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NO
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प्राकृतमागोपदेशिका
मूल लेखक : अध्यापक बेचरदास जीवराज दोशी
हिन्दी में अनुवादिका पं० साध्वी श्री सुत्रताजी
शिष्या पं० साध्वी श्रीमृगावतीजी
शिष्या स्व० साध्वी श्रीशीलवतीजी श्री विजयवल्लभसूरि जी की ___ आज्ञानुवर्तिनी
प्रकाशक:
मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली वाराणसी पटना
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प्रकाशक: श्री सुन्दरलाल जैन, मोतीलाल बनारसीदास चौक, वाराणसी बेंग्लो रोड, जवाहरनगर, दिल्ली-७. अशोक राजपथ, पटना
हिन्दी प्रथम संस्करण
ईस्वी सन् १९६८ विक्रम वर्ष-२.२५ वीर संवत्-२४९५ मूल्य -- १०.००
मुद्रक : केशव मुद्रणालय पाण्डेयपुर पिसनहरिया, वाराणसी कैण्ट |
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जन्म वर्ष - विक्रम संवत् १६५० पौष शु. दि. ११ । जन्मस्थल- -राणपरडा (चीतल-काठियावाड ) । निर्वाण वर्ष - विक्रम संवत् २०२४ महा व. दि. ४ शनिवार । निर्वाणस्थल – बम्बई - श्री महावीर स्वामी देरासर, पायधुनी । Jain Eसर्व आयु ७४ वर्ष ।
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यथा नाम तथा गुणों से विभूषित मेरी मातामही गुरुणीजी श्री स्व० श्री शीलवती जी
महाराज के चरणकमलों में
अनुगामिनी
प्रशिष्या
सुत्रता
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प्रस्तावना
आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के अध्ययन में प्राकृत का अध्ययन संस्कृत जैसा ही अपरिहार्य है । प्राकृत के अध्ययन के बिना आधुनिक आर्य भाषाओं की चर्चा पूर्ण नहीं हो पाती; इसलिए संस्कृत के साथ ही साथ मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं जैसे पालि, विभिन्न प्रकार की प्राकृत तथा अपभ्रंश का अवश्य अध्ययन किया जाना चाहिए । पालि की चर्चा भारतवर्ष में कई शतकों से लुप्त हो गई थी, लेकिन आजकल भारत में पालि के अध्ययन की व्यवस्था प्रारम्भ हो गई है । कलकत्ता विश्वविद्यालय इस विषय में पथ प्रदर्शक बना था । अब पालि की चर्चा भारत के अन्य विश्वविद्यालयों में पूर्णतया चालू हो गई है । मलि के मुख्य ग्रंथों के नागरी लिपि में संस्करण निकल गये हैं और हिन्दी में पॉलि के लिए विशेष उपयोगी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं; जैसे आनन्द कौसल्यायन जी की पुस्तकें और श्री लक्ष्मीनारायण तिवारी को पुस्तकें |
परन्तु हिन्दी संसार में प्राकृतों को चर्चा प्रायः उतनी नहीं फैल पाई है । इसका एक मुख्य कारण यह था कि पालि जैसी ही प्राकृत की आलोचना भी हिन्दी भाषियों में प्रायः बन्द हो गई थी । संस्कृत नाटकों के अध्ययन के समय प्राकृत के अध्ययन की कुछ आवश्यकता अवश्य पड़ती थी परन्तु हमारे संस्कृत के विद्वान् केवल संस्कृत छाया के सहारे किसी प्रकार काम चला लेते थे । प्राकृत का गम्भीर अध्ययन कहीं भी नहीं दिखाई पड़ता था । इसका एक अन्य कारण यह भी है कि पंजाब और राजस्थान को छोड़कर अन्य हिन्दी भाषी प्रदेशों में ऐसे जैन लोग संख्या में बहुत कम हैं जिनकी धार्मिक भाषा प्राकृत मानी जाती है; परन्तु राजस्थान तथा गुजरात में जैन लोग संख्या में गरिष्ठ न हों, परन्तु भूयिष्ठ हैं और इनमें जैन यति और मुनि तथा अन्य विद्वान् बहुत संख्या में मिलते हैं, जो अपने धार्मिक विचार और शास्त्राध्ययन में निरन्तर व्यापृत रहते हैं और इन विषयों में जैसे प्राकृत धार्मिक तथा साहित्यिक ग्रंथों के संशोधन
