एगंते एडेंति एगंते २ ता खिप्पामेव उवसमंति, खिप्पा २ ना दोचंपि वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणंति, दोचंपि २ ना अभवद्दलए विउव्वंति अब्भः २ ता से जहाणामए भइगदारए सिया तरुणे जाव सिप्पोवगए एगं महं दगवारगं वादगथालगं वा दुगकलसगं वा दगकुंभगं वा आरामं वा जाव पर्व वा अतुरिय जाव सव्वतो समंता आवरिसेज्जा, एवामेव तेऽवि सूरियाभस्स देवस्स आभियोगिया देवा अभवद्दलए विउव्वंति अम्भ० २ नाखिप्पामेव पयणुतणायन्ति २ यित्ता खिप्पामेव विज्जुयाति २ चा समणस्स भगवओ महावीरस्स सव्वओ समता जोयणपरिमंडलं णञ्चोदगं णातिमट्टियं तं पविरलपप्फुसियं रयरेणुविणासणं दिव्वं सुरभिगंधोद (वास) वासंति वासेता हियरयं णटुरयं भट्ठर उवसंतरयं पसंतरयं करेंति, २ ना खिप्पामेव उवसामति २ ता तच्चपि वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहति २ ना पुप्फवद्दलए विजयंति से जहाणामए मालागारदारए सिया तरुणे जाव सिप्पोवगए एवं महं पुप्फपडलगं वा पुप्फचंगेरियं वा पुप्फछजियं वा गहाय रायंगणं वा जाव सव्वतो समंता कयग्गाहगाहियकरयलपन्भट्टविप्पमुक्केणं दसवनेणं कुसु
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आगमनार्थे समार्जनादिः
For Parts Only
~51~
सूर्याभागमनायः संमार्जनादि
सू० १०
॥ २१ ॥
norary or
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
-------------- मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
मेणं मुक्तपुप्फपुंजोवयारकलितं करेजा, एवामेव ते मरियाभस्स देवस्स आभिओगिया देवा पुप्फबद्दलए विउबंति २ ता खिप्पामेव पयणुतणायन्ति खिप्पा २ ना जाव जोयणपरिमण्डलं जलथलयभासुरप्पभूयस्स टिट्ठाइस्स दसद्धवनकुसुमस्स जाणुस्सेहपमाणमेत्तिं ओहिवासं वासंति वासित्ता कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूवमघमघंतगंधुयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवद्विभूनं दिव्वं सुरवराभिगमणजोगं करंति कारयति करेना य कारवेना य खिप्पामेव उवसामति २ ना जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिकखुत्तो जाव वंदित्ता नमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियातो अंबसालवणातो चेइयाओ पडिनिकखमंति पडिनिकखमित्ता ताए उक्किद्वाए जाव वीइवयमाणे २ जेणेव सोहम्मे कप्पे जेणेव सरियाभे विमाणे जेणेव सभा महम्मा जेणेव सुरियाभे देवे तेणेव उवागच्छंति २ ना सूरियानं देवं करयलपरिग्गहियं सिरसावनं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं बद्धाति २ ना तमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति ॥ (मू०१०)
'तए णमित्यादि । सुगम, यावत् ' से जहानामए भइयदारए सिया' इत्यादि, स वक्ष्यमाणगुणो यथानामकोऽनिर्दिष्टनामकः कविक्किदारक:-भूति करोति भूतिकः-कर्मकरः तस्य दारको भूतिकदारकः स्यात् , किंविशिष्ट इत्याह-तरुणः प्रवर्द्धमानवयाः| (ननु दारकः वर्धमानवया) एव भवति ततः किमनेन विशेषणेन !, न, आसन्नमृत्योः प्रवर्द्धमानवयस्त्वाभावात् , न द्यासन
अनुक्रम [१०]
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आगमनार्थे समार्जनादिः
~52~
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीराजप्रश्नी मृत्युः प्रवर्धमानवया भवति, न च तस्य विशिष्टसामर्थ्यसम्भवः, आसनमृत्युत्वादेव, विशिष्टसामर्थ्यप्रतिपादनार्थ आरम्भस्त- मयोभागममलयगिरी- तोऽर्थवद्विशेषणं, अन्ये तु व्याचक्षते-इह यद्यं विशिष्टवर्णादिगुणोपेतमभिनवं च तत्तरुणमिति लोके प्रसिद्ध, यथा तरुणमिदमश्वस्थ- नाय संमाया दृत्तिः पत्रमिति, ततः स भृतिकदारकस्तरुण इति, किमुक्तं भवति ? अभिनवो विशिष्टवादिगुणोपेतश्चेति, बलं-सामर्थ्य तद् यस्यास्तीति
मीनजनादि बलवान , तथा युग मुषमदुप्पमादिकालः स स्वेन रूपेण यस्यास्ति न दोषदुष्टः स युगवान् , किमुक्तं भवति ? कालोपद्रवोऽपिका ॥ २२॥
सामर्थ्यविघ्नहेतुः स चास्य नास्तीति प्रतिपत्त्यर्थमेतद्विशेषणं, युवा-यौवनस्था, युवावस्थायां हि बलातिशय इत्येतदुपादानं, 'अप्पायके' इति अल्पशब्दोऽभाववाची, अल्पः-सर्वथा अविद्यमान आतङ्को-स्वरादिर्यस्य सोऽल्पातकः स्थिरोऽग्रहस्तो यस्य | स स्थिराग्रहस्तः, 'दहपाणिपायपिटुतरोरुपरिणए' इति दृढानि--अतिनिविडचयापन्नानि पाणिपादपृष्टान्तरोरूणि परिणतानि
यस्य स दृढपाणिपादपृष्ठान्तरोरुपरिणतः, सुखादिदर्शनात् पाक्षिकः क्तान्तस्य परनिपातः, तथा धनम् अतिशयेन निचिती-निविडतर-16 जाचयमापनौ पलिताविव बलितौ वृत्तौ स्कन्धौ यस्य स घननिचितवलितवृत्तस्कन्धः, 'चम्मेद्रगघणमुद्रियसमाहयगत्ते' इति चयन
घणेन मुष्टिकया च-मुष्टया समाहत्य २ ये निचितीकृतगात्रास्ते चमेष्टकघणमुष्टिकसमाहतनिचितगात्रास्तेपामिव गात्रं यस्य स चर्मेष्टकद्रुघणमुष्टिकसमाहतनिचितगात्राः, 'उरस्सबलसमण्णागए ' इति उरसि भवं उरस्यं तच्च तद्धलं च उरस्यबलं तत्समन्वागतः-समनुप्रातः उरस्यबलसमन्वागतः आन्तरोत्साहवीर्ययुक्त इति भावः, 'तलजमलयुगलबाह ' तलौ-सालक्षी तयोर्यमलयुगल-O समश्रेणीकं युगलं तलयमलयुगलं तद्वदतिसरलौ पीवरौ च बाहू यस्य स तलयमलयुगलबाहु: 'लंघणपवणजइणपमद्दणसमत्थे। इति लड़ने-अतिक्रमणे प्लयने-मनाक् पृथुतरविक्रमवति गमने जवने--अतिशीघ्रगती प्रमर्दने कठिनस्यापि वस्तुनशूर्णनकरणे
अनुक्रम
[१०]
॥२२
Prep
REaratunintamaana
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आगमनार्थे समार्जनादिः
~53~
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
का समर्थः लहुनप्लवनजवनप्रमईनसमर्थः, कचित् 'लंघणपवणजइणवायामणसमत्थे' इति पाठः, तत्र व्यायामने-प्यायामकरणे इति व्याख्येयं, छेको-दासप्ततिकलापण्डितो, दक्षः-कार्याणामविलम्बितकारी प्रष्ठो वाग्मी कुशल:- सम्यक्रियापरिज्ञानवान् मेधावी परस्पराव्याहतः-पूर्वापरानुसन्धानदक्षः, अत एव 'निपुणसिप्पोवगए' इति निषुणः यथा भवति एवं शिल्पं क्रियासु कौशल उपगतः-प्राप्तो निपुणशिल्पोपगतः एक महान्तं शिलाकाहस्तकं-सरित्पादिशलाकासमुदायं सरित्पर्णादिशलाकामयीं सम्मार्जनीमित्यर्थः, वाशन्दो विकल्पार्यो, 'दंडसंपुच्छणि वा' इति दण्डयुक्ता सम्पुच्छनी सन्मार्जनी दण्डसम्पुरछनी तां वा 'वेणुसिलागिगं 6 वा' इति वेणुः-वंशस्तस्य शलाका वेणुशलाकास्ताभिनिता वेणुशलाकिकी-वेणुशलाकामयी सम्मानी तो वा गृहीत्वा राजाङ्गणं राजान्तःपुरं वा देवकुलं वा ' सभा वा सन्तो भान्त्यस्यामिति सभा-ग्रामप्रधानानां नगरपधानानां यथासुखमवस्थानहेतुर्मण्डपिका तांचा 'प्रपा वा पानीयशाला 'आरामं वेति' आगत्यागत्य भोगपुरुषा वरतरुणीभिः सह यत्र रमन्ते- क्रीडन्ति स आरामो
नगरानातिदूवती क्रीडाश्रयः तरुखण्टः तं 'उज्जाणं यति ' ऊर्दू विलम्बितानि प्रयोजनाभावात् यानानि यत्र तदुद्यान-नगराकात्मत्यासन्नवी यानवाहनकीटागृहाद्याश्रयस्तरुखण्डः, तथा अत्वरितमचपलमसम्भ्रान्तं, त्वरायां चापल्ये सम्भ्रमे वा सम्यकचवरा
पगमासम्भवात्, निरन्तरं न वपान्तरालमोचनेन, सुनिपुणं शक्ष्णस्याप्यचोक्षस्यापसारणेन, सर्वतः--सर्वासु दिक्षु विदिक्ष समन्ततः-सामस्त्येन सम्पमार्जयेत् , 'एवमेवेत्यादि, सुगम यावत् 'खिप्पामेव पच्चुवसमंती'त्यादि, एकान्ते तृणकाष्टायपसनीय लिममेव-शीघ्रमेव प्रत्युपशाम्यन्ति प्रत्येकं ते आभियोगिका देवाः उपशाम्यन्ति । संवर्तकवायुविकुर्वण्णाभिव-15 जन्ते, संवर्तकवातविकुर्वणमुपसंहरन्तीति भावः, ततो 'दोचंपि बेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणति , संवर्तकवातविकुर्वणार्थ
अनुक्रम [१०]
SAREaatanSHA
Rainrary.org
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आगमनार्थे समार्जनादिः
~54~
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[१०]
दीप
अनुक्रम
[१०]
मूलं [१०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि -प्रणीता वृत्तिः
श्रीराजमश्री मलयगिरीया वृत्तिः
॥ २३ ॥
Education
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
हि यद्वेलाद्वयमपि वैकियसमुद्घातेन समवहननं तत्किलैकं इदं त्वभ्रवालकविकुर्वणार्थी द्वितीयमत उक्तं द्वितीयमपि वारं वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्यन्ते (नन्ति), समवहत्य चान्भ्रवालकानि विकुर्वन्ति, वाः पानीयं तस्य दलानि वार्दलानि तान्येव वार्दलकानि मेघा इत्यर्थः, अपो विभ्रतीति अभ्राणि मेघाः, अभ्राणि सन्त्यस्मिन्निति 'अभ्रादिभ्य' इति मत्वर्थीयोऽप्रत्ययः, आकाशमित्यर्थः, अन्धे वार्दलकानि अन्भ्रवालकानि तानि त्रिकुर्वन्ति, आकाशे मेघानि विकुर्वन्तीत्यर्थः, 'से जहानामए भइगदारगे सिया' इत्यादि पूर्ववत् 'निउणसिप्पोवगए एवं महमित्यादि, स यथानामको भूतिकदारक एवं महान्तं 'दकवारकं वा' मृत्तिकामयभाजनविशेषं दगकुंभगं वा ति दकघर्ट, दकस्थालकं वा- कंसादिमयमुदकमृर्त भाजनं दककलसं वा उदकभृतं भृङ्गारं 'आवरिसिज्जा ' इति आवर्षेत् आ-समन्तात्सिञ्चेत्, 'खिप्पामेव पतणतणायंति' अनुकरणवचनमेतत् प्रकर्षेण स्तनितं कुर्वन्तीत्यर्थः, 'पविज्जुयाइति 'त्ति प्रकर्षेण विद्युतं विद्धति, 'पुष्फबदलए विजच्वंति पुष्पवृष्टियोग्यानि वार्दलिकानि पुष्पवादलिकानि पुष्पवर्षाकान् मेघान् विकुर्वन्तीति भावः, ' एगं महं पुप्फछज्जियं वा एकां महतीं छायते - उपरि स्थग्यते इति छाया छाद्यैव छायिका पुष्पैर्भूता छाधिका पुष्पछायिका तां वा पटलकानि प्रतीतानि, 'कयन्नाहगाहयकरयलपव्भट्टवि(प) मुकेणं' ति इह मैथुनसंरम्भे यत् युवतेः केशेषु ग्रहणं ॐ स कचग्रहस्तेन गृहीतं कचग्रहगृहीतं तथा करतलाद्वि(प्र) मुक्तं सत्मभ्रष्टं करतलमभ्रष्टवि (म) मुक्तं, माकृतत्वात्पदव्यत्ययस्ततो विशेषणसमासः, तेन, शेषं सुगमं यावत् 'जएणं विजएणं वद्धावेति' जयेन विजयेन वर्द्धापयन्ति, जयतु देवेत्येवं वर्द्धापयन्तीत्यर्थः, तत्र जयःपरैरनभिभूयमानता प्रतापवृद्धिश्व विजयस्तु परेषामसहमानानामभिभवोत्पादः, वर्द्धापयित्वा च तां पूर्वोक्तामाज्ञप्तिको प्रत्यर्पयन्ति, आदिष्टकार्यसम्पादनेन निवेदयन्तीत्यर्थः ॥
ॐ
SMI
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य आगमनार्थे समार्जनादिः
For Parts Only
~55~
सूर्याभागमनाय संभा
...र्जनादि
सू० १०
॥ २३ ॥
Torary org
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[११]
तए णं से सरियाभे देवे तेर्सि आभियोगियाणं देवाणं अंतिए एयम8 सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ जाव हियए पायत्ताणियाहिवई देवं सद्दावेति सद्दावेत्ता एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सूरियाभे विमाणे सभाए सुहम्माए मेघोघरसियगंभीरमहुरसदं जोयणपरिमंडलं सुसरघंट तिकूखुत्तो उल्लालेमाणे २ महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणे २ एवं वयासी-आणवेति णं भो मूरिया देवे गच्छति णं भो सूरियाभे देवे जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे आमलकप्पाए णयरीए अंबसालवणे चेतिते समणं भगवं महावीरं अभिवंदए, तुम्भेऽविणं भो देवाणुप्पिया ! सब्बिड़ीए जाव णातियरवणं णियगपरिवाल सद्धिं संपरिवुडा साति २ जाणविमाणाई दुरूढा समाणा अकालपरिहीणं चेव मूरियाभस्स देवस्स अंतियं पाउब्भवह । (मू०११)
'तए णमित्यादि, ततो 'णमिति' पूर्ववत् स सूर्याभो देवस्तेषां 'आभियोगाणीति आ-समन्तादाभिमुख्येन युज्यन्ते-घेण्यकर्मसु व्यापार्यन्ते इत्याभियोग्या आभियोगिका इत्यर्थः, तेषामाभियोग्यानां देवानामन्तिके समीपे एनम्-अनन्तरोक्तमर्थं श्रुत्वा श्रवणविषयं कृत्वा श्रवणानन्तरं च निशम्य-परिभाव्य ' हट्टतुट्ठजावाहियए ' इति यावच्छब्दकरणात् ' हट्टतुट्ठचित्तमाणदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए' इति द्रष्टव्यं, पदात्यनीकाधिपतिं देवं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत-क्षिप्रमेव भो देवानां प्रिय ! सभायां सुधर्मायां सुधर्माभिधानायां मेघोघरसियगंभीरमहुरसद' मिति मेघानामोधा-सातो मेघौघस्तस्य रसितं-15 गर्जितं तद्गम्भीरो मधुरश्च शब्दो यस्याः सा मेघौधरसितगम्भीरमधुरशब्दा तां 'जोयणपरिमंडलं' ति योजन-योजनप्रमाणं :
अनुक्रम [११]
MEarati
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे गमनाय उद्घोषणा
~56~
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[११]
दीप
अनुक्रम [११]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [११]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
श्रीराजमनी मलयगिरी -
या वृत्तिः
॥ २४ ॥
परिमण्डलं गुणप्रधानोऽयं निर्देशः पारिमण्डल्यं यस्याः सा योजनपरिमण्डला तां सुस्वरां-सुखराभिघानां घण्टामुहालयन् २ताडयन् ताडयन्नित्यर्थः महता २ शब्देन उद्घोषयन् उद्घोषणां कुर्व्वन् एवं वदति- आज्ञापयति भोः सूर्याभी देवो गच्छति भोः सूर्याभो देवो जम्बूद्वीपं भारतं वर्ष आमलकल्पां नगरीमात्र शालवनं चैत्यं यथा ( तत्र ) श्रमणं भगवं महावीरं वन्दितुं, तत् तस्मात्, 'तुभेऽवेि णमिति यूयमाप 'णमिति पूर्ववद् देवानां मियाः पूर्ववद् सर्वदर्था परिवारादिकया सर्वद्युत्यायथाशक्तिविस्फारितेन समस्तेन शरीरतेजसा सर्ववलेन समस्तेन हस्त्यादिसैन्येन सर्वसमुदायेन - स्वस्वाभियोग्यादिसमस्तपरिवारेण, सर्वादरेण समस्तयावच्छक्तितुलनेन सर्वविभूत्या सर्वया अभ्यन्तरक्रियकरणादिवाद्यरत्नादिसम्पदा सर्वावभूषयायावच्छक्तिस्फारोदार शृङ्गारकरणेन 'सव्वसंभ्रमेणति' सर्वोत्कृष्टेन संभ्रमेन, सर्वोत्कृष्टसम्भ्रमो नामेह स्वनायक विषय बहुमानख्यापनपरा स्वनायकोपदिष्टकार्यसम्पादनाय यावच्छक्तित्वरितत्वरिता प्रवृत्तिः, 'सव्वपुष्पवत्थगंधमलालंकारेणं' अत्र गन्धावासाः माल्यानि पुष्पदामानि अलङ्कारा- आभरणविशेषाः, ततः समाहारो द्वन्द्वस्ततः सर्वशब्देन सह विशेषणसमासः, 'सव्वदिव्यतुडियसद्द संनिनारणमिति सर्वाणि च तानि दिव्यत्रुटितानि च सर्वदिव्यत्रुटितानि तेषां शब्दाः सर्वदिव्यत्रुटितशब्दाः तेषामेकत्र मीलनेन यः सङ्गतेन नितरां नादो महान् घोषः सर्वत्रुटितदिव्यशब्दसन्निनादस्तेन, इह अल्पेष्वपि सर्वशब्दो दृष्टो यथा 'अनेन सर्वे पीतं घृत'मिति, तत आह-'महता इडीए' इत्यादि महत्या यावच्छक्तितुलितया ऋद्धयापरिवारादिकया, एवं 'महता जुईए' इत्याद्यपि भावनीयं, तथा महतां स्फूर्त्तिमतां वराणां प्रधानानां तुडतानां आतोद्यानां यमकसमकम् - एककालं पटुभिः पुरुषैः प्रवादितानां यो रवस्तेन एतदेव विशेषेणाचष्टे-' संखपणवपटहमेरिझल्लरखरमुहिहुडकमुरख
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे गमनाय उद्घोषणा
For Penal Use Only
~ 57~
| सेनापति
घोषणा
सू० ११
॥ २४ ॥
yor
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[११]
दीप
अनुक्रम
[११]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
-
मूलं [११]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
मुइंगदुंदुभिनिम्घोसनाइतरत्रेण शङ्कः-प्रतीतः पणवो भाण्डानां, पडहः प्रतीतः भेरी-ढका शहरी-चर्मावनद्धा विस्तीर्णा वलयाकारा खरमुही-काहला हुडका-प्रतीता महाप्रमाणो मर्दलो मुरजः स एव लघुर्मृदङ्गो दुन्दुभिः - भेर्याकारा सङ्कटमुखी एतेषां द्वन्द्वस्तासां निघोषो महान् ध्वानो नादितं च घण्टायामिव वादनोत्तरकालभावी सततध्वनिस्तल्लक्षणो यो स्वस्तेन, 'नियगपरिवार सद्धि संपरिवुडा' इति निजक:- आत्मीयः आत्मीयो यः परिवारस्तेन सार्द्धं तत्र सहभावः परिवाररीतिमन्तरेणापि सम्भवति तत आह- 'संपरिवुडा' सम्यक् परिवाररीत्या परिवृताः सम्परिवृताः, 'अकालपरिहीणं चेवे 'ति परिहानिः परिहीनं कालस्य परिहीनं कालविलम्ब इति भावः न विद्यते कालपरिहीनं यत्र प्रादुर्भवने तदकालपरिहीनं, क्रियाविशेषणमेतत्, 'अंतिए पाउब्भवह' अन्तिके-समीपे प्रादुर्भवत, समागच्छतेति भावः ।।'
तए णं से पायत्ताणियाहिवती देव सूरियाभेणं देवेणं एवं वृत्ते समाणे हट्टतुट्ठजावहियए एवं देवा ! तहत्ति आणाए विणणं वयणं पडिसुणेति, पडि २ ना जेणेव सूरियाभे विमाणे जेणेव सभा सुम्मा व मेघोघरसियगंभीरमहुरसद्दा जोयणपरिमंडला सुसरा घंटा तेणेव उवागच्छति २ नातं मेघोघरसितगंभीरमहरसहं जोयणपरिमंडलं सुसरं घंटं तिखुत्तो उल्लालेति । तए णं तीसे मेघीघरसितगंभीरमहरसदाते जोयणपरिमंडलाते सुसरात घंटाए तिकखुत्तो उल्लालियाए समाणीए से सूरिया विमाणे पासायविमाणणिकखुडावडियसडघंटा पडिसुयामयसहस्ससंकुले जाए यावि होत्था । तए णं ते सूरियाभविमाणवासिणं बहूणं वैमाणियाणं देवाण य देवीण य एगंतरइपमननिञ्चप्पमत्तविसयसुहमुच्छि
५
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे गमनाय उद्घोषणा
For Parts Use Only
~58~
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[१२]
दीप
अनुक्रम
[१२]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [१२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि -प्रणीता वृत्तिः
श्रीराजमश्री मलयगिरीया वृत्तिः
।। २५ ।।
ratn
या सुसरघंटारवविजलबोल (तुरियचवल) पडिचोहणे कए समाण घोसणको उहलादिन्नकन्नएगग्गचित्तउवउत्तमाणसाणं से पायत्ताणीयाहिवई देवे तंसि घंटारवंसि णिसंतपसंतंमि महया महया संदणं उग्घोसेमाणे उघोसेमाणे एवं वदासी-हंत सुणंतु भवंतो सूरियाभविमाणवासिणो बहवे वैमाणिया देवा यदेवीओ य! सूरियाभविमाणवरणो वयणं हियसुहत्थं आणवणियं भो ! सूरियाभे देवे गच्छद णं भी सूरिया देवे जंबूदीवं २ भारहं वासं आमलकप्पं नयरीं अंवसालवणं चेदयं समणं भगवं महावीरं अभिवंदए, तं तुम्भेऽवि
देवाप्पिया ! सविडीए अकालपरिहीणा चैव सूरियाभस्स देवस्स अंतियं पाउम्भवह ॥ ( सू० १२ ) 'तए णं से' इत्यादि 'जाव पडिमुमित्ता' इति, अत्र यावच्छन्दकरणात् 'करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावतं मत्थए अंजलि कट्टु एवं देवा । तहत्ति आणाए विणणं वयणं पडिमुणेइति द्रष्टव्यं तिक्खुत्तो उल्लाले 'ति त्रिकृत्वः- त्रीन वारान उल्लालयति ताडयति, ततो 'ण' मिति वाक्यालङ्कनरे तस्यां मेघौघरसितगम्भीरमधुर शब्दायां योजनपरिमण्डलायां सुखराभिधानायां घण्टायां त्रिकृत्वस्ताडितायां सत्यां यत् सूर्याभविमानं (तत्र) तत्प्रासादनिष्कुटेषु च ये आपतिताः शब्दाःशब्दवर्गणापुद्गलास्तेभ्यः समुच्छलितानि यानि घण्टामतिश्रुताशतसहस्राणि - घण्टामतिशब्दलक्षाणि तैः सङ्कलमपि जातमभूत्, किमुक्तं भवति ?-घण्टायां महता प्रयत्नेन ताडितायां ये विनिर्गताः शब्दपुद्गलास्तत्प्रतिघातवशतः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च दिव्यानुभावतः समुच्छलितैः प्रतिशब्दैः सकलमपि विमानमेकयोजनलक्षमानमपि वधिरितमजायत इति । एतेन द्वादशभ्यो योजनेभ्यः समागतः शब्दः श्रोत्रग्रावो भवति, न परतः, ततः कथमेकत्र ताडितायां घण्टायां सर्वत्र तच्छब्दश्रुतिरुपजायते । इति यचोयते
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे गमनाय उद्घोषणा
For Parts Only
~59~
सूर्याभरिमाने उद्घो
पणा
मू० १२
।। २५ ।।
arog
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२]]
तदपाकृतमवसेयं, सर्वत्र दिव्यानुभावतः तयारूपपतिशब्दोच्छलने यथोक्तदोषासम्भवात् । 'तए णमित्यादि, ततो 'णमिति पूर्ववत् तेषां सूर्याभदेवविमानवासिनो बहूनां वैमानिकदेवानां देवीनां च एकान्तेन सर्वात्मना रतौ-रमणे प्रसक्ता एकान्तरतिप्रमक्ता अत एव ।। नित्यं सर्वकालं प्रमत्ता नित्यप्रमत्ताः, कस्मादिति चेदत आह-'बिसयमुहमुच्छियात्ति' विषयसुखेषु मूञ्छिता-अध्युपपन्ना विषयसुखमू-- ञ्छिता अध्युपपन्नास्ततो नित्यप्रमत्ताः, ततः पदत्रयस्य पदद्वयमीलनेन विशेषणसमासः, तेषां 'सुसरघंटारवविउलबोलतुरियचचलपडिवोहणे' इति सुस्वराभिधानाया घण्टाया रवस्य यः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च प्रतिशब्दोच्छलनेन विपुलः-सकलविमानव्यापितया विस्तीणों बोल:-कोलाहलस्तन त्वरितं-शीघ्रं चपलं-आकुलं प्रतिबोधने कृते सति 'घोसणकोउहलादिन्नकन एगग्गचितउवउत्तमाणसाणमिति ' कीडग् नाम घोषणं भविष्यतीत्येवं घोषणे कुतूहलेन दत्ती कणों यैस्ते घोषणकुतूहलदत्तकाः , तथा एकाग्रं-घोषणाश्रवणकविषयं चित्तं येषां ते एकाग्रचित्ताः, एकाग्रचित्तत्वेऽपि कदाचिदनुपयोगः स्यादत आह उपयुक्तमानसाः, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासस्तेपा, पदात्यनीकाधिपतिर्देवस्तस्मिन् घण्टारवे 'निसंतपसंतसीति नितरां शान्तो निशान्तः अत्यन्तमन्दीभूतस्ततः प्रकर्षण सर्वात्मना शान्तः प्रशान्तः, ततश्छिन्नमरूद इत्यादाविच विशेषणसमासस्तस्मिन् महता २ शब्देन उद्घोषयन्नेवमवादीत् 'हन्त मुणंतु ' इत्यादि, हन्तेति हर्षे, उक्तं च-'हन्त हर्षेऽनुकम्पायामित्यादि, हर्षश्च स्वामिनाऽऽदिष्टत्वात् श्रीमन्महावीरपादवन्दनार्थं च प्रस्थानसमारम्भात् , शृण्वन्तु भवन्तो बहवः सूर्याभविमानवासिनो वैमानिकदेवा देव्यच, सूर्याभविमानपतेर्वचनं हितसुखार्थ हितार्थं सुखार्थं चेत्यर्थः, तत्र हितं जन्मान्तरेऽपि कल्याणाबई तथाविधकुशलं, सुखं तस्मिन् भवे निरुपद्रवता, आज्ञापयति भो देवानां प्रियाः! सूर्याभो देवो यथा गच्छति भोः ! सूर्याभो देवो! 'जम्बूद्वीपं द्वीपमित्यादि तदेव यावदन्तिके प्रादुर्भवत ॥
अनुक्रम [१२]
SAREatindsiellind
indiararyau
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे गमनाय उद्घोषणा
~60~
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [१३-१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजपनी मलयगिरीया वृत्तिःहा ॥२६॥
दिवानां मू
भान्तिके प्रादुर्भावः
सूत्रांक [१३-१४]
दीप
SHRSCOM
तए णं ते सरियाभविमाणयासिणो बहवे बेमाणिया देवा देवीओ य पायत्नाणियाहिवइस्स देवस्स अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ठ जावहियया अप्पेगझ्या वंदणवत्तियाए अप्पेगइया पूयणवत्तियाए अप्पेगड्या सकारवानियाए एवं संमाणवत्तियाए कोउहलवत्तियाए अप्पे असुयाई सुणिस्सामो सुयाई अट्ठाई हेऊई पसिणाई कारणाई वागरणाई पुच्छिस्सामो, अप्पेगइया सूरियाभस्स देवस्स वयणमणुयत्तमाणा अप्पेगतिया अन्नमन्नमणुयत्तमाणा अप्पेगइया जिणभत्निरागेणं अप्पेगइया धम्मोति अप्पेगइया जीयमेयंति कहु सब्बिड़ीए जाव अकालपरिहीणा चेव सूरियाभस्स देवस्स अंतिय पाउम्भवंति। (सू०१३)।तएणं से सरि याभे देवे ते सरियाभविमाणवासिणो वहवे माणिया देवा यदेवीओ य अकालपरिहीणा चेव अंतियं पाउभवमाणे पासति पासित्ता हतुटु जाव हियए आमिओगियं देवं सद्दावति आभिऔ०२ सहाविना एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अणगसंभसयसनिविटुं लीलट्ठियसालभंजियागं ईहामियउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिंनररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्निचिनं खंभुग्गयवरवइरवेश्यापरिगयाभिरामं विजाहरजमलजुयलजंतजुनंपिव अञ्चीसहस्समालिणीयं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणं चकूखुल्लोयणलेसं मुहफासं सस्सिरीयरूवं घंटावलिचलियमहरमणहरसरं मुह कंतं दरिसणिज णिउणोचियमिसिमिसिंतमणिरयणघंटियाजालपरिकखिनं जोयणसयसहस्सविच्छिण्णं दिव्वं गमणसजं सिग्घ
दिव्ययानकारणं
मू०१४
अनुक्रम [१३-१४]
॥२६॥
I
m
urary.org
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे गमनाय देवानाम् प्रादुर्भाव:
~61~
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [१३-१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३-१४]
दीप अनुक्रम [१३-१४]
गमणं णाम दिव्वं जाणं ( जाणविमाणं ) विउवाहि, विउवित्ता खिप्पामेव एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि ( सू०१४)
'तए णं ते' इत्यादि, ततस्ते सूर्याभविमानवासिनो बहवो वैमानिका देवा देव्यश्च पदात्यनीकाधिपतेर्देवस्य समीपे एनम्-अनन्तरोक्तमर्थं श्रुत्वा 'णिसम्म हटु तुटु जाब हियया' इति यावत्करणात् 'हतचित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया इरिसवसविसप्पमाणहियया' इति परिग्रहः, 'अप्पेगइया बंदणवत्तियाए' इति अपिः सम्भावनायामेकका:-कंचन वन्दनमत्ययं चन्दनम्-अभिवादन प्रशस्तकायवागमनःप्रवृत्तिरूपं तत्प्रत्ययं तत् मया भगवतः श्रीमन्महावीरस्य कर्त्तव्यमि-10 त्येवंनिमित्तम् , अप्येककाः पूजनप्रत्ययं पूजन-गन्धमाल्यादिभिः समभ्यर्चनं अप्येककाः सत्कारप्रत्ययं सत्कारः-स्तुत्यादिगुणोनतिकरणं अप्येककाः सन्मानो मानसः प्रीतिविशेषः, अप्येककाः कुतूहलजिनभक्तिरागेण-कुतूहलेन-कौतुकेन कीदृशो भगवान् सर्वज्ञः सर्वदशी श्रीमन्महावीर इत्येवरूपेण यो जिने भगवति वर्द्धमानस्वामिनि भक्तिरागो-भक्तिपूर्वकोऽनुरागस्तेन अप्यके मूर्याभस्य वचनम्-आज्ञामनुवर्तमानाः अप्येककाः अश्रुतानि पूर्वमनाकणितानि स्वर्गमोक्षप्रसाधकानि वासि श्रीप्याम इतिबुद्धया अध्येककाः श्रुतानि-पूर्वमाकार्णतानि यानि शन्तिानि जातानि तानि इदानीं निःशान्तिानि करिष्याम इति बुद्धया अप्येकका जीतमेतत्-कल्प एष इतिकृत्वा, 'सन्विड्डीए' इत्यादि प्राग्वत् ।
त एणं से आभिओगिए देवे सूरियाभेणं देवेणं एवं बुत्ने समाणे हटे जाव हियए करयलपरिम्गहियं जाब
REnatani
Soniarary.orm
भगवन्त महावीरस्य वन्दनार्थे गमनाय देवानाम् प्रादुर्भाव:
~62~
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
श्रीराजपनी मलयगिरीया वृत्तिः
सूत्रांक
॥२७॥
[१५]
पडिमुणेइ जाव पडिसुणेत्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवक्कमति अवकमिना वेउवियसमुग्धारणं समोहणइ 1दिव्ययान२ना संखेजाई जोयणाईजाव अहाबायरे पोग्गले २ ता अहासुहमे पोग्गले परियाएइ २ ना दोचंपि बेउब्धिय
कारणं समग्पारणं समोहणिना अणेगखंभसपसन्निविटुं जाव दिव्वं जाणविमाणं विउब्धि पवन याचि होत्था ।
मू०१४ तए णं से आभिओगिए देवे तस्म दिव्वस्स जाणविमाणस्स तिदिसि तओ तिसोवाणपडिरूवए विउव्वति, तंजहा-पुरच्छिमेणं दाहिणेणं उत्तरणं, तेसिं विसोवाणपडिरुवगाणं इमे एयारुवे वण्णावासे पण्णते,
जहा-बहरामश णिम्मा रिट्ठामया पतिद्वाणा वेरुलियामया खंभा सुवण्णरुप्पमया फलगा लोहितकसमइयाओ सूइओ वयरामया संधी णाणामणिमया अवलंबणा अवलंबणबाहाओ य पासादीया जाव पडिरुवा । तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ तोरणे विउब्वति, तोरणा [तेसि णं] णाणामणिमएस थंभेस उर्वनिविट्ठसंनिविट्ठविविहमुनंतरोवचिया विविहतारारूवोवचिया [ईहामियउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिंनररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभनिचिना संभुग्गय(वर)वाइरवेझ्यापरिगताभिरामा विजाहरजमलजुयलजंतजुनाविव अच्चीसहस्समालिणीयारुवगसहस्सकलिया भिसमाणा भिभिसमाणा चखुकल्लोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरुवा पासाइया ] जाव पडिरूवा
॥२७॥ 'तए णमित्यादि 'अणेगखंभसयसन्निविदुःमिति अनेकेषु स्तम्भशतेषु सन्निविष्टं, 'लीलट्ठियसालिभंजियागामिति लीलया
अनुक्रम [१५]
JMEauratondal
अत्र शिर्षक-स्थाने मूल संपादने सूत्र-क्रम विषयक स्खलना दृश्यते-सू० १५ स्थाने सू० १४ इति मुद्रितं सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~63~
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[१५]
दीप
अनुक्रम [१५]
मूलं [१५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि -प्रणीता वृत्तिः
Ja Eratur
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थिता लीलास्थिताः, अनेन तासां पुतलिकानां सौभाग्यमावेदयति, लीलास्थिताः शालभञ्जिकाः - पुतलिका यत्र तत्तथा 'ईहामियउसभतुरगनरमगरविहगवालगकुंजररुरु सरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तमिति ईहामृगा- हका व्यालाः-स्वापदभुजङ्गा ईहामृगऋषभतुरगनरमगरविहगव्यालकिन्नररुरुसरभ चमर कुञ्जरवनलतापद्मलतानां भक्त्या विच्छिया चित्रम् - आलेखो यत्र तचथा, तथा स्तम्भोगतया स्तम्भोपरिवर्तिन्या वज्ररत्नमय्या वैदिकया परिगतं सत् यदभिरामं तत्स्तम्भोगतवजवेदिकापरिगताभिरामं, 'विज्जाहरजमलजुगलजंतजुचंपित्र' इति विद्याधरयोर्यद् यमलयुगलं समश्रेणीकं द्वन्द्वं विद्याधरयमलयुगलं तच तद् यन्त्रं चसञ्चरिष्णुपुरुषप्रतिमाद्यरूपं तेन युक्तं तदेव तथा आविषां किरणानां सहस्रैर्मालिनीयं परिचारणीयं अर्चिः सहस्रमालिनीयं तथा रूपकसहस्रकलितं, 'भिसमाणंति दीप्यमानं 'भिम्भिसमानम्' अतिशयेन देदीप्यमानं, 'चक्खुद्धोरणलेसंति चक्षुः कर्तृ लोकने लिसतीय-दर्शनीयत्वातिशयात् लिप्यतीव यत्र तत्तथा, 'सुहफासंति शुभः कोमल स्पर्शो यस्य तत्तथा, सश्रीकानि - ॐ सशोभाकानि रूपाणि-रूपकाणि यत्र तत् सश्रीकरूपं, 'घण्टावलिचलियमहुरमणहरसर' मिति घण्टावले:- घण्टापङ्केतवशेन चलि ताया:- कम्पितायाः मधुरः - श्रोत्रमियो मनोहरी - मनोनिर्वृतिकरः स्वरो यत्र तत्तथा चलितशब्दस्य विशेष्यात्परनिपातः प्राकृतस्वात्, 'शुभं यथोदितवस्तुलक्षणोपेतत्वात् 'कान्तं कमनीयं, अत एव दर्शनीयं, तथा 'निउणोचियमिसिमिसितमणिरयणघंटियाजालपरिखित्त मिति निपुणक्रियमुचितानि खचितानि 'मिसिमिसिंत' नि देदीप्यमानानि मणिरत्नानि यत्र तत्तथा तेन, कथंभूतेन ? घण्टिकाजालेन -क्षुद्रवण्टिकासमूहेन परि:- सामस्त्येन क्षिप्तं व्याप्तं यत्तत्तथा, योजनशतसहस्रविस्तीर्ण योजनलक्षविस्तारं 'दिव्यं प्रधानं 'गमनसज्जं ' गमनप्रवणं शीघ्रगमननामधेयं 'जाणविमाणं यानरूपं वाहनरूपं विमानं यानविमानं, शेषं भाग्वत् ।
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
For Penal Use Only
~64~
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[१५]
दीप
अनुक्रम
[१५]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [१५
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि -प्रणीता वृत्तिः
कारणं
सू० १४
॥ २८ ॥
'तस्स ण'मित्यादि, तस्स णमिति पूर्ववत् दिव्यस्य यानविमानस्य' तिदिसि' इति तिस्रो दिशः समाहृतात्रिदिक् तस्मिन् ॐ दिव्ययानत्रिदिशि, तत्र 'तिसोवाणपटिरूपए ' इति त्रीणि एकैकस्यां दिशि एकैकस्य भावात् त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रतिविशिष्टं रूपं येषां तानि प्रतिरूपकाणि त्रयाणां सोपानानां समाहारखिसोपानं त्रिसोपानानि च तानि प्रतिरूपकाणि चेति विशेषणसमासः, विशेषणॐॐ स्यात्र परनिपातः प्राकृतत्वात् । 'तेसि णमित्यादि तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणामयमेतद्रूपो वक्ष्यमाणस्वरूपो 'वर्णावासो वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा--' वज्रमया' वजरत्नमया 'नेमी' नेमिभूमिका तत्र ऊर्द्ध निर्गच्छन्तः प्रदेशाः रिष्ठरत्नमयानि प्रतिष्ठानानिनिष्ठानानि त्रिसोपानमूलमदेशाः वैडूर्यमयाः स्तम्भाः सुवर्णरूप्यमयानि फलकानि त्रिसोपानाङ्ग-भूतानि, लोहिताक्षमय्यः सूचय:| फलकद्वयसम्बन्धविघटना भावहेतुपादुकास्थानीयाः 'वज्रमया' वज्ररत्नपूरिताः ' सन्धयः ' फलकद्वयापान्तरालप्रदेशाः नानामणिॐ मयानि अवलभ्यन्ते इति अबलम्वनानि-अवतरतामुत्तरतां चालम्बनहेतुभूता अवलम्वनवाहातो विनिर्गताः केचिदवयवाः, 'अत्रलम्वणवाहाओ यत्ति अवलम्बनवाहाश्च नानामणिमय्यः, अवलम्वनवाहा नाम उभयोः पार्श्वयोरवलम्बनाश्रयभूता भित्तयः, 'पासाॐ इयाओ' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् । 'तेसि ण'मित्यादि तेषां 'णमिति वाक्यालङ्कारे त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतः प्रत्येकं तोरणं प्रज्ञतं तेषां च तोरणानामयमेतद्रूपो वर्णावासो- वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तथथा तोरणा नानामणिमया इत्यादि, कचिॐ देवं पाठ:- ' तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरतो तोरणे विजब्बर तोरणा नाणामणिमया' इत्यादि, मणयः- चन्द्रकान्ताद्याः, विविधमणिमयानि तोरणानि नानामणिमयेषु स्तम्भेषु उपनिविष्टानि सामीप्येन स्थितानि तानि च कदाचिचलानि अथवा अपपतितानि वाऽऽशङ्क्येरन तत आह-सम्यक् निश्चलतया अपदपरिहारेण च निविष्टानि, ततो विशेषणसमासः, उपनिविष्टसन्निविष्टानि,
श्रीराजयश्री मलयगिरी
या वृत्तिः
Eauran
For Parts Only
अत्र शिर्षक-स्थाने मूल संपादने सूत्र क्रम विषयक स्खलना दृश्यते सू० १५ स्थाने सू० १४ इति मुद्रितं सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~65~
||| 36 ||
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]]
विविधमत्तरी (रारूबी) बचियाई' इति विविधा-विविधविच्छित्तिकलिता मुक्ता-मुक्ताफलानि 'अन्तरेति अन्तराशब्दोऽगृहीतवीप्सोऽपि सामर्थ्यादीप्सां गमयति, अन्तरा २ रूपोपचितानि यावता यत्र तानि तथा, 'विविहतारोवचियाई' विविधस्तारारूपैः-तारिकारुपैरुपचितानि, तोरणेषु हिशोभार्थं तारिका निवध्यन्ते इति प्रतीतं लोकेऽपीति विविधतारारूपोपचितानि 'जाव पडिरूवा' इति यावत्कर-1 कोणात् 'ईहामिगउसमतुरगनरमगरविहगवालगकिनररुरुसरभचमरकुंजरवणल यपउमलयभत्तिचित्ता खंभुनगयवइरवेक्ष्यापरिगयाभिरामा विजाहरजमलजुगलजंतजुत्ताविव एवं नाम स्तम्भद्वयसनिविष्टानि तोरणानि व्यवस्थितानि यथा विद्याधरयमलयुगलयन्त्रयुक्तानीव प्रतिभासते इति, 'अचीसहस्समालणीया रूवगसहस्सकलिया मिसियाणा भिभिसमाणा चकूपलीयणलेसा सुहफासा। सस्सिरीयरूवा पासाइया दरिसणिज्जा अभिरुवा' इति परिग्रहः, कचिदेतत्साक्षाल्लिखितमपि दृश्यते ।
तेसि णं तारणाणं उप्पिं अट्ठमंगलगा पण्णता, तंजहा-सात्थियसिरिवच्छणंदियावत्तवद्धमाणगभद्दासणकलसमच्छदप्पणा (जाव पडिरूवा)। तसिं च णं तारणाणं उप्पि बहंव किण्हचामरज्झए जाव मुक्किलचामरज्झए अच्छे मण्ह रुप्पपट्टे वइरामयदंडे जलयामलगंधिए सुरम्मे पासादीए दरिसणिज्जे अभिरुवे पडिरुवे विउब्वति । तेसि गंतारणाणं उप्पिं बहवे छनातिच्छ ने घंटाजुगल पड़ागाइपडागे उप्पलहत्थए कुमुदणलिणमुभगसोगंधियपोंडरीयमहापाडरीयसतपत्तसहस्सपत्नहत्थए सव्वररणामए अच्छे जाव पडिरूचे विउव्वति । तए णं से आभिओगिए देवे तस्स दिव्वस्स जाणविमाणस्म अंतो बहुममरमणिज्जं भूमिभागं विउब्बति ।
अनुक्रम [१५]
100
.
00ACK
urary.orm
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~66~
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
॥२९॥
[१५]
श्रीराजप्रश्नी _ 'तेसिं तोरणाणं उप्पिमित्यादि सुगम, नवरं जाव पडिरूवा' इति यावच्छब्दकरणात् 'घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निपका दिव्ययानमलयगिरी-निकंकडच्छाया समिरीया सउज्जोया पासाइया दरिसणिज्जा अभिरूवा ' इति द्रष्टव्यं । तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानामुपरि बहवः कारणं या वृत्तिः कृष्णचामरयुक्ता ध्वजाः कृष्णचामरध्वजाः, एवं बहवो नीलचामरध्वजाः, लोहितचामरध्वजाः, हरितचामरध्वजाः, शुक्लचामरध्वजाः,
म्०१४ ..16कथम्भूता एते सर्वेऽपीत्यत आह-अच्छा-आकाशस्फटिकवदतिनिर्मलाः लक्ष्णा:-क्ष्णपुद्गलस्कन्धनिमापिताः ‘रुप्पपट्टा' इति |
रूप्यो-रूप्यरयो बत्रमयस्य दण्डस्योपरि पट्टो येषां ते रूप्वपट्टाः 'वरदंडा' इति बनो-चत्ररत्नमयो दण्डो रूप्यपट्टमध्यवत्ती| येषां ते वदण्डाः, तथा जलजानामिय-जलजकुसुमानां पद्मादीनामिवामलो न तु कुद्रव्यगन्धसाम्मश्रो यो गन्धः स जलजामलगन्धः13 स विद्यते येषां ते जलजामलगन्धिकाः, अत एव सुरम्याः 'प्रासादीपा' इत्यादिविशेषणचतुष्टयं प्राग्वत् । 'तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानामुपरि बहूनि छपातिच्छत्राणि-छत्रान्-लोकपसिद्धात् एकसङ्ख्याकात् अतिशायीनि उत्राणि उपवेधोभावेन द्विस-1 इण्याकानि निसङ्ख्याकानि वा छवातिच्छवाणि, बायपताकाभ्यो लोकमसिद्धाभ्योऽतिशायिन्यो दीर्घत्वेन विस्तारेण च पताका:|| |पताकातिपताकाः, बहुनि घण्टायुगलानि, बहूनि चामरयुगलानि, बहव उत्पलहस्ताः-उत्पलाख्यजलजकुसुमसमूहविशेषाः, एवं बहवः || पद्महस्तकाः नलिनहस्तकाः सुभगहस्तकाः सौगन्धिकहस्तकाः शतपत्रहस्तकाः सहस्रपत्रहस्तकाः, पद्मादिविभागच्याख्यानं माग्वत्, एते च।
प्रतिच्छयादयः सर्वेऽपि रत्नमया अरछा-आकाशस्फटिकवदतिनिर्मला यावत्करणात् 'सहा लण्हा घटा मट्ठा नीरया निम्मला निषका निर्णकडच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा' इति परिग्रहः। 'तस्स णमित्यादि, तरस मिति पूर्ववत् दिव्यस्य यानविमानस्य अन्तः-मध्ये बहुसमः सन् रमणीयो बहुरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञाः, किंविशिष्ट ? इत्याह
अनुक्रम [१५]
SANEmirathindRIAL
अत्र शिर्षक-स्थाने मूल संपादने सूत्र-क्रम विषयक स्खलना दृश्यते-सू० १५ स्थाने सू० १४ इति मुद्रितं
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~67~
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत सूत्रांक
[१५]
दीप
अनुक्रम [१५]
मूलं [१५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
Eucatur
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
-
से जहाणामए आलिंगपुखरे ति वा मुइंगपुक्खरे इया सरतले इ वा करतले इ वा चंद्रमंडले इ वा सूरमंडले इ वा आसमंडले इ वा उरम्भचम्मे इ वा ( बसहचम्मे इ वा ) वराहचम्मे इ वा सीहचम्मे इ वा वरघचम्मे इ वा मिगचम्मे इवा (छगलचम्मे इवा) दीवियचम्मे इ वा अणेगसंकुकीलगसहस्सवितए णाणाविहपंचवन्नेहिं मणीहिं उवसोभिते आवडपञ्चावडसेढिपसेढिसोत्थिय (सोवत्थिय) पूसमाणग (वद्धमाणग) मच्छंडगमगरंडगजारामाराफुल्ला व लिव पउमपत्तसागरतरंग बसंतलय उमलयभत्तिचिनेहिं सच्छापहि सप्पमेहिं समरी इएहिं सउज्जोएहिं णाणाविहपंचवष्णेहिं मणीहिं उवसोभिएहिं तंजहा - किण्हेहिं
लिहिहिं हालहिं सुकिल्लेहिं, तत्थ णं जे ते किव्हा मणी तेसिणं मणीणं इमे एतारूवे वष्णावासे पण्णत्ते, से जहानामए जीमूतए इ वा अंजणे इ वा खंजणे इ वा कज्जले इ वा गवले इ वा गलगुलिया वा भमरे इ वा भमरावलिया इ वा भ्रमरपतंगसारे ति वा जंबूफले ति वा अदारिट्ठे इ वापरते इ वा गए इ वा गयकलमे इ वा किण्हसप्पे इ वा किण्हकेसरे इ वा आगासथिग्गले वा किन्हासो वा किveकणवीरे इ वा किण्हबंधुजीवे इ वा भवे एयारूवे सिया ?, णो इणट्ठे समट्ठे, (ओवम् समणाउसो !) ते णं किण्हा मणी इत्तो इट्ठतराए चैव कंततराए चैव मणामतराए चैव मणुण्णतराए चेव वण्णेणं पण्णत्ता । तत्थ णं जे ते नीला मणी तेसि णं मणीणं इमे एयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते,
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
For Parts Only
~68~
nary or
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
दिव्यवान
श्रीराजपनीका मलयगिरीया दृतिः
कारणं
प्रत
मु०१४
सूत्रांक
[१५]]
से जहानामए भिंग इ वा भिंगपने इवा सुएइ वा सुयपिच्छे इवा चासे इ वा चासपिच्छे इवा णीली इ वा णीलीभेदे इ वा पीलीगुलिया इ वा सामा इ वा उच्चन्ते इ वा वणराती इ वा हलधरवसणे इ वा मोरग्गीवा इ वा अयसिकुसुमे इ वा बाणकुसुमे इ वा अंजणकेसियाकुसुमे इ वा नीलुप्पले इ वा णीलासोगे इ वा णीलबंधुजीवे इ वा णीलकणवीरे इ वा, भवेयारुवे सिया ?, णो इणटे समतु, ते णं णीला मणी एतो इद्रुतराए चेव जाव वण्णेणं पण्णता । तत्थ णं जे ते लोहियगा मणी तेसिणं मणीणं इमेयारूचे वण्णावासे पण्णने,से जहाणामए उरभरुहिर इ वा ससरुहिर इ वा नररुहिरे इ वा वराहरुहिरे दवा (महिमरुहिरे इवा) बालिंदगोवे इ वा बालदिवाकरे इ वा संझम्भरागेइ वा गुंजद्धरागे इ वा जामुअणकुसुम इ वा किंमुयकुसुमे इ वा पालियायकुसुमे इ वा जाइहिंगुलए ति वा सिलप्पवाले ति वा पवालअंकुरे इ वा लोहियकसमणी इ वा लक्सारमगे ति वा किमिरागकंवले ति वा चीणपिट्ठरासी ति वा रनुप्पल इ वा रनासागे ति वा रत्नकणवीर ति वा रत्नबंधुजीवे ति वा, भवेयारुवे सिया ?, णो इणटे सम8, ते णं लोहिया मणी इत्तो इट्ठतराए चेव जाव वण्णेणं पं० । तत्थ णं जे ते हालिहा मणी तेसिणं मणीणं इमेयारूवे वण्णावामे पण्णने- से जहाणामए चंपे ति वा चंपछल्ली ति वा (चंपगभेए इवा) हल्लिद्दा इ वा हलिहाभेदे ति वा हलिहगुलिया ति वा हरियालिया
अनुक्रम [१५]
अत्र शिर्षक-स्थाने मूल संपादने सूत्र-क्रम विषयक स्खलना दृश्यते-सू० १५ स्थाने सू० १४ इति मुद्रितं
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~69~
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]]
वा हरियालभेदे ति वा हरियालगुलिया ति वा चिउरे इ वा चिउरंगरांत ति वा वरकणगे इवा वरकणगनिघसे इ वा [ सुवण्णसिप्पाए ति वा ] वरपुरिसवसणे ति वा अल्लकीकुसुमे ति वा चंपाकुसुमे इ वा कुहंडियाकुसुमे इ वा तडवडाकुसुमे इ वा घोसेडियाकुसुमे इ वा मुवष्णकुसुमे इ वा सुहिरण्णकुमुमे ति वा कोरंटवरमल्लदामे ति वा बीयो ( यकुसुमे) दवा पीयासोगे ति वा पीयकणवीरे ति वा पीयबंधुजीवे ति वा, भवेयारूवे सिया ?, णो इणटे समतु, ते णं हालिद्दा मणी एनो इद्रुतराए चेव जाव वण्णेणं पण्णना। तत्थ णे जे ते सुकिल्ला मणी तेसिणं मणीर्ण इमेयारूवे वण्णावासे पण्णने । से जहानामए अंके ति वा संखेति वा चंदे ति वा कुंदे ति वा दंते इवा (कुमुदोदकदयरयदहियणगोक्सीरपुर ) हंसावली इवा कोंचावली ति वा हारावली ति वा चंदावलीति वा सारतियघलाहए ति वा धंतधोयरुप्पपट्टे इवा सालिपिट्ठरासी ति वा कुंदपुप्फरासी ति वा कुमुदरासी ति वा मुक्कच्छिवाडी ति या पिहुणमिजिया ति वा भिसे ति वा मुणालिया ति वा गयदंते ति वा लवंगदलए ति वा पॉडरियदलए ति वा सेयासोगे ति वा सेयकणवीरे ति वा सेयबन्धुजीवे ति वा, भंवयारूवे सिया ?, णो इणढे सम8, ते णं मुकिल्ला मणी एनो इटुतराए चेव जाव बन्नेणं पण्णत्ता। 'से जहानामए' इत्यादि, तत्-सकललोकप्रसिद्ध 'यथेति दृष्टान्तोपदर्शने 'नामेति शिष्यामन्त्रणे, 'ए' इति वाक्यालङ्कारे,
MCHOO.
COM
अनुक्रम [१५]
REscammad
murary.om
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~70~
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
-------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
१५
सूत्रांक
[१५]
दीप
श्रीराजपनी आलिंगपुकखरे इ वेति आलिङ्गो-मुरजनामा वाद्यविशेषः तस्य पुष्करं-चर्मपुटं तत्किलात्यन्तसममिति तेनोपमा क्रियते, इति- दिव्ययानमलयगिरीशब्दाः सर्वेऽपि स्वस्वोपमाभूतवस्तुपरिसमाप्तियोतकाः, वाशब्दाः समुपये, मृदङ्गने लोकमतीतो मर्दलस्तस्य पुष्करं मृदङ्गापुष्कर करणम् या वृत्तिः परिपूर्ण पानीयेन भृतं तडाकं सरस्तस्य तलम्-उपरितनो भागः सरस्तलं, करतलं प्रतीत, चन्द्रमण्डल सूर्यमण्डलं च यद्यपि तत्त्व
वृत्त्या उत्तानीकृतार्द्धकपित्थाकारं पीठपासादापेक्षया वृत्तालेखमिति तद्तो दृश्यमानो भागो न समतालस्तथापि प्रतिभासते समतल ३१॥
इति तदुपादानं, आदर्शमण्डल सुप्रसिद्ध, 'उरम्भचम्मे इ. वेत्यादि, अत्र सर्वत्रापि 'अणेगसंकुकीलगसहस्सवितते । इति विशेषण
योगः, उरभ्रः-उरणः, वृषभवराहसिंहव्याघ्रच्छगलाः प्रतीताः द्वीपी-चित्रकः, एतेषां प्रत्येकं चर्म अनेकैः शङ्खममाणैः कीलककसहस्रः, महद्भिाह कीलकैस्ताढितं प्रायो मध्ये क्षामं भवति, तथारूफ्ताडासम्भवात् अतः शङ्खग्रहणं, 'चिततं ' विततीकृतं ताडितमिति ।
भावः, यथाऽत्यन्तं बहुसमं भवति तथा तस्यापि यानविमानस्यान्तर्वहुसमो भूमिभागः, पुनः कथम्भूत इत्याह-'णाणाविहपंचवन्नेहिं| मणीटिं उबसोभिते ' नानाविधा:-जातिभेदानानाप्रकारा ये पञ्चवर्णा मणयस्तैरुपशोभितः, कथम्भूतैरित्याह-'आवडे' इत्यादि,
आव दीनि मणीनां लक्षणानि, तत्रावः प्रतीतः एफस्यावर्चस्य प्रत्यभिमुख आवतः प्रत्यावर्तः श्रेगिः-तथाविधविन्दुजा पङ्किकास्तस्याश्च श्रेणेर्या च निर्गता अन्या श्रेणिः सा प्रश्रेणिः स्वस्तिकः प्रतीतः सौवस्तिकपुष्पमाणवी लक्षणविशेषी लोकात्मत्येतस्पी। बर्द्धमानक-शरावसम्पुटं मत्स्यकाण्डकमफरकाण्डके प्रतीते 'जारमारेति' लक्षणविशेषा सम्यम्मणिलक्षगवेदिनो लोकादेदितव्यो पुष्पावलिपनपत्रसागरतरङ्गवासन्तीलतापद्मलताः सुप्रतीताः तासां भक्त्या-विच्छित्त्या चित्रम्-आलेखो येषु ते आवत्प्रत्याव-18३१॥ श्रेणिप्रश्रेणिस्वस्तिकसीवस्तिकपुष्पमाणववर्द्धमानकमत्स्याण्डकमकराण्डकजारमारपुष्पावलिपमपत्रसागरनाङ्गवासन्तीलतापमलताभ
अनुक्रम [१५]
REaratinidiaband
Jiangsurary.com
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~71~
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]]
क्तिचित्रास्तः, किमुक्तं भवति ?-आवादिलक्षणोपेतैः, तथा सच्छायः सती शोभना छाया-निर्मलस्वरूपा येषां ते सच्छाया:, तथा सती-शोभना प्रभा-कान्तिर्येषां ने सत्प्रभाः तैः, 'समरीइएहि ' इति समरीचिकैः बहिानिर्गतकिरणजालसहितैः सोद्योतैःबहिर्व्यवस्थितप्रत्यासन्नवस्तुस्तोमप्रकाशकरोद्योतसहितैः एवम्भूतैर्नानाजातीयैः पञ्चवणमणिभिरुपशोभितः, तानेव पञ्चवर्णानाह
जहा-कण्हेहिं' इत्यादि सुगम, 'नत्व णमित्यादि, 'तत्र' तेषां पश्चवर्णानां मणीनां मध्ये'णमिति वाक्यालङ्कमरे, ये ते कृष्णा मणयः, ते कृष्णमणय इत्येव सिद्धे ये इति वचनं भाषाकमार्थ, तेषां 'णमिति पूर्ववत् , अयम्-अनन्तरमुद्दिश्यमान एतद्रुपः-अनन्तरमेव वक्ष्यमाणस्वरूपो वर्णावासो-वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'से जहानामए' इत्यादि, स यथा नाम 'जीमत ' इति जीमतोबलाहकः, स चेह पाट्यारम्भसमये जलभृतो वेदितव्यः, तस्यैव प्रायोऽतिकालिमसम्भवात् , इतिशब्द उपमाभूतवस्तुनामपरिसमामियोतकः, वाशब्द उपमानान्तरापेक्षया समुच्चये, एवं सर्वत्र, अञ्जन-सौवीराजनं रत्नविशेषो वा, खञ्जनं दीपमल्लिकामलः, कज्जलं-दीपशिखापतितं, मषी-तदेव कज्जलं ताम्रभाजनादिपु सामग्रीविशेषेण घोलितं मसीगुलिका घोलितकज्जलगुटिका, कचित
मसी इति वा मसीगुलिया' इति न दृश्यते, 'गवलं' माहिषं शृङ्गं तदपि चोपरितनत्यम्भागापसारेण द्रष्टव्यं, तत्रैव विशिष्टस्य है। काकालिनः सम्भवात , तथा तस्यैव माहिपशङ्गनिविडतरसारनिवर्तिता गुटिका गवलगुटिका भ्रमर:-प्रतीतः भ्रमरावली- भ्रमर-13
पतिः भ्रमरपतङ्गसारः-भ्रमरपक्षान्तर्गतो विशिष्टकालिमोपचितप्रदेशः, जम्बूफलं प्रतीत, आरिष्ठकः-कोमलः काकः, परपुष्टःकोकिलः, गजी गजकलभश्च प्रतीतः, कृष्णसर्पः-कृष्णवर्णसर्पजातिविशेषः, कृष्णकेसर:-कृष्णबकुला आकाशथिग्गलं' शरदि| मेघविनिर्मुक्तमाकाशखण्डं, नद्धि कृष्णमतीव प्रतिभातीति तदुपादानं, कृष्णाशोककृष्णकणवीरकृष्णबन्धुजीवाः अशोककणवरिबन्धु
अनुक्रम [१५]
SNEaratini
M
asurary.orm
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~72~
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
-------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१५]
श्रीराजपनी जीववृक्षभेदाः, अशोकादयो हि पश्चवर्णा भवन्ति ततः शेषवर्णव्युदासाथ कृष्णग्रहणं, एतावत्युक्ते त्वरावानिव शिष्यः पृच्छति- दिन्ययानमलयगिरी- भवे एयारूवे ' इति भवेत् मणीनां कृष्णो वर्णः 'एतद्रूपो' जीमृतादिरूपः, मूरिगह-'नायमर्थः समर्थः। नायमर्थ उपपत्री करणम् या वृत्तिः यदुत-एवम्भूतः कृष्णो वर्णो मणीनामिति, यद्येवं तर्हि किमर्थं जीमूतादीनां दृष्टान्तत्वेनोपादानमत आह-औपम्यम्-उपमामात्रमेतत्
उदितं हे श्रमण आयुष्मन् !, यावता पुनस्ते कृष्णा मणय 'इतो' जीमूतादेरिष्टनरका एव-कृष्णेन वर्णेन अभीप्सिततरका एव, ॥३२॥
तत्र किश्चिदकान्तमपि केषाश्चिदिष्टतमं भवति ततोऽकान्तताव्यवच्छित्त्यर्थमाह-'कान्ततरका एव' अतिस्निग्धमनोहारिकालिमोपचिततया जीमूतादेः कमनीयतरकाः, अत एव मनोज्ञतरका एव-मनसा ज्ञायते-अनुकूलतया स्वप्रवृत्तिविषयीक्रियते इति मनोजमनोऽनुकलं ततः प्रकर्षविवक्षायां तरणत्ययः, तत्र मनोज्ञतरमपि किञ्चिन्मध्यम भवेत , ततः सर्वोत्कर्षप्रतिपादनार्थमाह-'मन आप-101 तरका एच ' द्रष्टुणां मनांसि आमुवन्ति-आत्मवशता नयन्तीति मनापास्ततः प्रकर्षविवक्षायां तरपत्ययः, पाकृतत्वाच्च पकारस्य । मकारे मणामसरा इति भवति । तथा 'तत्य णमित्यादि, तत्र तेषां मणीनां मध्ये ये ते नीला मणयस्तेषामयमेतद्रूपी वर्णावासो
वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-' से जहानामए' इत्यादि स यथा नाम भृङ्ग:-कीटविशेषः पक्ष्यल: 'भृङ्गपत्रं' तस्यैव भृङ्गाभिभधानस्य कीटविशेषस्य पक्ष्मः, शुक:-कीरः, शुकपिच्छ शुकस्य पत्रं, चापः-पक्षिविशेषः, 'चापपिच्छं' चापपक्षः, नीली प्रतीता,
नीलीभेदो-नीलीच्छेदः, नीलीगुलिका-गुलिकाद्रव्यगुटिका, श्यामाको-धान्यविशेषः, 'उच्चंतगो' दन्तरागः, वनराजी प्रतीता, । | हलधरो-बलदेवस्नस्य वसनं हलधरवसनं, तच्च किल नीलं भवति सदैव तथास्वभावतया, हलधरस्य नीलवसपरिधानात् , कामयूरग्रीवापारापतग्रीवाअतसीकुसुमबाणवृक्षकुसुमानि प्रतीतानि, इत ऊर्दै कचित् 'इंदनीले इ वा महानीले इ वा मरगते ।
अनुक्रम [१५]
SAMEaratinidda
AMAnmurary au
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~73~
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]]
इवा' इति दृश्यते तत्रेन्द्रनीलमहानीलमरकता रत्नविशेषाः प्रतीताः, अञ्जनकेशिका-वनस्पतिविशेषस्तस्य कुसुममज्जनकेसिकाकुसुम, नीलोत्पल-कुवलयं, नीलाशोककणवीरनीलबन्धुजीवाअशोकादिवृक्षविशेषाः, 'भवेयारूचे' इत्यादि प्राम्खद् व्याख्येयं । तथा 'तत्य णमित्यादि, 'तत्र तेषां मणीनां मध्ये ये ते लोहिता मणयस्तेषामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रातः, तद्यथा 'से नहानामए '10 इत्यादि, तद्यथा नाम शशकरुधिरं उरभ्रः-ऊरणस्तस्य रुधिर, बराहः-शूकरस्तस्य रुधिरं, मनुष्यरुधिरं महिषरुधिरं च प्रतीतं, एतानि हि किल शेषरुधिरेभ्यो लोहितवर्णोत्कटानि भवन्ति तत एतेषामुपादानं, बालेन्द्रगोपकः-सद्योजातेन्द्रगोपकः स हि प्रवृद्धः | सन्नीपत्पाण्डुरो रक्तो भवति ततो वालग्रहणं, इन्द्रगोपक:-प्रथमप्राट्कालभावी कीटविशेषः, बालदिवाकर:-प्रथममुद्गच्छन् मूर्यः,
सन्ध्याभ्ररागो-वर्षासु सन्ध्यासमयभावी अभ्ररागः, गुञ्जा-लोकप्रतीता तस्यादें रागो गुञ्जार्द्धरागः, गुञ्जाया हि अर्द्धमतिरक्तं भवति | अर्द्धं चातिकृष्णमिति गुजार्द्धग्रहणं, जपाकुसुमकिसुककुसुमपारिजातकुसुमजात्यहिगुला लोकप्रसिद्धाः, शिलाप्रबाल-बालनामा रत्नविशेषः प्रवालाकुर:-तस्यैव रत्नविशेषस्य प्रवालस्याङ्करः, स हि तत्पथमोद्गतत्वेनात्यन्तरक्तो भवति ततस्तदुपादानं, लोहिताक्षमणि म रत्नविशेषः, लाक्षारसकृमिरागरक्तकम्बलचीनपिष्टराशिरक्तोत्पलरक्ताशोककणवीररक्तबन्धुजीवाः प्रतीताः, 'भवेयावे' इत्यादि पाम्बत् । 'तत्थ णमित्यादि, 'तत्र । तेषां मणीनां मध्ये ये हरिद्रा मणयस्तेषामेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा
से जहानामए' इत्यादि , स यथानाम चम्पकः सामान्यतः सुवर्णचम्पको वृक्षः, चम्पकच्छल्ली-सुवर्णचम्पकत्वक, चम्पकभेदः-10 सुवर्णचम्पकच्छेदः, हरिद्रा प्रतीता, हरिद्राभेदो-हरिद्राच्छेदः, हरिद्रागुटिका-हरिद्रासारनिवर्तिता गुटिका, हरितालिका-पृथिवीचिकाररूपा प्रतीता हरितालिकाभेदो-हरितालिकाच्छेदः, हरितालिकागुटिका-हरितालिकासारनिवर्तिता गुलिका, चिकुरो-रागद्रव्यविशेषः,
अनुक्रम [१५]
a
urainrary.om
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~74~
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
-------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५]
श्रीगजपतीचिकुराङ्गरागः चिकुरसंयोगनिमितो वखादी रागः, वरकनकस्य जात्यसुवर्णस्य यः कपपट्टके निधर्षः स वरकनकनिघर्षः बरपुर-दिव्ययानबालमगिरी16पो-बासुदेवस्तस्य वसनं वरपुरुषवसनं, तच किल पीतमेव भवतीति तदुपादानं, अल्लुकीकुसुमं लोकतानसेय, चम्पककुसुम-सुवर्ण- करणम या वृत्तिःचम्पकपुष्पं कूष्माण्डीकुसुम-पुष्पफलीकुसुमं, कोरण्टकः-पुष्पजातिविशेषः तस्य दाम कोरण्टकदाम तटवडा-आउली तस्याः कुसुमं ||
तवडाकुसुमं, घोशातकीकुसुमं सुवर्णयूथिकाकुसुमं च प्रतीतं, मुहिरण्यका-वनस्पतिविशेषस्तस्याः कुसुमं सुहिरण्यकाकुसुम, बीयको२३॥शक्षा प्रतीतः तस्य कुमुमं वीयककुमुमं, पीताशोकपीतकणवीरपतिबन्धुनीवाः प्रतीताः, 'भवेयारूवे । त्यादि प्राग्वत् । 'तत्थ णमि'
हत्यादि, 'तत्र' तेषां मणीनां मध्ये ये शुका मणयस्तेषामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तयथा से जहानामए ' इत्यादि, | स यथानाम ' अङ्कगे' रत्नविशेषः, शचन्द्र (दतकुन्द ) कुमुद्रोदकोद करजोदधिधनगोक्षीरपूरकोचावलिहारावलि सावलिबलाकावलयः प्रतीताः, चन्द्रावली-तहागादिपु जलमध्यप्रतिविम्बितचन्द्रपतिः, 'सारइयवलाहगे इति वा' शारदिक:-शरत्कालभावी बलाहको मेघः, 'धन्तधोयरुप्पपट्टे इवेति' ध्मातः-अग्निसम्पर्कण निर्मलीकृतो धाता-भूतिखरण्ठितहस्तसंतजेनेन अतिनिशितीकृतो यो रुप्यपट्टी रजतपत्रकं स ध्यातधौतरुप्यपहः, अन्ये तु व्याचक्षते-ध्मातेन-अग्निसंयोगेन यो चौतः-शोधितो रूप्यपट्टः स ध्मातधीतरूप्यपट्टा, शालिपिष्टराशि:-शालिलोदपुञ्जः, कुन्दपुष्पराशिः कुमुदाशिव प्रतीतः, 'सुकछेवाडिया इवे' ति छेवाडिनामबल्लादिफलिका सा च कचिद्देशविशेषे शुष्का सती अतीव शुक्ला भवति ततस्तदुपादान, 'पेहुणमिजिया इवेति' पेहुण-मयूरपिच्छं तन्मध्यवर्तिनी पेहुणमिञ्जिका सा चातिशुक्लेति तदुपन्यासः, विसं 'पानीकन्दः, मृणालं 'पद्मतन्तु गजदन्तलयङ्गन्दलपुण्डरीकदलश्वेताशो-16॥ ३३ ॥ कवेतकणवीर श्वेतबन्धुजीवाः प्रीताः, 'भवेयारूवे सिया' इत्यादि प्राग्वत् । तदेवमुक्त वर्णस्वरूपं, सम्पति गन्धस्वरूपं प्रतिपादनार्थमाह
अनुक्रम [१५]
janataram.org
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~75
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
तसिणं मणीणं इमेयारूवे गंधे पण्णन, से जहानामए कोट्ठपुडाण वा तगरपुडाण वा एलापुडाण वा चोयपुडाण वा चंपापुडाण या दमणापुडाण वा कुंकुमपुडाण वा चंदणपुडाण वा उसीरपुडाण वा मरुआपुडाण वा जातिपुडाण वा जूहियापुडाण वा मल्लियापुडाण वा हाणमल्लियापुडाण वा केतगिपुडाण वा पाइलिपुडाण वा णोमालियापुडाण वा अगुरुपुडाण वा लवंगपुडाण वा कप्परपुडाण वा वासपुडाण वा अणुदायसि वा ओभिज्जमाणाण वा कोट्टिजमाणाण वा भंजिजमाणाण वा उक्किरिजमाणाण वा विक्किरिजमाणाण वा परिभुजमाणाण वा परिभाइजमाणाण वा भंडाओ वा भई साहरिज्जमाणाण वा ओराला मणुण्णा मणहरा घाणमणनिब्युतिकरा सब्बतो समंता गंधा अभिनिस्मयंति, भवेयारवे, सिण?,णो इणट्ठ समढे, ते णं मणी एनो इट्ठतराए चेव गंधेणं पन्नना।
'तेसि णमित्यादि, तेषां मणीनामयमेतद्रूपो गन्धः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-' से जहानामए ' इत्यादि, प्राकृतत्वात् 'से' इति बहुवचनार्थः प्रतिपत्तव्यः, ते यथा नाम गन्धा अभिनिर्गच्छन्तीति सम्बन्धः, कोष्ठं-गन्धद्रव्यं तस्य पुटाः कोष्ठपुटास्तेवा, वाशब्दाः सर्वत्रापि समुच्चये, इह एकस्य पुटस्य प्रायो न ताहशो गन्ध आयाति, व्यस्याल्पत्वात , ततो बहुवचनं, तगरमपि गन्धद्रव्यं, एलाः प्रतीताः, चोयं-गन्धद्रव्यं चम्पकदमनककुङ्कमचन्दनोशीरमरुकजातीयूथिकामल्लिकानानमल्लिकाकेतकीपाटलीनवमालिकाऽगुरुलबङ्गकुसुमवासकर्पूराणि प्रतीतानेि, नवरसुशीरं-वीरणीमूलं स्नानमल्लिका-सानयोग्यो मल्लिकाविशेषः, एतेषां पुटानाम
अनुक्रम [१५]
K
amurary.orm
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~76~
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
-------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५]
श्रीराजप्रश्नीनुवाते-आघायकविवक्षितपुरुषाणामनुकूले वाते वाति सति उद्भिद्यमानानामुद्घाट्यमानानां वाशब्दः सर्वत्रापि समुच्चये 'कु-दिव्ययानमलयगिरी-हिज्जमाणाण वा ' इति इह पुटैः परिमितानि यानि कोष्टादीनि गन्धद्रव्याणि तान्यपि परिमेये परिमाणोपचारात् कोष्ठपुटादीनीत्यु- करणम् या वृत्तिःच्यन्ते तेषां कुट्यमानानाम्-उदूखले खुद्यमानानां 'भजिजमाणाण चा' इति श्लक्ष्णखण्डीक्रियमाणाना एतच विशेषणद्वयं कोष्ठादिद्रव्या
शाणापवसेयं, तेषामेव प्रायः कुट्टनश्लक्ष्णखण्डीकरणसम्भवात् , न तु यूथिकादीना, 'उक्किरिजमाणाण वा' इति क्षरिकादिभिः कोष्टादिपटानां २४ कोष्ठादिद्रव्याणां वा उत्कीर्यमाणानां 'विकिरिजमाणाण वा' इति विकीर्यमाणानामितस्ततो विप्रकीर्यमाणानां परिभुज्जमाणाण
वा' परिभोगाय उपयुज्यमानाना, कचित् 'परिभाइज्जमाणाण वा ' इति पाठस्तत्र परिभाइजमाणाना-पाचवत्तिभ्यो मनाग् दीय-12 मानानां, 'भंडाओ भंडे साहरिजमाणाण वा' इति भाण्डात्-स्थानादेकस्मादन्यद् भाई-भाजनान्तरं संद्वियमाणानां उदारा:स्फारास्ते चामनोज्ञा अपि स्यरत आह-मनोज्ञा-मनोऽनुकूलाः तच्च मनोजत्वं कुत इत्याह-मनोहराः मनो हरन्ति-आत्मवशं नयन्तीति • मनोहराः, इतस्ततो विप्रकीर्यमाणेन मनोहरत्वं, कुतः? इत्यार-घ्राणमनोनिविकराः, एवंभूताः सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्ततःसामस्त्येन गन्धा अभिनिस्सरन्ति, जिघ्रतामभिमुखं निस्सरन्ति, कचित् ' अभिनिस्सवन्तीति ' पाठः, तत्रापि स एघार्थो नवरमभितः । सवन्तीति शब्दसंस्कारः, एवमुक्ते शिष्यः पृच्छति- भवेयारुवे सिया' स्यादेतत् यथा भवेद् एतद्रूपस्तेषां मणीनां गन्धः ?, मूरिराह-'नो इणढे समढे ' इत्यादि प्राग्वत् ।
||३४॥ तेसि णं मणीणं इमेयारूचे फासे पण्णचे, से जहानामए आइणेति वा रूए ति वा बूरे इ वा णवणी
अनुक्रम [१५]
2000
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~77~
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
-------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५]
दीप अनुक्रम [१५]]
पइ वा हंसगश्मतृलिया इ वा सिरीसकुसुमनिचये इ वा चालकुसमपत्तरासी तिवा, भवेयारूवे मिया?, णो इणद्वै सम?, ते णं मणी एनो इद्रुतराए चेव जाव फासेणं पन्नत्ता ॥
नेसि णमित्यादि, तेषां 'णमिति प्राग्वन्मणीनामयमेतद्रूपः स्पर्शः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-' से जहानामए ' इत्यादि, तद्यथाअजिनक-चर्ममयं वस्त्रं रुतं प्रतीतं यूरो-वनस्पतिविशेषः नवनीतं-म्रक्षणं हंसगर्भतूलीशिरीषकुसुमनिचयाश्च प्रतीताः, 'बालकुमुदपकतरासी इव' इति बालानि अचिरकालजातानि यानि कुमुदपत्राणि तेषां राशिर्वालकुमुदपत्रराशिः, कचिद'बालकुमुमपत्रराशिः' इति पाठः, 'भवे एयारचे' इत्यादि प्राग्वत् ।!
