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________________ आगम (१३) प्रत सूत्रांक [६७-७४] दीप अनुक्रम [६७-७४] [भाग-१५] “राजप्रश्नीय” – उपांग सूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [६७-७४ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१३] उपांगसूत्र- [२] "राजप्रश्नीय" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Jain Education विवचासेणं वहिस्सामि तहा तहा णं अहं नाणं च नाणोवलंभं च करणं च करणोवलं च दंसणं च दंसणोवलंभं च जीवं च जीवोवलंभं च उवलभिस्सामि, तं एएणं अहं कारणं देवापियाणं वामं वामेणं जाव विवचासं विवचासेणं वहिर, तर णं केसीकुमारसम परसीराय एवं वयासी-जाणासि गं तुमं परसी कह वबहारगा पण्णत्ता ?, हंता जाणामि, चत्तारि ववहारगा पण्णत्ता-देह नामेगे णो सण्णवेह सन्नवेइ नामेगे नो देह एगे देवि सन्नवे वि एगे जो दे णो णवे, जाणासि णं तुमं परसी । एएसिं चउन्हं पुरिसाणं के बवहारी के अववहारी ?, हंता जाणामि, तत्थ णं जे से पुरिसे देइ णो सण्णवेइ से णं पुरिसे ववहारी. तत्थ जे से पुरिसे णो देइ सण्णवेह से णं पुरिसे बवहारो, तत्थ णं जे से पुरीसे देवि स वेदवि से पुरिसे वबहारी, तत्थ णं जे से पुरिसे णो देइ णो सन्नह से णं अववहारी, एवामेव तुमपि ववहारो, णो चेवणं तुमं परसी अववहारी (सू० ७२) तए णं पएसी राया केलिकुमारसमण एवं वयासी तुझे णं भंते! इयछेया दक्खा जाव उबएसलढा समत्था ण भंते! ममं करयलंसि वा आमलयं जोवं सरोराओ अभिनिवहित्ताणं उबभित्तर, तेणं कालेणं तेणं समरणं पर सिस्स रण्णो अदूरसामंते वाउपाए संबुत्ते, तणवण सहकाए एयह वेयह चलइ फंदइ घर उदीरह तं तं भावं परिम, त ण केसी कुमारसमने परसितयं एवं वयासी- पाससि ण तुमं प सीराया ! एवं तणवण केसिकुमार श्रमणं सार्धं प्रदेशी राजस्य धर्म-चर्चा For Pernal Use Only ~286~ nary org
SR No.035015
Book TitleSavruttik Aagam Sootraani 1 Part 15 Rajprashniya Mool evam Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherVardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
Publication Year2017
Total Pages314
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size68 MB
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