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और प्रकाशन में संलग्न रहते हैं और प्राकृत भाषा के व्याकरण की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ प्रकाशित कराते हैं । इन विषयों में गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र के जैन पण्डितों की देन अपरिसीम है ।
प्राकृत भाषा, विशेषकर अर्द्धमागधी, संस्कृत और पालिके साथ ही साथ एक मुख्य प्राचीन भाषा के रूप में छात्रों के अध्ययन के लिए नियत की गई थी, इसलिए प्राकृत के प्राध्यापकों ने अंग्रेजी में दो-चार अच्छो पुस्तकें प्रकाशित की थी । इसके अतिरिक्त गुजराती में जो मौलिक विचार के साथ ग्रंथ निकलते जाते हैं वे गुजरात के बाहर लोगों को दृष्टिगोचर नहीं होते।
हमारे श्रद्धास्पद मित्र पण्डित बेचरदास जीवराज दोशो गुजरात के प्रमुख भाषातात्त्विकों में गिने जाते हैं । आप गुजराती, संस्कृत, प्राकृत, मराठी, हिन्दी प्रभृति भाषाओं के प्रकाण्ड पण्डित हैं । गुजराती में आपने बहुत वर्ष पहले "गुजराती भाषा नी उत्क्रान्ति' नामक एक भाषाशास्त्रानुगत विचारपूर्ण ग्रन्थ लिखा था। मुझे इनके साथ परिचित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है और जब उनसे मेरा पहला साक्षात्कार हुआ तभी से मैं उनका गुणग्राही रहा हूँ और उनके साथ पत्र-व्यवहार करता आया हूँ। “पुत्रे तोये यशसि च नराणाम् पुण्य-लक्षणम्" यह शास्त्रवचन इनके लिए सार्थक बना है। आप के सुपुत्र चिरंजीव प्रबोध ने अपने पिता के द्वारा अनुसत वाकतत्त्व विद्या को अपनाया है और इस विद्या में अनन्य साधारण योग्यता दिखाई है। जब श्री प्रबोधजी पूना के डेकन कॉलेज के भाषातत्त्व विभाग में अध्ययन, गवेषणा और अध्यापन करते थे उसी समय से उनसे मेरा गहरा परिचय रहा है। बाद में वे अमरीका जाकर आधुनिक अमरीकी शैली में पूर्ण रूप से निष्णात बन कर लौट आये और आजकल दिल्ली विश्वविद्यालय में भाषातत्त्व के मुख्याध्यापक नियुक्त किये गये हैं । इस प्रकार पिता की परम्परा पुत्र ने सुरक्षित रक्खी है।
प्रस्तुत पुस्तक श्रीमान् दोशीजी की गुजराती पुस्तक का हिन्दी अनुवाद है। इसके द्वारा हिन्दी संसार तथा छात्र-समाज का एक अभाव दूर हआ। इसमें प्राकृत भाषा का साधारण विचार भली भाँति किया गया है और विभिन्न
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प्राकृतों का वैशिष्टय दिखाया गया है। जैसे, उन्होंने लिखा है-"प्रस्तुत पुस्तक में प्राकृत, पालि, शौरसेनी, मागधी, पैशाची तथा चूलिकापैशाची और अपभ्रंश भाषा के व्याकरण का समावेश किया गया है, अतः प्राकृत भाषा से उक्त सभी भाषाएँ समझनी चाहिए।" ऐसे इस पुस्तक को पिशेल के बृहत् प्राकृत व्याकरण* ( जो जर्मन भाषा में लिखित इस विषय का सबसे प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है ) का एक गुटका संस्करण कहा जाय तो अत्युक्ति नहीं होगी।
मेरे विचार में इस पुस्तक का प्रकाशन हिन्दी का महत्त्व बढ़ायेगा और हिन्दीभाषी इससे प्रचुर लाभ उठा सकेंगे और ग्रन्थकर्ता के आभारी रहेंगे । इस काम के लिए वाक्तत्त्वविद्या के एक अनुरागी की हैसियत से मैं भी पंडित बेचरदासजी का आभारी हूँ। आशा है कि आप भविष्य में ऐसे और भी उपयोगी ग्रन्थ या निबंध प्रकाशित कराकर देश में शिक्षा और ज्ञान फैलाने के काम में लगे रहेंगे और इसलिए हम सब उनके स्वस्थ दीर्घायुष्य की कामना करते हैं।