तए णं से आभियोगिए देवे तस्स दिवस्स जाणविमाणस्य बहूमझदसभागे एत्थ णं महं पिच्छाधरमडवं विउब्बइ अणेगखंभसयसंनिविट्ठ अभुग्गयसुकरवरवइयातोरणवररइयसालभंजियागं सुमिलिट्ठविभिट्ठलट्ठमंठियपमत्थंवरुलियविमलखंभं णाणामणि [ कणगरयण ] सचियउजलबहुन्मममसुविभसंदेसभाइए ईहामियउसमतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरयणलयपउमलयभत्तिचित कंचणमणिरयणथूभियागं णाणाविहपंचवण्णघंटापडागपरिमंडियग्गमिहरं चवलं मरीतिकवयं विजिम्मुयंत लाउल्लोइयमहियं गोमीस [ सरम ] रत्नचंदणदहरदिन्नपंचंगुलितलं उवचियचंदणकलसं चंदणघडसुकयतारणपडिदुवारदेसभागं आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्यारियमल्लदामकलावं पंचवष्णसरससुरभि
JanEaration
R
sthani
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~78~
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी या वृत्तिः ॥३५॥
दिव्ययान करणम् सू०१५
प्रत सूत्रांक [१५]
मुकपुष्फपुंजोवयारकलियं कालागुरुपवरकुंदरूकतुरुकधूवमघमघंतगंडुडुयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूतं दिव्यं तुडियसहसंपणाइयं अच्छरगणसंघविकिण्णं पासादयं दरिसणिज्जं जाब पडिरूषं । तस्स णं पिच्छाघरमंडवस्स पहुसमरमणिग्जभूमिभागं विउब्बति जाव मणीणं फासो । तस्मणं पेच्छाधरमंडवस्स उल्लायं विउच्चति पउमलयभनिचि जाव पडिरूवं । तस्मणंबहुसमरमणिग्जस्म भूमिभागस्स बहुमज्झदसभाए एल्थ णं महं एग बद्दरामयं अकखाडगं विउच्चति । तस्स णं अकसाढयस वहमझदेसभागे एत्थ णं महेगं मणिपेढियं विउब्वति अट्ठजोयणाई आयामविक्रखंभेणं चनारि जायणाई बाहल्लेणं सर्वे मणिमयं अच्छे सह जाव पडिकवं । तीसे णं मणिपढियाए उवरि एत्थ णं महेगं सिंहासणं विउच्चद, तस्स णं सीहासणस्स इमेयारूवे वष्णाबामे पण्णने-तबणिज्जमया चकला रययामया सीहा सोवण्णिया पाया णाणामणिमयाई पायसीमगाई जंबूणयमयाई गनाई वइरामया संधी णाणामणिमये वो, से णं सीहासणे इहामियउसमतुरगनरमगरविहगवालगकिंनररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं [स]सारसारोवचियमणिरयणपायवीडे अच्छरगमि उमसरगणवतयकुसंतलिम्बकेसरपञ्चत्थुयाभिरामे सुविरदयरयनाणे उवचियखोमदुगुल्लपट्टपडिच्छायणे रसुअसंचुए सुरम्मे आईणगरूयबूरणवणीयतूलफासे मउए पासाइए ४ ।
अनुक्रम [१५]
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~79~
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
'तए णमित्यादि, ततः स आभियोगिको देवस्तस्य दिव्यस्य यानविमानस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र महत्प्रेक्षागृहमण्डपं विकुति, कथम्भूतमित्याह-अनेकस्तम्भशतसनिविष्टं तथा अधुगता-अत्युत्कटा सुकृता-मुष्ट निष्पादिता वरवेदिकानि तोरणानि बररचिताः शालभञ्जिकाध या तदभ्युद्गतसुकृतवरवेदिकातोरणवररचितशालभञ्जिकार्क, तथा मुश्लिटा विशिष्टा लसंस्थिताः मनोज्ञ-|| संस्थानाः प्रशस्ताः प्रशस्तवास्तुलक्षणोपेता वैयविमलस्तम्भा-चैयरत्नमया विमलाः स्तम्भा यत्र तत् सुश्लिष्टविशिष्लष्टसंस्थितप्रशस्तवड्यविमलस्तम्भ, तथा नाना मणयः खचिता यत्र भूमिभागे स नानामणिखचितः मुखादिदर्शनात् क्तान्तस्य पाक्षिकः परनिपातः नाणामणिखचित उज्ज्वलो बहुसमा अत्यन्तसमः मुविभक्तो भूमिभागो यत्र तत् नानामणिखचितोज्वलबहसमसुविभक्तभूमिभागं, तथा इहामृगा काः ऋषभतुरगनरमगरविहगाः प्रतीताः ब्याला:-स्वापदभुजगाः किंनरा-व्यन्तरविशेषाः रुरचो मृगाः सरभाः-आटव्या महाकायाः पशवः चपरा-आटच्या गावः कुञ्जरा-दन्तिनः वनलता-अशोकादिलताः पालताः पविन्यः एतासां भक्त्या-विच्छित्त्या |चित्रम्-आलेखो यत्र तदिहामृगऋषभतुरगनरमकरविहगव्यालकिन्नररुरुसरभचमरकुञ्जरवनलतापमलताभक्तिचित्रं, तथा स्तम्भोगतया-स्तम्भोपरिवर्तिन्या बन्चरत्नमय्या वेदिकया परिगतं सद् यदभिरामं तत् स्तम्भोगतवनवेदिकापरिगताभिरामं, 'विजाहरजमलजुगलजन्तजुत्तं पिब अञ्चीसहस्समालिणीय मिति विद्या धरन्तीति विद्याधरा-विशिष्टविद्याशक्तिमन्तः तेषां यमलयुगलानि-समानशीलानि द्वन्दानि तेषां यन्त्राणि-प्रपश्चविशेषास्तैर्युक्तमिव अर्चिषां-मणिरत्नप्रभाज्वालानां सहस्रमालनीयं-परिचा-2 रणीय, किमुक्तं भवति ?-एवं नाम अत्यद्भुतैर्मणिरत्नप्रभाजालेराकलितमिव भाति यथा नूनमिदं न स्वाभाविकं, किन्तु विशिष्टविद्याशक्तिमत्पुरुषप्रपश्चप्रभावितामिति, 'रूवगसहस्सकलितं भिसिमाणं भिभिसमाणं चकखुल्लोयणलेसं मुहफास सस्सि-R
अनुक्रम [१५]
PROO
054
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~80
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीराजमश्नी रीयरूवामिति माग्वत्, कचिदेतन दृश्यते, 'कश्वणमणिरयणथूभियाग मिति काञ्चनं च मणयश्च रत्नानि च काश्चनमणिर-दिव्ययानमलयगिरी- नानि तेषां तन्मयी स्तूपिका-शिखरं यस्य तत्तथा नानाविधाभिः-नानाप्रकाराभिः पञ्चवर्णाभिर्घण्टाभिः पताकाभिश्च परि सामस्त्येन करणम् या वृत्तिः मण्डितमग्रं शिखरं यस्य तन्नानाविधपश्चवर्णघण्टापताकापरिमण्डिताग्रशिखर, चपलं-चञ्चलं चिकचिकीयमानत्वात् मरीचिकवचं-कि
रणजालपरिक्षेपं विनिर्मुश्चत् ' लाउल्लोइयमहियामिति लाइयं नाम-यद्भूमेर्गोमयादिनोपलेपनं उल्लोइयं-कुड्यानां मालस्य च सेटि॥ ३६॥ " कादिभिः सम्पृष्टीकरणं लाउल्लोइयाभ्यामिव महितं पूजितं लाउलोइयमहियं, तथा गोशीण-गोशीर्षनामकचन्दनेन दर्दरेण बहलेन
चपेटाकारेण वा दत्ताः पश्चाङ्गुलयस्तला-हस्तका यत्र तद्दोशीर्षरक्तचन्दनददरदत्तपश्चाङ्गालितलं, तथा उपचिता-निवेशिताः चन्दनकलशा-मङ्गलकलशा यत्र तदुपचितचन्दनकलश, 'चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागमिति' चन्दनघदैः- चन्दनकलशैः सुकृतानि-सुष्ठ कृतानि शोभितानीति तात्पर्यार्थः, यानि तोरणानि तानि चन्दनघटसुकृतानि तानि तोरणानि प्रति द्वारदेशभाग-द्वारदेश-13 भागे यत्र तत् चन्दनघटसुकृततोरणप्रतिद्वारदेशभार्ग, तथा 'आसत्तोसत्तविपुलबट्टवग्धारियमल्लदामकलाच 'मिति -अवाह
अधोभूमी लग्न इत्यर्थः, उत्सतं-ऊर्चसक्तं उल्लोचतले उपरि सम्बद्ध इत्यर्थः विपुलो-विस्तीर्णः वृत्तो-वचुलः बग्घारिय इति-प्रल-16 लम्बितो माल्पदामकलापः पुष्पमालासमूहो यत्र तदासकोत्सतविपुलवृत्तमलम्बितमाल्यदामकलापं, तथा पञ्चवर्णेन सरसेन-सच्छा-12 येन सुरभिणा मुक्तेन-क्षिसेन पुष्पपुञ्जलक्षणेनोपचारेण-पूजया कलितं पञ्चवर्णसरससुरभिमुक्तपुष्पपुजोपचारकलितं, 'कालागुरुषव
| |३६ जारकुन्दुरुक्कतुरुकधूवमघमघतगन्धुद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवटिभूय' मिति प्राग्वत, तथा अप्सरोगणानां सड्यः-समुदायस्तेन |
सम्यग्-रमणीयतया विकणि-व्याप्तमप्सरोगणसङ्घविकीर्णं, तथा दिव्यानां त्रुटितानाम् आतोद्यानां-वेणुवीणामृदङ्गादीनां ये 5
अनुक्रम [१५]
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~81~
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]]
शब्दास्तैः सम्पणादितं सम्यक्-श्रोत्रमनोहारितया प्रकर्षेण नादि-शब्दवद दिव्यत्रुटितशब्दसम्मणादितं, 'अच्छे जाव पटिरूवामिति यावच्छब्दकरणात् 'अच्छं सहं घटुं मटुं नीरयं निम्मलं निष्पकं निकंकडच्छार्य सप्प समिरियं सउज्जोयं पासाइयं दरिसणिज आभि-| रूवं पडिरूव' मिति द्रष्टव्यं, एतच्च प्राग्वव्याख्येयं । ' तस्स णमि त्यादि, तस्य 'णमिति प्राग्वत् प्रेक्षागृहमण्डपस्यान्तः-मध्ये बहुसमरमणीय भूमिभाग विकुर्वन्ति, तद्यथा--आलिंगपुष्करमिति वे त्यादि, तदेव तावद्वक्तव्यं यावन्मणिस्पर्शमूत्रपर्यन्तः, तथा चाह-'जाबमणीणं फासो' इति । 'तस्स णमित्यादि, तस्य णमिति पूर्ववत् प्रेक्षागृहमण्डपस्य उल्लोकम् -उपरिभागं विकुर्वन्ति पद्मलताभक्तिचित्र
जाव पडिरूवामि' ति, यावच्छब्दकरणात् 'अच्छं सव्ह'मित्यादिविशेषणकदम्बकपरिग्रहः । तस्स णमि' त्यादि, तस्य-बहुसमकरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र 'ण 'मिति पूर्ववत् एकं महान्तं वज़मयमक्षपाट विकुर्वन्ति, तस्य चाक्षपाटकस्य बहु
मध्यदेशभागे तत्रैका महतीं मणिपीठिका विकुन्ति, अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि बाहुल्येन-उच्चैस्त्वेनेति भावः, कथंभूतां तां विकुर्वन्तीत्यत आह सर्वमणिमयीं' सर्वात्मना मणिमयीं यावत्करणादच्छामित्यादिविशेषणसमूहपरिग्रहः, तस्याश्च मणिपीठिकाया उपर्यत्र महदेकं सिंहासनं विकुर्वन्ति, तस्य च सिंहासनस्यायमेतद्पो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा तपनीयमयाः चकला रजतमयाः सिंहास्तरुपशोभितं सिंहासनमुच्यते, सौवर्णिकाः मुवर्णमयाः पादाः नानामणिमयानि पादशीर्षकाणि-पादानामुपरितना अवयवविशेषाः, जम्बूनदपयानि गात्राणि वजमया-वजरत्नापूरिताः सन्धयो-गात्राणां सन्धिमेलाः नानामणिमयं वेश्चं-तज्जातः
से णं सीहासण इत्यादि तत् सिंहासनमीहामृगऋषभतुरगनरमफरव्यालककिन्नररुरुसरभचमरवनलतापमलताभक्तिचित्र '[सं सारसारोबचियमणिरयणपायपीढ'मिति [संसारसारैः-प्रधानैः मणिरत्नैरुपचितेन पादपीठेन सह यत्तत्तथा, प्राकृतत्वाच्च पदोपन्यासव्य
अनुक्रम [१५]
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~82~
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]
श्रीराजप्रश्नीत्ययः 'अच्छरयमउममूरगनवतयकुसन्तलिम्बकेसरपञ्चत्थुयाभिरामे इति' अस्तरकम्-आच्छादकं मृदु यस्य मसूरकस्य तद-दिव्ययानमलयगिरी- स्तरकमृदु, विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् , नवा त्वक् येषां ते नवत्वचः कुशान्ताः-दर्भपर्यन्ता नवत्वचश्च ते कुशान्ताच नवत्व- विमानया वृत्तिःकुशान्ता:-प्रत्यग्रत्वग्दर्भपर्यन्तरूपाणि लिम्बानि-कोमलानि नमनशीलानि च केसराणि मध्ये यस्य ममूरकस्य तत् नवत्वकु
करणम् शान्तलिम्बफेशरम् आस्तरकमृदुना ममूरकेण नवत्वकुशान्तलिम्बफेसरेण प्रत्यवस्तृतम्-आच्छादितं सत् यदभिरामं तत्तथा, विशेषणपूर्वापरनिपातो यादृच्छिकः प्राकृतत्वात् , 'आईणगरुअबूरनवणीयतूलफासे ' इति पूर्ववत् , तथा 'सुचिरइयरयत्ताणे तथा सुष्टु विरचितं सुविरचितं रजखाणमुपरि यस्य तत्सुविरचितरजस्त्राणं, "उवचियखोमियदुगुलपट्टपहिच्छयणमिति, उपचितं-परिकर्मित यत्क्षामं दुकूलं कार्पासिकं वस्त्रं परिच्छादनं रजखाणस्योपरि द्वितीयमाच्छादनं यस्य तत्तथा, तत उपरि 'रत्तंसुयसंधुडे' इति रक्तांशुकेन-अतिरमणीयेन रक्तेन वस्त्रेण संवृतम्-आच्छादितमत एव सुरम्यं, 'पासाइए दरिसणिजे अभिख्ये पडिरूले ' इति प्राग्वत् ।।
तस्स गं सिंहासणस्स उवरि एत्थ णं महेगं विजयस विउबंति, संखंक( संख)कुंदगरय अमयमहियफणगुंजसंनिगासं सबरयणामयं अच्छं सहं पासादीयं दरिमणि अभिरुवं पडिरूवं । तस्सणं सीहासणस्स उवार विजयदूसस्स य बहुमज्झदेमभागे एल्थ णं (महं एगं) पयरामयं अंकुस विउचंति, तस्सिं च णं वयरामयंसि अंकुसंसि कुंभिक्के मुत्तादामं विउर्वति । से णं कुंभिक्के मुत्तादामे अन्नहिं चउहि अद्धकुंभिकहिं मुनादामहिं तदद्धञ्चनपमाणेहि सवओ समता संपरिखिचे । ते णं दामा तवणिज
NORE
अनुक्रम [१५]
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~83~
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]]
लंबसगा सुवण्णपयरगमंडियग्गा णाणामाणिरयणविविहहारहारउवसोभियसमुदाया ईसिं अण्णमण्णमसपना वाएहिं पुब्बावरदाहिणुनरागएहिं मंदाय मंदाय एइज्जमाणाणि २ पलंघमाणाणि २ पेजंज[पज्झंझ] माणाणि २ उरालेण मणुनेणं मणहरेणं कण्णमणणिज्बुतिकरणं सद्देणं ते पएसे सवओ समंता आपूरेमाणा सिरीए अतीव २ उपसोभेमाणा चिटुंति । तए णं से आभिओगिए देवे तस्स सिंहासणस्स अबरुत्तरेण उत्तरेणं उत्तरपरच्छिमेणं एत्थ णं सरिआभस्स देवस्स चउण्डं सामाणियसाहस्सीणं चत्तारि भद्दासणसाहस्सीओ विउवा, तस्स णं सीहासणस्स पुरच्छिमेणं एस्थ णं सूरियाभस्त देवस्म चउण्डै अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं चत्नारि भद्दाराणसाहस्सीओ विउच्वइ, तस्स णं सीहासणस्स दाहिणपुरच्छिमणं एस्थ ण सरियाभस्स देवस्स अभिंतरपरिसाए अट्ठण्हे देवसाहस्सीणं अट्ठ भद्दामणसाहस्मीओ विउबइ, एवं दाहिणणं मज्झिमपरिसाए इसण्हं देवसाहस्सीणं दस भद्दासणसाहसीओ विउबति दाहिणपञ्चस्थिमेणं बाहिरपरिसाए बारसहं देवसाहस्सीणं बारस भद्दासणसाहस्सीओ विउव्यति पञ्चत्थिमण सनण्हं अणियाहिवतीणं सन भद्दासणे विउवति, तस्स णं सीहासणस्स चउदिसि एस्थण मरियाभस्स देवस्स सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं सोलस भद्दासणसाहस्सीओ विउत्वति, तंजहा-पुरच्छिमेणं चनारि माहस्सीओ दाहिणणं चत्वारि माहस्सीओ पञ्चस्थिमे णं चत्नारि साहस्सीओ उत्तरेणं
अनुक्रम
[१५]
Santaratinid
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~84 ~
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी या वृत्तिः ॥३८॥
दिव्ययानविमानकरणम्
प्रत
सुत्रांक
०१५
[१५]
चनारि साहस्सीओ । तस्स दिवस जाणविमाणस्स इमेयारूचे वण्णावासे पण्णने, से जहानामए अइरुग्गयस्स वा हेमंतियवालियमूरियस्स वा खयरिंगालाण वा रतिं पजलियाण वा जावाकुसुमवणस्स वा किंसयवणस्स वा पारियायवणस्स वा सव्वतो समंता संकुसुमियस्स, भवेयारूचे सिया ?, णो इणटे समटे, तस्स णं दिव्वस्स जाणविमाणस्स एतो इट्रतराए चेव जाव वण्णणं पण्णने, गंधो य । फासो य जहा मणीणं । तए णं से आभिआगिए देवे दिवं जाणविमाणं विउब्बइ २ ना जेणेव मुरियाभे देवे तेणेव उवागच्छद २ ता सूरियाभं देवं करयलपरिग्गहियं जाव पञ्चप्पिणंति ॥ (स०१५)
'तस्स णमित्यादि, तस्य सिंहासनस्योपर्युल्लोके 'अत्र' अस्मिन् स्थाने महदेकं विजयदुष्य-वस्त्रविशेषः, आह च जीवाभिगममूलटीकाकृत-विजयदृष्यं वखविशेष ' इति, तं चिकुर्वन्ति-स्वशक्त्या निष्पादयन्ति, कथम्भूतमित्याह- 'शकुन्ददकरजोऽमृतमथितफेनपुञ्जसन्निकाशं' शङ्कः प्रतीतः, कुन्देति-कुन्दकुमुर्म दकरजः-उदककणाः अमृतस्य क्षीरोदधिजलस्य मथितस्य यः फेनपुञ्जो-डिण्डीरोत्करः तत्सन्निकाश-तत्सममभ, पुनः कथम्भूतमित्याह-'सबरयणामय' सर्वात्मना रत्नमयं 'अच्छं सहं पासाइयमि'-IN त्यादिविशेषणजाल प्राग्वत् । तस्स णमित्यादि, तस्य सिंहासनस्योपरि तस्य विजयदुष्यस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महान्तमेकं वज्रमयं-वज्ररत्नमयमङ्कुशम्-अङ्कुशाकारं मुक्तादामावलम्बनाश्रयं विकुर्वन्ति, तस्मिंश्च बत्रमयेऽहुशे महदेकं कुम्भाग्रं-मगधदेशप्रसिद्धं कुम्भपरिमाणं मुक्तादाम विकुर्वन्ति । 'से णमित्यादि, तत्कुम्भाग्रं मुक्तादाम अन्यैश्चतुर्भिः कुम्भागः-कुम्भपरिमाणैर्मुक्तादाम
अनुक्रम
[१५]
॥ ३८॥
SMEauratant
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~85
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]]
काभिस्तदोच्चत्वप्रमाणमात्रैः सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्ततः-सामस्त्येन सम्परिक्षिप्तं व्याप्तं । ' ते णं दामा' इत्यादि, तानि पश्चापि|
दामानि तवणिज्जलंबूसगा (गम्गा?)' तपनीयमया लम्ब्समा -आभरणविशेषरूपा (पाः सुवर्णप्रतरकाः सुवर्णपत्राणि|| तः मण्डित-शोभितं अग्रं-अग्रभागो येषां तानि तथा अ) प्रभागे येषां प्रलम्बमानानां तानि तथा, 'नानामणिरत्नैः नानामणिरत्नमयविविधैः-विचित्रहारैरर्द्धहारैश्चोपशोभितः-सामस्त्येनोपशोभितः समुदायो येषां तानि तथा, तथा ईपत्-मनाक अन्योऽन्य-परस्परं असंप्राप्तानि-असंलग्नानि पूर्वापरदक्षिणोत्तरागतैः (वातैः) मन्दाय मन्दाय इति-मन्द मन्दं 'एज्जमानानि कम्पमानानि 'भूशाभीण्याविच्छेदे द्विः पाक्तमवादेरित्यविच्छेदे दिर्वचनं यथा पचन्ति पचन्तीत्यत्र, एवमुत्तरत्रापि, ईपत्कम्पनवशादेव प्रकर्षत इतस्तती मनाक् चलनेन लम्बमानानि २ ततः परस्परं सम्पर्कवशतः 'पेजमाणा पेजंजमाणा' इति शब्दायमानानि २|| उदारेण स्फारेण शब्देनेति योगः, स च स्फारशब्दो मनाप्रतिकूलोऽपि भवति तत आह-'मनोज्ञेन ' मनोऽनुकूलेन, तञ्च मनोऽनुकूलत्वं लेशतो स्यादत आह-'मनोहरेण ' मनांसि श्रोतणां हरति-एकान्तेनात्मवशं नयतीति मनोहरो 'लिहादेराकृतिगणवादच प्रत्ययः । तेन, तदपि मनोहरत्वं कुत इत्याह-'कर्णमनोनितिकरण 'निमित्तकारणहेतुपु सर्वासां विभक्तीनां पायो दर्शन मिति वचनात् हेतौ तृतीया, ततोऽयमर्थः प्रतिश्रोतु कर्णयोर्मनसश्च निनिकरः-सुखोत्पादकस्ततो मनोहरस्तेनेत्यम्भूतेन शब्देन तान् प्रत्यास-- बान मदेशान् सर्वतो-दिक्षु समन्ततो-विदिक्षु आपूरयन्ति २, शत्रन्तस्य स्यादाविदं रूपं, अत एव श्रिया-शोभया अतीवोपशोभमानानि ।
२ तिष्ठन्ति । 'तए णमित्यादि, ततः स आभियोगिको देवस्तस्य सिंहासनस्यापरोत्तरेण, वायव्ये कोणे इत्यर्थः,उत्तरेण-उत्तरस्या उत्तरपुरशरिछमेण ईशान्यां 'अत्र' एतामु तिमषु दिक्षु सूर्याभस्य देवस्य चतुर्णां सामानिकसहस्राणां योग्यानि चत्वारि भद्रासनसहस्राणि विकु
अनुक्रम [१५]
Santaratani
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~86~
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]
श्रीराजपनी काति, पूर्वस्यां चतसृणामग्रमहिषीणां सपरिवाराणां चत्वारि भद्रासनसहस्राणि दक्षिणपूर्वस्यामभ्यन्तरपर्षदोऽष्टानां देवसहस्राणो योग्यानि दिव्ययानमलयगिरी- अष्टौ भद्रासनसहस्राणि दक्षिणस्यां मध्यमपर्षदो दशाना देवसहस्राणां योग्यानि दश भद्रासनसहस्राणि, दक्षिणापरस्या नैर्ऋतकोण इत्यर्थः, या वतिः बाह्यपर्षदो द्वादशानां देवसहस्राणां द्वादश भद्रासनसहस्राणि पश्चिमायां सप्तानामनीकाधिपतीनां सप्त भद्रासनानि विकुर्वति । तदनन्तरं करणय
तस्य सिंहासनस्य चतसषु दिक्षु अत्र सामानिकादिदेवभद्रासनानां पृष्ठतः सूर्याभस्य देवस्य सम्बन्धिना पोडशानामात्मरक्षफदेवसहस्राणां ॥३९॥
योग्यानि पोटश भद्रासनसहस्राणि विकुर्वति, तद्यथा-चत्वारि भद्रासनसहस्राणि पूर्वस्यां चत्वारि दक्षिणतचत्वारि पश्चिमायां चत्वारि मू०१५ उत्तरतः सर्वसयया सप्ताधिकानि चतुःपञ्चाशत्सहस्राणि ५४००७ भद्रासनानां विकुर्वति । 'तस्स णे दिवसेत्यादि, तस्य 'णमिति पूर्ववत् दिव्यस्य यानविमानस्यायम्-अनन्तरं वक्ष्यमाणस्वरूपो वर्णावासो-वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'से जहानामए' इत्यादि, स यथानाम अचिरोद्गतस्य-क्षणमात्रमुद्गतस्य ' हैमन्तिकस्य' शिशिरकालभाविनो पालमूर्यस्य स अत्यन्तमारक्तो भवति दीप्यमान-1 श्वेत्युपादानं, वाशब्दाः सर्वेऽपि समुच्चये, खादिराङ्गाराणि वा 'रत्ति'मिति सप्तम्यर्थे द्वितीया प्राकृतत्वात् यथा-'उय विणयभत्तिल्ले अरेमसिसिरे दहे गए मूरे कसो रत्ति मुद्धे पाणियसद्धा सउणयाणमि त्यत्र, ततोऽयमर्थः-रात्री प्रज्वलितानां जपाकुसुमचनस्य
वा किंशुकवनस्य वा पारिजातवनस्य वा सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समन्ततः-सामस्त्येन 'ससुमितस्य' सम्यक कुसुमितस्य, अत्रान्तरे शिष्यः पृच्छति याहगप एतेषां वर्णाः भवेयारूचे सिया' इति स्यात्-कश्चिद् भवेदेतद्रूपस्तस्य दिव्यस्य यानविमानस्य वर्णः । निराह-'नो इणटे समटे, तस्स णं दिव्बस्स जाणविमाणस्स एत्तो इगुतराए चेव कंततरागे चेव मणुनतरागे चेव मणामतरागे चेव वण्णे पण्णते' इति पाग्वत् व्याख्येयम्, 'गंधो फासो जहा मणीणमिति गन्धः स्पर्शः यथा माग् मणीनामुक्तस्तथा
अनुक्रम [१५]
SAMEarathina
I
mranorm
सूर्याभदेवस्य दिव्ययान करणं
~87~
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
-------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]]
वक्तव्यः, स चै-'तस्स णं दिबस्स जाणविमाणस्स इमे एयारूचे गंधे पण्णचे, जहा-से जहानामए कोद्रपुडाण वा तगरपुडाण वा' इत्यादि । 'तए णं से आभिओगिए देवे' इत्यादि, यावत्करणात् 'करयलपरिग्गहियं दसनह सिरसावत्तं मत्यए अंजलि कदु जपणं विजएणं बद्धावे बद्धाविना एयमाणत्तियमिति द्रष्टव्यम् ॥
तए णं से सरिआभे देव आभिओगस्स देवस्स अंतिए एयमढें सोचा निसम्म हट्ठ जाव हियए दिवं जिणिंदाभिगमणजोग्ग उत्तरवेउब्बियरुवं विउच्वति २ ता चउहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहि दाहि अणीएहि, तंजहा-गंधब्वणीएण य णडाणीपण य सद्धिं संपरिचुडे तं दिव्वं जाणविमाणं अणुपयाहिणीकरमाणे २ पुरच्छिमिल्लेणं तिसोमाणपडिरुवएणं दुरूहति दुरुहिना जेणेव सिंहासणे तेणेब उवागच्छद २ ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे । तए णं तस्स मूरिआभस्स देवस्स चनारि सामाणियसाहस्सीओ तं दिव्वं जाणविमाणं अणुपयाहिणीकरमाणा उत्तरिल्लणं तिसोवाणपडिरूवएणं दुरुहति दुरुहिना पनयं २ पुषणत्थेहिं भद्दासणेहिं णिसीयंति, अवसेसा देवा य देवीओ य तं दिव्वं जाणविमाणं जाव दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं दुरूहति २ ना पनेयं २ पुरवणत्थेहि भदासणेहिं निसीयति । तए णं तस्स सरियाभस्स देवस्स तं दिवं जाणविमाणं दुरुढस्स समाणस्स अट्ठट्ठमंगलगा पुरतो अहाणुपुबीए संपत्थिता, तंजहा-सोत्थियसिरिवच्छ जाव दप्पणा।
अनुक्रम [१५]
REnatinal
| भगवन्त-वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य गमनं
~88~
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
-------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजमश्नी
सूयाभ
मलयगिरी
निर्गमः
प्रत सुत्रांक
या दृचिः
म्०१६
॥४०॥
तयणतरं च णं पुण्णकलसभिंगार दिव्या य छत्तपडागा सचामरा दसणरतिया आलोयदरिसणिज्जा वाउ
यविजयवेजयंतीपडागा ऊसिया गगणतलमणुलिहंती पुरतो अहाणुपुब्बीए संपत्थिया । तयणंतरं चणे वेरुलियभिसंतविमलदंडं पलंबकोरंटमल्लदामोवसोभितं चंदमंडलनिभं समुस्सियं विमलमायवनं पवरसीहासणं च मणिरयणभत्तिचित्तं सपायपीढं सपाउयाजोयसमाउत्तं बहुकिंकरामरपरिग्गाहियं पुरतो अहाणुपुबीए संपत्थियं । तयाणंतरं च णं वइरामयवट्ठलट्ठसंठियसुसिलिट्ठपरिघट्ठमट्ठसुपतिट्ठिए विसिटे अणेगवरपंचवण्णकुडभीसहस्सुस्सिए [ परिमंडियाभिरामे ] वाउदुयविजयवेजयंतीपडागच्छत्तातिच्छनकलिते तुंगे गगणतलमणुलिहतसिहरे जोअणसहस्समूसिए महतिमहालए महिंदज्झए पुरतो अहाणुपुब्बीए संपत्थिए । तयाणंतरं च णं सुरूवणेवत्थपरिकच्छिया मुसज्जा सवालंकारभूसिया महया भढचडगहपहगरेणं पंचअणीयाहिवईणो पुरतो अहाणपबीए संपत्थिया। [ तयाणतरं च णं बहवे आभिआंगिया देवा देवीओ य सरहिं २ रूवेहिं साहिं २ विसेसेहिं सएहि २ विंदोहि सपाहिँ २ णेज्जाएहिं सएहिं २ णेवत्यहि पुरतो अहाणुपुबीए संपत्थिया ] तयाणंतरं च णं सूरियाभविमाणवासिणो बहवे वेमाणिया देवा य देवीओ य सविडीए जाव रुवेर्ण सुरिया देवं पुरतो पासतो य मग्गतो य समणुगच्छति ॥ सू०१६॥
अनुक्रम
[१६]
all ४०॥
| भगवन्त-वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य गमनं
~89~
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
'तए णं से मूरियाभे देवे' इत्यादि, दिव्यं-प्रधान जिनेन्द्रस्य-भगवतो वर्द्धमानस्वामिनोऽभिगमनाय-अभिमुखं गमनाय का योग्यम्-उचितं जिनेन्द्राभिगमनयोग्यमुत्तरवैक्रिय रूपं विकुति, विकुचित्वा चतसाभिरग्रमहिषीमिः सपरिवाराभिभ्यामनीकाभ्यां, तद्यथा-गन्धर्वानीकेन नाव्यानीकेन च, साई, तत्र सहभावः स्वस्वामिभावमन्तरेणापि दृष्टो, यथा समानगुणविभवयोयोमित्रयोः, अतः स्वस्वामिभावप्रकटनार्थमाह-'संपरिबुडे । सम्यगाराधकभावं बिभ्राणैः परिवृतः-सम्परिद्वतः तत् दिव्यं यानाबमानमनुप्रदीक्षणी-15 कुर्वन्-पूर्वतोरणानुकूल्येन प्रदक्षिणीकुर्वन् पूर्वेण तोरणेनानुपविशति-स्वसिंहासनानुकल पविशति, प्रविशन् पूर्वेण 'त्रिसोपानप्रति-15 रूपकेण प्रतिविशिष्टरूपेण त्रिसोपानेन तद् यानविमानं 'दुरुहइ'त्ति आरोहति, आरुब च 'जेणेवेति यस्मिन्नेव देशे तस्य मणिपीठिकाया उपरि सिंहासनं तत्रोपागच्छति, उपागत्य च सिंहासनवरगतः सन् पूर्वाभिमुखः 'सनिषण्णः सम्यक-सकलसेवकजनचमत्कारकारिण्या उपवेशनस्थित्योपविष्टः । 'तए णमित्यादि, ततस्तस्य सूर्याभस्य देवस्य चत्वारि सामानिकदेवसहस्राणि तद् दिव्यं यानविमानमनुप्रदक्षिणीकुर्वन्ति, उत्तरेण त्रिसोपानप्रतिरूपकेणारोहन्ति, 'पुल्वणत्थेहि' इत्यादि, अत्र सप्तम्यर्थे तृतीया, पूर्वअन्यस्तेषु भद्रासनेषु निषीदन्ति, अवशेषाः-अभ्यन्तरपर्षदादयो देवा देव्यश्च दक्षिणेन त्रिसोपानप्रतिरूपकेणारोहन्ति, आरुह्य च
स्वेषु भद्रासनेषु निषीदन्ति । 'तए णमित्यादि, ततस्तस्य सूर्याभस्य देवस्य तद् दिव्यं यानविमानमारूढस्य पुरतोऽष्टाष्टमङ्गलकानि यथानुपूर्व्या-वक्ष्यमाणपाठनमेणेत्यर्थः, सम्पस्थितानि, तद्यथा-' सोत्थियसिरिवच्छे त्यादि, पूर्व स्वस्तिकः तदनन्तरं श्रीवत्स-1 स्तदनन्तरं पूर्णकलशभृङ्गारदिव्यातपत्रपताकाः सचामराः, कथम्भूताः? इत्याह 'दर्शनरतिका' दर्शने-अवलोकने रतिर्यासु ता दर्शनरतिकाः,इह दर्शनरतिकमपि किञ्चिदालोकदर्शनीयं न भवत्यमङ्गलत्वात् यथा गर्भवती युवतिः, अत आह-आलोके–बहिः प्रस्थानसमयभाविनि ,
अनुक्रम [१६]
Tam uraryorg
| भगवन्त-वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य गमनं
~90~
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१६]
श्रीराजप्रश्नी दर्शनीया द्रष्टुं योग्या मङ्गल्यत्वात् , अन्ये त्वाः-आलोके दर्शनीया न पुनरत्युच्चा आलोकदर्शनीया, तथा वातोद्धुता विजयमूचिका यांभमलयगिरी- जयन्तीति विजयवैजयन्ती च उत्सृता-ऊचीकृता गगनतलम् अम्बरतलमनुलिखन्ती-अभिलयन्ती 'पुरतो' यथानुपूा सम्म- निर्गमः या वृत्तिःस्थिता । 'तयनंतरं च णमित्यादि, तदनन्तरं 'बेरुलियभिसंतविमलदंड मिति 'वैड्यों ' बैडूर्यरत्नमयो भिसंतो दीप्यमानो विमलो.... निर्मलो दण्डो यस्य तत्तथा 'पलंबकोरंटमल्लदामोवसोहिय'मिति, प्रलम्बते इति प्रलम्बि तेन-प्रलम्बमानेन कोरण्टमाल्यदाम्ना-कोरण्ट
सू०१६ ॥७१ " पुष्पमालयोपशोभितं प्रलम्बकोरण्टमाल्यदामोपशोभितं चन्द्रमण्डलनिभं दीप्ल्या शोभया वर्तुलतया चन्द्रमण्डलाकारं समुत्सृतं
सम्यगूध्वींकृतं विमलमातपत्र तथा प्रवरं सिंहासनं मणिरत्नैः भक्त्या-विच्छित्त्या चित्रं यत् तन्मणिरत्नभक्तिचित्रं, सह पादपीठं यस्य तत्सपादपीठं, तथा 'सपाउयाजोगसमाजुत्त'मिति, पादुकायोगः-पादुकाद्वितयं तस्य समायोजनं समायुक्तं सह पादुकायोगसमायुक्तं | यस्य तत्तथा 'बहुकिङ्करामरपरिग्गाहियमिति बहुभिः किङ्करैः-किङ्करकल्पैरमरैः परिगृहीतं 'पुरतो' यथानुपूर्दा सम्पस्थितं । तदनन्तरं 'वइरामयवट्टलसंठियसुसिलिटुपरिघटुमद्रुमुपइदिए'त्ति, वनमयो-वज्ररत्नमयः तथा वृत्तं वर्तुलं लटुं-मनोज संस्थितं -संस्थान-20 माकारो यस्य स वृत्तलष्टसंस्थितः तथा मुश्लिप:--सुश्लेषापनावयवो मसण इत्यर्थः परिपुष्ट इव परिघृष्टः खरशानया पाषाणप्रति-| |मावत् मृष्ट इव मृष्टः सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमेव सुप्रतिष्ठितो न तु तिर्यकपतिततया वक्रः तत एतेषां पदानां पदद्वयमीलनेन कर्मधारयः, अत एवं शेषध्वजेभ्यो विशिष्टः-अतिशायी, तथा अनेकानि अनेकसङ्ख्याकानि बराणि-प्रधानानि पञ्चवण्णानि कुडभीसहस्राणि उत्सृतानि यत्र सोऽनेकवरपश्चवर्णकुडभीसहस्रोत्सृतः, तान्तस्य परनिपातो सुखादिदर्शनात् , वातोद्भूतविजयवैजयन्तीपताकारछनातिच्छत्रकलितः, तुङ्गः-अत्युच्चो योजनसहस्रप्रमाणोच्छ्यत्वात् ,तथा गगनतलम्-अम्बरतलमनुलिखत् शिखरम्-अग्रभागोन
अनुक्रम
[१६]
SAREarathindiHand
भगवन्त-वन्दनार्थे सूर्याभदेवस्य गमनं
~91~
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
E
यस्य स तथा योजनसहस्रमुत्सृतः अत एव 'महइमहालए' इति, अतिशयेन महान महेन्द्रध्वजः 'पुरतो' यथानुपूर्व्या संपस्थितः । तदनन्तरं ' सुरूवनेवत्थपरिकच्छिया' इति, सुरूप नेपथ्यं परिकक्षितं-परिगृहीतं यस्तै तथा, तथा मुष्टु अतिशयेन सज्जाः-परिपूर्णाः स्वसामग्रीसमायुक्ततया प्रगुणीभूताः-सालङ्कारविभूषिताः ‘महता भडचडगरपहकरेणीति महता-अतिशयेन भटचटकरपहकरेणचटकरप्रधानभटसमूदन पश्चानीकानि पश्चानीकाधिपतयः 'पुरतो' यथाऽनुपूा सम्पस्थिताः । तदनन्तरं च मूर्याभविमानवासिनो [2 बहवो वैमानिका देवा देव्यश्च सर्वा यावत्करणात 'सव्वजुईए सबवलणमित्यादि परिग्रहः, सूर्याभं देवं पुरतः पार्श्वतो मार्गतः -पृष्ठतः समनुगच्छति ।।
तए णं से सूरियाभे देवे तेणं पंचाणीयपरिखित्तेणं बहरामयवट्टलट्ठसंठिएण जाव जोयणसहस्समूसिएणं महतिमहालतेणं महिंदज्झएणं पुरतो कडिजमाणेणं चउहि सामाणियसहस्सेहि जाव सोलसहिं आयरकखदेवसाहस्सीहि अन्नेहि य बहहिं सूरियाभविमाणवासीहिं चेमाणिएहिं देवहिं देवीहि य सद्धिं संपरिखुड़े सविड़िए जाव रवेणं सोधम्मस्स कप्पस्स मझमझेणं तं दिव्यं देविईि दिर्च देवजुति दिवं देवाणुभावं उवदंसेमाणे २ पडिजागरेमाणे २ जेणेव सोहम्मकप्पस्स उनरिल्ले णिजाणमग्गे तेणेव उवागच्छति, २ जोयणसयसाहस्सितहिं विग्गहहिं ओवयमाणे वीतीचयमाणे ताए उक्किट्ठाए जाय तिरियमसंखिज्जाणं दीवसमुद्दाणं मझमझेणं वीइवयमाणे २ जेणेव नंदीसरवरदीचे जेणेब दाहिणपुरच्छिमिल्ले रतिकरपब्बते
अनुक्रम
[१६]
REaratinidio
सूर्याभदेवस्य भगवत् महावीर पार्श्वे आगमनं
~92~
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजमश्नी मलयगिरी या चिः
वीरपार्थागमनम
प्रत
सूत्रांक
॥ ४२ ॥
[१७-१९]
दीप
तेणेव उवागच्छति २ नातं दिवं देविईि जाव दिवं देवाणुभावं पडिसाहरेमाणे २ पडिसंखेवमाणे २ जेणेव जंबुद्दीवे २ जेणेव भारहे वासे जेणेव आमलकप्पा नयरी जेणेव अंबसालवणे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद २ ना समणं भगवं महावीरं तेणं दिवेणं जाणविमाणेणं तिखुनो आयाहिणं पयाहिणं करे। २ता समणस्स भगवतो महावीरस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागे तं दिव्वं जाणविमाणं ईसिं चउरंगुलमसंपत्त्रं धरणितलंसि ठवेइ ठविना चउहि अग्गमाहिसीहि सपरिवाराहिं दोहि अणीयाहिं तंजहा गंधवाणिएण य णट्टाणिएण यसद्धिं संपरिबुडे ताओ दिवाओ जाणविमाणाओ पुरच्छिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहति । तए णं तस्स सरियाभस्स देवस्स चत्वारि सामाणियसाहस्सीओ ताओ दिवाओ जाणविमाणाओ उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिरुवएणं पञ्चोरुहति, अवसेसा देवा य देवीओ य ताओ दिवाओ जाणविमाणाओ दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पञ्चोरुहंति । तए णं से सरियाभे देवे चउहि अम्गमहिसीहिं जाव सोलसर्हि आयरक्खदेवसाहस्सीहि अण्णेहि य बहूहिं सरियाभविमाणवासीहि बेमाणिएहिं देवहिं देवीहि य सद्धिं संपरिखुढे सबिडीए जाव णाइयरवेणं जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति २त्ता समणं भगवं महावीरं तिखुनो आयाहिणपयाहिणं करेति २ना वंदति नमसति वंदित्ता नमंसिता एवं वयासी-अहं णं भंते ! मरिया देवे देवाणुप्पियाणं बंदामि
अनुक्रम [१७-१९]
SAREauratonude
सूर्याभदेवस्य भगवत् महावीर पार्श्वे आगमनं
~93~
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
---------- ------------------------- मल [१७-१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१७-१९]
दीप अनुक्रम [१७-१९]
णमंसामि जाव पज्जुवासामि (सू०१७) सरियाभाति समणे भगवं महावीरे सूरियाभं देवं एवं वयासीपोराणमयं सरियामा ! जीयमेयं सूरियामा ! किच्चमेयं सरियामा ! करणिजमयं सूरियामा ! आइण्णमेयं सूरियामा! अब्भणुण्णायमेयं मूरियामा ! जे णं भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिया देवा अरहते भगवते वंदति नमसंति बन्दित्ता नमंसित्ता तओ पच्छा माई साई नामगोताई साहिति. ने पाराणमेयं सरियामा ! जाव अभणुनायमेयं सूरियामा ! (सू०१८) तए णं से सूरिया देवे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं बुने समाणे हट्ठ जाव समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति वैदित्ता नमंमिना गच्चामण्णे णातिदूरे मुस्मसमाणे णमंसमाण अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासति ॥ (सू० १९॥)
'तपणामित्यादि ततः स मूर्याभो देवः तेन पञ्चानीकपरिक्षिप्तेन यथोक्तविशेषणविशिष्टेन महेन्द्रध्वजेन पुरतः प्रकृष्यमाणेन चतुर्भिः सामानिकसहश्चतसृभिः सपरिवाराभिरग्रमहिषी भिस्तिसृभिः पर्षद्भिः सप्ताभिरनीकाधिपतिभिः पादशभिरात्मरक्षदेवसहरी
रन्यैश्च बहुभिः सूर्याभविमानवासिभिर्वैमानिर्देवैर्देवी भिश्च सार्द्ध सम्परिवृतः सर्वदा सर्वद्युत्या यावत्करणात्-'सव्ववलेणं सचकासमुदएणं सवादरणं सबविभूसाए सवविभूइए सवसंभमेणं सवपुष्फवस्थगंधमल्लालंकारेणं सबदिवतुडियसहसन्निनाएणं महया इड्डीए
महया जुइए महया बलेणं महया समुदएणं महया वस्तुडियजमगसमयपद्धप्पबाइयरवेणं संखपणवषडहभेरिझल्लरिखरमहिहाइकमरयमई-1 Killगदुंदुभिनिग्घोसनाइयरवेण' मिति परिगृयते, सौधर्मस्य कल्पस्य मध्येन तां दिन्या देवदि दिव्या देवद्युति दिव्यां देवानुभूति 'लाले
REnatanded
सूर्याभदेव-कृत् भगवत् महावीरस्य पर्युपासना
~94~
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
---------------------------------- मल [१७-१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१७-१९]
दीप अनुक्रम [१७-१९]
श्रीराजभश्नी माणे २ 'इति उपलालयन् २ लीलया उपभुञ्जान इति भावः, येनैव सौधर्मस्य कलस्योत्तराहो निर्माणमार्गो-निर्गमनमार्गस्तेनैव सूर्याभपयुमलयगिरी-पानोपागच्छति, 'ताए उकिडाए' इत्यादि पूर्ववद्यावत् दिव्यया देवगत्या योजनशतसहस्रकैः-योजनलक्षममाणविग्रह:-क्रम- पासना या वृत्तिः रखपतन्-अधस्तादवतरन् व्यतिब्रजश्च-गच्छंच तिर्यग् असङ्ख्येयाना द्वीपसमद्राणां मध्यंमध्येन 'जेणेवनि नन्दीश्वरो द्वीपः यस्मिन प्रदेशे यस्मिन्नेव च प्रदेशे तस्मिन्नन्दीश्वरे द्वीपे दक्षिणपूर्व:-आग्नेयकोणवी रतिकरनामा पर्वतस्तस्मिन्नुपागच्छति, उपागत्य च
तां०१७॥४३॥
दिव्या देवदि यावद दिव्य देवानुभावं शनैः २ प्रतिसंहरन् २ एतदेव पर्यायेण व्याचष्टे-पतिसहिपन २ यस्मिन् प्रदेशे जम्बूद्वीपो नाम १८-१९ द्वीपः तत्र च जम्मूद्वीपे यस्मिन् प्रदेशे भारतवर्ष तस्मिंश्च भारतवर्षे यस्मिन् प्रदेशे आमलकल्पा नगरी तस्याश्चाऽऽमलकल्पाया नगर्या बहि-15 यस्मिन्मदेशे आम्रशालवन चैत्य तस्मिंश्च चैत्ये यस्मिन् प्रदेशे श्रमणो भगवान् महावीरः । तेणे ति तत्रोपागच्छति, सर्वत्र तृतीया सप्तम्यर्थे द्रव्या प्राकृतत्वात् , उपागम्य च श्रमणं भगवन्तं महावीर तेन प्रागुक्तस्वरूपेण दिव्येन यानविमानेन सह त्रिकृत्वः-त्रीन | वारान् आदक्षिणप्रदक्षिणीकरोति, आदक्षिणपदक्षिणीकृत्य च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यापेक्षया य उत्तरपूर्वो दिग्भागस्तमपक्रामति-गच्छति अपक्रम्य च तद् दिव्यं यानविमानमीषद् एतदेव प्रकटयति-चतुरगुग्लं, चतुर्भिरडग्लरित्यर्थः असम्पाप्तं सत्.. धरणीतले स्थापयति स्थापयित्वा चतमभिरग्रमहिपीभिः सपरिवाराभिः द्वाभ्यामनीकाभ्यां तयथा-गन्धर्वानीफेन नाटयानीकेन च साई सम्परितृतस्तस्माद् दिव्यात् यानाविमानात् पूर्वण त्रिसोपानप्रतिरूपकेण प्रत्यवतरति, चत्वारि सामानिकदेवसहस्राण्युत्तरेण, शेषा दक्षिणेन । 'तए णमि' त्यादि, 'बंदामि नमसामि जाव पज्जुवासामी'त्यत्र यावच्छन्दकरणात् 'सकारेमि सम्माणेमि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेमि' इति परिग्रहः, ततः 'मूरियाभाई' इत्यादि, मूरियाभात् आदि:-मुख्यः पर्युपासकतया यस्य स
SMEaratinidi
FaPranaamvam ucom
सूर्याभदेव-कृत् भगवत् महावीरस्य पर्युपासना
~95
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [१७-१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
FO
प्रत
सूत्रांक [१७-१९
दीप अनुक्रम [१७-१९]
र्याभादिः श्रमणो भगवान् महावीरस्त मूर्याभं देवमेवमवादीत 'पोराणमेयमित्यादि प्राम्बत् , 'नञ्चासन्ने' इत्यादि, नात्यासन्नःनातिनिकटोऽवग्रहपरिहारात नात्यासने वा स्थाने वर्तमान इति गम्यम् 'नाइरे' इति नं-नैवातिदूर:-अतिविप्रकृष्टोऽनौचित्यपरिहारात् नानिदूरे वा 'सुस्मसमागे' इति भगवद्चनानि श्रोतुमिच्छन् — अभिमुहे' इति अभि-भगवन्तं लक्ष्यीकृत्य मुखमस्येति अभिमुखी, भगवतः सम्मुख इत्यर्थः, विनयेन हेतुना 'पंजलिउडे' इति प्रकृष्टः-प्रधानो ललाटतटघटिनत्वेन अञ्जलिः-हस्तन्यासविशेषः कृतो येन स प्राञ्जलिकृतः, सुखादिदर्शनात् तान्तस्य परनिपातः, पयुपास्ते सेवते ।
तए णं समणे भगवं महावीरे सरियाभस्म देवस्स तीसे य महतिमहालियाए परिसाए जाव परिमा जामेव दिसि पाउम्भूया तामेव दिसि पडिगया (सू०२०) तए णं से सरियाभे देवे समणस्स भगयो महावीरस्स अंतिए धम्म सांचा निसम्म हट्रतुद्र जाब हयाहियए उठाए उऐति उट्रिना समणं भगवं महावीरं बंदद णमंसद वंदित्ता नमंसिना एवं बयासी-अहन्नं भंते ! मरियामे देवे किं भवसिद्धिए अभवसिद्धते ? सम्मदिदी मिच्छदिदी? परिनसंसारिते अणंतसंसारिए ? सुलभबोहिए दुलभवोहिए ? आराहते विराहते? चरिमे अचरिमे ?. सरियाभाइ समणे भगवं महाधीरे सरियाभं देवं एवं वदासी-सरियामा! तुम णं भवसिद्धिए णो अभवसिद्धित जाव चरिमे णो अचरिमे (सू०२१) तए णं से सूरियाभे देवे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं बुत्ते समाणे हट्टतुट्ठ चित्तमाणदिए परमसोमणस्से समणं भगर्व महावीरं वंदति
SaintaintinEAna
Bludioamera
सूर्याभदेव-कृत् भगवत् महावीरस्य पर्युपासना
~96~
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं २०-२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
| पर्षत्पति
श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी या वृत्तिः
सूत्रांक [२०-२३]
॥४४॥
०२० आराधकादिप्रश्नाः मू०२१
नमंमति २ एवं वदासी-तुम्भ णं भंत ! सर्व जाणह सव्यं पासह (मबओ जाणह सम्वी पासह) सर्व कालं जाणह सर्व कालं पासह सव्व भाव जाणह सवे भावे पासह जाणंति ण देवाणुप्पिया मम पुर्वि वा पच्छा वा ममेयरुवं दिवं दविड़ि दिवं देवजुई दिवं देवाणुभागं लद्धं पत्तं अभिसमष्णागयंति, तं इच्छामि णं देवाणुपियाणं भनिपुत्वगं गायमातियाणं समणाणं निग्गंथाणं दिवं दविड़ि दिध्वं देवजुइंदिवं देवाणुभावं दिवं बनीमतिबद्धं नट्टविहि उवदंसित्तए (सू० २२) तए णं समणे भगवं महावीरे मूरियाभणं देवणं एवं बुन समाण मूरियाभस्म देवस्स एयमद्रं णो आढाति णो परियाणति तुसिणीए मंचिद्वति । तए णं से मूरियाभे देव ममणं भगवं महावीरं दोचपि एवं ययासी-तुब्भेणं भंते ! म जाणह जाव उदसित्तए तिका ममणं भगवं महावीरं तिखुनो आयाहिणपयाहिणं करेद २ बंदति नममति २ ना उत्तरपुरच्छिमं दिमीभागं अतिक्कमति २ नावउवियसमुग्घाएणं समोहणति २ चा मंखिजाई जोयणाई दंडं निस्सरति २ ना अहाबायर० २ अहासहुमे०२ दोच्चपि विउब्वियसमुग्घाएणं जाव बहुसमरमणि भूमिभार्ग विउब्यति, से जहानामए आलिंगपुक्खरे इ वा जाव मणीणं फासो, तस्म णं बहुसमरमाणिज्जस्म भूमिभागस्स बहुमझदसभागे पिच्छाघरमंडवं विउवति, अणेगखंभमयसनिविटुं यण्णता बहुसमरमणिजभूमिभागं विउवद उल्लायं अक्खाडगं च मणिपेढियं च विउवति, तीसे णं मणि
दीप अनुक्रम [२०-२३]
नाटयविधि
| प्रश्नः
मू०२२
नाट्यदर्श
म्. २३ ॥४४॥
सूर्याभदेव-कृत् भगवत् महावीरस्य पर्युपासना एवं नृत्य-प्रदर्शनं
~97~
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [२०-२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०-२३]
दीप अनुक्रम [२०-२३]
पढियाए उबरि सीहासणं सपरिवारं जाव दामा चिट्ठति । तए णं स मूरियाभे देवे समणस्म भगवतो महावीरस्स आलाए पणामं करेति २ ना अणुजाणउ मे भगवंतिकडु सीहासणवरगए तित्थयराभिमुहे मण्णिसणे । तए णं से सरियामे देव तप्पडमयाए णाणामणिकणगरयणविमलमहरिहनिउणोवचियमिसिमिसिंतविरतियमहाभरणकडगतुडियवरभूमणुजलं पीवरं पलं दाहिणं भुयं पमारेति । तओ णं सरिसयाणं सरित्तयाणं मरिचयाणं सरिसलावण्णरूवजोवनगुणोववेशणं एगाभरणवमणगहियणिजोआणं दुहतीसंवलियग्गणियत्थाणं आविद्धतिलयामेलाणं पिणिद्धगेविजकंचुयाणं उप्पीलियचित्तपट्टपरियरमफेणकावनरइयसंगयपलंबवत्थंतचित्तचिल्ललगनियंसणाणं एगावलिकंठरइयमो - तवच्छपरिहत्थभूमणाणं अट्ठमयं णट्टसज्जाणं देवकुमाराणं णिगच्छति । तयाणतरं च णं णाणामणि जाव पीवरं पलंचं वाम भुयं पहरिति, तभी णं सरिमयाण सरित्तयाण सरिबतीणं सरिमलावण्णरुवजोवणगुणोपवेयाणं एगाभरणवमणगहियनि जोयाणं दुहतोमवेल्लियग्गनियत्थीणं आविद्धतिलयामेलाणं पिणद्धगंदजकंचुतीणं णाणामणिरयणभूगणविराइयंगमंगाणं चंदाणणाणं चंदद्धसमनिलाडाणं चंदाहियसोमदसणाणं उनका इव उजोवेमाणीणं भिंगारागारचारुवेमाणं हसियभणियचिट्ठियविलासमललियमलावनिउणजुत्तीवधारकुमलाण गहियाउजाणं अट्ठमयं नहसजाणं देवकुमारियाणं णिग्गच्छइ । तए णं
Santaratmisha
andiarare.org
भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं
~98~
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
--- ------- ------------- मूल २०-२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
नाट्यदर्श
प्रत
नम्
सूत्रांक
श्रीराजप्रश्नी मलयगिरीया वृत्तिः ॥४५॥
[२०-२३]
दीप अनुक्रम [२०-२३]
से मरियामे देव अट्ठसयं संखाणं विउबति अट्ठसरं संखवायाणं विउबइ अट्ठसयं सिंगाणं विउबइ अट्ठयसं सिंगवायाणं विउवइ अट्ठसयं संखियाणं विउवइ अट्ठसयं संखियवायाणं विउबद अट्ठसयं खरमुहीणं विउबइ अट्ठसयं सरमुहिवाइयाणं विउबइ अट्ठमयं पेयाणं विउबति अट्ठसयं पेयावायगाणं अट्रसयं पीरपीरियणं विउबइ एवमाइयाई एगणपण्णं आउज्जविहाणाई विउबर २ ना तए ण ते बहवे देवकुमारा य देवकुमाराओ य सद्दावेति, नए णं ते वहये देवकुमारा य देवकुमारीयो य सरियाभेणं देवणं सद्दाविण ममाणा हट्ट जाव जेणेव सरियामे देवे तेणेव उवागच्छन्ति तेणेच २ ना सरिया देवं करयलपरिगहियं जाव बद्धाविना एवं वयासी-संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जं अम्हहि कायचं, तए णं से सरियामे देव ते पहले देवकुमारा य देवकमारीओ य एवं वासी-गच्छह णं तुमे देवाणुप्पिया! समणं भगवं महावीरं तिक्खुनो आयाहिणपयाहिणं करेह करिना बंदह नमसह वंदिता नमंसित्ता गोयमाइशणं समणाणं निग्गंथाणं तं दिवं देविडिं दिवं देवजुर्ति दिवं दिवाणुभावं दिवं पत्तीसइपर्छ णट्टविहि उपदंसह उवदसित्ता खिप्पामेव एयमाणनियं पञ्चप्पिणह । तए णं ते बहवे देवकुमारा देवकुमारियो य सूरियाभणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ठजाव करयल जाव पडिसुणंति २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तणेव उवागच्छंति २ समणं भगवं महावीरं जाव नमसित्ता जेणेव गोयमादिया समणा निग्गंथा तेणेव
alig५॥
भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं
~99~
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
---------- ------------------------- मलं [२०-२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२०-२३]
दीप अनुक्रम [२०-२३]
उवागच्छंति, तए णं ते बहवे देवकुमारा देवकुमारियो य समामेव समोसरणं करति, समा २त्ता समामेव पंतिओ बंधंति, समामेव पंतिी बंधिता समामेव पंतिओ नमसंति समामेव २ सित्ता समामेव पंतीश्री अवणमंनि २ ना समामेव उन्नमंति २ एवं सहितामेव ओनमंति एवं सहितामेव उन्नमंति सहियामेव उण्णमिना थिमियामेव ओणमंति थिमियामेव उन्नमन्ति संगयामेव ओनमंति संगयामेव उन्नमंनि २ ना समामेव पसरति २ ना समामेव आउज्जविहाणाई गेण्हति समामेव पवाएंसु पगाइस पणचिंसु, किंत?, उरेण मंदै सिरेण तारं कंठेण वितारं तिविहं तिसमयरेयगरइयं गुंजावककुहरोवगूढ र तिठाणकरणसुद्धं मकुहरगुंजंतवंसततीतलताललयगहसुसंपउन महुरं समं सललियं मणोहरं मिउरिभियपयसंचारं मुरड सुणइ वरचारुरुवं दिवंणट्टसज्ज गेयं पगीया विहोत्था, किंते ?, उद्धमंताणं संखाणं सिंगाणं संखियाणं खरमहीणं पेयाणं परपिरियाणं आहंमंताणं पणवाणं पडहाणं अप्फालिजमाणाणं भंभाणं होरंभाणं [वीणाणं वियधी(पंची)]] तालिजंताणं भेरीणं झल्लरीणं दुंदुहीणं आलिवंताणं [मुरयाणं] मुइंगाणं नन्दीमुईगाणं उनालिजंताणं आलिंगाणं कुंटुंबाणं गोमूहीणं महलाणं मुच्छिताणं वीणाणं विपंचीणं वल्लकीणं कुट्टिजंताणं महंतीणं कच्छभीणं चिनवीणाणं सारिजंताणं बद्धीसाणं सुघोसाणं णदिघोसाणं फुट्टिजंतीणं भामरीणं छन्भामरीणं परिवायणीणं छिप्पंतीगं तृणाणं तूंबवीणाणं
Saintairatondon
का
भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं
~100~
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
--------- ------------------------- मल २०-२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराममनी मलयगिरी
नम्
या वृत्तिः
प्रत सूत्रांक [२०-२३]
॥४६॥
दीप अनुक्रम [२०-२३]
आमोडिजंताणं आमोताणं कुंभाणं नउलाणं अच्छिजंतीणं मुगुंदाणं हुडुक्कीणं विचिक्कीणं बाइज्जताणं 1 नाट्यदर्शकरडाणं डिंडिमाणं किणियाणं कडंबाणं वाइज्जताणं दद्दरगाणं दद्दरिगाणं कुतुबाणं कलमियाणं महुयाणं आवडिज्जंताणं तलाण तालाणं कंसतालाणं घट्टिजंताणं रिंगिरिसियाण लनियाणं मग
• मू०२३ रियाणं सुसुमारियाणं फूमिजंताणं वंसाणं वेलणं वालीणं परिल्लीणं बद्धगाणं, तए णं मे दिवे गीए दिवे नट्टे दिवे वाइए एवं अभुए सिंगारे उराले मणुने मणहरे गीते मणहर नढे मणहर वातिए उप्पिजलभूत कहकहभूते दिवं देवरमणे पवनेयावि होत्था, नए णं ते बहव देवकुमारा य देवकुमारीओ य समणम भगवी महावीरस्स सोत्थियसिरिवच्छणं दियावत्तवद्धमाणगभद्दासणकलसमच्छदप्पणम
गल्लभत्तिचित्तं णामं दिवं नविधि उवदंसति (म. २३) ___ ततः श्रमणो भगवान महावीरः मूर्याभस्य देवस्य श्वेतस्य राज्ञो धारणीप्रमुखानां च देवीनां तस्याच ' महइमहालिताए । इति अतिशयेन महत्या 'इसिपरिसाए । इति ऋषयः-त्रिकालदर्शनिनस्तेषां पर्षत् तस्याः, अवध्यादिजिनपर्षद इत्यर्थः, मुनिपपदोयथोक्तानुष्टानानुष्टायिसाधुपर्षदः 'जतिपरिसाए । इति यतन्ते उत्तरगुणेषु विशेषत इति यतयो विचित्रद्रव्याद्यभिग्रहाद्युपेताः साधवस्तेषां पपदो यतिपर्षदः, 'चिदुपरिसाए' इति विद्वत्परिषदः-अनेकविज्ञानपर्षदो देवपर्षदः इक्ष्वाकुपर्षदः क्षत्रियपर्षदः कौरव्यपर्षदः अ
कथम्भूताया इत्याह-'अणेगसयाए ' इति अनेकानि पुरुषाणां शतानि सङ्ख्यया यस्यां सा अनेकशता तस्याः 'अणेगवंदाए' इति काअनेकानि वृन्दानि यस्याः सा तथा तस्याः, 'अणेगसयबंदपरिचाराए' इति अनेकशतानि अनेकशतसल्यानि वृन्दानि परिवारो.
M
anurary.orm
भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं
~101~
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
--------- ------------------------- मलं २०-२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
२०-२३]
दीप अनुक्रम [२०-२३]
यस्याः सा तथा तस्याः, 'महतिमहालियाए परिसाए । अतिशयेन महत्या पर्षदः 'ओहवले' इति ओघेन-प्रबाहेण बलं यस्य, नतु कथयतो बलहानिरुपजायते इति भावः, ‘एवं जहा उपवाइए तहा भाणियबमिति, एवं यथा औपपातिके ग्रन्थे तथा वक्तव्यं, तच्चवं-'अइबले महावले अपरिमियबलबीरियतेयमाहप्पकंतिजुत्ते सारदनवथणियमहुरगंभीरकुंचनिग्योसदुंदुभिस्सरे उरेवित्थडाए कंठेबवियाए सिरेसमावनाए अगरलाए अमम्मणाए फुडविसयमहुरगंभीरगाहिगाए सब्बक्खरसनिवाइयाए गिराए सब्बभासाणुगामिणीए सव्वसंसयविमोयणीए अपुणरुत्ताए सरस्सईए जोयणनीहारिणा सरेणं अद्धमागहाए भासाए भासइ, अरिहाधम्म परिकहेइ, तंजहा-अस्थि लोए अस्थि अलोए अस्थि जीवे अस्थि अजीवेत्यादि, तावत् यावत् तए णं सा महइमहालिया मणुस्सपरिसा समणस्स भाभगवतो महावीररस अंतिए धम्म सोचा निसम्म हतुवा समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ करिता बंदइ । | नमसइ २ ता एवं बयासी-सुयक्खाए णं भंते ! निग्गंथे पावयणे, नस्थि णं कई समणे माहणे वा एरिसं धम्ममा |
इक्खित्तए, एवं वदत्ता जाम्व दिसि पाउब्भूता तामेव दिसि पडिगया । तए णं सेए राया समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हद्वन्तुचित्तमाणदिए जाव हरिसवसविसप्पमाणहियए समणं भगवं महावीरं बंदर नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता पसिणाई पुच्छइ पुच्छित्ता अट्ठाई परियाएइ परियाइना उट्ठाए उट्टेइ उद्वित्ता समर्ण भगवं महावीरं वंदइ नमसइ २ एवं बयासी-सुयक्वाए णं भंते ! निग्गंथे पावयणे जाब एरिसं धम्ममाइक्वित्तए, एवं वइत्ता हत्थिं दुरूहइ दुरूहित्ता समणस्स भगवतो|
महावीरस्स अंतियानो अंबसालवणाओ चेहवाओ पडिनिकखाइ पडिनिक्वामित्ता जामेच दिसि पाउम्र तामेव दिसि पडिगते" हाइति, इर्द च प्रायः सकलमपि सुगमं नवरं यामेव दिशमवलन्य, किमुक्तं भवति ?-यतो दिशः सकाशात् प्रादुर्भूतः-समवसरणे :
Santaratana
Ema
भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं
~102
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
---------- ------------------------- मलं [२०-२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०-२३]
दीप अनुक्रम [२०-२३]
श्रीराजपची समागतस्तामेव दिशं प्रतिगतः । सम्पति सूर्याभी देवो धर्मदेशनाश्रवणतो जातप्रभूततरसंसारविरागः स्वविषयं भव्यत्वादिकं पिपृ- नाट्यदर्शमायमिरी-च्छिषुर्यत्करोति तदाह-'तए णमित्यादि, 'भवासद्धिए' इति वैः सिद्धिर्यस्यासी भवसिद्धिको, भव्य इत्यर्थः, तद्विपरीतोऽमवासिया वृत्तिः/द्धिकः, अभव्य इत्यर्थः, भन्योऽपि कश्चिान्मध्याष्टिभवाति कश्चित्सम्यगृष्टिस्तत आत्मनः सम्यगृष्टित्वनिश्चयाय पृच्छति-सम्यग-10 ॥१७॥ ष्टिको मिथ्यादृष्टिकः, सम्यग्रष्टिरपि कश्चित्परिमितसंसारो भवति कश्चिदपरिमितसंसारः, उपशमश्रेणिशिर प्राप्तानामपि केषाश्चि-
12 दिनन्तसंसारभावाद, अतः पृच्छति-परीत्तसंसारिकोऽनन्तसंसारिकः ?, परीत्तः-परिमितः स चासो संसारश्च परीनसंसार: सोऽस्या
स्तीति परीत्तसंसारिका, 'अतोऽनेकस्वरादिकप्रत्ययः, एवमनंतश्चासौ संसारधानन्तसंसारः सोऽस्यास्तीति अनन्तसंसारिकः, परीत्तसंसारिकोऽपि कश्रित सुलभवोधिको भवति यथा शालिभद्रादिका, कश्चिदुर्लभयोधिको यथा पुरोहितपुत्रजीवः, ततः पृच्छति सुलभा बोधिः-भवान्तरे जिनधर्मप्राप्तिर्यस्यासौ सुलभयोधिका, एवं दुर्लभवोधिकः, सुलभवोधिकोऽपि कश्चिद्रोधि लब्ध्वा विराधयति ततः पृच्छति-आराधयति-सम्यक पालयति बोधिमित्याराधकः, तद्विपरीतो विराधकः, आराधकोऽपि कवितद्भवमोक्षगामी न भवति ततः पृच्छति-चरमोऽचरमो वा, चरमोऽनन्तरभावी भवो यस्यासौ चरमः · अभ्रादिभ्य" इति मत्वर्थीयोऽप्रत्ययस्ताविपरीतोऽचरमः, एवमुक्ते मूर्याभादिः श्रमणो भगवान् महावीरस्तं मूर्याभ देवमेवमवादीत-भोः मूर्याभ ! त्वं भवसिद्धिको नाभवसिद्धिकः, यावत्करणात् 'सम्मद्दिट्ठी नो मिच्छादिट्ठी परित्तसंसारिए नो अणंतसंसारिए मुल्लमबोहिए नो दुल्लभबोहिए आराहए नो विराहए' इति परिग्रहः ।। ' तुब्भे णं भंते ! ' तुम्भे इति यूयं णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! सर्व केवलवेदसा जानीथ सर्व केवलदानेन पश्यथ, अनेन द्रव्यपरिग्रहः, तत्र सर्वशब्दो देशकास्न्येऽपि वर्तते यथा अस्य सर्व
HTaasaram.org
भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं
~103~
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------------------------- मल २०-२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०-२३]
दीप अनुक्रम [२०-२३]
स्यापि ग्रामस्यायमधिपतिरिति सचराचरविपयज्ञानदर्शनप्रतिपादनार्थमाह-सव्वतो जाणह सचओ पासह ' सर्वतः--सर्वत्र दिक्षु ऊर्ध्वमधो लोकेऽलोके चेति भावः, जानीय पश्यथ च, अनेन क्षेत्रपरिग्रहः, तत्र सर्वद्रव्यसर्वक्षेत्रविषयं वार्त्तमानिकमात्रमपि ज्ञानं दर्शनं वा सम्भाव्येत ततः सकलकालविषयज्ञानदर्शनपतिपादनार्थमाह-सर्वकालम् अतीतमनागतं वर्तमानं च जानीय पश्यथ, एतेन कालपरिग्रहः, तत्र कश्चित् सर्वव्यसर्वक्षेत्रसर्वकालविषयमपि ज्ञानं सर्वपर्यायविषयं न सम्भावयेत् यथा मीमांसकादिः अत आह-सर्वान् भावान्-पर्यायान् प्रतिद्रव्यमात्मीयान् परकीयांश्च केवलवेदसा जानीय केवलदर्शनेन पश्यथ, अथ भावा दर्शनविषया न भवन्ति ततः कथमुक्त-सब्बे भावे पासह । इति?, नैष दोषः, उत्कलितरूपतया हि ते भावा दर्शनविषया न भवन्ति, अनुकलितरूपतया तु ते भवन्त्येव, तथा चोक्तम्-" निर्विशेष विशेषाणां, ग्रहो दर्शनमुच्यते,"इति, ततो 'जाणति णमितिपूर्ववत देवानां । प्रियाः पूर्वमपि अनन्तरमुपदर्यमाननाट्यविधेः पश्चादपि च उपदय॑माननाव्यविधेः, उत्तरकालं मम एतद्रूपां दिव्या देवदि दिव्यां दवद्युतिं । दिव्यं देवानुभावं लब्धं (लब्ध) देशान्तरगतमपि किश्चिद्भवति तत आह प्राप्त, प्राप्तमपि किश्चिदन्तरायवशादनात्मवशं भवति तत आहअभिसमन्वागतं, तत 'इच्छामि णमित्यादि, इच्छामिणमितिपूर्ववत् देवानां प्रियाणां पुरतो भक्तिपूर्वक बहुमानपुरस्सरं गौतमादीनां श्रमणानां निर्ग्रन्थानां दिव्यां देवर्द्धि दिव्यां देवद्युतिं दिव्यं देवानुभावमुपदर्शयितुं द्वात्रिंशद्विधं-द्वात्रिंशत्यकारं नाट्यावध नाट्यविधानकामुपदर्शयितुमिति । 'तए णमित्यादि, ततः श्रमणो भगवान महावीरः सूर्याभेण देवेन एवमुक्तः सन् मूर्याभस्य देवस्यैनम्-बन-11 अन्तरोदितमर्थं नाद्रियते-न तदर्थकरणायादरपरो भवति, नापि परिजानाति अनुमन्यते, स्वतो वीतरागत्वात् गौतमादीनां च नाट्य-15 विधेः स्वाध्यायादिविघातकारित्वात् , केवलं तूष्णीकोऽवतिष्ठते, एवं द्वितीयमपि वारं, तृतीयमपि वारमुक्तः सन् भगवानेवमवतिष्ठति ।
REnaind
REATMENTam.org
भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं
~ 104~
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं २०-२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक २०-२३]
दीप अनुक्रम [२०-२३]
श्रीराजमश्नी/ तए णमित्यादि, ततः पारिणामिक्या बुध्ध्या तत्त्वमवगम्य मौनमेव भगवत उचितं न पुनः किमपि वक्त, केवलं मया भक्तिरात्मीयो- नाट्यदर्शमलयगिरी- पदर्शनीयेति प्रमोदातिशयतो जातपुलकः सन् सूर्याभो देवः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते स्तौति नमस्यति-कायेन बन्दित्वा नमस्थित्वा नम् या वृत्तिःच 'उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागमित्यादि सुगम, नवरं बहुसमभूमिवर्णनप्रेक्षागृहमण्डपवर्णनमाणिपीठिकासिंहासनतदुपर्युलोचाकुशमुक्ता
०२३ दामवर्णनानि च प्राग्वद् भावनीयानि । 'तए णमित्यादि, ततः सूर्याभो देवस्तीर्थङ्करस्य भगवतः आलोके प्रणाम करोति, कृत्वा ॥४८॥
चानुजानातु भगवान् मामित्यनुज्ञापनां कृत्वा सिंहासनवरगतः सन् तीर्थकराभिमुखः सन्निषण्णः। 'तए णमित्यादि, ततः मूर्याभो देवः 'तत्पथमतया' तस्य-नाटयविधेः प्रथमतायां दक्षिण भुज प्रसारयति, कथम्भूतमित्याह-'नानामणिकणगरयणविमलमहारिहनिषणी-15 शचियमिसिमिसंतविरइयमहाभरणकडगतुडियवरभूसणुज्जल' इति नानाविधानि मणिकनकरत्नानि येषु तानि नानापणिकन-1
करत्नानि, मणयो नानाविधाश्चन्द्रकान्तादयः कनकानि नानाविधानि नानावर्णतया रत्नानि नानाविधानि कर्कतनादीनि, तथा विमलानि-निर्मलानि तथा महान्तमुपभोक्तारमहन्ति यदिवा महम्-उत्सवं क्षणमहन्तीति महार्हाणि तथा निपुणं-निपुणबुद्धिगन्य यया भवति एवं ' ओविया । इति परिकमितानि 'मिसिमिसंतात्त' दीप्यमानानि विरचितानि महाभरणानि यानि कटकानिकलाचिकाभरणानि तुटितानि-बाहुरक्षका अन्यानि व यानि वरभूषणानि तैरुज्ज्वलं-भास्वरं तथा पीचरं स्थूलं प्रलम्व-दीर्थे । तए णमित्यादि, ततः तस्माद् दक्षिणभुजात् अष्टशतम्-अष्टाधिक शतं देवकुमाराणां निर्गच्छति, कथम्भूतानामित्याह-सदृशाना,
॥ ४८ ॥ समानाकाराणामित्यर्थः, तत्राकारेण कस्यचि(वि)त सदृशोऽपि वर्णतः सदृशो न भवति ततः सदृग्वर्णत्वातिपादनार्थमाह- सरिचयाण'मिति, सदृशी सहग् वर्णत्वक् येषां ते तथा, सहकत्वगपि कश्चित् वयसा विसदृशः सम्भाव्येत तत आह-सरिव्ययाणं'
FET
Saintamatund
r a
Audioraryou
भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं
~105
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं २०-२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०-२३]
दीप अनुक्रम [२०-२३]
सहक-समान वयो येषां ते तथा तेषां 'सरिसलावण्णरूबजोवणगुणोववेयाण मिति सदृशेन लावण्येन लवणिना अतिसुभगया| शरीरकान्त्यति भावः, रूपेण-आकृत्या यौवनेन यौवनिकया गुणैः-दक्षत्वप्रियंवदत्वादिभिरुपपेताः सदृशलावण्यरूपयविनगुणोपपेतास्तपा, 'एगाभरणवसनगहियनिजोगाणमिति एका-समानः आभरणवसनादि:-आभरणवसनलक्षणो गृहीतो निर्योग:-उपकरणमानाटयोपकरणं यैस्ते तथा तेषां, 'दुहओ संवेल्लियम्गनियत्थाणं ति द्विधातो-योः पार्श्वयोः संवेल्लितानि-संवृत्तानि भग्राणि यस्य तद द्विधातःसंवेल्लिताग्रं न्यस्तै सामर्थ्यादुत्तरीयं यैस्ते तथा तेषां, तथा 'उप्पीलियचित्तपट्टपरियरसफेणगावत्तरइयसंगयपलंबवत्वंतचित्तचिल्ललगनियंसणाण मिति, उत्पीडितः अत्यन्तावद्धश्चित्रपट्टो-विचित्रवर्णपट्टरूपः परिकरो येस्ते तथा यस्मिन्नावर्त्तने फेनविनि
मो भवति स सफेनकावर्त उच्यते ततः सफेनकावर्तेन रचिता सङ्गता-नाट्यविधावुपपन्नाः प्रलम्बा वस्त्रान्ता यस्य निवसनस्य तत्तथा तत् चित्रं चित्रवर्णं चिल्ललग देदीप्यमानं निवसन-परिधानं येषां ते तथा, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासस्तेपा, 'एगा-3 बलिकंठरइयसोभंतवच्छपरिहत्यभूसणाण' मिति, एकावलियो कण्ठे रचिता तया शोभमानं वक्षो येषां ते तथा, परिहत्वशब्दो देश्यः परिपूर्णवाचका, पटिहस्थानि-पूर्णानि भूपणानि येषां ते तथा, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयस्तेषा, नट्टसज्जाण' नृत्ये सज्जा:गुणीभूता नृत्यसज्जास्तेषां । तदनन्तरं च यथोक्तविशेषणविशिष्टं वामं भुज प्रसारयति, तस्माद्-वामभुजात् अष्टशतं देवकुमारिकाणां विनिर्गच्छति, कथम्भूतमित्याह-'सस्सियाण सरित्तयाणं सरिव्वयाण सरिसलावण्णरूवजोवणगुणोववेयाणं एगाभरणवसणगहियनिजोईणं दुहतोसंवेल्लियग्गनियत्वीणमिति पूर्ववत् 'आविद्धतिलयामेलाणं' आबिद्धस्तिलक आमेलव-शेखरको यकाभिस्ता आविद्धतिलकामेलास्तासां 'पिणद्धगेवेज्जकञ्चुकाण'मिति, पिनद्धं ग्रैवेयक-ग्रीवाभरणं कञ्चुकश्च यकाभिस्तास्तथा तासा
murary orm
भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं
~106~
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
(१३)
----------------------------------- मल २०-२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक २०-२३]
दीप अनुक्रम [२०-२३]
श्रीराजमश्नी नानामणिकगारयणभूसणविराइयंगमंगीण मिति, नानाविधानि मणिकनकरत्नानि येषु भूषणेषु नानि नानामणिकनकरत्नानि | नाट्यविधिः मलयगिरी नामणिकनकरत्नभूपर्णविराजितान्यङ्गमङ्गानि-अङ्गप्रत्यङ्गानि यास तास्तथा तासां, 'चंदाणगाणं चन्दद्धसपनिहालाणं चन्दाया वृत्तिः हियसोमदंसगाणं उक्का इव उज्जोवेमाणीणमिति सुगम 'सिङ्गारागारचारवेसाणं हसियभणियचिट्ठियविलाससलालियसंलापणिउण
जुत्तोवयारकुसलाणं महियाउजाणं नट्टसज्जाणमिति पूर्ववत् । 'तए णं से भूरियामे देवे' इत्यादि, ततः (स) मर्याभो देवोऽष्टशतं शङ्खानां | साविकर्वति, अष्टशतं शववादकानाम १, अष्टशतं शृङ्गाणामष्टशतं शृङ्गवादकानां २ अष्टशत शहिकानां अष्टशतं शडिकावादकानां२, हस्वः
शङ्खो जात्यन्तरात्मकः शडिका, तस्या हि स्वरो मनाक् क्ष्णिो भवति, न तु शवदतिगम्भीरः, तथा अशां वरमुखीनां -काहलानां असतं खरमुखीवादकानाम् ३, अष्टशतं पेयाना, पेपा नाम महती काहला, अष्टशतं पेयवादकानां ४, अष्टशतं पीरिपीरिकाणां-कोलिक-19
पुटवनद्धमुखवाद्यविशेषरूपाणामष्टशतं पीरिपीरिवादकनां ५ अष्टशतं पणवाना, पणवो-भाण्डपरहो लघुपटहो वा अशतं पगववादकानां डा६ अष्टशतं पन्हानां अष्टशतं पटहवादकानां ७ अष्टशतं भम्भानां भम्भा-हका अष्टशत भन्भावादकानां ८ अश होरम्भाणा,
होरम्भा-महाढ का अशत होरम्भावादकानां ९ अष्टशतं भेरीणां-ढकाकृतिवाधविशवरूपाणामष्टशतं भेरीवादकाना १० अशनं| काझल्लरीणां झारीनाम-चौवनद्धा विस्तीर्णवलयाकारा अशतं झल्लरीवादकानां ११ अशतं दुन्दुभीनामष्टशतं दुन्दुभिवादकानां
दुन्दुभिर्भयाकारा सङ्कटमुखी देवातोयविशेषः १२ अष्टशतं मुरुजानां महाप्रमागो मर्दलो मुरुजः अष्टशतं मुरुजवादकानां |१३ अष्टशतं मृदङ्गानां लघुमदलो मुदङ्गोऽष्टशतं मृदङ्गवादकानां १४ अष्टशतं नन्दीमृदङ्गानां नन्दीमृदङ्गो नाम एकतः ॥ ४९ ॥ सङ्कीर्णोऽन्यत्र विस्तृतो मुरजविशेषः, अष्टशतं नन्दीमृदङ्गवादकानां १५ अष्टशतमालिङ्गानां आलिङ्गो-मुरजवायविशेष एवाष्टश
For P
OW
aaurary.org
भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं
~107~
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं २०-२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०-२३]
दीप अनुक्रम [२०-२३]
तमालिङ्गवादकानां १६ अष्टशतं कुस्तुम्बाना कुस्तुम्बः-चावनद्धपुटो वाद्यविशेषः अष्टशतं कुस्तुम्बवादकानां १७ अष्टशतं गोमुखीनां, मोमुखी लोकतोऽवसेया, अष्टशतं गोमुखीवादकानां १८ अष्टशतं मईलाना, मईला-उभयतः समः, अष्टशवं मर्दलवादकाना १९ अष्टशत विपश्चीनां. विपश्ची-त्रितन्त्री वीणा, अष्टशतं विपञ्चीवादकानां २०, अशतं बल्लकीना, बल्लकी-सामान्यतो वीणा, अष्टशतं वल्लकीवादकानां २१ अष्टशतं भ्रामरीणामष्टशतं भ्रामरीवादकानां २२ अष्टशतं षड्भ्रामरीणामष्टशतं
इभ्रामरीवादकानां २३ अष्टशतं परिवादिनीनां परिवादिनी-सप्ततन्त्री वीणा अष्टशतं परिवादिनीवादकानां २४ अष्टशत ववीसानामष्टशतं ववीसावादकानां २५ अष्टशतं सुघोषाणामष्टशतं सुघोषावादकानां २६ अष्टशतं नन्दिघोषाणामष्टशतं नन्दीघोपवादकानां २७ अष्टशतं महतीनां, महती-शततन्त्रिका वीणा अष्टशतं महतीवादकाना २८ अष्टशतं कच्छभीनामष्टशत कन्छभीवादकानां २९ अष्टशतं चित्रवीणानां अष्टशतं चित्रवीणावादकानां ३० अष्टशतमामोदानामष्टशतं आमोदवादकानां ३१ अष्टशतं झञ्झानामशतं झञ्झावादकानां ३२ अष्टशतं नकुलानां अष्टशतं नकुलवादकानां ३३ अष्टशतं तूणानामष्टशतं तूणावादकानां । ३४ अष्टशतं तुम्बवीणानां तुम्बयुक्ता वीणा या तुम्बवीणा अधकल्यप्रसिद्धा अष्टशतं तुम्बवीणावादकानां ३५ अष्टशतं मुकुन्दानां मुकुन्दो-मुरुजवायविशेषो योऽतिलीनं प्रायो बाद्यते अष्टशतं मुकुन्दवादकानां ३६ अष्टशतं हुडुकानामष्टशतं हुडकावादकानां हुडुका मतीता ३७, अष्टशनं चिवि[विचि] कीनामष्टशतं चिवि[विचि] कीवादकानां ३८, अष्टशतं कस्टीनाराष्टशतं कस्टीवादकानां, करटी प्रतीता |३९ अष्टशतं डिण्डिमानामष्टशतं डिण्डिमवादकाना, मधमप्रस्तावनास्तबकः पणवविशेषः डिण्डिमः४०, अष्टशतं किणितानामष्टशन किणितचादकानां ४१ अष्टशतं कटवानामशतं कडवावादकाना, कडवा-करटिका ४२, अशतं दर्दरकाणामहशतं दर्दवादकाना, दईरकः
~108~
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं २०-२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०-२३]
दीप अनुक्रम [२०-२३]
श्रीराजप्रश्नी प्रतीतः ४३, अष्टशतं दर्दरिकाणामष्टशतं दर्दरिकावादकाना लघुदईरको दर्दरिका ४४ अष्टशतं कुस्तुम्बराणामष्टशतं कुस्तुम्बर- नाव्यविधि मलयगिरी
चादकानां ४५ अष्टशतं कलशिकानामष्टशतं कलशिकावादकानां ४६, अष्टशतं कलशानामष्टशतं कलशचादकानां ४७, अष्टशतं या वृत्तिः | तालानामष्टशतं तालवादकानां ४८, अष्टशतं कांस्यतालानामष्टशतं कांस्यतालवादकाना ४९, अष्टशत रिंगिसिकानामष्टशतं रिंगिसि
कावादकानां ५०, अष्टशतमङ्गारिकाणामष्टशतमङ्गरिकाबादकानां ५१, अष्टशतं शिशुमारिकाणामयतं शिशुमारिकाबादकानां ५२, | अष्टशतं वंशानामष्टशतं वंशवादकानां ५३ अष्टशत बालीनामष्टशतं बालीवादकानां, वाली-तूणविशेषः, स हि मुखे दत्त्वा वायते ५४, अष्टशतं वेणूनामष्टशतं वणवादकानां ५५, अष्टशतं परिलीनामष्टशतं परिलीवादकानां ५६, अष्टशतं बद्धकानामष्टशतं बद्धकवादकाना, बद्धकस्तूणविशेषः ५७, अव्याख्यातास्तु भेदा लोकतः प्रत्येतव्याः, एवमादीनि बहन्यातोद्यानि आतोयवादकांश्च विकुर्वति, सर्वसत्य
या तु मूलभेदापेक्षयाऽऽतोयभेदा एकोनपश्चाशत् , शेषास्तु भेदा एतेधेवान्तर्भवन्ति, यथा वंशातोद्यविधाने बालीवेणुपरिलीवनगा हाइति । एवमाइयाई एगुणपण्णं आतोज्जविहाणाई विउच्चइ इति, विकुचित्वा च तान् स्वयंविकुर्वितान् देवकुमारान् देवकुमारि
काच शब्दयति, ते च शब्दिता हृष्टतुष्टानन्दितचित्ताः सूर्याभसमीपमागच्छन्ति, आगत्य च करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसाव च मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्धापयित्वा एवमवादिषुः-सन्दिशन्तु देवानां पिया यदस्माभिः कर्त्तव्यं, ततः स सूर्याभो। देवस्तान् बहून देवकुमारान् देवकुमारिकाश्च एवमवादीत् गच्छत यूयं देवानां पियाः श्रमणं भगवन्तं महावीरं विकृत्व आदक्षि
॥५०॥ प्रदक्षिणं कुरुत कृत्वा च वन्दध्वं नमस्यत वन्दित्वा नमस्थित्वा गौतमादीनां श्रमणानां निर्ग्रन्धानां तां देवजनप्रसिद्धां दिव्यां देवदि , दिव्या देवद्युतिं दिव्यं देवानुभावं दिव्यं द्वात्रिंशद्विधं नाटयविधिमुपदर्शयत, उपदर्य चैतामाज्ञप्तिको क्षिप्रमेव प्रत्यर्पयत। 'तए णमि'-al
JAMEmiratinatil
Mandiarary.orm
भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं
~109~
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
----------------------------------- मलं [२०-२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०-२३]
दीप अनुक्रम [२०-२३]
त्यादि, ततस्ते बहवो देवकुमारा देवकुमारिकाश्च सूर्याभेन देवेन एवमुक्ताः सन्तो हृष्टा यावत्लतिशृण्वन्ति, अभ्युपगच्छन्तीत्यर्थः, पतिश्रुत्य च यत्र श्रमणो भगवान्महावीरस्तत्रोपागच्छति उपागत्य च श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिकृत्य आदक्षिणप्रदक्षिणीकुर्वन्ति कत्वा च बन्दन्ते नमस्यन्ति वन्दित्वा नमस्यित्वा च यस्मिन्पदेशे गौतमादयः श्रमणास्तत्र समकालमेव-एककालमेव समवसरन्ति. मिलन्तीत्यर्थः, समवसत्य च समकमेव-एककालमेव अवनमन्ति-अधो नीचा भवन्ति, अवनम्य च समकमेव उन्नमन्ति, ऊर्ध्वमवति
एन्ते इति भावः, तदनन्तरं चैवं कमेण सहित सङ्गन्तं स्तिमितं चावनमनमुन्नमनं च वाच्यम , अमीषां च सहितादीनां भेदः सम्यसाकोशलोपेतनाटयोपाध्यायादेवागन्तव्यः, ततः स्तिमितं समकमुन्नम्य समकमेव प्रसरन्ति, प्रसृत्य च समकमेव यथायोगमातोद्यविधानानि गृह्णन्ति, गृहीत्वा च समकमेव प्रवादितवन्तः समकमेव प्रगीतवन्तः समकमेव प्रनर्तितवन्तः, 'किन्ते' इत्यादि, किश्च ते देवकुमारा देवकुमारिकाब एवं प्रगीता अप्यभवन्निति योगः, कथमित्याह-'उरेण मंद'मिति, सर्वत्र सप्तम्यर्थे तृतीया, उरसि मन्दं यथा भवति एवं प्रगीताः, 'शिरेण तारं कण्ठेन वितार मिति शिरसि कण्ठे च तारं अतिशयेन यथावल्लक्षणोपेतं, किमुक्तं भवति ?-उरसि प्रथमतो गीतमुत्क्षिप्यते उत्क्षेपकाले च गीतं मन्दं भवति, आदिमिउमारभंता' इति वचनात् , अन्यथा गीतगुणक्षतेः, तत उक्तं ' उरसि मन्द'मिति, ततो गायतां मूर्धानमभिन्नन स्वर उच्चस्तरो भवति, स्थानकं च द्वितीयं तृतीयं वा समधिरोहति, ततः शिरसि तारमित्युक्तं, शिरसश्च प्रतिनिवृत्तः सन् स्वरः कण्ठे घुलति घुलंचातिमधुरो भवति ततः कण्ठे वितारमित्युक्तं तिवितिसमयरेयारइयमिति, 'गुंजावककुहरोवगू' गुञ्जनं गुञ्जा गुञ्जापधानानि यानि अबक्राणि-शब्दमार्गाप्रतिकूलानि कुहराणि तेषूपगूढं गुञ्जावकुहरोपगूढं, किमुक्तं भवति ?-तेषां देवकुमाराणां देवकुमारिकाणां च तस्मिन् प्रेक्षागृहमण्डपे गायता गीतं तेषु प्रेक्षागृहमण्डपस
भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं
~110~
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [२०-२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सू० २३
सूत्रांक
[२०-२३]
दीप अनुक्रम [२०-२३]
श्रीराजप्रश्नी तेवन्येषु च कुहरेपु खानुरूपाणि प्रतिशब्दसहस्राण्युत्थापयवर्तते इति, 'रत्तमिति रक्त इह यत् गेयरामानुरक्तेन गीतं गीयते तत् नाट्यविधिः मळयगिरी- रक्तमिति तद्विदा प्रसिद्धं, 'तिट्ठाणकरणसुध्ध मिति त्रीणि स्थानानि-उर:प्रभृतीनि तेषु करणेन क्रियया शुद्धं त्रिस्थानकरणशुद्धं, या वृत्तिः तद्यथा-उर-शुद्धं कण्ठशुद्धं शिरोविशुद्ध च, तत्र यदि उरसि स्वरः स्वभूमिकानुसारेण विशालो भवति तत उरोविशुद्धं स एव ।
यदि कण्ठे वर्तितो भवति अस्फुटितश्च ततः कण्ठविशुद्धं यदि पुनः शिरः प्राप्तः सन् सानुनासिको भवति ततः शिरोविशुद्ध, यदि वा ॥५१॥कायत उरकण्ठशिरोभिः श्लेष्मणा अव्याकुलितैर्विशुद्धगीयते तत उराकण्ठशिरोविशुद्धत्वान्विस्थानकरणविशुद्धं, तथा सकुहरो गुञ्जन
यो वंशो ये च तन्त्रीतलताललयग्रहास्तेषु मुष्ठ-अतिशयेन सम्पयुक्तं सकुहरगुजदंशतन्त्रीतलताललयग्रहसुसम्पयुक्तं, किमुक्तं भवति?-सकहरे वंशे गुञ्जति तन्ध्यां च वाघमानायां यदंशतन्त्रीस्वरेणाविरुदं तत् सकुहरगुजदंशतन्त्रीसुसन्मयुक्तं, तथा परस्परहतहस्ततलस्वरानुवति यत् तत् तलसुसम्पयुक्तं, यत् मुरजकंशिकादीनामातोद्यानामाहतानां यो ध्वनिः पादोत्क्षेपो यच नृत्यता नर्तिकापादोत्लेपस्तेन समं तत् तालसुसम्पयुक्तं, तथा शृङ्गमयो दारुमयो दन्तमयो वा योजुलिकोशिकस्तेनाहतायास्तन्याः स्वरम
कारो लयस्तमनुसरन् गेयलयसुसम्पयुक्तं, तथा यः प्रथमं वंशतन्त्र्यादिभिः स्वरो गृहीतस्तनमार्गानुसारि ग्रहमुसम्मयुक्तं, तथा P'महुर ति मधुरस्वरेण गीयमानं, मधुरं कोकिलारुतवत् , तथा 'सममिति तलवंशस्वरादिसमनुगतं समं 'सललिय'ति यत्स्वर
घोलनाप्रकारेण ललतीव तत् सह ललितेन ललनेन वर्चते इति सललितं, यदि वा इति यत् ओषेन्द्रियस्य शब्दस्पर्शनमतीव सूक्ष्ममुत्पादयति सुकुमारमिव च प्रतिभासते तत्सललितमिति, अत एव मनोहरं, पुनः कथम्भूतमित्याह-'मउरिभितपदसञ्चारं तत्र मृदुर्मुदुना- ॥ ५१॥ स्वरेण युक्तो न निष्टुरेण तथा यत्र स्वरोऽक्षरेषु घोलनास्वरविशेपेषु च सश्चरन् रङ्गवीच प्रतिभासते(स)पदसश्चारो रिमित उच्यते, मृदुरि
NER
I
nsuranorm
भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं
~111~
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
(१३)
--------- ------------------------- मल २०-२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०-२३]
दीप अनुक्रम [२०-२३]
OCTC9DHARMERSERY
भितः पदेषु गेयनिवद्धेषु संचारो यत्र गेये तन्मदुरिभितपदसञ्चारं, तथा 'सुरइ ' इति शोभना रतियस्मिन् श्रोतां ततः सुरति तथा शोभना नतिर्नामोऽवसानो यस्मिन् तत् सुनति तथा वरं प्रधानं चार-विशिष्टचङ्गिमोपेतं रूपं-स्वरूपं यस्य तदरचारुरूपं दिव्यंप्रधानं नृत्तसज गेयं प्रगीता अप्यभवन , 'कि ते' इत्यादि, किश्च ते देवकुमारा देवकुमारिकाध प्रगीतवन्तः प्रतिवन्तश्च 'उद्धयंताणं संखाणमित्यादि, अत्र सर्वत्रापि पठी सप्तम्पर्थे, ततोऽयमों-यथायोगमुयायमानादिषु शादिष, इह शशृङ्गशटिका-10 खरमुहीपेया परिपिरिकाणां वादनमुद्ध्यानमिति प्रसिद्ध, प्रणवपटहानामामोटनं मंभाहोरम्भाणामास्कालनं भेरीझल्लरीदुन्दुभीनां ताडनं मुरजमृदङ्गन्नन्दीमृदङ्गानामालपनं आलिङ्गकुस्तुम्बगोमुखीमदलानामुत्तालनं वीणाविपश्चीवलकीनां मच्छेनं भ्रामरीषड्भ्रामरीपरिवादनीनां स्पन्दनं बवासा (बदीसा) सुघोपानन्दियोषाणां सारणं महतीकच्छपीचित्रवीणानां कुट्टनं आमोदझञ्झानकुलानामामोटनं तुन्वतूणवीणानां स्पर्शनं मुकुन्दहुडकाविचिकीकडवानां मूर्छनं करटाडिडिमकिणिककडवानां वादनं दर्दरददरिकाकुस्तुन्वकलसिकामहुकानापुत्ताडनं तलतालकंसतालानामाताइन रिङ्गिासिकालतिकामकरिकाशिशुमारिकागा घान वंशवेणुवालीपिरलीपिरलीवधगाना फुकनमत उक्तं 'उद्धमंताणं संखाण मित्यादि, 'तए णं से दिवे गीए' इत्यादि, यत एवं प्रगीतवन्त इत्यादि, ततो णमिति पूर्ववत् तदिव्यं गोतं दिव्यं वादितं दिव्यं नृत्तमभवदितियोगः, दिव्यं नाम प्रधान, 'एवमभुए गीए इत्यादि, 'अग्भुए गीए अभुए वाइए अन्भुए नट्टे' अद्भुतं-आश्चर्यकारि 'सिंगारे वाइए सिंगारे नट्टे' सिंगारं-शृङ्गार शृङ्गाररसोपेतत्वात् , अथवा शृङ्गारं नामालङ्कृतमुच्यते, तत्र यदन्यान्यविशेषकरणेनालङ्कृतमिव गीतं वादनं नृनं वा तत् शृङ्गारामिति, 'उराले गीए उराले चाइए उराले न? ' उदारं-स्फारं परिपूर्णगुणोपेतत्वात् , नतु कचिदपि हीनं, 'मणुण्णे गीए मणुणे वाइए मणुने नट्टे' मनोज़-मनोऽनुकूल
REnatandana
भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं
~112~
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
-------------------------------- मल २०-२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक २०-२३]
दीप अनुक्रम [२०-२३]
श्रीराजमश्नीदष्टणां श्रोतृणां च मनोनिवृतिकरमिति भावः, तच्च मनोनितिकरत्वं सामान्यतोऽपि स्यात् अतः प्रकर्षविशेषप्रतिपादनार्थमाह- नाव्यविधिः मलयगिरी- मणहर ' इति, 'मणहरे गीए मणहरे वाइए मणहरे नट्टे' मनो हरति-आत्मवशं नयति तद्विदामप्यतिचमत्कारकारितयेति मनोहरम् , या वृत्तिः पतदेवाह -'उपिन्जलभूते । उपिजलम्-आकुलकं उत्पिञ्जलभूते आकुलके भूते, किमुक्तं भवति ?--महर्दिकदेवानामध्यतिशायितया
मू०२३ परमक्षोभोत्पादकत्वेन सकलदेवासुरमनुजसमूहचिचाक्षेपकारीति, 'कहकहभूते ' इति कहकहेत्यनुकरणं, कहकहति भूत-प्राप्त कह-13 कहभूतं, किमुक्तं भवति?-निरन्तरं तत्तद्विशेषदर्शनतः समुच्छलितप्रमोदभरपरवशसकलदिकचकवालबत्तिप्रेक्षकजनकृतमशसावचनबोलकोलाहलव्याकुलीभूतमिति, अत एव दिव्यं देवरमणमपि देवानामपि रमणं-क्रीडनं प्रवृत्तमभूत् । 'तए ण ते बहवे देवकुमारा य' इत्यादि, ततस्ते बहवो देवकुमारा देवकुमारिकाश्च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य पुरतो गीतमादिश्रमणानां स्वस्तिकश्रीवत्सनन्यावर्त्तवर्द्धमानकभद्रासनकलशमत्स्यदर्पणरूपाणामष्टानां महन्लकानां भक्त्या-विच्छित्त्या चित्रम्-आलेखनमाकाराभिधानं वा यस्मिन् स स्वस्तिकश्रीवत्सनन्द्यावर्त्तवर्द्धमानकभद्रासनकलशमत्स्यदर्पणमङ्गलभक्तिचित्रः, एवं
सर्वत्रापि व्युत्पत्तिमात्रं यथायोगं परिभावनीयं, सम्पग्भावना तु कर्तुं न शक्यते, यतोऽमीषां नाट्यविधीनां सम्यक् स्वरूपप्रतिपादन डीपूर्वान्तर्गते नाट्यविधिप्राभृते, तच्चेदानी व्यवच्छिन्नमिति प्रथमं दिव्यं नाट्यविधिमुपदर्शयति, तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य सममेव समोसरणं करेंति २ ता ते चेव
॥ ५२ ।। भाणिय जाब दिवे देवरमणे पर्वतयावि होत्था, तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य
SainEnatandh
lidunmurary.orm
भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं
~113~
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
(१३)
----------------------------------- मल २४-२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ર૪-ર
दीप अनुक्रम [२४-२५]
समणस्स भगवओ महावीरस्स आवडपञ्चावडसेढिगसेडिसोस्थियसोवस्थिपूसमाणगमच्छंडमगरंडजागमाराफुल्लाबलिप उमपत्नसागरतरंगवसतलतापउमलयभनिचित्रं णाम दिवं णट्टविहिं उबदसति । एवं च एक्वेकियाए णट्टविहीए समोसरणादीया एसा वनवया जाव दिवे देवरमणे पवनेवि यावि होत्था । तए णं ते बहवे देवकुमारा देवकुमारियाओ य समणस्स भगवतो महावीरस्स ईहामिह उसमतुरगनरमगरविहगवालगकिंनररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभनिचित्तं णामं दिवं णढविहि उवदंसंति ३ । एगतो वकं दुहओ वकं [ एगतो खुह दुहओ खुहं ] एगो चक्कवालं दुही चकवालं चक्कद्दचक्कवालं ४ णामं दिवं णट्टविहिं उपदसति चंदावलिपविभनि च वलियावलिपविभानि च हंसायलिपविभत्तिं च सरावलिपविभानिं च एगावलिपविभत्तिं च तारावलिपविभन्निं च मुनावलिपविभनि च कणगावलिपविभत्तिं च रयणावलिपविभनि च णाम दिवं णट्टविहं उपदसति ५ चंदुग्गमणपविभत्रिं सूरुग्गमणपविभतिं च उग्गमणग्गमणपविभन्निं च णामं दिवं णट्टविहं उबदंसेति ६ चंदागमणपविभन्निं च सूरागमणपविभत्तिं च आगमणागमणपविभनि च णामं दिवं गट्टविहं उवदंसंति ७ चंदावरणपविभन्निं च सरावरणपविभत्तिं च णामं दिवं णट्टविहं उबदसति ८ चंदत्यमणपविभन्निं च सूरस्थमणपविभन्निं च अत्थमणऽस्थमणपविभनि नाम दिवं णविहं उपदंसंति ९ चंदमंडलपविभनि च सूरमं
भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं
~114~
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [२४-२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
नाट्यविधिः
श्रीराजमश्नी मलयगिरीया वृत्तिः
म्०२४
प्रत सूत्रांक [२४-२५]
दीप
डलपविभन्निं च नागमंडलपविभत्तिं च जक्खमंडलपविभनिं च भूतमंडलपविभनिं च [रक्वस महोरग. गंधव मंडलपविभनि च ] मंडलपविभन्निं णामं दिवं गट्टविहं उबदसति १० उसमललियवकतं सीहललिययतं हयविलंबियं गयविलंबियं मत्तहयविलसिय मत्तगयविलसियं दुयविलंपियं णाम दिवं णट्टविहिं उवदंसंति ११ सागरपविभनि च नागरपविभत्तिं च सागरनागरपविभनि च णामं दिवं णविह उवदंसंति १२ गंदापविभन्निं च चंपापविभनि च नन्दाचंपापविभत्तिं च णाम दिवं णविह०१३मच्छंडापधिभनिं च मयरंडापविभनि च जारापविभन्निं च मारापविभन्निं च मच्छंडामयरंडाजारामारापविभर्ति च णाम दिवंणविहिं उबदसति १४ कत्तिककारपविभन्निं च सनिखकारपविभतिं च गनिगकारपविभनिं च पत्तिधकारपविभतिं च उत्तिटकारपविभत्तिं च ककारसकारगकारघकारडकारपविभनि च णामं दिवं पट्टविहं उवदंसेति 1५ एवं चकारवग्गोवि १६ टकारवग्गोवि १७ तकारवग्गोवि १८ पकारवग्गोवि १९ असोयपल्लवपविभतिं च अंबपल्लवपविभनि च जंबपल्लवपविभत्तिं च कोसंचपल्लवपविभनिं च पल्लव २ पविभनि च णामं दिवं गट्टविहं उवदंसति २०पउमलयापविभनि च जाव सामलयापविभतिं च लयालयापविभानं च णाम दिवं गट्टविहं उबईसेंति २१ दुयणामं गढविहं उवदंसंति २२ विलंबियं णामं पट्टविहि २३ दुरविलंबियं णाम णट्टविहि २४ अंचियं २५ रिभियं २६ अंचियरि
अनुक्रम [२४-२५]]
॥ ५३॥
भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं
~115~
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [२४-२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२४-२५]
भियं २७ आरभई २८ भसोलं २९ आरभडभसोलं ३० उप्पयनिवयपवर्त संकुचियं पसारियं रया (खेय)रदयभंतसंभंतणामं दिवं णट्टविहिं उपदंसेति । तए णं ते पहवे देवकुमारा य देवकुमारीयाओ य समामेव समोसरणं करति जाप दिल्वे देवरमणे पवने यावि होत्था तए णं ते बहवे देवकुमारा थ देवकुमारीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स बभवच रियणिबद्धं च (देवलायचरियनिबद्धं च) चवणचरियणिपद्धं च संहरणचरियनिवद्धं च जम्मणचरियनिबद्धं च अभिसे अचरियनिबद्धं च पालभाबचरिशनिबद्ध स जोवणचरियनिबद्धं च कामभोगचरियनिबद्धं च निक्षमणचरियनिवद्धं च तवचरणचरियनिषद्धं च (णाणुप्पारचरियनिवद्धं च )तित्थपरत्तणचरियनिष्परिनिवाणचरियनिवद्धं च चरिमचरियनिवद्धं च णामं दिवं णट्टविहि उवदंसेंति ३२॥ तए णं ते यहं देवकुमारा व देवकुमारीयायो य चउविहं वाइनं वापंति, तंजहा-ततं विततं घणं युमिरं, तए ण ते वहये देवकुमारा य देवकुमारीओ य चउविहं गयं गायंति, तंजहा-उक्खिनं पायन भंदाय रोइयावसाणं च । 'तए ण ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारियाओ य चउविहं णट्टविहिं उपदंसन्ति, तंजहाअंचियं रिभिर आरभई भसोलं च, तए णं ते बहो देवकुमारा य देवकुमारियाओ य चउबिह अभिणयं अपिणति, जहा-दिटुंतियं पाडितियं सामन्तीवणिवाश्यं अंतामझावसाणियं, नए णं ते
दीप
अनुक्रम [२४-२५]
JMEarathiEAR.
भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं
~116~
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [२४-२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजमश्नी मलयगिरीया वृत्तिः
नाट्योपसंहार स्वस्थानगतिश्च
प्रत सूत्रांक [२४-२५]
॥ ५४॥
म०२५
दीप
बहव देवकुमारा य देवकुमारियाओ य गोयमादियाणं समणाणं निग्गंथाणं दिवं देविहि दिवं देवजुर्ति दिवं देवाणुभागं दिवं पत्नीसहबद्धं नाडयं उबदसित्ता समणं भगवं महावीरं तिसुत्तो आयाहिणपयाहणं करेइ २ ना वंदति नमसति वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव सूरियामे देवे तेणेव उवागच्छन्ति तेणेव उबागच्छिता सरियाभं देवं करयलपरिग्गहियं सिरसावनं मत्थए अंजलिं कट्ट जएणं विजएणं बद्धावति २ ना एवमाणनियं पञ्चप्पिणति (स.२४) तए णं से सूरिया देवे तं दिवं देविहिं दिवं देव जुई दिवं देवाणुभावं पडिसाहरद पडिसाहरेता सणेणं जाते एगे एगभए तए णं से सरियाभे देव समणं भगवं महावीर तिक्खुनी आयाहिणपयाहिणं करेइ बंदति णमंसति वंदिता णमसिना निगपरिवालसद्धिं संपरिबुडे तमेव दिवं जाणविमाणं दुरूहति दुरूहिना जामेय दिसिं पाउदभूया तामेव दिसि पडिगया ॥ (सू.२५)
ततो द्वितीयं नाट्यविधिमुपदर्शयितुकामा भूयोऽपि पागुरुप्रकारेण समकं समवसरणादिकं कुर्वन्ति, तथा चाह-'तए णं ते वहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य समकमेव समोसरणं करोति' इत्यादि पागुक्तं तदेव तायद्वक्तव्यं यावत् 'दिवे देवरमणे पबत्ते याचि होत्था' इति । 'तए णमित्यादि, ततस्ते बहवो देवकुमारा देवकुमारिकाच श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य पुरतो गौतमादीनां श्रमणानां आवर्तमत्यावर्तश्रेणिप्रश्रेणिस्वस्तिकपुष्पमाणवकवर्द्धमानकमत्स्याण्डकमकराण्डकजारमारपुष्पावलिपनपत्रसागरतरवासन्तीलतापद्मलतापक्तिचित्रं नाम द्वितीयं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति । तदनन्तरं तृतीयं नाट्यविधिमुपदर्शयितुं भूयस्तथैव समवसरणादिकं
अनुक्रम [२४-२५]
॥ ५४॥
JASTI
aauraryorg
भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं
~117~
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [२४-२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२४-२५]
दीप
कुर्वन्ति, एवं समवसरणादिकरणविधिरेकैकस्मिन्नाव्यविधी प्रत्येक २ तावद्वक्तव्यो यावद्देवरमणे पवत्ते यावि होत्था इति तत ईहामृगऋपभतुरगनरमकरविहगल्यालकिन्नररुरुसरभचमरकुञ्जरवनलतापमलताभक्तिचित्रं नाम तृतीय दिव्यं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति ३.2 तदनन्तरं भूयोऽपि समवसरणादिविधिकरणानन्तरमेकतो चर्क-एकतश्चक्रवालं द्विधातश्चक्रवालं चकार्द्ध चकवाल नाम चतुर्थ दिव्यं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति ४, तदनन्तरमुक्तविधिपुरस्सरं चन्द्रावलिपविभक्ति मूर्यावलिपविभक्ति वलयावलिपविभक्ति हंसावलिपविभाक्ति एकावलिपविभक्ति ताराबलिपविभाक्ति मुक्तावलिपविभक्ति कनकाचलिपविभक्ति रत्नावलिपविभक्त्यभिनयात्मकमावलिपविभक्ति नाम पञ्चमं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति ५ तदनन्तरमुक्तक्रमेण चन्द्रोद्मप्रविभक्तिसूर्योगमप्रविभक्तियुक्तमुद्गमनोद्गमनपविभक्तिं नाम पठं नाटयविधिमुपदर्शयन्ति ६ तत उक्तप्रकारेण चन्द्रागमनपविभक्तिसूर्यागमनपविभक्तियुक्तमागमनपविभक्तिनाम सप्तमं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति ७, तदनन्तरमुक्तक्रमेण चन्द्रावरणप्रविभक्तिमूर्यावरण विभक्तियुक्तमावरणावरणाविभक्तिनामकमष्टमं नाट्यविधि ८ तत उक्तक्रमणैव चन्द्रास्तमयनपविभक्तिसूर्यास्तमयनपविभक्तियुक्तमस्तमयनपविभक्तिनामकं नवमं नाटयविधि ९ तत उक्तमकारेण चन्द्रमण्डलपविभक्तिमूर्यमण्डलपविभक्तिनागमण्डलपविभक्तियक्षमण्डलपविभक्तिभूतमण्डलपविभक्तियुक्तं मण्डलपविभक्तिनामक दशमं दिव्यं । नाट्यविधि १० तदनन्तरं उक्तकमेण ऋषभमण्डलपविभक्तिसिंहमण्डलपविभक्तिहयविलम्बितमजविलम्बितहपविलसितगजविलसित
मत्तहयविलसितमत्तगजविलसितमत्तहयविलंबितमत्तगजबिलांवितं विलंबिताभिनयं द्रुतविलम्वितं नाम एकादशं नाट्यविधि ११ तदनॐान्तरं सागरमविभक्तिनागरपविभक्तिअभिनयात्मकं सागरनागरपविभक्तिनाम द्वादर्श नाट्यविधि १२ ततो नन्दापविभक्तिचम्पापवि
भक्तचात्मकं नन्दाचम्पापविभक्तिनाम त्रयोदशं नाट्यविधि १३ ततो मत्स्याण्डकमविभक्तिमकराण्डकमविभक्तिजारमविभक्तिमारप
अनुक्रम [२४-२५]
SAREairatna
भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं
~118~
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
----------------------------------- मल २४-२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२४-२५]
RRC
दीप
श्रीराजमश्नी विभक्तियुक्तं मत्स्याण्डकमकराण्डकजारमारपविभक्तिनाम चतुर्दशं नाट्यविधि १४ तदनन्तरं कमेण क इति) ककारपविभक्तिः, ख सूर्याभकर्त मलयगिरी- इति खकारप्रवि० ग इति गकारमय इति घकारण ङ इति उकारप्रविभक्तिरित्येवं क्रमभाविककारादिपविभक्तिअभिनयात्मक द्वात्रिंशद्विषं या दृचिःककारखकारगकारचकारडकारपविभक्तिनामक पञ्चदशं दिव्यं नाट्यविधि १५ एवं चकारछकारजकारझकारअकारमविभक्तिनामकं का नृत्यं ॥ ५५॥
पोडशं दिव्यं नाटयविधि १६ टकारठकारडकारढकारणकारपविभक्तिनामकं सप्तदशं दिव्यं नाट्यावधि १७ तकारथकारदकारधकारनकारप्रविभक्तिनामक अष्टादर्श नाट्यविधि १८ पकारफकारबकारभकारमकारपविभक्तिनामकमेकोनविंशतितमं दिव्यं नाट्यविधि | ०१५ १९ततोऽशोकपल्लवप्रविभक्त्याम्रपल्लवप्रविभक्तिजम्बूपल्लवप्रविभक्तिकोशम्बपल्लवप्रविभक्त्यभिनयात्मक पल्लुचपविभक्तिनामकं विंशतितम दिव्यं नाट्यविधि २० तदनन्तरं पद्मलतापविभक्तिनागलतापविभक्तिअशोकलताप्रविभक्तिचम्पकलतापविभक्तिचूतलतापविभक्तिबनलतापविभक्तिवासन्तीलतापविभक्तिकुन्दलतापविभक्तिअतिमुक्तकलतापावभक्तिश्यामलतापविभक्तिअभिनयात्मकं लतापविभक्तिनामकमेकविंशतितमं दिव्यं नाट्यविधि २१ तदनन्तरं तं नाम द्वाविंशतितमं नाट्यविधि २२ ततो विलम्बितं नाम त्रयोविंशतितम २३ द्रुतविलम्वितं नाम चतुर्विंशतितम २४ अश्चितं नाम पञ्चविंशतितमं २५ रिभितं नाम पड्रिंशतितमं २६ अश्चितरिभितनाम सप्तविंशतितमं २७ आरभट नाम अष्टाविंशतितम २८ भसोलं नाम एकोनत्रिंशति(त)म २९ आरभदभसोलं नाम त्रिंशत्तम ३010 तदनन्तरमुत्पातनिपातप्रसक्तं सहुचितप्रसारितरेवकरचितं भ्रान्तसम्भ्रान्त नाम एकत्रिंशत्तमं दिव्यं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति ३१ तदनन्तरं च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य चरमपूर्वमनुष्यभवचरमच्यवनचरमगर्भसंहरणचरमभरतक्षेत्रावसर्पिणीतीर्थकरजन्माभिषेक- ॥ ५५॥ चरमबालभावचरमयौवनचरमकामभोगचरमनिष्क्रमणचरमतपश्चरणचरमज्ञानोत्पादचरमतीर्थप्रवर्त्तनचरमपरिनिर्वाणनिवदं चरमनिबद्धं
अनुक्रम [२४-२५]]
GEO
SAMEmirathind
भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं
~119~
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
- - मूलं ----------------------------------------------------------------------------------- मूलं [-]
आगम (१३)
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२४-२५]
नाम द्वात्रिंशत्तमं दिव्यं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति ३२ । तदनन्तरं वहवो देवकुमारा देवकुमारिकाश्च नाट्यविधिपरिसमाप्तिमङ्गलभूतं । चतुर्विध वादित्रं वादयन्ति, तद्यथा-वतं-मृदङ्गपटहादि वितत-चीणादि घन-कंसिकादि सुधिर-शकाहलादि, तदनन्तरं चतुर्विध गीतं गायन्ति, तद्यथा-उक्षिप्तं प्रथमतः समारभ्यमाणं पादान्तं पादवृद्ध वृद्धादिचतुर्भागरूपपादबद्धमितिभावः, 'मन्दाय ' मिति मध्यभागे मूर्छनादिगुणोपेततया मन्दं मन्दं घोलनात्मक रोचितावसानमिति-रोचितं यथोक्तलक्षणोपेततया भावितं सत्यापितामितियावत् अवसानं यस्य तद्रोचितावसानं । 'तए णामित्यादि, ततश्चतुर्विधं नर्तनविधिमुपदर्शयन्ति, तद्यथा-'अश्चित'मित्यादि, 'तए ।
'मित्यादि, ततचतुर्विधमाभिनयमाभनयन्ति, तथथा-दान्तिकं प्रात्यन्तिक सामान्यतो विनिपात लोकमध्यावसानिकमिति, एते ननविषयोऽभिनय विषयश्च नाटयकुशलेभ्यो वेदितव्याः 'तए णं ते बहने देवकुमारा देवकुमारीओ' इत्यादि उपसंहारसूत्रं सुगम, नवरं 'एगभूए' इति एकभूतः अनेकीभूयैकत्वं प्राप्त इत्यर्थः, 'नियगपरियाल सद्धिं संपरिबुडे । इति, निजकपरिवारेण सार्दै परिवृतः।
भंतेति भयवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति २ एवं पयासी-मूरियाभस्म णं भंते ! देवस्स एसा दिवा देविड़ी दिवा देवजुत्ती दिवे देवाणुभावे कहिं गते कहिं अणुपविट्ठे ?, गो. ! सरीरं गते सरीरं अणुपविट्ठ, से केण?णं भंते ! एवं बुच्चइ ?-सरीरं गते सरीरं अणुपविट्ठे ?, गो० से जहानामए कूडागारसाला सिया दुहतो लिला दुहतो गुत्ता गुत्तदुवारा णिवाया णिवायगंभीरा,तीसे णं कूडागारसालाते अदूरसामंते
दीप
अनुक्रम [२४-२५]]
Saintairatani
भगवत् महावीरस्य संमुख: सूर्याभदेव-कृत् नाट्यविधि-दर्शनं
~120
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
कटाकारशा:
प्रत
सत्राक
॥५६॥
[२६]
दीप अनुक्रम
श्रीराजप्रश्नी इत्थ णं महंगे जणसमूहे चिट्ठति, तए णं से जणसमूह एगं महं अभवद्दलगं वा यासवहलगं वा महामलयगिरी
पायं वा इजमाणं पासति २ ता तं कूडागारसालं अंतो अणुपपिसिना णं चिट्ठइ, से तेण?णं गो- सलादृष्टान्तः या वृत्तिः पमा! एवं बुच्चति-सरीरं अणुपवितु (सू. २६)
क्रियसंह
रणे भदन्तेत्यामन्त्रणपुरस्सरं भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा 'एवं ' वक्ष्यमाणप्रकारेणावादीत , पुस्तकान्तरे विदं वाचनान्तरं दृश्यते, 'तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवी महावीरस्स जिते अंते- ०२६ वासी' इत्यादि, अस्य व्याख्या तस्मिन् काले तस्मिन् समये अंशब्दो वाक्यालङ्काराय:, श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'ज्येष्ठ इति प्रथमोऽन्तेवासी-शिष्यः, अनेन पदद्वयेन तस्य सकलसङ्घाधिपतित्वमावेदयति, इन्द्रभूतिरिति मातापितृकृतं नामधेयं नामेतिप्राकृ-. तत्वात विभक्तिपरिणामेन नाम्नति द्रष्टव्यं, एवमन्यत्रापि यथायोगं भावनीयम्, अन्तेवासी च किल विवक्षायां श्रावकोऽपि स्यादतस्तदाशङ्काव्यवच्छेदार्थमाह-'अनगारः न विद्यते अगारं-गृहमस्येत्यनगारः, अयं च विगीतगोत्रोऽपि सम्भाव्येतात आह-गौतमो गोत्रेण गौतमायगोत्रसमन्वित इत्यर्थः, अयं च तत्कालोचितदेहपरिमाणापेक्षया न्यूनाधिकदेहोऽपि स्पादत आह-सप्तोत्सेधः-सप्तहस्तप्रमाणशरीरोच्छायः, अयं चेत्थम्भूतो लक्षणहीनोऽपि शङ्कन्धेतातस्तदाशङ्कापनोदार्थमाह-'समचउरंससंठाणसंदिए' इति, समाः-शरीर
लक्षणशास्त्रोक्तप्रमाणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽसयो यस्य तत् समचतुरस्र अस्त्रयस्त्विह चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा द्रष्टच्याः, अन्ये ।। ५६ ।। कात्याहुः-समा-अन्यूनाधिकाश्चतस्रोऽप्यस्रयो यत्र तत् समचतुरखं तञ्च तत् संस्थानं च, संस्थानम्-आकारः तच, वामदक्षिणजान्यो
[२६]
Santairatna
unmurary.au
| गौतमस्वामिन: वर्णन
~121
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सत्रांक
[२६]
दीप अनुक्रम
रन्तरं आसनस्य ललाटोपरिभागस्य चान्तरं वामस्कन्धस्य दक्षिणजानुनश्चान्तरामति, अपरे वाहुः-विस्तारोत्सेधयोः समत्वात समचतुरस्रं तच तत्संस्थानं च २, संस्थानम्-आकारस्तेन संस्थितो-व्यवस्थितो यः स तथा 'जाव उठाए उद्देइ' इति यावत्करणात वजरिसहसंघयणे कणगपुलगनिघसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतबस्सी घोरवंभचेर-1 वासी उच्छ्नसरीरे संवित्तविपुलतेयलेसे चउदसपुची चउनाणोवगए सवक्खरसन्निवाई समणस्स भगवती महावीरस्स अदरसामन्ते उजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, तए णं से भगवं गोयमे जायसड़े जायसंसए जायकोउहल्ले जपन्नसड़े उपनसंसए उत्पन्नकोउहले संजायसढे संजायसंसए संजायकोउहल्ले समुप्पण्णसड़े समुप्पण्णसंसए समुप्पष्णकोउहाले । उडाए उडेइ ' इति द्रष्टव्यं, तत्र नाराचमुभयतो मर्कटयन्धः ऋषभस्तदुपरि वेष्टनपट्टः कालिका अस्थित्रयस्यापि भेदकमस्थि एवंरूपं संहननं यस्य स तथा, तथा कनकस्य-सुवर्णस्य यः पुलको-लवस्तस्य यो निकपः कपपके रेखारूपस्तथा पद्मग्रहणेन पद्मकसराण्युच्यन्ते अवयवे समुदायोपचारात् यथा देवदत्तस्य हस्ताग्ररूपोऽवयवोऽपि देवदत्तः, तथा च देवदत्तस्य हस्ताग्रं स्पृष्टा लोको वदति-स्पृष्टो मया देवदत्त इति, कनकपुलकनिकपवत् पद्मवच्च यो गौरः स कनकपुलकनिकषपनगौरः, अथवा कनकस्य यः पुलको-वत्वे सति बिन्दुस्तस्य निकषो वर्णतः सदृशः कनकपुलकनिकषः, तथा पद्मवत्-पअकेसरवत् यो गौरः स पद्मगौरः, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयसमासः, अयं च विशिष्टचरणरहितोऽपि शङ्कयेत तत आह-'उग्गतवे' इति, उग्रम्-अधृष्यं तपः-अनशनादि यस्य स तथा, यदन्येन प्राकृतेन पुंसा न शक्यते चिन्तयितुमपि मनसा तद्विधेन तपसा युक्त इत्यर्थः, तथा दी जाज्वल्यमानदहन इव कर्मवनगहनदहनसमर्थतया ज्वलितं तपो-धर्मध्यानादि यस्य स तथा, 'तत्ततवे' इति तप्तं तपो येन स तप्ततपाः, एवं
(२६)
960
SAREatini
I
murary on
| गौतमस्वामिन: वर्णनं
~122~
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सत्रांक
[२६]
दीप अनुक्रम
श्रीराजप्रश्नी हि तेन तपस्तप्तं येन सर्वाण्यपि अशुभानि कर्माणि भस्मसात् कृतानीति 'महातवे ' इति महान्-प्रशस्तमाशंसादोषरहितत्वात् तपो भगवद्गीतममलयगिरी- यस्य स महातपाः, तथा 'उराले' इति, उदार:-प्रधानः अथवा उरालो-भीष्मः उप्रादिविशिष्टतपःकरणतः पार्थस्थानामल्पसत्त्वा- वर्णनं
नामतिभयानक इति भावः, तथा घोरो-निपुणः परीपहेन्द्रियादिरिपुगणविनाशनमधिकृत्य निर्दय इतियावत् , तथा घोरा अन्यैर्दुरनु | 25 चरा गुणा मूलगुणादयो यस्य स घोरगुणः, तथा घोरैस्तपोभिस्तपस्वी घोरतपस्वी, 'घोरबंभचेरखासी' इति घोरं-दारुणमल्प- मू०२६ सत्त्वदुरनुचरत्वात् ब्रह्मचर्यं यत् तत्र वस्तुं शीलं यस्य स तया, 'उच्छुड़सरीरे' इति उच्छूढम् उज्नितमिवोज्नितं संस्कारपरित्यागात् शरीरं येन स उच्छ्वशरीरः, 'संखित्तविउलतेउलेसे' इति सङ्क्षिमा-शरीरान्तर्गतत्वेन -हस्वतां गता विपुला-विस्तीर्णा अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्थत्वात् तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तेजोज्वाला यस्य स तथा, 'चउदसपुत्री' इति चतुर्दश पूर्वाणि विद्यन्ते यस्य तेनैव तेषां रचितत्वात् असौ चतुर्दशपूर्वी, अनेन तस्य श्रुतकेवलितामाह, स चावपिज्ञानादिविकलोपि स्यादत आह-'चउनाणोवगए। मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानचतुष्टयसमन्वितः, उक्तविशेषणद्वययुक्तोऽपि कश्चिन्न समग्रश्रुतविषयव्यापिज्ञानो भवति चतुर्दशपूर्वविदामपि षट्स्थानपतितत्वेन श्रवणादत आह-'सर्वाक्षरसन्निपाती' अक्षराणां सन्निपाताः-संयोगाः अक्षरसन्निपाताः सर्वे च ते अक्षरसन्निपाताश्च सर्वाक्षरसन्निपातास्ते यस्य ज्ञेयाः स तथा, किमुक्तं भवति ?-या। काचित् जगति पदानुपूर्वी वाक्यानुपूर्वी वा संभवति ताः सर्वा अपि जानातीति, एवंगुणविशिष्ठो भगवान् विनयराशिरिष साक्षा
दितिकृत्वा शिप्याचारत्वाच्च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यादूरसामन्ते विहरतीति योगः, तत्र दूरं-विप्रकृष्टं सामन्तं-सन्निकृष्ट तत्प्र- ॥ ५७॥ हतिषेधाददूरसामन्तं ततो नातिदूरे नातिनिकटे इत्यर्थः, किंविशिष्टः सन् तत्र विहरतीत्यत आह-' उर्दुजाण अहोसिरे ऊर्ध्व
[२६]
| गौतमस्वामिन: वर्णनं
~123~
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
-------------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सत्रांक
[२६]
जानुनी यस्यासावू जानुः, अधःशिरा नोर्दै तिर्यग्वा विक्षिप्तदृष्टिः किन्तु नियतभूभागनियमितदृष्टिरित्यर्थः, 'झाणकोदोवगए इति ध्यान-धर्मध्यानं शुक्लध्यानं च तदेव कोष्ठः-कुशूलो ध्यानकोष्ठस्तमुपगतो ध्यानकोष्ठोपगतो, यथा हि कोष्टके धान्य प्रक्षिप्तमविप्रसृतं भवति एवं भगवानपि ध्यानतोऽविपकीर्णेन्द्रियान्तःकरणवृत्चिरित्यर्थः, 'संयमेन' पञ्चाश्रवनिरोधादिलक्षणेन तपसाअनशनादिना चशब्दोऽत्र समुच्चयार्थों लुमो द्रष्टच्या, संयमतपोग्रहणमनयोः प्रधानमोक्षाङ्गताख्यापनार्थं, प्राधान्यं संयमस्य नवकर्मा-12 नुपादानहेतुत्वेन तपसश्च पुराणकर्मनिर्जराहेतुत्वेन, तथाहि- अभिनवकर्मानुपादानात् पुराणकर्मक्षपणाच जायते सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्षस्ततो भवति संयमतपसोर्मोक्षं प्रति प्राधान्यमिति 'अप्पाणं भावमाणे विहरति । इति, आत्मानं वासयन् तिष्ठति । 'तए ण' मित्यादि, ततो ध्यानकोष्ठोपगतविहरणादनन्तरं 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे स भगवान् गौतमो 'जातसड़े। इत्यादि, जात-- श्रद्धादिविशेषणविशिष्टः सन् उत्तिष्ठतीति योगः, तत्र जाता-प्रवृत्ता श्रद्धा-इच्छा वक्ष्यमाणार्थतत्वावगर्म प्रति यस्यासी जातश्रद्धःतथा जातः संशयो यस्य स जातसंशयः, संशयो नाम अनवधारितार्थं ज्ञानं, स चैव-इत्थं नामास्य दिव्या देवद्धिविस्तृता अभवत् । इदानी सा क गतेति, तथा 'जायकुतूहले ' इति जातं कुतूहलं यस्य स जातकुतूहल:, जातौत्सुक्य इत्यर्थः, तथा कथममुमर्थ भग
वान् प्ररूपयिष्यति इति, तथा 'उप्पन्नसड़े। उत्पन्ना पागभूता सती भूता श्रद्धा यस्यासी उत्पन्नश्रद्धः, अब जातश्रद्ध इत्येतदेवास्तु हाकिमर्थमुत्पन्नश्रद्ध इति, प्रवृत्तश्रद्धवेनवोत्पन्नश्रद्धत्वस्य लब्धत्वात् , न हि अनुत्पन्ना श्रद्धा प्रवर्तते इति, अत्रोच्यते, हेतुत्वप्रदर्शनार्थ,
तथाहि-कथं पत्नश्रद्धः १, उच्यते, यत उत्पन्नश्रद्धः, इति हेतुत्वदर्शनं चोपपन्न, तस्य काव्यालङ्कगरत्वात् यथा 'प्रवृत्तदीपामप्रवृत्तभास्करां, प्रकाशचन्द्रां बुबुधे विभावरी'मित्यत्र, अत्र हि यद्यपि प्रत्तदीपादित्वादेवाप्रवृत्तभास्करत्वमुपगतं तथाप्यपत्तभास्करत्वं
दीप अनुक्रम
(२६)
Saintaintinue
LEJanuary
| गौतमस्वामिन: वर्णनं
~124~
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
---------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
[२६]
दीप अनुक्रम
श्रीराजप्रश्नी प्रवृत्तदीपत्वादेहेतुतयोपन्यस्तमिति सम्यक्, 'उप्पन्नसड़े उप्पन्नसंसये ' इति प्राग्वत् , तथा 'संजायसट्टे' इत्यादि पदषट्कं प्राग्वत् , भगवद्गीतममलयगिरी-कानवरमिह संशब्दः प्रकर्षादिवचनो वेदितव्यः, 'उद्याए उट्टेइ 'त्ति उत्थानमुत्था-उर्द्ध वर्त्तनं तया उत्तिष्ठति, इह 'उडेइ । इत्युक्ते वर्णन या वृत्तिः क्रियारम्भमात्रमपि प्रतीयेत यथा बक्तमुत्तिष्ठते ततस्तद्वयवच्छेदार्थमुत्थायेत्युक्तं उत्थया उत्थाय जेणेवेत्यादि यस्मिन् दिग्भागे
श्रमणो भगवान् महावीरो वर्तते 'तेणेवेति तस्मिन्नेव दिग्भागे उपागच्छति, उपागत्य च श्रमणं प्रिकृत्व: त्रिवारान् आदक्षिण- ०२५ प्रदक्षिणीकरोति, आदक्षिणप्रदक्षिणीकृत्य च वन्दते नमस्यति बन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत् । 'मरियाभस्स णं भंते! ' इत्यादि,
कहिंगए। इति क गतः ?, तत्र गमनमन्तरप्रवेशाभावेऽपि दृष्टं यथा भित्तौ गतो धृलिरिति, एषोऽपि दिव्यानुभावो यद्येवं कचित्मत्यासन्ने प्रदेशे गतः स्याचतो दृश्येत न चासो दृश्यते, ततो भूयः पृच्छति-'कहिं अणुपविढे । इति कानुपविष्टः ? कान्तलीन इति |भावः । भगवानाह-गौतम ! शरीरं गतः शरीरमनुपविष्टः पुनः पृच्छति-'सेकेणडेण ' मित्यादि, अथ फेनार्थेन-केन हेतुना भदन्त ! एवमुच्यते-शरीरं गतः शरीरमनुपविष्टः?, भगवानाह-गौतम ! 'से जहानामए ' इत्यादि, कूटस्येव-पर्वतशिखरस्येवाकारो यस्याः सा कूटाकारा, यस्या उपरि आच्छादनं शिखराकारं सा कुटाकारेति भावः, कुटाकारा चासौ शाला च कूटाकारशाला, यदिवा कटाकारेण शिखराकृत्योपलक्षिता शाला कुटाकारशाला स्यात, 'दुहतो लित्ता' इति वहिरन्तब गोमयादिना लिप्ता गुप्ता-बहिम्प्राकारा-1 ता गुप्तद्वारा द्वारस्थगनात् यदिवा गुप्ता गुप्तद्वारा केषाञ्चित् द्वाराणां स्थगितत्वात केपाश्चिचास्थगितत्वादिति निवाता-बायोरपवे-ar शात किल महद गृहं निवात पायो न भवति तत आह-निवातगम्भीरा-निवाता सती गम्भीरा निवातगम्भीरा, निदाता सती विशाला ।। ५८ ।। इत्यर्थः , ततस्तस्याः कूटाकारशालाया अदूरसामन्ते-नातिदूरे निकटे वा प्रदेशे महान् एकोऽन्यतरो जनसमूहस्तिष्टति, स च एक
(२६)
d
ontionary.com
गौतमस्वामिन: वर्णनं
~125
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
---------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सत्रांक
[२६]
का महत् अभ्ररूपं वाईल अभ्रवाईलं, धाराभिपातरहित सम्भाव्यवर्ष बादलमित्यर्थः, वर्षप्रधानं वादलकं वर्षवादलकं वर्ष कुर्वन्तं बादलकर
महापात वा एजमाण' मिति आयान्त-आगच्छन्तं पश्यति, दृष्ट्वा च तं 'कूडागारसालं' द्वितीया षष्ठ्यर्थे तस्याः कुटाकारशालाया अन्तरं ततोऽनुप्रविश्य तिष्ठति, एवं मूर्याभस्यापि देवस्य सा तथा विशाला दिव्या देवधिदिव्या देवद्युतिदिव्यो देवानुभावः शरीरमनुप्रविष्टः 'से-एणद्वेण पित्यादि, अनेन प्रकारेण गौतम ! एवमुच्यते--' मूरियाभस्से ' त्यादि, भूयो गौतमः पृच्छति
कहिं णं भंते ! सरियाभस्स देवस्स सरियाभे णामं विमाणे पन्नने ?, गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पवयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजातो भूमिभागातो उडुं चंदिममरियगहगणणक्खनतारारुवाणं बहूई जायणाई बहूई जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साई बहूई जोयणसयसहस्साई बहुईओ जोयणकोडीओ बहुईओ जोयणसयसहस्सकोडीओ उड़ दूरं बीतीवइत्ता एस्थ णं सोहम्मे कप्पे नाम कप्पे पन्नने पाईणपडीण आयते उदीणदाहिणविच्छिष्णे अद्धचंदसंठाणसंठिते अच्चिमालिभासरासिवपणाभे असंखे जाओ जायणकोडाकोडीओ आयामविकखंभेणं असंखे जाओ जोयणकोडाकोडीओ परि
खेवेणं इत्थ णं सोहम्माणं देवाणं बनीसं विमाणावाससयसहरसाई भवतीति मक्खायं, ते णं विमाणा सवरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा, तसिणं विमाणाणं बहुमज्झदेसभाए पंच वडिंसया पं० तंजहा१ असोगवडिंसते २ सत्तवनबाडिंसते ३ चंपकवडिंसते ४ चूयगवडिंसते ५ माझे सोहम्मवडिसए, ते णं
दीप अनुक्रम
%tagrPE-34
(२६)
109009040NOR
CONC
SANEnirahini
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~126~
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
मूर्याभवि
श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी या वृत्तिः
मानवर्णनं
प्रत
०२७
सत्राक
[२७]
दीप अनुक्रम
वडिंसगा सवरयणामया अच्छा जाव पडिरुवा, तस्स णं सोहम्मवळिसगस्स महाविमाणस्स पुरच्छिमेणं तिरियमसंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई वीईवइना एत्थ णं सूरियाभस्स देवस्म सूरिया नाम विमाण पन्नने, अद्धतेरस जोयणसयसहस्साई आयामविकखंभेणं गुणयालीसं च सयसहस्साई बावनं च सहस्साई अद्ध य अडयाले जोयणसते परिक्खेवेणं, से णं एगणं पागारेणं सबओ समंता संपरिखिते, से णं पागारे तिनि जोयणसयाई उई उच्चत्तेणं मूले एग जोयणसयं विक्खंभेणं मझे पन्नासं जोयणाई विकखंभेणं उप्पिं पणवीसं जायणाई विकूखंभेणं मृले विच्छिन्ने मज्झे संखिने उप्पिं तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सबकणगामए अच्छे जाव पडिरूवे, सेणं पागारे णाणा माण] विहपंचवन्नेहिं कविसीसाहि उवसोभिते, तंजहा-किण्हेहि नीलहिँ लोहितेहिं हालिद्देहिं सुकिल्लेहिं कविसीसएहि, ते णं कविसीसगा एगं जोयणं आयामेणं अद्धजोयणं विखंभेणं देसूणं जोयणं उई उच्चत्तेणं सबमणि(रयणा)मया अच्छा जाव पडिरूवा, सरियाभस्स णं विमाणस्स एगमेगाए बाहाए दारसहस्सं २ भवतीति मक्खायं, ते णं दारा पंचजोयणसयाई उई उच्चत्तेणं अड्राइजाई जोयणसयाई विक्रखंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेया वरकणगथूमियागा ईहामियउसमतुरगणरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभनिचित्ता खंभुग्गयवरवयरवेइया परिगयाभिरामा विजाहरजमलजुयलजंतजुनंपिव अच्चीसहस्समा
[२७]
SanEauratonRNA
S
unmarary.org
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~127~
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
[२७]
लिणीया रूवगसहस्सकलिया भिसमाणा भिभिसमाणा चल्लोयणलेसा सुहफासा ससिरीयरूवा यन्नो दाराणं तेसिं होइ, तंजहा-बहरामया णिम्मा रिट्ठामया पइट्ठाणा बेरुलियमया सूइखंभा जायरूचीबचियपवरपंचवन्नमणिरयणकोट्टिमतला हंसगम्भमया एलया गोमेजमया इंदकीला लोहियकखमतीतो दारचेडीओ जोईरसमया उत्तरंगा लोहियकखमईओ सूईओ वयरामया संधी नाणामणिमया समुग्गया वयरामया अम्गला अग्गलपासाया रययामयाओ आवत्नणपेढियाओ अंकुत्तरपासगा निरंतरियषणकवाडा भिनीस चेव भिनिगुलिता छप्पन्ना तिणि होति गोमाणसिया तइया जाणामणिरयणवालरुवगलीलट्ठिअसालभंजियागा बयरामया कुड्डा रययामया उस्सेहा सवतवणिज्जभया उल्लोया णाणामणिरयणजालपंजरमणिवंसगलोहियक्खपडिवंसगरययभोमा अंकामया पक्खा पक्खबाहाओ जोइरसामया वंसा वंसकवेडयाओ रयणामयाओ पट्टियाओ जायरूवमईओ ओहाडणीओ वइरामईओ उवरिपुच्छणाओ सबसेयरययामयाच्छायणे अंकामया कणगडतवणिजथूभियागा सेया संखतलविमलनिम्मलदधिषणगोखीरफेणरययणिगरप्पगासा तिलगरयणद्धचंदचित्ता नाणामणिदामालंकिया अंतो बहिं च सण्हा तवणिज्जवालुयापत्थडा सुहफासा सस्सिरीयरुवा पासाईया दरिमणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा (सूत्र २७)
दीप अनुक्रम
[२७]
REaratanimal
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~128~
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
---------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
[२७]
दीप अनुक्रम
श्रीराजपनी कसूर्याभस्य देवस्य सूर्याभ विमानं प्रवतं ?, भगवानाह-गौतम ! अस्मिन् जम्बूद्वीपे यो मन्दर पर्वतरतस्य दक्षिणतोऽस्या रत्नप्रभायाः मयाभावमलयगिरी- पृथिव्या बहुसमरमणीयात् भूमिभागादूई चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारुपाणामपि पुरतो बहूनि योजनानि बहूनि योजनशतानि ततो बुद्धया
| मानवर्णन या वृत्तिः बहुबहुतरोष्टवनेन बहूनि योजनसहस्राप्येवमेव बहूनि योजनशतसहस्राणि एवमेव च वीर्योजनकोटीरेवमेव च बहीर्योजनकोटीकोटीरूद्ध | दरमुरलुत्य अत्र-सार्द्धराजुप्रमाणे प्रदेशे सौधर्मो नाम कल्पः प्रज्ञतः, स च प्राचीनापाचीनायतः, पूर्वापरायतः इत्यर्थः, उदग्दक्षिण
म्०२७ ॥६०॥
| विस्तीर्णः, अर्द्धचन्द्र संस्थान संस्थितो, द्वौ हि सौधर्मेशानदेवलोकी समुदिती परिपूर्णचन्द्रमण्डल संस्थानसंस्थिती, तयोश्च मेरोदक्षिणवती या साधर्मकल्प उत्तरवर्ती ईशानकल्पः ततो भवति सौधर्मकल्पः चन्द्रसंस्थानसस्थितः, 'अचिमाली' इति अचीषि-किरणानि तेषां माला|
चिर्माला सा अश्यास्तीति अधिर्माली किरणमालासङ्घल इत्यर्थः, असत्येययोजनकोटीकोटी: 'आयामविवखंभेणं' ति आयामश्च विष्कम्भवायामविष्कम्भं समाहारो द्वन्दरतेन, आयामेन च विष्कम्भेन चेत्यर्थः, असद्स्येया योजनकोटीकोट्यः 'परि
खेवेणं' परिधिना 'सबरयणामए' इति सर्वात्मना सनमयः 'जाव पडिरूचे' इति यावत्करणात् ' अच्छे सण्हे घड़े महे । इत्यादि विशेषणकदम्बकपरिग्रहः, 'तस्थ ण' मित्यादि, तत्र सौधम्में कल्पे द्वात्रिंशत् विमानशतसहस्राणि भवन्ति इल्याख्यातं मया ।
शेपेश्च तीर्थकृतिः ॥' ते गं विमाणे ' त्यादि, तानि विमानानि सूत्रे पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् सवरत्नमयानि-सामस्त्येन रत्नमयानि 19' अछाने' आकाशस्फटिकवदतिनिर्मलानि अत्रापि यावत्करणात् ' सहा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया' इत्यादि विशेषणजातं द्रष्टव्यं, तथ पागेवानेकशी व्याख्यातं ' तेसिण' मित्यादि, तेषां विमानानां यामध्यदेशभागे त्रयोदशप्रस्तटे सर्वत्रापि विमानावतं
॥६ ॥ सकानां: स्वस्वकल्पचरमप्रस्तटवर्तित्वात् पञ्चावंतसका:-पश्च विमानावतंसकाः प्रज्ञताः, तद्यथा-अशोकावतंसकः-अशोकावतंसकनामा,
[२७]
TRAIN
REaratindiRana
Swam
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~129~
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
: .
प्रत
सुत्रांक
44
[२७]
:
+
दीप अनुक्रम
सच पूर्वस्यां दिशि, ततो दक्षिणस्यां सप्तपर्णावतंसकः पश्चिमायां चम्पकावतंसकः उत्तरस्यां चूतावतंसकः मध्ये सौधर्मावर्तसका ते च पश्चापि विमानावतंसकाः सर्वरत्नमया ' अच्छा जाव पडिरूवा' इति यावत्करणादत्रापि सहा लण्हा घट्टा मट्टा' इत्यादि विशेपणजातमवगन्तव्यम् , अस्य च सौधर्मावतंसकस्य पूर्वस्यां दिशि तिर्यक असङ्येयानि योजनशतसहस्राणि व्यतिबज्य-अतिक्रम्यात्र सूर्याभस्य देवस्य मूर्याभं नाम विमानं प्रज्ञप्तं, अर्दै त्रयोदर्श येषां तानि अर्द्धत्रयोदशानि, सानि द्वादशेत्यर्थः, योजनशतसहस्राव्यायायविष्कम्भेन, एकोनचत्वारिंशत् योजनशतसहस्राणि द्विपञ्चाशत्सहस्राणि अष्टौ च योजनशतानि अपृचत्वारिंशदधिकानि । ३९५२८४८ किश्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण' परिधिना, इदं च परिक्षेपपरिमाणं 'विवखंभवग्गदहगुणकरणी वहस्स परिरओ होइ' इति करणवशात् स्वयमानेतव्यं, सुगमत्वात् । ' से णं एगण' मित्यादि, नदिमानमेकेन प्राकारेण सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समअन्ततः-सामस्त्येन परिक्षितं ॥ ' से णं पागारे' इत्यादि, स प्राकारः त्रीणि योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चस्त्वेन मूले एक योजनशतं निष्क
भण मध्यभागे पञ्चाशत् , मूलादारभ्य मध्यभागं यावत् योजने योजने योजनत्रिभागस्य विष्कम्भतखुटितत्वात् , उपरि-मस्तके पञ्चविंशतियोजनानि विष्कम्भेण, मध्यभागादारभ्योपरितनमस्तकं यावत् योजने योजने योजनषडागस्य विष्कम्भतो हीयमानतया लभ्यमानत्वात् , अत एव मूले विस्तीणों मध्ये संक्षिप्तः, पञ्चाशतो योजनानां त्रुटितत्वात् , उपरि तनुकः पञ्चविंशतियोजनमात्रविस्तारात्मकत्वात् , अत एव गोपुच्छसंस्थानसंस्थितः, 'सबरयणामए अच्छे इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् , ' से णं पागारे । इत्यादि, स प्राकारो'णाणाविहपंचवन्नेहि । इति नानाविधानि च तानि पञ्चवर्णानि च नानाविधपञ्चवर्णानि तैः, नानाविधत्वं च . पञ्चवर्णापेक्षया द्रष्टव्यं कृष्णादिवर्णतारतम्यापेक्षया वा, पश्चवर्णत्वमेव प्रकटयति- 'कण्हेहिं' इत्यादि, 'ते णं कविसीसगा.
G
G
[२७]
9
VÀ HỘ 8
SAMEarathina
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~130
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
---------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजप्रश्नी मालयगिरी या वृत्तिः
प्रत
सत्रांक
[२७]
दीप अनुक्रम
इत्यदि, तानि कापशीर्षकाणि प्रत्येक योजनमेकमायामतो-दैर्घेणार्द्ध योजनं विष्कम्भेण देशोनयोजनमुच्चस्त्वेन 'सबरयणामया' मूर्याभविइत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् । 'मूरियाभस्स ण' मित्यादि, एकैकस्यां बाहायां द्वारसहसमिति सर्वसल्यया चत्वारि द्वारसहस्राणि, मानद्वारतानि च द्वाराणि प्रत्येकं पञ्चयोजनशतान्यू? उच्चस्त्वेन अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भतः 'तावइयं चेवे' ति अर्द्धतृतीयान्येव मा वर्णन योजनशतानि प्रवेशतः 'सेया' इत्यादि, तानि च द्वाराणि सर्वाण्युपरि श्वेतानि-श्वेतवर्णोपेतानि बाहुल्येनारत्नमयत्वात् 'वरकणगधूभियागा' इति बरकनका-बरकनकमयी स्तूपिका-शिखरं येषां तानि तथा, 'ईहामिगउसभतुरगमरमगरविहगवालग
मू०२७ किन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभनिचित्ता खंभुग्गयवरवयरवेइयापरिगयाभिरामा विजाहरजमलजुयलजंतजुत्ताचिव अच्चीसहस्समालिणीया रूवगसहस्सकलिया भिसमाणा भिन्भिसमाणा चक्खुल्लोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा' इति विशे-12 पणजातं यानविमानबद्भावनीयं, 'बन्नो दाराणं तेसि होइ । इति तेषां द्वाराणां वर्णः-स्वरूप व्यावर्णनमयं भवति, तमेव कथयति
तंजहे त्यादि, तद्यथा-'बदरामया णिम्मा' इति नेमा नाम द्वाराणां भूमिभागार्दै निकामन्तः प्रदेशास्ते सर्वे चत्रमया बन्न-19 रत्नमयाः, वनशब्दस्य दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् , एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यं, 'रिद्वामया पइट्राणा' रिष्टमया-रिष्टरत्नमयानि प्रतिष्ठानानि-10 मूलपादाः 'वेरुलियमया खंभा' इति वैडूर्यरत्नमयाः स्तम्भाः' जायस्वोवचियपवरपंचवन्न[चर]मणिरयणकुट्टिमतला ' जातरूपेणसुवर्णेन उपचितैः-युक्तः प्रवरैः-प्रथानः पश्चवर्गमणिभिः चन्द्रकान्तादिभिः रत्नैः-कर्केतनादिभिः कुहिमतलं-बद्धभूमितलं येषां ते तथा 'हंसगन्भमया पलुबा ' हंसगर्भपया-रसग ख्यरत्नमया एलुका--देहल्यः 'गोमेजमया इंदकीला' इति गोमेजकरत्नमया ॥ ६१॥ इन्द्रकीसाः, ' लोहियक्रवमईओ' लोहिताक्षरत्नमय्यः ' चेढाओ' इति द्वारशाखा 'जोइरसमया उत्तरंगा' इति द्वारस्योपरि ।
[२७]
REscalin
marary.au
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~131~
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
[२७]
दीप अनुक्रम
हतियग्व्यवस्थितमुत्तरङ्ग तानि ज्योतीरसमयानि -ज्योतीरसाख्यरत्नात्मकानि 'लोहियक्खमईओ' लोहिताशमय्यो लोहिताक्षर
नाधिकाः सूचय:-फलकद्वयसम्बन्धविघटनाभावहेतुः पादुकास्थानीयाः 'वइरामया संधी' बजमयाः सन्धयः सन्धिमेलाः फलकाना, किमुक्तं भवति ?-बजरत्नपूरिताः फलकानां सन्धयः, 'नाणामणिमया समुग्गया' इति समुद्गका इव समुद्गका:- शूचिकागृहाणि तानि नानामणिमयानि 'वयरामया अग्गला अग्गलपासाया' अर्गलाः-प्रतीताः अर्गलामासादा यत्रार्गला नियम्यन्ते, आह च जीवाभिगममलटीकाकार:- अर्गलापासादो यत्रार्गला नियम्यन्ते इति" एते ये अपि बजरत्नमय्यौ 'स्ययामयाओ आवत्तणपेढियाओ
इति आवर्तनपीठिका नाम यत्रेन्द्रकीलको भवति, उक्तञ्च विजयद्वारचिन्तायां जीवाभिगममूलटीकाकारण- "आवर्तनपीठिका कायबेन्द्रकीलको भवतीति ' अंकुत्तरपासगा' इति अङ्क-अङ्करत्नपया उत्तरपार्था येषां द्वाराणां तानि अनत्तरपार्थकाण 'निर
तरियषणकवाडा' इति निर्गता अन्तरिका-लम्वन्तररूपा येषां ते निरन्तारका अत एव घना निरन्तरिका धनाः कपाटा येषां द्वाराणां , तानि निरन्तरिकधनकपाटानि 'भित्तिसु चेव भित्तिगुलिया छप्पन्ना तिमि होंति' इति तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पाश्चयोः भित्तिषु-16 भित्तिगताः भित्तिगुलिका-पीठकस्थानीयाः तिस्रः षट्पञ्चाशत्प्रमाणा भवन्ति 'गोमाणसिया (सजा) तइया' इति गोमनस्यः शय्या 'तइया' इति तावन्मात्राः षट्पञ्चाशत्त्रिकसङ्ख्याका इत्ययः ‘णाणामणिस्य णवालरूवगलीलट्ठियसालभंजियागा' इति इदं । दारविशेषणमेव, नानामगिरत्नानि-नानामाणिरत्नमयानि व्यालरूपकाणि लीलास्थितशालभजिकाच-लीलास्थितपुत्तलिका येषु तानि तथा ' चयरामया कूडा रययामया उस्सेहा' इति कूडो-माडभाग उच्छ्यः -शिखरं, आह च जीवाभिगममूलटीकाकृत्-'कूडो माड-6 भाग उच्छ्यः शिखर ' मिति, नवरमत्र शिखराणि तेषामेव माडभागानां सम्बन्धीनि वेदितव्यानि, द्वारशिखराणामुक्तत्वात् वक्ष्य
[२७]
0.30
REmiratna
Primaryam
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~132~
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
[२७]
दीप अनुक्रम
|माणत्वाच्च, ' सवतवणिजमया उल्लोया ' उल्लोका-उपरिभागाः सर्वतपनीयमया:-सर्वात्मना तपनीयरूपसुवर्णविशेषमयाः 'नाणाश्रीराजप्रश्नी मणिरयणजालपंजरमणिवंसगलोहियवखपडिवंसगरययभोमा' इति मणयो-मणिमया वंशा येषु तानि मणिमयवंशकानि लोहिता
र्याभविमलयगिरी
ख्यानि-लोहितारख्यमयाः प्रतिवंशा येषु तानि लोहितारख्यपतिवंशकानि रजता-रजतमयी भूमियेषां तानि रजतभूमानि प्राकृत-al या वृत्तिः
-मानदार
वर्णन त्यात्समासान्तः मणिवंशकानि लोहिताख्यप्रतिवंशकानि रजतभूमानि नानामणिरत्नानि नानामणिरत्नमयानि जालपञ्जराणि॥ ६२ ॥ गवाक्षापरपर्यायाणि येषु तानि तथा, पदानामनन्वयोपनिपातः प्राकृतत्वान् , ' अंकामया पक्खा पवखवाड़ाओ' इति अङ्को-रत्न
मू०२७ विशेषस्तन्मयाः पक्षास्तदेकदेशभूताः पक्षबाहवोऽपि तदेकदेशभूता एवाङमय्यः, आह च जीवाभिगममूलटीकाकृत-"अडुपयाः पक्षास्तदेकदेशभूना एवं पक्षवाहवोऽपि द्रष्टव्या" इति, 'जोईरसामया वैसा बसकवेलुका य' इति ज्योतीरसं नाम रत्नं तन्मया पंचाः-महान्तः पृष्टवंशा 'बंसकवेलया य' इति महतां पृष्ठवंशानामुभयतस्तिर्यक् स्थाप्यमाना वंशाः कवेलुकानि प्रतीतानि 'स्ययामईओ पट्टिआओ' इति रजतमय्यः पहिका वंशानामपरि कम्बास्थानीयाः 'जायरूपमईओ ओहाडीयो जातरूपं-सुवर्णविशेषस्तन्मय्यः 'ओहाटणीओ' अवघाटिन्यः आच्छादनहेतुकम्बोपरिस्थाप्यमानमहाप्रमाणीकलिचस्थानीयाः ‘वयरामईओ उवरिंक पुछणाओ' इति बत्रमय्यो-बजरत्नामिका अवघाटनीनामुपरि पुछन्यो-निविडतराच्छादनहेतुश्चक्षणतरतृणविशेषस्थानीयाः, उक्तं च जीवाभिगममूलटीकाकारेण-"ओहाटणाग्रहणं महत क्षुलुकं च पुञ्छना इति" 'सबसेयरययामयाच्छायणे' इति सर्वश्वतंत्र रजतमयं पुञ्छनीनामुपरि कबेलुकानामध आच्छादनं 'अमयकणगकूडतवणिज्जथूभियागा' अमयानि बाहुल्येनारत्न- ॥ २ ॥ मयानि पक्षश्वालादीनामरत्नात्मकत्वात् कनकानि-कनकमयानि कूटानि-महान्ति शिखराणि येषां तानि कनकन्टानि तप--
[२७]
Aluminary.org
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~133~
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत सूत्रांक
[२७]
दीप
अनुक्रम [२७]
मूलं [२७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि -प्रणीता वृत्तिः
Ja Eratur
30.80%
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्तिः)
-
नीयानि तपनीयस्तूपिकानि, ततः पदत्रयस्यापि कर्म्मधारयः, एतेन यत् प्राक् सामान्येन उत्क्षिप्तं 'सेयावर कणगधूभियागा' इति तदेव प्रपञ्चतो भावितमिति, सम्पति तदेव श्वेतत्वमुपसंहारव्याजेन भूय उपदर्शयति सेया श्वेतानि श्वेतत्वमेवोपमया द्रढयति'संखतल विमल निम्मदधिघणगोखीर फेणरत्यय निगरपगासा' इति विगतं मलं विमलं यत् शङ्खतलं- शङ्खस्योपरितनो भागो यथ निर्मलो दधिधनः- घनीभूतं दधि गोक्षीरफेनो रजतनिकरथ तद्वत् प्रकाश: प्रतिभासो येषां तानि तथा 'तिलगरयणद्धचंदचित्ता ॐ इति तिलकरत्नानि पुण्ड्रविशेषास्तैरर्द्धचन्द्रैश्च चित्राणि - नानारूपाणि तिलकरत्नार्द्धचन्द्र चित्राणि कचित् सङ्गतलविमलनिम्मलदहिघणगोखीर फेणरययनियरप्पगासद्धचंदचित्ताई' इति पाठः, तत्र पूर्ववत् पृथक् पृथक् व्युत्पत्तिं कृत्वा पश्चात् पदद्वयस्य २ कर्मधारयः, 'नाणामणिदामालंकिया' इति नानामणयो-नानामणिमयानि दामानि - मालास्तैरलङ्कृतानि नानामणिदामालङ्कृतानि अन्तहि लक्ष्णानि-लक्ष्णपुङ्गलस्कन्धनिर्मापितानि 'तवणिज्जवालुयापत्थडा ' इति तपनीया:- तपनीयमय्यो या वालुकाः सिकताॐ स्तासां प्रस्तरः- मस्तरो येषु तानि तथा 'सुहफासा इति सुखः सुखहेतुः स्पर्शो येषु तानि मुखस्पर्शानि सश्रीकरूपाणि प्रासादीयानीत्यादि प्राग्वत् ।
तिमि णं दाराणं उभओ पासे दुहओ निसीहियाए सोलस २ चंदणकल सपरिवाडीओ पन्नताओ, ते णं चंद्रणकलेसा वरकमलपट्टाणा सुरभिवरवारिपडिपुण्णा चंदनकयचच्चागा आविद्धकंठेगुणा पउम्रपलपिहाणा सवरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा महया २ इंदकुंभसमाणा पत्ता समणाउसो, तसि णं दाराणं उभओ पासे दुहओ पिसीहिशए सोलम २ णागदंतपरिवाडीओ पन्नताओ, ते णं णागदंता
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
For Parts Only
~ 134~
30008060
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजपनी मलयगिरी-16 या वृत्तिः ॥ ६३॥
मूर्याभविमानबरवर्णनं
प्रत
सत्राक
सू०२७
(२८)
दीप अनुक्रम
मुनाजालंतरुसियहेमजालगवखजालखिखिणी(घंटा)जालपरिखित्ता अझुग्गया अभिणिसिट्ठा तिरियमसंपग्गहिया अहेपन्नगद्धरुवा पन्नगद्धसंठाणसंठिया समवयरामया अच्छा जाव पडिरूवा महया महया गयदतममाणा पन्नना सयणाउसो!, तेसु णं णागतएम बहवे किण्हसुनवववग्धारितमल्लदामकलाया गीललोहित हालिहसुक्किलसुत्तववग्धारितमल्लदामकलावा, ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा सुवन्नक्षयरमंडियगा जाव कन्नमणणिब्बुचिकरणं सद्देणं ते पदेसे सबओ समंता आपरेमाणा २ सिरीए अईव २ उपसोभेमाणा चिट्ठति । तेसिणं णागदंताणं उबरि अन्नाओ सोलस सोलस नागदंतपरिवाडीओ पं०. ते णं णागदंता तं चेव जाव महता २ गयदंतसमाणा पन्नना समणाउसो.. तेसु णं णागदंतएस बहवे रयामया सिक्कगा पन्नता, तेसु णं रययामएस सिकाए वहये बेरुलियामईनो धूवघडीओ पं०, ताओ णं धूवघडीओ कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूवमघमधंतगंधुद्धयाभिरामाओ सुगंधवरगंधियातो गंधवट्टियाओ ओरालेणं मणुण्णेणं मणहरेणं घाणमणणिब्बुइकरेणं गंधेणं ते पदेसे सबओ समंता जाव चिट्ठति । तेसि णं दाराणं उभो पासे दुहओ णिसीहियाए सोलस सोलम सालभजियापरिवाडीओ पन्नत्ताओ, ताओण सालभंजियाओलीलट्ठियाओ सुपइट्ठियाओ सुश्रलंकियाओ णाणाविहरागवसणाओ णाणामल्लपिणद्धाओ मुट्ठिगिज्झसुमज्झाओ आमेलगजमलजुयलबट्टियअभुन्नयपीणर
[२८]
मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २८ स्थाने सू० २७ मुद्रितं
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~135
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[२८]
दीप
अनुक्रम [२८]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [२८]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
Eaton T
इयसठियपीवरपओहराओ रनावंगाओ असियकेसीओ मिउविसयपसत्यलक्खणसंवेल्लिग्गसिरयाओ ईसं असोगवरपायवसमुट्ठियाओ वामहत्थग्गहियग्गसालाओ ईसिं अद्धच्छिकडक्खचिट्ठिएणं लमाणीओ विव चक्खुल्लोयणलेसेहिं अन्नमन्नं खेज्जमाणिओ (वि) पुढविपरिणामाओ सासयभावमुवगयाओ चन्द्राणणाओ चंदविलासिणीओ चंदद्धसमणिडालाओ चंदाहियसोमदंसणाओ उक्का (विव उच्चीवेमाणाओ ) विज्जुधणामरियसूरदिप्पंततेयअहिययरसन्निकासाओ सिंगारागारचारुवेसाओ पामा ० दरसि० (पडि० अभि०) चिट्ठति (सूत्रम् २७ )
6
तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोरेकैकनपोधकभावेन 'दुहतो' इति द्विघातो द्विकारायां नैषेविक्यां नेपेधिकीनिषीदनस्थानं, आह च जीवाभिगममूलटीकाकृत –“नेपेधिकी निषीदनस्थान" मिति, प्रत्येकं षोडश २ [ कलश परिपाटयः प्रज्ञप्ताः ते च चन्दनकलशा ' वरकमलपड्डाणा ' इति वरं प्रधानं यत्कमलं तत् प्रतिष्ठानम् - आधारो येषां ते वरकमलप्रतिष्ठानाः तथा सुरभिवरवारिप्रतिपूर्णाञ्चन्दनकृतचर्चाकाः - चन्दनकृतोपरामाः आविद्धकण्ठेगुणा इति आविद्धः - आरोपितः कण्ठे गुणो-रक्तमूत्ररूपो येषां ते आविद्धकण्ठेगुणाः, कण्ठेकालवत् सप्तम्या अलुक्, 'पडमुप्पलविहाणा' इति पद्ममुत्पलं च यथायोगं पिधानं येषां ते पद्मोत्पलविधानाः 'सहरयणामया अच्छा सहा लम्हा ' इत्यादि यावत् 'पडिरूवगा' इति विशेषणकदम्बकं माग्वत् 'महया' इति अतिशयेन महान्तः कुम्भानामिन्द्र इन्द्रकुम्भो राजदन्तादिदर्शनादिन्द्रशब्दस्य पूर्वनिपातः महाँश्चासौ इन्द्रकुम्भश्च तस्य समाना महेन्द्रकुम्भसमानाः- महाकलशप्रमाणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन्
For Pasta Use Only
मूल- संपादने अत्र सूत्र - क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २८ स्थाने सू० २७ मुद्रितं
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~136~
bray or
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
---------- मूलं [२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
मानद्वार
प्रत
सत्राक
(२८)
दीप अनुक्रम
श्रीराजमनी तसिणं दाराण' मिति तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोरेकैकनषेधिकीभावेन या द्विधा नैषेधिकी तस्यां प्रत्येकं पोडश षोडश सूर्याभावमाळयगिरी- नागदन्तपरिपाटयः प्राप्ताः, नागदन्ता-अङ्कुटकाः, ते च नागदन्ता 'मुत्ताजालंतरुसियहेमजालगवक्खजालखिखिणि(घंटा)जालया वृत्तिःपरिखित्ता' इति मुक्ताजालानामन्तरेषु यानि उत्सतानि-लम्बमानानि हेमजालानि-सुवर्णमयदामसमूहा यानि च गयाक्षजालानि-- वर्णनं
गवाक्षाकृतिरत्नविशेषमालासमूहा यानि च किङ्किणीघटाजालानि-क्षुद्रघण्टासमूहास्तैः परिक्षिप्ताः-सर्वतो व्याप्ताः ‘अब्भु | ।। ५४ गया' इति अभिमुखमुद्गताः अग्रिमभागे मनाक उन्नता इति भावः 'अभिनिसिद्दा' इति अभिमुख-चहि गाभिमुखं निस्पृष्टा- मू०२७
निर्गता अभिनिस्पृष्टाः 'तिरियसुसंपरिग्गहिया ' इति तिर्यक् भित्तिपदेशः सुष्टु-अतिशयेन सम्यक् मनागप्यचलनेन परिगृहीताः सुसम्परिगृहीताः, 'अपनगद्धरुवा' इति अधः-अधस्तनं यत् पन्नगस्य सर्पस्याः तस्येव रूपम् आकारो येषां ते अध:पन्नगाधरूपाः ।। अधःपन्नगार्द्धवदतिसरला दीपांश्चति भावः, एतदेव व्याचष्टे- पनगाईसंस्थानसंस्थिता: अधापकगा संस्थानाः 'समवयरामया सर्वात्मना वनमया 'अच्छा सण्हा' इत्यारभ्य 'जाव पडिरूवा' इति विशेषणजातं प्राग्वत् , 'महया' इति अतिशयेन महान्तो| गजदन्तसमाना-गजदन्ताकाराः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् !! 'तेसुगंणागदंतएमु बहवे किप्सुतबद्धा' तेषु नागदन्तकेषु बहवः कृष्णमूत्रबद्धा 'वग्यारिय' इति अवलम्बिता माल्यदायकलापा:-पुष्पमालासमूहा बहवो नीलसूत्रावलम्बितमाल्यदामकलापा एवं लोहितहारि
शुक्लसूत्रबद्धा अपि वाच्याः। तेणं दामा' इत्यादि, तानि दामानि तवणिज्जलंचूसगा' इति तपनीयः-तपनीयमयो लम्बूसगो-दाम्नामग्रिमभागे मण्डनविशेपो येपा तानि तथा, जाब लंबूसकानि, 'सुबन्नपयरगमडिया' इति पार्थतः सामस्त्येन सुवर्णप्रतरेण-सुवर्णपत्रकेम मण्डितानि सुवणप्रतरमाण्डितानि 'नाणाबिहमणिरयणविविहहारउवसोहियसमुदया' इति नानारूपाणां मणीनां रत्नानां च
[२८]
SED
REaratinid
मूल-संपादने अब शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २९ स्थाने सू० २७ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~137
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[२८]
दीप
अनुक्रम
[२८]
मूलं [२८]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि -प्रणीता वृत्तिः
Education i
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
ॐ विविधा विचित्रवर्णा हारा-अष्टादशसरिका अर्द्धहारा-नवसरिकास्तैरुपशोभितः समुदायो येषां तानि तथा 'जाब सिरीए अईब २ उवसोभैमाणा चिट्ठति' इति अत्र यावत्करणादेवं परिपूर्णः पाठो द्रष्टव्यः 'ईसिमप्णोष्णम संपत्ता पुवावरदाहिणुत्तरागएहिं बाए हिं मंदार्य मंदायं एइज्जमाणा पइज्जमाणा पत्रमाणा पझंझमाणा ओरालेण मणुष्णेणं मणहरणं कण्णमणनिथ्बुइकरेणं सदेणं ते पए से सहओ समता आपूरेमाणा २ सिरीए अईब २ उबसोभैमाणा चिट्ठति एतथ मांगेव यानविमानवर्णने व्याख्यातमिति न भूयो ॐ व्याख्यायते । ' तेसि णं णागदंताणमित्यादि, तेषां नागदन्तानामुपरि प्रत्येकमन्याः षोडश षोडश नागदन्तपरिपाटयः मङ्गप्ताः तेच नागदन्ता यावत्करणात् 'मुत्ताजालं तरु सियहेमजालगववव जाल खि खिणिघंटाजालपरिखित्ता' इत्यादि प्रागुक्तं सर्वे द्रष्टव्यं यावत् गजदन्तसमानाः प्रज्ञप्ता हे भ्रमण ! हे आयुष्मन् !' तेसु णं णागदंतएसु' । इत्यादि, तेषु नागदन्तकेषु बहूनि रजतमयानि सिक्कानि प्रज्ञप्तानि तेषु वररजतमयेषु सिककेषु बहवो बहो वैर्यमय्यो वैरत्नात्मिका धूपघटिका: ' कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुक्क धूवमघमर्धते त्यादि प्राग्वत् नवरं 'घाणमणनिब्बु करेण मिति घ्राणेन्द्रियमनोनिर्वृतिकरेण । 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां द्वाराणां ॐ प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोरेकैकनषेधिकीभावेन द्विधातो-द्विप्रकारायां नैषेधिक्यां षोडश पोडश शालभञ्जिकाप रिपाटयः प्रज्ञप्ताः, ताथ शालभञ्जिका लीलया-ललिताङ्गनिवेशरूपया स्थिता लीलास्थिताः, 'सुपइट्टियाओ' इति सुमनोज्ञतया प्रतिष्ठिताः सुप्रतिष्ठिताः 'अलंकियाओ' सुष्ठु अतिशयेन रमणीयतया अलङ्कृताः स्वलङ्कृताः ' णाणाविहरागवसणाओ ' इति नानाविधोनानाप्रकारो रागो येषां तानि नानाविधरागाणि तानि वसनानि वखाणि यासां तास्तथा 'नानामहपिनद्धाओ' इति नानारूपाणि माल्यानि पुष्पाणि पिनद्धानि - आविद्धानि यासां ता नानामात्यपिनद्धाः कान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात्,
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
For Pale Onl
~138~
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
---------- मूलं [२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
151
प्रत
सत्रांक
॥६५॥
(२८)
दीप अनुक्रम
श्रीराजप्रश्नी मुट्ठिगिज्झसुमज्झाओ' इत मुष्टिया सुष्टु-शोभनं मध्य-पगभागो यासा तास्तथा, 'आमेलगजमलजुगलवाट्टयअम्भुन्नयपी- मूर्याभविमळयगिरी-णिरइयसंठियपीवरपओहराओ' पीनं-पीचरं रचितं संस्थितं-संस्थानं यकाभ्यां तो पीनरचितसंस्थानौ आमेलक:-आपीड: मानद्वारया वृत्तिः शेखरक इत्यर्थः तस्य यमलयुगलं-समश्रेणिकं ययुगलं तद्वत् वर्तितौ-बद्धखभावाबुपचिवकठिनभावाविति भावः अभ्युनतो
वर्णन पीनरचितसंस्थानौ च पयोधरौ यासांतास्तथा, 'रत्तावंगाओ' इति रक्तोऽपाङ्गो-नयनोपान्तरूपो यासा तास्तथा, 'असियकेसिओ' इति असिताः-कृष्णाः केशा यासां ता असितकेश्यः, एतदेव सविशेषमाचष्टे-'मिउबिसयपसस्थलक्खणसंवेल्लियग्गसिरयाओ'
सू० २७ मदवा-कोमला विशदा-निर्मलाः प्रशस्तानि-शोभनानि अस्फुटिताग्रत्वमभृतीनि लक्षणानि येषां ते प्रशस्तलक्षणाः 'संवेलित संवृतमा येषां ते संवेल्लितायाः शिरोजाः-केशा यासां ता मृदुविशदप्रशस्तलक्षणसंवेल्लित्ताग्रशिरोजाः, 'ईसिं असोमवरपायवसमुट्ठियाओ' || ईषत् मनाक् अशोकवरपादपे समुपस्थिता:-आश्रिता ईपदशोकवरपादपसमुपस्थितास्तथा 'वामहत्थग्गहियग्गसालाओ' वामहस्तेन गृहीतमय शालायाः-शाखायाः अर्थादशोकपादपस्य यकाभिस्ता वामहस्तगृहीताप्रशाला: 'ईसिं अद्धच्छिकडक्खचिट्ठिएणं लूसमाणीओ विवेति ईपन-मनाक् अर्दै-तिर्यक् वलितमक्षि येषु कटाक्षरूपेषु चेष्टितेसु तमुष्णन्त्य इच सुरजनानां मनांसि चक्खुल्लोयणलेसेहिं य अन्नमन्नं खिज्जमाणीओ विव 'अन्योऽन्यं परस्परं चक्षुषां लोकनेन-आलोकनेन ये लेशाः-संश्लेषस्तैः खिद्यमाना इच, किमुद्धं भवति ?-एवंनामानस्ति(मर्यन्वलिताक्षिकटाक्षः परस्परमवलोकमाना अवतिष्ठन्ति यथा नूनं परस्परं सौभाग्यासहनतस्तिर्यग्वलिताक्षिकटाक्षः परस्परं खिद्यन्ति इबेति, 'पुढविपरिणामाओ' इति पृथिवीपरिणामरूपाः शाश्वतभावमुपगता विमानवता 'चंदाणणाओ' इति चन्द्र इवाननं-मुखं यास तास्तथा 'चंदविलासिणीओ' इति चन्द्रवत् मनोहरं विलसन्तीत्येवंशीलाच
[२८]
मूल-संपादने अब शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २९ स्थाने सू० २७ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~139~
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
---------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सत्रांक
[२९]
दीप अनुक्रम [२९]
द्रविलासिन्यः 'चंदद्धसमनिडालाओ' इति चन्द्रार्द्धसमम्-अष्टमीचन्द्रसमान ललाट यासा तास्तथा 'चंदाहियसोमदसणाओ इति चन्द्रादपि अधिकं सोमं सुभगकान्तिमत् दर्शनम् -आकारो यास तास्तथा उल्का इच उद्योतमानाः 'विज्जुघणमरिचिसूरदिप्पं ततेयअहिययरसन्निकासातो' इति विद्युतो ये घना-बहलतरा मरीचयस्तेभ्यो यच्च मूर्यस्य दीप्यमानं दीप्त-नेजस्तस्मादपि अधिकतरः सन्निकाशः-प्रकाशो यासा तास्तथा, 'सिंगारागारचारुवेसाओ पासाइयाओ दरिसणिज्जाओ पहिरूवाओ अभिरुवाओ चिट्ठति ' इति प्राग्वत् ॥
तेसिणं दाराणं उभओ पासे दुहओ णिसीहियाए सोलस सोलस जालकड़गपरिवाडीओ पन्नना, ते णं जालकडगा सबरयणामया अच्छा जाब पडिरूवा । तेसिणं दाराणं उभओ पासे दुहाओ निसीहियाए सोलस सोलस घंटापरिवाडीओ पन्नत्ता, तासि णं घंटार्ण इमेयारूवे पन्नावासे पन्नने, तंजडा-जंबूणयामईओ घंटाओ वयरामयाओ लालाओ णाणामणिमया घंटापासा तवणिजामइयाओ संखलाओ स्ययामयाओ रज्जूतो, ताओ णं घंटाओ ओहस्सराओ मेहस्सराओ सीहस्सराओ दुंदुहिस्सराओ कुंचस्सराओ 'णंदिस्सराओ दिघोसाओ मंजुस्सराओ मंजुघोसाओ सुस्सराओ मुस्सराणिग्योसाओ उरालणं मणुनेणं मणहरेणं कन्नमणनिव्वुइकरेणं सदेणं वे पदेसे सबओ समंता आपरेमाणीओ २ जाव चिट्ठति ॥ तेसिणं दाराणं उभओ पासे दहश्रो णिसीहियाए सोलस सोलस वणमालापरिवाडीओ पन्नताओ,
REscands
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~140
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
---------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजप्रश्नी । मलयनिरी या वृत्तिः
मूर्याभविमानद्वार
प्रत
वर्णन
सत्राक
मू०२७
[२९]
दीप अनुक्रम [२९]
ताओ णं वणमालाओ णाणामणिमयदुमलयकिसलयपल्लवसमाउलाओ छप्पयपरिभुज्जमाणा सोहंतसस्सिरीयाओ पासाईयाओ४। तेसि णं दाराणं उभओ पासे दुहओ णिसीहियाए सोलस २ पगंठगा पन्नना, ते णं पगंठगा अडाइज्जाई जोयणसयाई आयामविखंभेणं पणवीसं जोयणसयं पाहल्लेणं सववयरामया अच्छा जाव पडिरूवा। तेसिणं पगंठगाणं उपरि पत्तेयं २ पासायब.सगा पन्नता, ते णं पासायबसगा अडाइजाई जोयणसयाई उई उच्चनेणं पणवीस जोयणसय विक्वंभेणं अभुग्गयमूसिअपहसिया इव विविहमणिरयणभन्निचित्ता वाउ यविजयवेजयंत पडागछ नाइछत्तकलिया तुंगा गंगणतलमणुलिहतसिहरा जालंतरयणपंजरुम्मिलियव मणिकणगथूभियागा वियसियसयवनपोंडरीया तिलगरयणद्ध चंदचित्ता णाणामणिदामालं किया अंतो बहिं च सहा तवाणिज्जवालुयापत्थडा सुहफासा सस्सिरीयरुवा पासादीया दरिसणिज्जा जाव दामा उरि पगंठगाणं झया छत्नाइछना । तेसि णं दारांणं उभओ पासे सोलस सोलस तोरणा पन्नता, णाणामणिमया णाणामणिमएस खंभेसु उवणिपिट्ठसन्निविट्ठा जाच पउमहत्थगा, तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो सालभंजियाओ पन्नताओ, जहा हेट्ठा तहेव तेसि ण तोरणाणं पुरओ नागदंता पनना जहा हेट्ठा जाव दामा, तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो हयसंघाडा गयसंघाडा नरसंघाडा किन्नरसंघाडा किंपुरिससंघाडा महोरगसंघाडा गंधवसंघाडा उसभसंघाडा
REaratamil
मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २९ स्थाने सू० २७ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~141~
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
---------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूत्रांक
[२९]
दीप अनुक्रम [२९]
सबरयणामया अच्छा जाव पडिरुवा, एवं वीही पंतीओ मिहुणाई। तेसिणं तोरणाणं पुरओदो दो पउमलयाओ जाव सामलयाओ णिचं कुसुमियाओ सत्वरयणामया अच्छा जाव पडिरुवाओ। तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो अखय (दिसा) सोवत्थिया पन्नना, सबरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा, तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो चंदणकलसा पनत्ता, ते णं चंदणकलसा वरकमलपइट्ठाणा तदेव । तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो भिंगारा पन्नता, ते णं भिंगारा वरकमलपइट्ठाणा जाव महया मत्तगयमुहाकितिसमाणा पन्नता समणाउसो! । तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो आयंसा पन्नना, तेसिणं आयंसाणं इमेयारूचे बनावासे पन्नने, तंजहा-तवणिज्जमया पगंठगा बेरुलियमया सुरया वरामया दोचारंगा णाणामणिमया मंडला अणुग्घसितनिम्मलाते छायाते समणुबद्धा चंदमंडलपडिणिकासा महया अद्धकायसमाणा पन्नता समणाउमो ! । तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो वरनाभथाला पं० अच्छतिच्छडियसालितंदुलणहसंदिट्ठपडिपुन्ना इव चिट्ठति सबजंबूणयमया जाव पडिरूबा महया महया रहचकवालसमाणा पं० समणाउसो ! । तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो पातीओ, ताओ णं पाईओ अच्छीदगपरिहत्थाओं णाणामणिपंचवन्नस्स फलहरियगस्स बहुपडिपुन्नाओ विव चिटुंति सवरयणामईओ अच्छा जाव पडिरुवाओ महया महया गोकलिंजरचक्कसमाणीओ पन्नताओ समणाउसो!।
१२
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~142~
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
---------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजप्रश्नी
मलयगिरीया वृत्तिः
सूर्याभविमानवर्णनं
प्रत
मू०२८
सत्रांक
॥६७॥
[२९]
दीप अनुक्रम [२९]
तेतिणं तोरणाणं पुरओ दो दो सुपइट्ठा पन्नत्ता णाणाविहभंडविरइया इव चिटुंति सवरयणामया अच्छा जाव पडिरुवा । तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो मणगुलियाओ पन्नत्ताओ, तामिण मणगुलियासु बहवे सुवन्नरूप्पमया फलगा पन्नत्ता, तेसु णं सुवन्नरूप्पमएसु फलगेसु बहवे वयरामया नागदंतया पन्नत्ता, तेसु णं वयरामएसु णागर्दतएसु बहचे वयरामया सिक्कगा पन्नना, तेसु णं वयरामएस सिक्कगेस किण्हसुत्नसिकगवच्छिता णीलसुत्तसिक्कगवच्छिया लोहियसुत्नसिकगवच्छिया हालिहसुत्नसिक्कगवच्छिया सुक्किलसुत्तसिक्कगवच्छिया बहवे वायकरगा पन्नना सवे वेरुलियमया अच्छा जाब पडिरूवा । तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो चित्ता रयणकरंडगा पं० से जहाणामए रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स चिने रयणकरंडए वेरुलियमणिफलिहपडलपञ्चोयडे साते पहाते ते पतेसे सबतो समंता ओभासति उज्जोवेति तवति भासति एवमेव तेवि चित्ता रयणकरंडगा साते पभाते ते पएसे सबो समंता ओभासंति उज्जोवेति तवंति पगासंति, तेमि ण तोरणाणं पुरओ दो दो हयकंठा गयकंठा नरकंठा किन्नरकंठा किंपरिसकंठा महोरगकंठा गंधवकंठगा उसभकंठा सबबयरामया अच्छा जाव पडिरुवा, तेसु णं हयकंठएसु जाव उसभकंठएसु दो दो पुष्फचंगेरीओ (मल्लचंगेरीओ) चुन्नचंगेरीओ (गंधचंगेरीओ)वत्थचंगेरीओ आभरणचंगेरीओ सिद्धत्थचंगेरीओ लोमहत्थचंगेरीओ पन्ननाओ सवरयणामयाओ अच्छाओ
REaratind
मूल-संपादने अब शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २९ स्थाने सू० २८ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~143~
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
---------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूत्रांक
[२९]
दीप अनुक्रम [२९]
जाव पडिरुवाओ, तासु णं पुष्फचंगेरीआसु जाव लोमहत्थचंगेरीस दो दो पुष्फपडगाई जाव लोमहत्थपडलगाई सबरयणामयाई अच्छाई जाव पडिरूवाइ । तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो सीहासणा पन्नत्ता, तेसिणं सीहासणाणं वन्नओ जाव दामा, तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो रुप्पमया छत्ना पन्नत्ता, तेणं छत्ता वेरुलियविमलदंडा जंबूणयकन्निया वइरसंधी मुनाजालपरिगया अट्ठसहस्सवरकंचणसलागा दहरमलयसुगंधी सबोउयसुरभी सीयलच्छाया मंगलभत्तिचित्ता चंदागारोवमा। तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो चामराओ पन्ननाओ, ताओ णं चामराओ (चंदप्पभवेरुलियवरनानामणिरयणखचियचिनदण्डाओ) णाणामणिकणगरयणविमलमहरिहतवणिज्जुजलविचिनदंडाओ वल्लियाओ संखककुंददगरयअमयमहियेफणपुंजसन्निगासातो सुहमरययदीहवालातो सबरयणामयाओ अच्छाओ जाव पडिरुवाओ। तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो तेल्लसमग्मा कोट्रसमुग्गा पत्नसमुग्गा चोयगस० तगरस० एलास. हरियालसहिंगुलयस० मणोसिलास० अंजण सबरयणामया अच्छा जाच पडिरुवा ॥ सू०२८॥
'तसि ण' मित्यादि तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोरेकैकनषेधिकीभावेन या द्विधा नैषेधिकी तस्यां षोडश पोडश जालकटकाः प्रज्ञप्ताः, जालकटको जालककीर्णो रम्यसंस्थानः प्रदेशविशेषः, ते च जालकटकाः 'सबरयणामया अच्छा सहा जाव पडिरूबा' इति प्राग्वत् । 'तेसिण' मित्यादि, तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पायोर्दिधातो नैधिक्या षोडश घण्टापरिपाट्यः प्रज्ञप्ताः, तासां
Brainrary.org
मूल-संपादने अब शिर्षक-स्थाने एवं सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २९ स्थाने सू० २८ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~144~
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[२९]
दीप
अनुक्रम
[२९]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
-
मूलं [२९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
Jain Education
श्रीराजमश्री
॥ ६८ ॥