ग्रंथ माना विचार में इस लाभ उठा
सुनीति कुमार चाटुा
राष्ट्रीय ग्रन्थालय कलकत्ता वैशाखी पूर्णिमा ( बुद्ध पूर्णिमा ) १२ मई १९६८
* पिशेल के जर्मन ग्रन्थ का अंग्रेजी अनुवाद डा० सुभद्र झा ने किया है और इसका हिन्दी अनुवाद डॉ० हेमचन्द्र जोशी ने।
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मूल लेखक के दो शब्द
बनारस श्री यशोविजय जैन संस्कृत पाठशाला में जब मैं पढ़ रहा था तब की यह बात है अर्थात् आज से करीब ६० बरस पहले की बात है अतः थोड़े विस्तार से कहने की जरूरत महसूस होती है।
स्व. श्री विजयधमसूरिजी ने बड़े कड़े परिश्रम से उक्त संस्था काशी में स्थापित की थी । उसमें डॉ० पंडित सुखलालजी, पाइअसद्दमहण्णवो नामक प्राकृत शब्दकोश के रचयिता मेरे सहाध्यायी मित्र स्व० पं० हरगोविंददासजी सेठ और मैं उसी पाठशाला में पढते थे।
शुरू में मैंने आचार्य हेमचंद्ररचित सिद्ध हेमशब्दानुशासन लघुवृत्ति को पढ़ा, बाद में उसी व्याकरण की बृहद्वृत्ति को। उस व्याकरण में सात अध्याय तो केवल संस्कृत भाषा के व्याकरणसंबंधी है, आठवाँ अध्याय मात्र प्राकृत भाषा के व्याकरण का है । सात अध्याय पढ़ चुकने के बाद मेरा विचार आठवाँ अध्याय को पढ़ने का हुआ । आठवाँ अध्याय को वहाँ कोई पढ़ाने वाला न था अतः उसके लिए मैं ही अपना अध्यापक बना । जब आठवाँ अध्याय को पढ़ रहा था तब ऐसा अनुभव हुआ कि कोई विशिष्ट कठिन परिश्रम किये बिना ही आठवाँ अध्याय मेरे हस्तगत और कंठाग्र हो गया, फिर तो काशी में ही कई छात्रों को तथा मुनियों को भी उसे भली भांति पढ़ा भी दिया और प्राकृत भाषा मेरे लिए मातृभाषा के समान हो गई।
उन दिनों में संस्कृत को सरलता से पढ़ने के लिए स्व. रामकृष्णगोपाल भाण्डारकर महाशय ने संस्कृत मार्गोपदेशिका अंग्रेजी में बनाई थी। उसका गुजराती अनुवाद गुजरात की पाठशालाओं में चलता था। संस्कृत का प्राथमिक अध्ययन मैंने भी इसी पुस्तक द्वारा किया था। इससे मुझे ऐसा विचार आया कि संस्कृत मार्गोपदेशिका की तरह इसी शैली में प्राकृत मागोपदेशिका क्यों न
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[६] बनाई जाय ? इस काम को मैंने हाथ पर लिया और तीन-चार महिने में गुजराती प्राकृत मार्गोपदेशिका की एक पांडुलिपि तैयार कर दी।
फिर पाठशाला के व्यवस्थापकों ने उस पांडुलिपि को प्रकाश में लाने का निर्णय किया तब मैंने उसको संशोधित करके समुचित रूप से ठीक-ठीक तैयार कर दी, बनारस से प्रकाशित प्राकृत मागोंपदेशिका के संस्करण में ही मैंने अन्त में सूचित किया है कि विक्रम संवत् १६६७, ज्येष्ठ मास, पूर्णिमा, शुक्रवार के दिन यह पुस्तक संपन्न हो गया । इस प्रकाशन की प्रस्तावना में भी वीर संवत् २४३७ मैंने लिखा है अतः आज से करीब ५६-५७ वर्ष पहले यह प्रथम प्रकाशन हुआ। ___प्राकृत भाषा को गुजराती भाषा द्वारा सीखने का सबसे यह प्रथम साधन तैयार कर सका इस हेतु मुझे प्रसन्नता हुई थी। यह प्रथम प्रकाशन मेरी विद्यार्थी अवस्था की कृति है और सबसे प्रथम मौलिक कृति है। इसमें कहीं भी संस्कृत भाषा का आश्रय नहीं लिया गया था। इसी प्रकाशन की दूसरी आवृत्ति यशोविजय जैन ग्रंथमाला के व्यवस्थापकों ने की है ऐसा मुझे स्मरण है। प्रथम
और दूसरे प्रकाशन में कोई भेद नहीं है। गुजरात देश की जैन पाठशालाओं में इसका उपयोग होता है तथा कई साधु-साध्वी भी इसे पढ़ते रहे ।