च घण्टानामयमेतद्रूपो वर्णावासो-वर्णकनिवेशः मज्ञप्तः, तद्यथा-जम्बूनदमय्यो घण्टा वज्रमय्यो लालाः नानामणिमया घण्टापावः मलयगिरी- ॐ तपनीयमय्यः शृङ्गला यामु ता अवलम्बितास्तिष्ठन्ति रजतमय्यो रज्जवः 'ताओ णं घण्टाओ' इत्यादि, ताथ घण्टा ओघेन- प्रवाहेण या वृत्तिः स्वरो यासां ता ओघस्वरा मेघस्येवातिदीर्घः स्वरो यासां ता मेघस्वराः हंसस्येव मधुरः स्वरो यासां ता हंसस्वराः, एवं क्रौञ्चॐ स्वराः सिंहस्येव च प्रभूतदेशव्यापी स्वरो यासां ताः सिंहस्वराः एवं दुन्दुभिस्वरा द्वादशविधतूर्यसङ्कातो नन्दिः नन्दिस्वराः नन्दिवत् घोषो-हादो यासां ता नन्दिघोषाः मञ्जुः प्रियः स्वरो यासां ता मजूस्वरा, एवं मञ्जूघोषाः, किं बहुना ?, सुस्वराः सुस्वरघोषाः, 'उरालेण' मित्यादि माग्वत् || 'तेसि ण'मित्यादि तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोः द्विधातो नैषेधिक्यां षोडश २ वनमालापरिपाट्यः प्रज्ञप्ताः ताव वनमाला नानाद्रुमाणां नानालतानां च यानि किशलयानि ये च पलवास्तैः समाकुलाः सम्मिश्राः छप्पयपरिभुज्जमाणा सोभन्तसस्सिरीया' इति षट्पदैः परिभुज्यमानाः सत्यः शोभमानाः षट्पदपरिभुज्यमानशोभमानाः अत एव सश्रीकाः 'पासाईया' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ 'तेसि णं दाराण' मित्यादि, तेषां द्वाराणां ॐ प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोरेकैकनैपेधि की भावेन या द्विधा नैषेत्रिकी तस्यां षोडश २ प्रकण्डकाः प्रज्ञप्ताः कण्ठको नाम पीठविशेषः, आह च जीवाभिगममूलटीकाकार:- 'प्रकण्ठौ पीठविशेषा'विति, ते च प्रकण्डकाः प्रत्येकमर्द्धतृतीयानि योजनशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां पञ्चविंशं पञ्चविंशत्यधिकं योजनशतं 'बाहल्येन' पिण्डभावेन 'सववयरामया' इति सर्वात्मना ते प्रकण्डकाः वज्रमयावञ्चरत्नमया, 'अच्छा सण्हा ' इत्यादि विशेषणजातं माग्वत्, ' तेसि णं पगंठगाण' मित्यादि, तेषां प्रकण्ठकानां उपरि प्रत्येकं ।। ६८ ।। प्रत्येकं-इह एक प्रति प्रत्येकमित्याभिमुख्ये वर्त्तमानः प्रतिशब्दः समस्यते, ततो बीप्साविवक्षायां द्विर्वचनं, मासादावतंसकाः प्रज्ञप्ताः,
For Parts Only
मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २९ स्थाने सू० २८ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं
सूर्याभावमानवर्णनं
म्० २८
~ 145~
caror
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
---------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूत्रांक
[२९]
दीप अनुक्रम [२९]
पासादावतंसका नाममासादविशेषाः, उक्तं च जीवामिगममूलटीका-"प्रासादावतंसको-पासादविशेषा'विति, ते चप्रासादावतकासका अर्धतृतीयानि योजनशतानि ऊर्ध्वम् उच्चैस्त्वेन पञ्चविंशं योजनशतं विष्कम्भेन, 'अभुम्णयमूसियपहसियाविव' अभ्युद्गता-आमिमुख्येन सर्वतो विनिर्गता उत्सृताः-प्रबलतया सर्वासु दिक्षुपसृता या प्रभा तया सिता इव-बद्धा इव तिष्ठन्तीति गम्यते, अन्यथा कथमिव ते अभ्युद्गता निरालम्बाः तिष्ठन्तीति भावः, 'विविहमणिरयणभत्तिचित्ता' विविधा-अनेकमकारा ये मणयः-चन्द्रकान्तादयो यानि च रत्नानि-कर्केतनादीनि तेषां भक्तिभिः-विच्छित्तिविशेषश्चित्रा-नानारूपाः आचर्यवन्तो वा नानाविधमाणिरत्नभक्तिचित्राः, 'वाउद्धयविजयवेजयंतीपदागछताइछत्तकलिया' वातोता-बायुकम्पिता विजयः-अभ्युदयस्तत्सूचिका वैजयन्त्यभिधाना याः पताका अथवा विजया 1 इति बैजयन्तीना पार्थकणिका उच्यन्ते तत्पधाना वैजयन्त्यो विजयवैजयन्त्यः, पताकास्ता एव विजयवर्जिता छत्रातिलबाणि-उपर्यपरि
स्थितान्यातपत्राणि तैः कलिता वातोद्भूतविजयवैजयन्तीपताकाछत्रातिच्छाकलिताः, तुङ्गा-उच्चा उच्चैस्त्वेनार्द्धतृतीययोजनशतप्रमाणॐत्वात् अत एव 'गगनतलमणुलिहतसिहरा' इति गगनतलं-अम्बरतलम् अनुलिखन्ति-अभिलयन्ति शिखराणि येषां ते तथा, जालानि
जालकानि तानि च भवनभित्तिषु लोके प्रतीतानि, तदन्तरेषु विशिष्टशोभानिमित्तं रत्नानि येषु ते जालान्तररत्नाः, सूत्रे चात्र विभतिलोपःप्राकृतत्वात् , तथा पञ्जरात् उन्मीलिता इव-बहिष्कृता इव पञ्जरोन्मीलिता इव, यथा किल किमपि वस्तु पजरात-वंशादिमयाअच्छादनविशेषात् बहिष्कृतमत्यन्तमविनष्टच्छायत्वात् शोभते एवं तेऽपि मासादावतंसका इति भावः, तथा मणिकनकानि-माणिकनकमय्यः
स्तूपिका:-शिखराणि येषां ते मणिकनकस्तूपिकाः, तथा विकसितानि यानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च द्वारादौ प्रतिकृतित्वेन स्थितानि तिलकरत्नानि-भित्त्यादिषु पुण्ड्रविशेषा अर्द्धचन्द्राश्च द्वारादिषु तैश्चित्राः-तथा नानारूपा आश्चर्यभूता वा विकसितशतपत्रपुण्डरीकतिलक
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~146~
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सत्रांक
॥६९।।
[२९]
दीप अनुक्रम [२९]
मीराजपनी रत्नार्द्धचन्द्रचित्राः, तथा नाना-अनेकरूपाणि यानि मणिदामानि-मणिमयपुष्पमालास्तैरलङ्कृतानि-शोभितानि नानामणिदामालङ्क- मूर्याभकिमळयगिरी- तानि तथा अन्तर्वदिश्च श्लक्ष्णा-मसृणाः, तथा तपनीयं-सुवर्णविशेपस्तन्मय्या वालुकायाः मस्तटा प्रस्तारो येषु ते तपनीयवालुकामस्तटाः मानवर्णन या वृत्तिः | 'मुहफासा सस्सिरीयरुवा पासाईया' इत्यादि प्राग्वचेषां च प्रासादावतंसकानामन्तभूमिवर्णनमुपयुल्लोकवर्णनं सिंहासनवर्णनमुपरि
विजयदृष्यवर्णनं वज्राङ्कुशवर्णनं मुक्तादामवर्णनं च यथा प्राक् यानविमाने भावितं तथा भावनीयो तसि णमित्यादि,तेषां द्वाराणां प्रत्येक- सू० २८ मुभयोः पार्थयोरेकैकनषेधिकीभावेन या द्विधा नैषेधिकी तस्यां पादेश षोडश तोरणानि प्रज्ञप्तानि, तानि च तोरणानि नानामणिमयानीत्यादि तोरणवर्णनं यानविमानमिव निरवशेष भावनीयं, 'वेसिणं तोरणाणं पुरओ' इत्यादि, तेषां तोरणानां पुरतः प्रत्येक देशालभक्षिके, शालभतिकावर्णनं पावत्, 'तसिण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ नागदन्तको प्राप्तौं, तेषां च नागदन्त-IS कानां वर्णनं यथाऽधस्तादनन्तरमुक्तं तथा वक्तव्यं, नवरमत्रोपरि नागदन्तका न वक्तव्या अभावात् , 'तेसि णमित्यादि तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ हयसडनटी, सङ्घाटशब्दो युग्मवाची यथा साधुसङट इत्यत्र, ततो देवे हययुग्मे इत्यर्थः, एवं गजनरकिन्नरकिंपुरुषमहोरगगन्धर्वपभसङ्गाटा अपि वाच्याः, एते च कयम्भूताः? इत्याह- 'सबरयणामया अच्छा सहा' इत्यादि पावत् , यथा चामीपास हयादीनामष्टानां सङ्गाटा उक्तास्तथा पङ्खयोऽपि वीथयोऽपि मिथुनकानि च वाच्यानि, तत्र सङ्घाटाः-समानलिङ्गन्युग्मरूपा पुष्पावकीर्णकाश्च एकदिग्व्यवस्थिताः श्रेणिः-पङ्किरुभयोः पार्श्वयोरेकैकश्रेणिभावेन यत् श्रेणिदर्य सा वीथिः स्त्रीपुरुषयुग्मं मिथुनक 'तेसि णामित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो वे दे पद्मलते यावत्करणात् दे द्वे नागलते द्वे दे अशोकलने दे द्वे चम्पकलते द्वे दे चूतलते द्वे । वासन्तीलते द्वे द्वे कुन्दलते द्वे द्वे अतिमुक्तलते इति परिगृह्यते, वे वे श्यामलते, ताश्च कथम्भूता इत्याह--'णिचं कुसुमियाओ' इत्यादि
aturary.org
मूल-संपादने अब शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २९ स्थाने सू० २८ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~147~
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूत्रांक
[२९]
यावत्करणात् 'निच्चं मउलियाओ निच्चं लवइयाओ निचं थवइयाओ निच्च गुच्छियाओ निच्चं जमालयाओ निचं जुयलियाओ निच्छ । विनमियाओ निच्चं पणमियाओ निचं मुविभत्तपिण्डमञ्जरिवडिंसगधराओ निच्चं कुसुमियमउलियलवइयथवइयगुलइयगोच्छियविणमियपणमियसुविभत्तपडिमञ्जरिवर्डिसगधरीओ' इति परिगृह्यते, अस्य व्याख्यानं माग्वत् , पुनः कथम्भूता इत्याह-'सत्वरयणामया जाव पडिरूवा' इति, अत्रापि यावत्करणात् 'अच्छा सण्हा' इत्यादिविशेषणसमूहपरिग्रहः, स च माम्बद्भावनीयः, 'तेसि णामित्यादि, तेषां तोर
णानां पुस्तः प्रत्येक द्वौ द्वौ दिक्सौबस्तिको-दिमोक्षको ते च सर्वे जाम्बूनदमयाः, कचित्पाठः 'सव्वरयणामया अच्छा' इत्यादि, प्राग्वत् 'तोस डणमित्यादि द्वौ द्वौ चन्दनकलशौ प्रज्ञप्ती,वर्णकः चन्दनकलशानां 'वरकमलपइटाणा' इत्यादिरूपः सर्वःप्राक्तनो बक्तव्यः, 'तेसि णमित्यादि
द्वौ द्वौ भृङ्गारौ, तेषामपि कलशानामिव वर्णको वक्तव्यो, नवरं पर्यन्ते 'महयामत्तगयमहामुहागिइसमाणा पन्नत्ता समणाउसो!' इति वक्तव्यं । कामत्तगयमहामुहागिइसमाणा' इति मनो यो गजस्तस्य महत्-अतिविशालं यत् मुखं तस्याकृतिः-आकारस्तत्समाना:-तत्सदृशाः
प्रज्ञताः, 'तसि णमित्यादि तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वावादर्शको प्रज्ञप्ती, तेषां चादर्शकानामयमेतद्रूपो वर्णावासो-वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-तपनीयमयाः प्रकण्ठका:-पीठविशेषाः, अन्मयानि-अङ्करत्नमयानि मंडलानि यत्र प्रतिषिवसम्भूतिः 'अणोग्धसियनिम्मलाए इति अवघर्षणमवघर्षितं भावे तमत्ययः तस्य निर्मलता--अवधर्षितनिर्मलता भूत्यादिना निर्मार्जनमित्यर्थः अवधर्षितस्याभावो|ऽनवधर्पिता तेन निर्मला अनवधर्षितनिर्मला अनवधर्षितनिर्मलया छायया समनुबद्धा युक्ताः 'चन्दमण्डलपडिनिकासा'| इति चन्द्रमण्डलसदृशाः 'महया महया' अतिशयेन महान्तोकायसमानाः काया प्रमाणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण हे आयुष्मन् ! तेसि णमित्यादि तेषां तोरणानां पुरतो वे वे वज्रनाभे-बज्रमयो नाभिर्ययोस्ते वज्रनाभे स्थाले प्रज्ञप्ने तानि च स्थालानि तिष्ठन्ति,
दीप अनुक्रम [२९]
REaranMina
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~148~
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
---------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
[२९]
दीप अनुक्रम [२९]
श्रीराजमनी अच्छत्तिच्छडियतंदुलनहसंदट्ठपडिपुना इव चिट्ठति' 'अच्छा' निर्मलाः शुद्धाः स्फटिकवत् त्रिच्छटिताः-त्रीन् वारान् छदिताः अत एव सूर्याभविमळयगिरी- नखसन्दष्टाः नखा:-नखिकाः सन्दष्टा मुशलादिभिः छटिता येषां ते तथा सुखादिदर्शनात् तान्तस्य परनिपातः अच्छै खिच्छटितैः मानवर्णनं वृत्तिः शालितण्डुलैर्नवसन्दष्टैः परिपूर्णाः, पृथ्वीपरिणामरूपाणि तानि तथा केवलमेवमाकाराणीत्युपमा, तथा चाह-'सबजम्बूणयमया'
मू०२८ ॥ ७० ॥
सर्वात्मना जम्बूनदमयानि 'अच्छा सहा' इत्यादि प्राग्वत् 'महया महया' इति अतिशयेन महान्ति रथचक्रसमानानि प्रज्ञप्तानि हे श्रमण! REE आयुष्मन् ! 'तेसि णमित्यादि तेषां तोरणानां पुरतो द्वे द्वे 'पाईओ' इति पायो प्रशते, ताश्च पायः 'सक्छोदगपडिहस्थाओ'
सवाल इति स्वच्छपानीयपरिपूर्णाः 'नाणाविहस्स फलहरियस्स बहुपडिपुनाबिवे ' ति अत्र षष्ठी तृतीयार्थे 'बहु पडिपुत्रेति चैकवचना माकृतत्वात, नानाविधैः फलहरितहरितफलैर्बहु-प्रभूतं प्रतिपूर्णा इव तिष्ठन्ति न खलु तानि फलानि किं तु तथारूपाः शाश्वतभावमुपागताः पृथ्वीपरिणामास्ततः उपमानमिति, 'सबरयणामईओ' इत्यादि प्राग्वत्, 'महये ति अतिशयेन महत्यो गोकलिञ्जगचक्रसमानाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमण हे आयुष्मन् !, ' तसि णमित्यादि तेषां तोरणानों पुरतो द्वौ सुमतिष्ठको-आधारावशेषी प्रज्ञप्ती, ते च सुप्रतिष्ठकाः सुसौषधिप्रतिपूर्णा नानाविधैः पञ्चवर्णैः प्रसाधनभाण्डैश्च बहुपरिपूर्णा इव तिष्ठन्ति, उपमाभावना माग्वत् , 'सवरयणामइओ' इत्यादि तथैव, 'तेसि ण' मित्यादि तेषां तोरणानां पुरतो दे दे मनोगुलिका नाम पीठिका, उक्तं न जीवाभिगममूलटीकायां-"मनोगुलिका नाम पीठिके"ति, ताच मनोगुलिकाः सर्वात्मना वैडूर्यमय्यो 'अच्छा' इत्यादि माग्वत । तासु णं मणोगुलियासु वहवे' इत्यादि तासु मनोगुलिकासु सुवर्णमयानि रूप्यमयानि च फलकानि प्राप्तानि, तेषु सुवर्णरूप्यमयेषु फलकेषु बहवो वजमया नागदन्तकाः-अङ्कटकाः [सिबकेषु] तेषु च नागदन्तकेषु बहूनि रजतमयानि सिक्ककानि प्रज्ञप्तानि, तेषु च
SAMEnirahinel
मूल-संपादने अब शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २९ स्थाने सू० २८ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~149~
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[२९]
दीप
अनुक्रम
[२९]
मूलं [ २९ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि -प्रणीता वृत्तिः
Educat
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्तिः)
रजतमयेषु बहवो वातकरका--जलशून्याः करका मङ्गताः, तद्यथा- 'किण्हसुत्ते 'त्यादि गवच्छं-आच्छादनं गवच्छा सञ्जाता एष्विति गवच्छिकाः (ताः) कृष्णसूत्र:-कृष्णसूत्रमयैर्गवच्छिकै (तै) रिति गम्यते, सिककेषु गवच्छिताः कृष्णमूत्रसिकगगवच्छिता एवं नीलमूत्रसिकगगवच्छिता इत्याद्यपि भावनीयं, ते च वातकरकाः सर्वात्मना वैर्यमया 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् । 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ चित्रों- आश्वर्यभूतौ रत्नकरण्डको प्रशतौ 'से जहानामए' इत्यादि, स यथा नाम राज्ञश्चतुरन्तचक्रवर्त्तिनः चतुर्षु पूर्वापरदक्षिणोत्तररूपेषु अन्तेषु पृथिवीपर्यन्तेषु चक्रेण वर्धितुं शीलं यस्य तस्यैव चित्रः-- आश्चर्यभूतो नानामणिमयत्वेन नानावर्णो वा 'वेरुलियनाणामणिफलियपडलपचोयडे' इति बाहुल्येन बैडूर्यमणिमयः 'फलिहपडलपच्चोयडे' इति स्फटिकपटलावच्छादितः 'साए पभाए' इत्यादि स यथा राज्ञश्वतुरन्तचक्रवर्त्तिनः प्रत्यासन्भान् प्रदेशान् सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्ततः- सामस्त्येन अवभासयति एतदेव पर्यायत्रयेण व्याचष्टे उद्योतयति तापयति प्रभासयति 'एवमेवेत्यादि सुगमं 'तेसि णं तोरणाण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वा द्वौ हयकण्डममाणौ रत्नविशेषौ एवं गजनरकिन्नरकिंपुरुषमहोरगगन्धर्ववृषभकण्ठा अपि वाच्याः, उक्तं च जीवाभिगममलटीकाकारेण-"हयकण्ठी- हयकण्ठप्रमाणौ रत्नविशेषौ एवं सर्वेऽपि कण्ठा वाच्या" इति, तथा चाह- 'सबरयणामया' इति, सर्वे रत्नमया - रत्नविशेषरूपा 'अच्छा' इत्यादि माम्वत् । 'तेसि ण' मित्यादि तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ पुष्पचङ्गेयौं प्रज्ञते एवं माल्यचूर्णगन्धवस्त्राभरण सिद्धार्थकलो महस्तकचङ्गर्योऽपि वक्तव्याः, एताश्च सर्वा अपि सर्वात्मना रत्नमया 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत्, एवं पुष्पादीनामष्टानां पटलकान्यपि द्विद्विसङ्ख्याकानि वाच्यानि, 'तेसि णं तोरणाण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरती द्वे द्वे सिंहासने प्रज्ञप्ते, तेषां च सिंहासनानां वर्णकः प्रागुक्तो निरवशेषो वक्तव्यः, 'तेसि ण'मित्यादि तेषां तोर
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
For Parts Only
~ 150~
org
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
---------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
या वृत्तिः
सत्राक
[२९]
दीप अनुक्रम [२९]
श्रीराजमश्नी जणानां पुरतो वे द्वे छत्रे रूप्यमये प्रज्ञप्ते, तानि च छत्राणि वैडूर्यरत्नमयविमलदण्डानि जाम्बूनदकर्णिकानि वजसन्धीनि-बन- सूर्याभविमळयगिरी- रत्नापूरितदण्डशलाकासन्धीनि मुक्ताजालपरिगतानि अष्टौ सहस्राणि-अष्टसहस्रसव्या वरकाश्चनशलाका-वरकाञ्चनमय्यः शलाका मानवर्णन
येषु तानि, तथा 'दद्दरमलयसुगंधिसबोउयसुरभिसीयलछाया' इति दईर:-चीवराषनई-कुण्डिकादिभाजनमुखं तेन गालितास्तत्र पका वा ये मलय इति-मलयोद्भवं श्रीखण्डं तत्सम्बधिनः सुगन्धा ये गन्धवासास्तद्वत् सर्वेषु ऋतुषु सुरभिः शीतला चा०२८ छाया येषां तानि तथा, 'मंगलभत्तिचिचा' अष्टानां स्वस्तिकादीनां मङ्गलानां भक्त्या-विच्छित्त्या चित्रम्-आलेखो येषा तानि । तथा 'चंदागारोधमा' चन्द्राकारः चन्द्राकृतिः सा उपमा येषां तानि तथा, चन्द्रमण्डलवत् वृत्तानीति भावः, 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां तोरणाना पुरतो दे द्वे चामरे प्रज्ञले, तानि च चामराणि 'चंदप्पभवेरुलियवयरनाणामणिरयणखचितचित्तदंटाओ' इति चन्द्रप्रभःचन्द्रकान्तो वज्रं वैडूर्य च प्रतीतं चन्द्रप्रभवज्रवैडूर्याणि शेषाणि च नानामणिरत्नानि खचितानि येषु ते तथा एवंरूपावित्रा-नाना-15 कारा दण्डा येषां चामराणां तानि तथा, 'सुहुमरययदीहवालाओ' इति मूक्ष्मा रजतमया दीर्घा वाला येषां तानि तथा, 'शंखककुंशाददगरयअमयमहियफेणपुंजसन्निकासाओ' इति 'शङ्ख प्रतीतः अङ्को-रत्नविशेषः 'कुंदे ति कुन्दपुष्पं दकरज-उदककणाः अमृतम-4 थितफेणपुख:-क्षीरोदजलमथनसमुत्थः फेनपुञ्जस्तेषामिव सन्निकाशः-प्रभा येषां तानि तथा, 'अच्छा' इत्यादि प्राम्बत् ।'तेसि । तोरणाण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ तैलसमुद्गको सुगन्धितैलाधारविशेषी, उक्तं च जीवाभिगममूलटीकाकारेण-17 "तैलसमुद्को सुगन्धितैलाधारौ" एवं कोष्ठादिसमुद्गका अपि वाच्याः, अत्र सङ्ग्रहणिगाथा-तिल्ले कोट्ट समुग्गे पत्ते चोए य तगर एला ॥ ७१ ॥ य। हरियाले हिंगुलए मणोसिला अंजणसमुग्गा ॥१॥'सबरयणामया' इति एते सर्वेऽपि सर्वात्मना रत्नमया 'अच्छा इत्यादि प्राग्वत् ।
SUREmiratul
n
a
HTMasturare.org
मूल-संपादने अब शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २९ स्थाने सू० २८ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~151~
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[३०]
दीप
अनुक्रम [३०]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्तिः)
मूलं [३०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि -प्रणीता वृत्तिः
Jan Education
सूरिया णं विमाणे एगमेगे दारे अट्ठसयं चक्कज्झमाणं अट्ठसयं मिगज्झयाणं गरुडज्झायाणं छत्तज्झयाणं पिच्छज्झायाणं सउणिज्झायाणं सीहज्झयाणं उसभज्झायाणं अट्ठसय सेयाणं चउविसाणाणं नागवरकेऊणं एवमेव सपुवावरेणं सूरिया विमाणे एगमेगे दारे असीयं कउसहरूसं भवतीति मक्खायं, सूरिया विमाणे पुष्णा पण्णाट्ठि भोमा पन्नत्ता, तसि णं भोमाणं भूमिभागा उल्लोया य भाणिया, तेसि णं भोमाणं च बहुमज्झदे सभागे पंत्तयं पत्तेयं सीहासणे, सीहामणवन्नतो सपरिवारो, अवसेसेस भोमेसु पत्तेयं पत्तेयं भद्दासणा पन्नत्ता । तेसि णं दाराणं उत्तमागारा सोलसविहहिं रयणेहिं उवसोभिया, तंजहारयणेहिं जाव रिट्ठेहिं, तेसि णं दाराणं उप्पिं अट्ठट्ठमंगलगा सझया जाव छत्तातिछत्ता, एवमेव सपुवावरेणं सरियाभे विमाणे चत्तारि दारसहस्सा भवतीतिमखायं, अमांगवणे सत्तिवणे चंपवणे चूथगवणे, सूरियाभस्स विमाणस्स चउद्दिसिं पंच जोयणसयाई अत्राहाए चनारि वणसंडा पन्नत्ता, तंजहा- पुरच्छिमेणं असोगवणे दाहिणेणं सतवन्नवणे पञ्चत्थिमणं चंपगवणे उत्तरेणं चूयगवणे, ते णं वणखंडा साइरेगाई अद्धतेरस जोयणसयसहस्सा आयामेणं पंच जोयणसयाई विकखंभेणं पत्ते पत्ते पागारपरिखित्ता किण्हा किण्हाभासा वणखंडवन्नओ ॥ सू० २९ ॥ ' सूरिया णं विमाणे एगमेगे दारे अट्ठसयं चक्कज्झयाण ' मित्यादि, तस्मिन सूर्याभे विमाने एकैकस्मिन द्वारे
For Penal Use Only
मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३० स्थाने सू० २९ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~152~
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
---------- मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
मू०२९
[३०]
दीप अनुक्रम
भौराजपनी अष्टाधिक प्रतं चकध्वजाना-चक्रलेखरूपचिलोपेतानां वजानामेवं मृगगरुडरुद्धछत्रपिच्छशकुनिसिंहषभचतुर्दन्तहस्तिध्वजाना- सूर्याभविपलयगिरीमपि प्रत्येकमष्टशतमष्टशतं वक्तव्यं 'एवमेव सपुब्बावरेण' एवमेव-अनेनैव प्रकारेण सपूर्वापरेण सह पूर्वेः अपरश्च वर्तते इति मानवर्णन या वृत्तिः सपूर्वापरं सङ्ख्यानं तेन सूर्याभे विमाने एकैकस्मिन् द्वारे अशीतमशीत-अशीत्यधिकं २ केतुसहस्रं भवतीत्याख्यातं मया अन्यैश्च
तीर्थकृद्धिः, 'तसि ण' मित्यादि, तेषां द्वाराणां संबन्धीनि प्रत्येकं पञ्चषष्टिः२ भौमानि-विशिष्टानि स्थानानि प्रज्ञप्तानि, तेषां च भूमाना है ॥७२॥
भूमिभागा उल्लोकात्र यानविमानवद्वक्तव्याः, तेषां च भौमानां वहुमध्यदेशभागे यानि त्रयस्त्रिंशत्तमानि भौमानि तेषां बहुमध्यदेशभागे । प्रत्येकं प्रत्येकं सूर्याभदेवयोम्यं सिंहासनं तेषां च सिंहासनानां वर्णकोऽपरोत्तरोत्तरपूर्वादिषु सामानिकादिदेवयोग्यानि । भद्रासनानि च क्रमेण यानविमानवद्वक्तव्यानि शेषेषु च भामेषु प्रत्येकमेककं सिंहासन परिवाररहितं । 'तसि ण'मित्यादि, तेषां द्वाराणां उत्तमा आकारा-उपरितना आकारा उत्तरंगादिरूपाः कचित् 'उवरिमागारा' इत्येव पाठः, षोडशविधै रत्नैरुपशोभितास्तद्यथा-'रयणेहिं जाव रिटेहि इति रत्नैः-सामान्यतः कर्केतनादिभिर्यावत्करणात् बजः २ वैडूः ३ लोहिताक्षः ४ मसारगल्लैः ५ हंसगौंः ६ पुलकैः ७ सौगन्धिकैः ८ ज्योतीरसः ९ अङ्गैः१० अञ्जनः ११ रजतैः १२ अञ्जनपुलकैः १३ जातरूपैः १४ स्फटिकैरिति परिग्रहः १५ घोडशै रिष्ठैः १६ 'तेसि णमित्यादि, तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुपरि अष्टौ ? अष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानि इत्यादि यानविमानतोरणवत्तावद्वाच्यं यावद् बहवः सहस्रपत्रहस्तका इति, अत ऊर्दू केषुचित पुस्तकान्तरेखेवं पाठः 'एवमेव सपुषावरेणं मूरियाभे विमाणे चचारि दारसहस्सा भवतीति मक्खायामिति सुगमं 'सूरियाभस्स ण मित्यादि सूर्याभस्य विमानस्य चतुर्दिश-चतस्रो दिशः समाहृताश्चतुर्दिक तस्मिन् चतुर्दिशि चतसृषु दिक्षु पञ्च पश्च योजनशतानि
[३०]
॥ ७२॥
REsammela
N
umurary.org
मूल-संपादने अब शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३० स्थाने सू० २९ मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~153~
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ।
-------------- मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०]
दीप अनुक्रम
POR-का
'अवाहाए' इति बाधनं बाधा आक्रमणमित्यर्थः न चाधा अवाघा-अनाक्रमणं तस्यामवाधायां कृत्वेति गम्यते, अपान्तराल मुक्तोति भावः, चत्वारो वनखण्डाः प्रजाताः, अनेकजातीयानामुत्तमानां महीरुहाणां समूहो बनखण्डः, उक्तश्च जीवाभिगमाँ -'अणेगजाईहिं उत्तमेहिं रुक्खेहि वणसंडे' इति, 'तद्यथेत्यादिना तानेव वनखण्डान् नामतो दिग्भेदतश्च दर्शयति, अशोकक्षप्रधान वनमशोकवनमेवं सप्तपर्णवन चम्पकवनं चूतवनमपि भावनीय, 'पुरच्छिमेण 'मित्यादि पाठसिद्धं, अत्र | संग्रदणिगाथा-'पुण असोगवणं दाहिणतो होइ सत्तिवप्णवर्ण । अवरेणं चंपकवणं चूयवर्ण उत्तरे पासे ॥१॥ तेण'-15 मित्यादि, ते च वनखण्डाः सातिरेकानि अप्रयोदशानि-सा नि द्वादश योजनशतसहस्राणि (आयामतः) पश्चयोजन-11
शतानि विष्कम्भतः प्रत्येकं २ पाकारपरिक्षिताः, पुनः कथंभूतास्ते बनखण्डा ? इत्याह-'किण्हा किण्होभासा जाव जापडिमोयणा सरम्मा' इति यावत्करणादेवं परिपूर्णः पाठः मूचितो-नीला नीलोभासा हरिया हरियोभासा सीया सीयोभासा
निडा निदोभासा विवा तिचोभासा किण्हा किण्हरछाया नीला नीलच्छाया हरिया हरियच्छाया सीया सीयच्छाया निद्धारा निद्धच्छाया घणकडियकोडरछाया रम्मा महामेह निकुरुवभूया, ते णं पायवा मूलमंत्रो कंदमंतो खंधमंतो तयमंतो पवालमतो पत्तमंतो पुष्फर्मतो बीयमंतो फलको अणुयुत्सुनायरुइलवट्टपरिणया एगबंधा अणेगसाहपसाहविडिमा अणेगनरयामप्पसारियअगेज्मघणविपुलबट्टखंघो अच्छिदपत्ता अविरलपत्ता अवाइणपचा अणीइयपत्ता निद्धयजरडपंडुपचा नवहरियभिसंतपत्तभारंधयारगंभीरदरिसणिज्जा वणिग्गयवरतरुणपत्तपल्लवकोमलउज्जलचलंत किसलयकुमुमपबालपल्लवंकुरम्मसिहरा निच्च कुसुमिया निचं मालिया निचं लव इया निचे थवइया निचं गुलइया निचं गोच्छिया निच्च जमलिया निचं जुयलिया निच विणमिया निच्चं
[३०]
SAREnatanimal
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~154~
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१३)
------------- मूलं []
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूर
मानवर्णन
प्रत सूत्रांक [३०]
मु०३०
दीप अनुक्रम
श्रीराजपना | पणमिया निचं कुसुमियमउलियलयइयथवइयगुलइयगोच्छियजपलियजुवलियविणमियपणमियमुविभत्तपडिमंजरियडंसयधरा मु- मलयगिरी
यवरहिणमयणसलागाकोइलकोरकभिंगारककोटल नोवंजीवकनंदीमुखकविजलपिंगलकरवगकारंडचकवागकलईससारसअणेगसया दृचिः उगमिहुणवियरियसहइयमहुरसरनाइयसपिडियदरियभमरमहुयरिपहकरपरिलेत छप्पयकुसुमासबलोलमहुरगुमगुमंतगुंजैतदेसभा॥७३॥ गा अभिनर पुप्फफलवाहिरपत्तोच्छन्ना पुत्तेहि य दुप्फेहि य उवच्छन्नपलिस्छन्ना नीरोगका मउफासा अकंटगा णाणा
1. विहगुच्छगुम्ममंटनगोवसहिया विचित्तमुहरभूया वाविपुक्खरणिदीहियासु य सुनियेसियरम्मजालघरगा पिडिमनीहारिमसु
गधिमृसुरभिमणहरं च गेधदणि मुयंता मुहकेऊ रे उबहुला अणेगसगटरहजाणजुन्गगिल्लिथिल्लिसीयसंदमाणीपडिमोयणा मुरम्मा YI इति' अस्य व्याख्या-इह पायो क्षाणां मध्यमे चयसि वर्तमानानि पत्राणि कृष्णानि भवन्ति ततस्तथोगात बनखण्डा अपि MY
कृष्णाः, न चोपचारमात्रात्ते कृष्णा इति व्यपदिश्यन्ते किन्तु तथा प्रतिभासनात , तथा चाह-कृष्णावभासा यावति भागे | कृष्णावभासपाणि सन्ति तावति भागे ते वनखण्डाः कृष्णा अवभासन्ते, ततः कृष्णोऽवभासो येषां ते कृष्णावभासा इति, तथा हरितस्वमतिक्रान्तानि कृष्णत्वमसमाप्तानि पत्राणि नीलानि तद्योगाद्वनखण्डा अपि नीला, न चैतदुपचारमात्रेणोच्यते किन्तु तथावभासात , तथा चाह नीलावभासाः, समासः प्राग्वत् , यौवने तान्येव पत्राणि किसलयत्व रक्तवं चातिक्रान्तानि ईपत् हरितालाभानि पानि सन्ति हरितानीनि व्यपदिश्यन्ते, ततस्तयोगात् बनखण्डा अपि हरिता, न चैतदुपवारमात्रादुच्यते, किन्तु तथाप्रतिभासाद , नया चाह-हरितावभासाः, तथा बाल्यादतिक्रान्तानि वृक्षाणां पत्राणि शीतानि भवन्ति ततस्तद्योगादनखण्डा अपि शीता इत्युक्ताः, न च न ते गुणतस्तथा किन्तु तथैव, तथा चाह-शीतावभासाः, अधोभागवर्तिनां वैमानिक
[३०]
॥७३॥
SAMERatanim50
Baitaram.or
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~155~
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०]
दीप अनुक्रम
देवानां देवीनां तद्योगशीतवातसंस्पर्शतः ते शीता वनखण्टा अवभार.न्ते इति, तथा एते कृष्णनीलहरितवर्णा यथा स्वस्मिन् X स्वरूपे अत्यक्ते स्निग्धा भयन्ते तीवाश्च ततः तयोगात् वनखण्डा अपि स्निग्धाः तीवाश्च इत्युक्ताः, न चैतदुपचारमा किन्तु |
तथावभासोऽप्यस्ति सत उक्त-स्निग्धावभासास्तीत्रावभासा इति, इहावभासो भ्रान्तोऽपि भवति यथा मरुमरीचिकामु जलावभासस्ततो नावभासमात्रोपदर्शनेन यथावस्थित वस्तुस्वरूपं वर्णितं भवति किन्तु तथास्वरूपप्रतिपादनेन, ततः कृष्ण
त्वादीनां तथास्वरूपप्रतिपादनार्थमनुवादपुररसर विशेषणान्तरमाह-'किण्हा किण्हच्छाया' इत्यादि, कृष्णा बनखण्डाः, All कुन इत्याह-कृष्णछाया: 'निमित्तकारणहेतषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शन मिति वचनात् हेतौ प्रथमा, ततोऽयमर्थ:0 यस्मात् कृण्णा छाया-आकारः सविसंवादितया तेषां तस्मात् कृष्णाः, एतदुक्तं भवति-सर्वाविसंवादितया तत्र कृष्ण आकार |
उपलभ्यते, न च भ्रान्तावभाससंपादितसचाकः सर्वाविसंवादी भवति, ततस्तस्वकृपया ते कृष्णा न भ्रान्तावभासमात्रव्यवस्थापिता इति, एवं नीला नीलच्छाया इत्याद्यपि भावनीय, नवरं शीता: शीतच्छाया इत्यत्र छायाशब्द आतपप्रतिपक्षवस्तुवाची द्रष्टव्यः, 'धन कहितडियच्छाया' इति इह शरीरस्य मध्यभागे कटिस्ततोऽन्यस्यापि मध्यभागः कटिरिव कटिरित्युच्यते, कटि| स्तटमिव कटितट पना-अयोऽपशाखामशाखानुप्रदेशतो निविडा करितटे-मध्यभागे छाया येषां ते तथा, मध्यभागे निविडतररछाया इत्यर्थः, अत एव रम्यो-रमणीयः तथा महान् जलभारावनतम दृट्कालभावी यो मेघनिकुरुम्बो-मेघसमूहस्तं भूता-गुणैः प्राप्ता महामेघनिकु रंबभूता, महा यकृन्दोपमा इत्यर्थः। ते णं पायवा' इत्यादि, अशोकवरपादपपरिवारभूतमागुक्ततिलकादिवृक्षवर्णनवत् परिभावनीय, नवरं 'सुयचरहिणमयणसलागा' इत्यादि विशेषणमत्रोपमया भावनीय, 'अणेगसगढरहजाणे
[३०]
4
mararyana
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~156~
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------ मूलं [३१-३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
--
--
--
-
-
-
---
--
--
---
--
--
---
-
श्रीराजपनी मलयगिरी या वृत्तिः
सूर्याभविक मानवर्णन
प्रत
॥७४॥
सूत्रांक [३१-३२]
त्यादि तदाकारभावतः ॥ (मु.३०)॥ .
तेर्सि णं वणसंडाणं अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा, से जहा नामए आलिंगपुक्खरेति वा जाव णाणाविहपंचवण्णेहिं मणीहि य हणेहि य उयसाभिया, तेसिं गं गंधो फासी फेयब्धी जहकम, तेसिणं भते! तणाण य मणीण य पुवावरदाहिणुत्तरातेहिं वातेहि मंदाणं पायाणं वेइयाण कंपियाणं चालियाणं फंदियाणं घटियाणं खोभियाणं उदीरिदाण केरिसए सहे भवति?, गोंयमा! से जहा नामए सीयाए वा संदमाणीए का रहरस वा सच्छत्तरस सज्झयस्स सधंटरस सपडागरस सतोरणवरस्स सनंदिघोसस्स सखिखिणिहेमजालपरिखित्तस्स हेमवयचित्ततिणिसकणगणिज्जुत्तदारुयायरस संपिनचकमंडल धुरागरस कालायससुकरणे मिलकम्मरस आइप्यरतुरगसुसंपततस्स कुसलणरच्छेयसारहिसुसंपगहियरस सरसयपत्तीसतोणपरिमंडियस्स सकेकवावयंसगस्स सचावसरपहरणा वरणभरियजुझसज्जस्स रायंगणसि वा रायतेउरंसि वा रम्मंसि वा मणिकुहिमतलंसि अभिक्खणं अभिघहिज्जमाणरस वा नियहिज्जमाणस्स वा ओरालमणोष्णा कपणमणनिव्वुइकरा सदा सव्वओ समता अभिणिस्सर्वति, भवेयारूवे सिया !, णो इणदेससमझे, से जहाणामए वेयालीयवीणाए उत्तरमंदामुच्छियाए अंके सुपइटियाए कुसलनरनारिसुसंपरिग्गहियाते चंदणकोणपरियट्टियाए पुम्वरत्तावरकालसमयसि मंदाय मंदाय वेड्याए पवेश्याए चालि
3
दीप
अनुक्रम [३१-३२]
।।७४॥
Santantinue
amurary.au
मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३१-३२ स्थाने सू० ३० मुद्रितं
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~157~
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय" - उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [३१-३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१-३२]
दीप
याए घट्टियाए खोभियाए उदीरियाए ओराला मणुण्णा मणहरा कण्णमणनिव्वुइकरा सदा सवओ समंता अभिनिस्सर्वति, भवेयारूवे सिया?, णो इणट्टे समद्दे से जहानामए किन्नराण वा किंपुरिसाण वा महोरगाण वा गंधवाण वा भद्दसालवणगयाणे वा नंदणवणगयाणं वा सोमणसवणगयाणं वा पंडगवणगयाणं वा हिमवंतगच्छंगयमलयमंदरगिरिगुहासमन्नागयाण वा एगी सनिहियाण समागयाणं सक्रिसन्नाणं समुबविट्टाणं पमुइयपछीलियाणं गीयरइगंधव्यहसियमणाण गज्जे पाजं कत्थं गेय पयबई पायबई उक्खित्तायपयत्ताय मंदाय रोइयावसाणं सत्तसरसमन्नागयं छदोसविप्पमुक एकारसालंकार अगुणोववेय गुंतवैसकुहरोवगूढ़ रत्तं तिद्वाणकरणसुर्ज संकुलरगुंतवंसततीतलताललयगहसुसंपउत्तं महुरे समं सुललियमणोहरे मउयरिभियपयसंचारं सुति वरचारुरुवं दिव्य गर्दै सज्ज गेये पगीयाण, भवेयारवे सिया, हंता सिया ॥ (सू०३१)
तेसिणं वणसंडाणं तत्थ तत्थ तहिं देसे देसे बहओ खडाखुडियातो वाधीयाओ पुक्खरिणीओ दीहियाओ गुंजालियाओ सरपंतिआओ क्लिपतियाओ अच्छाओ सहाओ रययामयकूलाओ समतीरातो रयरामयपासाणातो तवणिज्जतलाओ सुधष्णमुम्भरययवालुयाओ बेरुलियमणिफा-. लियपडलपचोयडाओ सुओयारसु उत्ताराओ णाणामणिसुबहाओ चउकोणाओ अणुपुरासुजातर्गभीरसीयलजलाओ संन्न पत्तभिसमुणालाओ बहुउप्पलकुमुयनलिणसुभगसोगंधियपोखरीयसय
अनुक्रम [३१-३२]
SAREarattinintamanand
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~158~
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[३१-३२]
प
अनुक्रम [३१-३२]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
-
मूलं [३१-३२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
श्रीराजमश्री मलयगिरीया वृत्तिः
॥ ७५ ॥
वत्तसहस्सपत्तकेसरफुल्लोवचियाओ छप्पयपरिभुज्जमाणकमलाओ अच्छविमलसलिलपुरणाओ अपेइयाओ आसवोयगाओ अप्पेगइयाओ खोरोयगाओ अप्पेगइयाओ घओयगाओ अप्पेगइयाओ खीरोयगाओ अप्पेगआओ खारोयगाओ अप्पेगतियातो उयगरसेण पण्णत्ताओ पासादीयाओ दरिसणिजाओ अभिवाओ पडिरूवाओ तासि णं बाबीणं जाव बिलपतीर्ण पत्तेयं २ चउद्दि fear तिसोपाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तेसि णं तिसोपाणपडिरूवगाणं वन्नओ, तोरणाणं झया छत्ताछन्ताय यदा तासु णं खुड्डाखुडियासु वावीसु जाव विलपतियासु तत्थ २ देसे बहवे उपायपदमा नियइपव्वययगा जगड़पथ्वया दारुइजपवयगा दगमंडवा दगणालगा द्गमंचगा उसड्डा खुडखुड्डगा अंदोलगा पवखंदोलगा सबरयणामयाः अच्छा जाब पडिवा, तेसु णं उप्पायपसु जाव पसंदोलएसु बहुई हंसासणाई कोचासणाई गरुलासणाई उष्णया सणाई पणयासाई दीहासणाई पवखासणाई भद्दासणाई उसभासणाई सीहासणाई पउमासणाई दिसासोवथियाई सहरयणामाई अच्छाई जाव पडिख्वाइँ, तेसु णं वणसंदेसु तत्थ तत्थ तहिं तहिं देसे देसे बहवे आलियघरगा मालियघरगा कपलिघरगा लयाघरगा अच्छणघरगा पिच्छणघरगा मंडणघरगा पसाहणघरगा गम्भघरगा मोहनघरगा सालघरगा जालघरगा चित्तधरगा कुसुमघरगा गंघरगा आसघरगा सदरयणामया अच्छा जाव पडिख्वा, तेसु णं आलियघरगेसु जाव गंधव
For Parts Only
मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३१ ३२ स्थाने सू० ३० मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~ 159~
400-450 459) **०** 449) 2300 459) 400083
सूर्या भवि मानवर्णन
सू० २०
॥ ७५ ॥
rary or
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[३१-३२]
दीप
अनुक्रम
[३१-३२]
मूलं [३१-३२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
Jan Eucator
-*00046972490454200-449)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
-
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
तहिं २ घर हुई हंसासण जाब दिसासोबत्थिआसणाई सहरयणामयाई जाव पडिरुवाई | तेसु णं वणसंदेसु तत्थ तत्थ देसे २ तहि २ बहवे जातिमंडवगा जूहियमंडवगा नवमालियमंडवगा वासंतिमंडवगा सूरमल्लियमंडवगा दहिवासुयमंडवगा तंबोलिमंडवगा मुद्दियामंडवगा णागलयामंडवगा अतिमुत्तलयामंडवगा आप्फोवगामालुयामंडवगा अच्छा सहरयणामया जाय पडिरूवाओ, तेसु णं जालिमंडवसु जाव मालूया मंडबएस बहवे पुढविसिलापहगा हंसासणसंठिया tara दिसासोबत्यासणमंठिया अण्णे य बहवे मंसलघुविसिद्धठाणसंठिया पुढविसिलापगा पण्णत्ता समणाओ !, आईनरुपवरणवणीयतूलफासा सदरयणामया अच्छा जाव पडि रूवा, तत्थ णं यहवे वैमाणिया देवा य देवीओ य आसयंति सयंति चिति निसीयंति तुयहंति हसंति रमंति ललति कीलंति किति मोहेंति पुरा पोराणाणं सुचिष्णाण सुपडिकंताण सुभाण कडाण कम्माण कल. णाण कल्लाणं फलविवायगं पचणुग्भवमाणा विहरंति (सू० ३२ )
'तेसि णं चणसंडाण' मित्यादि तेषां वनखडाना:- मध्ये बहुसमरमणीया भूमिभागाः प्रज्ञप्ताः तेषां च भूमिभागानां ' से जहा नामए 'आलिंगपुत्रखरे इ वा ' इत्यादि वर्णनं प्रागुक्तं तावद्वाच्यं यावन्मणीनां स्पर्शो, नवरमत्र तृणान्यपि वक्तव्यानि तानि चैवं- 'नाणाविहपंचवष्णाहि मणीहि य तणेहि य उबसोभिया, तंजहा- किण्हेहि य नीलेहि य जाव सुकिले, तत्थ णं जे ते कव्हा तणा य मणी य तैसि णं अथमेयाख्ये वन्नावासे पन त्ते से जहानामए जीमृते वा' इत्यादि । सम्प्रति
For Pale Only
~ 160~
131 jrayog
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------ मूलं [३१-३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूर्याभवि: मानवर्णन
प्रत सूत्रांक [३१-३२]
दीप
श्रीगजननी तेषां मणीनां तृणानां च बातेरितानां शब्दरवरूपप्रतिपादनार्थमाह-'तेसि णं भंते ! तणाण य मणीण य' इत्यादि, मलयगिरी- तेषां णमिति पूर्ववत् भदन्त !-परमकल्याणयोगिन् तृणानां पूपिरदक्षिणोत्तरगतैतिर्मन्दायति-मन्द मन्दं एजितानां कम्पिया वृत्तिः तानां व्येजितानां-विशेषतः कम्पितानां, एतदेव पर्यायशब्देन च्याच कम्पितानां चालितानां-इतस्ततो मनाक् विक्षिप्ताना,
एतदेव पर्यायेण व्याचट्टे-स्पन्दिताना, तथा घट्टितानां-परस्पर संघर्षयुक्तानां, कथं घट्टिता इत्याह-क्षोभिताना, स्वस्थानाञ्चालनमपि कुत इत्याह-उदीरिता नार-मावस्येन प्रेरिताना, कीरशः शन्दः प्राप्त ?, भगवानाह-'गोयमे ' स्यादि, गौतम ! स यथानामकः शिपिकाया या स्यन्दमानिकाया चा स्थस्य वा. तत्र सिबिया जम्पानविशेषरूपा उपरिच्छादिता कोष्ठाकारा, तथा दीर्थो जम्पानविशेषः पुरुषस्वप्रमाणावकाशदा या स्यन्दमानिका, अनयोश्च शब्दः पुरुषोत्पाटितयोः क्षुद्रहेमघटिकादिच-|| लनवनतो थेदितव्यः, स्थश्वेह संग्रामस्या प्रत्येयोऽग्रेस नविशेषणानाम यथासंभवात् , तस्य च फलकवेदिका यस्मिन् काले ये ||
पुरुषास्तदपेक्षया त तिप्रमाणाऽर सेया, तस्य च रथस्य विशेषणान्यभिने-'सछत्तस्स' इत्यादि, सच्छत्रस्य सध्वजस्य जा सघण्टाकस्य-उभयपाविलम्बिमाप्रमाणघाटोपेतस्य स.पताकरय सह तोरणवर-प्रधानतोरणं यस्य ससतोरणवरस्तस्य, सह
नन्दीघोषी-द्वादश तूर्यनिनादो यस्य स सनन्दिघोषस्तस्य, तथा सह किङ्किण्या-क्षुद्रघण्टा येषामिति सकिङ्किणीकानि, हेमजालानि-यानि हेममयदामसमूहारतः सर्वास दिनु पर्यन्तेषु-बहिम्मदेषु परिक्षिमो-ध्याप्तस्तस्य, तथा हेमवत-हिमवत्पर्वतभाबि | चित्र-विचित्रमनोहारिविशेषोपेतं तिनिशतर संबन्धि कनक विरितं दारु-काष्ठं यस्य स हैमवत चित्रतैनिशकनकनियुक्तदारुकतस्य, सूत्रे च द्वितीयः ककारः स्वाथिकः पूर्वस्य च दीर्घवं प्राकृतत्वात् , तथा मुष्ठु-अतिशयेन सम्यक् पिनद्ध
अनुक्रम [३१-३२]
Telucturary.org
मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३१-३२ स्थाने सू० ३० मुद्रितं
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~161~
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------ मूलं [३१-३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१-३२]
दीप
बद्धमरकमण्डल धृव यस्य स सुसपिनकारकमंडलधूःकरतस्य, तथा कालायसेन-लोहेन मुष्ठ-अतिशयेन कृतं नेमे:-बाह्यपरिधेर्यन्त्रस्य च-अरकोपरिफलकचक्रवालस्य कर्म यस्मिन् स कालायसकृतनेमियन्त्रकर्मा तस्य, तथा आकीर्णा-गुणैाप्ता ये वरा-प्रधानास्तुरगास्ते सुरतु-अतिशयेन सम्यक प्रयुक्ता-योमिता यस्मिन् स आकीर्णवरतुरगमुसंप्रयुक्तः तस्य, प्राकृतत्वात बहुव्रीहावपि क्तान्तस्य परनिपातः, तथा सारथिकर्मणि ये कुशला नरास्तेषां मध्ये अतिशयेन डेको-दक्षः सारथिस्तेन मुष्ठसम्यक् परिगृहीतस्य, तथा 'सरसयबत्तीसतोणपरिमंडियस्स' इति शराणां शतं प्रत्येक येषु तानि शरचतानि तानि च तानि द्वात्रिंशत् तूणानि तैमण्डितः शरशतद्वात्रिंशतणमष्टितः, किरकं भवति !-एवं नाम तानि द्वात्रिंशत् शरशतभृतानि तूणानि स्थस्य सर्वतः पर्यन्तेष्ववल श्चितानि यथा तानि संग्रामायोपकल्पितस्यातीव मण्डनाय भवन्तीति, तथा कप्टका-कवचं सह कण्टको यस्य स सकण्टक: सकङ्कटोऽवतंसा-शेखरो यस्य स सकङ्कटावतंसस्तस्य, तथा सह चापं येषां ते सचापा ये शरा यानि च कुन्तमलिमुसण्डिप्रभृतीनि नानाप्रकाराणि प्रहरणानि यानि च कवचकाटकप्रमुखानि आवरणानि तैभृत:-परिपूर्णः, तथा
योधानां युद्ध तनिमित्तं सथा-प्रगुणीभूतो यः स योपयुद्ध सज्जरततः पूर्वपदेन सह विशेषणसमासः तस्य, इत्थंभूतस्य राजाङ्गणे वा 8| अन्तःपुरे वा रम्ये वा मणिकुहिमतले-मणिबद्धभूमितले अभीक्षणमभीक्ष्णं कुटिमतलपदेशे वा 'अभिघहिज्जमाणस्से ति अभि
खच्यमानस्य वेगेन गच्छतो ये उदारा मनोज्ञा कर्णमनोनिवृतिकराः सर्वतः समन्तात् जीवाभिगममूलटीकायामपि 'उप्पियं श्वासयुक्तमिति, तथा उत्-पावल्येन अतितालमस्थानतालं वा उचाल, इलक्षणस्वरंण काकस्वरं, सानुनासिकं अनुनासिकाविनिर्गतस्वरानुगतमिति भावा, तथा अगुणीववेय 'मिति अष्टभिर्गुणरुऐनमष्टगुणोपेतं, ते चाष्टावमी गुणा: पूर्ण रक्तमलस्कृत
अनुक्रम [३१-३२]
4
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~162~
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------ मूलं [३१-३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३१-३२]
श्रीराजप्रश्नी
व्यक्तमविघुष्टं मधुरं समं सललितं च, तथा चोक्तम्-" पुणं रत्तं च अलंकियं च यत्तं तहेव अविघुढे । महुरं समं सललियं अट्ठ ||सूर्याभरि. मलयगिरी
गुगा होति गेयस्स ॥१॥” तत्र यत् स्वरकलाभिः परिपूर्ण गीयते तत्पूर्ण, गेयरागानुरक्तेन यत् गीयते तत् रक्तं, अन्योऽन्यस्वरिविशेषकरणेन यदलङ्कृतमिव गीयते तदलत्कृत, अक्षरस्वरस्फुटकरणतो व्यक्त, विस्वर क्रोशतीव विघुष्ट न तथा अविघुष्ट, मधुरस्वरेण गीयमानं मधुरै कोकिलारुतवत् , तालचंशस्वरादिसमनुगत समं, तथा यत् स्वरघोलनाप्रकारेण लसतीच तत् सह ललि
मू०३० ॥७ ॥
तेन-ललनेन वर्तत इति सललित, यदिया यत् त्रिन्द्रियस्य शब्दस्य स्पर्शनमतीव सूक्ष्ममुत्पादयति सुकुमारमिव च पविभासते
तत् सललितं । इदानीमतेषामेवाष्टानां मध्ये कियतो गुणान् अन्यच्च प्रतिपिपादयिषुरिदमाह-रत्तं तिहाणकरण मुद्ध' तत् CLII 'कुहरगुंजत सततीतलताललयगासुसप महुरं सम सलालियं मणोहरं मज्यरिभियपयसंचार सुरई सुनर्ति वरचारुरूवं दिवं
नट्टे सज्ज गेयं पगीयाणमिति यथा माक नाट्यविधौ व्याख्यातं तथा भावनीयं 'जारिसए सद्दे हवइ' प्रगीतानां-गातुमारब्धवता यादृशः शब्दोऽतिमनोहरो भवति-स्यात-कथंचिद्भयेदेतद्रुपस्तेषां तृणानां मणीनां च शब्द: १, एवमुक्ते भगवानाइ-गौतम! स्यादेवंभूतः शब्दः ।। । ०३१)
'तेसि णं वणसंडाण मित्यादि, वेषां 'ण मिनि वाश्यालद्वारे वनखा टानां मध्ये तत्र तत्र देशे 'तत्र तो तितस्यैव देशस्य तत्र तत्र एकदेशे 'बहूई' इति यहथः 'खुडाखुड़ियाओ' इति शुष्टिकालिका लघवो लघवी इत्यर्थः, वाप्यश्चतुरस्राः पुक्खरिण्यो वृत्ताकारा अथवा पुष्कराणि विद्यते यासु ताः पुरकरिष्यो दीपिका-ऋषयो नयः वक्रा नधो गुमालिकाः, बहूनि केवलकेवलानि पुष्पारकीर्णकानि सरांसि एकपतया व्यवस्थितानि सरस्परितः सललितास्ता बहळ्यः सरपङ्
॥७ ॥
दीप
अनुक्रम [३१-३२]
REmiratani
Homurary.au
मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३१-३२ स्थाने सू० ३० मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~163~
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [३१-३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१-३२]
दीप
क्तयः तथा येषु सरासु पङ्तया व्यवस्थितेषु कूपोदकं प्रणालिकया संचरति सा सरम्पतिः ता बहन्यः सरासर पतयः, तथा विलानीव विलानि-कूपास्तेषां पङ्क्तयो बिलपङ्क्तयः, एताच सर्वा अपि कथंभूता इत्याइ-अच्छा:-स्फटिकवद्दहिर्निर्मलपदेशाः श्लक्ष्णा:-दलक्ष्णपुद्गलनिष्पादितबहिम्मदेशाः लक्ष्णदलनिष्पन्नफ्टवत् , तथा रजतमयं-रूप्यमयं कूल यासा ता रजतमयकूला:, तथा समं न गाभावात् विषमं तीरं-तीरवर्तिजलापूरितं स्थानं यास ताः सपतीराः, तथा वनपयाः पाषाणा यासां ता वनमयपापाणाः, तथा तपनीय-हेमविशेष: तपनीयमयं तले यासां वास्तपनीयतला, तथा "सुवष्णसुजझरययवालुयाउ' इति सुवर्ण-पीसकान्ति हेम मुम्भ-रूप्यविशेषः रजतं-प्रतीतं तन्मया बालुका यासु ताः सुवर्णमुम्भ
रजतवालुकाः, 'वेरुलियमणिफलिहपडलपच्चोयडाओ' इति वैडूर्यमणिमयानि स्फटिकपटलमयानि च प्रत्यवतटाall नि-तटसमीपवर्तिनः अत्युन्नतप्रदेशा यासां ता वैडूर्यमणिस्फटिकपटलपत्यवतटाः, 'सुओयारसुउत्ताराउ' इति |
मुखेनावतारो-जलमध्ये प्रवेशनं यासु ताः मुखावतारा! तथा मुखेन उत्तारो-जलमध्याहहिनिर्गमनं यासु ताः मुखो*ातारास्ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, 'नानामणितित्थसुबहाउ' इति नानामणिभिा-नानाप्रकारैर्मणिभिस्तीर्थानि |
मुबद्धानि यासां ना नानामणितीर्थसुबद्धाः, अत्र बहुव्रीहावपि तान्तस्य परनिपातः मुखादिदर्शनाद् प्राकृत शैलीवशावा |'चउकोणाउ' इति चत्वारः कोणा यासां ताश्चतुम्कोणा, एतच्च विशेषणं वापी: कूपांच प्रति द्रष्टव्यं, तेषामेव चतु
कोणत्वसंभवात् न शेषाणां, तथा आनुपूर्पण-क्रमेण नीचैस्तराभावरूपेण सुष्टु-अतिशयेन यो जातवमा केदारो जल- स्थानं तत्र गम्भीर-अलब्धस्ता शीतल जलं यामु वा आनुपूर्व्यमुनातयमगम्भीरशीतलजला, 'संछन्नपत्तभिसमुणा
अनुक्रम [३१-३२]
SANEmirathindi
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~164~
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------ मूलं [३१-३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१-३२]
दीप
श्रीराजप्रश्नी
लाउ' इति संछन्नानि-जलेनान्तरितानि पत्रविसमृणालानि यासु ताः संलन्नपत्रविसमृणालाः, इह बिसमृणालसाहचर्यात् FTण मलयगिरीया वृत्तिः
पत्राणि पमिनीपत्राणि द्रष्टव्यानि, विसानि-कन्दाः मृणालानि-पानाला, तथा बहुभिरुत्पलकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रैः केसरैः-केसरमधानः फुल्ली-विकसितैरुपचिता बहूत्पलकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकशतप
मु०३० ॥ ७८॥18 प्रसहस्रपत्रकेसरफल्लोपचिताः, तथा षट्पदैः भ्रमरैः परिभुज्यमानकमला:, तथा अच्छेन-स्वरूपतः स्फटिकवत् शुद्धेन |
विमलेन-आगन्तुकमलरहितेन सलिलेन पूर्णा अच्छविमलसलिलपूर्णाः, तथा पडिहत्या-अतिरेकिता अतिप्रभूता इत्यर्थः 'पडिहत्यमुद्रमाय अतिरिययं जाणमाउण्ण' मिति वचनाव, उदाहरणं चात्र-'घणपदिहत्यं गपणं सराइ नवसलिलबद्ध-17) मायाई । अइरेइयं मह उण चिंताए मण तहं विरहे ॥१॥ इति, भ्रमन्तो मत्स्यकच्छपा यत्र ताः परिहत्यभ्रमनमत्स्यकच्छपाः, IA तथा अनेकैः शकुनिमिथुनकैः प्रविचरिता-इतस्ततो गमनेन सर्वतो व्याप्ताः अनेकशकुनिमिथुनकाविचरितास्ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, एता वाप्यादयः सरस्सर-पक्तिपर्यन्ताः 'प्रत्येकं प्रत्येक प्रति प्रत्येकमत्राभिमुख्ये प्रतिशब्दस्ततो वीप्साविवक्षायां पश्चात्मत्येकशब्दस्य द्विवचनमिति, पद्मवरवेदिकया परिक्षिप्ताः, प्रत्येकं प्रत्येक वनखण्डपरिक्षिप्ताः, 'अप्पेगइयाउ इत्यादि, अपिढिार्थ वाढमेकका:-काश्चन वाप्यादय आसवमिव-चन्द्रहासादिपरमासवमिव उदकं यासांता आसवोदका, अप्येकका वारुणस्य-वारुणसमुद्रस्येव उदकं यासांता बारुणोदकाः, अप्येकका क्षीरमिव उदकं यासां ताः क्षीरोदकाः, अप्येकका घृतमिव उदकं यासां ता घृतोदकाः, अप्येककाः क्षोद इव-इक्षुरस इत्र उदकं यासां वाः क्षोदोदकार, अप्येकका स्वाभाविकेन उदकरसेन भवताः, 'पासाइया' इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वछ । 'तासि ण' मित्यादि, तासां क्षुल्लिकानां वापीनां यावद्वि
॥७ ॥
अनुक्रम [३१-३२]
मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३१-३२ स्थाने सू० ३० मुद्रितं
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~165
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय"-:
------------- मूलं [३१-३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१-३२]
दीप
| लपङ्क्तोनामिति यावत्शब्दाद पुष्करिण्यादिपरिग्रहा, प्रत्येकं चतुदीश चत्वारि एकैकस्यां दिशि एकैकस्य भावात् त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि-पतिविशिष्टरूपाणि त्रिसोपानानि, त्रयाणां सोपानानां समाहार खिसोपानं, तानि मनप्तानि, तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणामय-वक्ष्यमाणः एतद्रुपः-अनन्तरं वक्ष्यमाणस्वरूपो वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तस्तद्यथा बज्ररत्नमया वंगा इत्यादि प्रामत् । 'तेसिणं तेषां त्रिसोपानपतिरूपकाणां प्रत्येक तोरणानि प्रज्ञप्तानि, तोरणवर्णकस्तु निरवशेषो यानविमानबद्भावनीयो यारदर बहवः सहस्रपत्रहस्तका इति, 'तासि ण 'मित्यादि, तासां क्षुल्लिकाक्षुल्लिकानां यावद् विलपतीनां, अत्रापि यावच्छब्दात् पुष्करिण्यादिपरिग्रहः, तत्र तत्र देशे तस्यैव देशस्य तत्र तत्र एकदेशे बहब उत्पातपर्यंता यत्रागत्य बहवः सूर्याभविमानवासिनो वैमानिका देवा देव्यच विचित्रक्रीडानिमित्तं वैक्रियशरीरमारचयति, नियइपचया' इति नियत्या-नयत्येन व्यवस्थिताः पर्वता नियतिपर्वताः, कचित 'निययपञ्चया' इति पाठः, तत्र नियता:-सदा भोग्यत्वेनावस्थिताः पर्वता नियतपर्वताः, यत्र सूर्याभविमानवासिनो वैमानिका देवा देव्यथ भवधारणीयेनैव वैक्रियशरीरेण सदा रममाणा अवतिष्ठन्ते इति भावः, 'जगईपचया' इति जगतीपर्वतकाः पर्वतविशेषाः, दारुपर्वतका-दारुनिर्मापिता इव पर्वतकाः, 'दगमंडवा' इति दकमण्डपा:-स्फाटिका: मंडपाः, उक्त च जीवाभिगममूलर्टीकायां-"दगमण्डपा:-स्फाठिका मण्डपा" इति, एवं दकमञ्चकाः दकमालका दकपासादाः, एते च दकमण्डपादयः केचित् 'उसड्डा' इति उत्सृता उच्चा इत्यर्थः, केचित् 'खुड्डा खुड्ड'त्ति क्षुल्लुकाः क्षुल्लका इति, तथा अन्दोलकाः पक्ष्यन्दोलकाच, इह यत्रागत्य मनुष्या आत्मानमन्दोलयति तेऽन्दोलका इति लोके प्रसिद्धाः, यत्र तु पक्षिण आगत्यात्मानभन्दोलयति ते पक्ष्यन्दोलकाः, तत्र अन्दोलकाः पक्ष्यन्दोलकाश्च तेषु वनखण्टेषु तत्र २ प्रदेशे देव
अनुक्रम [३१-३२]
SAREmirathinindTHI
ITIIMorary.org
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~166~
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
----------- मूलं [३१-३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजप्रश्नी या वृत्तिः
सूर्याभविमानवर्णन
प्रत सूत्रांक [३१-३२]
॥ ७९ ॥
क्रीडायोग्या बहवः सन्ति, एते च उत्पातपर्वतादयः कथंभूता ? इत्याह-'सर्वरत्नमयाः ' सर्वात्मना रत्नमयाः, अच्छा सहा | इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् । तेसुण मित्यादि, तेषु उत्पातपर्वतेषु यावत्पक्ष्यन्दोलकेषु, यावत्करणान्नियतिपर्वतकादिपरिप्रहः, बहूनि इंसासनादीनि आसनानि, तत्र येषामासनानामधो भागे ईसा व्यवस्थिता यथा सिंहासने सिंहाः तानि इंसासनानि, एवं क्रोश्चासनानि गरुडासनानि च भावनीयानि, उन्नवासनानि-चासनानि प्रगतासनानि-निम्नासनानि दीर्घा-|| सनानि-शय्यारूपाणि भद्रासनानि येषामधो भागे पीठिकावन्धः पक्ष्यासनानि येषामधो भागे नानास्वरूपाः पक्षिणः, एवं मक- | रासनानि सिंहासनानि च भावनीयानि, पद्मासनानि-पद्माकाराणि आसनानि, 'दिसासोवत्थियासणाणि' येषामधो भागे दिक्-1 सौवस्तिका आलिखिताः सन्ति, अत्र यथाक्रमपासनानां संग्रहणिगाथा-'इसे कोंचे गरुडे उण्णय रपए य दीह भदेय । पक्से |
मयरे पउमे सीह दिसासोस्यि वारसमे ॥१॥ इति,तानि सर्वाग्यपि कथंभूतानीत्यत आह-'सबरवणामयाई त्यादि पाग्वत् । Til'तेसि ण 'मित्यादि, तेषु वनखण्डेषु मध्ये तत्र २ प्रदेशे तस्यैव देशत्य तत्र तत्र एकदेशे बद्दनि 'आलिगृहकाणि' आलि:-वनC स्पतिविशेषः तन्मयानि गृहकाणि आलिगृहकाणि, मालिरपि वनस्पतिविशेषः तन्मयानि गृहकाणि मालिगृहकाणि, कदली-1 II गृहकाणि लतागृहकाणि च प्रतीतानि, 'अच्छणघरकाणि' इति अवस्थानगृहकाणि येषु यदा तदा वा आगत्य सुखा
सिकया अवतिष्ठन्ति, मेक्षणकगृहकाणि यत्रागत्य प्रेक्षणकानि विदधति निरीक्षन्ते च, मजनकगृहकाणि यत्रागत्य स्वेच्छया II मजनक कुर्वन्ति, 'प्रसाधनगृहकाणि' यत्रागत्य स्वं परं च मण्डयन्ति 'गर्भगृहकाणि' गर्भगृहाकाराणि 'मोहणघरा-IAL साइन्ति मोहन-मैथुनसेवा 'रमियं मोहणरयाई' इति नाममालावचनात् तत्पधानानि गृहकाणि मोहनगृहकाणि, वासभव
दीप
अनुक्रम [३१-३२]
॥७९॥
मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३१-३२ स्थाने सू० ३० मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~167~
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय" - उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [३१-३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१-३२]
दीप
* नानीति भावः, शालागृहकाणि-पट्टशालामधानानि, जालगृहकाणि-गवाक्षयुक्तानि गृहकाणि, कुमुमगृहकाणि-कुसुपर करो
पचितानि गृहकाणि, चित्रगृहकाणि-चित्रप्रधानानि गृहकाणि गन्धर्वगृहकाणि-गीतनृत्ययोग्यानि गृहकाणि आदर्शगृहकाणि-आदर्शमयानीव गृहकाणि, एतानि च कथंभूतानीत्यत आह-सवरयणामया' इत्यादि विशेषणकदम्बकं पाग्वत् । 'तेसि ण' मित्यादि, तेषु आलिगृह केषु याबदादर्शगृहकेषु, अत्र यावत्शब्दात् मालिगृहकादिपरिग्रहा, 'बहूनि हंसासनानि' इत्यादि माग्वत् । 'तेसि ण 'मित्यादि, तेषु वनखण्डेषु तत्र तत्र देशे तस्यैव देशस्य तत्र तत्र एकदेशे बहवो जातिमण्डपका यूथिकामण्डपका मल्लिकामण्डपका नवमालिकामण्डपका वासंतीमण्डपका दधिवासुकामण्डपकाः, दधिवासुका-वनस्पतिविशे| पस्तन्मया मण्डपका दधिधामुकामण्डपकाः, सूरुल्लिरपि बनस्पतिविशेषः तन्मया मण्डपकाः२, ताम्बूली-नागवल्ली तन्मया |X मण्डपकास्तांबूलीमण्डपकाः, नागो-मविशेषः, स एव लता नागलता, इह यस्य तिर्यक् तथाविधा शाखा प्रशाखा चा न प्रम
ता सा लतेत्यभिधीयते नागलतामयामण्डपका नागलवामण्डपकाः, अतिमुक्तमण्डपका:, 'अप्फोया' इति वनस्पति विशेषस्तन्मया 2 मण्डपका अफोयामण्डपकाः, मालुका-एकास्थिकफला वृक्षविशेषास्तद्युक्ता मण्डपका मालुकामण्डपकाः, एते च कथंभूता इत्या-
ह-'सबरयणामया' इत्यादि प्राग्वत्। 'तेसि ण 'मित्यादि, तेषु जातिमण्डपकेषु यावन्मालुकापण्डपकेषु जावशब्दात् यूथिकामण्डपकादिपरिग्रहः, बहवः शिलापट्टकाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-अप्येकका हंसासनवत् संस्थिता इंसासनसंस्थिता यावद-18 प्येकका दिक्सौवस्तिकासनसंस्थिताः, यावत्करणात् 'अप्पेगड्या हंसासणसंठिया अप्पेगइया गरुडासणसंठिया अप्पेगइया उणयासणसंठिया अप्पेगइया पणयासणसं दिया अप्पेगइया दीहासणसंठिया अपेगइया भद्दासणसैठिया अप्पेगइया
अनुक्रम [३१-३२]
REnications
S
uniorary.orm
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~168~
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
----------- मूलं [३१-३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजमणी सायगिराया दृत्तिः ।
प्रत सूत्रांक [३१-३२]
॥८
॥
दीप
परखा अप्प आयसासणसठिया अप्पेगइया उसभासगसैठिया अपेगइया सिहासणसंठिया अप्पेगइया पउमासणसंठिया सूर्याभ इति परिग्रहः, अन्ये च बहवः शिलापट्टका यानि विशिष्टचिन्हानि विशिष्टनामानि च बराणि-प्रधानानि शयनानि मानवणन | आसनानि च तद्वत् संस्थिता वरशयनासनविशिष्टसंस्थानसंस्थिताः, कचित् 'मांसलसुघट्टबिसिहसंठाणसंठिया' इति | पाठा, तवान्ये च बहवः शिलापट्टकाः मांसलाः अकठिना इत्यर्थः सृष्टा अतिशयेन महणा इतिभावः विशिष्टसंस्थानसंस्थिताश्चेति, 'आईणगरूयचूरनवणीपतृलफासमउया सबरयणामया अच्छा जाव पहिरूवा' इति, प्राग्वत् , तत्र तेषु उत्पादपर्वतादिगतइंसासनादिषु यावन्नानारूपसंस्थानसंस्थितपृथ्वीशिलापट्टकेषु णमिति पूर्ववत् बहवः सूर्याभविमानबासिनो देवा देव्यश्च यथासुखमासते शेरते-दीर्घकायप्रसारणेन वर्तन्ते न तु निद्रां कुर्वति, तेषां देवयोनिकत्वेन निद्राया। अभावात् , तिष्ठन्ति-ऊर्ध्वस्थानेन वर्तन्ते निषीदन्ति-उपविशति तुयटुंति-वरवर्तनं कुर्वन्ति, वामपार्बत: परात्य दक्षिणपानावतिष्ठन्ति दक्षिणपार्वतो वा परात्य वामपानेति भावः, रमन्ते-रतिमावघ्नन्ति ललन्ति-मनईप्सितं यथा भवति तथा वर्तन इति भावः, क्रोडन्ति-यथासुखमितस्ततो गमनविनोदेन गीतनृत्यादिविनोदेन वा तिष्ठन्ति मोहन्ति-पैथुनसेवा कुर्वन्ति इत्येवं 'पुरापोराणाण' मित्यादि पुरा-पूर्व प्राग्भवे इति भावः कृतानां कर्मणामिति योगः, अत एव पौराणानां मुचीर्णाना-मुचरितानां, इह सुचरितजनितं कर्मापि कार्य कारणोपचारात् मुचरितं, ततोऽयं भावार्थ:-विशिष्टतथाविधधर्मानुष्ठानविषयाप्रमादकरणक्षान्त्यादिसुचरितजनितानामिति, तथा सुपराकान्तानां, अत्रापि कार्य कारणोपचारात् सुपराक्रान्तिजनितानि सुपराक्रान्तानि इत्युक्तं, किमुक्तं भवति -सकलसवमैत्रीसत्यभाषणपरद्रव्यानपहारसुशीलादिरूपसुप
अनुक्रम [३१-३२]
॥८
॥
मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३१-३२ स्थाने सू० ३० मुद्रितं सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~169~
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------ मूलं [३१-३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१-३२]
दीप
राक्रमजनितानामिति, अत एव शुभानां शुभफलानां, इह किंश्चिदशुभफलपपि इंद्रियमतिविपर्यासात् शुभफलं प्रतिभासते ततस्ताविकशुभत्वविपत्यर्थमस्यैव पर्यायशब्दमाह-कल्याणानां, तच्चया तथाविधविशिष्टफलदायिनां, अथवा कल्याणानां अनपिशमकारिणां कल्याणरूपं फलविपाक 'पञ्चणुब्भवमाणा' प्रत्येकमनुभवन्तो विहरन्ति-आसते ।। (मू०३२)॥
तेसि णं वणसंडाणं बहमज्झदेसभाए पत्तेयंर पासायवडंसगा पण्णता, ते णं पासायवडेंसगा पंचजोयणसयाई उडू उच्चत्तेणं अडाइजाई जोयणसयाई विक्खंभेणं अम्भुग्गयमूसियपहसिया इव तहेव बहुसमरमणिज्जभूमिभागो उल्लोओ सीहासणं सपरिवारं, तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया जाव पलिओमद्वितीया परिवसति, तंजहा-असोए सत्तपणे चंपए चूए। सूरियाभस्साणं देवविमाणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, संजहा-वणसंडविहणे जाव बहवे बेमाणिया देवा देवीओ य आसयंति जाव विहरंति, तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसे एत्थ गं महेगे उचगारियालयणे पण्णते, एग जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिणि जीय
सयसहस्साई सोलस सहस्साई दोणि य सत्तावीसं जोयणसए तिन्नि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस य अंगुलाई अगुलं च किंचिविसेसूर्ण परिक्खेवेणं, जोयणचाहलेणं, सपजंबूणयामए अच्छे जाव पडिरूवे ॥ (सू०३३)॥ 'तेसिण' मित्यादि, वेषां वनखण्डानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येक प्रत्येक प्रासादावतंसका इति, अवतंसक इव-शे
अनुक्रम [३१-३२]
REaratining
सूर्याभविमानस्य वर्णनं
~170~
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सकवउपरि
प्रत
सुत्रांक [३३]
श्रीराजपनी
खरक इवावतंसका पासादानापवर्तसक इव प्रासादावतंसकः प्रासादविशेष इति भावः, ते च प्रासादावतंसकाः पञ्च पासादावत मलयगिरी-A या वृत्तिः |
योजनशतान्यूर्वमुच्चैस्त्वेन अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भतः, तेषां च 'अभुग्गयमूसियपहसियाविव' इत्यादिविशेषणजातं प्राग्वत् , भूमिवर्णनं उल्लोकवर्णनं सपरिवारं च भाग्यम् , 'तत्य ण' मित्यादि, तत्र-तेषु वनखण्डेषु प्रत्येकमे
कालयनव ॥८ ॥ कै कदिग्भावेन चत्वारो देवा महर्द्धिका यावत्करणात् 'मह जइया महादला महामुक्खा महाणुभावा' इति परिग्रहः, पल्यो
पमस्थितिकाः परिवसन्ति, तयथा-' असोए' इत्यादि, अशोकवने अशोकः सप्तपर्णवने सप्तपर्णः चंपकवने चंपकचतवने || चूतः' 'ते ण' मित्यादि, ते अशोकादयो देवाः स्वकीयस्य बनखण्डस्य स्वकीयस्य प्रासादावतंसकस्य, सूचे बहुवचनं पाकृतत्वात्, प्राकृते हि वचनव्यत्ययोऽपि भवतीति, स्वस्वकीयानां सामानिकदेवानां स्वासा स्वासामग्रमहिपीणां सपरिवाराणां स्वासां स्वासां परिषदां स्वेषां रथेषामनीकानां स्वैपां स्वेषामनीकाधिपतीनां स्वेषां स्वेपामात्मरक्षाणां 'आहेवच्छ
पोरेवर्च' इत्यादि भाग्यद, 'सूरियाभस्स ण' मित्यादि, सूर्याभस्य विमानस्यान्तः-मध्यभागे बहुसमरमणीयो ला भूमिभागः प्राप्तः, तस्य से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा' इत्यादि यानविमान इव वर्णने तावदारय यावन्मणीनां ||
स्पर्शः, तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अब मुमहत् एकं उपकारिकालयनं प्राप्त, विमानाधिपतिसत्कप्रासादावतंसकादीन अपकरोति-उपष्टनात्युपकारिका, विमानाधिपतिसत्कपासादावतंसकादीनां पीठिका, अन्यत्र सियापकाोपकारिकेति प्रसिद्धा, उक्तं च "गृहस्थानं स्मृतं राज्ञामुपकार्योपकारिके"ति, उपका रिकालयनमिव उपकारिकालयन, वत एक योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भाभ्यां प्रोणि योजनशतसहस्राणि पोडश सहस्राणि द्वे योजनभते सप्तविंशत्यधिक अष्टा
1600-00-400-1404
दीप अनुक्रम
[३३]
**400-4600-
~171~
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय"-:
-------------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक [३३]
दीप अनुक्रम
विशं धनुःशर्त त्रयोदश अङ्गलान्याङ्गलं परिक्षेपतः, इदं च परिक्षेपप्रमाणं जबूद्वीपपरिक्षेपममाणवत् क्षेत्रसमासटीकाता। परिभावनीयम् ॥
से णं एगाए पउमवरवेझ्याए एगेण य वणसंडेण य सबतो समंता संपरिखिते, साणं पउमवरवे. इया अडजोयणं उई उच्चत्तेणं पंचधणुसयाई विक्खंभेणं उधकारियलेणसमा परिक्खेवेणं, तीसे णं पउमवरवेइयाए इमेयारूवे वण्णावासे पपणत्ते, तंजहा-वयरामया णिम्मा रिहामया पतिढाणा बेरुलियामया खंभा सुवण्णरुप्पमया फलगा लोहियक्खमइओ मईओ नाणामणिमया कडेवरा णाणामणिमया कडेवरसंघाडगा णाणामणिमया रूवा णाणामणिमया रूवसंघाडमा अंकामया पक्खवाहाओ जोइरसामया बंसा बंसकवेलुगा रइयामइओ पहियाओ जातरूवमई ओहाडणी वइरामया उवरिपुच्छणी सारयणामई अच्छायणे, साणं पउमवरवेझ्या एगमेगेणं हेमजालेणं गवक्खजालेणं विखिणीजालेणं धंदाजालेण मुत्ताजालेणं मणिजालेणं कणगजालेणं रयणजालेणं पउमजालेणं सवतो समंता संपरिक्खित्ता, ते णं दामा तवणि जलंबूसगा जाव चिट्ठति । तीसे णं पउमवरवेझ्याए तत्थर देसे २ तहिं २ पहवे हयसंघाडा जाव उसभसंघाडा सबरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा पासादीया ४ जाव वीहीतो पतीतो मिहणाणि लयाओ। सेकेणद्वेणं भते! एवं बुपति-पउमवरवेड्या २१, गोयमा ! परमवरवेझ्या ण तत्थ २ देसे २ तहिं २ वेइयासु बेइयाबाहामु य वेइयफलतेसु य
[३३]
~172~
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
--------- मूलं [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजमश्नी मलयगिरी या वृत्तिः ॥८२॥
पन्नवरवेदिकाय.