बाद में जब मैंने न्यायतीर्थ और व्याकरणतीर्थ परीक्षा पास की तथा पालि भाषा में भी पंडित की परीक्षा लंका ( कोलंबो ) जाकर लंका के विद्योदय कालेज से पास की और संशोधन-संपादन इत्यादि व्यावसायिक प्रवृत्ति में लगा तब गुजराती प्राकृत मार्गोपदेशिका का नया संस्करण करने का प्रयत्न किया। उसमें संस्कृत भाषा का तुलनात्मक दृष्टि से पूरा उपयोग किया और नये संस्करणों में उत्तरोत्तर विशेष-विशेष परिवर्तन करता गया। गुजराती प्राकृत मार्गोपदेशिका के कुल पांच संस्करण आज तक प्रकाशित हुए हैं। ये सब संस्करण अहमदाबाद के गुर्जर ग्रंथरत्न कार्यालय के मालिकों और मेरे मित्र स्व० श्री शंभूलाल भाई तथा उनके बंधु स्व० श्री गोविंदलाल भाई ने किये हैं, उसमें संस्कृत भाषा के उपयोग के उपरांत पालि भाषा के तथा शौरसेनी, मागधी वगैरह प्राचीन प्राकृत भाषा के नियमों का भी तुलनात्मक दृष्टि से यथास्थान निर्देश किया है तथा आचार्य हेमचंद्र के व्याकरण के सूत्रांक भी नियमों को समझने के लिए टिप्पण में दे
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[१०]
दिये हैं तथा पालि भाषा के नियमों को दिखाने के लिए सर्वत्र स्व० आचार्य श्री विधुशेखर भट्टाचार्यजी रचित पालिप्रकाश का ठीक ठीक उपयोग किया है ।
प्रस्तुत हिन्दी संस्करण में भी प्राकृत, पालि, शौरसनी, मागधी, पैशाची तथा अपभ्रंश के पूरे नियम बताकर संस्कृत के साथ तुलनात्मक दृष्टि से विशेष परामर्श किया है और वेदों की भाषा, प्राकृतभाषा तथा संस्कृत भाषा - इन तिनों भाषाओं का शब्द समूह कितना अधिक समान है इस बात को यथास्थान दिखाने का भरसक प्रयास किया है तथा पृ० ११० से १३७ तक का जो खास संदर्भ दिया है वह भी उक्त तीनों भाषाओं की पारस्परिक सूचक है ।
समानता का ही पूरा
गुजराती प्राकृतमार्गोपदेशिका का यह हिन्दी संस्करण कैसे हुआ ? यह इतिहास भी रोचक होने से संक्षेप में निर्देश कर देता हूँ:
करीब छः वर्ष पहले पं० साध्वी श्री मृगावतीजी (जो अभी बंबई में विशिष्ट व्याख्यात्री के रूप में सुविश्रुत है ) मेरे पास ही पढ़ने के लिए दिल्ली से अमदाबाद में आई । वह और उनकी शिष्या श्री सुत्रताजी मेरे पास करीब दोअढाई वर्ष पढ़ती रहीं । जैनागम, तर्क के उपरांत प्राकृत व्याकरण भी पढ़ने का प्रसंग आया था । अमदाबाद में उनकी ( श्री मृगावतीजी की ) जन्म-माता तथा गुरुणी श्री शीलवतीजी तथा सहधर्मिणी साध्वी सुज्येष्ठाजी भी साथ में आई थीं । ये दोनों सरल प्रकृति तथा धर्म विचार की बड़ी जिज्ञासु रही । अवसर पाकर मैंने श्री मृगावतीजी से निवेदन किया कि गुजराती प्राकृत मार्गोपदेशिका का हिन्दी अनुवाद श्री सुव्रतानी कर देवें यही मेरी नम्र प्रार्थना है, सौभाग्यवश मेरी प्रार्थना उन्होंने स्वीकृत कर ली और यह हिन्दी अनुवाद तैयार भी हो गया ।
अनुवाद तो हो गया पर प्रकाशक भी मिले तभी अनुवाद का साफल्य हो, दिल्लीवाले मोतीलाल बनारसीदास एक सुविख्यात पुस्तक प्रकाशक है और खास करके प्राच्यविद्या के ग्रन्थों के प्रकाशक हैं । वे श्री मृगावतीजी के गुणानुरागी श्रावक हैं । मेरा प्रथम परिचय उनसे वहीं पर श्रीमृगावतीजी के निमित्त से हुआ और मेरा भी उनसे संपर्क हो गया, उक्त फर्म के प्रतिनिधि भाई श्री सुन्दरलालजी को मैंने सूचित किया कि इस हिन्दी प्राकृतमार्गोपदेशिका को आप क्यों
*