प्रत
सत्रांक
मू.३४
[३४]
वेड्यपुडतरेसु य खंभेसु खंभवाहासु खंभसीसेसु खंभपुटंतरेसु सुयीसु सुयीमुखेसु मईफलएम मईपुटतरेसु पक्खेसु पक्ववाहासु पक्खपेरैतेसु पक्खपुडतरेसु बहुयाई उप्पलाई पउमाई कुमुयाई णलिणाति सुभगाई सोगंधियाई पुंडरीयाई महापुंडरीयाणि सयवत्ताई सहस्सवत्ताईसबरयणामयाई अच्छाई पडिरूवाई महया वासिकयछत्तसमाणाई पण्णत्ताई समणाउसो!, से एएणं अट्ठणं गोयमा! एवं बुबह-पउमवरवेड्या २१ पउमवरवेइया णं भंते ! किं सासया०१,गोयमा! सिय सासया सिय असासया, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुबइ-सिय सासया सिय असासया ?, गोयमा! दबयाए सासया वन्नपजवेहिं गंधपजवेहिं रसपजवेहिं फासपजवेहिं असासया, से तेणट्टेणं गोयमा! एवं खुवति-सिय सासया सिय असासया। पउमवरवेझ्याणं भंते ! कालओ केवचिरै होइ?, गोयमा! ण कयाधिणासि ण कयावि णत्थि न कयावि न भविस्सइ, भुपिं च हवइ य भविस्सइय, धुवा णिइया सासवा अक्खपा अहया अवडिया णिच्चा पउमवरवेश्या । से ण वणसंडे देणाई दो जोयणाई चकवालविक्खं भेणं उवयारियालेणसमे परिक्खेवेणं, वणसंडवणतो भाणितयो जाव विहरति । तस्स र्ण उवयारियालेणस्स चउदिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पणत्ता वण्ण ओ, तोरणा झया छत्ताइच्छता, तस्स णं उवयारियालयणस्स उवरि बहसमरमणिज्जे भूमिभागे पपणने जाय मणीणं फासो॥ (मू०३४)
दीप अनुक्रम [३४]
॥
२॥
SAREaratunind
For P
OW
~173~
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
-400
0
सूत्रांक [३४]
दीप अनुक्रम [३४]
तच एकया पचवरयेदिकया एकेन वनखण्डेन सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समन्ततः-सामस्त्येन सम्यग् परिक्षिप्त 'साणं पउमवरवेइया' इत्यादि, सा पद्मवरवेदिका अर्द्ध योजनमूर्ध्वमुच्चैस्त्वेन पञ्च धनुःशतानि विष्कम्भतः परिक्षेपेण 'उपकारिका| लयनसमाना' उपकारिकालयनपरिक्षेपपरिमाणा प्रशता, 'तीसे ' मित्यादि, तस्याः-पनवरयेदिकाया अयमेतद्रूपो 'वर्णावासो' वर्णः-इलाघा यथावस्थितस्वरूपकीर्तनं तस्यावासो-निवासो ग्रन्थपद्धतिरूपो वर्णावासो, वर्णकनिवेश इत्यर्थः, प्रज्ञतो मया शेषतीर्थकरैश्य, तद्यथेत्यादिना तमेव दर्शयति, इह सूत्रपुस्तकेष्वन्यथाऽतिदेशबहुल: पाठो दृश्यते ततो मा भून्मतिसंमोह इति विनेयजनानुग्रहाय पाठ उपदयते-'वयरामया णिम्मा रिट्ठामया पइट्ठाणा येरुलियामया खंभा सुवन्नरुप्पमया फलया लोहियक्खमईओ मूई ओ बइरामया संधी नानामणिमया कडेवरा णाणामणिमया कलेबरसंघाडा नानामणिमया रूवा नानामणिमया रूबसंघाडा अंकामया पक्खा अंकामया पक्खबाहाओ जोईरसामया बसा सकवेल्लया रईयामइओ पट्टियाओ || जायसवमई ओहाडणी वयरामइ उवरिपुंटणी सहरयणामए अच्छायणे एतत् सर्वं द्वारवत् भावनीय, नवरं कलेबराणिमनुष्यशरीराणि कलेवरसंघाटा-मनुष्यशरीरयुग्मानि रूपाणि-रूपकाणि रूपसंघाटा-रूपकयुग्मानि, 'साण पउमवरयेइया तत्थरदेसे एगमेगेगं हेमजालेणं एगमेगेणं गवक्खजालेणं एगमेगेणं घंटाजालेणं एगमेगेणं खिखिणीजालेणं एगमेगेण मुत्ता
जालेणं एगमेगेणं कणगजालेणं एगमेगेणं मणिनालेणं एगमेगेणं स्ययजालेणं एगमेगेणं सचरयणजालेणं एगमेगेणं पउमजालेणं ॥ सबतो समंता संपरिखित्ता, ते णं जाला तवणिज्जलंबूसमा सुबन्नपयरमंडिया नानामणिरयणयिविहहारद्धहारउबसोभियस| मुद्धयरूवा इसिमनमनमपत्ता पुवावरदाहिणुत्तरागरहि वाएहिं मंदार्य मंदायमेइज्जमाणा पइज्जमाणा पलंघमाणा२ प झमा
500-1000%20%20%200-400
RTAIN
~174~
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३४]
दीप अनुक्रम [३४]
श्रीराजमनीणा पत्रमाणा ओरालेणं मणुनेण मणहरेण कण्णमणणिबुड़करेणं सद्देणं ते पदेसे सञ्चतो समंता आपूरेमाणा सिरीए उबसोमे
पन्नवरपेदि मलयगिरी *माणा चिट्ठति, तीसे पउपवरपेइयाए तस्थर देसे वहिर हयसंघाडा नरसंघाटा किंनरसंघाडा किंपुरिससंघाडा महोरगसंघाडा || या वृत्तिः गंधवसंघाडा उसभसंघादा सवरयणामया अच्छा जाव पडिरूबा, एवं पंतीओवि बीहीमोवि भिहुणाई, तीसे णं पउमवरवेइयाए
तत्थर देसे ताहिर बहुयाओ पउमलयाओ णागलयाओ असोगलयाओ चंपगलयाओ वणकयाओ वासंतियलयाओ अइमुत्त-12०३४ ॥८३॥
गलयामओ कुंदलयाओ सामलयाभो निच्च कुसुमियाओ निच मालियाओ निचं लबइयाओ निच्चे थवइयाओ णिचं गुलइयाओ निच गोच्छियाओ णिच्चं जमलियाओ निचं जुलियाओ निश्च विणमियाओ निच्च पणमियामो निच सुविभत्तपडिमंजरिवडंसगधरीओ निचं कुसुमियमउलियलबइयथवइयगुलइयगोच्छियजमलियजुयलियविणमियपणमियमुविभत्तपडिमंजरिवडिंसगधरीओ सबरयणामईओ अच्छा जाव पडिरूवाओ' इति, अस्य व्याख्या-'सा' एवं स्वरूपा 'ण' मिति वाक्यालारे पावरवेदिका तत्रर प्रदेशे एकैकेन हेमजालेन-सर्वात्मना हेममयेन लम्बमानेन दामसमूहेन एकैकैन गवाक्षजालेन-गवाक्षाकृतिरत्नविशेषदामसमूहेन एकैकेन किङ्किणीजालेन, किङ्किण्या-क्षुद्रघण्टिकाः, एकैकेन घण्टाजालेन-किङ्किण्यपेक्षया किंचिन्मइल्यो घण्टा घण्टाः, तथा एकैकेन मुक्ताजालेन-मुक्ताफलमयेन दामसमूहेन एकैकन पणिजालेन-मणिमयेन दामसमूहेन एकैकेन कनकजालेन-कनका-पोतरूपः सुवर्णविशेषः तन्मयेन दामसमूहेन एवमेकैकेन रत्नजालेन एकैकेन पद्मजालेन सर्वरत्नमयपद्यात्मकेन दामसमूहेन सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्तत:-सर्वासु विदिक्षु परिक्षिप्ता-च्याप्ता, एतानि च दामसमूहरूपाणि
।।८३॥ हेमजालादीनि जालानि लम्बमानानि येदितव्यानि, तथा चाहते णं जाला' इत्यादि, तानि सूत्रे पुंस्त्वनिईशः पाकृत
~175
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
--------------- मूलं [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूत्रांक [३४]
दीप अनुक्रम [३४]
स्वात्, प्राकृते हि लिङ्गमनियत, णमिति वाक्यालङ्कारे, हेमजालादीनि जालानि, कचित् दामा इति पाठः, तत्र तावन् हेमजालादिरूपा दामान इति, 'तवणिज्जलंबूसगा' इत्यादि हयसंघाटादिसूत्रं लनासूत्रं च प्राग्वत् । सम्मति पद्मवरथेदिकाशब्दप्रवृत्तिनिमित्त जिज्ञासुः पृच्छति-से केणद्वेणं भंते !' इत्यादि, सेशब्दोऽयशब्दार्थ, केनार्थन-देन कारणेन भदन्त ! एवमुच्यते-पद्मवरवेदिका पयवरवेदिकेति, किमुक्तं भवति ?-पद्यचरवेदिकेत्येवंरूपस्य शब्दस्य तत्र प्रवृत्ती किं निमित्तमिति, एवमुक्ते भगवानाह-गौतम ! पद्मवरयेदिकायां तत्र तत्र एकदेशे तस्यैव देशस्य तत्र तत्र एकदेशे वेदिकासु-उपवेशनयोग्यमच्चारणरूपासु वेदिकाबाहामु-धेदिकापार्येषु 'वेइयपुडंतरेसु' इति द्वे वेदिके वेदिकापुटं तेषामन्तराणि-अपान्तरालानि तानि वेदिकापु| टान्तराणि वेषु, तथा स्तम्भेषु सामान्यतः स्तम्भवाहासु-स्तम्भपार्श्वषु 'खंभसीसेसु' इति स्तम्भशीषु 'स्तम्भपुरंत- AM &| रेस' इति द्वौ स्तम्भौ स्तम्भपुष्ट तेषामन्तराणि स्तम्भपुटान्तराणि तेषु, सूचीपु-फलकसंबन्धविघटनाभावहेतुपादुकास्था-1
नीयासु तासामुपरीतितात्पर्यार्थः, 'सूईमुहेसु' इति यत्र प्रदेशे शूची फलकं भिवा मध्ये प्रविशति तत्पत्यासन्नो देश: मू
चीमुख तेषु, तथा सूचीफलकेषु सूचीभिः संबन्धिनो ये फलकप्रदेशास्तेऽप्युपचारात् सूचिफलकानि तेषु सूचीनामधउपरिवर्च*मानेषु, तथा 'मुईपुटतरेसु' इति द्वे सूच्यौ सूचीपुटं तदन्तरेषु, पक्षाः पक्षवाहा वैदिकैकदेश विशेषास्तेषु, बहूनि उत्पलानि
गर्दभकानि पद्यानि-सूर्यविकासीनि कुमुदानि-चन्द्रविकासीनि नलिनानि-पद्ररक्तानि पानि मुभगानि-पनविशेषरूपाणि सौगन्धिकानि-फल्हाराणि पुण्डरीकाणि-सिताम्बुजानि तान्येव महान्ति महापुण्डरीकाणि शतपत्राणि-पत्रशतकलितानि सहस्रपत्राणि-पत्रसहस्रोपेतानि, शतपत्रसहस्रपत्रे च पद्मविशेषौ पत्रसंख्याविशेषाच, पृथगुपाने, एतानि सर्वरत्नमयानि
~ 176~
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
---------- मूलं [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक [३४]
श्रीराजप्रश्नी 'अच्छा' इत्यादि विशेषणजान माग्नत, 'महया वासिकछत्तसमाणाई' इति महान्ति-महाप्रमाणानि वापिकाणि-वर्षा- पन्नवरवादमलयगिरी काले पानीयरक्षार्थ यानि कृतानि वार्षिकाणि तानि च तानि छत्राणि च तत्समानानि प्राप्तानि हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !,
काय. या दृत्तिः
Mil'से एएणमटेण' मित्यादि, तदेतेन अर्धन-अन्वर्थन गौतम! एवमुच्यते-पद्मवरवेदिकेति, तेषु तेषु यथोक्तरूपेषु प्रदेशेषु ययो॥८४॥ तरूपाणि पनानि पावरवेदिकाशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तमिति भावः, व्युत्पत्तिश्चैवं-पद्मवरा-पद्मप्रधाना वेदिका पद्मवरवेदिकेति ।
भ०१४ 'पउमवरवेइया णं भंते ! किं सासया' इत्यादि, पद्मवरवेदिका 'ण' मिति पूर्ववत् किं शाश्वती उताशाश्वती, आवन्ततया
सूत्रे निर्देशः प्राकृतत्वात् किं नित्या उतानित्येतिभावः, भगवानाह-गौतम! स्यात् शाश्वती स्वादशाश्वती, कथंचिन्नित्या कAII यश्चिदनित्या इत्यर्थः, स्यारछन्दो निपातः कथंचिदित्येतदर्थवाची, 'से केणष्टेण' मित्यादि प्रश्नमूत्रं गुगर्म, भगवानाह-गौतम! | और
द्रव्यार्थतया-द्रव्यास्तिकनयमतेन शाश्वती, द्रव्यास्तिकनयो हि द्रव्यमेव ताचिकमभिमन्यते न पर्यायान, द्रव्यं चान्वयि परिAII णामित्वात् अन्वयित्वाच सकलकालभातीति भवति द्रव्यार्थतया शाश्वती, वर्णपर्यायस्वचदन्यसमुत्पद्यमानवर्ण विशेषरूपैः, एवं al गन्धपर्यायः रसपर्यायैः स्पर्शपर्यायः उपलक्षण मेतत् तत्तदन्यपुर्लविचटनीचटनैश्च अशाश्वती, किमुक्तं भवति-प- ययारितकनयमतेन पर्यायप्राधान्यविचक्षायामशाश्वनी, पर्यायाणां प्रतिक्षणभावितया कियत्कालभावितया विनाशित्वान्,
से एएणद्वेण ' मित्याधुपसंहारवाक्यं सुगमै, इह द्रव्यास्तिकनयवादी स्वमतप्रतिष्ठापनार्थमेवमाह-नात्यन्नासत उत्पादो All नापि सतो नाश नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः' इति वचनाद, यौ तु दृश्येते पतिवस्तु उत्पादविनाशी मतदाविर्भावतिरोभावमात्र, यथा सर्पस्य उत्फणत्वविफणत्वे, तस्मासर्व वस्तु नित्यमिति, एवं च तन्माचिन्तायां संशयः
दीप अनुक्रम [३४]
--
~177~
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूत्रांक [३४]
दीप अनुक्रम [३४]
किं घटादिवत् द्रव्यार्थतया शाश्वती उत सकलकालमेकरूपेति, ततः संशयापनोदाथ भगवन्तं भूयः पृच्छति-पउ-|| मवरवेइया ण' मित्यादि, पद्मवरवेदिका प्रावन भदन्त ! कालतः कियचिरं-कियन्तं कालं यावद्भवति १, एवरूपा हि कि
यन्त कालमवतिष्ठति इति !, भगवानाह-गौतम ! न कदाचिन्नासीत् सर्वदैवासीदिति भावः अनादित्वात् , तथा न कदाचिन्न | भवति, सर्वदेव वर्तमानकालचिन्तायां भवतीति भावः सदैव भावात् , तथा न कदाचिन्न भविष्यति, किंतु भविष्यचिन्तायां |
सर्वदेव भविष्यतीति पतिपत्तव्य, अपर्यवसितत्वात , तदेवं कालत्रयचिन्तायां नास्तिस्वप्रतिषेध विधाय सम्पत्यस्तित्वं प्रति-|| पादयति-'भुवि च' इत्यादि, अभूश्च भवति च भविष्यति चेति, एवं त्रिकालावस्थायित्वात् धुवा मेर्वादिवत् ध्रुवत्वादेव सदैव स्वस्वरूपनियता नियतत्वादेव च शाश्वती-शश्वद्रवनस्वभावा शाश्वतत्वादेव च सततं गङ्गासिन्धुपवाहप्रवृत्तावपि पौण्डीक
हद इवानेकपुद्गल विचटनेऽपि तावन्मात्रान्यपुद्गलोचटनसंभवादक्षया, न विद्यते क्षयो-यथोक्तस्वरूपाकारपरिभ्रंशो यस्याः सा | अक्षया, अक्षयत्वादेव अव्यया-अध्ययशब्दवाच्या मनागपि स्वरूपचलनस्य जानुचिदप्यभावात् , अव्ययत्वादेव सदैव स्वस्त्रप्रमाणेऽवस्थिता, मानुषोत्तराबहिः समुद्रवत् , एवं स्वप्रमाणे सदावस्थानेन चिन्त्यमाना नित्या धर्मास्तिकायादिवत् ,
'से ण मित्यादि, सा 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे पावरवेदिका एकेन वनखण्डेन सर्वतः समन्तात् परिक्षिप्ता, स च Bा बनखण्डो देशोने द्वे योजने चक्रवाल विष्कम्भतः उपकारिकालयनपरिक्षेपपरिमाणो, बनखण्डवर्णकः 'किण्हे किण्होभासे
इत्यादिरूपः समस्तोऽपि प्राग्वत् यावद्विहरन्ति, 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य-उपकारिकालयनस्य 'चउदिसं'ति चतुर्दिशिचतसृषु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकभावेन चत्वारि त्रिसोपानमतिरूपकाणि-प्रतिविशिष्टरूपकाणि त्रिसोपानानि प्रससानि,
~178~
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
--------- मूलं [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
पासादावर्त
श्रीराजमश्नी मलयगिरी- या दृचिः ॥८५॥
प्रत सूत्रांक
[३४]
त्रिसोपानवर्णको यानविमानवत वक्तव्यः, तेषां च त्रिसोपानपतिरूपकाणांपुरतः प्रत्येकमेकैक तोरणं, तोरणवर्णकोऽपि तथैव, 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य उपकारिकालयनस्य 'बहुसमरमणिजे भूमिभागे' इत्यादिना भूमिभागवर्णनक यानविमानवणकवचाववाच्यं यावन्मणीनां स्पर्शः॥ (सूत्र ३४)
तस्स णं बहसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहमज्झदेसभाए एस्थ णं महेगे पासायवडेंसए पग्णते, से णं पासायडिंसते पंच जोयणसयाई उड्डे उच्चत्तेणं अडाइजाई जोयणसयाई विक्खंभेणं अब्भुग्गयमूसिय वण्णतो भूमिभागो उल्लोओ सीहासणं सपरिवार भाणियचं, अभंगलगा झवा छत्ताइच्छत्ता, से णं मूलपासाथवडेंसगे अण्णेहिं चरहिं पासायवर्डेसहितयडु चत्तप्पमाणमेत्तेहिं सवतो समंता संपरिखित्ता, ते णं पासायव.सगा अबाइज्जाई जोयणसयाई उई उच्चत्तेणं पणवीसं जोयणसयं विक्वंभेणं जाव वपणओ, तेणं पासायव डिंसया अण्णेहिं चउहिं पासायवडिसएहितमधुबत्तप्पमाणमेलेहि सवओ समंता संपरिखित्ता, ते णं पासायवसया पणवीसं जोयणसपं उर्दू उरुचतेणं बावढि जोयणाई अडजोयणं च विक्खंभेणं अनुग्गयमूसिव वपणओ भूमिभागे उल्लोओ सोहासणं सपरिवार भाणियवं, अट्ठमंगलगा झया छत्तातिच्छता, ते गं पासायव.सगा अग्णेहि चउहि पासायवडसएहिं तदडुच्चत्तपमाणमेत्तेहिं सबतो समंता संपरिखित्ता, ते णं पासायवडेंसगा चावहि जोयणाई अडजोयणं च उर्दू उच्चत्तेणं एकतीस जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं वण्णओ उल्लोओ
दीप अनुक्रम [३४]
॥८
॥
Jalandiarare.org
~179~
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
-------------- मूलं [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सत्रांक
[३५]
दीप अनुक्रम [३५]]
सीहासणं सपरिवार पासायउवरिं अट्टमंगलगा झया छत्तातिछत्ता ।। (सू०३५)॥
तस्य च बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र महानेको मूलपासादावतंसकः प्रज्ञप्तः, स च पञ्च | योजनशतान्यू_मुच्चैस्त्वेन अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भतः 'अभुग्गयमूसियपहसियाविवेत्यादि तस्य वर्णनं मध्येभूमिभागवर्णनमुलोकवर्णन द्वारबहिःस्थितमासादवद्भावनीयं, तस्य च मूलपासादावतंसकस्य पहमध्ये देशभागेऽत्र महती एका मणिपोठिका मज्ञप्ता, अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चखारि योजनानि बाहल्यतः सर्वात्यना मणिमयी अच्छा इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् । 'तीसे ण 'मित्यादि, तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि महदेके सिंहासन प्रज्ञप्त, IC तस्य सिंहासनस्य वर्णन, परिवारभूतानि शेषाणि भद्रासनानि प्राग्वद्वक्तव्यानि, 'से ण' मित्यादि, स मूलपासादावत- 11 सकोऽन्यैश्चतुर्भिः मासादावतंसकैस्तदोच्चलप्रमाणः सर्वतः समन्ततः परिक्षिप्तः, तदोबस्वप्रमाणमेव दर्शयति-अद्वैततीयानि योजनशतान्यूर्ध्वमुच्चै स्त्वेन, पश्चविंशं योजनशतं विष्कम्भेन, तेषामपि 'अभुग्गयमूसियपदसियाविषे' त्यादि स्वरूपवर्णनं मध्यभूमिभागवर्णन मुल्लोकवर्णनं च माम्बत्, तेषां च प्रासादावतंसकानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येक २ सिंहासन प्रजात | वेषां च सिंहासनानां वर्णनं पाम्बत्, नवरमत्र शेषाणि परिवारभूतानि भद्रासनानि वक्तव्यानि, 'ते णं पासायवडेंसया इत्यादि, ते प्रासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैः 'तयद्धच्चत्तपमाणमेत्तेहिं तेषां मूलपासादावतंसकपरिवारभूतानां प्रासादावतंसकानां यदई तदुच्चत्वपमाणमात्रै-मूलपासादावतंसकापेक्षया चतुर्भागमात्रप्रमाणः सर्वतः समन्तात्संपरिसिताः, तदर्बोच्चत्वपमाणमेव दर्शयति-ते ण' मित्यादि, ते प्रासादावतंसकाः पंचविंश योजनशतमूर्ध्वमुच्चैस्त्वेन द्वापष्टियो
~180
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
-------------- मूलं [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
माटात
सकवर्णनम्
श्रीराजपनी या वृत्तिः ॥८६॥
प्रत
०३५
सत्रांक
[३५]
जनानि अयोजनं च विष्कम्भतः, तेषामपि । अम्भुग्गयमूसियपहसियाविवे 'त्यादि स्वरूपवर्णनं मध्यभागे | भूमिवर्णनमुल्लोकवर्णन सिंहासनवर्णनं च सर्व प्राग्वत् , केवलमत्रापि सिंहासन सपरिवारं वक्तव्यं, 'ते ण' मित्यादि, ते |
च प्रासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैस्तदर्बोच्चत्वममाणे:-अनन्तरोक्तप्रासादाचतंसकार्बोच्चत्वप्रमाणैर्मूलमासादावतंसकापेक्षया(अष्ट)भागममाणैः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्ताः, तदोच्चत्वप्रमाणमेव दर्शयति-'ते ण' मित्यादि, ते च प्रासादावतंसका द्वापष्टियोजनानि अर्घयोजनं च ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन एकत्रिंशतं योजनानि क्रोश च विष्कम्भतः, एपामपि 'अन्नग्गयमूसिए 'त्यादि स्वरूपवर्णनं मध्यभागे भूमिवर्णनं जल्लोकवर्णन सिंहासनवर्णनं च परिवाररहितं प्राम्बत् , 'ते ण' मित्यादि, तेऽपि प्रासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैस्तदोच्चसप्रमाणैः-अनन्तरोक्तमासादावर्तसका -
चत्वप्रमाणैर्मूलपासादावतंसकापेक्षया पोटशभागप्रमाणैः सर्वतः समंतात् संपरिक्षिप्ताः, तदर्थोच्चत्वममाणमेव दर्शयति-एकत्रिंशयोजनानि क्रोनं च ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन पञ्चदश योजनानि अर्द्धतृतीयांश्चैव क्रोशान् विष्कम्भता, एतेषामपि स्वरूपादिवर्णनमनन्तरोक्तं, 'ते ण' मित्यादि, तेऽपि च प्रासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैस्तदर्दोच्चखप्रमाणैः-अनन्तरोक्तपासादावतंसकार्बोच्चत्वप्रमाणः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिताः, तदोच्चत्वप्रमाणमेव दर्शयति-पंचदश योजनानि अद्धत्तीयांश्च क्रोशान् ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन देशोनान्पष्टौ योजनानि विष्कम्भेन, एषामेव स्वरूपच्यावर्णनं भूमिभागवर्णनं उल्लोकवर्णन सिंहासनवर्णनं च परिवारवर्जितं पाम्बत् ॥ (सू०३५)
तस्स णं मूल पासायवसयरस उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थ ण सभा सुहम्मा पण्णता, एग जायणसर्य
दीप अनुक्रम
[३५]
॥८६॥
~181~
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूत्रांक
[३६]
दीप अनुक्रम
आयामेणं पण्णासं जोयणाई विवखंभेण वायत्तरि जोयणाई उर्दू उच्चत्तेणं अपे,गखंभसयसंनिविदा अभुग्गय सुकयव यरवेझ्यातोरणवररझ्यसालिभंजिया जाव अच्छरगणसंधविप्पकिण्णा पासादीया ४, सभाए ण सुहम्माए तिदिसिं तओ दारा पण्णत्ता, तंजहा-पुरस्थिमेणं दाहिणेणं उत्तरेणं, ते ण दारा सोलस जोयणाई उई उच्चत्तेणं अट्ट जोयणाई विक्खंभेणं तावतिय चेव पवेसेणं सेया वरकगभियागा जाव चणमालाओ, तेसिणं दाराणं उरि अह मंगलगा झया छत्ताइछत्ता, तेसि णं दाराण पुरओ पत्तेयं २ मुहमंडवा पण्णता, ते णं मुहमंडवा एग जोयणसयं आयामेणं पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं साइरेगाई सोलस जोयणाई उई उच्चत्तेणं वणओ सभाए सरिसो,तेसि णं मुहमंडवाणं तिदिसि ततो दारा पणत्ता, तंजहा-पुरस्थिमेणं दाहिजेणं उत्तरेणं, ते णं दारा सोलस जोयणाई उई सुरूच तेणं अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेया वरकणगभियागा जाव वणमालाओ। तेसि णं मुहमंडवाणं भूमिभागा उन्लोया, तेसि णं मुहमंडवाणं उपरि अहमंगलगा झया छताइछत्ता।तेसि णं मुहमंडवाणं पुरतो पत्तेयं २पेच्छाघरमंडवे पपणते, मुहमंडवबत्तण्या जाव दारा भूमिभागा उल्लोया । तेसिणं यहसमरमणिजाणं भूमिभागाणं बहमनदेसभाए पत्तेयं २ बहरामए अवखाडए पष्णते, तेसि णं वयरामयाणं अक्खाडगाणं बहुमज्झदेसभागे पत्तेयं२ मणिपेढिया पष्णता, ताओ णं मणिपेढियातो अट्ट जोयणाई आयामविक्खंभेणं चत्तारि जो
[३६]
~182~
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
---------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराममकी
मलयगिरी या वृत्तिः
li मण्डपस्तुप
पतिमाचे व खेन्द्रध्वज जिनसकयी
प्रत सत्रांक
॥ ८७॥
1
सू० ३६
[३६]
दीप अनुक्रम
यणाई चाहल्लेणं सबमणिमईओ अच्छाओ जाच पडिरूवाओ, तासि णं मणिपेटियाण उपरि पत्तेयं २सीहासणे पणत, सीहासणवण्णओ सपरिवारो, तेसि णं पेच्छाघरमंडवाण उवरि अट्ठामंगलगा झया छत्तातिछत्ता, तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ पत्तेयं २ मणिपेढियाओ पणत्ताओ, ताओ गं मणिपेडियातो सोलस जोयणाई आयामविक्खंभेणं अट्ठ जोयणाई वाहरूलेण सामणिमइओ अच्छाओ पडिरूवाओ, तेसिणं उवरि पत्तयं २ धूमे पणत्ते, ते णं धृभा सोलस जोयणाई आयामविखंभेणं साइरेगाई सोलस जोपणाई उडे उच्चत्तेणं, सेया संखंककुंददगरयअमयमहियफेणपुजसंनिगासा सवरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा, तेसिज धूभाणं उवरिं अहमंगलगा झया छत्तातिछत्ता, तेसिणं थूभाणं चउदिसि पत्तेयं २ मणिपेदियाती पण्णत्ताओ, ताओणं मणिपेढियातो अहजोषणाई आयामविक्वंभेणं चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं सबमणिमईओ अच्छाओ जाव पडिरूचातो, तेसि णं मणिपेढियाणं उरिं चत्तारि जिणपडिमातो जिगुस्सेहपमाणमेत्ताओ संपलियंकनिसनाओ धूभाभिमुहीओ सनिखित्ताओ चिट्ठति, तंजहा-उसभा १ बजमाणा २ चंदाणणा ३ वारिसेणा४, तेसि ण धूभाणं पुरतो पत्तेयं २ मणिपेरियातो पण्णत्ताओ, ताओ ण मणिपेढियातो सोलस जोषणाई आयामविक्खंभेणं अट्ठ जोयणाई बाहल्लेग सामणिमईओ जाव पडिरूवातो, तासिणं मणिपेढियाणं उवरि पत्तेयं २ चेइयरुक्खे पपणत्ते, ते ण चेइयरुक्खा अजोयणाई उई
[३६]
॥८७॥
SNEairatSHJI
audiaram.org
~183
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
---------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूत्रांक
[३६]
दीप अनुक्रम
उच्चत्तेणं अट्ठ जोयणाई उज्वेहणं दो जोयणाई खंधा अद्धजोयण विक्खभेगं छजोयणाई विडिमा बहुमादेसभाए अट्ठ जोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई अढ जोयणाई सवग्गेणं पण्णता, तेसिणं चेइयरुक्खाणं इमेयारूवे वण्णावासे पणते, तंजहो-चयरामया मूला रययमुपइडिया सुविडिमा रिहामयविउला कंदा वेरुलिया रुइला खंधा सुजायवरजायरूवपढमगा विसालसाला नाणामणिमयरयणविविहसाहप्पसाह कलियपनतवणिज्जपत्तबिंटा जंबणयरत्तमउयसुकमालपवालसोभिया वरकुरग्गसिहरा विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभरेणनमियसाला अहिय मणनयणणिवुइकरा अमयरससमरसफला सच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सज्जोया पासाईया ४, तेसि ण चेइयरुक्खाणं उरि अट्टमंगलगा झया छत्ताइछत्ता, तेसि ण चेहयरुक्खाणं पुरतो पत्तेयं २ मणिपेढियाओ पग्णताओ, ताओ णं मणिपेडियाओ अट्ट जोयणाई आयामविक्वंभेणं चत्तारि जोयणाई बाहल्लेण सबमणिमईओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ, तासि णं मणिपेढियाणं उवरि पत्तेयं २ महिंदज्झया पण्णता, ते णं महिंदज्झया सहि जीयणाई उर्दू उच्चत्तेणं जोयण उवहेण जोयणं विक्वंभेण वइरामया वदलहसुसिलिट्रपरिघट्टमसुपतिहिया विसिट्टा अणेगवरपेचवण्णकुडभिसहस्सपरिमंडियाभिरामा वाउछुयविजयवेजपतीपडागा छत्ताइकछत्तकलिथा तुंगा गयणललमभिलंघमाणसिहरा पासादीया ४, अट्टमंगलगा झया छत्तातिछत्ता, तेसि णं
[३६]
~184~
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
--------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजमनाला मलयगिरीया वृत्तिः
मन्डपस्पत
॥८८॥
जिनसक्यो
प्रत सूत्रांक
[३६]
महिंदज्याण पुरतो पत्तेयं २ नंदा पुक्खरिणीओ पण्णताओ, ताओ णं पुक्खरिणीओ एग जोयपासयं आयामेणं पक्षणासं जोयणाई विक्खंभेण दस जोयणाई उचे हेणं अच्छाओ जाव वण्णओ एगइयाओ उदगरसेणं पण्णत्ताओ, पत्तेयं २ पउमवरवेइयापरिखित्ताओ पत्तेयं २ वणसंडपरिखित्ताओ, तासि ण णंदाणं पुक्खरिणीणं तिदिसिं तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तिसोवाणपडिरूवगाणं वणओ, तोरणा झया छत्तातिछत्ता। सभाए गं मुहम्माए अध्यालीसं मणीगुलियासाहस्सीओ पण्णताओ, संजहा-पुरछिमेणं सोलससाहस्सीओ पचच्छिमेण सोलससाहस्सीओ दाहिणेणं अट्ठसाहस्सीओ उत्तरेणं अहसाहस्सीओ, तासु णं मणोगुलियासु बहवे सुवष्णरूप्पमया फलगा पण्णता, तेसु ण सुवन्नरुपमएसु फलगेसु बहवे वइरामया णागर्दता पण्णता, तेसु णं वइरामएसु णागर्दतएम किण्ह सुत्नवस्वग्धारियमल्लदामकलावा चिट्ठति, सभाए णं सुहम्माए अडयालीसं गोमाणसियासाहस्सीओ पन्नताओ, जह मणोगुलिया जाव णागदंतगा, तेसु णं णागदतएसु बहवे रथयामया सिकगा पष्णता, तेसु ण रययामएमु सिकगेम बहवे वेरुलियामइओ धूवघडियाओ पपणत्ताओ, ताओ णं धूवघडियाओ कालागुरुपवरजावचिट्ठति, सभाए ण मुहम्माए अंता बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणीहि उवसोभिए मणिफासो य उस्लोयओ थ, तस्सणं बहुसमरमणिजस्स भभिभागस्त यहमजादेसभाए एत्थ णे महेगा मणिपेढिया पणचा सोलस जीयणाई आयामवि
दीप अनुक्रम
[३६]
॥८८॥
SAREatinia
~185
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
---------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूत्रांक
[३६]
दीप अनुक्रम
क्खंभेणं अङ्क जोषणाई बाहल्लेणं सघमणिमयी जाव पडिरूवा, तीसे ण मणिपेढियाए उरि एत्य ण माणथए चेइयखंमे पपणत्ते, सर्दि जोयणाई उ उच्चचेणं जोयण उबेहेणं जोयणं विक्खंभेण अडयालीसं असिए अड्यालीसं सइकोडीए अडयालीसं सइविग्गहिए सेसं जहा महिंदमयस्स, माणवगस्स ण चेइयखभस्स उवरि वारस जोयणाई ओगाहेता हेहावि पोरस जोयणाई बज्जेचा मज्झे बत्तीसाए जोयणेसु एत्थ णं बहवे सुबष्णरुप्पमया फलगा पण्णता, तेसु णं सुवण्णरुप्पामएसु फलएसु वहये वइरामया णागदंता पणत्ता, तेसु णं वइरामएसु नागर्दतेसु बहवे रयथामया सिकगा पणत्ता, तेसु णं रथयामएस सिक्कएसु बहवे बहरामया गोलवरसमुग्गया पण्णता, तेसु णं वयरामएस गोलवासमुग्गएसु बहवे जिणसकहाती संनिखिचाओ चिट्ठति । तातो णं सूरियाभस्स देवस्स अन्नेसिं च बहणं देवाण य देवीण य अञ्चणिजाओ जाय पज्जुवासणिजातो माणवगस्स चेइयखंभस्स उवरि अढ मंगलगा झवा छत्ताइच्छता ॥ (सू०३६)
'तस्स ण 'मित्यादि, तस्य मूलपासादावतंसकस्य 'उत्तरपुरच्छिमेणं 'ति उत्तरपूर्वस्यामीशानकोणे इत्यर्थः अत्र सभा सुधर्मा प्रज्ञप्ता, सुधर्मा नाम विशिष्टरछन्द कोपेता, सा एक योजनशतमायामतः पश्चाशत् योजनानि विष्कम्भतः द्वासप्ततियोजनानि ऊर्ध्व मुस्त्येन, कथंभूता सा ? इत्याह-'अणेगे 'त्यादि, अनेकस्तम्भवतसन्निविष्टा 'अन्भुग्गयसुकयवयरवेइ यातोरणवररइयसालिभंजियासुसिलिट्टविसिहलसंठियपसत्यवेरुलियविमलखंभा' इति, अभ्यु
[३६]
murary.org
~186~
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
--------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
मण्डपस्तूप पतिमाचैत्य क्षेन्द्रध्वज जिनसकी
प्रत
सत्रांक
[३६]
दीप अनुक्रम [३६]
ना-अतिरमणीयतया द्रष्टुणां प्रत्यभिमुखं उत्-पायल्येन स्थिता सकतेव सुकृता निपुणशिल्पिरचितेतिभावा, अभ्युद्गता चासौ श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी- सुकृता च अभ्युद्गतमुकता बनवेदिका-द्वारमुण्डिकोपरि वज्ररत्नमया वेदिका तोरणं च अभ्युद्गनमुकृतं यत्र सा तथा, वराभि:या वृत्तिः
| प्रधानाभिः रचिताभिः रविदाभिर्वा शालिभञ्जिकाभिः मुश्लिष्टाः-संबद्धा विशिष्ट-प्रधान लाह-मनोज्ञ संस्थित-संस्थानं येषां वे
विशिष्टलष्टसंस्थिताः प्रशस्ता:-प्रशंसास्पदीभूता वैडूयस्तम्भा-वैडूर्यरत्नमयाः स्तम्मा यस्यां सा सथा, वररचितशालभलिका- ॥८९॥ सुश्लिष्टविशिष्टलष्टसंस्थितप्रशस्तवैडूर्यस्तम्भास्ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः समासः, तथा नानामणिकनकरत्नानि खचितानि यत्र
| स नानामणिकनकरत्नखचितः, क्तान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात, नानामणिकनकरत्नखचित उज्ज्वलो-निर्मलो बहु
समः-अत्यन्तसमः मुविभक्तो निचितो-निविदो रमणीयश्च भूमिभागो यस्यां सा नानामणिकनकखचितरत्नोज्ज्वलबहसमसु* विभक्त (निचित्त) भूमिभागा, 'इहामियउसमतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवण लयपउमलयभत्तिचिता
खंभुन्गयवरवेइयाभिरामा विज्ञाहरजमलजुगलजंतजुत्ताविच अचीसहस्सयालिणीया रूवगसहस्सकलिया भिसिमीणा भिभिसमीणा चक्खुल्लोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा कंचणमणिरयणभियागा नानाविहपंचवण्णघंटापडागपरिमंडियग्गसिहरा धवला मरीइकवर्ष विणिम्मुयंती लाउल्लोइयमहिया गोसीससरससुरभिरत्तचंदणदहरदिन्नपंचगुलितला उपचियचंदणकलसबंदणघटसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविउल वावग्यारियमच्छदामकलावा पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुप्फर्पुनीवयारकलिया कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूवडज्झतमघमतगंधुद्धयाभिरामा सुगंधवरगंधिया गंधवहिभूया अच्छरगणसंघसंविकिण्णा दिवतुडियसहसंपणादिया सवरयणामया अच्छा जाव परिख्या इति माग्वत् । 'सभाए ण' मित्यादि, सभायाश्च सुधर्मायाखिदिशि
॥८९॥
~187~
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूत्रांक
[३६]
दीप अनुक्रम
तिमधु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकद्वारभावेन त्रीणि द्वाराणि प्रजातानि, तद्यथा-एक पूर्वस्या के दक्षिणस्यामेकमुत्तरस्या, तानि च द्वाराणि प्रत्येकं पोटश २ योजनान्यूर्ध्वमुच्चैस्त्वेन अष्टौ योजनानि विष्कम्भत: 'तावइयं चेवेति तावन्त्येवाष्टौ योगनानीतिभावः प्रवेशेन, 'सेया वरकणगथूभिया' इत्यादि प्रागुक्तद्वारवर्णनं तदेव तावद्वक्तव्यं यावदनमाला इति, तेषां च द्वाराणां | पुरतः प्रत्येकं २ मुखमण्डपः प्रज्ञप्तः, ते च मुखमण्डपा एक योजनशतमायामतः पश्चाशत् योजनानि विष्कम्भतः सातिरेकाणि पोडश योजनानि ऊर्ध्वमुच्चैरत्वेन, एतेषामपि 'अणेगखंभसयसंनिविट्ठा' इत्यादि वर्णनं सुधर्मसभाया इव निरवशेष द्रष्टव्यं, वेषां च मुखमण्डपानां पुरतः प्रत्येकं २ प्रेक्षागृहमण्डपः प्रज्ञप्तः, ते च प्रेक्षागृहमण्डपा आयामविष्कम्भोच्चैस्त्वैः प्राग्वत् तावद्वाच्यं यावन्मणीनां स्पर्श, तेषां च बहुरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं २ बजमयोऽक्षपाटकः प्रज्ञप्तः, तेषां च बञमयानामक्षपाटकानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं २ मणिपीठिका अष्ट योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि चाइल्येन-पिण्डभावेन सर्वात्मना मणिमया: 'अच्छाओ' इत्यादि विशेषणजातं प्रागिव । तासां च मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येक
सिंहासनं पक्षप्त, तेषां च सिंहासनानां वर्णनं परिवारश्च प्राम्बद्वक्तव्यः, तेषां च प्रेक्षागृहमाडपानामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि बहवः कृष्णचामरध्वजा इत्यादि प्राग्वत, तेषां प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतः प्रत्येक २ मणिपीठिका पक्षप्ता, ताथ मणिपीठिकाः प्रत्येक | पोडश योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यामष्टौ योजनानि वाहल्येन सर्वात्मना मणिमयाः 'अच्छा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत , तासां च मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकं २ चैत्यस्तृपः प्रज्ञप्तः, ते च चैत्यस्तूपाः षोडश योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां सातिरेकाणि पोटश योजनान्यूर्ध्वमुच्चस्त्वेन संखके 'त्यादि तवर्णनं मुग, तेषां च चैत्यस्तूपानामुपर्यष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि
[३६]
~188~
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
---------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
मण्डपस्तुप
मलयनिरा
प्रत
सत्रांक
[३६]
दीप अनुक्रम [३६]
श्रीराजमणी मालकानि 'जाब सहस्सपचहत्थया' इति- यावत्करणा 'तेसिं चेइयमाणं उप्पि बहवे किण्हचामरज्झया जाच सुकिल्लचा- LAS
प्रतिमाचैत्य मरज्झया अच्छा सण्हा रुपपट्टवाइरदंडा जमलजामलगंधी सुरूवा पासाइया जाव पडिरूवा, वेसिं चेइयधूभाणं उणि पाये | या वृत्तिः
क्षेन्द्रध्वज छत्ताइच्छत्ता पढाया घंटाजुगला उप्पलहत्यगा जाव सयसहस्सपत्तहत्थगा सबरयणामया जाव पडिख्वा' इति, एतच्च समस्तं जिनसकयी ॥९॥ माग्वत् । 'तेसिण' मित्यादि, तेषां चैत्यस्तुपानां प्रत्येकं २'चउदिसि 'ति चतुर्दिशि-चतरपु दिक्षु एकैकस्यांनि
| दिशि एकैकमणिपीठिकाभावेन चतस्रो मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि ||*०३६
वाहल्येन सर्वात्मना मणिमया अच्छा इत्यादि पावत, तासां च मणिपीठिकानामुपरि एकैकमतिमाभावेन चतस्रो ||| जिनमतिमा जिनोत्सेधप्रमाणमात्रा:, जिनोत्सेध उत्कर्पतः पश्च धनुशतानि जघन्यतः सप्त हस्ताः, इह तु पश्च धनुःशतानि संभाव्यन्ते, 'पलियंकसंनिसन्नाउ'इति पर्यङ्कासनसन्निषण्णाः, स्तूपाभिमुख्यः संनिक्षिप्ताः, तथा जगत्स्थितिस्वाभा
व्येन सभ्यग्निवेशितास्तिष्ठन्ति, तद्यथा-ऋषभा बर्द्धमाना चन्द्रानना वारिषेणा इति, 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां चैत्यस्तूपानां + पुरतः प्रत्येकं २ मणिपीठिकाः प्रज्ञाताः, ताव मणिपीठिकाः षोडश योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यामष्टौ योजनानि बाइल्यतः है'सबमणिमइओ' इत्यादि माग्वत, सासां च मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकं २ चैत्यक्षा अष्टौ योजनान्यूर्ध्वमुच्चस्त्वेनाईयो
जनमधेन-उण्डत्वेन द्वे योजने उच्चस्पेन स्कन्धः स एवाध योजनं विष्कम्भतया बहमध्यदेशभागे विडिमा-ऊर्ध्वं विनिर्गता | शाखा सा ऊर्ध्वमुचस्त्वेन षड् योजनानि अटो योजनानि विष्कम्भेन सर्वाग्रेण सातिरेकेणाष्टौ योजनानि प्रशप्तास्तेषां च
पा ॥९ ॥ चैत्यक्षाणामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तस्तद्यया-बइरामयमूला स्ययसुषइट्ठियविडिमा' बजाणि-वज्रमयानि मूलानि येषां
Auditurary.com
~189~
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूत्रांक
[३६]
दीप अनुक्रम
CI ते वज्रमयमूला रजते सुप्रतिष्ठिता विडिमा-बहुमध्यदेशभागे ऊर्च विनिर्गता शाखा येषां ते रजतसुमतिष्ठितविडिमास्ततः
पूर्वपदेन कर्मधारयः समासा, 'रिद्वापयकंदे वेरुलियालखंधे' रिष्ठमयो-रिष्ठरत्नमयः कन्दो येषां ते रिष्ठमयकन्दाः, तथा | वैडूर्यरत्नमयो रुचिरः स्कन्धो येषां ते तथा, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, 'सुजायवरजायरूबपढमगविसालसाला' सुजात-मूलद्रव्यशुद्धं वर-प्रधान यत् जातरूपं तदास्मकाः प्रथमका-मूलभूता विशालाः शाखा येषां ते सुजातवरजातरूपप्रथमकविशालशाला: 'नानामणिरयणविविहसाहप्पसाहबेरुलियपत्ततवणिजपत्तविंटा' इति नानामणिरत्नात्मिका विविधाः शाखाः प्रशाखा येषां ते तथा बैर्याणि-बडूयमयानि पत्राणि येषां ते तथा तपनीयमयानि परवन्नानि येषां ते तथा, ततः पूर्ववत् पदद्वयरमीलनेन 10 कर्मधारयः, 'जंपूणयरत्तमज्यसुकुमालपवालपल्लववरंकुरधरा' जाम्बूनदा-जाम्बूनदसुवर्णविशेषमया रक्ता-रक्तवर्णा मुदवः
मनोज्ञाः सुकुमारा:-सुकुमारस्पः पवाला-ईषदुन्मीलितपत्रभावाः पल्लवा:-संजातपरिपूर्णप्रथमपत्रभावरूपा वराङ्करा-प्रथममु-II मा द्भिद्यमाना अङ्कारास्तान धरन्तीति जाम्बूनदरक्तमदुसुकुमारपवालपल्लवाकरधराः 'विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभरे-1x
णनमियसाला' इति विचित्रमणिरत्नमयानि यानि सुरभीनि कुसुमानि फलानि च तेषां भरेण नमिताः शाला:-शाखा येषां ते तथा, तथा सती-शोभना छाया येषां ते सच्छायाः, सती-शोभना प्रभा-कान्तियेषां ते सत्यभाः, अत एव सश्रीकाः, तथा सह उद्योतेन वर्तन्ते मणिरत्नानामुद्योतभावात् सोद्योता, अधिक नयनमनोनितिकरा अमृतरससमरसानि फलानि येषां ते तथा, 'पासाईया' इत्यादिविशेषणचतुष्टयं प्राग्वम् । एते च चैत्यक्षा अन्यैर्वहुभिस्तिलकलवकच्छत्रौपगशिरीषसप्तपर्णदधिपर्णलुधकधवलचन्दननीपकुटजपनसतालतमालप्रियालमियङ्गपारापतराजानन्दि सर्वतः समन्तात् संपरिलिप्ताः, ते च तिलका
[३६]
REaratinine
Ajunasaram.org
~190~
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
---------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
वीराजभनी मळयगिरीया चिः ॥ ९१ ॥
सत्रांक
[३६]
दीप अनुक्रम [३६]
यावनन्दिरक्षा मूलमन्ता कन्दमन्त इत्यादि सर्वमशोकपादपवर्णनायामिव तावद्वक्तव्यं यावत् परिपूर्ण लतावर्णन, 'तसि - मण्डपस्तूप मित्यादि, तेषां पैत्यक्षाणामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि बहवः कृष्णचामरध्वजा इत्यादि चैत्यस्तूप इव तावद्वक्तव्यं यावद्वाहवा मतिमाचत्य सहस्रपत्रहस्तकाः सर्वरत्नमया यावत् प्रतिरूपका इति, 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां च चैत्यक्षाणां पुरतः प्रत्येक मणिपीठिका प्राप्ताः, ताश्च मणिपीठिका अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्माभ्यां चत्वारि योजनानि चाहल्यतः 'सबरयणामईओ' इत्यादि ||
जिनसक्यो माग्वत्, तासां च मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येक महेन्द्रध्वजाः मज्ञप्ता, तेच महेन्द्रध्वजाः पष्टियोजनान्य॒र्ध्वमुच्चैस्त्येन अर्द्धकोश-अईगव्यूतमद्वेषेन-अण्डत्येन अर्द्धक्रोश विष्कम्भतः 'बहरामयवलसंठियमुसिलिट्ठपरिघट्टमहसुपइडिया' इति वज्रमया-चत्ररत्नमया तथा री-वर्तुल लम्र-मनोई संस्थित-संस्थानं येषां ते वृत्तसहसंस्थितास्तथा मुश्लिष्ठा यया भवन्ति एवं TM | परिघृष्टा इव खरशाणया पाषाणप्रतिमेव सुश्लिएपरिपृष्टाः मृष्टाः मुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमावत् सुपतिष्ठिता मनागपि चलनासंभवात् , ततो विशेषणसमासः, 'अणेगवरपंचवन्नकुडभीसहस्सपरिमंडियाभिरामा वाउध्धूयविजयवेजयंतीपडागा छत्ताइच्छत्तकलिया तुंगा गगनतलमभिलंघमाणसिहरा पासाईया जावपडिरूवा' इति प्राग्वत् , 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां महेन्द्रवजानामुपरि अष्टावष्टौ मालकानि बहवः कृष्णचामरध्वजा इत्यादि तोरणवत् सर्वं वक्तव्य, तेषां च महेन्द्रध्वजानां पुरतः प्रत्येक नन्दाभिधाना पुष्करिणी प्राप्ता, एक योजनशतमायामतः पश्चाशत् योजनानि विष्कम्भत द्वासप्ततियोजनान्यदेधेन-उपदोन, तासां च नन्दापुष्करिणीनां अछाओ सहाओ श्ययामयकूलाओ' इत्यादि वर्णनं माम्बत् , ताश्च नन्दापुष्करिण्यः प्रत्येकं २ पद्मयरवेदिकया प्रत्येकं २ बनखण्डेन परिक्षिप्ताः, तासां च नन्दा
॥९ ॥
9-1104
REaratinidiRI
~191~
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूत्रांक
[३६]
दीप अनुक्रम
पुष्करिणीनां प्रत्येकं त्रिदिशि त्रिसोपानप्रतिरूपकतोरणवर्णनं मागिव । 'सभाए णं सुहम्माए' इत्यादि, सभायां सुध.
आयामष्टचत्वारिंशन्मनोगुलिकासहस्राणि-पीठिकासहस्राणि मज्ञप्तानि, तद्यथा-पूर्वस्यां दिशि षोडश मनोगुलिकासहस्राणि, पोडश सहस्राणि पूर्वतः पोडश सहस्राणि पश्चिमायामष्टौ सहस्राणि दक्षिणतोऽष्टौ सहस्राणि उत्तरतः, तेष्वपि फलकनागदन्तकमाल्यदामवर्णनं प्राग्वत्, सिक्कगवर्णन धूपघटिकावर्णन द्वारवत् । 'सभाए णं सुहम्माए' इत्यादि, सभायां सुधर्मायाँ अष्टाचवारिंशत् गोमानसिका:-शय्यारूपस्यानविशेषास्तेषां सहस्राणि प्रजातानि, तद्यथा-घोडश सहस्राणि पूर्वत: षोडश में
सहस्राणि पधिमायामष्टौ सहस्राणि दक्षिणतोऽष्टौ सहस्राणि उत्तरतः, सास्वपि फलकवर्णन नागदन्तवर्णनं सिकगवर्णनं धूपVil घटिकावर्णनं च द्वारवत , 'सभाए णं सुहम्माए' इत्यादिना भूमिभागवर्णनं 'सभाए णं सुहम्माए ' इत्यादिना | all उल्लोकवर्णनं च प्राम्बत् , 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महती एका मणिपीठिका *
प्रज्ञप्ता, पोडश योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां अष्टौ योजनानि बाहल्यतः सर्वरत्नमयी इत्यादि पावत् , नस्याच मणिपीठिकाया | Cउपरि महानेको माणवकनामा चैत्यस्तम्भः प्रज्ञप्तः, पष्टियोजनान्यूर्ध्वमुचैस्त्वेन योजनमुद्देधेन योजनं विष्कम्भेण अष्टाचत्वारिं
शदस्रिक अडयालीसइकोडीए अडयालीसइविग्गहिए' इत्यादि सम्प्रदायगम्य, 'वहरामयवलठ्ठसंठिए' इत्यादि महेन्द्रध्व
जवत् वर्णनं निरवशेष तावद्वक्तव्यं यावत् 'सहस्सपत्तहत्थगा सबरयणामया जाव पडिरूवा' इति, तस्य च माणवकस्य चैत्यTII स्तम्भस्य उपरि बादश योजनानि अवगाद्य, उपरितनभागात दादश योजनानि वर्जयित्वेति भावः, अधस्तादपि द्वादश यो-।
जनानि वर्जयित्वा मध्ये पदिशति योजनेषु 'वहये सुवणरुप्पामया फलका' इत्यादि फलकवर्णनं नागदन्तवर्णनं सिककवर्णनं च
[३६]
~192~
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
--------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
माणवकस्तभदवशयनी यवर्णनम्
या वृत्तिः
प्रत
सत्राक
[३६]
श्रीराजमश्नी प्राग्वत् , तेषु च रजतमयेषु सिक्केषु बहवो वज्रमया गोलवृत्ताः समुद्काः प्रज्ञप्ताः, तेषु च वजमयेषु समुद्केषु बहूनि जिनसक्- मलयगिरी-hd चीनि सनिक्षिप्तानि निष्ठन्ति, यानि सूर्याभस्य देवस्य अन्येषां च बहूनां वैमानिकानां देवानां देवीनां च अर्चनीयानि चन्दनः
घम्दनीयानि स्तुत्यादिना पूजनीयानि पुष्पादिना माननीयानि बहुमानतः सत्करणीयानि वखादिना कल्याण मङ्गले देवतं चैत्यमितियुदधा पर्युपासनीयानि, 'तस्स ण चेइयखभस्स उचरि बहवे अट्टमंगलगा' इत्यादि पाग्वत् ॥ (सू०३६)
तस्स माणचगस्स चेइयखभस्स पुरच्छिमेणं एत्य णं महेगा मणिपेडिया पण्णता, अट्ठ जोयणाई आयामविक्खंभेणं चत्तारि जोअणाई पाहल्लेण सहमणिमई अच्छा जाव पडिरूवा, तीसे ण मणिपेढियाए उवरि एत्थ णं महेगे सीहासण०वण्णतो सपरिवारो, तस्स णं माणवगस्स चेइयखंभस्स पञ्चथिमेणं एत्व ण महेगा मणिपेढिया पण्णत्ता अट्ट जोयणाई आयामविक्खंभेणं चत्तारि जोयणाई बाहल्लेण सबमणिमई अच्छा जाव पडिरूवा, तीसे णं मणिपेढियाए उचरिं एत्य णं महेगे देवसयणिज्जे पण्णते, तस्स में देवसयणिज्जरस इमेयारवे वपणाथासे पण्णचे, तंजहा--णाणामणिमया पडिपाया सोयन्निया पाया जाणामणिमयाई पायसीसगाई जंबूणयामयाई गत्तगाई णाणामणिमए विच्चे रययामया तूली तवणिजमया गंडोवहाणया लोहियक्खमया पिब्बोयणा, सेणं सयणिज्जे उभो बिन्योयणं दुहतो उपणते मज्झे णयगंभीरे सालिंगणवाहिए गंगापुलिनवालुयाउद्दालसालिसए सुविरइयरयत्ताणे उवचियखोमदुगुल्लपट्टपडिच्छायणे रसुयसंवुए सुरम्मे आईणगरूयबूरण
दीप अनुक्रम
[३६]
॥१२॥
II४iluncierammaru
~193~
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक [३७]
दीप अनुक्रम
वणोयतूल फासे मउते। (सू०३७)॥
'तस्स ण' मित्यादि, तस्य माणवकस्य चैत्यस्तम्भस्य पूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका मणिपीटिका पझप्ता, सा च अष्टौ योजनान्पायामविष्कम्भाभ्यां चत्वाति योजनानि बाहल्येन 'सहमणिमया' इत्यादि प्राग्वत् । तस्याश्च मणिपीठिकाया * उपरि अब महदेकं देवशयनीय प्रज्ञ, तस्य च देवशयनीयस्य अयमेतद्पो वर्णावासो-वर्णकनिवेश: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नानामणि
मया प्रतिपादा-मूलपादानां प्रति विशिष्टोपट्टम्भकरणाय पादा प्रतिपादाः, सौवर्णिकाः सुवर्णमयाः पादाः-मूलपादा, नानामणिमयानि पादशीर्षकाणि जाम्बूनदमयानि गात्राणि-ईपादीनि वज्रमया-बजरत्नापूरिताः सन्धयः 'नानामणिमये विच्चे' इति
नानामणिमयं न्यून-विशिष्टवानं रजतमयी तूली लोहिताक्षमयानि 'बिब्बोयणा' इति उपधानकानि, आह च जीवाभिग* ममूलटीकाकारा-'विग्योयणा-उपधानकान्युच्यना' इति, तपनीयमय्यो गण्डोपधानिकाः, 'से णं देवसयणिज्जे' इत्यादि,
तद्देवशयनीयं सालिङ्गनवनिक-सह आलिङ्गनवा-शरीरप्रमाणेनोपधानेन यत् तत्तथा, 'उभओ बिब्बोयणे' इति उभयत:उभौ-शिरोऽन्नपादान्तावाश्रित्य विब्बोयणे-उपधानं यत्र तत् उभयतो बिब्बोयणं 'दुहतो उन्नते' इति उभयत उन्नत 'मज्झेणयगंभीरे' मध्ये नतं च तत् निम्नत्वात् गम्भीरं च-महचानतगम्भीर गङ्गापुलिनवालुकाया अबदालो-विदलनं पादादि
न्यासे अधोगमन मिति भावः तेन 'सालिसए' इति सदृशक गङ्गापुलिनवालुकावदानसशक, दृश्यते चायं प्रकारो इसतूल्याCI दिविति, तथा 'उयविय' इति विशि परिकर्मितं शोम-कासिकं दुकूल-वस्त्रं तदेव पट्टा उयवियक्षौमदकूलपट्टः स
प्रतिच्छदन-आच्छादनं यस्य तत्तथा ' आईणगरूयबूरनवणीयतूलफासे' इति प्राग्वत् , 'रत्तंसुयसंवुए' इति रक्तांशुके
[३७]
ARERIEatinnar
~194~
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
--------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
शुल्कमहेन्द वज चोप्पा
प्रत
अलवर्णनम्
०३८
सत्रांक
[३८]
श्रीराजमनीन संदृतं रक्तांकसंवतं अत एवं सुरम्य 'पासाइय' इत्यादिपदचतुष्टयं माग्वत् ॥ (मू०३७)॥ मलयगिरी
तस्स ण देवसयणिज्जस्स उत्तरपुरच्छिमेणं महेगा मणिपेढिया पण्णत्ता, अट्ठ जोयणाई आयामया वृत्तिः
विक्खंभेणं चत्तारि जोअणाई बाहल्लेणं सबमणिमयी जाव पडिरूवा, तीसे ण मणिपेढियाए उवरि ॥९३ ॥
पत्थ ण महेगे खुट्टए महिंदज्झए पपणत्ते, सर्दि जोयणाई उर्दू उच्चत्तेणं जोयणं विक्खंभेणं यारामया बहलढसंठिपसुसिलिट्ठजावपडिरूवा, उवरि अदृहमंगलगा झया छत्तातिच्छत्सा, तस्स खुदागमहिदमयस्स पश्चस्थिमेणं एत्थ णं सूरियाभस्स देवस्स चाप्पाले नाम पहरणकोसे पन्नत्ते सदवारामए अच्छे जाव पडिरूवे, तस्थ णं सरियाभस्स देवस्स फलिहरयणखग्गगयाधणुप्पमुहा बहवे पहरणरयणा संनिखित्ता चिट्ठति, उज्जला निसिया सुतिक्खधारा पासादीया ४। सभाए णं सुहम्माए उवरिं अट्ठमंगलगा झया छत्तातिच्छत्ता ।। (सू०३८)
'तस्स ण' मित्यादि, तस्य देवशयनीयस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, सा चाटी योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि बाहल्यतः 'सबमणिमयी' इत्यादि पाम्बत् , तस्याच मणिपीठिकाया उपरि भ्रष्टको महेन्द्रध्वजः ममः, तस्य प्रमाणे वर्णकश्च महेन्द्रध्वजयद्वक्तव्यं, 'तस्स ण' मित्यादि तस्य क्षुल्लकमहेन्द्रध्वजस्य पश्चिमायापत्र सूर्याभस्य देवस्य महानेका चोप्पालो नाम पहरणकोश:-पहरणस्थानं प्रज्ञप्तं, किविशिष्ट ? इत्याह-"सदबहरामए अच्छे जावपडिरुवे' इति माग्वत्, 'तत्थ ण ' मित्यादि, तत्र चोप्पालकाभिधाने पहरणकोशे बहूनि परिवरत्नखड़गदा
दीप अनुक्रम [३८]
~195
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सत्रांक
[३८]
दीप अनुक्रम [३८]
धनु प्रमुखादीनि प्रहरणरत्नानि सनिक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, कथंभूतानीत्यत आह-सुजनलानि-निर्मलानि निशितानि-अतितेजितानि अत एव तीक्ष्णधाराणि प्रासादीयानीत्यादि प्राग्वत , तस्याश्च सभायाः सुधर्माया उपरि बहून्यष्टावष्टों मङ्गलकानीत्यादि सर्व पाग्वद्वक्तव्यम् ॥ (सू०३८)
सभाए णं सुहम्माए उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थ णं महेगे सिहायतणे पपणते, एग जोयणसयं आया. मेणं पन्नासं जोयणाई विक्खंभेणं धावत्तरि जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं सभागमेणं जाव गोमाणसियाओ भूमिभागा उल्लोया तहेव, तस्स णं सिहायतणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महेगा मणिपेडिया पण्णत्ता, सोलस जोयणाई आयामविक्खंभेणं अट्ठ जोयणाई बाहल्लेणं, तीसे णं मणिपेढियाए उपरि एत्थ णं महेगे देवछदए पण्णते,.सोलस जोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई सोलस जोयणाई उडू उच्चत्तेणं सब्वरयणामए जाब पडिरूवे, एत्य णं अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहप्प माणमित्ताणं संनिखित्तं संचिति, तासि णं जिणपडिमाणं इमेयारवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहातवणिजमया हत्थतलपायतला अंकामयाई नक्खाई अंतोलोहियक्वपडिसेगाई कणगामईओ जंघाओ कणगामया जाणू कणगामया ऊरु कणगामईओ गायलट्ठीओ तवणिजमयाओ नाभीओ रिहामइओ रोमराइओ तवणिज्जमया चुचूया तवणिज्जमया सिरिवच्छा सिलप्पवालमया ओढा फालियामया देता तवणिज्जमईओ जीहाओ तवणिज्जमया तालुया कणगामईओ नासिगाओ अंतो
| सिध्धायतन (जिनालय] एवं शाश्वत-जिन प्रतिमाया: वर्णनं
~196~
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
-------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजमश्नी के
मलपगिरी
याति:
वर्णनम् 1
प्रत
सत्रांक
॥९६॥
[३९]
दीप अनुक्रम [३९]
लोहियक्खपडिसेगाओ अंकामयाणि अच्छीणि अंतोलोहियपखपडिसेगाणि रिद्वामईओ ताराओ सिद्धायतन रिहामयाणि अच्छिपत्ताणि रिटामईओ भमुहाओ कगगामया कथोला कणगामया सवणा कणगा
जिनप्रतिमा मईओ णिहालपहियाता बहरामईओ सीसघडीओ तवणिजमईओ केसंतकेसभूमीओ रिद्वामया
सू०३९ उपरि मुखया, तासि मे जिणपडिमाणं पिट्टतो पत्तेयं २ छत्तधारगपडिमाओ पण्णताओ, ताओ णं छत्तधारगपडिमाओ हिमर ययकुंदेंदुष्पगासाई सकोरेंटमल्लदामाई धथलाई आयवत्ताई सलील धारेमाणीओ २ चिट्ठति, तासि णं जिणपडिमाणं उभओ पासे पत्तेयं २ चामरधारपडिमाओ पण्णताओ, ताभो णं चामरधारपडिमातो नानामणिकणगरयणविमलमहरिह जाच सलील धारेमाणीओ २ चिट्ठति, तासिणं जिणपडिमाणं पुरतो दो दो नागपडिमातो भूयपडिमातो जक्खपडिमाओ कुंडधारपडिमाओ सवरयणामईओ अच्छाओ जाव चिटुंति, तासि णं जिणपडिमाण पुरतो अट्ठसय घंटाणं अहसय कलसाणं अट्ठसयं भिंगाराणं एवं आयसाणं थालाणं पाईणं सुपइद्वाणं मणीगुलियाणं वायकरगाणं चित्तगरार्ण रयणकरंडगार्ण हयकठाणं जाय उसमकंठाणं पुष्फर्चगेरीण जाव लोमहत्थचंगेरीणं पुष्फपडलगाणं तेल्लसमुग्गाणं जाव अंजणसमुग्गाणं अहसयं धूवकदुच्छुयाणं संनिखि चिट्ठति, सिहायतणस्सणं उवरिंअट्टमंगलगा झया छत्तातिच्छत्ता॥ (म.३०॥
1 ॥९४॥ 'सभाए ण' मित्यादि, सभायाः सुधर्मायाः 'उत्तरपुरच्छिमेण ' मिति उत्तरपूर्वस्यां दिशि महदेकं सिद्धायतनं ।
N
aturary.org
सिध्धायतन (जिनालय एवं शाश्वत-जिन प्रतिमाया: वर्णनं
~197
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[३९]
दीप
अनुक्रम [३९]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [३९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञप्तम, एक योजनशतमायामतः पञ्चाशत् विष्कम्भता द्वासप्ततिर्योजनान्यूर्ध्वमूच्चैस्त्वेनेत्यादि सर्व सुधर्मावित् वक्तव्यं यावत् गोमानसीवक्तव्यता, तथा चाह - ' सभागमएण जाव गोमाणसियाओ' इति, किमुक्तं भवति ? - यथा सुधर्मायाः सभायाः पूर्वदक्षिणोत्तरवर्त्तीनि त्रीणि द्वाराणि तेषां च व्दाराणां पुरतो मुखमण्डपाः तेषां च मुखमण्डपानां पुरतः प्रेक्षागृहमण्डपाः तेषां प्रेक्षागृह मण्डपानां पुरतचैत्यस्तूपाः समतिमाः तेषां च चैत्यस्तूपानां पुरतः चैत्यवृक्षाः तेषां च चैत्यवृक्षाणां पुरतो महेन्द्रध्वजाः तेषामपि पुरतो नन्दापुष्करिण्यस्तदनन्तरं गुलिका गोमानस्यथोक्ताः तथाऽत्रापि सर्वमनेनैव क्रमेण निरवशेषं वक्तव्यं, उल्लोकवर्णनं भूमिभागवर्णनं च माग्वत्, तस्स ण' मित्यादि, तस्य सिद्धायतनस्यान्तर्वहुमध्यदेश भागेऽत्र महत्येका मणिपीठिका मझता, सा षोडश योजनाम्यायामविष्कम्भाभ्यामष्टौ योजनानि बाहल्यतः 'सङ्घमणिमयी ' त्यादि मास्तु । ' तीसे णमित्यादि, तस्याश्च मणिपीटिकाया उपरि अत्र महानेको देवच्छन्दकः प्रज्ञप्तः, स च षोडश योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां साविरेकाणि षोडश योजनान्यूर्ध्वमुचैस्त्वेन 'सवरयणामए' इत्यादि प्राग्वत्, तत्र च देवच्छन्दके 'अष्टशतं' अष्टाधिकं शतं जिन प्रतिमानां जिनोत्सेधप्रमाणमात्राणां, पश्चधनुःशतप्रमाणानामिति भावः, सन्निक्षिप्तं तिष्ठति । 'तासि णं जिणपडिमाण'मित्यादि, तासां जनप्रतिमानामयमेतद्रूपो 'वर्णावासो' वर्णकनिवेशः प्रज्ञतः, तपनीयमयानि हस्ततलपादतलानि अङ्करत्नमया अन्तः- मध्ये लोहिताक्षरत्नम तिसेका नखाः कनकमया जङ्घाः कनकमयानि जानि कनकमया ऊरवः कनकमथ्यो गात्रयष्टयः तपनीयमया नाभयो रिमय्यो रोमराजयः तपनीयमयाः चुचुकाः- स्तनाग्रभागाः तपनीयमयाः श्रीवृक्षाः शिलामबालमयाविद्रुममया ओष्ठाः स्फटिकमया दन्ताः तपनीयमया जिह। तपनीयमयानि तालुकानि कनकमय्यो नासिकाः अन्तर्लोहिताक्षम
सिध्धायतन [ जिनालय) एवं शाश्वत- जिन प्रतिमायाः वर्णनं
For Palata Use Only
~ 198~
nerary.org
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सत्रांक
[३९]
दीप अनुक्रम
श्रीराजप्रश्नी तिसेकाः अङ्कमयान्यक्षीणि अन्तर्लोहिताक्षप्रतिरेकानि रिष्ठरत्नमयानि अक्षिपत्राणि रिष्ठरत्नमय्यो ध्रुवः कनकमयाः कपोलाः सहायतन मलयगिरी
कनकमयाः श्रवणाः कनकमय्यो ललाटपट्टिकाः वनमय्यः शीर्षघटिकाः तपनीयमय्यः केशान्तकेशभूमयः, केशन्तिभूमयः केशभू- या दृचिः
जिनप्रतिमा मयश्चेति भावः, रिष्ठमया उपरि मूर्द्धमा:-केशाः, तासां जिनप्रतिमानां पृष्ठत एकैका उत्रधारमनिमा हिमरजत हुन्देन्दुप्रकाश * वर्णन ॥ ९५॥ सकोरेण्टमाल्या विधवलयातपत्रं गृहीत्वा सलीलं धरन्ती तिष्ठति, तथा तासां जिनप्रतिमानां प्रत्येकमुभयोः पार्ययोद्ववेचा- ०३९
मरधारपतिमे मासे, वे च 'चंदप्पभवयरवेरुलियनानामणिरयणखचियचित्तदंडाओ' इति चन्द्रप्रभा-चन्द्रकान्तो IY व वैडूर्यं च प्रतीतं चन्द्रमभवजौहर्याणि शेषाणि च नानामणिरत्नानि खचितानि येषु दण्डेषु ते तथा, एवंरूपावित्रा-नानाप्रकारा |
| दण्डा येषां तानि तथा, सूबे खीत्वं प्राकृतस्वात, 'सुहमरययदीहवालाउ' इति सूक्ष्मा रजतमया दीर्घा पाला येषां तानि तथा 'संखककुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसन्निकासाओ धवलाओ' इति प्रतीतं, चामराणि गृहीत्वा सलील वीजयन्त्यस्तिष्ठन्ति, ताच 'सबरयणामईओ अच्छाओ' इत्यादि भाग्वत् , 'तासि ण' मित्यादि, तासां जिनप्रतिमानां पुरतो वे वे नागमतिमे वे दे यक्षपतिमे द्वे वे भूतप्रतिमे द्वे वे कुण्डधारप्रतिमे सन्निक्षिप्ते तिष्ठतः, तस्मिंश्च देवच्छन्दके तासां | जिनमतिमानां पुरतः अष्टशतं घण्टानामष्टशतं चन्दनकलशानामष्टशतं मङ्गलकलशानोमष्टशतं भृकाराणामहशतमादर्शानामष्टशत | स्थालानामष्टशतं पात्रीणामष्टशत मुमतिष्ठानामष्टशतं मनोगुलिकानां-पीठिकाविशेषाणामहशतं बातकरकाणामष्टशतं चित्राणां रत्नकरण्डकाणामष्टशतं हयकण्ठानामष्टशतं गजकष्ठानां अष्टशतं नरकण्ठानामष्टशतं किन्नरकण्ठानामष्टशतं किंपुरुषकण्ठानामष्टशतं महोरगकण्ठानामष्टशनं कृपभकण्ठानामष्टशतं पुष्पचङ्गेरीणामष्टशतं माल्यचौंरीणां, मुकुलानि पुष्पाणि अथितानि माल्यानि,
| ॥ ९५॥
[३९]
SHARERatininthly
miuaryou
सिध्धायतन (जिनालय एवं शाश्वत-जिन प्रतिमाया: वर्णनं
~199~
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३९]
दीप अनुक्रम
अष्टशतं चूर्णच रीणामष्टशतं गन्धचङ्गरोणामष्टशतं वस्त्रचङ्गेरीणामष्टशतमाभरणचङ्गेरीणामष्टशतं सिद्धार्थचोरीणामष्टशत लोमहस्तचङ्गेरीणां, अष्टशतं लोमहस्तकानां, लोमहस्तकं च मयूरपुच्छपुअनिफा, अष्टशतं पुष्पपटलकानामेवं माल्यचूर्णगन्धवस्त्राभरणसिदार्थकलोमहस्तकपटलकानामपि प्रत्पेकं २ अष्टशतं वक्तव्यं, अष्टशतं सिंहासनानामष्टशतं छत्राणामष्टशतं चामराणामष्टयतं तेल| समुद्रकानामष्टशत कोष्ठसमुद्र कानामहशतं पत्रसमुद्गकानामष्टशतं चोयकसमुद्गकानामष्टशतं तगरसमुद्गकानामशतमेलासमु
द्गकानामष्टशतं हरितालसमुद्गकानामष्टशतं हिलकसमुद्गकानामष्टशतं मनःशिलासमुद्गकानामशतमअनसमुद्गकानां स|ण्यिपि अमृनि तैलादीनि परमसुरभिगन्धोपेतानि, अष्ठशतं ध्वजानाम् , अत्र सङ्ग्रहणिगाथा-"चंदणफलसा भिंगारमा य
आयसया य थाला य। पातीई सुपइट्टा मणगुलिका वायकरगा य॥१॥ चिचा रयणकरंडा हयगयनरकंठगा य चंगेरी। पढलगसीहासणछत्त चामरा समुग्गक नया य ॥२॥ अष्टशवं धूपकडुच्छुकानां संनिक्षितं तिष्ठति, तस्य च सिहायतनस्य उपरि अष्टायष्टौ मङ्गलकानि ध्वजच्छनातिच्छत्रादीनि तु पाग्यत् ॥ (मू०३९)॥
तस्सणं सिद्धायतणस्स उत्तरपुरच्छिमेणं एत्य ण महेगा उववायसभा पग्णता, जहा सभाए सुहम्माए तहेव जाव मणिपेडिया अट्ठजोयणाई देवसपणिज तहेव सथणिज्जवण्णओ अट्टमंगलगा झया छत्तातिपछत्ता। तीसे ण उववायसभाए उत्तरपुरच्छिमेणं एस्थणं महेगे हरए पण्णते एग जोयणसयं आयामेणं पण्णास जोयणाई विक्खंभेणं दस जोयणाई उद्देणं तहेच, तस्स णं हरयस्स उत्तरपुरछिमे ण एत्थ णं महेगा अभिसेगसभा पण्णत्ता, मुहम्मागमएणं जाव गोमाणसियाओ मणिपेठिया
[३९]
सिध्धायतन (जिनालय) एवं शाश्वत-जिन प्रतिमाया: वर्णनं
~200~
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
--------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
उपपातादि सभावर्णनम्
श्रीराजमश्नी मलयगिराया दृत्तिः ॥१४॥
मू०४०
प्रत सूत्रांक
[४०]
दीप
सोहासणं सपरिवार जाव दामा चिट्ठति, तत्थ णं सूरियाभस्स देवस्स बहुअभिसेयभंड संनिखित्ते चिटइ, अट्ठमंगलगा तहेव, तीसे णं अभिसेगसभाए उत्तरपुरच्छिमेणं एरथ णं अलंकारियसभा पष्णता, जहा सभा सुधम्मा मणिपेडिया अट्ट जोयणाई सीहासणं सपरिवारं, तत्थ णं मूरियाभस्त देवस्स सुबहअलंकारियों संनिखिते चिट्टति, सेसं तहेच, तीसे ण अलंकारियसभाए उत्तरपुरच्छिमेणं एत्य णं महेगा यवसायसभा पण्णत्ता,जहा उववायसभा जाय सीहासणं सपरिवार मणिपेदिया अमंगलगा०, तत्थ णं सूरियाभस्स देवस्स एत्थ णं महेगे पोत्थयरयणे सन्निखिसे चिट्टा, तस्स णं पोत्ययरयणस्स इमेयारूवे वण्णावासे पण्णने, तंजहा-रयणामयाइ पत्तगाई रिहामइयो कंबिआओ तवणिजमए दोरे नाणामणिमए गंठी वेरुलियमए लिप्पासणे रिहामए छंदणे तवणिजमई संकला रिद्वामई मसी बहरामई लेहणी रिहामयाई अक्खराई धम्मिए सत्थे, ववसायसभाए णं उपरि अमंगलगा, तीसे गं ववसायसभाए उत्तरपुरछिमेणं एत्थ ण नंदापुक्खरिणी पण्णत्ता हरयसरिसा, तीसे णं णदाए पुक्खरणीए उत्तरपुरच्छिमेणं महेगे बलिपीढे पणले सहरयणामए अच्छेजाव पडिरूवे ॥ (म०४०)॥
तस्य च सिद्धायतनस्य उत्तरपूर्वस्यामत्र महत्येका उपपातसभा प्रज्ञप्ता, तस्याश्च सुधर्मागमेन स्वरूपवर्णनपूर्वादिद्वारयवर्णनमुखमण्डपप्रेक्षागृहमण्डपादिवर्णनादिप्रकाररूपेण तावद्वक्तव्यं यावदुल्लोकवर्णनं, तस्याश्च बहुसमरमणीयभूमिभागस्य
अनुक्रम [४०]
BAN|९६॥
REaratanimal
anditurary.com
~ 201~
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
--------------- मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४०]
दीप अनुक्रम [४०]
बहुमध्यदेशभागेऽत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, सा चाष्टौ योजनान्यायापविष्कम्भाभ्यां चखारि योजनानि वाहल्येन 'सबमणिमयी' इत्यादि पावत , तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि अमहदेक देवशयनीय प्रशत, तस्य स्वरूपं यथा सुधर्मायाँ सभायां देवशयनीयस्य, तस्या अप्युपपातसभाया उपरि अष्टाष्टमङ्गलकादीनि पाग्वत् । 'तासे ण' मित्यादि, तस्या
उपपातसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि महानेको हुदः प्रज्ञप्तः, स चैकं योजनशतमायापतः पश्चाशत् योजनानि विष्कम्भतो ॐदश योजनान्युद्वेधेन 'अच्छे रपयामयकूले' इत्यादि नन्दापुष्करिण्या इव वर्णनं निरवशेष वक्तव्य, ‘से ण'
मित्यादि, स हद एकया पावरवेदिकया एकेन च वनखण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः, पद्मवरवेदिकावर्णनं वनखण्डवर्णनं च प्राग्वत् , सस्य इदस्य त्रिदिशि-निसषु विशु पिसोपानपतिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि, तेषां च त्रिसोपानतिरूपकाणां तोरणानां च वर्णनं प्राग्वत् , तस्य च हास्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका अभिषेकसभा प्रज्ञप्ता, सा च सुधर्मसभावत्
प्रमाणस्वरूपद्वारत्रयमुखमण्डपादिप्रकारेण तायद्वक्तव्या यावद् गोमानसीवक्तव्यता, तदनन्तरं नथैव उल्लोकवर्णनं भूमिभागवर्णनं MIच तावत् थावन्मणीनां रूपः, तस्या अभिपेकसभाया बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे महत्येका मणिपीठिका || | प्रज्ञप्ता, साऽन्यष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि वाइल्यतः 'सबरयणामयी' इत्यादि प्राग्वत, तस्या
मणिपीठिकाया उपरि अत्र महदेके सिंहासन, सिंहासनवर्णकः प्राग्वत् , नवरमत्र परिवारभूतानि भद्रासनानि च वक्तव्यानि, का तस्मिंश्च सिंहासने सूर्याभस्य देवस्य सुबहु अभिषेकभाण्डम्-अभिषेकयोग्य उपस्कारः सन्निक्षिप्तः तिष्ठति, 'तीसे णं अ-10
भिसेयसभाए अमंगलका' इत्यादि प्राग्वत् , तस्याश्च अभिषेकसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका अलङ्कार
REaratana
Rajamuraryorg
~202~
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
--------------- मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
जिनस
ध्यादीना
पूजा
प्रत
कतव्यता. ॥ सू०४१
सूत्रांक
[४०]
श्रीराजप्रश्नी | सभा प्रज्ञप्ता, सा चाभिषेकसभावत् प्रमाणस्वरूपद्वारत्रयमुखमण्डपप्रेक्षागृहमण्डपादिवर्णनप्रकारेण तावदकच्या यावद् परिचार- मलयगिरी- सिंहासनं, तत्र सूर्याभस्य देवस्य अलङ्कारिक-अलङ्कारयोग्य भाष्डं संनिक्षिप्तमस्ति, शेष भाग्वत् । तस्याश्च अलङ्कारसमाया या दृचिः
उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका व्यवसायसभा प्रज्ञप्ता, सा च अभिषेकसभावत् प्रमाणस्वरूपद्वारत्रयमुखमण्डपादिवर्णनम॥९७॥ कारेण तोवद्वक्तव्या यावत् सिंहासन सपरिवार, सत्र महदेकं पुस्तकरत्नं सन्निक्षिप्तमस्ति, तस्य च पुस्तकरत्नस्य अयमेत
द्रपो 'वर्णावासो' वर्णकनिवेशः प्राप्तः, रिष्ठमय्यौ-रिष्ठरत्नमय्यौ कम्बिके पृष्ठके इति भावः, रत्नमयो दवरको यत्र पत्राणि प्रोतानि सन्ति, नानामणिमयो ग्रन्थिः दवरकस्यादौ येन पत्राणि न निर्गच्छन्ति, अङ्करत्नमयानि पत्राणि,
नानामणिमयं लिव्यासनं, मपीभाजनमित्यर्थः, तपनीयमयी शृङ्खला मपीभाजनसत्का, रिष्ठरत्नमयं उपरितनं तस्य छादन, सारिष्टमयी-रिष्ठरत्नमयी मयी, वज्रमयी लेखनी, रिष्ठमयान्यक्षराणि, धार्मिक लेख्य, कचित्-'धम्मिए सत्थे' इति पाठः, तत्र
धार्मिक शास्त्रमिति व्याख्येय, तस्याच उपपावसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिनि महदेकं वलिपीठं प्रज्ञत, तचाष्टौ योजनानि आयामविष्कम्भतः चत्वारि योजनानि वाहल्यतः सर्वरत्नमयं 'अच्छ' मित्यादि प्राग्वत् । तस्य च बलिपीठस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका नन्दापुष्करिणी प्रज्ञप्ता, सा च हृदप्रमाणा, हृदस्येव च तस्या अपि त्रिसोपानवर्णनं तोरणवर्णनं च प्राग्वत् (मू. ४०)॥ तदेवं यत्र याहारूपं च सूर्याभस्य देवस्य विमानं वत्र ताहन चोपवणित, सम्पति सूर्याभो देव उत्पन्न: सन् यदकरोत् यथा च तस्याऽभिषेकोऽभवत् तदुपदर्शपति
तेणं कालेणं तेणं समएणं सूरियाभे देवे अहुणोववष्णमित्तए चेव समाणे पंचविहाए पजत्तीए
दीप अनुक्रम [४०]
॥ १७॥
REatinitititel
amuraryorg
~203~
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [४१-४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४१-४२]
दीप अनुक्रम [४१-४२]]
पज्जत्तीभावं गच्छा, तंजहा-आहारपजत्तीए सरीरपज्जत्तीए इंदियपज्जत्तीए आणपाणपज्जत्तीए भासामणपज्जत्तीए, तए णं तस्स सूरियाभस्स देवरस पंचविहाए पज्जत्तीए पजत्तीभावं गपस्स समाणस्स इमेयारूवे अभत्थिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुपज्जित्था-किं मे पुर्विकरणि? कि मे पच्छा करणिज? किं मे पुरि सेय? कि मे पच्छा सेयं ? किं मे पुविपि पच्छावि हियाए सुहाए खमाए णिस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ,तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोववनगा देवा सूरियाभस्स देवस्स इमेयारूवमन्भत्थियं जाव समुप्पन्नं समभिजाणित्ता जेणेव सूरियाभे देवे तेणेव उवागच्छंति, सूरियाभं देवं करयलपरिग्गहियं सिरसावत् मत्थए अंजलिं कहु जएणं विजएणं वजाविन्ति वढावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुपियाण मूरियाभे विमाणे सिद्धायत सि जिणपडिमाणं जिणुस्सेहपमाणमित्ताणं अट्ठसयं संनिखितं चिट्ठति, सभाए ण सुहम्माए माणवए चेहए खंभे बहरामएसु गोलबहसमुग्गएस बहओ जिणसकहाओ संनिखित्ताओ चिट्ठति, ताओ णं देवाणुप्पियाणं अण्णेसिं च बहुणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य अञ्चणि जाओ जाव पज्जुवासणिज्जाओ, तं एयं णं देवाणुप्पियाणं पुर्वि करणिजं, ते एयं ण देवाणुप्पियाणं पच्छा करणिज्जतं एयं णं देवाणुप्पियाणं पुरि सेयं त एयण देवाणुप्पियाणं पच्छा सेयं ते एयं णं देवाणुप्पियाणं पुििप पच्छावि हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सति ॥ (सू०४१)।
本乎本本本善本語本字安ng4
REnatindia
IANTwinmurary.org
~204~
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजमश्नी मलयगिरी
सूर्याभस्याभिषेक
४२
या वृत्तिः
प्रत सूत्रांक [४१-४२]
॥९८॥
दीप
तएणं से सरियाभे देवे तेसि सामाणियपरिसोववन्नगाणं देवाणं अंतिए एयमई सोचा निसम्म हतुट्ठ जाव हयहियए सयणिजाओ अन्भुट्टेति सयणिजाओ अब्भुढेत्ता उववायसभाओ पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं निग्गच्छा, जेणेव हरए तेणेव उबागच्छति, उवागच्छित्ता हरय अणुपयाहिणीकरेमाणे० करेमाणे पुरच्छिमिल्लेणं तोरणेणं अणुपविसइ अणुपविसित्ता पुरच्छिभिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पचोरुहइ पचोरुहिता जलाधगाहं जलमज्जणं करेइ २ जलकिहुं करेइ २ जलाभिसेयं करेइरआयते चोक्खे परमसुईभूए हरयाओ पच्चोत्तरह २ जेणेव अभिसेयसभा तेणेव उवागच्छति तेणेव उवागच्छिता अभिसेयसभं अणुपयाहिणीकरमाकरेमाणे पुररिछमिल्लेणं दारेणं अणुपचिसइ २ जेणेव सीहासणे तेणेव उवागछहरसीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सन्निसन्ने । तए णे सरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोववत्रागा देवा आभिओगिए देवे सद्दाति सदायित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया ! सूरियाभस्स देवस्स महत्थं महग्धं महरिह चिउलं इंदाभिसेयं उषहवेह, तए णं ते आमिओगिआ देवा सामाणियपरिसोचवन्नेहिं देवेहिं एवं बुत्ता समाणा हट्ठा जाब हियया करयलपरिग्गहियं सिरसावतं मत्थए अंजलि कह एवं देवो! तहत्ति आणाए विणएणं बयणं पडिसुणंति,पडिमुणित्ता उत्तरपुरच्छिमंदिसीभार्ग अवकमंति,उत्तरपुरच्छिमं दिसीभार्ग अवकमित्ता बेउवियसमुग्धारण समोहणंति समोहणिता संखेजाई जोयणाई जाव दोश्चपि बेउवियसमुग्धारण
अनुक्रम [४१-४२]]
था॥९८॥
REautam
F
wJanmarary.orm
सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं
~205~
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [४१-४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४१-४२]
दीप अनुक्रम [४१-४२]]
समोहणित्ता अहसहस्सं सोचनियाणे कलसाणं १ अट्ठसहस्सं रुप्पमयाणं कलसाणं २ अवसहस्सं मणिमयाणं कलसाणं ३ अट्ठसहस्सं सुवग्णरुप्पमयाणं कलसाणं ४ अट्ठसहस्सं सुवन्नमणिमयाणं कलसाणं ५ अट्ठसहस्सं रुप्पमणिमयाणं कलसाणं ६ अट्टसहस्सं सुवग्णरुप्पमणिमयाणं कलसाण अहसहस्सं भोमिजाण कलसाणं ८, एवं भिगाराणं आयंसाणं थालीण पाईणं सुपतिवाणं रयणकरंडगाणं पुष्पचंगेरीणं जाव लोमहत्थचंगेरीगं पुप्फपडलगागं जाव लोमहत्वपडलगाण छत्ताणं चामराणं तेल्लसमुग्गाणं जाव अंजणसमुग्गाणं अट्ठसहस्सं धूवकडुच्छुयाण विउध्वंति,विउवित्ता ते साभाविए य वेउविए य कलसे य जाव कटुच्छुए य गिण्हंति गिहिता सरियाभाओ विमाणाओ पडिनिक्खमंति पडिनिक्खमिचो ताए उकिटाए चबलाए जाव तिरियमसंखेजाणंजाव वीतिवयमाणे वीतिवयमाणे जेणेव खीरोदयसमुहे तेणेव उवागच्छति उवागरिछत्ता खीरोयगं गिण्हंति जाई तत्थुप्पलाई ताई गेण्हंति जावसयसहस्सपत्ताई गिण्हंति २ जेणेव पुक्खरोदए समुद्दे तेणेय उवागच्छति उवागच्छित्ता पुक्खरोदयं गेण्हंति गिण्हिता जाई तत्धुप्प लाई सयसहस्सपत्ताई ताई जाव गिण्हति गिहिता जेणेव समयखेते जेणेच भरहेरवयाई वासाई जेणेव मागहवरदामफ्भासाई तित्थाई तेणेव उवागच्छति तेव उवागच्छित्ता तित्थादगं गे गेण्हेत्ता तित्थमहिथं गेहति २ जेषेव गंगासिंधुरत्तारत्तवईओ महानईओ तेणेव उवागच्छति २ सलिलोदगं गेहति सलिलोदगं गेण्हित्ता उभओकूलमहिये गेण्हति
सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं
~206~
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [४१-४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूर्याभस्या
श्रीराजप्रश्नी मलयगिरीया वृत्तिः
IN भिषेक
मू०४२
॥९९ ॥
प्रत सूत्रांक [४१-४२]
दीप
महियं गेण्हित्ता जेणेव चुल्लहिमवंतसिहरीवासहरपचया तेणेब उवाागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता दगं गेण्हति सदतुयरे सदपुप्फे सदगंधे सघमल्ले सदोसहिसिस्थए गिव्ह ति गिरिहत्ता जेणेव पउमपुंडरीयदहे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता दहोदगं गेहंति गेण्हिता जाई तस्थ उप्पलाई जाव सयसहस्सपत्ताई ताई गेयहं ति गरिहत्ता जेणेव हेमवयएरवयाई बासाई जेणेव रोहियरोहियंसासुवण्णकूलरूपपकूलाओ महाणईओ तेगेव उबागच्छंति, सलिलोदगं गेहंति २ उमओकूलमहियं गिण्हंति२ जेणेव सहायतिवियडावतिपरियागा बहवेयपध्या तेणेव उवागच्छन्ति उबागरिछत्ता सपतुपरे तहेव जेणेव महाहिमवंतरुप्पिवासहरपचया तेणेव उवागच्छति तहेब जेणेव महापउममहापुंडरीयदहा तेणेष उवागच्छंति उवागच्छिचा दहोदगं गिव्हंति तहेव जेणेव हरियासरम्मगवासाइं जेणेव हरिकंतनारिकताओ महाणईओ तेणेव उवागच्छति तहेव जेणेव गंधावइभाल. वंतपरियाया वड्वेय पद्यया तेगेव तद्देव जेणेव णिसढणीलवंतवासधरपाया तहेव जेणेब तिगिच्छिकेसरिद्दहाओ तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता तहेव जेणेव महाविदेहे वासे जेणेव सीतासीतादाओ महाणदीओ तेणेव तहेव जेणेव सवयशवदिविजया जेणेय सदमागहवरदामपभासाई तित्थाई तेणेव उवागच्छंति ते गेव उवागच्छित्ता तित्वोदगं गेपहंति णिहत्ता सांतरणईओ जेणेव सावखारपश्या ते गेव उवागच्छंति सन्तुयरे तहेव जेगेव मंदरे पदते जेब भद्दसालवगे
अनुक्रम [४१-४२]]
॥१९॥
JmEdunshumal
सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं
~207~
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [४१-४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४१-४२]
दीप अनुक्रम [४१-४२]]
तेणेव उवागच्छति सातुयरे सयपुप्फे सदमल्ले सबोसहि सिद्धथए य गेण्हति गेमिहत्ता जेणेव णंदणवणे तेणेव उवागच्छति उवागन्छित्ता सक्तयरे जाव समोसहिसिडथए य सरसगोसीसचंदणं गिपहंति गिपिहत्ता जेणेव सोमणसवणे तेणेव उवागच्छंति सन्तुयरे जाव सबोसहि सिद्धत्थए य सरसगोसीसचंदणं च दिवं च सुमणदाम दद्दरमलयसुगंधिए य गंधे गिण्हंति गिणिहत्ता एगतो मिलायति २ता ताए उक्किट्ठाए जाव जेणेव सोहम्मे कप्पे जे गेव सूरियाभे विमाणे जेणेय अभिसेयसभा जे गेव सूरियाभे देवे तेगेव उवागच्छति उचागरिछना भूरिया देवं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कह जएणं विजएणं वडाविति वढावित्ता तं महत्थं महग्धं महरिहं विउलं इंदाभिसेय उवट्ठति । तरण तं सूरियाभं देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ अग्गमहिसीओ सपरिवारातो तिन्नि परिसाओ सत्त अणियाहिवइणो जाव अन्नेवि यहवे सरियाभविमाणवासिणो देवा च देवीओ य तेहिं साभाविएहि य वेउविएहि य वरकमलपइदाणेहि य सुरभिचरवारिपडिपुन्नेहिं चंदणकयचचिएहि आविड कंठेगुणेहि पउमुप्पलपिहाणेहिं सुकुमालकोमलकरयलपरिग्गहिएहिं अट्ठसहस्सेणं सोवन्नियाणं कलसाण जाव असहस्सेणं भोमिजाणं कलसाण सम्बोदएहिं सबमहिपाहिं सब्बतूपरेहिं जाव सब्बोसहिसिद्धत्थपहिय सविड्ढीए जावं वाइएणं महया २ इंदाभिप्तेएणं अभिसिंचंति, तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स महयार इंदाभिसेए वद्दमाणे अप्पे
सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं
~208~
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[ ४१-४२]
दीप
अनुक्रम
[ ४१-४२]
मूलं [४१-४२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
श्रीराजमनी ! मलयगिरी या वृत्तिः
॥ १०० ॥
Ja Eratur
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
गतिया देवा सूरिया विमाणं नञ्चोयगं नातिमहियं पविरलफुसियर यरेणुविणासणं दिव्वं सुरभिगंधोद्गं वासं वासंति,अप्पेगतिया देवा ह्यरयं नहर भट्टरयं उवसंतरयं पसंतरयं करेंति, अप्पेगतिया देवा सूरिया विमागं आसियसंमजिओबलित्तं सुहसंमरत्थंतरावणवी हियं करेंति, अप्पेगतिया देवा सूरिया विमाणं मंचाइमंचकलियं करेंति, अप्येगइया देवा सूरियाभं विमाणं णाणाविह रागोसियं झपडागाइपडागमंडियं करेंति अप्पेगतिया देवा सूरियाभं विमाणं लाउलोइयमहियं गोसीससरसरत्तचंद्णदद्दर दिष्ण पं चंगुलित करेंति अप्पेगतिया देवा सूरिया विमाण उवचियचंदणकलसं चंदणघड सुकयतोरणपडिदुवा रदेसभागं करेंति, अप्पेगतिया देवा सूरिया विमाण आसतोसत्तविलय बग्घारियमहृदामकलावं करेंति अप्पेगतिया देवा सूरिया विमा पंचवण्णसुरभिमुकपुप्फपुंजोवयारकलियं करेंति, अप्पेगतिया देवा सूरिया कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूवमघमर्धत गंधुध्धूयाभिरामं करेंति, अध्पे मइया देवा सूरिया विमाणं सुगंधगंधियं गंधवद्दिभूतं करेंति अप्पेगतिया देवा हिरण्णवासं वासंति सुवच्णवासं वासंति रययवासं वासंति व इर बासं० पुष्पवासं० फलवासं० मल्लवासं० गंधवासं चुण्णवासं० आभणवासं वासंति अध्यगतिया देवा हिरण्णविहिं भांति एवं सुवन्नविहि भाएंति रयण विहिं पुष्फविहि फल विहिं मल्लविहिं चुण्णविहिं वत्थविविहिं०, तत्थ अपेतिया देवा आभरणविहि भाएंति, अध्ये गतिया चउद्दिहं वाइतं वाइंति-ततं
सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं
For Penal Use Only
~209~
2469) 480434Q9) *०* Q** G* Q** -
सूर्याभस्या
भिषेकः
सू० ४२
| १०० ॥
yor
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[ ४१-४२]
दीप
अनुक्रम
[ ४१-४२]
मूलं [४१-४२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
Ja Eucation
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
विततं घर्ण झुसरं, अप्पेगझ्या देवा चडव्विहं गेयं गायंति, तं०- उक्वित्तायं पायत्तायं मंदार्य रोहतावसाणं,अप्पेगतिया देवा दुयं नदृविहिं उबसिंति अप्पेगतिया विलंबियणहविहिं उवदंति अप्पेगतिया देवा दुतविलंबियं विहि उवदसेंति, एवं अप्पेगतिया अंचियं नविर्हि उबदति अप्पेगतिया देवा आरभर्ड भसोलं आरभडभसोलं उप्पयनिचयपमत्तं सकुचियपसारियं रियारियं भंत संभंतणामं दिवं विहिं उवदंसंति अप्पेगतिया देवा चउद्दिहं अभिणयं अभिणयंति, तंजहा- दितियं पाडंतियं सामंतोवणिवाइयं लोग अंतोमज्झावसाणियं, अप्पेगतिया देवा बुक्कारैति अप्पेगतिया देवापीर्णेति अप्पेगतियs वासेंति अप्पेगतिया हक्कारेंति अप्पेगतिया विर्णति तडवेंति अप्पेगइया वग्र्गति अप्फोहॅति अप्पेगतिया अप्फोर्डेति वग्गति अप्पे०तिवई छिदंति अप्पेगतिया हयहेसियं करेंति, अप्पेगतिया हत्थगुलगुलाइय करेंति, अप्पेगतिया रहघणघणाइयं करेंति, अप्पेगतिया हयहेसिय हत्थिगुलगुलाइरहघणघणाइयं करें ति अप्पेगतिया उच्छति अप्पेगतिया पच्छोलेति अप्पेगतिया उक्तिट्ठियं करेंतिअ० उच्छोलेति पच्छोलेतिउ० अप्पेगतिया तिन्निवि, अप्पेगतिया उवायंति अप्पेगतिया उववायेति अप्पेगतिया परिवयंति अप्पेगइया तिन्निवि, अप्पेगइया सीहनायंति अप्पेगतिया दद्दरयं करेंति अप्पेगतिया भूमिचवेड दलयंति अप्पे० तिन्निवेि अप्पेगतिया गज्जति अप्पेगतिया बिज्जुयायंति अगा वास वासंति अप्पेगतिया तिन्निवि करेंति अप्पेगतिया जलंति अप्पेगतिया तवंति
सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं
For Pasta Lise Only
~210~
40)
nirary org
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[४१-४२]
दीप
अनुक्रम
[ ४१-४२]
मूलं [४१-४२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
श्रीराजमश्री मलयगिरीया वृत्तिः
॥ १०१ ॥
Ja Eratur
२७०
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
अप्पेगतिया पतति अप्पेगतिया तिन्निवि, अप्पेगतिया हक्कारॅति अपेगतिया धुकारेंति अप्पेगतिया धक्कारेंति, अप्पेगतिया साई २ नामाई साहोते अपेगतिया चतारिवि अप्पेगइया देवा देवसशिवायं करेंति, अप्पेगतिया देवुज्जोयं करेंति, अप्पेगइया देवकलियं करेंति अप्पेगइया देवा कहकहां करेंति, अपेगतिया देवा दुहदुहगं करति अप्पेगतिया चेलुकूखेवं करेंति, अप्पेगइया देवसनि वायं देोयं देवकलियं देवकहकहगं देवदुदुहगं चेलुक्वेवं करेंति, अप्येगतिया उप्पलहत्थगया जाव समसहस्सपचहत्थगया अप्पेगतिया कलसहत्थगया जाव धूबकच्छुयहत्थगया हट्ट तुट्ठ जाव हिया सदतो समता आहावंति परिधावति । तए णं तं सूरियाभं देवं चत्तारि सामाणियसाहसीओ जाव सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ अण्णे य बहवे सुरिया भरायहाणिवत्थवा देवा य देवीओ य महया महया इंदाभिसेगेणं अभिसिंचति अभिसिंचित्ता पतेयं २ करयलपरिग्गहियं सिरसावतं मत्थए अंजलि क एवं क्यासी जय २ नंदा जय २ भद्दा जय जय नंदा भई ते अजियं जिणाहि जियं च पालेहि जियमज्झे बसाहि इंदो हव देवाणं चंदी इव ताराणं चमरो इव असुराणं धरणी इव नागाणं भरहो इब मणुयाणं बहई पलिओ माई बहुई सागरोवमाई बहूई पविओवमसागरोवमाई चउन्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव आयरक्खदेवसाहस्सीणं सुरियाभस्स विमाणस अन्नेसि च बहूणं सूरियाभविमाणवासीणं देवाण य देवीण य आहेबचं जाव महया २ कारे
सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं
For Peralta Use Only
~ 211~
सूर्याभस्या भिषेकः सू० ४२
| १०१ ॥
andorary.org
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[ ४१-४२]
दीप
अनुक्रम
[ ४१-४२]
मूलं [ ४१-४२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि -प्रणीता वृत्तिः
Eucation t
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
माणे पालेमाणे विहराहित्तिक जयग्स पर्जति । तए णं से सूरियाभे देवे महया २ इंदाभि सेगेणं अभिसित्ते समाणे अभिसेयसभाओ पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं निग्गच्छति निरगच्छत्ता जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छति उवागच्छिता अलंकारियस अणुप्पयाहिणीकरेमाणे २ अलंकारियस पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति २ जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति सीहासणवरगते पुरत्याभिमुद्दे सन्निसन्ने । तए णं तस्स सरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोववन्नगा अलंकारियभवति, तए णं से सूरियाभे देवे तप्पढमयाए पहलमालाए सुरभीए गंधकासाइए गायाई हेति हित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपति अणुर्लिपित्ता नासानीसासवायवो चक्खुहरं वन्नफरिसजुतं हयलालापेलवातिरेगं धवलं कणगस्वचियन्तकम्मं आगास फालियसमक्षं दिवं देवद्राजुयलं नियंसेति नियंसेत्ता हारं पिणडेतिर अबहारं पिणडेहर गावलिं पण तिरमुत्तावलिं पिणडे ति २त्ता रयणावलिं पिणडेइ २ ता एवं अंगवाई केयूराई कडगाई तुडियाई कडिसुतगं दसमुद्दाणंतर्ग विकच्छसुत्तमं मुरविं पालंबं कुंडलाई २चूडामणि मउड पिणढेइ २ गंधिमवेडिमपूरिम संघाइमेणं चव्विणं मल्लेणं कप्परुक्aiपिव अप्पाणं अलंकियविभूसियं करेइ २ दद्दरमलयसुगंधगंधिपाहिं गायाई भुखंडे दिव्वं च सुमणदाभं पिणडेइ ॥ ( सू० ४२ ) ॥ 'ते काले तेणं समरण' मित्यादि, तस्मिन् काले तस्मिन् समये सूर्याभो देवः सूर्यामे विमाने उपपातसभायां
सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं
For Panal Prsata Use Only
~ 212~
46
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [४१-४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४१-४२]
श्रीराजमश्नी देवशयनीये देवद्यान्सरे प्रथमतोऽमुलासंख्येयभागमात्रयाऽवगाहनया समुत्पन्नः 'तए ण' मित्यादि सुगम, नवरं इह | सूर्याभस्यामलयगिरी| भाषामनःपर्याप्त्योः समाप्तिकालान्तरस्य प्रायः शेषपर्याप्तिसमाप्तिकालान्तरापेक्षया स्तोकत्वादेकत्येन विवक्षणमिति 'पंचविहाए
भिषेक या वृत्तिः
पज्जत्तीए पजत्तीभावं गच्छाइ' इत्युक्त 'तए ' मित्यादि, ततस्तस्य मूर्याभस्य देवस्य पश्चविधया पर्याप्त्या पर्याप्तभाव॥ १०२॥ | मुपगतस्य सतोऽयमेतदूपः संकल्पः समुदपद्यत-'अम्भत्थिए' इत्यादि पदव्याख्यानं पूर्ववत् , कि 'मे' मम पूर्व करणीयं
किं मे पश्चात्करणीय? किंमे पूर्व का श्रेयः किं मे पश्चात् कर्नु श्रेयः १,तथा कि मे पूर्वमपि च पश्चादपि च हिताय भावपधानोऽयं निर्देशो हितत्वाय-परिणामसुन्दरतायै सुखाय-शर्मणे क्षमाय-अयमपि भावप्रधानो निर्देश संगतत्वाय निाश्रेयसायनिश्रितकल्पाणाय .नुगामिकतायै-परम्परशुभानुबन्धसुखाय भविष्यतीति, इह प्राक्तनो ग्रन्यः प्रायोऽपूर्वो भूयानपि च पुस्तकेषु वाचनाभेदस्ततो माऽभूत् शिष्याणां सम्मोह इति कापि सुगमोऽपि यथावस्थितवाचनाक्रममदर्शनार्थं लिखितः, इत | ऊ तु प्रायः सुगमः मागण्याख्यातस्वरूपश्च न च याचनाभेदोऽप्यतिवादर इति स्वयं परिभावनीपो, विषमपदव्याख्या तु
विधास्यते इति । 'तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोववन्नगा देवा इममेयारूव' मित्यादि 'आ* यंते' इति नवानामपि श्रोतसां शुद्धोदकमक्षालनेन आचान्तो-गृहीताचमनचोक्षः स्वल्पस्यापि शकितमलस्यापनयनात् अत
एव परमशुचिभूतो, 'महत्थं महग्ध महरिहं विउलं इंदाभिलेय मिति, महान् अर्थो-मणिकनकरत्नादिक उपयुज्यमानो यस्मिन् स महाथः ते, तथा महान् अर्घः-पूजा यत्र स महाघः तं, महम्-उत्सवमदतीति महार्हस्तं, विपुलं-विस्तीर्ण |शक्राभिषेकवत् इन्द्राभिषेकमुपस्थापयत 'अट्ठसहस्सं सावणियाण कलसाणं विउवंती' त्यादि, अत्र भूयान् वाचना
दीप अनुक्रम [४१-४२]]
सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं
~213~
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[ ४१-४२]
दीप
अनुक्रम
[ ४१-४२]
मूलं [४१-४२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
*本* 本中非0救命中
Education International
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
भेद इति यथावस्तिवाचनाप्रदर्शनाय लिख्यते, अष्टसहस्रं - अष्ट्टाधिकं सहस्रं सौवर्णिकानां कलशानां १ अष्टसहस्रं रूप्यमयानां २ सहस्रं मणिमयानां ३ अट्टसहस्रं सुवर्णमणिमयानां ४ अष्टसहस्रं सुवर्णरूप्यमयानां ५ अष्टसहस्रं रूप्यमणिमयानां ६ अष्टसहस्रं सुवर्णमणिमयानां ७ अष्टसहस्रं भौमेयानां कलशानां ८ अष्टसहस्र भृङ्गाराणामेवमादर्शस्थालपात्रीसुप्रतिष्ठितवात करक चित्ररत्नकरण्डक पुष्पचङ्गेरी यावल्लोमहर तक पटल क सिंहासनच्छत्रचामरसमुद्रकध्वजधूपक छुकानां प्रत्येक २ मसहस्रं २ विकुर्वति वि कुवित्वा 'ताए उट्टाए' इत्यादि व्याख्यातार्थे, 'सहतुवरा' इत्यादि, सर्वान् तूवरान - कपायान् सर्वाणि पुष्पाणि सर्वान् गन्धान् गन्धवासादीन सर्वाणि माल्यानि ग्रन्यितादिभेदभिन्नानि सर्वोषधीन सिद्धार्थकान् सर्वपकान गृहन्ति, इदैवं क्रमःपूर्व क्षीरसमुद्रे उपागच्छन्ति तत्रोदकमुत्पलादीनि च गृह्णन्ति ततः पुष्करोदे समुद्रे तत्रापि तथैव ततो मनुष्यक्षेत्रे भरतैरावतवर्षेषु मागधादिषु तीर्थेषु तीर्थोदकं तीर्थमृत्तिकां च गृह्णन्ति, ततो गङ्गासिन्धुरक्तारक्तवतीषु नदीषु सलिलोदक - नद्युदकमुभयतमृतिकां च गृह्णन्ति ततः क्षुल्लहिमवत् शिख रिषु सर्वतूवर सर्वपुष्प सर्वमान्य सर्वोष घिसिद्धार्थकान्, तत्रैव पौण्डरीकदेषु दोवादी च तानि ततो हेमवतरण्यवतवर्षेषु रोहिता राहितांशासुवर्णकूलारूप्यकूलासु महानदीषु सलिलोदकमुभयतरमृत्तिकां, तदनन्तरं शब्दापातिविकटापा तिवृत्तचैतादयेषु सर्वतूवरादीन, ततो महाहिमव पिवर्षधर पर्वतेषु सर्वत्वरादीन, ततो महापपुण्डराक प्रदेषु प्रदोदकादीनि, तदनन्तरं हरिवर्षैरभ्यवर्षेषु इरिसलिलाहरिकान्तानरकान्तानारीकान्तासु महानदीषु सलिलोदकमुभयतमृत्तिकां च ततो गन्धापातिमाल्यवत्पर्यायवृत्तवैवाढयेषु त्वरादीन्, ततो निषधनी लवद्वर्षधर पर्वतेषु सर्वतूवरादीन, तदनन्तरं तद्गतेषु तिमिच्छिवे सरिमहादेषु इदोदका
सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं
For Parts Only
~ 214~
*46 looth 40-46056
wor
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [४१-४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
मकयगिरीया वृत्तिः
॥ १०३॥
प्रत सूत्रांक [४१-४२]
दीनि, ततः पूर्वविदेहापरविदेहेषु सीतासीनोदानदीषु सलिलोदकमुभयतटमृत्तिकां च, ततः सर्वेषु चक्रवर्तिविजेतव्येषु सूर्याभस्या
भिषेक मागधादिषु तीषु वीर्थोदकं तीर्थमृत्तिको च, तदनन्तरं दक्षरकारपर्वतेषु सर्वतूबरादीन, ततः सर्वामु अन्तरनदीषु | AT: सलिलोदक मुभयतटमृत्तिका च, तदनन्तरं मन्दरपर्वते भद्रकालरने तूवरादीन् , तो नन्दनयने तूबरादीन् सरसं च गौशीर्षचन्दन, तदनन्तरं सौमनसयने सईदूबरादीन सरसं च गोशोपचन्दनं दिव्यं च सुमनोदाम गृह्णन्ति, सतः पा करने तूबरपुष्पगन्धमाल्यसरसगोशीपचन्दनदिव्य मनोदामानि, 'दहरमलए सुगंधिए य गंधे गिहति' इति दईर:-चीवरावनई कुष्टिकादिभाजनमुखं तेन गालितं तत्र एकवा यह मल योजवतका प्रसिद्धत्वात् पलपण-श्रीखण्ड रेषु सान सुगन्धिकान्-18 परमगन्धोपेतान् गन्धान गृहति, 'आसियसंमजिओचलि सुइसरभट्टरत्यंतरावणवीदिय करेह' इति आसिकम्-उदकरछटकेन सन्मानित-संभाव्यमानकचवरशोधनेन उपलिशमिव गोमयादिना उपलिप्तं तथा सिफानि जलेनात एव शुचीनि-पवित्राणि मष्टानि कचरापनयनेन रथ्यान्तराणि आपणवीधय इच-हमार्गा इवापणवीथयो-रथ्याविशेषा यस्मिन् तत्तथा कुर्वन्ति, 'अप्पेगइया देश हिरपणविहिं भाएंति' अप्येकका:-केचन देवा दिरप्यविधि-हिरण्यरूपं मङ्गलभूतं | प्रकार भाजयन्ति-रिश्रापयन्ति, शेषदेवेभ्यो ददतीति भावः, एवं सुवर्णरत्नपुष्पफलमाल्पगन्धयूभरणविधिभाजनमपि ||
भावनीयम् । 'उप्पायनियये त्यादि, उत्पातपूर्वो निपातो यस्मिन् स उत्पात निपातर, एवं निपातोल्पातं संकुचितपसारितं T'रियारिय' मिति गमनागमन भ्रान्तसंभ्रान्तनाम आरभटभसोलं दिव्यं नाट्यविधिमुपदर्शयति, अप्पेकका देवा 'वुकारेति' घुकाशब्द कुर्वन्ति, 'पीणति' पीनयन्ति--पीनमात्मानं कुर्वन्ति स्थूला भवतीत्यर्थः, 'लासंति लासयन्ति लास्यरूपं नृत्य
IRCT१०३।।
दीप
अनुक्रम [४१-४२]]
Lunctionary
सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं
~215~
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[ ४१-४२]
दीप
अनुक्रम
[ ४१-४२]
मूलं [४१-४२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
0* * *(众:本辛
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
-
कुर्वन्ति, 'ति' ति ताण्डवयन्ति ताण्डवरूपं नृत्यं कुर्वन्ति, 'तुम्हारेति' बुक्कारं कुर्वन्ति 'अल्फोर्डति ' आस्फोटयन्ति, भूम्यादिकमिति गम्यते, 'उच्छलंति' चि उच्छलयन्ति 'पोच्छति' मोच्छलयन्ति 'उवयंति' त्ति अवपतन्ति 'उप्पयंति'ति उत्पतन्ति 'परिवयंति 'चि परिपतन्ति तिर्यक् निपतन्तीत्यर्थः 'जलंति'त्ति ज्वालामालाकुला भवन्ति 'तविति' ति तप्ता भवन्ति प्रतप्ता भवन्ति 'शुक्कारेंति'त्ति महता शब्देन धूत्कुर्वन्ति 'देवोकलियं करेति त्ति देवानां वातस्यैवोत्कलिका देवीकलिका तां कुर्वन्ति, 'देवक हकहं करेति त्ति प्राकृतानां देवानां प्रमोदभरवशतः स्वेच्छावचनैर्वोलकोलाहलो देवकह कह कस्तं कुर्वन्ति 'दुदुहकं करेंति' दुदुहक मित्यनुकरणमेतत् । 'तप्पढमयाए पम्हलाए सुकुमालाए सुरभीए गंधकासाइयाए गाया हइ' इति वत्प्रथमतया तस्यामलङ्कारसभार्या प्रथमतया पक्ष्मला च सा सुकुमारा च पक्ष्मलसुकुमारा तथा सुरभ्या गन्धकापायिक्या सुरभिगन्धकपायद्रव्यपरिकर्मितया लघुशाटिकया गात्राणि रुक्षयंति, 'नासानीसासवायवोज्झ' मिति नासि-, कानिश्वासवात वाह्यमनेन तदलक्षणतामाह, 'चक्खुहर' मिति चक्षुर्हरति-आत्मवशं नयति विशिष्टरूपातिशयकलितखात् इति चक्षुर्दरं 'वण्णफरिसजुत्त' मिति वर्णेन स्पर्शेन चातिशयेनेति गव्यते युक्तं वर्णस्पर्शयुक्तं, 'हयलालापेलवाइरेग' मिति हलाला अश्वलाला तस्या अपि पेलवमतिरेकेण हयालापेलवातिरेकं 'नाम नाम्नैकार्थ समासो बहुल 'मिति समासः, अतिविशिष्ट मृदुत्व लघुखगुणोपेतमिति भावः, धवलं श्वेतं तथा कनकेन खचितानि विच्छुरितानि अन्तकर्माणि-अञ्चलयोनलक्षणानि यस्य तत् कनकखचितान्तकर्म आकाशस्फटिकं नामातिस्वच्छः स्फटिकविशेषस्तत्सममभं दिव्यं देवदृष्ययुगलं 'नियंते ' परिधते परिधाय हारादीन्याभरणानि पिनह्यनि, तत्र द्वार:- अष्टादशस रिकः अर्द्धहारो-नवसरिकः एकावली-विचित्रमणिका
सूर्याभदेवस्य अभिषेकस्य वर्णनं
For Penal Use On
~216~
3-46) 4800-46) 080-409) 4368400
Windbrary.org
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [४१-४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
मळयगिरी
प्रत सूत्रांक [४१-४२
दीप
श्रीराजमश्नी
All मुक्तावली-मुक्ताफलमयी रत्नावली-रत्नमयमणिकात्मिका पालम्बा-तपनीयमयो विचित्रमणिरत्नभक्तिचित्र आत्मनः प्रमाणेन | पतन
सुप्रमाण आभरणविशेषः,कटकानि--कलाचिकाभरणानि त्रुटितानि-बाहुरक्षिकाःअगदानि-बाहाभरणविशेषाम्दशमुद्रिकानन्तक वाचन या दृचिः हस्ताङ्गुलिसवन्धि मुद्रिकादशक कुण्ड ले--कर्णाभरणे 'चूडामणि'मिति चूडामणि म सकलपार्थिवरत्नसर्वसारो देवेन्द्रमनुष्ये- मू०४३
न्द्रमूर्द्धकृतनिवासी निःशेषामङ्गलाशान्तिरोगप्रमुखदोपापहारकारी प्रवरलक्षणोपेतः परमयङ्गलभूत आभरणविशेषः 'चित्तरयण- जिनप्रतिमा संकडं मउडमिति' चित्राणि-नानाप्रकाराणि यानि रत्नानि तैः संकट चित्ररत्नसङ्करः प्रभूतरत्ननिचयोपेत इति भावः, सं 'दिवं पूजादि
सू०४४ सुमणदाम ति पुष्पमाला, 'गंथिमे त्यादि, ग्रन्थिम-ग्रन्थनं ग्रन्थस्तेन निर्वृत्तं ग्रन्थिमं 'भावादियः प्रत्ययः' यत्सूत्रादिना ग्रन्ध्यते तदन्धिममिति भावः, पूरिमं यत् अयितं सत् वेष्टयने, तथा पुष्पलम्बूसको गण्डक इत्यर्थः, पूरिमं येन वंशशलाकामयं पारादि पूर्यते, संघातिमं यत् परस्परतो नालसंधातेन संघात्यते ॥ (मू०४१॥ ४२ ॥)
तए णं से सूरियाभे देवे केसालंकारेणं मल्लालंकारेण आभरणालंकारेण वस्थालंकारेणं चउबिहेण अलंकारेण अलंकियविभूसिए समाणे पडिपुण्णालंकारे सीहासणाओ अम्भुट्टेति २ अलंकारियसभाओ पुरच्छिभिल्लेणं दारेणं पडिणिक्खमहरत्ता जेणेव ववसायसभा तेणेव उवागच्छति यवसायसमें अणुपयाहिणीकरेमाणे २ पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति, जेणेव सीहासणवरए जाय सन्निसन्ने । तए णं तस्स सूरियाभरस देवस्स सामाणियपरिसोववन्नगा देवा पोत्थयरयणं उवगति, तते णं से सूरियाभे देवे पोत्ययरयणं गिण्हति २ पोत्थयरयणं मुयइ २ पोत्थयरयणं विहाहेइ२
अनुक्रम [४१-४२]]
REmiratanimals
~217~
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [४३-४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३-४४]
दीप अनुक्रम [४३-४४]
पोत्थयरचणं वाएति पोत्थयरयणं वाएत्ता धम्मियं ववसायं गिण्हति गिणिहत्ता पोत्थयरयणं पडिनिक्खिवइ सीहासणातो अम्भुढेति अन्भुटेता ववसायसभातो पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं पडिनिकुखमहरसा जेणेव नंदा पुक्खरणी तेोव उवागच्छति उवागच्छित्ता गंदापुक्खराण पुरच्छिमिल्लेणं तोरणे,णं पुरच्छिमिल्लणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहइ पचोरुहित्ता हत्थपादं पक्खालेति पक्खालित्ता आयंते चोक्से परमसुइभए एगं महं सेयं श्ययामयं विमलं सलिलपुण्णं मत्तगयमुहागितिकुंभसमाणं भिंगारे पगेण्हति २ जाई तत्थ उप्पलाई जाव सतसहस्सपत्ताईताई गेण्हति २ गंदातो पुक्खरिणीतो पचोरुहति पचोरुहित्ता जेनेव सिहायतणे तेव पहारेथ गमणाए ॥ (सू०४३)॥
तए णं तं मुरियाभं देवं चत्तारि य सामाणियसाहस्सीओ जाव सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ अन्ने थ यहवे सूरियाभ जाव देवीओ य अप्पेगतिया देवा उप्पलहत्थगया जावसयसहस्सपत्तहत्थगया सरियाभ देव पिट्टतो २ समणुगच्छति । तए णं तं सूरियाभ देवं बहवे आभिओगिया देवा य देवीओ य अपेगतिया कलसहत्थगया जाव अप्पेगतिया धूवकटुच्छयहत्थगता हह.. तुजाय सूरिया देवं पितो समणुगच्छति । तए णं से सूरियाभे देवे चडाह सामाणियसाहस्सीहिंजाव अमेहि य बहूहि य सूरियाभ जाव देवेहि य देवीहि य सविं संपरिखुरे सचिट्टीए जाव णातियरवेणं जेणेव सिहायतणे तेणेव उवागच्छति २ सिहायतणं पुरथिमिल्लेणं दारेणं
SAREastatinintennational
~218~
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [४३-४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
Ja
श्रीराजप्रश्न मलयगिरीया वृत्ति
स्तक रत्न वाचन मू०४३ जिनमतिमा | पूजादि
प्रत सूत्रांक [४३-४४]
॥१०५॥
सू०४४
अणुपविसति अणुपविसित्ता जेणेव देवच्छंदए जेपेव जिणपडिमाओ तेणेव उवागमछति२ जिगपडिमाणं आलोए पणामं करेति २ लोमहत्वगं गिम्हति २ जिणपडिमाणं लोमहस्थरणं पमजह पमजित्ता जिणपडिमाओ सुरभिणागंधोदएणं व्हाइण्ह णित्ता सरसेणं गोसीसचदणेणं गायाई अणुलिंपइ अणुलिंपइत्ता सुरभिगंधकासाइएणं गायाईलहेति हित्ताजिणपडिमाणे अहयाई देव. दूसजूयलाई नियसेइ नियंसित्ता पुष्फारुहणं मल्लाहहणं गंधारुहणं चुण्णारुहर्ण वतारहणं वत्थारुहर्ण आभरणारहण करेइ करिता आसत्तोसत्तविउलयहवग्यारियमल्लदामकलावं करेइ मल्लदामकलावं करेता कयरगहगहियकरयलपन्भविष्पमुकेग दसवनेणं कुसुमेण मुकपुष्फपुंजोबयारकलियं करेति करिता जिणपडिमाण पुरतो अच्छेहिं सरहेहिं रययामएहिं अच्छरसातदुलेहिं अट्ठव मंगले आलिहइ, तंजहा-सोस्थिय जाव दप्पणं, तयाणंतरं च ण चंदप्पभरयणवहरवेरुलियविमलदंड कंचणमगिरयणभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकाधूवमघमघंतगंधुत्तमाणुविद्धं च धूवहि विणिम्मुयंत वेरुलियमय कटुच्छुयं पग्गहिय पयत्तेणं धूवं दाऊण जि गवराणं अट्ठसयविसुझगन्धजुत्तेहिं अत्यगुत्तेहि अपुणरुत्तेहिं महावित्तेहि संधुणइ २ सत्तह पयाई पचीसकइ २ चा वाम जाणु अंबेइ २ त्ता दाहिणं जाणुं धरणितलंसि निहटु तिक्खुत्तो मुडाणं धरणितलंसि निवाडेइ २ ता ईसिं पञ्चुण्णमइ २ करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि क एवं वयासी-नमोत्थुणं अरहताणं जाव
दीप
अनुक्रम [४३-४४]
१०५॥
Saintairatinind
murary.org
शाश्वत जिन-प्रतिमाया: पूजन
~219~
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
----------------------------- मल [४३-४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
संपत्ताणं, बदइ नमसइ २त्ताजेणेव देवच्छंदए जेणेव सिहायतणस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छइ २त्ता लोमहत्थग परामुसइ २ सिहायतणस्स बहुमझदेसभाग लोमहत्थेग पम जति, दिवाए दगधाराए अभुक्खेइ, सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलं मंडलगं आलिहइ २ कयग्गाहगहिये जावपुंजोवयारकलियं करेइ करेत्ता धूवं दल यइ,जेणेव सिहायतणस्स दाहिणिल्ले दारे तेदेव उवागच्छतिरलोमहत्थर्ग परामुसहरता दारचेडीओय सालभंजियाओय चालरूवए यलोमहत्थर ग पम जहर त्ता दिवाए दगधाराए अन्भुक्खेइ २ सरसेगं गोसीसचंदणं चचए दलयह दलहत्ता पुष्फामहणं म. हा जाव आभरणारहण करेइ करेत्ता आसत्तोसत्त जाव घूवं दलयहरता जेणेव दाहिणिल्ले दारे मुहमंत्वे जेधोष दाहिणिल्लस्स मुहमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागकछह २त्ता लोमहस्थगं परामुसहरसा बहुमज्नदेसभागं लोभहत्येणं पमजइ २त्ता दिवाए दगधाराए अब्भुखेद २ सरसेण गोसीसचंदणं पंचंगुलितलं मंडलगं आलिहइ २ कयग्गाहगहिय जाय धूवं दलयात्ता जेय दाहिणिलस्स मुहमंडवस्स पचस्थिमिले दारे तेणेव उवागच्छदरता लोमहत्वगं परामुसइ २सा दारचेडीओ य सालिभंजियाओ य बालरूवए य लोमहत्येण पमहत्ता दिवाए दगधाराए सरसेगं गोसीसचंदण चञ्चए दलयइ २ पुष्फारुहण जाव आभरणामहणं करेह २ आसत्तोसत्ता कयगाहग्गहियं० धूवं दलयइ २त्ता जेणेव दाहिणिल्लमुहमंडवस्स उत्तरिला
REaratinind
A
morary.orm
शाश्वत जिन-प्रतिमाया: पूजनं
~220~
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [४३-४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजपश्नी मायागरीया वृत्तिः
पुस्तक रत्न
प्रत सूत्रांक [४३-४४]
वाचन AN०४३ जिनप्रतिमा पूजादि
॥१६॥
सू०४४
दीप अनुक्रम [४३-४४]
खंभपती तेणेव वागच्छह २त्ता लोमहत्थ परामुसहता थंभे य सालिभंजियाओं य वालरूवए य लोमहत्थएणं पम० जहा चेव पञ्चस्थिमिस्स दारस्स जाव धूर्व दलपह २ त्ता जेणे,व दाहिणियरस मुहमंत्वस्स पुरथिमिल्ले दारे तेणेव उवागच्छद २त्ता लोमहत्थर्ग परामुसति दारचेडीओ तं चेव सर्व जेणेव दाहिणिल्लस्स मुहमंडवस्स दाहिणिले दारे तेणेव उवागमछ। २त्ता दारचेडीओ यतं चेव स जेणे,व दाहिणिल्ले पेच्छाघरमंडवे जेणेव दाहिणिलस्स पेच्छाधरमडवस्स बहुमज्झदेसभागे जेणेव वइरामए अक्खाडए जेणेव मणिपेदिया जेणेव सीहासणे तेव . उवागच्छइ २त्ता लोमहत्वगं परामुसइ २त्ता अक्खाडगं च मणिपेडियं च सीहासणं च लोमहस्थएणं पमज्जइ २त्ता दिव्वाए दगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणं चचए दलया, पुप्फाहणं आसत्तोसत्तजाव धूव दलेइत्ता जेणेव दाहिणिल्लस्स पेच्छाघरमंडवस्स पचस्थिमिळे दारे उत्तरिले दारे ते व जे चेय पुरथिमिल्ले दारे तं चेव, दाहिणे दारे तं चेच, जेणेव दाहिणिले चेइयथूभे तेणेव उवा- . गच्छइ २त्ता थूभं च मणिपेढिय च० दिवाए दगधाराए अनु० सरसेण गोसीस बचए दलेइ २ पुप्फारु०आसतो० जावधूवं दलेइ,जेणेव पचस्थिमिला मणिपे दिया जेणे,वपचस्थिमिला जिणपडिमा तं चेव, जेणेव उत्तरिया जिणपडिमा तंचेव सच, जेणेव पुरथिमिला मणिपेढिया जेणेव पुरत्थिमिल्ला जिणपडिमा तेणेव उवागच्छह २ तं चेच, दाहिणिल्या मणिपेदिया दाहिणिला जिणपडिमा तं
॥१०६॥
KO
Saintairatinid
| शाश्वत जिन-प्रतिमाया: पूजनं
~221~
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [४३-४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३-४४]
दीप अनुक्रम [४३-४४]
चेव, जेणेव दाहिणिल्ल चेयरुकखे तेणेव उवागच्ह २तं चेव, जेणेव महिंदज्मए जेणेव दाहिणिल्ला
खरण तेणेव उवगच्छति लोमहत्थगं परामुसति तोरणे व तिसोवाणपडिरूवए सालिभंजियाओ य चालरूवए य लोमहत्थएण पमजइ दिवाए दगधाराए सरसेणं गोसीसचदणेणं. पुष्फारुहणं आसत्तोसत्त धूवं दलयति, सिद्धाययण अणुपयाहिणीकरेमाणे जेणेव उत्तरिल्ला अंदापुकखरणी तेणेव उवागच्छति २ तं चेव, जेणेब उत्तरिले चेइयरुकखे तेणेच उवागच्छति, जेणेव उत्तरिले चेहयथूभे तहेच, जेणेव पच्चथिमिल्ला पेदिया जेणेव पच्चस्थिमिठा जिणपडिमा त चेव,उत्तरिले पेरुछाघरमंडवे तेणेव उवागच्छति २ ता जा चेव दाहिणिलबत्तव्यया सा चेव सव्वा पुरथिमिले दारे,दाहिणिल्ला खंभपंती तं चेव सर्व, जेणेव उत्तरिल्ले मुहमंडवे जेणेव उत्तरिछस्स मुहमंडवस्स बहुमण्झदेसभाए त चेव सवं, पञ्चथिमिल्ले दारे तेणेव० उत्तरिल्ले दारे दाहिणिला खंभपंती सेसंत चेव सव्य,जेणेव सिहायतणस्स उत्तरिल्ले दारे त चेव, जेणेव सिहायतणस्स पुरथिमिल्ले दारे तेणेव उवागच्छह रत्ता तं चेव, जेणेव पुरथिमिले मुहमंडवे जेणेव पुरस्थिमिस्स मुहमडवस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छा २त्ता तं चेव, पुरस्थिमिस्स मुहमंडवस्स दाहिणिल्ले दारे पञ्चस्थिमिष्ठा खंभपंती उत्तरिल्ले दारे ते चेव, पुरथिमिल्ले दारे तं चेव, जेणेव पुरथिमिल्ले पेच्छाघरमंडवे,एव थूभे जिणपडिमाओ चेहयस्वखा महिंदण्या गंदा पुषखरिणी त चेव जाय धृवं दलहरता जेणेव
SAREauratonia
| शाश्वत जिन-प्रतिमाया: पूजनं
~222~
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत सूत्रांक
[४३-४४]
दीप
अनुक्रम
[४३-४४]
मूलं [४३-४४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
श्रीराजमनी मलयगिरीया वृत्तिः
॥ १०७ ॥ ॥
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
-
सभा मुहम्मातेव उवागच्छति २ तास सुहम्म पुरत्थिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसह २ ताजेcha माणवर चेइयखंभे जेणेव वइरामए गोलवहसमुग्गे तेणेव उवागच्छद्द उवागच्छत्ता लोमहत्य परामुसहर बहरामए गोलवद्दसमुग्गए लोमहत्येणं पजइ २ बहरामए गोलबहसमुग्गए विहाडेह २ जिणसगहाओ लोमहत्येणं पमज्जइ २त्ता सुरभिणा गंधोदपणं पक्खाले पक्खालिता अग्गेहिं बरेहिं गधेहि य मल्लेहि य अचेह धूवं दलयइ २ सा जिणसकहाआ वहरामएस गोलवहसमुग्गएसु पडिनक्eet माणवर्ग चेइयखभं लोमहत्वपूर्ण पमज्जड़ दिहाए दगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणेणं चचए दलह, पुष्कारहणं जाव धूवं दलयइ, जेणेव सीहासणे तं चेव, जेणेव देवसयणिज्जे तं वेव, जेणेव खुड्डागमहिंदज्झए तं चैव जेगेव पहरणकोसे चोप्पालए तेणेव उवागच्छ २ चा लोमहत्थगं परामुस २ सा पहरणकोसं चोप्पालं लोमहत्वपूर्ण पमज्जइ २त्ता दिवाए दगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणं चच्चा दलेइ पुष्कारुणं आसतोसत जाव धूवं दलयइ, जेमेव सभाए मुहम्माए बहुमज्झदेसभाए जेणेव मणिपेढिया जेणेव देवसयणिज्जे तेणेव उवागच्छद ता लोमहत्वगं परामुसद्द देवसयणिज्जं च मणिपेढियं च लोमहत्वएणं पमज्जई, जाब घूवं दलयइ २ ता जेणेव उव वासभा दाहिणिले दारे तहेव अभिसेयसभासरिसं जाव पुरत्थिमिल्ला गंदा पुक्खरिणी जेणेव हरए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता तोरणे य तिसोबाणे य सालिभंजियाओ य वालरूवए य तहेव, जेणेव
शाश्वत जिन - प्रतिमायाः पूजनं
For Penal Use On
~ 223~
14544
पुस्तक रत्न' वाचन
सू० ४३ जिनमविमा पूजादि
सू० ४४
१०७ ॥
janayar
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
----------------------------- मूलं [४३-४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३-४४]
दीप अनुक्रम [४३-४४]
अभिसेयसभा तेव उबागच्छइ २ सा तहेव सोहासणं च मणिपेढियं च सेसं तहेव आययणसरिसं जाव पुरथिमिल्ला गंदा पुक्खरिणी जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छइ २त्ता जहा अभिसेयसमा तहेव सर्व, जेणेच ववसायसभातेगेव उवागच्छह २ शा तहेव लोमहस्थय परामुसति पोत्ययरयणं लोमहत्थएणं पमज्जइ पमज्जित्ता दिखाए दगधाराए अग्गेहि वरेहि य गंधेहि मल्लेहि य अवेति २ सा मणिपेटियं सीहासणं च सेसं तं चेब, पुरस्थिमिला नंदा पुक्रवरिणी जेणेव हरए तेगेव उवागच्छद २ ता तोरणे य तिसोवाणे य सालिभंजियाओ य बालरूवए य तहेव । जेणेव बलिपीढं तेणेव उवागच्छता पलिविसज्जणं करेइ, आभिओगिए देवे सहावेइ सदायित्ता एवं वयासीखिपामेव भो देवाणुप्पिया ! सूरियाभे विमाणे सिंघाडएसु तिएमु चउक्सु चचरेसु चउमुहेसु महा. पहेसु पागारेसु अहालएसु चरियासु दारेसु गोपुरेसु तोरणेमु आरामेसु उज्जाणेसु वणेसु वणराईसु काणणेसु वणसंदेसु अचणियं करेह अधणियं करेता एबमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चप्पिणहतए ण ते आभिओगिया देवा मूरिभामेण देवेणं एवं धुत्ता समाणा जाव पडिसुडिणित्ता मूरियाभे विमाणे सिंघाडएसुतिएसुचउक्कएसुचचरेसु चउम्मुहेसु महापहेसु पागारेसु अट्टालएसु चरियासु दारेसु गोपुरेसु तोरणेसु आरामेसु उज्जासु वणेसु वणरातीसुकाणणेसु वणसंसु अच्चणिय करेइ २त्ता जेणेव सूरिया देवे जाच परचप्पिणंति, तते णं से सूरियाभे देवे जेणेव नंदा पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छा.
Auditurary.com
| शाश्वत जिन-प्रतिमाया: पूजनं
~224~
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[४३-४४]
दीप
अनुक्रम
[४३-४४]
मूलं [४३-४४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
श्रीराजमश्री मलयगिरी - या हितः
॥ १०८ ॥
Ja Eucator
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
२
नंदाक्खरिणि पुरत्थिमिल्लेण तिसोमाणपडियएणं पच्चोरुहति २ ना हत्थपाए पक्खालेह २ ताणंदाओ क्खरिणीओ पच्चुतरह जेणेव सभा सुधम्मा तेणेव पहारित्थ गमणाए । तए णं से सूरिया देवे चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अनेहि य बहहिं सूरियाभवमाणवासी हि वैमाणिएहि देवीहिं देवीहि य सद्धिं संपरिबुडे सहिडीए जाव नाइयरवेणं जेधेव सभा मुहम्मा तेजेव उवागच्छड़ सभं सुधम्मं पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति २ अणुविसित्ता व सीहास तेव उवागच्छइ २ चा सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सण्णिसणे ॥ ( सू० ४४ ) ॥
'जेव ववसायसभा' इति व्यवसायसभा नाम व्यवसायनिबन्धनभूता सभा, क्षेत्रादेरपि कमेदयादिनिमित्तत्वात्, उक्तं च- "उदयवखय खओवसमोवसमा जं च कम्मुणो भणिया । दवं खेतं कालं भावं च भव च संपप्पे ॥१॥" ति, 'पोत्थरयणं सुइ' इति उत्सत्रे स्थान विशेषे वा उत्तमे इति द्रष्टव्यं, 'विहारे' इति उद्घाटयति, 'धम्मियं ववसायं ववसई' इति धार्मिक धर्मानुगतं व्यवसाय व्यवस्यति, कर्त्तुमभिलषनीति भावः । ' अच्छरसातंदुलेहि ' अच्छो रसो येषु ते अच्छरसाः, प्रत्यासन्नवस्तुपतिविम्वाधारभूता इवातिनिर्मला इत्यर्थः, अच्छरसाथ ते वन्दुलाथ तः, दिव्यतन्दुलरिति भावः, ' पुष्कपुंजीवयारकलियं करिता 'चंदप्प भवइरवेरु लियविमलदंड ' मिति चन्द्रमभववैर्यमयो बिमलो दण्डो यस्य स तथा तं काञ्चनमणिरत्नभक्तिचित्रं कालागुरुपवरकुंदुरुतुरुकसत्केन धूपेन उत्तमगन्धिनाऽनुविद्धा कालानुरुपवर कुंदुरु
शाश्वत जिन - प्रतिमायाः पूजनं
For Parts Only
~225~
पुस्तक रत्न वाचन
सू० ४३ जिनमतिमा पूजादि
सू० ४४
॥ १०८ ॥
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[४३-४४]
दीप
अनुक्रम
[४३-४४]
मूलं [४३-४४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
1049-401494494d
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
कतुरुकधूपगन्धोचमानुविद्धा प्राकृतत्वात् पदव्यत्ययः धूपवत्तिं विनिर्मुञ्चन्तं वैड्यमयं धूपकच्छुयं प्रगृह्य प्रयत्नतो धूपं दवा जिनवरेभ्यः, सूत्रे षष्ठी प्राकृतत्वात् सप्ताष्टानि पदानि पश्चादपसृत्य दशाङ्गुलिमञ्जलिं मस्तके रचयित्वा प्रयत्नतो 'अट्ठसविधत्ते 'ति विशुद्धो-निर्मलो लक्षणदोषरहित इति भावः यो ग्रन्थः शब्दसंदर्भस्तेन युक्तानि, अष्टशतं च तानि विशुद्ध ग्रन्ययुक्तानि च तैः अर्थयुक्तः - अर्थसारैरपुनरुक्तैर्महावृत्तैः, तथाविधदेवलब्धिप्रभाव एषः, संस्तौति संस्तुत्य वाम 'जानुं अञ्चति इत्यादिना विधिना प्रणामं कुर्वन् प्रणिपातदण्डकं पठति, तद्यथा-'नमोऽत्यु णमरिहंताण' मित्यादि, नमोऽस्तु 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे देवादिभ्योऽतिशयपूजामईन्तीत्यर्हन्तस्तेभ्यः सूत्रे षष्ठी 'छट्टीविभतीर भन्नइ चडत्यो इति प्राकृतलक्षणवशात्, ते चान्तो नामादिरूपा अपि सन्ति ततो भावात्यतिपत्यर्थमाह-' भगवद्भयः भगः समत्रैश्वर्यादिलक्षणः स एषामस्तीति भगवन्तस्तेभ्यः, आदि:-धर्मस्य प्रथमा प्रहृतिस्तत्करणशीलाः आदिकरास्तेभ्यः तीर्यते संसारसमुद्रोऽनेनेति तीनं तत्करणशीलास्तीर्थकराः तेभ्यः, स्वयम्-अपरोपदेशेन सम्यग् वरंबोंधिमाप्त्या बुद्धा-मिध्यात्वनिद्रापगमसंबोधन स्वयंसंबुद्धास्तेभ्यः, तथा पुरुषाणामुत्तमाः पुरुषोत्तमाः, भगवन्तो हि संसारमप्यावसन्तः सदा परार्थव्यसनिन उपसर्जनीकृतस्वार्या उचित क्रियावन्तोऽदीनभावाः कृतज्ञतापतयो ऽनुपहतचित्ता देवगुरुब हुमानिन इति भवन्ति पुरुषोत्तमास्तेभ्यः, aur पुरुषाः सिंहा इव कर्मगजान् प्रति पुरुषसिंहास्तेभ्यः, तथा पुरुषवरपुण्डरीकाणीव संसारजलासङ्गादिना कर्म लाभातो वा पुरुषेषु वरपुण्डरीकाणि तेभ्यः, तथा पुरुषवरगन्धइस्तिन इव परचक्रदुर्भिक्षमा रिप्रभृतिक्षुद्गज निराकरणेनेति पुरुष"वरगन्धहस्तिनस्तेभ्यः, "वचा कोको भव्यसस्थलीकः तस्य सकलकल्याणकनिबन्धनतया भव्यत्वभाषेनोत्तमा लोकोचमा
Education Internation
शाश्वत जिन - प्रतिमायाः पूजनं
For Pale Only
~226~
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [४३-४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
पुस्तक रत्न वाचनं
०४३
प्रत सूत्रांक [४३-४४]
जिनप्रतिमा पूजादि सु०४४
दीप
श्रीरामप्रभी स्वेभ्यः, तया लोकस्य नाथा-योगक्षेमतो लोकनाथास्तेभ्यः, तत्र योगो चीभाधानीनेदपोषणकरण क्षेमं च तत्तदुपद्रवाय- मायगिरी
भावापादन, तथा लोकस्य-पाणिलोकस्य पश्चास्तिकायात्मकस्य वा दिता-हितोपदेशेन सम्यमरूपणया वा लोकहितास्वेया दृत्तिः
भ्यः, तथा लोकस्य-देशनायोग्यस्य प्रदीपा देशनांशुभिर्ययावस्थितवस्तुभकाशका लोकादीपास्तेभ्यः, तथा लोकस्य-उत्कृष्टमते व्यसञ्चलोकस्य प्रयोतन भयोतकत्वविशिष्ट ज्ञानशक्तिस्तस्करणशीला लोकप्रद्योतकराः, तथा च भवन्ति भगवत्प्रसादातत्क्षणमेव भगवन्तो गणभृतो विशिष्टज्ञानसंपत्समन्विता यशाद् द्वादश्चाङ्गमारचयन्तीति, तेभ्यः, तथा अभर्य-विशिष्टमात्मनः | स्वास्थ्य, निःश्रेयसधर्मभूमिकानिबन्धनभूता परमा धृतिरिनि भावः, ततः अभयं ददतीत्यभयदास्ते यः, सूत्रे च का प्रत्ययः स्वार्थिक पाकृतलक्षणवशाय एवमन्यत्रापि, तथा चक्षुरिव चक्षुः-विशिष्ट आत्मधर्म: तत्वावबोधनिबन्धनः श्रद्धास्वभावः,
श्रद्धाविहीनस्याचक्षुप्मत इव रूपं तत्वदर्शनायोगात, तद् ददतीति चक्षुस्तेिभ्यः, तथा मार्गो-विशिष्टगुणस्थानावाप्तिमगुणः Kा स्वरसवादी क्षयोपशमविशेषरतं ददतीति मार्गदाः, तथा शरण-संसारकान्तारगतानापतिपयल रागादिपीडितानां समाश्या
सनस्थानकल्प तत्त्वचिन्तारूपमध्यवसानं तहदतीति शरणदास्तेभ्यः, तथा बोधिः-जिनप्रणीत प्राप्तिस्तत्त्वार्थश्रदानलक्षणसम्यग्दर्शनरूपा तां ददतीति बोधिदारतेभ्यः, तथा धर्म-चारियरूपं ददतीति धर्मदास्तेभ्या, कथं धर्मदा ? इत्याह-धर्म | दिशन्तीति धर्मदेशकास्तेभ्यः, तथा धर्मस्य नायका:-स्वामिनस्तदशीकरणभावात् तत्फलपरिभोगाच धर्मनायकाः तेभ्यः, धर्मस्य सास्थय इव सम्यक् प्रवर्तन योगेन धमसारथ यस्तेभ्या, तथा धर्म एव वर-मधानं चतुरन्त हेतुत्वाव चतुरन्त चक्रमित चतुरन्तचकं तेन पचितुं शीलं येषां ते तथा तेभ्यः, तथा अप्रतिहते-अप्रतिरखलिते क्षायिकत्वात् घरे-पधाने ज्ञानदर्शने धरन्तीति
अनुक्रम [४३-४४]
। १०९ ॥
SAMEnirahindi
| शाश्वत जिन-प्रतिमाया: पूजनं
~227~
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[४३-४४]
दीप
अनुक्रम [४३-४४]
मूलं [४३-४४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
Jin Eucator
-4800-449)-4000 490 44) 40043-40
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
अतितवरज्ञानदर्शनघरास्तेभ्यः, तथा छादयन्तीति छद्म-घातिकर्मचतुष्टयं व्यावृत्तम् अपगतं छद्म येभ्यस्ते व्यावृच्छयानस्तेभ्यः, तथा रागद्वेषकपायेन्द्रियपरीषहोपसर्गघातिकर्मशत्रून् स्वयं जितवन्तोऽन्यथ जापयन्तीति जिनाः जापकास्तेभ्यो जिनेभ्यो जापकेभ्यः, तथा भवार्णवं स्वयं तीर्णवन्तोऽन्यांश्च तारयन्तीति तीर्णास्वारकास्तेभ्यः, तथा केवलवेदसा अवगततत्त्वा बुद्धा अन्यथ बोधयन्तीति वोधकास्तेभ्यः, मुक्ताः कृतकृत्या निष्ठितार्था इति भावस्तेभ्योऽन्यांश्च मोचयन्तीति मोचकास्तेभ्यः सर्वज्ञेभ्यः सर्वदर्शिभ्यः शिवं सर्वोपद्रवरहितत्वात् अचलं स्वाभाविकप्रायोगिकच लनक्रियाऽपोहात् अरुजं शरीरमनसोरभावेनाधिव्याध्यसम्भवात् अनन्तं केवलात्मनाऽनन्तत्वाद अक्षयं विनाशकारणाभावात् अव्याबाधं केनापि वाधयितुमशक्यममूर्त्तत्वात् न पुनरावृत्तिर्यस्मात् तदपुनरावृत्ति सिध्यन्ति-निष्ठितार्थं भवन्त्यस्यामिति सिद्धि: - लोकान्तक्षेत्र लक्षणा सेव गम्यमानत्वाद्गतिः सिद्धिगतिरेव नामधेयं यस्य तत् सिद्धिगतिनामधेयं तिष्ठत्यस्मिन् इति स्थानं-व्यवहारतः सिद्धिक्षेत्रं निश्चयतो यथावस्थितं स्वस्वरूपं स्थानस्थानिनोरभेदोपचारात् तत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं तत्संमाप्तेभ्यः, एवं प्रणिपातदण्डकं पठित्वा ततो 'बंदर नर्मसद ' इवि वन्दते ताः प्रतिमाचैत्यवन्दनविधिना प्रसिद्धेन, नमस्करोति पश्चात्प्रणिधानादियोगेनेत्येके, अन्ये त्वभिदधति - विरतिमतामेव प्रसिद्धश्चैत्यवन्दनविधिरन्येषां तथाऽभ्युपगमपुरस्सरकायन्युत्सर्गासिद्धेरिति वन्दते सामान्येन नमस्करोति आशय वृद्धेरभ्युत्थाननमस्कारेणेति, तत्वमत्र भगवन्तः परमर्षयः केवलिनो विदन्ति, अत ऊर्ध्वं सूत्रं सुगमं केवलं भूयान् विधिविषयो वाचनाभेद इति यथावस्थितवाचनामदर्शनार्थं विधिमात्रमुपदश्यते तदनन्तरं लोमहस्वकेन देवच्छन्दकं प्रमार्जयति पानीयधारया अभ्युक्षति, अभिमुखं सिञ्चतीत्यर्थः, तदनन्तरं गोशीर्षचन्दनेन पञ्चाङ्गुलितलं ददाति ततः पुष्पारो
शाश्वत जिन - प्रतिमायाः पूजनं
For Penal Use Only
~228~
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------ मूलं [४३-४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजमनी मळयगिरीया दृति
पुस्तक रत्न वाचन
०४३ जिनमतिमा
प्रत सूत्रांक [४३-४४]
पूजादि
॥११॥
सू०४४
दीप
दणादि धूपदहनं च करोति, तदनन्तरं सिद्धायतनबहुमध्यदेशभागे उदकथाराभ्युक्षणचन्दनपश्चालितलप्रदानपुष्पपुोपचा- रधूपदानादि करोति, सत्ता सिदायतनदक्षिणद्वारे समागत्य लोमहस्तकं गृहीला तेन द्वारशाखे शालिभत्रिकाव्यालरूपाणि च प्रमार्जयति,तत उदकधारयाऽभ्युक्षण गीशीर्षचन्दनचर्चापुष्पाचारोहण धूपदान करोति । ततो दक्षिणद्वारेण निर्गत्य दाक्षिणात्पस्य मुखमण्डपस्य बहुमध्यदेशभागे लोमहस्तकेन मार्योदकधाराभ्युक्षणं चन्दनपञ्चांगुलितलमदानपुष्पपुशोपचारधूपदानादि करोति, कृत्वा पश्चिमद्वारे समागस्य पूर्ववत् द्वाराचं निकां करोति कृत्वा च तस्यैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्योत्तरस्यां स्तम्भपङ्कौ समागत्य पूर्ववत्तदनिकां विधत्ते, इह यस्यां दिशि सिद्धायतनादिद्वारं तत्रेतरस्य मुखमण्डपस्य स्तम्भपतिः, ततस्तस्यैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य पूर्वद्वारे समागस्प तत्पूनां करोति, कृत्वा तस्य दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य दक्षिणद्वारे समागत्य पूर्ववत्पूजा | विधाय तेन द्वारेण विनिर्गत्य प्रेक्षागृहमण्डपस्य बहुमध्यदेशभागे समागत्याक्षपाटकं मणिपीठिका सिंहासनं च लोमहस्तकेन प्रमा-1 | योदकधारयाऽभ्युक्ष्य चन्दनचर्चापुष्पपूजाधूपदानानि कृत्वा तस्यव प्रेक्षामण्डपस्य क्रमेण पश्चिमोत्तरपूर्वदक्षिणद्वाराणामर्च निकां कृत्वा दक्षिणद्वारेण विनिर्गत्य चैत्यस्तूपं मणिपीटिकां च लोमहस्तकेन प्रमार्योदकधारयाऽभ्युक्ष्य सरसेन गोशीर्षचन्दनकेन पञ्चांगुलितलं दवा पुष्पाधारोहणं च विधाय धूपं ददाति, ततो यत्र पावाल्या मणिपीटिका तत्रागच्छति, तत्रागत्यालोके प्रणामं करोति; कृत्वा लोमहस्तकेन प्रमार्जनं सुरभिगन्धोदकेन स्नानं सरसेन
गोशीर्षचन्दनेन गात्रानुलेपनं देवदूष्ययुगलपरिधानं पुष्पाचारोहणं पुरतः पुष्पपुञोपचारं धूपदानं पुरतो दिव्यतन्दुलैरष्ट| मङ्गलकालेखनमष्टोतरशतः स्तुति प्रणिपातदण्डकपाटं च कृत्वा वन्दते नमस्पति, तत एवमेव क्रमेण उत्तरपूर्वदक्षिणप्रतिमा-
अनुक्रम [४३-४४]
११०॥
SAREnatanimal
IPN
imranmarg
| शाश्वत जिन-प्रतिमाया: पूजनं
~229~
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [४३-४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३-४४]
दीप अनुक्रम [४३-४४]
नामप्यनिकां कृत्वा दक्षिणद्वारेण विनिर्गल्य दक्षिणस्यां दिशि यत्र चैत्यकृतः तत्र समागस्य चैत्यक्षस्य द्वारवदनिकां करोति, ततो महेन्द्रध्वजस्य ततो पत्र दाक्षिणात्या नन्दा पुष्करिणी तत्र समागच्छति, समागत्य तोरणत्रिसोपानप्रतिरूपकगवशालभक्षिकाव्यालकरूपाणां लोमहस्तकेन प्रमार्जनं जलधारयाऽभ्युक्षणं चन्दनचर्चा पुष्पाचारोहणं धूपदानं च कृत्वा | सिद्धायतनममुपदक्षिणीकृत्योसरस्यां नन्दापुष्करिण्यां समागत्य पूर्ववत्तस्या अनिकां करोति, तत उत्तराहे महेन्द्रध्वजे
तदनन्तरमुत्तराहे चैत्यवृक्षे तत उत्तराहे चैत्यस्तूपे ततः पश्चिमोत्तरपूर्वदक्षिणजिनप्रतिमानां पूर्ववत् पूजां विधायोत्तराहे | प्रेक्षागृहमण्डपे सपागच्छति, तत्र दाक्षिणात्यप्रेक्षागृहमण्डपबत सर्वा वक्तव्यता वक्तव्या,ततो दक्षिणस्तम्भपंक्त्या विनिर्गस्योत्तरादे ।। मुखमण्डपे समागच्छति, तत्रापि दाक्षिणात्यमुखमंडपचत् सर्व पश्चिमोत्तरपूर्वद्वारक्रमेण कृत्वा दक्षिणस्तम्भपतया विनिर्गत्य सिद्धायतनस्योचरद्वारे समागत्य पूर्ववदर्च निकां कृत्वा पूर्वद्वारेण समागच्छति, तत्रानिका पूर्ववत् कृत्वा पूर्वस्य मुखमण्डपस्य दक्षिणद्वारे पश्चिमस्तम्भपंत्योत्तरपूर्वद्वारेषु कमेणोक्तरूपां पूजां विधाय पूर्वद्वारेण विनिर्गत्य पूर्वपेक्षागृहमण्डपे समागल्य पूर्ववत् द्वारमध्यभागदक्षिणद्वारपश्मिस्तम्भपत्तयोत्तरपूर्वद्वारेषु पूर्ववदर्चनिकां करोति, ततः पूर्वप्रकारेणैव क्रमेण चैत्यस्तूपजिनप्रतिमाचैत्यक्षमहेन्द्रध्वजनंदापुष्करिणीनां, अतः सभायां सुधर्मायां पूर्वद्वारेण मविशति, प्रविश्य यत्रैव मणिपीठिका तत्राऽऽगच्छति, आलोके च जिनमतिपानां प्रणाम करोति, कृत्वा यत्र माणकचेत्यस्तम्भो यत्र वज्रमया गोलवृत्ताः समुन्द्रकाः तत्रागत्य समुद्रकान् गृहाति, गृहीत्वा विघाटयति विघाटय च लोमहस्तकं परामृश्य तेन माज्योंदकधारया अभ्युक्ष्य गोशीर्षचन्दनेनानुलिम्पति, तता प्रधानैर्गधमाल्यैरचयति धूपं दहति, वदनन्तरं भूयोऽपि बञमयेषु गोलमृत्तसमुद्रेषु प्रतिनिक्षिपति, प्रतिनिक्षिप्य
SAREauratonintamational
| शाश्वत जिन-प्रतिमाया: पूजनं
~230
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [४३-४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३-४४]
०४४
दीप
तान् बजमयान गोलवृत्तसमुद्कान् स्वस्थाने प्रतिनिक्षिपति, तेषु पुष्पगन्धमाल्यवस्वाभरणानि चारोपयत्ति, ततो लोमहस्तकेन श्रीराजपनी ANI
पुस्तक रत्न मलयगिरी
माणकचैत्यस्तम्भं प्रमार्योदकधारयाऽभ्युक्षणचन्दनचर्चापुष्पाचारोपणं धूपदानं च करोति, कृत्वा च सिंहासनप्रदेशे समागत्या बाचन
मणिपीठिकाया: सिंहासनस्य च लोमहस्तकेन प्रमार्जनादिरूपां पूर्ववदनिकां करोति, कृत्वा यत्र मणिपीठिका यत्र च देवया वृत्तिः
०४३ शयनीयं तत्रोपागत्य मणिपीठिकाया देवशयनीयस्य च द्वारवदनिकां करोति, तन उक्तमकारेणैव क्षुल्लकेन्द्रध्वजे पूनां करोति, जिनमतिमा ततो यत्र चोप्पालको नाम प्रहरणकोशस्तत्र. समागत्य ले मइस्तकेन परिवरत्नप्रमुखाणि पहरणरत्नानि प्रमार्जयति,
पूजादि प्रमार्योदकधारयाऽभ्युक्षणं चंदनचर्चा पुष्पाधारोपणं धूपदानं च करोति, तत सभायाः मुधर्माया बहुमध्यदेशभागेऽचनिकांव | पूर्ववत् करोति, कृत्वा सुधर्मायाः सभाया दक्षिणद्वारे समागत्य तस्य अनिका पूर्ववत कुरुते, ततो ददिगद्वारेण || विनिर्गच्छति, इत उर्च यथैव सिद्धायतनानिष्कामतो दक्षिणद्वारादिका दक्षिणनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना पुनरपि प्रवि शतः उत्तरनन्दापुष्करिण्यादिका उत्तरद्वारान्ता ततो द्वितीयद्वारा निष्कामतः पूर्वद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना अर्चनिका वक्तव्यता सैव सुधर्मायां सभायामप्यन्यूनातिरिक्ता वक्तव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिण्या अर्चनिकां कृत्वा उपपातसभा पूर्वद्वारेण प्रविशति, प्रविश्य च मणिपीठिकाया देवशयनीयस्य तदनन्तरं बहुमध्यदेशभागे प्रावदनिकां विदधाति, ततो दक्षिणद्वारे समागस्य तस्यार्च निकां कुरुते, अत ऊर्वमत्रापि सिद्धायतनवत् दक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानाs
चैनिका वक्तव्या, ततः पूर्वमन्दापुष्करिणीतोऽपक्रम्य इदे समागत्य पूर्ववत् तोरणार्च निकां करोति, कृत्वापूर्वद्वारेणाभिषेकजासभा प्रविशति; मविश्य पणिपीठिकायाः सिंहासनस्याभिषेकमाण्डस्य बहुमध्यदेशभागस्य च क्रमेण पूर्ववदनिकां करोति, 51 १११॥
अनुक्रम [४३-४४]
XLGIRamera
| शाश्वत जिन-प्रतिमाया: पूजनं
~231~
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------ मूलं [४३-४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३-४४]
दीप अनुक्रम [४३-४४]
ततोऽत्रापि सिद्धायतनवत् दक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानाऽर्चनिका वक्तव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीत: पूर्वद्वारेणालङ्कारिकसभां प्रविश्वति, प्रविश्य मणिपीठिकायाः सिंहासनस्य बहुमध्यदेशभागस्य च क्रमेण पूर्ववदर्चनिकां करोति, तत्रापि क्रमेण सिद्धायतनवत् दक्षिणद्वाराऽऽदिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानाऽचनिका वक्तव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीतः पूर्वद्वारेण व्यवसायसभां प्रविशति, प्रविश्य पुस्तफरत्नं लोमहस्तकेन प्रमृज्योदकधारया अभ्युक्ष्य चन्दनेन चर्चयित्वा वरगन्धमाल्यैरर्चयित्वा पुष्पाधारोपणं धूपदानं च करोति, तदनन्तरं मणिपीठिकायाः सिंहासनस्य बहुमध्यदेशभागस्य च क्रमेण | 2 | पूर्ववदर्च निकां करोति, तदनन्तरमत्रापि सिद्धायतनवत दक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना अनिका वक्तव्या, ततः | पूर्वनन्दापुष्करिणीतो चलिपीठे समागत्य तस्य बहुमध्यदेशभागवत् अर्चनिकां करोति, कृत्वा चाभियोगिकदेवान् शब्दापयति, शब्दापयित्वा एवमवादीद-खिप्पामेवे त्यादि सुगम यावत्'तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति'नवरं शुङ्गाटक-शृङ्गाटकाऽऽकृतिपथयुक्तं त्रिकोणं स्थानं त्रिकं यत्र रध्यात्रयं मिलति,चतुष्क-चतुष्पययुक्तं,चत्वरं-बहुरथ्यापातस्थानं,चतुर्मुखं यस्माश्चतसुष्वपि दिक्षुपन्यानो निस्सरन्ति,महापथो:-राजपथःशेषः सामान्य पन्थाः पंथाःप्राकारम्मतीतः,अट्टालकार-माकारस्थोपरि भृत्याश्रयविशेपाः,चरिका-अष्टहस्तप्रमाणो नगरपाकारान्तरालमार्गः द्वाराणि-प्रासादादीनां गोपुराणि-माकारद्वाराणि तोरणानि-द्वारादिसम्बधानि आरमन्ते यत्र माधवीलतागृहादिषु दम्पल्यावित्यसाचारामः,पुष्पादिमयक्षसंकुलमुत्सबादी पाजनोपभोग्यमुथानं, सामा- Y न्यवृक्षचन्दनगरासनं काननं, नगरविप्रकृष्टं वनम्, एकाऽनेकजातीयोत्तमक्षसमूहों बनखण्डः, एकजातीयोत्तमासमूहो वनराजी, 'तए ण' मित्यादि,ततः सूर्याभदेवो चलिपीठे बलिविसर्जनं करोति, कृत्वा चोत्तरपूर्वानन्दापुष्करिणीमनुप्रदक्षिणीकुर्वन्
| शाश्वत जिन-प्रतिमाया: पूजनं
~232~
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [४३-४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजमश्नो मळयागरीया वृत्तिः ॥ ११२॥
सूर्याभस्य ससामा निकादि
प्रत सूत्रांक [४३-४४]
समोपदेशन सू०४५
दीप अनुक्रम [४३-४४]
पूर्वतोरणेनानुमविशति,अनुमविस्य च हस्ती पादौ पक्षालयति प्रक्षाल्य नन्दापुष्करिण्याः प्रत्यवतीर्य सामानिकादिपरिवारसहित सर्वा यावद् दुन्दुभिनिर्धोपनादितरषेण सूर्याभविमाने मध्यमध्येन समागच्छन् यत्र सुधर्मा सभा तत्रागत्य तां पूर्वदारेण पविशति, प्रविश्य मणिपीठिकाया अपरि सिंहासने पूर्वाभिमुखो निषीदति ॥ (मु०४४)॥
तएणं तस्स सूरियाभस्स देवस्स अवरुत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं दिसिभाएणं चत्तारिय सामाणियसाहस्सीओ चउसु भद्दासणसाहस्सीसुनिसीयंति,तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स पुरथिमिल्लेणं चत्तारिअग्गमहिसीओ चउसु भद्दासणेसु निसीयंति,तएणं तस्स सूरियाभस्स देवस्स दाहिणपुरस्थिमेणं अभितरियपरिसाए अट्ट देवसाहस्सीओ अट्ठसुभद्दासणसाहस्सीम निसीयंति,तए णे तस्स मूरियाभस्स देवस्स दाहिणेणं मजिझमाए परिसाए दस देवसाहस्सीओ दससु भद्दासणसाहस्सीम निसीयंति,तएक तस्स सूरियामरस देवस्स दाहिणपचत्थिमेणं वाहिरियाएपरिसाए वारस देवसाहस्सीतो बारससुभदासणसाहस्सीसुनिसीयंति, तए णं तरस सूरियाभरस देवस्स पचस्थिमेणं सत्तअणियाहिवाणो सत्तहिं भासणेहि णिसीयंति, तए ण तस्स सरियाभस्स देवस्स चहिसिं सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ सोलसहिं महासणसाहस्सीहि णिसीयति,तंजहा-पुरथिमिल्लेणं चत्तारि साहस्सीओ दाहिणेणं चत्तारि साहस्सीओ पञ्चत्थिमेणं चत्तारि साहस्सीओ उत्तरेणं चत्तारि साहस्सीओ, ते णं आयरक्खा सन्मजयसवम्मियकवया उप्पीलियसरासणपहिया पिणनगेविजा बहभावि
REscalinod
I.
N
aramrary.org
~233~
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सत्रांक
[४५]
दीप अनुक्रम
रविमलवरचिंधपहागहियाउहपहरणा तिणयाणि तिसंघियाई वयरामयाई कोडीणि धणूई पगिजा पडियाइयकंडकलावा णीलपाणिणो पीतपाणिणो रत्तपाणिणो चावपाणिणो चारूपाणिणो धम्मपाणिणो दंडपाणिणो खग्गपाणिणो पासपाणिणो नीलपीयरत्तचायचारुचम्मदंडखग्गपासधरा आयरक्खा रक्खोवगया गुत्ता गुत्तपालिया जुत्ता जुत्तपालिया पत्तेयं २ समयओ विणयओ किंकरभूया चिट्ठति ॥ (सू०४५)॥
ततः मागुपदर्शितसिंहासनक्रमेण सामानिकादय उपविशन्ति, 'ते ण आयखा' इत्यादि, ते आत्मरक्षाः सन्न| दबद्धवर्मितकवया उत्पीडितशरासनपट्टिका पिनद्धौवेया-प्रैवेयकाभरणाः आषिद्धविमलवरचिलपट्टा गृहीताऽऽयुधमहरणा-17 खिनतानि आदिमध्यावसानेषु नमनभावात् त्रिसन्धीनि आदिमध्यावसानेषु संधिभावात् यत्रमयकोटीनि धपि अभिगृह्य 'परियाइयकंडकलावा' इति पत्तिकाण्डकलापा विचित्रकाण्डकलापयोगात्, केऽपि 'नीलपाणिणो' इति नील: काण्डकलाप इति गम्यते पाणी येषां ते नीलपाणयः, एवं पीतपाणयो रक्तपाणयः चापं पाणी येषां ते चापपाणयः चारु:प्रहरणविशेष: पाणी येषां ते चारुपाणयः चर्म अंगुष्ठांगुल्योराच्छादनरूपं येषां ते चर्मपाणया, एवं दण्डपाणयः खङ्गपाणयः पाशपाणयः, एतदेव व्याचष्टे-यथायोगं नीलपीतरक्तचापचारुचर्मदडखापाशधरा आत्मरक्षा रक्षामुपगच्छति सदेकचित्ततया तत्परायणा वर्तन्ते इति रक्षोपगा: गुप्ता न स्वामिभेदकारिणः,तथा गुप्ता-पराभवेश्या पाकि:-सेतुर्येषां ते गुप्तपालिका,तथा युक्ताः-सेवकगुणोपेततया उचितास्तथा युक्ता:-परस्परसंबद्धा नतु बृहदन्तरा पालिर्वेषां वे युक्तपालिका, समयत:-आचारतः
[४५]
SARERainintenmarana
weredturary.org
~234~
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
श्रीराजप्रश्नी मलयगिरीया चिः ॥११३ ॥
सुत्रांक
[४५]
दीप अनुक्रम
आचारेणेत्यर्थः चिन यतश्च किंकरभूता इव तिष्ठति, न खलु वे किंकराः, किन्तु तेऽपि मान्याः, वेषामपि पृथगासननिपातनात् । केवल ते तदानीं निजाचारपरिपालनतो विनीतत्वेन च तयाभूता इव तिष्ठंति, तत उक्तं किंकरभूता इवेति, 'तेहिं चाहिं कसूर्याभस्य
स्थितिः सामाणियसाहस्सीहि, इत्यादि मुगर्म, यावत् 'दिच्चाई भोगभोमाई मुंजमाणे विहरवि' इति ॥ (सू०४५) सूरियाभस्स णं भंते! देवस्स केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ?, गोयमा ! चत्तारि पलिओ
पूर्वभवप्रमः
कैकयी वमाई ठिती पण्णता, सूरियाभस्स णं भंते ! देवस्स सामाणियपरिसोववण्णगाणं देवाणं केवइयं l सुगवन कालं ठिती पण्णचा?, गोयमा! चत्तारि पलिओवमाई ठिती पण्णता, महिद्दीए महजुत्तीए पदेशिव० महब्बले महायसे महासोक्खे महाणुभागे सूरियाभे देवे, अहो णं भंते ! सूरियाभे देवे महिड्ढीए . ४६-८ जाव महाणुभागे ।। (सू०४६)॥ सूरियाभेणं भंते ! देवे णं सा दिवा देविहदी सा दिवा देवजुई से दिवे देवाणुभागे किपणा लद्धे किण्णा पत्ते किण्णा अभिसमन्नागए? पुरभवे के आसी किनामए वा'को वा गुत्तण कयरंसि चा गामंसि वाजाव सन्निवेसंसि वा? किंवा दया किंवा भोचा किंवा किचा किंवा समायरित्ता कस्स वा तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सुचानिसम्मोजण्ण सूरियामेणं देवेणं सा दिवा देविडदी जाव देवाणुभागे लडे पने अभिसमन्नागए ॥(सू०४७)॥ गोयमाई ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेचा एवं वयासी-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दोये भारहे वासे केयइअहे
११३॥
[४५]
~235~
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [४६-४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४६-४८]
दीप
नामे जणवए होत्था, रिथिमियसमिद्धे, तत्थ णं केइयअहे जणवए सेपविया णाम नगरी होत्था, रिडस्थिमियसमिहा जाव पडिरूवा। तीसे ण सेयवियाए नगरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसीभागे एत्थ णं मिगवणे णाम उजाणे होत्या, रम्मे नंदणवणपगासे सदोउयफलसमि-डे सभमुरभिसीयलाए छायाए सवओ चेव समणुचढे पासादीए जाव पडिरूवे, तत्थ ण सेयवियाए णगरोए पएसी णाम राया होत्था, महयाहिमवंत जाव विहरह अधम्मिए अधम्मिट्टे अधम्मक्खाई अधम्माणुए अधम्मपलोई अधम्मपजणणे अधम्मसीलसमुयारे अधम्मेण चेव वित्ति कप्पेमाणे हणछिंदर्भिदापवत्तए चने रुदे खुद्दे लोहियपाणी साहस्तीए उकंचणवंचणमायानियडिकूडकवडसायिसंपओगवाहले निस्सीले निवए निग्गुणे निम्मेरे निप्पचक्खाणपोसहोववासे यहणं दुपयच उप्पयमियपसुपक्षीसिरिसवाण घायए वहाए उच्छेणयाए अधम्मकेऊ समुट्ठिए, गुरूणं णो अन्भुटेति णो विणयं पञ्जइ, समण० सयस्सवि य र्ण जणवयस्स णो सम्मं करभरवित्ति पवने ॥ (स०४८)।
'सूरियाभस्स भंते ! देवस्स केवइयं काल' मित्यादि सुगम ॥ (मू०४६)॥'गामसि येति असते युद्धयादीन् गुणान् यदिवा गम्यः शाखपसिद्धानामष्टादशानां कराणामिति ग्रामस्तस्मिन् 'नगरसि वे' तिन वियते करो यस्मिन् तनगर तस्मिन् निगम:-अभूततरवणिग्वर्गावासः राजाधिष्ठान नगरं राजधानी पांभुपाकारनिवर्ट खेटे चालकप्राकारष्टितं की अर्धगव्यूततृतीयान्तीमान्तररहितं मैडपं, 'पणसि वे' ति पट्टन-जलस्थलनिर्गममवेशः, उक्तं -
अनुक्रम [४६-४८]
~236~
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[४६-४८]
प
अनुक्रम [४६-४८]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [ ४६-४८ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
श्रीराजमनी मलयगिरी
या हितः
॥ ११४ ॥
"पट्टनं शकटैर्गम्यं, घोटकेन भिरेव च । नौभिरेव तु यद् गम्यं, पचनं तत्प्रचक्षते ॥ १ ॥ " द्रोणमुखं जलनिर्गमप्रवेशं, पत्तनमित्यर्थः, आकरो-हिरण्याकरादि आश्रमः- तापसावसथोपलक्षित आश्रयविशेषः संबाधो-यात्रासमागतप्रभूतजननिदेशः सन्निवेशः तथाविधमाकृतलोकनिवासः 'किं वा दवे' स्यादि, दत्त्वा अशनादि भुक्त्वा अन्तमान्तादि कृत्वा तपःशुभध्यानादि समाचर्य प्रत्युपेक्षाप्रमार्जनादि ( ॥ सू० ४७ ॥ ) 'केश्यअडे जणवर होत्था' केकयीनामार्द्ध- अर्धमात्रमात्यति गम्यते स हि परिपूर्णो जनपदः केवलमर्द्धमार्यमर्द्ध चानार्थमार्येण चेह प्रयोजनमित्युर्द्धमित्युक्तं, जनपद आसीत्, 'सोउफलसमिद्धे रम्मे नंदणवनप्पकासे इत्यादि, सर्वर्तुकैः सर्वर्तुभाविभिः पुष्पैः फलैश्व समृद्धिमत्, एवं रम्यं रमणीयं नन्दनवनप्रतिमं शुभसुरभिशीतलया छायया सर्वतः समनुबद्धं 'पासाईए' इत्यादि पदचतुष्टयं पूर्ववत् । 'महया हिमवंते ' त्यादि राजवर्णनं माम्बत्, धम्मिए इति धर्मेण चरति धार्मिको न धार्मिकः अधार्मिकः, तत्र सामान्यतोऽप्यधार्मिकः स्यादत आह- अधर्मिष्टः- अतिशयेनाधर्मवान् अत एवाधर्मेण ख्यातिर्यस्या सावधर्मख्याति : 'अधम्माणुए ' इति अधर्ममनुगच्छति अधर्मानुगतः तथा अधर्ममेव प्रलोकते - परिभावयतीत्येवंशी लोऽधर्ममलोकी 'अधम्मप्पजणणे इति अ प्रकर्षण जनयति उत्पादयति लोकानामपीत्यधर्मप्रजननः अधर्मशील समुदाचारोन धर्मात् किमपि भवति तस्यैवाभावादित्येवमधर्मेणैव द्वारा सर्वजन्तूनां यापनां कल्पयन् 'हणछिंदर्भिदापवत्तए ' जहि छिंद्धि भिद्धि' इत्येवं प्रवर्त्तकोत एव लोहितपाणिः - मारयित्वा हस्तयोरप्यप्रक्षालनात् अत एव पापः पापकर्मकारित्वात् चण्डः atasोपावेशात् रौद्रो निस्तुंशकर्मकारित्वात् साहसिकः परलोकभयाभावात् 'उचणचण
अत्र सूर्याभदेवस्य प्रकरणं परिसमाप्तः
For Personal & Pre Only
~ 237~
440) 4800 4000004-100
सूर्याभस्य स्थितिः पूर्वभवमश्रः कैकयी
मृगवन पदेशिव०
सू. ४६-८
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [४६-४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४६-४८]
दीप
मायानियडिकडकवडसाइसंपओगबहुले' इति ऊर्च कंचनमुत्कंचन-हीनगुणस्य गुणोत्कर्षप्रतिपादन वैचा-पतारण। माया-परवंचनबुद्धिः निकृति-बकवृत्या गलकर्चकानामिवावस्थानं कूटम्-अनेकेषां मृगादीनां ग्रहणाय नानाविधप्रयोगकरणं कपट-नेपध्यभाषाविपर्ययकरणं एभिरुत्कञ्चनादिभिः सहातिश्चयेन या संपयोगो-योगस्तेन बहुला, अथवा सातिसंप्रयोगो नाम या सातिशयेन द्रव्येण कस्तूरिकादिना अपरस्य संप्रयोगा, उक्तं च सूत्रकृताङ्गचूर्णिकृता-“सो होइ साइजोगो दई ज छुहिय अन्नदवे । दोसगुणा चयणेमु य अत्यविसंवायणं कुणइ ॥१॥” इति, तत्संपयोगे बहुला, अपरे व्याख्यानयन्ति-उत्कंचन नाम उत्कोचा, निकृतिः-वञ्चनपच्छादनकर्म साति:-विश्रम्भः, एतत्संप्रयोगबहुला, शेषं तथैव, निशीलो-ब्रह्मचर्यपरिणामाभावात् निर्वतो-हिंसादिविरत्यभावात् निर्गुणा-क्षान्त्यादिगुणाभावात् निर्मर्यादा-परस्त्रीपरिहारादिमर्यादाविलोपित्वात् निष्पत्याख्यानपोषधोपवास:-पत्याख्यानपरिणामपर्वदिवसोपवासपरिणामाभावात्, पहना विपदचतुष्पद- 11 मृगपशुपक्षिसरिसृपानांधाताय-विनाशाय बघाय-ताहनाय उच्छादनाय-निर्मूलाभावीकरणाय अधर्मरूपः केतुरिव-ग्रहविशेष इव समुत्थितः, न च गुरूणां-पित्रादीनामागच्छतानामभ्युत्तिष्ठति-अभिमुखमृर्ष तिष्ठति, न च विनयं प्रयुक्ते, नापि श्रमणघालणभिक्षुकाणामभ्युत्तिष्ठति, न च विनयं प्रयुक्ते, नापि स्वकस्यापि-आत्मीयस्यापि जनपदस्यापि सम्पकरभरहरि प्रययति ॥ (सू०४८)॥
तस्स णं पएसिस्स रन्नो सूरियकता नाम देवी होत्था,सुकुमालपणिपाणिपाया धारिणीवपणओ, पएसिणा रना साह अणुरत्ता अविरत्ता इढे सद्दे रूवे जाव विहरइ ॥(सू० ४९)॥ तस्स णं
अनुक्रम [४६-४८]
अथ 'प्रदेशीराजन' प्रकरणं आरभ्यते
~238~
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [४९-५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजमश्नी मलयगिरीया दृत्तिः
प्रत सूत्रांक [४९-५०]
मूर्यकान्ता
राजीव सुर्यकान्त - कुमारव० 9 चित्रसा
रथिव० ०४९ ५०-५१
दीप अनुक्रम [४९-५०]]
पएसिस्स रण्णी जेट्टे पुत्ते सरियकताए देवीए अत्तए सूरियकते नाम कुमारे होत्था, सुकुमालपाणिपाए जाव पडिसवे । से णं सूरियकते कुमारे जुवरायावि होत्था, पएसिस्स रन्नी रज च रहूं च पलं च वाहणं च कोसं च कोडागारं च अंतेउरं च जणवयं च सयमेव पहचुवेक्खमाणे २ विहरद ॥(सू०५०)॥
'तस्स पएसिस्स रनो सूरीकता नाम देवी होत्था,सकुमालपाणिपाया इत्यादि देवीवर्णनं प्राग्वत् । प्रदेशिना राज्ञा सार्द्धमनुरक्ता अविरक्ता- कश्चिद्विप्रिय करणेऽपि विरागाभावात् । कुमारवर्णनं 'सुकुमालपाणिपाए' इत्यादि जाव 'सुन्दरे' इति, अत्र यावत्करणात 'अहीणपंचिंदियसरीरे लवखणवंजणगुणोववेए माणुम्माणपमाणपरिपुरणमुजायसवंगसुन्दरंगे ससिसोमाकारे कंते पियद रिसणे सुरूवे' इति द्रष्टव्यं, एतच्च देवीवर्णकवत् स्वयं परिभावनीयं, स च सूर्यकान्तो नाम कुमारो युवगजा अभूत्, प्रदेशिनो राज्ञो राज्य-राष्ट्रादिसमुदायात्मकं राष्ट्र च-जनपदं च बलं च-हस्त्यादिन्यं वाइन च-वेगसरादिक कोशे च-भाण्डागार कोष्ठागारं च-धान्यगृई पुरं च-नगरमन्तःपुरं च-अवरोधं चात्मनैव-स्वयमेव समुत्प्रेक्षमाणो व्यापारयन् ॥ (मू० ४९-५०)।
तस्स णं पएसिस्स रन्नो जेट्टे भाउयवयंसए चित्ते णाम सारही होत्था अढे जाव बहुजणस्स अपरिभूए सामदंडभेय उवप्पयाणअस्थसत्थईहामइविसारए उत्पत्तियाए घेणतियाए कम्मयाए पारिणामियाए चाउनिहाए चुडीए उववेए, पएसिस्स रणो बहुम कम्नेसु य कारणेसु य कुबेसु
॥१५॥
Amanataram.org
~239~
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[५१]
दीप
अनुक्रम
[५१]
मूलं [ ५९ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
araton
大众营* 本* 众
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
-
4-10
य मंते य गुज्झेसु य रहस्तेसु य ववहारेसु य निच्छएस व आपुच्छणिजे मेढी पमाणं आहारे आलंबणं चक्खू मेढिभूए पमाणभूए आहारभूए आलंबणभूए सदट्ठामसवभूमियामु लडपचए विदिण्णविचारे रजधुराचितए आदि होत्था ॥ ( सू० ५१ ।।
'चिले नाम सारही होत्या अड्डे दित्त ' इति आय:- समृद्धो दोसः कान्तिमान: क्विः प्रतीतो यावत्करणात् * विजलभवणसयणासण जाणवाहणाइणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूते बहुधण बहुजायरूपस्यर विच्छट्टियपउरभत्तपाणे ' इति परिग्रहः अस्य व्याख्या राजवर्णकवत् परिभावनीया, 'बहुजणस्स अपरिभूए ' राजमान्यखात् स्वय च जात्यक्षत्रियत्वात्, 'साममेयदंड उवप्पयाण अत्यसत्थई हाम विसारए इति, सामभेददण्डोपमदानलक्षणानां नीतीनामर्थशास्त्रस्य अर्थोपायच्युत्पादनग्रन्थस्य ईदा - विमर्शस्तत्प्रधाना मतिरीहामतिस्तया विशारदो- विचक्षणः सामभेददण्डोपप्रदानार्थशास्त्रेहामतिविशारदः उत्पत्तिक्या अदृष्टाश्रु ताननुभूत विषयाकस्माद्भवनशीलया वैनयिक्या विनयलभ्यशास्त्रार्थसंस्कारजन्यया कर्मजया - कृषिवाणिज्यादिकर्मभ्यः समभावया पारिणामिक्या प्रायोवयो विपाक जन्यया एवंरूपया चतुर्विधया बुद्धचा उपपेतः प्रदेशिनो राज्ञो बहुषु कार्येषु कर्त्तव्येषु कारणेषु कर्त्तव्योपायेषु कुटुम्बेषु स्वकीयपरकीयेषु विषयभूतेषु मन्त्रेषु - राज्यादिचिन्तासपेषु गुझेषु वहिर्जनाप्रकाशनीयेषु रहस्येषु तेष्येवा पदक्षीणेषु निश्रयेषु निश्रीयंते इति निश्चया:- अवश्यकरणीयाः कर्त्तव्यविशेपास्तेषु व्यवहारेषु आवाहन विसर्जनादिरूपेषु आपृच्छनीयः सकृत् पृच्छनीयः प्रतिमच्छनीयः असकृत् पृच्छनीयः, किमिति?, यतोऽसौ 'मेढी' इति मेढी-खलकमध्यवर्तिस्थूणा यस्यां निर्यामता गोपंक्तिर्धान्यं ग्राहयति सद्द् यमालम्ब्य सकलं मन्त्रिमण्डलं
For Parts Only
~ 240 ~
45988069-4499 480% 459) *047409)--
Mansaray or
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सत्रांक
[५१]
दीप अनुक्रम
मानचित्रस्व मीराजप्रश्नी मन्त्रणीयान् अर्थान् धान्यमिव विवेचयति समेदि,वया प्रमाण-प्रत्यक्षादि वदन् यस्तष्टानामनामन्यभिचारित्वेन तत्रैव मन्त्रि
जिवशाहगांप्रवृत्तिनिवृत्तिभावात् स प्रमाणः,आधार आधेयस्येव सर्वकार्येषु लोकानामुपकारित्वात्,तया आलम्बन रज्ज्चादि तहत् आप-10 मख्य गिरी
तापाचे गमन या वृत्ति द्गादिनिस्तारकत्वात् आलम्बन,तथा चक्षुः-लोचनं तहल्लोकस्य यो विविधकार्येषु प्रवृत्तिनिवृत्तिविषयदर्शकः स चक्षुः,एतदेव
मा०५२ प्रपञ्चपति-'मेदिभूए' इत्यादि, अत्र भूतशब्द औपम्यार्थ:, मेदिसटश इत्यर्थः, 'सब्वट्ठाणसव्वभूमियासु लखपचए'
इति, सर्वेषु स्थानेषु-कार्येषु संधिविग्रहादिषु सर्वासु भूमिकाम-मन्त्र्यमात्यादिस्थानरूपानु लब्धा-उपलब्धः प्रत्यया-प्रतीतिः • अविसंवादवचनता यस्य स तथा, 'विइण्णविचारो' इति वितीर्णो-राशाऽनुजातो विचार:-अवकाशो यस्य विश्वसनीयत्वात् | स वितीर्णविचारः सर्वकार्यादिष्विति प्रकृतं, किंबहुना ?-राज्यधुराचिन्तकवापि-राज्यनिर्वाहकश्वाप्यभवत् ॥(मु०५१) |
तेणे कालेणं तेणं समएणं कुणाला नाम जणवए होत्था, रिडस्थिमियसमिद्धे, तत्थ णं कुणालाए जणवए सावत्थी नाम नयरी होत्या रिडस्थिमियसमिढा जाव पडिरूवा । तीसे णं सावत्थीए णगरीए पहिया उत्तरपरधिमे दिसीभाए कोहए नामंचेहए होत्या, पोराणे जाव पासादीए ४,तत्थ णं सावत्थीए नयरीए पएसिस्स रनो अंतेवासी जियसन्त नाम राया होत्था,महयाहिमवंत जाब विहरइ । तए णं से पएसी राया अन्नया फयाइ महत्थं महग्धं महरिहं विउले रापारिह पाहुई सजावेद, सज्जावित्ता चित्तं सारहि सदावेद सहाविता एवं षयासी-च्छ णे चित्ता ! तुम सावत्विं नगरि जियसत्तुस्स रपणो इमै महत्थं जाव पाहुडं उवणेहि, जाई तत्य रायक
[५१]
~241~
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक [५२]
दीप
अनुक्रम [५२]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [ ५२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
9049004004002
4500 409) *०*#4
खाणि य रायकिञ्चाणि य रायनीतीओ य रायववहारा य ताई जियसत्तुणा सि सयमेव पच्खमाणे विहराहित्तिक विसज्जिए । तए णं से चित्ते सारही परसिणा रण्णा एवं बुत्ते समाणे हट्ट जाव पडिसुणेत्ता तं महत्थं जाव पाहुडे गेण्हर, एसिस्स रणो जाव पडिणिक्खम २ ता सेयवियं नगरिं मज्झमज्झेणं जेगेव सए गिहे तेणेव उवागच्छति उवागच्छिता तं महत्थं जाव पाहुडे ठवेइ, कोटुंबियपुरिसे स दावे २ता एवं बयासी खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया ! सच्छन्तं जाब चाउरघंटं आसरहं जुत्तामेव उagवेह जाव पचष्पिणह। तए णं ते कोडुंबियपुरिसा तहेब पडिणित्ता खिप्पामेव सच्छत्तं जावजुद चाउरटं आसरहं जुत्तामेव उववेन्ति, तमाणत्तियं पचप्पिणंति, तर णं से चित्ते सारही कोडुंबियपुरिसाण अंतिए एयमट्ठे जाव हियए पहाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छिते सन्नद्धवम्मियकवए उप्पो लिपसरासणपट्टिए पिणिडगेविज्जे बद्धआविद्धविमलवरचिंध
गहिया उपहरणे तं महत्थं जाय पाहुडं गेण्हइ २ जेणेव चाउघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ २ चाउरघं आसरहं दुरूहेति, बहुहिं पुरिसेहि सन्नद्ध जाव गहियाउहपहरणेहिं सद्धिं संपरिबुडे सकोरिंटमल्लदामेण छते घरेजमाणेण२ महया भडचडगररहपहकरविंदपरिक्खिते साओ गिहाओ णिछ सेयवियं नगरि मज्झमशेणं णिग्गच्छ २ ता मुहेहिं वासेहि पायरासेहिं नाइविकिट्ठेहिं
For Pernal Paise Only
~ 242~
Maryo
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[५२]
दीप
अनुक्रम [५२]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [५२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
श्रीराजमश्री मलयगिरीया वृत्तिः
॥ ११७ ॥
4Q.9) 49009446
अंतरा वासेहिं वसमाणे २ केइयअडस्स जणवयस्स मज्झमज्झणं जेणेव कुणालाजणवए जेफेव सावत्थी नयरी तेणेव उवागच्छइ २ ता सावत्थीए नयरीए मजसंमज्झेणं अणुपविसह, जेणेव जिसस रण्णो गिहे जेणेव बाहिरिया उवद्वाणसाला तेणेव उवागच्छइ २ ता तुरए निमिन्हहर ता रहं वेति २त्ता रहाओ पचोरुहइ, तं महत्थं जाव पाहुडे गिव्हइ २ सा जेगेव अर्भितरिया जाणसाला जेणेव जियसत्तू राया तेणेव उवागच्छइ २ ता जियसतुं रायं करयलपरिगहिये जावक जणं विजएणं वढावे २ सा तं महत्थं जाव पाहुडे उबजेइ । तए ण से जियसत्तू राया चित्तस्स सारहिस्स तं महत्थं जाव पाहुडं पडिच्छर २ चित्तं सारहिं सकारेइ २ सम्माणेतिर पडिवि सज्जेइ रायमग्गमोगाढं च से आवास दलयह। तए णं से चिते सारही विसज्जिते समाणे जियसस्स rat अंतियाओ पडिनिक्खमइ २ त्ता जेणेव बाहिरिया उवद्वाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेव उवागच्छ २ ता चाउरघंटं आसरहं दुरूहइ, सावत्थिं नगरिं मज्झमज्झेणं जेणेव रायमग्गमोगादे आवासे तेव उवागच्छ २ ता तुरए निमिन्हह २ ता रहं वेइ२ रहाओ पचोरुहर, पहाए कयषलिकम्मे कयको मंगलपायच्छिते सुडप्पा वेसाई मंगलाई बस्थाई पवर परिहिते अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे जिमियनुत्तरागएऽवि य णं समागे पुढावरण्हकालसमयंसि गंधदेहि य णाडगेहि वनचिजमा २ उबगाइजमाणे २ उवलालिज्जमाणे २ इट्ठे सहफरिसरसरूवगंधे पंचविहे माणु
For Parts Only
~ 243~
404013
46-48048-409) 62005 449)
चित्रस्य जितशत्रुपाश्व गमर्न सु० ५२
॥११७॥
yor
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
----------------- मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५२]
दीप अनुक्रम
स्सए कामभीए पच्चणुभवमाणे विहरइ ॥ (सू०५२)॥
'पएसिस्स रण्णो अंतेवासी ति अन्ते-समीपे बसतीत्येवंशीलोऽन्तेवासी-शिष्यः, अंतेवाप्सीय सम्यगाशाविधायी इति भावः । 'सन्नहबद्धवम्मियकवए' इति कवच-तनुत्राणं वर्म-लोहमयकत्तलकादिरूपं संजातमस्येति बर्मितं, सन्नई शरीरारोपणात् बद्धं गाढन्तरबन्धनेन बन्धनात् वम्मितं कवचं येन स सन्नद्धबद्धवम्मितकवचा, 'उप्पीलियसरासणपट्टिए' इनि उत्पीडिता-गाढीकृना शरा अस्यन्ते-क्षिप्यन्ते अस्मिन्निति शासन-इपुधिस्तस्य पट्टिका पिणद्धा येन स उत्पीडिनश| रासनपट्टिका 'पिणडगेवेजविमलवरचिंधपट्टे' इति पिनर्द्ध वैयक-ग्रीवाऽऽभरण विमलवरचिह्नपट्टा येन स पिन- ।
धेयकविमलयरचिन्हपट्टः 'गहियाउहपहरणे' इति आयुध्यतेऽनेनेत्यायुध-खेटकादि पहरणम्-असिकुन्तादि गृहीताव न्वायुधानि प्रहरणानि च येन स गृहीतायुधमहरणः ।। (सू०५२)॥
तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावचिज्जे केसी नाम कुमारसमणे जातिसंपण्ये कुल संपण्णे बलसंपण्णे रूवसंपणे विणयसंपण्णे नाणसंपण्णे दसणसंपन्ने चरिनसंपपणे लज्जासंपण्ण लाघवसंपण्णे लज्जालाघवसंपन्ने ओयंसी तेयंसी वर्चसी जसंसी जियकोहे जियमाणे जियमाए जियलोहे जियणि जितिदिए जियपरीसहे जीवियासमरणभयविष्पमुके वयप्पहाणे गुणप्पहाणे करणप्पहाणे चरणप्पहाणे निग्गहप्पहाणे अजवष्पहाणे महवप्पहाणे लाघवप्पहाणे खंतिप्पहाणे मुसिप्पहाणे विजष्पहाणे मंतप्पहाणे बंभपहाणे नयप्पहाणे नियमप्पहाणे सच्चप्पहाणे सोयप्पहाणे नाणप्पहाणे
华本字第左亭全部本字變亭發亭整
[१२]
पार्श्वनाथस्य शिष्य-श्री केशिकमार-श्रमणस्य परिचयं
~244~
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५३]
औराजमोसा मख्यगिरी
दसणप्पहाणे चरित्तप्पहाणे चउदसपुदी चउणाणोवगए पंचहि अणगारसएहि सहिं संपरिखुडे वर्णनम् या वृत्तिः
पुवाणुपुर्वि चरमाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे सुइंसुहेणं विहरमाणे जेणेव सायस्थी नयरी जेणेव ८०५३ ॥११८॥ कोहए चेइए तेणेव उवागच्छद २ ता सावत्थीए नयरीए बहिया कोट्टए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं
उग्गिाहह उग्गिमिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ (सू०५३)॥
'केसीनाम कुमारसमणे माइसंपन्ने' इत्यादि, जातिसंपन्नः-उत्तममातृपक्षयुक्त इति प्रतिपत्तव्यम, अन्यथा मातृपितृपक्षसंपन्नत्वं पुरुषमात्रस्यापीति नास्योत्कर्षः कश्चिदुक्तो भवति, उत्कर्षाभिधानार्थ चास्य विशेषणकलापोपादानं चिकीर्षितमिति, । एवं कुलसंपन्नोऽपि नवरं कुलं-पितृपक्षः बल-सहनन विशेषसमुत्यः प्राणः रूपम्-अनुपम शरीरसौन्दर्य विनयादीनि प्रतीतानि, नवरं लापर्व-द्रव्यतोऽल्पोपधित्वं भावतो गौरवत्रयत्यागः 'लज्जा' मनोवाकायसंयमः 'ओयंसी 'सि ओजो-मानसोऽवष्ट- | म्भस्तदान ओजस्वी तेज:-शरीरमभा तबान तेजस्वी 'वो' वचनं सौभाग्यायुपेतं यस्यास्ति स वचस्वी अथवा बर्च:-तेजः प्रभाव इत्यर्थरतद्वान् वर्चस्वी यशस्वी-ख्यातिमान् , इह च विशेषणचतुष्टयेऽप्यनुस्वारः प्राकृतलात्, जितक्रोध इत्यादि तु विशेषणसप्तकं प्रतीत,नवरं क्रोधादिजय उदयमाप्तक्रोधादिविफलीकरणतोऽवसेयः,तथा जीवितस्य-आणधारणस्य आशा-वाञ्छा मरणाद्य ताभ्यां विषमुक्तो जीविताशामरणभयविप्रमुक्ता, तदुभयोपेक्षक इत्यर्थः, तथा तपसा प्रधानः-उत्तमः शेषमुनिजनापेक्षया तपो वा प्रधानं यस्य स सपःप्रधान, एवं गुणप्रधान नवरं गुणाः-संयमगुणाः, एतेन च विशेषणद्वयेन तपःसंयमौ पूर्व- ॥११८॥ बद्धाभिनवयोः कर्मणोनिजंगानुपादानहेतू मोक्षसाधने मुमुक्षूणामुपादेयो प्रदर्शिती,गुणप्राधान्यप्रपञ्चनार्थमेवाह-'करणप्पहाणे'
दीप अनुक्रम
[१३]
IYA-
H
arary.org
पार्श्वनाथस्य शिष्य-श्री केशिकमार-श्रमणस्य परिचय
~245
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------- मूलं [५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५३]
दीप अनुक्रम [१३]
इति यावत् 'चरित्तप्पहाणे' इति,करणं-पिण्डविशुद्धयादि,उक्तश्च-"पिंडविसोही समिई भावण पडिमा य ईदियनिरोहो ।। पडिलेहण गुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु॥१॥" चरण-महाव्रतादि,उक्तश्च-'वय समणधम्म संजम घेयावचं च भगुत्तीओ। णाणाइतियं तब कोहनिगगहाई चरणमेयं ॥ १॥ निग्रहः-अनाचारप्रवृत्तेनिषेधनं । निश्चया-तत्वानां निर्णयः विहितानुष्ठाने
प्ववश्यमभ्युपगमो वा आर्जव-मायानिग्रहो लापर्व-क्रियामु दक्षत्वं शान्ति:-क्रोधनिग्रहः गुप्ति:-मनोगुप्यादिका मुक्ति:TI निर्लोभता विद्या प्राप्त्यादिदेवताऽधिष्ठिता वर्णानुपूर्व्यः मन्त्रा-हरिणेगमेष्यादिदेवताधिष्ठिताः अथवा ससाधना विद्या साध- 17 All नरहिता मन्त्रा, ब्रह्मचर्य-बस्तिनिरोधः सर्वमेव वा कुशलानुष्ठान वेद-आगमो लौकिकलोकोतरिककुमावनिकभेदभिन्नः |
नया-नैगमादयः सप्त प्रत्येक शतविधा; नियमा-विचित्रा अभिग्रहविशेषाः सत्य-भूतहितं वचः शौचं-द्रव्यतो निर्लेपता भावतोऽनवद्यसमाचारता ज्ञान-पत्यादि दर्शन-सम्यत्वं चारित्रं-वहां सदनुष्ठान, यच्चेद चरणकरणग्रहणेऽपि आर्जवादिग्रहणं वत् आर्जवादीनां प्राधान्यख्यापनार्थ, ननु जितक्रोधत्वादोनामार्जवादीनां च का प्रतिविशेषः १, उच्यते; जितक्रोधादिविशेषणेषु तदुदयविफलीकरण मार्दवप्रधानादिषु उदयनिरोधः, अथवा यत एव जितक्रोधादि। अत एवं क्षमादिप्रधान इत्येवं हेतुहेतुमद्भावाद् विशेषा, तथा ज्ञानसम्पन्न इत्यादी ज्ञानादिमचमात्रमुक्त ज्ञानप्रधान इत्यादौ तद्वतां मध्ये तस्य प्राधान्यमित्येवमन्यप्राप्यपौनरुक्त्यं भावनीय, तथा 'ओराले' इति उदार:-स्फाराकारः 'घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी
ओच्छूढसरीरे सखित्तविउलतेउलेसे चउद्दसपुत्री चउनाणोवगए' इति पूर्ववत् , 'पंचहि अणगारसहि' इत्यादिक वाच्यं ॥ (मु०५३)।
Majanuram.org
पार्श्वनाथस्य शिष्य-श्री केशिकमार-श्रमणस्य परिचयं
~246~
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजप्रश्नी मलयगिरीया वृतिः ॥ ११९॥
चित्रस्य धर्ममाप्ति सू०५४
प्रत सूत्रांक [१४]
तए णं सावत्थीए नयरीए सिंघाडगतियचउक्कचचरचउमुहमहापहपहेसु महया जणसदेइ वा जणचूहेइ वा जणकलकलेइ वा जणबोलेइ वा जणउम्मीइ वा जणउकलियाइ वा जणसन्निवाएडवा जाव परिसा पज्जुवासह । तए णं तस्स सारहिस्स तं महाजणसईच जणकलकलं च सुणेत्ता य पासेत्ता य इमेयावे अज्झथिए जाव समुप्पजिस्था,किपणं अज्ज जाव सावत्थीए णयरीए इंदमहेइ वा खंदमहेइ वा कदमहेइ चा मदमहेइवानागमहेइ वा भूयमहेइ वा जक्खमहेइ वा धूभमहेइ वा चेइयमहेइ वा रुक्खमहेइ वा गिरिमहेइ वा दरिमहेह वा अगडमहेइ वा नईमहेइ वा सरमहेइ वा सागरमहेइ वा जे णं इमे बहवे उग्गा भोगा राइना इक्खागा खत्तिया णाया कोरवा जाव इन्भा इन्भपुत्ता पहाया कयपलिकम्मा जहोववाइए जाव अप्पेगतिया हयगया जाव अप्पेगतिया गयगया पायचारविहारेणं महयार चंदावंदरहिं निग्गकछति,एवं संपेहेइर कंचूहजपुरिस सद्दावेद सहावित्ता एवं वयासीकिण्णं देवाणुप्पिया! अज सावत्थीए नगरीए इंदमहेइ वा जावसागरमहेइ वा जेणं इमे बहवे उग्गा भोगाणिगच्छति ,तए णं से कंचुईपुरिसे केसिस्स कुमारसमणस्स आगमणगहियविणिच्छए चित्तं सारहिं करयलपरिन्गहियं जाव वढावेत्ता एवं वयासी-णो खलु देवाणुप्पिया ! अज सावत्थीए जयरीए इंदमहेइ वा जाव सागरमहेइ वाजेणं इमे वहवे जाव विंदार्षिदएहि निग्गच्छति,एवं खलु भी देवाणुप्पिया! पासावचिज्जे केसीनाम कुमारसमणे जाइसम्पन्ने जाव दूइज्जमाणे इहमागए
दीप अनुक्रम [५४]
॥२१९॥
(NCEBrary.orm
| चित्र-सारथिः, तस्य धर्म-प्राप्ति:
~247~
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४]
दीप अनुक्रम [५४]
जाव विहरइ, तेण अज्ज सावत्थीए नयरीए बहवे उग्गा जाव इन्भा इन्भपुत्ता अप्पेगतिया वंदणवत्तियाए जाव महया वंदावंदगाह णिगच्छइ,तए ण से चित्ते सारही कंचुइपुरिसस्स अतिए एयम सोचा निसम्म हतु जाय हियए कौटुंबियपुरिसे सदावेद सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउग्घंटे आसरहं जुत्तामेव उवट्टवेह जाव सच्छत्तं उवट्ठति, तएणं से चित्ते सारही हाए कयवलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते शुहप्पावेसाई मंगलाई वत्थाई पवर परिहिते अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे जेणेच चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छह उवागच्छिचा चाउग्घंटे आसरहं दुरुहइश्त्ता सकोरिंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं महया भडचडगरेण विंदपरिखित्ते सावत्थीनगरीए मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ २त्ता जेणेव कोहए चेइए जेणेव केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ २त्ता केसिकुमारसमणस्स अदूरसामंते तुरए णिगिण्हह रहं ठवेइ य, ठवित्ता पच्चोकहति २ चा जेणेव केसीकुमारसमणे तेव उवागच्छद २त्ता केसिकुमारसमणं तिकखुत्तो आयाहिणं पयाहिण करेइ करिता वंदह नमसइ २त्ता णच्चासण्णे णातिदरे सुस्ससमाणे णमंसमाणे अभिमुहे पंजलिउडे विणएणं पाजुवासइ । तए णं से केसीकुमारसमणे चित्तस्स सारहिस्स तीसे महतिमहालियाए महच्चपरिसाए चाउज्जामं धम्म परिकहेइ,तं०-सबाओ पाणाइवायाओ वेरमणं सबाओ मुसावायाओ बेरमणं सघाओ अदिष्णादाणाओ वेरमणं सचाओ बहिडादाणाओ वेरमणं।
Santaratinididi
चित्र-सारथिः, तस्य धर्म-प्राप्ति:
~248~
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------- मूलं [५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजमश्नी मलयगिरी या दृतिः
चित्रस्व धर्ममाप्तिः मू०५४
प्रत
॥ १२०॥
सूत्रांक
[५४]
दीप अनुक्रम [५४]
तए णं सा महतिमहाल या महचपरिसा केसिस्स कुमारसमणस्स अंतिए धम्मै सोचा निसम्म जामेव दिसि पाउभूया तामेव दिसिं पडिगया, तए ण से चित्ते सारही केसीस्स कुमारसमणस्स अंतिए धर्म सोचा निसम्म हट्ट जावहियए उहाए उदेह २त्ता केसि कुमारसमणं तिकखुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २बंदह नमसइरत्ता एवं वयासी-सद्दहामिण भंते ! नि गर्थ पावयणं पत्तियामि गंभंते ! निग्गंध पावयणं रोएमिण भंते ! निगं पावयणं अन्धुढेमि णं भंते !निर्गथं पावयणं एवमेय निर्गथे पावयणं तहमेय भैते! अवितहमेय भंते!०,असंदिद्धमेयं सच्चेणं एस अढे जपणं तुम्भे वदहत्तिका वदह नमसहर त्ता एवं वयासी-जहा णं देवाणुप्पियाण अंतिए यहवे उन्गा भोगा जाव इन्भाइन्भपुत्ता चिचा हिरण्णं चिचा सुवणं एवं धणं धन बलं वाहणं कोसं कोडागारं पुर अंतेउर चिया विउलंधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालसंतसारसावएज्जं विच्छता विगोवदत्ता दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता मुझे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पश्यति,णो खलु अहंता संचाएमि चिचा हिरणं तं चेव जाव पवइत्तए, अहण्णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणवाय सत्तसिक्खावश्यं दुवालसविहं गिहिधर्म पडिवज्जित्तए,अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेहि,तए णं से चित्ते सारही केसीकुमारसमणस्स अतिए पंचाणुवतियं जाव गिहिधर्म उवसंपज्जित्ताणं विहरति, तए णं से चित्ते सारही केसिकुमारसमणं वेदइ नमसइ २त्ता जेणेव चाउग्धंटे आसरहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए
॥१२०॥
चित्र-सारथिः, तस्य धर्म-प्राप्ति:
~249~
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[ ५४ ]
दीप अनुक्रम [ ५४ ]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [ ५४ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
'वाउग्घर्ट आसरहं दुरुहइ २ जामेव दिसिं पाउन्ए तामेव दिसिं पडिगए | ( सू०५४ ) ॥
' महया जणसद्देइ वा ' इति महान् जनशब्दः परस्परालापादिरूपः इकारो वाक्यालङ्कारार्थः वाशब्दः पदान्तरापेक्षया समुच्चयार्थः, जनव्यूहो-जनसमुदायः, 'जनबोलेह वा' इति बोल:- अव्यक्तवर्णो ध्वनिः, 'जनकलकलेइ वा' कलकलः स एवोपलभ्यमानवचनविभागः 'जणउम्मीद वा' उम्मि-संबाधः ' जणउकलियाइ वा' लघुतरसमुदाय: 'जणसन्निवाए इया' सन्निपात:- अपरापरस्थानेभ्यो जनानामेकत्र मीलनं, 'जाब परिसा पज्जुवासइ' इति यावत्करणात् 'बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खड़ एवं भासद एवं पन्नवे एवं खलु देवानुप्पिया ! पासावचिज्जे केसीनाएं कुमारसमगे जाइ संपण्णे जाव गामाशुगामै दुइज्जमाणे इहमा गए इह संपत्ते इह समोसढे इहेब सावत्थीए नयरीए कोट्ठए नेइए अहापडिरूवं उग्गहं उम्मिहिता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरड़, तं महष्फलं खलु देवा०तहारूवाणं समणाणं नामगोयस्सवि सवणयाए' इत्यादि प्रागुक्तसमस्तपरिग्रहः, 'इंदमहे वा' इत्यादि, इन्द्रमहः-इन्द्रोत्सवः इन्द्रः शक्रः स्कन्दः कार्तिकेयः रुद्रः प्रतीतः मन्दो - बलदेव: शिवो-देवताविशेषः वैश्रमणो यक्षराद नागो-भवनपतिविशेषः यक्षो भूतश्च व्यन्तरविशेषौ स्तूपः -- चैत्यस्तूपधत्यं प्रतिमा वृक्षदरिगिरी अबटनदीसरः सागराः प्रतीताः, 'बहवे उग्गा उग्गपुत्ता भोगा जावलेच्छइपुत्ता' इति, उग्राः आदिदेवावस्थापिता
वंशजाताः उग्रपुत्राः त एव कुमाराद्यवस्थाः, एवं भोगाः - आदिदेवेनैवावस्थापितगुरुवंशजाता राजन्याः- भगवद्वयस्यवंशजाः | यावत्करणात् 'खसिया माहणा भडा जोहा मल्लई मल्लहपुत्ता लेच्छई २ पुत्ता' इति परिग्रहः, तत्र क्षत्रिया:- सामान्यराजकुलीना भटाः-शौर्यवन्तः योधाः- तेभ्यो विशिष्टतराः, मल्लकिनो लेच्छकिनश्च राजविशेषाः, यथा चेटकराजस्य श्रूयन्ते अष्टादश गण
चित्र - सारथि:, तस्य धर्म-प्राप्तिः
For Parts Use Only
~250~
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
-------------- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५४]
श्रीराजमश्नी का | राजा नव मल्लकिनो नव लेच्छकिनः, 'अन्ने य बहवे राईसरे' त्यादि, राजानो-मण्डलिका ईश्वरा-युवराजानस्तलवरा:-
. चित्रस्य मकवगिरी
धर्ममाप्ति था वृत्तिः
परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टबन्धविभूषिता राजस्थानीयाः माडम्बिका:-चित्रमण्डपाधिपाः कुटुम्बिका:-कतिषयकुटुम्बस्वामिनोऽव
लगकाः इभ्या-महाधनिनः श्रेष्ठिन:--श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमागाः सेनापतयो-नृपतिनिरुपिताश्चतुरङ्ग सैन्य॥१२१॥ नायकाः सार्थवाहा-सार्थनायका प्रभृतिगृहणा मन्त्रिमहामन्त्रिगणकदौवारिकपोठमर्दादिपरिग्रहः, तत्र मन्त्रिणा प्रतीताः
महामन्त्रिणो-मन्त्रिमण्डलभधानाः इस्तिसाधनोपरिका इतिद्धाः गणका--गणितज्ञा भाण्डागारिका इति वृद्धार
ज्योतिषिका इत्यपरे दौवारिका:-पतीहारा राजद्वारिका वा पीटमर्दा:-आस्थाने आसन्नमत्यासन्नसेषका बयस्या इति | भावः 'जाव अवरतलमिव फोडेमाणा' इति यावत्करणात् 'अप्पेगतिया' बंदणवत्तियं अपेगइया पूअणवत्तिय एवं सकारवचियं सम्माणवत्तियं कोउहलवत्तिय अमुयाई मुणिस्सामो मुयाई निस्संकियाई करिस्सामा मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवइस्सामो पंचाणुवयाई सत्त सिक्खावयाई दुवालसविद गिहिधम्म पडिवज्जिस्सामो, अप्पेगइया जिणभतिरा-41
णेणं अप्पेगइया जीयमेयंतिकटु पहाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सिरसाकंठेमालाकडा आविंद्धमणिमुवष्णा All कप्पियहारदहारनिसरयपालबपलबमाणकडिसुत्तयसोभाभरणा वत्थ पवर परिहिया चंदणोलितगायसरीरा अपेगश्या हयगया | 1 अप्पेगइया गयगया अप्पेगइया रहगया अप्पेगइया सिविकागया अप्पेग० संक्माणियागया अप्पेगइया पायर्यावहारचारिणी |
परिसबम्गराय परिक्खिता मइया उक्विडिसीहनाइया बोलकलकलरषेण समुद्दस्क्भूयं पित्र करमाणा अंबरतलंपिच फोडेमाणा' इति परिग्रहः, एतच्च प्राय: सुगम, नवरं गुणवतानामपि निरन्तरमभ्यस्यमानतया शिक्षात्रतत्वेन विचक्षणात् ' सत्त सिक्खा- ॥१२॥
कामपाकर
दीप अनुक्रम [५४]
SAREarathinimals
चित्र-सारथिः, तस्य धर्म-प्राप्ति:
~251~
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[ ५४ ]
दीप अनुक्रम [ ५४ ]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [ ५४ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
'वयाई' श्युक्तं, स्नाताः कृतस्नानाः अनन्तरं कृतं बलिकर्म - स्वगृहदेवताभ्यो यैस्ते कृतबलिकर्माणः, तथा कृतानि कौतुकमङ्ग• छान्येव प्रायश्विचानि दुःस्वप्नादिविघातार्थं यैस्ते कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ताः, तत्र कौतुकानि -मधीतिलकादीनि मङ्गलानिसिद्धार्थकदध्यक्षवदुर्वादीनि तथा शिरसि कण्ठे च कृता-याला न्यैस्ते, प्राकृतस्वात्पदन्यत्ययो विभक्तिष्यत्पपश्चेति 'शिस्सा• कण्ठेपाल कृताः, तथा भाविद्धानि - परिहितानि मणिसुवर्णानि यैस्ते तथा कल्पितो- विन्यस्तो हारः-अष्टादशस रिकोभर्द्ध. हारो-नवसरिक विसरिकं प्रतीतमेव यैस्ते तथा, तथा प्रलम्बोधन के लम्बमानी येषां ते तथा कटिसूत्रे अन्यान्यपि सुकृतशोभान्याभरणानि येषां ते कटिसूत्रकृतशोभाभरणाः, ततः पदत्रयस्यापि पदद्वयमीलनेन कर्मधारया, चन्दनावलिप्तानि गात्राणि यत्र तत्तथाविधं शरीरं येषां ते चन्दनावलिप्तगात्रवरीराः, 'पुरिसवग्गुरापरिवित्ता' इति, पुरुषाणां वागुरेव वागुरा-परिक • रस्तया परिक्षिप्ताः-व्याप्ताः, 'महया' इति महता उत्कृष्टिच-आनन्दमहाध्वनिः सिंहनादश्व-सिंहस्येव नादः बोलथ-वर्णव्यक्तिवर्जितो ध्वनिः, कलकलच - व्यक्तवचनः स एव एतल्लक्षणो यो रवस्तेन समुद्ररवभूतमिव समुद्रमहाघोषमाप्तमिष श्रावस्त नगरीमिति गम्यते, कुर्वाणाः अम्बरतलमिव-आकाशतलमिव स्फोटयन्तः, 'एग दिसाए ' इति, एकया दिशा पूर्वोत्तरलक्षणया एकाभिमुखा एक भगवन्तं प्रति अभिमुखाः, चाउरघंटं वि चतस्रो घण्टा अवलम्बमाना यस्मिन् स तथा, अश्वमधानो रथोऽश्वरथः तं युक्तमेव अश्वादिभिरिति गम्यते, शेषं प्रागू व्याख्यातायें, 'जह जीवा बज्झन्ती' स्यादिरूपा धर्मकथा औपपातिक ग्रन्थादवसेया, लेशतस्तु भागेव दर्शिता, 'सहहामी' त्यादि, श्रदधे अस्तीत्येवं प्रतिपद्ये नग्रेन्थे प्रवचन - जैनशासनम्, एवं पत्तियामि इति प्रत्ययं करोम्यत्रेतिभावः रोचयामि-करणरुचिविषयीकरोमि चिकीर्षा
चित्र - सारथि:, तस्य धर्म-प्राप्तिः
For Parts Only
~252~
5 तक 44 449)
Janurary org
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
औराजपनी मलयगिरी- या वृतिः ॥१२॥
सूत्रांक
[५४]
दीप अनुक्रम [५४]
चित्रश्रममीति तात्पर्याथः, किमुक्तं भवति ?-अभ्युतिष्ठामि, अभ्युपगच्छामीत्यर्थः, एवमेतत् यद्भवद्भिः प्रतिपादित तत् तथैव भदन्त !
कणोपासक तथैवैतद् भदन्त ! याथात्म्यवृत्या वस्तु अस्तिथमेतत् भदन्त !, सत्यमित्यर्थः, असंदिग्धमेतत् भदन्त !, सम्यक् तथ्यमेतदिति |
वर्णनम् | भावः, 'इच्छियपरिच्छियमेय भैते !' इति, इष्टम्-अभिलषितं प्रतीष्टम्-आभिमुख्येन सम्यक् मविपन्नमेतत् यथा यूर्य पदय, ०५५
'चिचा हिरण्ण' मित्यादि, हिरण्यम्-अघटितं सुवर्ण धनं-रूप्यादि धान्यबलवाहनकोशकोष्ठागारपुरान्तःपुराणि | व्याख्यातानि प्रतीतानि च, 'चिचा विउल धणे त्यादि, धन-रुप्यादि कनकरत्नमणिमौक्तिकशङ्खाः प्रवीताः शिलापवाल- विदुम सत्--विद्यमान सार--मधानं यत् स्वापतेय--द्रव्य 'विच्छर्दयित्वा' भावतः परित्यज्य 'विगोवहत्ता' प्रकटीकृत्य, तदनन्तरं दान-दीनानाधादिभ्यः परिभाव्य पुत्रादिषु विभज्य ॥ (मू०५५)॥
तए णं से चित्ते सारही समणोवासए जाए अहिगयजीवाजीवे उचलहपुण्णपावे आसवसंवरनिज्जरकिरियाहिगरणवंधमोक्खकुसले असहिज्जे देवासुरणागसुवण्णजक्खरक्खसकिन्नर किंपुरिसगरुलगंधदमहोरगाईहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणहकमणिज्जे, निग्गये पावणे णिस्सकिए णिकंखिए णिवितिगिच्छे लडढे गहियडे पुच्छियडे विणिच्छियडे अभिगयढे अडिमिंजपेम्माणुरागरते, अयमाउसो! निनाये पावयणे अढे अयं परमटे सेसे अणडे, ऊसियफलिहे अवंगुगनुवारे चियत्तंतेउरघरप्पवेसे चाउद्दसमुद्दिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसह सम्म अणुपालेमागे समणे णिगंथे फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पीढफलगसेज्जासंधारेणं वत्धपडिग्ग
|॥१२२॥
| चित्र-सारथिः, तस्य श्रावक्त्व
~253
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूत्रांक
दीप अनुक्रम [५५]
हकंवलपायपुंछपणं ओसहभैसज्जेणं पडिलाभेमाणे २ घहहिं सीलव्वयगुणवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासेहि य अप्पाणं भावेमाणे जाई तत्थ रायकज्जाणि य जाच रायववहाराणि प ताई जि. यसत्तणा रण्णा सर्जि सयमेव पच्चुवे वखमाणे २ विहरह।। (सू०५५)॥
'अभिगयजीवाजीवे' इति, अभिगौ-सम्यग विज्ञासी जीवाजीवी येन स तथा, उपलब्धे-यथावस्थितस्वस्वरूपेण विज्ञाते पुण्यपापे येन स उपलब्धपुण्यपापः, आश्रवाणां-प्राणातिपातादीनां संवरस्य-माणातिपातादिप्रत्याख्यानरूपस्य निर्जराया:-कर्मणां देशतो निर्जरणस्य क्रियाणा-यारि बयादीनामधिकरणानां-खगादीनां बन्धस्य-कर्मपुद्गलजीवपदेशान्योऽन्यानुग मरूपस्य मोक्षस्य-सत्मिना कर्मापगमरूपस्य कुशल:-सम्यक् परिज्ञाता माधवसंवरनिर्जराक्रियाधिकरणबन्धमोक्षकुशल: 'असहेको ति अविद्यमानसाहाय्य:, कुतीथिकमेरितः सम्यक्त्वाविचलनं प्रति न परसाहाय्यमपेक्षते इति भावः, तथा | चाह-'देवासुरमागजक्स्वरक्खसकिन्नर किंपुरिसगरुलगंधवमहोरगाइएाह देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जे' सुगम, नवरं गरुडा:-सुवर्णकुमाराः, एवं चैतत् यतो निग्रन्धे प्रावचने 'निस्संकिये 'निःसंशयः 'निकंखिये' दर्शनान्तराकाङ्कारहितः 'निदितिगिच्छे फल प्रति निःशः 'लडटे' अर्थश्रवणत: 'गहिअट्टे' अवधारणत: 'पुच्छिय?' |संशये सति 'अहिगयट्टे 'सम्यगुत्तरश्रवणतो विमलबोधात, 'विणिच्छियहे' पदार्थापलम्भात् 'अहिमिंजपेम्माणुरा-114
गरत्ते' अस्थीनि प्रसिद्धानि तानि च मिमा च-तन्मध्यवर्ती मजा अस्थिमिआनः ते प्रेमाणुरागेण-सर्वज्ञप्रवचनपीतिलक्षणकुसुम्मादिरागेण रक्ता इव रक्ता यस्य स तथा, केनोल्लेखेनेत्यत आह-'अयमाउसो ! निग्गथे पावयणे अट्ठे परमहे
FaPaumaan unconm
| चित्र-सारथिः, तस्य श्रावक्त्व
~254~
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
-------------- मूलं [५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी- या चिः
[५५]
॥१२३ ॥
दीप अनुक्रम [५५]
सेसे अणडे' इति 'आउसो' इति आयुष्मन् !,एतच सामर्थ्यात्पुत्रादेशमन्त्रणं, शेषमिति-धनधान्यपुत्रदारराज्यकुमवचनादि, ऊसियफलिहे' इति उच्छ्रितं स्फाटिकमिव स्फाटिकम्-अन्तःकरण यस्य स तथा, मौनीन्द्रभवचनावाच्या परितुष्टमना
चित्रश्रम
जाणोपासक इत्यर्थः, एपा वृद्धव्याख्या, अपरे स्वाहुः--उचिठून:--अर्गलास्थानादपनीय ऊर्बोकृतो न तिरश्चोना, कपाटपथाभागादपनीव
वर्णनम् इत्यर्थः, उत्सतो वा अपगतः परिघा-अर्गला गृहबारे यस्यासौ उच्छ्रितपरिघ उत्सूनपरियो वा, औदार्याविरेकतोऽति| यदानदायित्येन भिक्षुकप्रवेशार्थमनर्गलितगृहद्वार इत्यर्थः, 'अवंगुयवारे' अप्राकृतद्वार: भिक्षुकमवेशार्थ कपाटानामपि पश्चा| स्करणात, श्रद्धानां तु भावनावाक्यमेव--सम्पगूदर्शनलामे सति न कस्माञ्चित् पाखन्डिकादिति शोभनमार्गपरिग्रहेण उद्या- 1G | टिसशिरास्तिनोति भावः, 'चियत्तंतेउरघरपवेसे "घियत्ते 'ति नापीतिकर अन्तापुरगृहे प्रवेशा-शिष्टजनप्रवेशनं यस्य
स तथा, अनेनानीर्ष्यालुत्यमस्योक्तम, अथवा चियत्ता-प्रीतिकरो लोकानामन्तःपुरे गृहे वा प्रवेशो यस्यातिधार्मिकतया सर्व| त्रानाशनीयत्वात् स तथा, 'चाउदसमुदिपुण्णमासिणीसु पडिपुन्नं पोसह सम्म अणुपालेमाणे ' इति, चतुर्दश्यामष्टभ्यामुष्टिमित्यवमावास्यां पोर्णमास्यां च मतिपूर्णम्-अहोरात्रं यावत् पोषधम्--आहारादिपोष, सम्यक् अनुपालयन, पोटफलगे'ति पीढम-आसनं फलकम्--अवष्टम्भा 'सिजा' वसतिः शयनं वा यत्र प्रसारितपादैः सुप्यते संस्तारको लघुतरः 'वत्थपडिग्गहकंबलपायपुंछणेणं ति वस्त्रं प्रतीत पतत भक्तं पानं वा गृह्णातीति पतद्ग्रहः लिहादित्वादच्नत्यय:-पात्रं पादमो
छनक--रजीहरण औषधं प्रतीतं भेषज--पध्यं 'अहापरिग्गहेहिं तवोकम्मोह अप्पाण भावेमाणे विहरइ सुगर्म, कचित्पाठ:--' बहूदि सीलचयगुणवेरमणपोसहोववासेहिं अपाणं भावेमाणे विहरइ' इति, तत्र शीलवतानि-स्थूलमाणाति
॥१२॥
| चित्र-सारथिः, तस्य श्रावक्त्वं
~255~
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
--------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५]
दीप अनुक्रम
PN पातविरमणादीनि गुणवतानि-दिग्वतादीनि पौषधोपवासा:-चतुर्दश्यादिपर्वतिथ्युपवासादिस्तैरात्मानं भावयन् विहरति
आस्ते ।। (मू०५५)॥ तए णं से जियसराया अण्णया कयाइ महत्थं जाव पाहुई सज्जेइ २ चा चित्त सारहिं सदावेइ सदायित्ता एवं वयासी-गछाहि णं तुमं चिचा ! सेयवियं नगरि पएसिस्स रन्मो इमं महत्थं जाव पाहडं उवणेहि, मम पाउम्गं च णं जहाभणिय अवितहमसंदिई वयणं विनवेहितिक विसज्जिए । तए णं से चित्ते सारही जियसत्तुणा रना विसज्जिए समाणे तं महत्थं जाव गिण्हा जाव जियसत्तुस्स रणी अंतियाआ पडिनिक्खमइ २त्ता सावत्थोनगरीरमझमज्झेणं निग्गरछह २ जेणेव रायमगमोगाढे आवासे तेणेव उवागच्छति २ नातं महत्थं जाव ठवइ, पहाए जाव सरीरे सकोरंट० महया. पायचारविहारेण महया पुरिसवग्गुरापरिक्खिते, रायमगमोगाढाओ आवासाओ निगच्छद २त्ता सावत्थीनगरीए मझमज्झेणं निम्गच्छति २त्ता जेणेव कोटर चेहए जेणेव केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छति २ केसिकुमारसमणस्स अन्तिए धम्मं सोचा जाव हट्ट उहाए जाव एवं चयासी-एवं खलु अहं भंते ! जियसतुणा रना पएसिस्स रन्नो इमै महत्थं जाव उवणेहित्तिकहु विसजिए, तं गच्छामि णं अहं भंते ! सेयवियं नगरिं, पासादीया णं भंते ! सेयविया णगरी, एवं दरिसणिज्जा णं भंते ! सेयविया णगरी,अभिरूवा ण भंते ! सेयविया नगरी,
[५५]]
For Paws
~256~
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------ मूलं [५६-६१]
(१३)
श्रीराजमश्नी मलयगिरीया वृत्तिः
Aववाम्ब्या
गमनाय विज्ञप्तिः
॥१२४॥
प्रत
सूत्रांक
[५६-६१]
पडिरूवा णं भंते ! सेतविया नगरी, समोसरह णं भंते ! तुम्भे सेयविय नगरि, तए णं से केसीकुमारसमणे चित्तेणं सारहिणा एवं चुने समाणे चित्तस्स सारहिस्स एयमट्ठ णी आढाइ णो परिजाणाइ तुसिणीए संचिट्टइ, तए णं से चित्ते सारही केसीकुमारसमणं दोच्चपि तचंपि एवं वयासी. एवं खलु अहं भंते ! जियसत्तणा रना पएसिस्स रण्णो इमं महत्थं जाव विसजिए तं चेव जाव समोसरह णं भंते ! तुम्भे सेयवियं नगरिं, तए णं केसीकुमारसमणे चिनेण सारहिणा दापि तकचंपि एवं बुत्ते समाणे चित्तं सारहिं एवं वयासी-चित्ता! से जहानामए घणसं सिया किण्हे किण्होभासे जाव पडि सवे, से गृणं चित्ता ! से वणसं बहण दुपयचप्पयमियपमुपक्खीसिरीसिवाणं अभिगमणिज्जे १, हंता अभिगमणिज्जे, तंसि च णं चित्ता वणसंडसि बहवे भिलंगा नाम पावसउणा परिवति, जेणं तेसि बहूणं दुपयचउप्पयमियपसुपक्षीसिरीसिवाण ठियाणं चेव मंससोणिय आहा रति,से गुणं चित्ता! से वणसंडे तेसिणं बहणं दुपय जाब सिरिसिवाणं अभिगमणिज्जे, णो ति०,कम्हा णं ?, भंते ! सोवसग्गे,एवामेव चित्ता ! तुभंपि सेवियाए गयरीए एसीनाम राया परिवसइ अहम्मिए जाव णो सम्मं करभरवित्ति पवत्तहतं कह णं अहं चित्ता! सेयवियाए नगरीए समोसरिस्सामि ?,तए णं से चित्ते सारही केसि कुमारसमणं एवं वयासी-किण भंते ! तुम्भ पएसिणा रहा काय !, अस्थि णं भंते ! सेयवियाए नगरीए अन्ने
दीप अनुक्रम [५६-६१]
॥१२॥
andiararam
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
~257~
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [५६-६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५६-६१]
दीप अनुक्रम [५६-६१]
यहवे ईसरतलवरजाय सत्यवाहपभिइयो जे णं देवाणुप्पियं बंदिस्संति नमंसिस्संति जाव पज्जुवासिस्सति विउल असणं पाणं खाइमं साइम पडिलाभिस्संति, पडिहारिएण पीढफलगसेज्जासंथारेणं उवनिमंतिस्संति, तए णं से केसीकुमारसमणे चित्तं सारहिं एवं वयासी-अवियाइ चित्ता! समोसरिस्सामो ॥ (सू०५६) । तए णं से चित्ते सारही केसिकुमारसमण चंदर नमसह २ केसिस्स कुमारसमणस्स अंतियाओ कोट्ठयाओ चेइयाओ पडिणिक्खमह२ जेणेव सावत्थी णगरी जेणेव रायमग्गमोगा आवासे तेणेव उवागमछ। २चा कौटुंबियपुरिसे सहावेह सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउग्घंटे आसरहं जुत्तामेव उवढयेह जहासेयवियाए नगरीए निगमछा तहेव जाव वसमाणे २ कुणालाजणवयस्स मज्झमज्झेणं जेणेव केइयअढे जेणेव सेयविया नगरी जेणेव मियवणे उज्जाणे लेणेव उवागच्छइ २ उज्जाणपालए सदावेद २त्ता एवं वया, सी-जया ण देवाणुप्पिया! पासावधिज्जे केसीनाम कुमारसमणे पुदाणुपुर्वि चरमाणे गामाणुगामं दू. इज्जमाणे इहमागच्छिज्जा तया पां तुझे देवाणुप्पिया! केसिकुमारसमणं बंदिज्जाह नमंसिज्जाह वंदित्ता नमंसित्ता अहापडिरुवं जग्गहं अणुजाणेज्जाह पडिहारिएणं पीदफलग जाव उवनिमंतिज्जाह, एयमाणत्तियं खिप्पामेव पचप्पिणेज्जाह, तए णं ते उज्जाणपालगा चित्तेणं सारहिणा एवं वुत्ता समाणा हहतुह जाच हियया करयलपरिन्गहियं जाव एवं वयासी-तहत्ति, आणाए विणएणं
Milimjuniorary.org
~258~
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[५६-६१]
दीप
अनुक्रम [५६-६१]
मूलं [५६-६१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
श्रीराजमनी मलयगिरीया वृत्तिः
।। १२५ ।। ।
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
Education in
वयणं पडिसुगंति ॥ ( सू० ५७ ) ॥ तए णं चित्ते सारही जेणेव सेयविया णगरी तेणेव उवागच्छ २ ता सेयवियं नगरं मन्मन्झेणं अणुपविसह २ त्ता जेणेष परसिक्स' रण्णो गिहे जेणेव बाहिरिया उवद्वाणसाला तेणेव उवागच्छइ २ चा तुरए णिगिण्हह २ रहं ठवेई २ ता रहाओ पचोरूह २ त्ता तं महत्थे जाव गेहइ २ जेणेव परसी राया तेणेव उवागच्छ २ ता परसि राय करयल जाब ततं महत्थं जाय उणे । तर णं से पएसी राया चित्तस्स सारहिस्स तं महत्यं जाव पडिच्छ २ ता चितं मारहिं सकारेह २ ता सम्माणेह २ पडिविसज्जेह। तर णं से वित्ते सारही परसिणा रण्णा विसज्जिए समाणे हट्ट जाव हियए परसिस्स रनो अंतिम्रा पडिनिक्खमइ २ ता जेणेव चाउघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ२ चाउग्घंटं आसरहं दुरुहइ २ त्ता सेयविधं नगरि ममज्झेणं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ २ ता तुरर णिगिम्हइ २ रहं ठमे २ रहाओ पचोरुह २ हाए जाव उप्पि पासाववरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थरहिं बत्तीस षडएहिं नाहं वरुणसंपत्तेर्हि उवणचिज्जमाणे २ उवगाहज्जमाणे २ उवलालिज्जमाणे २ इंठे सहफरिस जाव विह ॥ ( ० ५८ ) । तए र्ण केसी कुमारसमणे अण्णया कयाइ पाडिहारियं पीढफलग सेज्जा संचारणं पच्चपिणइ २ सावत्थीओ नगरीओ कोट्ठगाओ वेइयाओ पडिमिक्स २ पंचहि अणगार साहि जाव बिहरमाणे जेणेव केयअच्छे जणवर जेणेव सेयबिया नगरी जेव मियवणे उज्जाणे तो
For Parts Only
~259~
उद्यानपाकेभ्यः
सूचना के शिकुमारागमर्न सू० ५७
५८
| ।। १२५ ।।
jrary org
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[५६-६१]
दीप
अनुक्रम [५६-६१]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [५६-६१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि -प्रणीता वृत्तिः
Education Intentional
उवागच्छइ २ ता अहापडिवं उग उगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । तर सेयवियाए नगरीए । सघाडग महया जणसदेह वा० परिसा णिमाच्छ, तर पां ते उज्जापालगा हमीसे कहाए लट्ठा समाणा हट्ट जावहियया जेणेव केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छन्ति २ ता केसि कुमारसमणं वंदति नर्मसंति २ त्ता अहापडिरूवं उग्गहं अणुजाणंति पाडिहारिएणं जाव संधारएणं उवनिमंतंति णामं गोयं पुच्छति २ ता ओधारैति २ त्ता एगतं अवकमंति अन्नमन्नं एवं वयासी जस्स णं देवाणुप्पिता ! चित्ते सारही दंसणं कखइ दंसणं पत्थे दंसणं पीछे दंसणं अभिलसह जस्स णं णामगोयस्सवि सवणयाए हट्ट जाव हियए भवति से णं एस केसीकुमारसमणे पुवाणुपुर्वि चरमाणे गामाणुगामं दृइज्जमाणे इहमागए इह संपत्ते इह समोसढे इहेव सेयवियाए नगरीए बहिया मियवणे उज्जाणे अहापडिरूवं जाव विहरइ, तं गच्छामी णं देवाप्पिया ! चित्तस्स सारहिस्स एयम पियं निवेदमा पियं से भवउ, अण्णमण्णस्स अंतिए एयमट्ठ पडिसुर्णेति २ जेणेव सेयविधा नगरी जे मेव चित्तस्स सारहिस्स गिहे जेणेव चित्तसारही तेणेय उवागच्छति २ ता चि सारहिं करयल जाव बढायेंति २ ता एवं वयासी जस्स पणं देवाणुपिया ! दंसणं कखति जाब अभिलसंति जस्स णं णामगोयस्सवि सवणयाए हट्ठजाव भवह से पां अयं केसी कुमारसम पुवाणुपुर्ति चरमाणे समोसढे जाव विहरइ । तर णं से चित्ते सारही तेसि
For Parent
~260~
org
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------ मूलं [५६-६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५६-६१]
॥ १२६॥
दीप अनुक्रम [५६-६१]
श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी| उमाणपालगाणं अंतिर एगई सोच्या णिसम्म हदूत? जाव आसणाओ अम्भुति पायपीढाओ पच्चोरहर विधर्मयया वृत्तिः २चा पाडयाओ ओमुयइ रचा एगसाडियं उत्तरासंग करेइ, अंजलिमउलियनहत्थे केसिकुमारसमणाभिमुहे वर्ण
सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छह २त्ता करयलपरिग्गहियं सिरसाव मत्थए अंजलि कहु एवं वयासी-नमोत्थु ण अ-IAN०५९:
रहंताणं जाब संपत्ताणं, नमोऽत्थु णं केसियस कुमारसमणस्स मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स बंदामि | A भगवंतं तत्थगयं इहगए पासउ मे सिक बदइ नमसइ, ते उजाणपालए विउलेणं यत्थगंधमलालंकारेणं * सकारेइ सम्माणेइ विउलं जीवियारिहं पीइदाण दलयइ २ चा पडिविसज्जेइ २ कोडुंबियपुरिसे सहावेइ ३ एवं |
वयासी-खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया चाउट आसरह जुत्तामेव उवट्ठवेह जाव परचप्पिणह । तए ण ते को वियपुरिसा जाव खिप्पामेव सरछत्तं सज्झय जाब उचढवित्ता तमाणत्तिय पचप्पिणंति, तए णं से चित्ते | सारही कोटुंबियपुरिसाणं अंतिए एयम सारचा निसम्म हतुट्ठ जावहियए पहाए कयवलिकम्भे जाव सरीरे जेणेव चाउग्घंटे जाव दुरुहिचा सकोरंट० महया भडचडगरेणं तं चेव जाव पज्जुवासइ धम्मकहाए जाय ॥ (सू०५९) । तपणं से चित्ते सारही केसिस्त कुमारसमणस्त अंतिए धम्म सोच्या निसम्म हहतुढे उहाए तहेव एवं वयासी-एवं खल भंते ! अम्हं पएसी राया अधम्मिए जाव सयस्सविणं जणवयस्स नो सम्मं करभरवित्तिं पवसेइ, तं जइ णं देवाणुप्पिया! पएसिस्स रण्णो धम्ममाइक्खेज्जा बहुगुणतरं खलु होज्जा परसिस्स रपणो तेसिं च बहणं दुपयचउप्पयमियपमुपक्खोसिरीसवाणं,
॥१२॥
~261
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [५६-६१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५६-६१]
दीप अनुक्रम [५६-६१]
तेसिं च बहूर्ण समणमाहणभिक्खुयाणं, तं जइ णं देवाणुप्पिया ! पएसिस्स बहुगुणतरं होजा सयस्सवि य णं जणवयस्स ।। (सू०६०)॥ तए ण केसीकुमारसमणे चित्तं सारहिं एवं वयासीएवं खलु चर्हि ठाणेहिं चित्ता जीवा केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेजा सवणयाए, तं०-आरामगयं वा उजाणगय वा समणं वा माहणं वा णो अभिगच्छा णो वंदर णो णमंसह णो सकारेर णो सम्माणे णो कालाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुबासेइ नो अट्ठाई हेऊई पसिगाई कारणाई वागरणाई पुच्छह, एएणं ठाणं चित्ता! जीवा केवलिपन्नत्तं धम्म नो लभंति सवणयाए १ उवस्सयगयं समणं वा तं चेव जाव एतेणवि ठाणं चित्ता! जीवा केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभन्ति सवणयाए २ गोयरन्गगयं समणं वा माहणं वा जाव नो पज्जुवासह, णो विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडि. लाभइ० णो अढाई जाव पुच्छह, एएणं ठाणं चित्ता ! केवलिपन्नत्तं नो लभह सवणथाए जत्थविणं समण वा माहणेण या सहिं अभिसमागच्छद तथवि णं हत्येण वा बत्थेण वा छत्तेण वा अप्पाणं आवरिना चिट्ठइ, नो अट्ठाई जाव पुच्छह, एएणवि ठाणेणं चिचा! जीवे केवलिपन्नतं धम्म णो लभह सवणयाए ४, एएहिं च णं चित्ता! चउहिं ठाणेहिं जीवे गोलभइ केवलिपन्नत्तं धम्म सबणयाए । चाउर्हि ठाणेहिं चित्ता! जीवे केवलिपन्नत्तं धम्म लभइ सवणयाए, तं०-आरामगयं वा उज्जाणगयं वा समणं वा माहर्ण वा वंदइ नमसइ जाव पज्जुवासह अट्ठाई जाव पुच्छर, एएणवि
~262~
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [५६-६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५६-६१]
वीराजप्रश्नी मलयगिरीया वृत्तिः ॥१२७॥
प्रदेशिबीधाय श्रावसरत्यागमन
विज्ञप्तिः मू०६० धर्मस्य लाभालाभकारणानि
दीप
जाव लभइसवणयाए, एवं स्वस्सयगय गोयरग्गगयं समण वा जाव पज्जवासह विउलेणं जाव पडिलाभेइ अट्ठाई जाव पुच्छह, पएणवि०, जत्थवि यणं समणेण वा अभिसमागच्छइ तत्थवि यणं णो हत्येण वा जाव आवरेत्ताणं चिद, एएणवि ठाणेणं चित्ता ! जीवे केवलिपन्न धम्म लभइ सव. णयाए, तुज्यां च णं चित्ता! पएसी राया आरामगयं वा तं चैव सर्व भाणिय आइल्लएणं गमार्ण जाव अप्पाणं आवरेत्ता चिइतं कई चित्ता! पएसिस्ट रनो धम्ममाइक्खिस्सामो?,तए णं से चित्ते सारही केसिकुमारसरुणं एवं पयासी-एवं खलु भंते ! अण्णया कयाई कंबोएहि चत्तारि आसा उवणयं उवणीया ते मए पएसिस्स रपणो अन्नया चेव उवणीया, एएणं खलु भते! कारण अहं पएर्सि रायं देवाणुप्पियाणं अंतिए हमागेस्सामो, तं मा णं देवाणुप्पिया ! तुम्भे पएसिस्स रनो धम्ममाइक्खमाणा गिलाएजाह, अगिलाए णं मंते! तुम्भे पएसिस्स रण्णो धम्ममाइक्खेजाह, छदेणं भंते ! तुम्मे पएसिस्स रपणी धम्ममाइक्वेजाह, तए णं से केसीकुमारसमणे चित्तं सारहिं एवं बयासी-अवियाई चित्ता ! जाणिस्सामो । तए णं से चित्ते सारही केर्सि कुमारसमण वंदइ नमंसह २ जेणेच चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ २त्ता चाउरघट आसरहे दुरुहद जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए ॥ (सू०६१)॥ 'जेणेच केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छित्ता केसीकुमारसमण पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ, तंजहा- सचित्तानां
अनुक्रम [५६-६१]
१२७॥
~263
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [५६-६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५६-६१]
दीप अनुक्रम [५६-६१]
द्रव्यानां पुष्पताम्यूलादीनां 'बिउसरणयाए 'इति व्यवसरणेम व्युत्सर्जनेन, अचित्तानां द्रव्याणाम्-अलङ्कारवस्त्रा-18 दीनामव्यवसरणेन-अव्युत्सर्गण, कचित् 'विउसरणयाए' इति पाठः, तत्र अचित्तानां द्रव्याणां-छत्रादीनां पुत्सजेनेन
परिहारेण, उक्तं च--' अवणेइ पंच कहाणि रायवरचिंधभूयाणि । छत्तं खग्गी वाणह मउई तह चामराओ य ॥२॥' इति, *एका शारिका यस्मिन् तत्तथा तच्च व उत्तरासंगकरण च-उत्तरीयस्य न्यासविशेषरूप तेन, चस्पर्श-दर्शने 'अंजलिपग्ग
हेण हस्तमोटनेन, मनस एकत्रीकरणेन-एकत्वविधानेन, 'पाडिहारिएण पीढफलगसज्जासंथारगेण निमंतेहिति' प्राति
हारिकेण--पुनः समर्पणीयेन । 'अवियाई चित्ता ! जाणिस्सामो' इति 'अचियाई' इति अपि च चित्ते परिभाषयामो 'लग्गा' भाइति भावः, कचित्पाठः 'आवियाई चित्ता ! समोसरिस्सामो' इति, नत्र अपि च-एतदपि च पग्भिाव्य समवसरिष्यामो के
वर्तमानयोगेन, 'फुटमाणेहि मुइंगमथएहि ति स्फुटद्भिरतिरभसास्फालनात मर्दल मुखपुटैः द्वात्रिविधैः द्वात्रिंशत्पात्रनिबद्ध| नाटकैर्वरतरुणयुक्तरुपनृत्यमानः तदभिनयपुरस्सरं नर्तनात् उपगीयमानः तद्गुणानां गाना । 'दसणं कखेद इत्यादि, का
कति प्रार्थयते स्पृ.ते अभिलपति चत्वारोऽप्येकार्थाः। 'चउहि ठागेहि' इति आरामादिगतं श्रमणादिकं नाभिगच्छनीत्यादिक प्रयम कारण, उपाश्रयगतं नाभिगच्छतीत्यादि द्वितीय, प्राविहारिकेण पीठफलकादिना नामन्त्रयतीत्यादि तृतीय, गोचरगतं नाशनादिना प्रतिलाभयवीत्यादि चतुर्थ, पतैरेव चतुर्भिः स्यानैः केवलिपक्षप्तं धर्म लभते श्रवणतया-श्रवणेनेति भावा, 'अत्यवियण 'मित्यादि, यत्रापि श्रमणः-साधुः माहन:-परमगीतार्थः श्रावकोऽभ्यागच्छनि तत्रापि हस्तेन वस्त्राश्चलेन छत्रेण वाऽऽत्मानमावृत्य न तिष्ठति इदं प्रथम कारण, एवं शेषाण्यपि कारणानि प्रत्येकमेवं भावनीयानि, तुझं च णं चिता !
SERatanA
A
amurary.orm
~264~
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [५६-६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
श्रीराजमश्नी मलयगिरी
सूत्रांक
या वृत्तिः
[५६-६१]
॥१२॥
दीप अनुक्रम [५६-६१]
पएसी राया आरामगयं वा तं व सर्व भाणियो' 'भाइलगमएणं 'ति प्रथमगमकेन, तथवा-युष्माकं प्रदेशी राजा हे चित्र ! अबखेब्नं आरामादिगतं न वन्दते, यत्रापि च श्रमणोऽभ्यागच्छति तत्रापि हस्तादिनाऽऽत्मानमावृत्य तिष्ठति, 'तं कहने चित्ता! |
* किनिनः
मीपेगमनंच इत्यादि सुगम ॥ (सू०५६-५७-५८-५९-६०-६१)॥
०१२ तए णं से चित्ते सारही कलं पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमल्लुम्मिलियमि अहापंडुरे पभाए कयनियमावस्सए सहस्सरस्सिमि दिणयरे तेयसा जलंते साओ गिहाओ णिग्गकछह २ ना जेणेव पएसिस्स रनो गिहे जेणेव पएसी राया तेणेव उवागच्छइ २ ता पएर्सि रायं करयल जाव तिकटुजएणं विजएणं वहावेइ,रत्ता एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं कंबोएहिं चत्तारि आसा उवणयं उवणीया तेय मए देवाणुप्पियाणं अण्णया चेव विणइया तं एह णं सामी ! ते भासे चिट्ठ पासह, तर णं से पएसी राया चित्तं सारहि एवं वयासो-गच्छाहि ण तुम चित्ता तेहिं चेव चाहिं आतेहिं आसरह जुत्तामेव उवट्ठवेहि २त्ता जाव पथप्पिणाहितए णं से चित्ते सारही पएसिणा रन्ना एवं बुत्ते समाणे हतुट्ट जाव हियए उबट्टवेइ २त्ता एयमाणत्तियं पचप्पिणह। तर णं से पएसी राया चित्तस्स सारहिस्स अंतिए एयमहूँ सोचा णिसम्म हतुह जाय अप्पमहग्घाभरणालं कियसरीरे साओ गिहाओ निग्गच्छइ २त्ता जेणामेव चाउरघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ २ चाउग्घट आसरहं दुरुहह, सेयवियाए नगरीए मज्झमझेणं णिग्गच्छद,तए णं से चित्ते A1 १२८॥
SARERatinine
IMLunaram.org
~265~
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
----------- मूलं [६२-६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६२-६४]
दीप अनुक्रम [६२-६४]
सारहीत रह गाई जोयणाई उम्भामेइ, तए णं से पएसी राया उण्हेण यतहाए य रहवाएणं परिकिलंते समाणे चित्तं सारहि एवं वयासी-चित्ता ! परिकिलंते मे सरीरे परावत्तेहि रहे, तए णं से चित्ते सारही रहे परावते, जेणेव मियवणे उजाले तेणेव उवागछह, पएसिं राय एवं वयासी-एस णं सामी! मियवणे उजाणे एत्य णं आसाणं समं किलाम सम्म पवीणेमो, तए णं से पएसी राया चित्तं सारहिं एवं वदासी-एवं होउ चित्ता,तए ण से चित्ते सारही जेणेव मियवणे उजाणे जेणेव केसिस्स कुमारसमणस्स अदरसामंते तेणेव उवागच्छद २तुरए णिगिण्हेइ २रहं ठवेइ २त्ता रहाओ पञ्चोकहइ २त्ता तुरए मोएतिरत्ता पएसि राय एवं वयासी-एहण सामी! आसाणं संमं किलाम पवीणे,मो, तए णं से पएसी राया रहाओ पञ्चोकहइ, चित्तेण सारहिणा सद्धि आसाणं समं किलाम सम्म पवीणेमाणे पासइ जत्थ केसीकुमारसमणे महइमहालियाए महापरिसाए मझगये महया २ सद्देणं धम्ममाइक्खमाणं, पासइत्ता इमेयासवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था-जड्डा खलु भो जई पज्जुवासंति मुंडा खलु भो मुंडं पज्जुवासंति म्दा खलु भो मृद पाजुवासंति अपंडिया खल्लु भो! अपंडियं पज्जवासंति निविण्णाणा खल भो। निविगाणं पज्जुवासंति, से केस णं एस पुरिसे जड़े मुद्दे मूढे अपंडिए निविणाणे सिरीए हिरीए उवगए उत्तप्पसरीरे, एस णं पुरिसे किमाहारमाहारेइ ? कि परिणामेइ ? किं खाइ किं पिया कि
केसिकुमार श्रमणं साधं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा
~266~
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय"-:
------------- मूलं [६२-६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी या पृत्तिः ।।१२९॥
आधोऽवभ्यन्नजीवि
प्रश्नः चिINन्तितोक्तिः
प्रत
सूत्रांक
[६२-६४]
दलइ किं पयल्छइ जण्णं एमहालियाए मणुस्सपरिसाए मझगए महया २ सदेणं वुयाए ?, एवं संपेहेइ २ सा चित्तं सारहिं एवं बयासी-चित्ता! जडा खलु भो ! जई पज्जुवासंति जाव बुयाइ, साएवि य णं उजाणभूमीए नो संचाएमि सम्म १कामं पबियरित्तए । तए णं से चिसे सारही पएसीराय एवं वयासी-एस णं सामी ! पासावञ्चिले केसीनाम कुमारसमणे जाहसंपणो जाव चउ.. नाणोवगए आहोहिए अण्णाजीबी तए णं से पएसी राया चित्तं सारहिं एवं बयासी-आहोहिय ण वदासि चित्ता! अण्णजीवियत् णं वदासि चित्ता, हंता ! सामी ! आहोहिअण्णं वयामि०, अभिगमणिले गं चित्ता ! अहं एस पुरिसे १, हंता ! सामी ! अभिगमणिजे, अभिगच्छामो णं चित्ता ! अम्हे एयं पुरिसं?, हंता सामो ! अभिगच्छामो ॥ (सू०६२) ॥ तए णं से पएसी राया चिरेण सारहिणा सहिं जेणेव केसीकुमारसम तेणेव उवागच्छइ २ ता केसीस्स कुमारसमणस्स अदरसामसे ठिचा एवं बयासी-तुम्भे णं भंते! आहोहिया अण्णजीविया,तएण केसी कुमारसमणे पएसि रायं एवं वदासी-पएसी से जहाणामए अंकवाणियाइ वा संखवाणियाइ वा दंतवाणियाई वा सुंक भसिकामा णो सम्म पंथ पुच्छइ.एवामेव पएसी तुम्भेवि विणयं भंसेउकामो मो सम्म पुरुछसि, से शृणं तव पएसी ममं पासित्ता अयमेयारुवे अज्झथिए जाय समु. प्पजिस्था-जड्डा खलु भो ! जड़े पज्जुवासंति, जाय पवियरित्तप, से गूणं परसी अढे समत्थे १,
दीप अनुक्रम [६२-६४]
। १२९॥
REmirathini
T
amurary.om
केसिकमार श्रमणं साधं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा
~267~
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [६२-६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६२-६४]
दीप अनुक्रम [६२-६४]
हंता ! अस्थि ॥ (सू०६३)।तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वदासी-से केणहेणं भंते ! तुजसं नाणे वा दसणे वा जेणं तुझे मम एयारूवं अज्झत्थियं जाव संकप्प समुप्पणं जाणह पासह, तर णं से केसीकुमारसमणे पएसि रायं एवं वयासी-एवं खलु पएसी अम्हं समणाणं निग्गंधाणं पंचविहे नाणे पणात्ते, तंजहा-आभिणियोहियणाणे मुयनाणे ओहिणाणे मणपजवणाणे केवलणाणे, से किं तं आभिणिचोहियनाणे?, आभिणियोहियनाणे चढविहे पणत्ते, संजहा-उग्गही ईहा अवाए धारणा । से किं तं उग्गहे!, उम्गहे दुविहे पपणते. जहा नंदीए जाव से तं धारणा, से तं आभिणियोहियणाणे । से किं तं सुयनाणे १, सुयनाणे दुबिहे पणत्ते, तंजहा-अंगपविढेच अंगयाहिरंच, सर्व भाणिय जाव दिद्विवाओ। ओहिणाणं भवपाइयं खओवसमियं जहा गंदीए । मणपज्जवनागे दुविहे पण्णते, तंजहा-उज्जुमई प विउलमई य, तहेव केवलनाणं सर्व भाणिया, तत्थ णं जे से आभिणियोहियना से णं ममं अस्थि, तत्थ णं जे से सुयणाणे सेऽविय मर्म अस्थि, तत्थ णं जे से ओहिणाणे सेवि य मर्म अत्थि, तत्थ णं जे से मणपज्जवनाणे सेऽविय मर्म अत्थि, तस्थ पंजे से केवलनाणे से णं मम नत्थि, से णं अरिहंताण भगवंताणं, इएणं पएसी अहं तव चउविहेणं छउमत्थेणं णाणं इमेपारूवं अज्झस्थिय जाव समुप्पण्णं जाणामि पासामि ।। (सू०६४)॥
For P
OW
केसिकमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा
~268~
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
----------- मूलं [६२-६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
चतुनिका
प्रत
सूत्रांक
[६२-६४]
*-16
दीप अनुक्रम [६२-६४]
श्रीराजमश्नी 'आसाणं समं किलाम सम्ममवणे,मो' इति, अश्वानां सम-श्रमं खेदं क्लमं-ग्लानि सम्यक् अपनयामा- जानानि, मलयगिरी|| स्फोटयामः 'जडा खलु जड' मित्यादि, जडमूढअपण्डित निविज्ञानशब्दा एकाथिका मौरूयंभकर्षप्रतिपादनार्थ चोक्ताः | या वृत्तिः
सिरिए हिरिए उवगए उत्तप्पसरीरे' इति श्रिया-शोभया हिया-लज्जया उपगतो-युक्तः, परमपरिषदादिशोभया गुप्त॥१३०॥ शरीरचेष्टाकतया चोपलम्मान, उत्तप्तशरीरो-देदीप्यमानशरीरः, अत्रैव कारणं विमृशति-एष किमाहारयति-किमाहार
* गृहाति १, न खलु कदनभक्षणे एवरूपाया: शरीरकान्तरुपपत्तिः, कण्डत्यादिसद्भावनो विच्छायत्वप्रसक्तः, तया कि परिणा
मयति-कीदृशोऽस्य गृहीताहारपरिणामो ?, न खलु शोभनाहाराभ्यवहारेऽपि मन्दाग्नित्वे यथारूपा कान्तिर्भवति, एतदेव सविशेषमाचष्टे-'कि साइ कि पियइ !, तथा कि दण्यति-ददाति, एतदेव व्याचष्टे-किं प्रयच्छति !, येनैतावान् लोका पर्युपास्ते, एतदेवाह-'जन्नं एस एमहालियाए माणुसपरिसाए महयार सद्देण यूया' इति बने, यस्मिंश्चेत्, चेष्टमाने 'साए बियाणमित्यादि स्वकीयायामपि उद्यानभूमौ न संचाएगो-न शक्नुमः सम्यक्-प्रकाशं स्वेच्छया प्रविचरित, एवं संप्रेक्षते-स्ववेतसि
परिभावयति, संप्रेक्ष्य चित्रं सारथिमेवमवादी-'चित्ता' इत्यादि, 'अधोवहिए' इति अधोऽवधिका-परमावधेरधोव* पर्यवधियुक्तः, 'अन्नजीविए' इति अनेन जीवित-प्राणधारणं यस्यासावनजीवितः। 'से जहानामए' इत्यादि, ते यथा
नाम इति वाक्यालङ्कारे 'अकवणिजो' अङ्करत्नवणिजः शङ्खवणिजो मणिवणिजो वा शुल्क-राजदेयं भाग भ्रंशयितुकामाः शङ्कातो न सम्यग् पन्धानं पृच्छन्ति, 'एवमेव तुम' मित्यादि, दान्तिक योजना सुगमा । 'उग्गहे' त्यादि, तत्राविवक्षिवाशेषविशेषस्य सामान्य रूपस्यानिद्देश्यस्य रूपादेरवग्रहणमवग्रहः तदर्थगतासद्भूतसद्भूतविशेषालोचनमीहा प्रक्रान्तार्थविशेषनि
*॥१३०.1
Randiturary.orm
केसिकुमार श्रमणं साधं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा
~269~
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [६२-६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६२-६४]
श्योऽपायः अवगतार्थविशेषधारण धारणा, 'से कि त उम्गहे' इत्यादि, यया नन्दी शानमरूपणा कृता तथाऽत्रापि परिपूर्णा | कर्तव्या, ग्रन्थगौरवभयाच न लिख्यते, केवल सट्टीवावलोकनीया, तस्यां समपञ्चमस्माभिरभिधानात् ॥ (सू०६२-६३-६४018
तएणं से पएसीराया केसि कुमारसमणं एवं वयासी-अहणं भंते! इह उवविसामि, पएसी! एसाए उजाणभूमीए तुमंसि चेव जाणए, तए णं से पएसी राया चित्तेणं सारहिणा सरिकेसिस्स कुमारसमणस्स अदूरसामंते उवविसह, केसिकुमारसमणं एवं वदासी-तुन्भे णं भंते ! समणाणं णिग्गथाणं एसा सपणा एसा पदण्णा एसा दिट्ठी एसा रुई एस हेऊ एस उवएसे एस संकप्पे एसा तुला एस माणे एस पमाणे एस समोसरणे जहा अण्णो जीवो अपण सरीरंणो तं जीवो तसरीरं, तए ण केसी कुमारसमणे पएर्सि राय एवं वयासी-पएसी! अम्हं समणाणं णिगंधाणं एसा सण्णा जाय एस समोसरणे जहा अण्णो जीवो अण्णं सरीरंणो तं जीवो जो तं सरीरं,तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमण एवं बयासी-जति णं भंते ! तुम्भं समणाणं णिगंथाणं एसा सण्णा जाव समोसरणे जहा अण्णो जीवो अण्ण सरीरंणोतं जीवोतं सरीरं, एवं खलु मम अजए होत्या, इहेव जंबूदीवे दीवे सेयवियाए णगरीए अधम्मिए जावसगस्सविय गंजणवयस्स नी सम्म करभरवित्ति पवत्तेति, से.णं तुम्भं वत्तव्याए सुबह पावं कम्म कलिकलसं समजिणित्ता कालमासे कालं किचा अण्णयरेसु नरपसु रइयत्ताए उववषये। । तस्स णं अजगस्स णं अहं णत्तुए होत्था इट्टे कंते
दीप अनुक्रम [६२-६४]
Hindurary.orm
केसिकुमार श्रमणं साधं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा
~270~
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
---------- मूलं [६५-६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
आर्यका नागमप्रश्न:
प्रत सूत्रांक [६५-६६]
श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी
या वृत्तिः ॥ १३२॥
दीप अनुक्रम [६५-६६]
पिए मणुषणे थेजे वेसासिए संमए बहुमए अणुमए रयणकरंडगसमाणे जीविउस्सविए हिययणंदिजणणे उपरपुप्फपिव दुलझे सवणयाए, किमंग पुण पासणयाए !,तं जति णं से अज्जए ममं आगंतुं वएज्जा-एवं खलु ननूया! अहं तव अज्जर होत्था, इहेव सेयवियाए नयरीए अधम्मिए जाय नो सम्मं करभरवित्ति पवत्तेमि, तए णं अहं सुबाहं पावं कम्म कलिकलुसं समन्जिणित्ता नरएसु उवधपणे त मा णं नत्तुया ! तुमंपि भवाहि अधम्मिए जाव नो सम्मं करभरवित्ति पवत्तेहि, माणं तुमंपि एवं चेव सुबाहुं पावकम्मं जाव उववज्जिहिसि, तं जड़ णं से अज्जए ममं आगंतु वएज्जा तो णं अहं सहज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा जहा अन्नो जीवो अन्न सरीरं णोतं जीवो तं सरीरं, जम्हा णं से अजए भमं आगंतु नो एवं वयासी तम्हा सुपइडिया मम पइन्ना समणाउसो ! जहा तज्जीवो तं सरीरं । तर णं केसी कुमारसमणे परसिं रायं एवं वदासी-अस्थि णं पएसी! तव सूरियकता णामं देवी ,हंता अस्थि, जहणं तुम पएसी तं सूरियकंतं देवि पहायं कयवलिकम्मं कयकोउयमंगलपायच्छितं सदालंकारविभूसियं केणइ पुरिसेण पहाएणं जाव सहालंकारभृसिपणं सद्धि इढे सरफरिसरसरूवगंधे पंचविहे माणुस्सते कामभोगे पश्चणुभवमाणि पासिज्जसि तस्स णं तुम पएसी! पुरिसस्स के डंडं निवत्तेज्जासि ,अहणं भंते ! तं पुरिसं हत्यच्छिषणगं वा सूलापगं या सूलभिन्नग वा पायछिन्नग चा एगाहचं कूडाह जीवियाओ ववरोवएज्जा, अहणं पएसी से
Aliancinrary on
केसिकुमार श्रमणं साधं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा
~271
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [६५-६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६५-६६]]
दीप अनुक्रम [६५-६६]
獎中獎率數字字變中發宰宰炎。
पुरिसे तुम एवं वदेज्जा-मा ताव मे सामी ! मुहत्तगं हत्थच्छिण्णगं वा जाव जीवियाओ ववरीवेहि जाव तावा मित्तणाइणियगसपणसंबंधिपरिजणं एवं वयामि-एवं खलु देवाणुप्पिया! पाबाई कम्माई समायरेता इमेयारूवे आवई पाविज्जामि, तं मा णं देवाणुप्पिया ! तुम्भेषि केड पावाई कम्माई समायरउ, मा णं सेऽवि एवं चेव आवई पाविज्जिहिइ जहा णं अहं, तस्स णं तमं पएसी! पुरिसस्स खणमवि एयम पडिसुज्जासि, णो तिणडे समझे, जम्हा णं भंते ! अ. वराहीण से पुरिसे, एचामेव पएसी! तववि अज्जए होत्था इहेव सेयवियाए णपरीए अधम्मिए जाव णो सम्म करभरवित्ति पवत्तेइ, से णं अम्ह वत्तायाए सुबहुं जाव उववन्नो, तस्स णं अज्जगस्स तुम णत्तुए होत्था इट्टे कंते जाय पासणयाए, से णं इच्छइ माणुसं लोग हयमागकिछत्तए, णो चेव णं संचाएति हदमागच्छित्तए, चउहि ठाणेहिं पएसी अहणोववष्णए नरपसु मेरइए इच्छेइ माणुसं लोग हदमागच्छित्तए नो चेवणं संचाएइ अहणोववन्नए नरए नेरइए, से ण तत्थ महम्भूयं वेयणं वेदेमाणे इच्छेजा माणुस्सं लोग हणो चेवणं संचाएइ०१,अहणीववन्नए नरए नेरइए नयरपालेहिं भूज्जो २,समहि द्विज्जमाणे इच्छमाणुसं लोग हहमागच्छित्तए नो चेवणं संचापड २ अहणोचवन्नए नरएसु नेरइप निरयवेयणिज्जसि कम्मसि अकरवीणसि अवेइयंसि अनिज्जिनसि इच्छा माणुस लोग० नो चेष णं संचाएइ ३, एवं परइए निरयाज्यसि कम्मंसि अकूखीणंसि अवेइयंसि
malini
केसिकमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा
~272
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
----------- मूलं [६५-६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजप्रश्नी का मळयगिरीया वृत्तिः
आपिंडा नागमणमा ०६९
प्रत सूत्रांक [६५-६६]
अणिज्जिनसि इच्छह माणुसं लोग० नो चेव णं संचाएइ हदमागच्छित्तए ४, एहिं चउहि ठापेहि पएसी अहणीववन्ने नरएसु नेरइए इच्छइ माणुस लोग० णो चेव णं संचापइ०, तं सरहाहि णं पएसी ! जहा अन्नो जीवो अन्नं सरीरं नो तं जीवो त सरीरं१॥ (सू०६५)॥तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमण एवं वदासी-अस्थि णं भंते! एसा पण्णा उवमा, इमेण पुण कारपेण नो उवागरछह, एवं खलु भंते ! मम अज्जिया होत्था इहेव सेयवियाए नगरीए धम्मिया जाव वित्ति कप्पेमाणी समणोवासिया अभिगयजीवा० सहो वण्णओ जाव अप्पाणं भावेमाणी विहरह, साणं तुज्ने वत्तबयाए सुबह पुनोवचय समजिणिचा कालमासे कालं किचा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववण्णा, तीसे णं अग्जियाए अहं नत्तुए होत्था इढे कंते जाव पासणयाए, तं जइ ण सा अज्जिया मम आगतं एवं वएज्जा-एवं खलु नत्तुया ! अहं तव अज्जिया होत्या, इहेव सेयवियाए नपरीर घम्मिया जाव वित्ति कप्पेमाणी समणीवासिया जाब विहरामि । तए णं अहं सुबहुं पुषणोयचयं समज्जिणित्ता जाव देवलोएम उववण्णा, तं तुमंपि णत्तुया ! भवाहि धम्मिए जाव विहराहि, तए णं तुमंपि एयं चेव सुबह पुण्णोवचयं समजाव उववज्जिहिसितं जहणं अज्जिया मम आगंतुं एवं वएज्जा तो णं अहं सदहेज्जा पत्तिएज्जा रोइजा जहा अपणो जीचो अण्णं सरीरं णो त जीवो तं सरीरं, जम्हा सा अज्जिया ममं आगंतुंणो एवं वदासी, तम्हा
दीप अनुक्रम [६५-६६]
१३२॥
REaratunal
murary org
केसिकमार श्रमणं साधं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा
~273~
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [६५-६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६५-६६]
दीप अनुक्रम [६५-६६]
सुपइडिया मे पइपणा जहा तं जीवो त सरीरं नो अन्नो जीवो अन्न सरीरं । तए ण केसीकुमारसमणे पएसीरायं एवं वयासी-जति ण तुमं पएसी! हाय कयवलिकम कयकोउयमंगलपायकिछत्तं उल्लपडसाडगं भिंगारकडच्छयहत्थगयं देवकुलमणुपविसमाणं केइ य पुरिसे बच्चधरंसि ठिचा एवं वदेजा-ह(ए हताव सामी! इह मुहत्तगं आसयह वा चिट्ठह वा निसीयह वा तुयह वा, तस्स णं तुम पएसीपुरिसस्स खणमवि एयम पडिसुणिज्जासि, णो ति०, कम्हाणे?, भंते ! असुइ २ सामंतो,एवामेव पएसी! तववि अज्जिया होत्था इहेव सेयवियाए णपरोए धन्मिया जाव विहरति, साणं अम्हं वत्तघयाए सुबहुंजाव उववन्ना, तीसे णं अजियाए तुम णनए होत्था इट्ट० किमंग पुण पासणयाए 1, सा णं इच्छह माणुसं लोग हवमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाएइ हवमागच्छित्तए, चाहिं ठाणेहि पएसी अहणोववन्ने देवे देवलोपमु इसजा माणुसं लोगं णो चेवणे संचाएइ. अहुणोववपणे देवे देवलोएसु दिव्वेहिं कामभोगेहिं मुछिए गिडे गढिए अजमोववणे से णं माणसे भोगेनो आढाति नो परिजाणाति, सेणं इच्छिज्ज माणुसं नो चेव णं संचाएति १, अहुणोववण्णए देवे देवलोएसु दिवेहि कामभोगेहिं मुछिए जाव अज्झोववण्णे, तस्स णं माणुस्से पेम्मे वोच्छिनए भवति दिव्वे पिम्मे संकेते भवति, से ण इच्छेज्जा माणुस० णो चेव णं संचाएइ २, अहुणोववपणे देवे दिन्वेहि कामभोगेहि मुच्छिए जाव अज्झोववणे,
केसिकुमार श्रमणं साधं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा
~274~
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
---------- मूलं [६५-६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६५-६६]
श्रीराजपनी तस्स णं एवं भवइ-इयाणि गच्छ मुहत्तं गच्छे जाव इह अप्पाउया णरा कालधम्मुणा संजुत्ता देवनारकामलयगिरी
भवंति, से णं इच्छेज्जा माणुस्सं० णो चेव णं संचाएइ ३, अहणोववगे देवे दिब्वेहिं जाव अझो- नागमशंकाया वृत्तिः चवणे, तस्स माणुस्सए उराले दुग्गंधे पडिकूले पडिलोमे भवइ, उदपि यणं चत्तारि पंच जोयण
व्युदासः ॥१३३॥ सपाइं असुभे माणुस्सए गंधे अभिसमागच्छद, से णं इन्छे जा माणुसंणो चेव पं संचाइजा ४,
इओएहिं ठाणेहि पएसी ! अहणोचवणे देवे देवलोएसु इच्छेज माणुसं लोगं हवमागरिछत्तए णो चेव णं संचाएइ हन्बमागच्छित्तए, तं सद्दहाहि गं तुमं पएसी ! जहा अन्नो जीवो अन्न सरीरं नो तं. जीवो तं सरीरं२॥(सू०६६)॥
'तुझणं भंते समणाणं णिग्गंथाणं एसा सपणा' इत्यादि, संज्ञान-संज्ञा सम्यग्ज्ञानमित्यर्थः, एपा च पतिशानिश्रयरूपोऽभ्युपगमः एषा-दृष्टिः दर्शनं स्वतचमिति भावः, एषा रुचिः- परमश्रद्धानुगतोऽभिपाय:, एप हेतु: समस्ताया अपि || दर्शनवक्तव्यताया, एनन्मूलं युष्मद्दर्शन मिति भावः, पप सदैव भवतां तात्विकोऽध्यवसायः, एषा तुला यथा तुलायां तोलितं | सम्यगिन्यवधार्यते तयाऽनेनाप्यभ्युपगमेनाङ्गीकृतेन च यद्विचार्यमाणं संगतिमुपैति तत् सम्यमित्यवधार्यते न शेषपिति, तुलेब* YI तुला तया, एवमेतन्मानमित्यपि भावनीय, नवरं मान-प्रस्वादि, 'पसप्पमाणे इति एतत् प्रमाण, यथा प्रमाणे प्रत्यक्षायविसं
वादि एवमेषोऽप्यभ्युपगमोऽविसंवादीति भावः, 'एस समोसरणे' इति, एतत् समवसरणं-बहूनामेका मीलनं, सर्वेषामपि तत्वानामस्मिन्नभ्युपगमे संलुलनमिति भावः । 'इटे कंते पिए' इत्यादि, इष्टः इच्छाविषयत्वात् कान्तः कमनीयतमत्वात्
दीप अनुक्रम [६५-६६]
केसिकुमार श्रमणं साधं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा
~275~
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
---------- मूलं [६५-६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६५-६६]]
दीप अनुक्रम [६५-६६]
प्रियः प्रेमनिबन्धनत्वात् मनोज्ञो मनसा सम्यगुपादेयतया ज्ञातत्वात् मनसा अभ्यते-गम्यते इति मनोऽमः स्थैर्यगुणयोगात् स्थैर्यो विश्वासको विश्वासस्थान संमतः कार्यकरणेन बहुमतो बहुत्पेन अनल्पतया मतो बहुमतः कार्यविघातस्य पश्चादपि मतो वह(अनुपनः रत्नकरण्डसमानो, रत्नकरण्डकायदेकान्तेनोपादेय इति भावः जीविउस्सविर' इति जीवितस्योत्सव इव | 0 जावितोत्सवः स एव जोयिनोत्सविकः,हृदयनन्दिजनना, उदुम्बरपुष्पं झलभ्यं भवति ततस्तेनोपमान, 'सूलाइयं वा' इत्यादि
शूलायामशियेन गतं शूलानिर्ग,एतदेव ब्याचष्टे-शूलायां भिन्नः शूलाभिन्नः स एव शूलाभिज्ञकस्तं, तथा 'पगाहच्च मिति | एकं घातं, एकन यानेनेति भावः, 'कृडाहच' मिनि कूटाघात, कूपतितस्य मृगरे व घातेनेति भावः । 'चर्हि ठाणेहि' इत्यादि, तत्र मुमहद्भूतनरकोदनायेदनमेकं कारणं द्वितीय परमाधार्मिक कथनं तृतीय नरकवेदनीयकक्षियत उद्विजनं चतुर्थ नरक युष्माक्षरत उद्विज । 'चाह ठाणेहि अहुगोववगर देवे इत्यादि सुगमं नवरं 'चत्तारि पंच वा जोअणसए असुभे गंधे हवइ ' इति इह यद्यपि नवभ्यो योजनेभ्यः परतो गन्धपुद्गला न घाणेन्द्रियग्रहणयोग्या भवन्ति, पुद्गलानां मन्दपरिणामभावात् घ्राणेन्द्रियस्य च तयाविशत्यभावात् , तथापि ते अत्युत्कगंधपरिणामा इति नबसु योजनेषु मध्ये अन्यान् पुद्गलान् उत्कटगन्धपरिणामेन परिणपपति, तेऽपि ऊर्च गच्छन्तः परतोऽन्यान तेऽप्य-यानिति चलारि पञ्च वा योजनशतानि यावन् गन्धा, केवलमूर्ध्वमूध मन्दपरिणामो घेदितव्या, तत्र यदा मनुष्यलो के बहूनि गोमृतककलेवरादोनि | तदा पश्च योजनशतानि यावत् गन्धः शेषकालं चलारि तत उक्तं चत्वारि पश्चेति ॥ (मू०६५-६६)॥
तर णं से परसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासी-अस्थि णं भंते ! एस पपगाउवमा, इमेणं
Auditurary.com
केसिकमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा
~276~
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[६७-७४]
दीप
अनुक्रम [६७-७४]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [६७-७४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
श्रीराजमश्री मलयगिरीया वृत्तिः
।। १३४ ।।।
पुण मे कारण णो उवागच्छति, एवं खलु भंते! अहं अन्नया कयाई बाहिरियाए उवाणसालार अपेगगणणायक दंडणायगई सरतलवर मावियको टुंबियइन्भसेसेणावइ सत्यवाहमंतिमहामंतिगणगदोवारियअमचचेडपी ढमद्दन गरनिगमद्यसंधिवालेहिं सद्धिं संपरिबुडे विहरामि । तए णं
गुत्तिया सखं सलोहं सगेवेचं अवउण (वाउड) बंधणबडं चोरं उर्णेति तए णं अहं तं पु. रिसं जीवंतं चैव अडकुंभीर पक्खिवावेमि अउमएणं पिहाणएणं पिहावेमि अएण य तउएण य आयावेमियाह पुरिसेहि रक्खावेमि, तर अहं अण्ण्या कयाई जेणामेव सा अडकुंभी तेनामेव वागच्छामि उवागच्छिता तं अडकुंभीं उग्गलच्छावेमि उग्गलच्छा वित्तातं पुरिसं सयमेव पासामि जो चेवणं ती अकुंभीए केइ छिदेह या विवरेह वा अंतरेइ वा राई वा जओ णं से जोवे अंतोहितो
याज भंते तीसे अडकुंभीए होजा केइ छिड्डे वा जावराई या जओ णं से जीवे अंतोहितो पहिया णिग्गए. तो णं अहं सहेज्जा परिएला रोएका जहा अनो जीवो अन्नं सरीरं नो तं जीवो तं सरीरं, जम्हाणं भंते!तीसे अडकुंभीए णत्थि केइ छिड्डे वा जाव निग्गर, तम्हा सुपतिट्टिया मे पन्ना जहा संजीवो तं सरीरं नो अन्नो जीवो अन्नं सरीर । तए णं केसी कुमारसमणे परसिं रायं एवं बयासी-पएमी ! से जहा नामए कूडागारसाला सिया दुहओलिता गुत्ता गुत्तदुवारा शिवाय - गंभीरा, अहणं केइ पुरिसे भेरिं च दंडं च गहाय कूडागारसालाए अंती २ अणुष्पविसह २ ता
केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा
For Pale Only
~277~
40*40-495% 4948-4944249 40
अच्छिद्रेजी
वगतेः शंका
तदुत्तरं च
सू० ६७
।।। १३४ ।।
jonary or
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
---------- मूलं [६७-७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६७-७४]
दीप अनुक्रम [६७-७४]
तीसे कडागारसालाए सम्वतो समता घणनिचियनिरंतरणिपिछडाई दुवारवयणाई पिहेइ, तीसे कूडागारसालाए बहमजादेसभाए ठिचा तं भेरि दंडएणं महया २ सणं तालेजा, से पएसी! से सहेणं अंतोहितो पहिया निग्गच्छड हंता जिग्गच्छा, अस्थि णं पएसी! तीसे कूडागारसालाए केइ छिड़े वा जावराई वा जीणं से सहे अंतोहितो बहिया णिग्गए, नो तिणढे समझे, एवामेव पएसी! जीवेवि अप्पडिहयगई पुढवि भिच्चा सिलं भेचा पब्वयं मिचा अंतोहितो पहिया णिगच्छद, तंसदहाहि णं तुम पएसी! अण्णो जीवो तं वशतए णं पएसी राया केसिकुमारसमण एवं वदासी-अस्थि णं भंते ! एस पण्णाउवमा इमेण पुण कारणं णो उवागकछह, एवं खलु भंते! अहं अनया कयाइ बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए जाव विहरामि, तए णं ममणगरगुत्तिया ससक्वं जाव उवणं ति, तए णं अहं (त) पुरिसं जीवियाओ ववरोवेमि जीवियाओ ववरोवेत्ता अयोकुंभीए पक्विवामि २ ता अउमएणं पिहावेमि जाव पचहपहिं पुरिसेहि रक्खायेमि, तए णं अहं अन्नया कयाई जेणेव सा कभी तेणेव उवागच्छइ २त्तातं अउभि उग्गलच्छामि २त्ता त अउकुंभी किमिकुंभिपिव पासामिणो चेव णं तीसे अउकुंभीए केइ छिट्टेइ वा जावराई वा जताणं ते जीवा पहियाहितो अणुपविद्वा, जति णं तीसे अउकुंभीए होज के छिडेइ वा जाब अणुपविद्वा तेणं अहं सद्दहेजा जहा अनो जीवो तं चेच, जम्हा णं तीसे अउकुंभीए नस्थि कोइ छिडेड वा जाय
4.
masomamera
केसिकुमार श्रमणं साधं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा
~278~
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [६७-७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजपनी मलयगिरीया वृत्तिः
तरुणद्धयो शक्ति
भेदे उपकरHOण शक्तिः
प्रत सूत्रांक [६७-७४]
दीप अनुक्रम [६७-७४]
अणुपविटा तम्हा सुपतिहिआ मे पष्णा जहा तं जीवो तं सरीरं तं चेव । तए ण केसीकुमारसमणे पएसी रायं एवं वयासी-अस्थि णं तुमे पएसी! कयाइ अए धंतपुब्वे था धमावियपुत्वे वाहता अस्थि, से शृणं पएसी ! अए धंते समाणे सब्वे अगणिपरिणए भवति !, हंता भवति, अस्थि णं पएसी तस्स अयस्स केइ छिडेह वा जेणं से जोई बहियाहिंतो अंतो अणुपविढे !, नो इणमहे सम, एवामेव पएसी! जीवोऽवि अप्पडिहयगई पुढवि भिच्चा सिलं भिचा बहियाहितो अणुपविसइ, तं सरहाहि गं तुमं पएसी! तहेव ४॥ (सू०६७)।तए णं पएसी राया केसीकुमारसमणं एवं वयासी-अस्थि गं भंते ! एस पण्णा उवमा इमेण पुण मे कारणं नो उवागाछह, अस्थि ण मंते! से जहानामए केई पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगए पभू पंचकंडगं निसिरित्तए ?, हंता पभू !, जति णमंते ! मोच्चेव पुरिसे चाले जाव मंदविनाये पभू होजा पंचकंडग निसिरित्तए, तो ण अहं सहेजा ३ जहा अन्नो जीवो तं चेव, जम्हा णं भैते ! स चेव से पुरिसे जाव मंदविनाणे णो पभू पंचकंडय निसिरित्तए तम्हा सुपइट्ठिया मे पण्णा जहा तं जीवोतं चेव। तए ण केसीकुमारसमणे पएसि गएवं बयासी-से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगए णवएणं धणुणा नवियाए जीवाए नवएणं इसुणा पभू पंचकंडगं निसिरित्तए?, हता, पभू, सो चेव णं पुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोबगते कोरिलिएणं धणुणा कोरिल्लियाए जीवाए कोरिल्लिएणं उसुणा पभू पंचकंडग निसि
Saintaintinian
M
ainrary.orm
केसिकुमार श्रमणं साधं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा
~279~
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक [६७-७४]
दीप
अनुक्रम [६७-७४]
मूलं [ - ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
--
Jan Euration
मूलं
4040400
40 40
रित ?, णो तिणमट्टे सम, कम्हा णं, भंते! तस्स पुरिसस्स अपजताई उवगरणाई हवंति, एवामेव पएसी ! सो चेव पुरिसे वाले जाय मंदविन्नाणे अपजत्तोवगरणे, णो पभू पंचकंडयं निसिस्तिए, तं सदहाहि णं तुमं पएसी । जहा अनो जीवो तं चेव ५ ॥ (सू० ६८ ॥ तए णं पएसी राया केसीकुमारसमणं एवं वयासी अस्थि णं भंते! एस पण्णाउवमा इमेण पुण कारणं नो वागच्छ, भंते! से जहा नामए केइ पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगते पभू एवं महं अयभार वा तयभारगं वा सीसगभारगं वा परिवहित्तए?, हंता पभू, सो चेव णं भंते! पुरिसे जुने जराजजरियदेहे सिढिलवलितयाविणट्ठगते दंडपरिग्गहियग्गहत्थे पविरलपरिसडियदंतसेडी आउरे किस पिवासिए दुबले किलंते नो पभू एवं महं अयभार वा जाव परिवहित्तए, जति णं भंते! सच्चे पुरिसे जुने जराजजरियदेहे जाव परिकिलले पभू एवं महं अयभारं वा जाव परिहिए तो णं सहजा ३ तहेव, जभ्हा णं भंते! से चेत्र पुरिसे जुन्ने जाव किलते नोपन ए महं अयभारं वा जाव परिवहित्तए तम्हा सुपतिट्टिता मे पणा तब तए णं केसीकुमारसम एसि राय एवं वयासी से जहाणामए केइ पुरिसे तरुणे जाब सिप्पोवगए णवियाए विहंगियाए यहि सिकहिं णव एहिं पच्छयपिंड एहिं पट्ट एवं महं अयभारं जाव परिवहित्तए ? हंता पभू, पएसी से चैव णं पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोबगए जुनियाए दुब्बलियाए पुणक्खइयाए बिहंगियाए
For Praise Only
केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा
~280~
众养 O 磊 萃 票 $
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [६७-७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीरामप्रश्नी मलयगिरीया वृत्ति
भारवहनेशक्तिभेदे उप
करणभेदः
॥१३६ ॥
प्रत सूत्रांक [६७-७४]
जुण्णएहि दुग्यलएहिं घुणक्खइएहि सिढिलतयापिणडएहि सिकरहिं जुषणएहिं दुब्बलिएहि घुणख. इएहि पच्छिपिंडएहिं पभू एग मह अयभार वा जाव परिवहितए, णो तिण, कम्हा णं, भंते! तस्स पुरिसस्स जुनाई उवगरणाई भवति, पएसी! से चेव से पुरिसे जुन्ने जाव किलते जुत्तोबगर) तो पभू एग महं अयभार वा जावपरिवहितए, तं सरहाहि णं तुम पएसी ! जहा अनो जीवो अन्नं सरीरं ६ ॥ (सू०६९)।तए ण से पएसी केसिकुमारसमणं एवं बयासी-अस्थि ण मते ! जाव नो उबागच्छद, एवं खलु भंते ! जाब विहरामि. तए णं मम जगरगुत्तिया चोर उवणंति, तए णं अहं तं पुरिसं जीवंतगं चेव तले मि तलेता छविच्य अकबमाणे जीवियाओ ववरोवेमि २त्ता मयं तुलेमि णो चेव णं तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्स वा मुयस्स वा तुलियस्स [णस्थि] केइ आणत्ते वा नाणत्ते वा ओमन वा तुच्छत्ते वा गुरुयत्ते वा लायसे वा, जति णं भंते ! तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्स मुयस्स वा तुलियस्स केइ अन्नत्ते वा जाव लहयत्ते या तो णं अहं सहेजा तं चेव, जम्हाणं भंते! तस्स पुरिसस्स जीयंतस्स वा तुलियस्स मुयस्स वा तु. लियरस नस्थि केइ अन्नत्ते वा लहयत्ते वा तम्हा सुपतिट्ठिया मे पन्ना जहा तं जीवो तं चेव । तए णं केसीकुमारसमणे पएसि राय एवं वयासी-अस्थि णं पएसी ! तुमे कयाइ वत्थी धंतपुत्वे वा धमावियपुब्वे वा!, हंता अस्थि, अस्थि णं पएसी! तस्स वत्थिस्स पुण्णस्स वा तुलियस्स अपुषणस्स
दीप अनुक्रम [६७-७४]
antarai
M
unarayog
केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा
~281~
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [६७-७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६७-७४]
दीप अनुक्रम [६७-७४]
वा तुलियस्स केइ अणत्ते वा जाव लहुयत्ते वा?, णो तिणढे समझे, एवामेव पएसी! जीवस्स अगुरुलघुयत्तं पडुच्च जोवंतस्स वा तुलियस्स मुयस्स वा तुलियस्स नस्थि केइ आणते वा जाव लहुयत्ते वा, तं सहहाहि णं तुम पएसी!तं चेव ७१(म.७०) तए णं पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासी-अस्थि णं भंते ! एसा जाव नो उवागच्छइ. एवं खलु भंते ! अहं अन्नया जाव चोरं उव. फेति, तए णं अहं तं पुरिसं सव्वतो समंता समभिलोएमि, नो चेव णं तत्थ जीवं पासामि, तए णं अहं तं पुरिस दहा फालियं करेमि २त्ता सब्बतो समंता समभिलोएमि, नो चेव णं तत्व जीवं पासामि, एवं तिहा चउहा संखेज फालियं करेमिणो चेव णं तत्थ जीवं पासामि, जहणं भंते! अहंतं पुरिसं दुहा वा तिहा वा चउहा वा संखेजहा वा फालियंमि वा जीव पासंतो तो णं अहं सहेजा नो तं चेव, जम्हा णं भंते ! अहं तंसि दुहा वा तिहा वा चउहा वा संखिजहा वा फालियंमि वा जीवं न पासामि तम्हा सुपतिट्ठिया मे पण्णा- जहा त जीवो त सरीरं तं चेव । तए णं केसिकुमारसमणे पएर्सि रायं एवं क्या से-मूहतराए गं तुमं पएसी ! साओ तुच्छतराओ, केणं भते! तुच्छतराए !, पएसी! से जहाणामए केई पुरिसे वणल्थी वणोवजीवी वणगवेसणयाए जोई च जोइभायणं च गहाय कट्ठाणं अडवि अणुपविता, तए णं ते पुरिसा तीते अगामियाए जाव किंचिदेसं अणुप्पत्ता समाणा एगं पुरिसं एवं वयासी-अम्हे णं देवाणु
SHREILLEGunintentration
PRIMastaram.org
| केसिकमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा
~282~
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूल [६७-७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजप्रश्नो मलयगिरीया वृत्तिः
जीवनमृतयो तुलावा व स्ति: छेदेदर्शने च
प्रत
*ज्योतिः
सूत्रांक
न.७०-२
[६७-७४]
प्पिया! कहाणं अडवि पविसामो, एत्तो णं तुम जोइभायणाओ जोई गहाय अम्हं असणं साहेजासि, अह तं जोइभायणे जोई विज्झवेजा एतो गं तुम कट्ठाओ जोइं गहाय अम्हं असणं साहेज्जासित्तिकट कट्ठाणं अडवि अणुपविहा, तए णं से पुरिसे तओ मुहत्तन्तरस्स तेसि पुरिसाणं असणं साहेमित्तिक जेणेव जोतिभायणे तेणेव उवागच्छद जोइभायणे जोई विज्झायमेव पासति, तए णं से पुरिसे जेणेव से कडे तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता तं कट्टै सवओ समंता समभिलोएति नो चेवणं तस्य जोई पासति, तए णं से पुरिसे परियरं बंधइ फरमुं गिण्हा तं क दहा फालियं करेइ सब्यतो समंता समभिलोएइ णो चेव णं तस्य जोई पासइ, एवं जाव संखेजफालियं करेइ सवतो समंता समभिलोएइ नो चेव णं तस्य जोई पासह, तए णं से पुरिसे तैसि कहंसि दुहाफालिए वा जाव संखेजफालिए वा जोई अपासमाणे संते तंते परिसंते निश्विपणे समाणे परसुं पगते एबेइ २ परियरं मुयइ २ एवं वयासी-अहो! मए तेसिं पुरिसाणं असणे नो साहिएत्तिक ओहयमणसंकप्पे चितासोगसागरसंपबिहे करयलपालस्थमुहे अहज्माणोचगए मूमिगयदिहिए झियाइ, तए ण ते पुरिसा कट्ठाई छिदेति २त्तो जेणेव से पुरिसे तेणेव उषागईतिश्ती से पेरिस ओहयमणसंकप्प जाव झियायमाणं पासति २त्ता एवं बयासी-किम्मै तुम देवाणुपिया! ओहयमणसंकप्पे जाव सिधायसि,प्तए णं से पुरिसे एवं पयासी-तुस्से में
दीप अनुक्रम [६७-७४]
॥ १३७॥
SARELatini
L
asaram.org
केसिकुमार श्रमणं साधं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा
~283~
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [६७-७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६७-७४]
दीप अनुक्रम [६७-७४]
देवाणुप्पिया! कहाणं अडवि अणुपविसमाणा ममं एवं वयासी-अम्हे णं देवाणुप्पिया ! कट्ठाणं अडवि जाव पविट्ठा, तए णं अहं तत्तो मुहुर्ततरस्स तुझं असणं साहमित्तिकह जेणेव जोई जाव झियामि, तए णं तेसि पुरिसाणं एगे पुरिसे छेदे दक्खे पत्तढे जाव उवएसलहे ते पुरिसे एवं वयासी-गच्छह णं तुझे देवाणुप्पिया ! पहाया कयबलिकम्मा जाव हब्वमागच्छेह जाणं अहं असणं साहेमितिका परियरं बंधइ २ परसुं गिण्हइ २त्ता सरं करेइ सरेण अराण महेइ जोई पारेइ २ जोई संधुक्खेड तेसिं पुरिसाणं असर्ग साइ, तए ण ते पुरिसा पहाया कयवलिकम्मा जाव पायच्छित्ता जेणेव से पुरिसे तेणव उवागच्छंति, तए णं से पुरिसे तेसि पुरिसाणंहासणयरगयाणं तं विउल असणं पाणं खाइमं साइम उवणे, तए णं ते पुरिसा त विउलं असणं ४ आसाएमाणा वीसाएमाणा जावविहरति, जिमियभुत्ततरागया बिय समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया तं पुरिसं एवं वयासी-अहो णं तुम देवाणुप्पिया ! जड्डे मूटे अपडिए णिविष्णाणे अणुवएसलद्धे जे णं तुम इच्छसि कांसि दुहाफालियंसि वा जोति पासित्तए, से एएणणं पएसी! एवं बुबह मूढतराए णं तुमं पएसी! ताओ तुच्छतराओ ८॥ (सू०७१ ) ॥ तए णं पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं बयासी-जुत्तए णं भंते ! तुम्भं इयछेयाणं दक्खाणं चुहाणं कुसलाणं महामईण विणीवाणं विपणाणपत्ताण उवएसलडाणं अहं इमीसाए महालियाए महवपरिसाए मज्झे
Taurasurare.org
केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा
~284~
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
Thaha
प्रत
सूत्रांक
[६७-७४]
दीप
अनुक्रम
[६७-७४]
मूलं [६७-७४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
श्रीराजमश्री मलयगिरी या वृत्तिः
॥ १३८ ॥
Education i
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
446
उच्च एहि आउसेहि आउत्तिए उद्यावयाहि उणाहि उसिनए एवं निर्भछणाहि निच्छोडा०ि, तर णं केसीकुमारसमये पसि रायं एवं वयासी-जाणासि णं तुमं परसी । कति परिसाओ पण्णताओ, भंते जाणानि चंत्तारि परिसाओ पष्णता, तजहा खतियपरिसा गाहाइपरसा माणपरिसा इसिपरिसा, जाणासि णं तुमं पएसी राया। एयासि च उण्ह परिसार्ण कस्स का दंडणी पणा, हंता ! जाणामि जे णं खतियपरिसाए अवरझ से णं हत्थच्छिषणएवा पायच्छिए. बा. सीसच्छिण्णए वा सलाइए वा एगाहचे कूटाहचे जीवियाओ ववरोविजड़, जेण गाहायहपरिसाए अवरज्झइ से णं तरण वा वेढेण वा पलालेण वा वेडित्ता अगणिकाएवं शामिल, जेणं माहणपरिसाए अवरज्झइ से णं अणिहाहिं अकताहिं जाव अमणामाहि हि उवालभित्ता कुंडियालंछणए वा सुणगहणए वा कीरइ निव्विसए वा आणविजह, जे णं इसिपरिसrr अवरज्झइ से णं णाइअणिट्ठाहिं जाव णाइअमणामाहिं वरमूहि उपालम्भइ, एवं च ताव परसी ! तुमं जाणासि तहावि णं तुमं ममं वाम वामेणं दंड देणं पडिकूलं पटिकूलेणं पडिलोमं पडिलोमेगं विवश्वास विवद्यासेणं वट्टसि. तर णं परसी राया केसि कुमारसमण एवं व यासी एवं खलु अहं देवाणुप्पिएहिं पढमिल्लुएगं चैव वागरणं संलते तर णं ममं इमेयास्वे अथिए जाव संकप्पे समुपजित्था, जहा जहा णं एयस्स पुरिसस्स वामं वामेण जाव विवचासं
केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा
For Parts Only
~285~
69-4404
यया पयेवू
तथा द
व्यवहारोच
सू. ७२
।।। १३८ ।।
narr
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[६७-७४]
दीप
अनुक्रम [६७-७४]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [६७-७४ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
Jain Education
विवचासेणं वहिस्सामि तहा तहा णं अहं नाणं च नाणोवलंभं च करणं च करणोवलं च दंसणं च दंसणोवलंभं च जीवं च जीवोवलंभं च उवलभिस्सामि, तं एएणं अहं कारणं देवापियाणं वामं वामेणं जाव विवचासं विवचासेणं वहिर, तर णं केसीकुमारसम परसीराय एवं वयासी-जाणासि गं तुमं परसी कह वबहारगा पण्णत्ता ?, हंता जाणामि, चत्तारि ववहारगा पण्णत्ता-देह नामेगे णो सण्णवेह सन्नवेइ नामेगे नो देह एगे देवि सन्नवे वि एगे जो दे णो णवे, जाणासि णं तुमं परसी । एएसिं चउन्हं पुरिसाणं के बवहारी के अववहारी ?, हंता जाणामि, तत्थ णं जे से पुरिसे देइ णो सण्णवेइ से णं पुरिसे ववहारी. तत्थ जे से पुरिसे णो देइ सण्णवेह से णं पुरिसे बवहारो, तत्थ णं जे से पुरीसे देवि स वेदवि से पुरिसे वबहारी, तत्थ णं जे से पुरिसे णो देइ णो सन्नह से णं अववहारी, एवामेव तुमपि ववहारो, णो चेवणं तुमं परसी अववहारी (सू० ७२) तए णं पएसी राया केलिकुमारसमण एवं वयासी तुझे णं भंते! इयछेया दक्खा जाव उबएसलढा समत्था ण भंते! ममं करयलंसि वा आमलयं जोवं सरोराओ अभिनिवहित्ताणं उबभित्तर, तेणं कालेणं तेणं समरणं पर सिस्स रण्णो अदूरसामंते वाउपाए संबुत्ते, तणवण सहकाए एयह वेयह चलइ फंदइ घर उदीरह तं तं भावं परिम, त ण केसी कुमारसमने परसितयं एवं वयासी- पाससि ण तुमं प सीराया ! एवं तणवण
केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा
For Pernal Use Only
~286~
nary org
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूल [६७-७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीरामपनी मलयगिरीया वृत्तिः
वायुवज्जीवा
शनम् - स्तिकुन्थुस
प्रत सूत्रांक [६७-७४]
॥ ११९॥
म.७३-४
दीप अनुक्रम [६७-७४]
स्सई एयंत जाव तं तं भावं परिणमंतं !, हंता पासामि, जाणासि णं तुम पएसी! एवं तणवणस्सहकार्य किं देवो चालेइ असुरो था चालणागो वा किन्नरो वा चालेड किंपुरिसो वा चालेह महोरगी या चालेइ गंधचो वा चालेइ ?, हंसा जाणामि, णा देवो चालेइ जाव णो गंधयो चालेइ बाउयाए चालेइ, पाससिणं तुम पएसी। एतस्स वाउकायस्स सरूविस्स सकामस्स सरागस्स समोहस्स सवेयस्स सलेसस्स ससरीरस्स रूवं ?,णो तिणद्वे०, जइ गं तुम पएसीराया! एयस्स वाउकायस्स सरूविस्स जाव ससरीरस्स रूवं न पाससि तं कह णं पएसी! तब करयलंसि वा आमलग जीवं उवदंसिस्सामि , एवं खलु पएसी! दसटाणाई छउमस्थे मणुस्से सबभावेणं न जाणइ न पासइ, तंजहा-धम्मत्थिकार्य १ अधम्मस्विकार्य २ आगासस्विकार्य ३ जीव असरोरवदं ४ परमाणपोगगल ५ सई ६ गंध ७ वायं ८ अर्य जिणे भविस्सइ वा णो भविस्सइ ९ अयं सबदुक्खाणं अंतं करेस्सा वा नो वा १०, पताणि चेव उप्पन्ननाणदसणधर अरहा जिणे केवली सबभावेणं जाणा पासह, तं-धम्मत्धिकार्य जाव नो वा करिस्सइ,तं सदहाहि मे तुम पएसी! जहा अनो जीवो से चेव ९॥ (सू०७३)॥ तएणं से पएसीराया केसि कुमारसमणं एवं वयासी-से नूर्ण भंते। हथिस्स कुंथुस्स य समे चेव जीवे ,हंता पएसी! हथिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे, से गुणं भंते हत्थीउ कुथु अप्पकम्मतराए चेव अप्पकिरियतराए चेव अप्पासवतराए चेव एवं आहारनीहारउस्सास
१३९॥
केसिकुमार श्रमणं सार्ध प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा
~287~
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------ मूलं [६७-७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६७-७४]
दीप अनुक्रम [६७-७४]
नीसासडीए महजुइअप्पतराए चेव, एवं च कुंथुओहत्था महाकम्मतराए चेष महाकिरिय जाव?,हता पएसी! हत्थीओ कुंधू अप्पकम्मतराए चेव कुंथुओ वा हत्थीमहाकमतराए चेव तं चेव, कम्हाणे भंते! हथिस्स य कुथुस्स य समे चेव जीवे ,पएसी! से जहा णामए कूडागारसाला सिया जाव गंभीरा अहण के पुरिसे जोई व दीवं बगहाय तं कूडागारसालं अंतो २ अणुपविसइ तीसे कडागारसालाए सप्तो समंता घणनिचिपनिरंतराणि णि छिड्डाई दुवारवयणाई पिहेतिरतीसे कूडागारसालाए यहमज्झदेसभाए तं पईवं पलीवेजा, तर णं से पईवे तं कूडागारसालं अंतोरओभासह उज्जोवेइ तवति पभासेइ, णो चेव णं बाहि, अहणं से पुरिसे ते पईच इजरएणं पिहेजा, तए से पर्डवे से डरयं अंतो ओभासेइ, णो चेव णं इडरगस्त बाहि णो चेव णं कूरगारसालाए बार एवं किलिजेणं गंडमाणियाए पच्छिडिएणं आढतेणं अहातेणं पत्थएणं अहपथएणं अट्टमाइयाए चाउम्भाड्याए सोलसियाए छत्तीसियाए चउस ट्ठियाए दीवर्चपरणं तए णं से पदीये दीवचंपगस अंतो ओभासति४, नो चेव पं दीवचंपगस्स याहि, नी चेव णं च उसट्टियाए बाहि. णो चेवणं कूडागारसालं णो चेव णं कूडागारसालाए बाहि, एवामेव परसी! जीववि जं जारिसर्य पदकम्मनियई बोंदि णिवत्तेइ तं असंखेजेहिं जीवपदेसेहि सचित्तं करेइ खुड्डियं वा महालियं वा, तं सहाहि णं तुम पएसी! जहा अपणो जीवो तं चेव णं । (सू०७४)।
S
itaram.org
केसिकुमार श्रमणं साधं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा
~288~
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
----------- मूलं [६७-७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६७-७४]
दीप अनुक्रम [६७-७४]
श्रीराजपनी
'अस्थि णं भंते ! एस पन्नाउवमा' अस्ति भदन्न ! प्रज्ञानो-बुद्धिविशेषादुपमा, 'अपगगणनायगे 'स्यादि, केशिप्रदेशिमलयगिरीया वृत्तिः
गणनायका:-प्रकृतिमहत्तराः दण्डनायका:-नन्त्रपाला राजेश्वरनलबरमाइम्बिक कौटुम्बिकेभ्यश्रेष्ठिसेनापतिसार्थवाहमन्त्रि- वादः
महान्त्रिगणकदौवारिकाः पागुक्तारूपाः अपात्या-राज्याधिष्ठायकाः चेटा:-पादलिकाः पीठम-मागुका नगर-मगर॥१४०॥
वासिप्रकृतयः निगमा:-कारणिकाः दता-अन्येषां गत्वा गनादेशनिवेदकाः संधिपाला-राज्यमन्धिरक्षका: 'नगरगुत्तिया' || इति नगररक्षाकारिणः 'ससक्वं' इनि ममाथि सहोद-सलोद्रं 'सगेवेज' ग्रीवानिबद्धकिंचिलोभ्रमित्यर्थः, ' अवा
उड ' अपावृबन्धनबद्धं चौरमिति । 'भेरि दंड चेति मेरी-हका दण्डो बादनदष्टः। 'वाम वामेण' मित्यादि, वाम मायामेन एवं दंर देणेत्यायपि भावनीय । 'देड नामेगे नो सन्नबह इति ददाति-दानं प्रयच्छति न संज्ञापयति-न सम्य- 17
गालापेन मनोषयनि, चतुर्भङ्गो पाठसिद्धा, 'एवामेव पएसि! तुमंपि ववहारी' इति यद्यपि त्वं न सम्पगालापेन मां | संतोषयसि तथापि मम विषये भक्तिवहमानं च कुर्वन आयपुरुष इव व्यवहार्यव नाग्यवहागी, एतावता च 'मूढतराए तुम IT
पएसी! तओ कट्टहारयाओ' इत्यनेन बचसा यत् कालुष्यमापादितं तदपनीतं परमं च संतोष प्रापित इति । 'हंता Mi पएसी हथिस्स ! कुंथुस्सय समे चेव जीवे' इति प्रदेशानां तुल्यत्वात् , केवलं संकोचविकोचधर्मत्वात् कुन्धुशरीरे सं-1 | कुचितो भवति, हस्तिशरीरे विस्तुनः उक्तश-"आसज कंधुदेह तत्तियमिचो गयंमि गयमित्तो। न य संजुज्जइ जोबो संकोयविकोयहोहि ।अत्र न मयुमने जोयः पकोच विकोचदोपराभ्यामिति, नयोस्तस्य म्वभावनयाऽपागपात , तथा चार प्रदीदृष्टान्तो वक्ष्यते, अथवा 'कम्मतराए चेवे' त्यादि, 'कम्मे' आपुष्कलक्षणं क्रिया-कायिक्यादि आश्रयः-माणाति
१४०॥
SAREaratinine
केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा
~289~
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[६७-७४]
दीप
अनुक्रम
[६७-७४]
मूलं [६७-७४ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
Jan Education in
[भाग - १५] “राजप्रश्नीय” - उपांग सूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः)
-
本学众安安众黎众中
पातादिः आहारनीहारोच्छ्रास निवासादि यः इस्विप गोलि नाम यत्र गोभक्तं महिष्यते, पच्छिकाटिकामा आका स्कुलवार्द्धकुलवा मगधदेशन सिद्वा धान्यमानविशेवाः,
देश
ए
रसमानविशेषाः, दीपचम्मको- दीपस्थगनकं, 'एवामेत्रेत्यादि निगम, “जह दोनो पदड़ घरे पीवितं घरं पगा । अपनवारे तं तं एवं जोवो सदेहाई ॥ १ ॥ " इति ॥ ( ० ६७-६८-६९-७०-७१७२-७३-७४ ) ॥
तएण पएसी राया केसि कुमारसम एवं बबासी एवं खलु भंते! मन अजगास एस सन्ना जान समोसरणे जहा तजीबो तं सरीरं नो अन्नो जीव अनं सरीरं तयातरं चणं मन पिउगोऽवि एस तयानंतरं ममवि एसा सग्गा जाव सोसर, तं नो खलु अहं बहुपुरिस परंपरा कुलनि स्सियं दिट्ठि छंदेस्सामि, तरणं केसीकुमारस नये पहास राये एवं ववासी माणं तुम परसी पच्छाताविए भवेनासि जहा व से पुरिसे अवहार ए, के णं भंते! से अवहारर?, परसी ! से जहाणामर केई पुरिसा अत्थत्थी अत्थगवेसी अत्था अत्यर्कखिया अत्यपिवासिया अत्थगवेसगवाए विउ पणिय डमायाए सुबहं भतपाणवत्थवर्ग गहाव एवं महे अकामियं द्विजावायं दीहम अडवि अणुपविट्ठा, तरणं ते पुरिसा तोसे अकामिया अडवीर कंचि देतं अप्पत्ता समाणा एगमहं अया
केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा
For Para Use Only
~290~
1-40)-09-18) 09546) 400 409040
Antrary org
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत सूत्रांक [७५-८०]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
---------- मूलं [७५-८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: बीराजमना
- अयोज्ञात मलयगिरी
गरं पासंति, अएणं सहतो समता आइपणं विच्छिष्ण सच्छड उवच्छडं फुड गाढ अवगाढ पासंति या वृत्तिः
२त्ताहतुट्ट जावहियया अन्नमन्नं सहाति २ ता एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिया! अयभने १४२॥ इट्टे कंते जाच मणामे, ते सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्ह अयभारए चंधित्तएत्तिकहु अन्नमन्नस्स
एयम? परिसुणेतिर अयभार बंधति र अहाणुपुटीए संपत्थिया, तए णं ते पुरिसा अकामियाए जाव अडवीए किंचि देसं अणुपत्ता समाणा एग महं तउआगरं पासंति, तउएण आइण्णं तंचेव जाच सहायता एवं वयासी-एसणं देवाणुप्पिया! तज्यभंडे जाव मणामे, अप्पेणं चेय तउएणं सुबई अए भति, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अयभारए छड्डेचा तज्यभारए पंधिएसिक अमरस अंतिए एयमट्ठ पडिमुणेति २चा अयभार छउँति २त्ता तज्यभारं बंधति, तस्थ णं एगे पुारसे जो संचाएइ अयभारं छत्तए तउयभार पंधित्तए, तए णं ते पुरिसा ते पुरिसं एवं व्यासी-एसणं देवाणुप्पिया! तउयभंडे जाव सुबहुं अए लब्भति, तं छडेहि णं देवाणुप्पिया! अयभारगं, उपभारगं बंधाहि, तए णं से पुरिसे एवं वदासी-दूराहटे मे देवाणुप्पिया ! अए चिराहने में देवाणु पिया! अए अइगाढबंधणय मे देवाणुप्पिया! अए असिलिट्ठबंधणबद्ध देवाणुप्पिया! अएपणियबंधणबहे देवाणुप्पिया! अए, णो संचाएमि अग्रभारगण्डेत्ता तउयभारगं
M॥१४१॥ बंधितए ।लए ण ते पुरिसा तं पुरिसं जाहे जो संचायति बहहिं आघवणाहि य पन्नवणाहि य
दीप
अनुक्रम [७५-८०]
केसिकुमार श्रमणं साधं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा
~291
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
------------- मूलं [७५-८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७५-८०]
आधविशए वा पणविरुए वा तया अहाणुपुबीए संपत्थिया, एवं तंबागरं रुप्पागर सुवन्नागरं रयणागर वइरागर, लए णं ते पुरिसा जेणेव सया जणवया जेणेव साई २ नगराई तेणेव उवागच्छन्ति २त्ता वयरविकणयं करतिता सुबहृदासीदासगोमहिसगवेलगं गिण्हंति २त्ता अद्रुतलमुसियथडसगे कारावति पहाया कययलिकम्मा उप्पि पासायवरगया फुहमाणेहिं मुइंगमस्थएहि बत्तीसइवह एहिं मारपहि वरतरुणीसंपउत्तेहिं उवणचिजमाणा उवलालिज्जमाणा इढे सहफरिस जाब विहरति । लए णं से पुरिसे अयभारेण जे.व सए नगरे तेणेव उवागच्छद अयभारेणं गहाय अयविधिणण करेति २ ताससि अप्पमोल्लंसि निहियंसि झीणपरिवए ते पुरिसे छप्पिं पासायवरगए जाव विहरमाणे पासति २त्ता एवं धयासी-अहो णं अहं अधन्नो अपुन्नी अकयस्थो अकयल वरुणो हिरिसिरिवजिए हीणपुषणचाउदसे दुरंतपंतलवखणे, जति णं अहं मिताण या णाईण वा नियगाण वा सुर्णतओ तो अहंपि एवं चेव उप्पि पासायवरगए जाव विहरंतो से तेण?ण पएसी एवं बुखाइ-मा णं तुम पएसी पच्छाणुताबिए भविजासि, जहा व से पुरिसे अयभारिए ११॥ (सू०७५) ।। एस्थ णं से पएसी रागा संयुद्धे केसिकुमारसमणं वंदर जाय एवं बयासी-णो खलु भंते ! अहं पच्छाणुताबिए भविस्सामि जहा व से पूरिसे अयभारिए, तं इच्छामि देवाणुप्पियाणं अंतिए केवलिपत्तं धम्म निसामितप, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा
दीप
अनुक्रम [७५-८०]
केसिकमार श्रमणं साधं प्रदेशी राज्ञस्य धर्म-चर्चा
~292~
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
---------- मूलं [७५-८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजप्रश्नी मलयगिरी या वृतिः
धर्मस्वीकाविनयश्व
सू.७६-७
॥१४२ ॥
प्रत सूत्रांक [७५-८०]
पडिवैध०, धम्मकहा जहा चित्तस्स, तहेव गिहिवम्म पडिवाजा२त्ता जेणेव सेयविया नगरी तेणेच पहारेत्थ गमणाए ॥ (सू०७६)॥तरण केसी कुमारसमणे पएर्सि राय एवं वयासी. जाणासि तुम पएसी! कह आयरिया पत्रता, हैता जाणामि, तओ आयरिआ पण ता, तंजहाकलायरिए सिप्पायरिए धम्मायरिए, जाणासिणं तुम पएसी तेस तिहं आयरियाणं कस्स का विणयपडिवत्ती पजियवा?, हता जाणामि, कलायरियस सिप्पायरियस्स उवलेवर्ण समउजणं वा करेजा पुरओ पुष्पाणि वा आगजा मजावेजा मडावेज्जा भोयाविना वा विउलं जीवितारिहं पीइदाण दलए ला पुत्ताणत्ति वितिं कपेजा, जये। धम्नायरियं पालिजा तत्थव वंदेखा णमंतजा सकारजा सम्माना कलागं मंगलं देवर्व चेये पजुवासेना फासुएस. णिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेगं पडिलाभेला पाडिहारिरणं पोटकलामिजासंथारएणं उव. निमंतेजा, एवं च ताव तुम पएसी! एवं जाणासि तहावितुम म वाम वामे गंजाव बहित्ता मम एयमई अक्खामित्ता जेणेव सेवविया नगरी तेगेव पहारेत्य गमगाए, तर णं से पएसी राया केसि कुमारसमगं एवं वदासी-एवं खलुमंते! मम एयारू अझस्थिर जाव समुप्पजिजस्थाएवं खलु अहं देवाणुपियाणं वाम वामेगं जाव वहिएत से खजु मे कर पापमापार रयणीए जाव तेवसा जलसे मेरे परिवाल सहि संपरिबुडाप्त देवा गुथिए वंदिता नमेसितए एत
दीप
अनुक्रम [७५-८०]
Inn१४२॥
Enginrary.om
| केसिकुमार श्रमणं पार्वे प्रदेशी राजस्य धर्म-स्विकारम्
~293~
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
----------- मूलं [७५-८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७५-८०]
भुजो २ सम्म विणएणं खामित्तएत्तिक जामेव दिसि पाउन भूते तामेव दिसि पडिगर ॥ तए णं से पएसीराया कलं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलते हनु: जाव हियए जहेव कृणिए तहेव निग्गच्छद अंतेउरपरियाल सहि संपरिखुढे पंचविहेणं अभिगमेणं वंदह नमसह एयम भुज्जी२ सम्म विणएणं खामेह (सू०७७)तरण केसी कुमारसमणे पएसिस्स रपणो सूरियकंतप्पमुहाणं देवीणं तीसे य महतिमहालियाए महवपरिसाए जाव धम्म परिकहेइ । तए णं से पएसीराया धम्म सोचा निसम्म उद्वाए उति र केसि कुमारसमणं वंदह नर्मसइ २त्ता जेणेव सेयवियाँ नगरी ते गेव पहारेत्य गमगाए। तरण केसी कुमारसमणे परसिरायं एवं वदासी-मा गं तुम पएसी! पुर्वि रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणि जे भविलासि, जहा से वणसंडे इ वा णसाला इ वा इक्खुवाइए इवा खलवाडए इवा, कहणं भंते!, वग संडे पत्तिए पुफिए फलिए हरियगरेरिजमाणे सिरीए अतीव उपसोभेमाणे २ चिट्ठइ तथा गं वगरे रम. णिज्जे भवति,जया ण वणसंडेनो पतिए नो पुफिए नो फलिए नो हरियगरिरेलमायणो सिरीए अईव २ उवसोभेमाणे चिट्टइ तया णं जुन्ने झडे परिसडियपंदुपत्ते सुकरुक्खे इव मिलायमाणे चिट्ठइ तया तथा ण चणे णो रमणिज्जे भवति, जया णं णसालावि गिजइ वाइजह नचिजह हसिजाइ रमिज्जइ तया णं णसाला रमणिजा भवा, जया णं नसाला णो गिजा जाय णो रमिजइ
दीप
अनुक्रम [७५-८०]
SINEmiratinicा
~294~
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
---------- मूलं [७५-८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीराजमनीस मलयगिरीया वृत्तिः
DAक्षामणा
दानोपदेशः सू.७७-७८
॥१४३॥
प्रत सूत्रांक [७५-८०]
तया णं णसाला अरमाणिजा भवति, जया णं इवखुवा हे शिकाइ भिइ सिज्जइ पिजइ दिज्जइ तयाणं परवाने रमणिजे भवइ, जयाण इवखुवाहे जो छिपजइ जाव तया इकरवाये अरमणिजे भवाह, जया णं खलवाने उपहुभइ उड्डुइज्जइ मल इज इ मुणिज्जइ खज्जइ पिज्जा दिज्जइ तयाण सलवार रमणिजे भवति, जया गंदल वाडेमो उच्छुउभइ जाच अरमणिण्जे भवति, से सेणढण परसीएच बुइमाण तुमं पएसी! पुद्धिरमणिराजे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविज्जासि जहा रणसंचा , तए णं पएसी केसि कुमारसमणं एवं वयासी-जो वस्तु भंते ! अहं पुचि रमगिरजे मदिरापरछा अरमणिजे भविरसामि, जहावरुनेइ वाजाय हलवाइवा, अहंण सेय. वियान गरीपमुव बाई सत्त गामसहस्साई चत्तारि भागे करिस्सामि, एग भाग बलवाहणस्स दलइस्सामि, एग भागं कुट्ठागारे हुभिरसामि, एग भाग अंतेउररस दलाइरसामि, एगेण भागेण महतिमा हलयं हागारसालं करिरसामि, तथणं यह हि पुरिसेहि दिसभइमतवेयजेहिं विल असणः उवकरूहाताबरण समयमाहणभिवरुयाण पंथियपहियाणं परिभाएमाणे २ यहूहि सीलच्यगुणवयबेरमणपाल पाणपोसहोववासरस जाव बिहरिरसामिारिक जामेव दिसि पाउम्भूए तामेव दिसि पहिगए ।। (स०७८)॥ तए णं से पएसी राया कल्लं जाव तेयसा जलते सेयवियापामोक्खाई सत्त गामसहरसाई यतारिभाए कीरइ, एगं भागं बलवाहणरस दलाइ जाव कूडागारसाल करेइ,
学字安亭中奖率髮亭投产
दीप
अनुक्रम [७५-८०]
१४३॥
。
~295
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
----------- मूलं [७५-८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७५-८०]
दीप
तस्थ ण बहहिं पुरिसेहि जाव उधर सत्ता बहण समण जोव परिभाएमाणे विहरइ ॥(सू० ७९) । तए ण से परसीराया समणोवासए अभिगयजीवाजीवे० विहरइ, जप्पभिई च णं पएसीराया समणोबासए जाए तप्पभिई च ण रजं च रहूं च बलं च वाहणं च कोसं च कोढागारं च पुरं च अंते. जरं च जणवयं च अणादायमा यावि विहरति । तए णं तीसे सूरियकताए देवीए इमेयारूवे अज्झथिए फाय समुप्पजित्था-ऊप्पभिई च णं पएसी राया समाणोचासए जाए सप्पमिदं च णं रच रहूँ जाव अंतेउरं च ममंजणवयं च अणादायमा बिहरह, तै सेयं खलु मे पएर्सि राय केणथि सत्थपओएण वा अग्गिपओएण वा मंतप्पओगेणवा विसप्पओगेण वा उद्दवेत्ता सू. रियत कुमारं रज्जे ठवित्ता सयमेव रज्जसिरि कारेमाणीए पालेमाणीए विहरित्तएत्तिकह एवं सपेहेद संहिता सरियकंतं कुमारं सहावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी-जप्पभिई चणं पएसी राया समणोवासए जाए तप्पभिई चणं रज्जं च जाव अंतेउरं च णं जणवयं च माणस्सए य कामभोगे अणादायमाणे बिहरह, तै सेयं खलु तव पुत्ता ! पएसि राय केणइ सस्थप्पयोगेण वा जाव उदवित्ता सयमेव रजसिरिं कारेमाणे पालेमाणे विहरित्तए । तए णं सूरियकंते कुमारे सरियकताए देवीए एवं युत्ते समाणे सूरियकताए देवीए एयमहूँ जो आढाइ नो परियाणाइ तुसिणीए संचिइ, तए णं तीसे सरियकताए देवीए इमेयारूवे अजमथिए जाव समुप्पजित्था मा णं सूरियकंते इमारे पए.
अनुक्रम [७५-८०]
~2964
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[७५-८० ]
दीप
अनुक्रम
[७५-८०]
मूलं [७५-८० ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
श्रीराजप्रश्नो मलयगिरीया वृत्तिः
॥ १४४ ॥
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
(340500
सिस्स रन्नो इमं रहस्सभेयं करिस्सहत्तिक उपएसिस्स रण्णो छिदाणि य मध्माणि य रहस्वाणि य विवराणि य अंतराणि य पडिजागरमाणी२ विहरह। तए णं सूरियकंता देवी अन्नया कयाद एसिस्स रण्णो अंतरं जाण असणं जाव खाइमं सववत्थगंधमल्लालंकारं विसप्पजोगं परंज, एसिस्स रण्णो व्हायरस जाव पायच्छित्तस्स सुहासणवरगयस्स तं विससंजुतं असणं वत्थं जाव अलंकारं निसिरेइ घातइ । तए णं तस्स पएसिस्स रग्णो तं विससंजुतं असणं ४ आहारेमाणस्स सरीरगंमि वेणा पाउन्भूया उज्जला विपुला पगाढा ककसा कडुदा चंडा तिवा दुक्खा दुग्गा दुर हियासा पित्तजरपरिगयसरीरे दाहवकंति यावि विहरइ || (सू०८० ) |
'कलं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलते' इति, अत्र यावत्करणात् कवलकोपम्मिलियंमि अहापंडुरे पभाए रचासोग किंमुपलासपुर फगुजरागसरिसे कलागनलिगि बोहर उहि मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे इति परिग्रहः अस्यायमर्थः कल्पमिति काभातायां रजन्यां फुल्लोत्पल कमल कोमलोन्मीलिते फुल्लं विकसितं तच तत् उत्पलं तब कमल-दरिणविशेषः फुलोलकमलौ तयोः कोमलम् - अकठोरमुन्मीलितं यथासंख्यं दलानां च नयनयोध यस्मिन् ततया तस्मिन् अथ रजनीविभावान्तरं पाण्डुरे-शुके प्रभाते, 'रत्तासोगे'त्यादि, रक्ताशोकस्य प्रकाशः स च किंशुकं च-पाचपुष्पं शुकमुखं च गुआ - फलविशेषो रक्तकृष्णस्तदर्थं च वानि तेषां सहशे - आरक्तया समाने 'कमलागरनलिणि
For Pale Only
~297~
दानाय राज्यभागः
विवदान मू. ७९-८०
॥ १४४ ॥
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
----------- मूलं [७५-८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७५-८०]
दीप
सडयोहए' इति कमलाकरा:-इदास्तेषु नलिनोखण्टास्तेषां बोक्के 'उत्थिते' उदयमाप्ते ' सूरिए' आदित्ये | सहस्ररश्मी 'दिनकरे' दिवसकरणशीले तेजसा ज्वलिते । 'रेरिजमाणे' इति हरिततया देदीप्यमाने 'मा | तुमे पुर्व रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविजासि' इत्यादेन्यत्यायं भावार्थः-पूर्वमन्येषां दात्रा भूत्वा सम्मति जैनधर्मपतिपक्या तेपामदात्रा न भवितव्यमस्माकमतरायस्य जिनधर्मापभ्राननस्य च प्रसक्तः। 'यणा पाउन्भया उज्जला' इत्यादि, उज्ज्वला दुःखरूपतया निर्मला मुखलेशेनाप्यकलङ्कितेति भावः विपुला-विस्तीर्णा सकलभरीरख्यापनात प्रगादा-प्रकर्षण ममप्रदेशिव्यापितया समवगाहा, कर्कश इन कर्कशा, किमुकै भवति ?-यथा कर्कशपाषाणसंघर्षः शरीरस्य खण्टानि घोटयति एवमात्मपदेशान् त्रोटयंतो या वेदनोपजायते सा कशा, तथा कदुका पित्तप्रकोपपरिकलितस्य रोडण्यारिकद्रव्यमियोपभुज्यमानमतिशयेनामीतिजनिकेति भावः, परुषा मनसोऽनोव सक्षवजनिका, निष्ठरा-अप्रपती कारतया दुर्भदाऽत एव चण्डा-रुद्रा तोत्रा-अतिश्चापिनी दुखा-दुःखरूपा दुर्लध्या पितधरपरिगतशरोरे व्युत्कान्त्या चापि-दाहोत्पपया चापि विहरति-तिष्ठति ॥ (मू०७४-७५-७६-७७-७८-७९-८०)॥
तएणं से पएसी राया सूरीयकंतार देवीए अत्ताणं संपलर्क जाणित्ता सूरियकताए देवीए मगसावि अप्पदस्समाणे जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छह २त्ता पोसहसाल पमजा२त्ता उचारपासवगभूमि पडिलेहेड २त्ता दम्भसंथारगे संथरेइ २त्ता दम्भसंधारगं दुरूहह २त्ता पुरत्याभिमुहे संपलियकनिसन्ने करपलपरिग्गहियं सिरसावत्तं अंजलि मत्थरत्तिक एवं वयासी-नमोऽत्यु
अनुक्रम [७५-८०]
REatinimill
~298~
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
---------- मूलं [८१-८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
I
श्रीराजपनी मलय गिरी-2 या दृचिः
आराधना हमतिज्ञ
प्रत
०८१-२
सूत्रांक
॥१४५॥
[८१-८२]
में अरहताण जाव संपत्ताण । नमोऽत्थु ण केसिस्स कुमारसमणस्स मम धम्मोवदेसगस्स धम्मायरिपस्स, वदामि गं भगवंत तत्थ मयं इह गए, पास मे भगवं तत्थ गए इह गतिका बंदर ममंसह, पुरिपि ण भए केसिरस कुमारसमणस्स अंतिए थूलपाणाहवाए पचवावाए जाव परिग्गहे, तं इयाणिपि णं तसदेव भावतो अंतिए सतं पाणाइवायं पचक्खामि जाव परिग्गहं सर्व कोहं जाव मिछादसणसालं, अकरणिजं जोय पञ्चकवामि, सौ असणे चउब्विह पि आहारं जाव जीवाए पथक्खामि, जपि य मे सरीरं इ९ जाव फुसंतुत्ति एयपि य णं चरिमेहिं ऊसासनिस्सासेहिं वोसिरामि. तिक आलोइयपडिकते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सूरियामे विमाणे उववापसभाए जाव वण्णो । तए णं से सूरियामे देवे अहणोववन्नए चेव समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पजतिभावं गच्छति, सं०-आहारपजत्तीए सरीरपजत्तीए इंदिपपज्जतीए आगपज्जनीए भासमणपजनीए,तं एवं खलु भो! सरियाभेणं देवेणं सा दिला देविड़ी ३व्वा देवजुली दिवे देवाणुभाये लढे पत्ते अभिसमझागए ॥ (सू०८१)॥ मूरियाभस्स गं भंते ! देव. स्स केवतियं कालं ठिती पण्णता, गोयमा! चवारि पलिओवमाई ठिती पणस्ता,से ण सूरियामे देवे ताओ लोगाओ आउक्वएणं भवक्खएणं ठिडक्वएणं अतर चहना कहिं गमिहिति कहिं उवबचिहिति, गोथमा ! महाविदेहे वासे जाणि इमाणि कुलाणि भवति, तं०-अढाई दिसाई घिउ
दीप अनुक्रम [८१-८२]
murary.com
प्रदेशी राज्ञस्य आगामि भवा: एवं मोक्ष-प्राप्ति:
~299~
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[८१-८२]
दीप
अनुक्रम [८१-८२]
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [८१-८२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
लाई विच्छिपणविभवणसयणासणजगवाहणारं बहुधणबहुजातरूवरययाई आओगपओबिच्छया भसपाणाई बहूदासी दासगोमहिसगवेल गप्पभूयाएं बहुजणस्स अपरिभूताएं, तत्थ कायरे कुलेस पुत्तताए फ्वाइस्सर । तए णं तंसि दारगंसि भगयंसि वेव समासि अम्मापणं बम्मे ढा पहण्णा भविस्सर । तए णं तस्स दारयस्स नवहं मासाणं बहुपरिपुर्ण अमाण राहंदियाणं वितिकंताणं सुकुमालपाणिपायं अहीण व डिपुण्णपं चि दिय सरीरं लक्खणवंजणगुणोवधेयं माणुम्माणपमाणपडिपुन्नजायसवंगसुंदरंग ससिसोमाकारं कर्त पियदसणं सुरुवं दारयं पयाहिसि। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे ठितिवयं करेहिंति ततियदिवसे चंदसूरदंसणिगं करिस्संति छट्टे दिवसे जागरियं जागरिस्संति एकारसमे दिवसे की संपत्ते बारसाहे दिवसे णिविसे असुर जायकम्मकरणे चोक् संमजिओबलि विडलं असणवाणखाइमसाइमं उबक्खडावेरसंति २ मित्तणाइणियमसयणसंबंधि परिजणं आमंतेत्ता तमो पच्छा पहाया कपवलिकम्मा जाव अलंकिया भोयणमंडसि सुहासणवरगया ते मिणा जाय परिजगेण सदि बिडलं असणं ४ आसाएमाणा बिसाएमाणा परिभुंजेमाणा परिभापमाणा एवं चैव णं विहरिस्संति, जिमियभुतरागयावि य णं समाणा आयंता बोक्खा परमसुरभूया तं मित्तणाड़ जाय परिजगं विजलेणं वत्थगंभ्रमरलालंकारेणं सकारेस्संति सम्माणि
प्रदेशी राजस्य आगामि भवाः एवं मोक्ष-प्राप्तिः
For Penal Use Only
~300~
40-40
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूलं [८१-८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
औराजमनी मलयमिरी वाचित
प्रतिज्ञ जन्मादि.
प्रत सूत्रांक [८१-८२]
॥१४६॥
संति २ ता तस्सेव मित्त जाव परिजणस्स पुरतो एवं वहस्संति-जम्हा ण देवाणुप्पिया! इमंसि दारगंसि गम्भगयंसि चेव समाणसि धम्मे दढा पइण्णा जाया तं होऊ णं अम्हं एयस्स दारयस्स दहपहपणे णामेणं । तए णं तस्स ढपइवणस्स दारगस्स अम्मापिवरो नामधेज करिस्संति-दढपइपणो य २,तए णं तस्स अम्मापियरी अणुपुषेणं ठितिवडियं च चंदसूरियदरिसणं च धम्मजागरियं च नामधिजकरणं च पजेमणगं च पडिवडावणगं च पचंकमणगं च कनवेहणं च संबच्छरपडिलेहणगं च चूलोवणयं च अनाणि य बहूणि गम्भाहाणजम्मणाइयाई महया इडीसकारसमुदएणं करिस्संति ॥ (सू०८२)॥
संपलियकसन्निसक्ने' इति पद्मासनसनिविष्टः 'सर्व कोह 'मित्यादि क्रोधमानमायालोभा प्रतीताः प्रेम-अभिष्यंगमात्र देपा-अमोतिमात्रः अभ्याख्यानम्-असदोषारापर्ण पैशून्य-पिशुनकम्मे परिवादा-विकीर्णापरदोपकया अरतिरती धर्माधम्मति मायामुपा-वेषान्तरकरणतो लोकत्रिमतारगं मिथ्यादर्शन-मिथ्याले तत् शस्पमिा मिथ्यादर्शनशल्यं । 'अडाई' इत्यादि, 'आजोगपओगसंपउत्ताई' इति, आयोगस्य-अर्थलाभस्य प्रयोगा आयाः संप्रयुक्ता-व्यापारिता येस्तानि आयोगप्रपोगसपयुक्तानि 'विच्छड्डियपउरभत्तपाणाई' इति विच्छहिते-त्यक्ते बहुमनबहभोजनदानेनाविशिष्टोच्छिष्टसंभवात् संजातविच्छ वा-नानाविधभक्तिके भक्तपाने येषां सानि तथा, बहुदासोदास मोमहिपालकाः प्रभूता येषां वानि तया । 'पढमे दिवसे ठिइपडिय करेंति' इति स्थिती-कुलमा दायां पसिना-अन्वा या प्रक्रिया पुत्र
दीप अनुक्रम [८१-८२]
१४६॥
प्रदेशी राज्ञस्य आगामि भवा: एवं मोक्ष-प्राप्ति:
~301~
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
----------------- मूलं [८१-८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[८१-८२]
जन्मोत्सवसम्बन्धिनो सा स्थितिपतिता नां, तृतीये दिवसे चन्द्रसूर्यदर्शनोत्सर्व, पठे दिवसे जागरिकां-रात्रिमागरणरूपां
'निपते असुइजम्मकम्मकरणे' इति निर्वते-अतिक्रान्ते अशुचोना-जातिकमा करणे आसाएमाणा' हात मा परिभोजयति आस्वादयंती 'वीसाएमाणा' विविधखाद्यादि स्वादयंती 'परिभाएमाणा' इति परिभाजयन्ती-अन्योs-||
न्यमपि यच्छन्तौ मातापितराविति प्रक्रमः, 'जिमिती' भुक्तवन्तौ भुत्तुत्तरे'ति भुक्तात्तरकाल 'आगत ति आगती
उपवेशनस्थाने इति गम्यते, 'आयन्ता' इति आचान्तौ शुद्धोदकयोगेन चौक्षी लेसियायपनयनेन अन एव परमधिKI भूतौ । 'तए तस्स दृढपण्णस्स अम्मापियरो आणुपुत्रेणं ठिइपडिय मित्यायुक्तमनुक्तं च संक्षेपत उपदर्शयति, सुगर्म | FII चेत् , नवरं प्रजेमन-भक्तग्रहण प्रचङ्क्रमण-पदाभ्यां गमनं पजपणग' मिति जलने' कग्णवेहणग' कर्णवेधन 'बच्छरपडि- el
लेहणग' संवत्सरपतिलेखनं प्रथमः संवत्सरोऽभूदित्येवं संवत्सरलेखनपूर्व महोत्सवकरगं 'चूलोवगयण' चूडोपनयन मुण्डने अनाणि य बहूणि' इत्यादि, अन्यानि च बहूनि गर्भाधानजन्मादोनि 'कौतुकानि' उत्सव विशेषरूपाणि 'महया इड्डीसकारसमुदएणं' ति महत्या ऋद्धचा महता सत्कारेण-पूजया महता समुदयेन जनानामिति ॥ (सू०८१-८२)॥
तए णं दढपतिपणे दारए पंचधाईपशिक्खत्ते खीरधाईए मज्जणधाईए मंडणघाईए अंकधाईए किलावणधाईए, अन्नाहि य यहूहिं चिलाइयाहिं वामणियाहिं वडभियाहिं बधराहिं बहुसियाहि जोहियाहिं पण्णवियाहिं ईसिणियाहि वारुणियाहिं लासियाहिं लाउसियाहि दमिलीहिं सिंहलीहि आरवीहिं पालदीहिं पकणीहिं पहलीहिं मुरंडीहिं पारसोहिं गाणादेसीविदेस
दीप अनुक्रम [८१-८२]
ILANI
प्रदेशी राज्ञस्य आगामि भवा: एवं मोक्ष-प्राप्ति:
~302~
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------ मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
भीराजपनी मलयगिरीया वृत्तिः |
प्रत सूत्रांक [८३]]
॥१४॥
परिमंडियाहिं सदेसणेवत्थगहियबेसाहिं इंगियाचतिगपत्थियचियाणाहिं निउणकुसलाहिं
कलाशिक्षविगीयाहि चेडियाचकवालतरुणिवंदपरिवाल परिखुड़े वरिसघरकंचुइमहयरवंदपरिविवले ह. ieणादि स्थाओ हत्यं साहरिज्जमाणे उखन चिजमाणे २ अंगणं अंग परिभुजमाणे उगि जेमामे२ उक
मू.८३ लालिज्जमाणे २ अवतासि.२ परिचुबिजमागे २ रम्मेसु मणिकोहिमतलेस परंगमाणे२ गिरिकदरमहोणे विव चंपगबरपायवे णि डाघायंसि सुहंसुहेणं परिवहिस्सइ । ताणं तं दृढपतियण दारगं अम्मापियरो सातिरेगअहवासजायगं जाणित्ता सोभणसि तिहिकरणणक्वत्ता::सि पहायं फयवलिकम्मं कयकोउअमंगलपायच्छित्तं सदालंकारविभूसिय करेता महया शोसकार। समुदएणं कलायरियस्ल उवणेहिति । तए णं से कलायरिए तं दढपतिण्णं दार लेहाइयाओ गणि. यप्पहाणाओ सउणरुयपजवसाणाओ यावत्तरि कलाओ सुनओ अत्यओ पसिक्खावेहि य सेहावेहि य, तं-लेहं गणिपं रूपं नई गोयं वाइयं सरगयं पुक्खरगयं समतालं जूर्य जणवयं पासर्ग अहावयं पारेका दगमहियं अन्नविहि पाणविहिं वत्थविहिं विलेवणविहिं सयणविहिं अज पहेलियं मागहिय णिहाइयं गाहं गीइयं सिलोगं हिरण्णजुर्ति सुवपणजुति आभरणविहिं तरूणीपडिकम्म इस्थिलक्खणं पुरिसलक्खणं हयलक्खणं गयलक्खणं कुक्कुडलक्षणं छत्तलक्षणं चकटकवणं देवलक्षणं असिलक्षणं मणिलक्षणं कामणिलक्षणं वत्थुविलं पागरमाणं खंधवारं माणवारं V१४७॥
दीप अनुक्रम [८३]
Saintaintinml
प्रदेशी राज्ञस्य आगामि भवा: एवं मोक्ष-प्राप्ति:
~303~
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
---------- मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८३]
दीप अनुक्रम [८३]
पविचार दह पडिबूह चकमूहं गरुलघूहं सगडबूहं जुई नियुई जुद्धजुलं अद्विजुई मुद्विजुर बाहुजुद्ध रुपाजु सिस्थं छरुपवार्य धणुवेयं हिरण्णपागं सुवण्णपाग मणिपाग धाउपाग सुत्तखेई वट्टखेड़ णालियाखे पत्तो काहगच्छेज सज्जीवनिजी सउणरुयमिति । तए ण से कलायरिए तं दडपइपण दारगं लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणरुयपजवसाणाओ यावतरि कलाओ मुत्तओ य अधओ य गंधी य करणभो य सिक्खावेत्ता सेहावेत्ता अम्मापिऊण उवणेहिति । तए णं तस्स दवपाषणस्स दारगस्स अम्मापियरोतं कलापरियं विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेण बत्वगंधमहासंकारेणं सकारिस्सति सम्माणिस्संति २ विउलं जीवियारिहं पीतीदाणं दलइस्संति विउलं जीवियारिहं० दलइसा पडिविसजेहिंति ॥ (सू०८३)॥
'खीरधाईप' इत्यादि, धीरधाञ्या-स्तनदायिन्या मण्डनधान्या-मण्डपिठ्या मजनवाव्या-स्नापिकया क्रीदनधान्या-क्रीडाकारिण्या अङ्कधाज्या-उत्सङ्गधारिण्या 'अन्नाहि य बहूर्हि' इत्यादि, कुब्जिकाभिः-वक्रमझ्याभिः लासिकामिलसिकाधि मिलाभिः सिंहलीभिः पुलिंद्रीभिः पकणीभिः बहलीभिः मुरण्डीभिः शबरोभिः पारसोभिः एवंभूताभिन नादेशः-नानादेशोभिर्नानाविधानार्यप्रदेशोत्पन्नाभिः 'विदेसपरिमंडियाहि ' इति विदेशा-तदीपदेशापेक्षया
पनिझजन्मदेशस्तस्य परिपण्डिकाभिः इजित-नयनादिचेष्टाविशेषः चिनित-परेण स्वहदि स्थापितं पापितं च-अभिल- | | पितं च विजानते यास्नास्तथा ताभिः, स्वदेशे यत् नेपथ्य-परिधानादिरचना तद् गृहीतो वेषो यकाभिस्तास्तथा ताभिः, नि
प्रदेशी राज्ञस्य आगामि भवा: एवं मोक्ष-प्राप्ति:
~304~
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
---------- मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
दृढप्रतिज्ञा
दिक्षादि
.
प्रत सूत्रांक [८३]]
पुणानां मध्ये या अतिशयेन कुशलास्ता निपुणकुशलास्ताभिः, अत एव विनीताभिः, 'चेडियाचक्कवाले ति चेटिकाचक्रवाबालयगिरी-
II लेनाथ स्वदेवसंभवेन वर्षेधराणां-वदिनकायोगेण नपुंसकीनानामन्तःपुरमहलकानां कचुकिनाम्-अन्नापुरपयोजननिवेदया वृत्तिः | कानां प्रतिहाराणां वा पहत्तरकाणां च-अन्तःपुरकार्यचिन्तकानां वृन्देन परिक्षिप्तः, तथा इस्ताद् हस्त-इस्तान्तरं संहियमाणः
अकादई परिभोज्यभानः परिगीयमानस्तथाविधयालोचितगीतविशेषः उपलाल्यपानः कोडादिलाल नया उवगूहिज्जमाणे H१४८॥
इति आठिङ्ग्यमानः 'अवयासेज्जमाणे ' इति आलिङ्गनविशेषेण 'परिय दिज्जमाणे' इति स्तूयमानः 'परिचं. विज्जमाणे' इति परिचुम्ब्यमानः 'गिरिकंदरमल्लीगे इव चंपगवरपायवे' इति गिरिकन्दरायां लोन इत्र चम्पक| पादप मुखमुखेन परिवदिष्यते, 'अर्थत' इति व्याख्यानतः करणत:-प्रयोगतः ‘सेहावेहइ ' सेधयिष्यति-निषादयिष्यति शिक्षापयिष्यति-अभ्यास कारयिष्यति ।। (सू०८३)॥
तए णं से दतपतिपणे दारए उम्मुकबालभावे विण्णायपरिणयमिते जोवणगमणुपत्ते यावतरिकलापंडिए अद्वारसविहदेसिप्पगारभासाविसारए णवंगमुत्तपडियोहए गीपरई गधाणहकुसले सिंगारागारचारुवेसे संगयगयहसियभणियचिट्टियबिलाससलावनिउणजुतोषयारकुसले हय जोही गयजोही बाहुजोही बाहुप्पमदी अलं भोगसमत्थे साहसीर विद्यालचारीयाविभविस्सह । तए णं तं दढपइण्णं दारगं अम्मापियरो उम्मुकबालमा जाब वियालचरिं च वियाणित्ता विजलेहिं अन्नभोगेहि य पाणभोगहि य लेणभोगेहि य वत्थभोगेहि य सपणभोगेहि य
दीप अनुक्रम [८३]
१४८॥
Sunauranorm
प्रदेशी राज्ञस्य आगामि भवा: एवं मोक्ष-प्राप्ति:
~305~
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
प्रत
सूत्रांक
[८४-८५]
दीप
अनुक्रम [८४-८५]
मूलं [ ८४-८५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
Education
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:)
14440_149) *#06# 444045
उवनिमंतिर्हिति । तए णं दृढपणे दारए तोह बिउलेहिं अनभोएहि जाब सयण भोगेहिं णो सज्जिहति णो गिज्झिहिति णो मुच्छिहिति णो अज्झोववज्जिहिति से जहा णामए पजमुप्पलेति वा पडमेह वा जाय सयसहस्सपवेति वा पंके जाते जले संबुड़े गोवलिप्पर पंकरएणं नोवलिप्पर जलरएणं, एवामेव दृढपण्णेवि दारए कामेहिं जाते भोगेहिं संवड़िए गोवलिप्पिहिति मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणेणं, से णं तथारूवाणं थेराणं अंतिए केवलं बोहि वुजिसहित केवल मुँडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं परइस्सति से णं अणगारे भविस्स रि यासमिए जाव सुययासणो इव तेयसा जलते । तस्स णं भगवतो अणुत्तरेणं णाणं एवं दंसणेणं चरिनेणं आलएणं विहारेणं अज्जवेणं मद्दवेणं लाघवेणं खन्तीए गुसीए मुत्तीए अणुत्तरेणं सबसंजमतवसुचरियफल णिवाणमग्गेण अप्पाणं भावेमाणस्स अनंते अणुत्तरं कसिणे पडिपुor frरावरणे णिवाघाए केवलवरनाणदंसणे समुपजिहिति । तए णं से भगवं अरहा जिथे के. वली भविस्सर सदेवमणुयासुरस्त लोगस्स परियागं जाणहिति सं०-आगति गति ठिति चवणं वयं तर्क कडं मणोमाणसियं खइयं भुत्तं पडिसेवियं आवीकम्मं रहोकम्मं अरहा अरहरसभागी तं तं मणवयकायजोगे वहमाणाणं सबलोए सव्वजीवाणं सव्वभावे जाणमाणे पासमाणे बिहरिस्er | तर र्ण दढपन्ने केवली एयारूवेणं विहारेणं बिहरमाणे बहूई वासाई केवलि
प्रदेशी राजस्य आगामि भवाः एवं मोक्ष प्राप्तिः
For Penal Use Only
~ 306~
3-45*5-16)*$4010844140-449) *920*40
www.andra.org
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
---------- मूलं [८४-८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३], उपांगसूत्र- [२] “राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
मूत्रस्य
श्रीराजपनी पलय गिरीया वृत्तिः
उरसंहार २८५
प्रत सूत्रांक [८४-८५]
दीप अनुक्रम [८४-८५]
परियागं पाउणित्ता अप्पणो आउसेसं आभोएत्ता बढ़ाई भत्ताई पश्चक्रवाइस्सइ २ चा बहाई भचाई अणसणाए छेइस्सइ २ चा जस्सहाए कीरइ णग्गभावे केसलोचबंभचेरवासे अण्हाणगं अदतवर्ण अणुवहाणगं भूमिसेजाओ फलहसेजाओ परघरपवेसो लडावलडाई माणावमाणाई परेसि हीलणामी दिसणाओ गरहणा उच्चावया विरूवा बावीसं परोसहोवसग्गा गामकंटगा अहियासिज्जते तमहूँ आराहेइ २त्ता चरिमेहिं उस्सासनिस्सासे हिं सिज्झिहिति मुचिहिति परिनि बाहिति स दुक्खाणमंतं करेहिति ॥ (सू०८४) ॥ सेवं भंते ! सेवे भंते ! नि भगवै गोयमे समर्ण भगवं महावीर बदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति । णमो जिणाणं जियभयाणं । णमो सुयदेवयाए भगवतीए । णमो षण्णत्तीए भगवईए। णमो भगवओ अरहओ पासस्स पस्से सुपस्से पस्सवणा णमो ९ । रायप्पसेणीयं सम्मः ॥ (सू. ८५) ॥ ग्रंथाग्रं सूत्र २१००।
नवंगसुत्तपतियोहिए' इति दे श्रोत्र हे नयने द्वे नासिके एका जिह्वा एका व एक मन इनि सुप्तानीच पाल्यादम्यक्तचेतनानि पनिबोधिनानि-यौवनेन व्यक्तचेतनानि कृतानि यस्य स तया, व्यपदारभाष्पे 'सोत्ताई नव सुत्ताई' इत्यादि, 'भट्ठारसविहदेसीप्पयारभासाविसारए' अष्टादशविधाया-अष्टादशभेदाया देशीम काराया-देशीवरूपाया भाषाया विशारदो-विचक्षणः, तथा गीतरवि तथा गन्धर्व गीते नाटधे च कुशला हयेन युध्यते इति हययोधी एवं गजयोधो रथयो
१४९॥
SAREarating
4
murary.com
प्रदेशी राज्ञस्य आगामि भवा: एवं मोक्ष-प्राप्ति:
~307~
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१३)
[भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
------------- मूल [८४-८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८४-८५]]
श्री पाहुयोधी तथा पाहुभ्यां प्रसवनातीति बाहुपमही साहसिकत्वात् विकाले चरतोति पिकालचारी 'सासंजमतवसुनारियफलनिवाणमग्गेण ' ति सर्वसयपः सर्वगानां मनोवाकायानां संयम तस्य सुवरितस्य च पार्शसादिदोषरहितस्य
सपसो यत्फल-निर्वाणं तन्मार्गण, किमुक्तं भवति -सर्वसंपमेन सुचरितेन च तपसा, निर्माणप्रणमनयोनिर्माणफलस्वरूपापभार्थ, 'मणोमाणसियति मनसि भवं मानसिकं तच कदाचिद्वचसापि प्रकटितं भवनि नत उच्यते-मनसि व्यवस्थितं, खयं ति क्षपितं भयं नीतमिति भावः, 'पडिसेवियं 'ति प्रतिसेवितं स्यात् स्यादि अधाकर्म-भूमौ निखातं रहकर्मसास्थानकृतं परेसिंहीलणाओ' इति हीलनानि सद्भूतहीनोत्पश्याधुघटनानि निन्दनानि-परोक्षे जुगुप्सा आतापनानि खिसनानि 'बिग मुंड ते इत्यादि वाक्यानि सर्जनानि अमुल्या निसेपपुरस्सरं निर्भर्त्सनानि तादनानि कशादिपाता। ।मु०८४-८५)॥
इतिमलए गिरिविरचिता राजप्रश्नोयोपातिका समर्थिता। प्रत्यक्षरं गणनतो, ग्रन्धपान विनिचितम् । सप्तत्रिंशच्छतान्यत्र, श्लोकानां सर्वसंख्यया ॥१॥३७००।
दीप
अनुक्रम [८४-८५]
इति श्रीमन्मलयगिर्याचार्यवर्यविहितवृत्तियुतं
श्रीराजप्रश्नीयाख्यं द्वितीयमुपाङ्ग समाप्तम्
N
राजप्रश्नीय उपांगसूत्र-२ मूलं एवं वृत्ति: परिसमाप्ता:
मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब | किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
~308~
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुलपृष्ठ ३१४
५८६
४९८
३९२ ५९४
४९४
३३८ ५९२
५५२
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? | भाग | इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम
01 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन-१,२ 02 |
| आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध- २ 03 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- १ से १३
04 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ | 05 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वत्ति, भाग-१ स्थान-१ से ४
06 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान- ५ से १० संपूर्ण 07 |
| आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. 08 |
| आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ 09 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११ 10 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक- १२ से २०
11 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण | 12 | आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. | 13 | आगम-७,८,९,१०उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. | 14 | आगम-११,१२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. | 15 | आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वत्ति. | 16 | आगम९४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मुलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत) सूत्र-१ से १३८ | 17 | आगमा४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण | 18 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मुलं एवं वृत्ति. पद-१ से ५ | 19 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मुलं एवं वृत्ति. पद-६ से २२ | 20 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मलं एवं वत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण | 21 | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति.
५१४ ३८४
५२२
५३८
३८४ ३१४
४८०
४८८ ४२६ ५१४
६१०
~309~
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
22
कुलपृष्ठ ६१४ ૩૭૬
૪૨૬
३४४
३१२
३३०
४६६
४४२
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? भाग
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. | आगम१८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार-५ से . | आगम १९-३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पृष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान,
भक्तपरिज्ञा, तंदलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मुलं एवं छाया 27 | आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मलं एवं छाया, निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव 28 | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वत्ति, भाग-१, निर्यक्ति-१ से ५२१ 29 | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१
आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण) आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन- ४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण] आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति.
| आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ 36 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन- ६ से २१ 37 आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ 38 आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति.
आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. कल्प[बारसा]सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति.
४६४
૪૨૬
४७२
३७६
५९०
૨૨ ૪૮૨
४६६
५२८
39
५६०
३९४
~310~
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
ਲੋਹਾ
ਕ
ਕ ਕ
ਤਲ
ਜਲ ਨੂੰ ਸਬਸ
ਦਾ
ਹਾਲ |
ਬਾਸ ਨਹਸ ਰਸ ਨੂੰ ਖਾਸ ਮਹਾ ਕਾਲ ਗਰਲ
ਕਰ
.
आगम
वाचना शताब्दी वर्षा
3 ਤ
ਕ
ਹਨ ਜਿਸ ਕਰ ਕੇ
ਸ
ਸ ਰਸ ਵਰਕ ਰਸਾਸ਼
ਕ
ਰਨ
ਦਾ
ਦਾ
~ 311 ~
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
आजम आज
TOTH
आगम
नमो नमो निम्मलदंसणस्स
सवृत्तिक- आगम- सुत्ताणि
मूल संशोधक
STISTR आयम
SISTE
अभिनव संकलनकर्ता
~ 312~
राजम
आगम
CHRIS
आगम
STOTIE
Sur आम
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य
BATSEIT
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज ● आगम [M.Com., M.Ed., Ph.D. श्रुतमहर्षि ] प्रत- प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 / 9825306275
Tate
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
OFILE OFF OF
श्री आगम मंदिर
पालिताणा
TOOFHOHITE
~313~
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________ आम आगम आगम आगम आमाजमा मूल सशाधक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आगमआजम आगम आणम आगम आगम आगम आगम 13 "राजप्रश्नीय" मूलं एवं वृत्ति: आजम आजम अभिनव-संकलनकर्ता आजमा ___ आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आगम आजम आगम आगम आगम [M.Com., M. आजमा आगम आजम ~314~