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[
११ ]
न प्रकाशित करें ? मेरी बात को उन्होंने मानली और इस हिन्दी प्राकृतमार्गोपदेशिका का प्रस्तुत संस्करण प्राकृतभाषा के अभ्यासी सज्जनों के करकमलों में रखने का मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ ।
मेरा निवास अहमदाबाद में, पुस्तक के मुद्रण प्रवृत्ति का केन्द्र काशी । शुरू शुरू में तो दूसरे फारम से दो-चार फारम अहमदाबाद मगाये गये पर प्रूफ को जाने-आने में अधिक समय लगता रहा और कार्य में भी विलंब होने लगा । फिर तो काशी के पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान ( जैनाश्रम ) के कार्यकर्ता ( शोध - सहायक ) भाई कपिलदेव गिरेजी को इसके संशोधन का भार सौंपा गया सो उन्होंने बड़े परिश्रम से निबाहा । एतदर्थ वे भाई धन्यवाद के विशेष अधिकारी हैं । अनुवादिका श्रीसुव्रताजी भी धन्यवाद के योग्य हैं । और श्रीमृगावतीजी तथा भाई श्री सुन्दरलालजी का सहयोग न होता तो यह कार्य बन ही नहीं सकता अतः उन दोनों का भी नामस्मरण विशेष आभार के साथ कर रहा हूँ |
इस छोटी-सी पुस्तक की प्रस्तावना हमारे स्नेही मित्र गुणानुरागी डा० श्री सुनीति कुमार चटर्जी ( नेशनल प्रोफेसर - कलकत्ता ) ने हिन्दी में ही लिख देवे की महती कृपा की है। उनका आदरपूर्वक नामस्मरण करता हुआ इसके लिए उन्हें विशेष धन्यवाद देता हूँ ।
मेरे बड़े पुत्र डा० भाई प्रबोध पंडित का भी इस प्रस्तावना लिखवाने में बड़ा सहयोग रहा है अतः भाई प्रबोध का भी नामस्मरण करना आवश्यक समझता हूँ ।
पालिप्रकाश का इसमें विशेष उपयोग किया गया है अतः उसके प्रणेता और मेरे मित्र स्व० श्री विधुशेखर भट्टाचार्यजी का अनुगृहीत हूँ ।
पुस्तक के अन्त में शब्दकोश तथा विशेष शब्दों की सूची भाई कपिलदेव गिरिजी ने तैयार कर दी है और इस सारे काम को उन्होंने बड़े प्रयत्न से पार पहुँचाया है अतः इनका नाम फिर-फिर स्मरण में आ रहा है ।
शुरू में शुद्धिपत्रक, अनुक्रमणिका तथा निर्दिष्ट संकेतों की सूची दे दी है।
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मेरी आंख अच्छी नहीं, काशी और अहमदाबाद में काफी दूरी, अतः इसमें बहुतसी गलतियाँ रह गयी होगी, अभ्यासीगण इनको सुधार करके पढ़ेंगे और कष्ट के लिए मुझे क्षमा प्रदान करेंगे ।
१२ ]
मेरे मित्र और पाटण ( उत्तर गुजरात) आर्टकालेज के अर्द्धमागधी के प्रधान अध्यापक भाई कानजीभाई मंछाराम पटेल एम० ए० ने ही शुद्धिपत्रक वगैरह तैयार कर दिया है अतः उनका भी नामस्मरण सस्नेह कर देता हूँ ।
१२शब, भारतीनिवास
सोसायटी
अमदाबाद ६
हिन्दी भाषा द्वारा प्राकृतभाषा को पढ़ने का यह एक विशिष्ट साधन तैयार करके प्राकृतभाषा के अध्यापक तथा छात्रों के सामने सविनय रख रहा हूँ । यदि सुधी पाठक इसका उपयोग करके मुझे उत्साहित करेंगे और देश में प्राकृतभाषा के अभ्यास को इससे थोड़ी-बहुत सहायता मिलेगी तो मेरा और अनुवादिका का परिश्रम सफल समझा जायेगा ।
अन्त में, इस संस्करण के संबन्ध में जो कुछ सूचना या सुझाव देने हों तो मुझे नीचे के पते पर भेजने की कृपा करें यही मेरी प्रार्थना अध्यापक तथा विद्यार्थिबन्धुओं से है ।
शिवमस्तु सर्वजगतः
बेचरदास दोशी
रिसर्च प्रोफेसर ला० द० भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर
- स्कूल ओफ इंडोलोजी
अमदाबाद ६
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विषय-सूची
.
"
विशेष
अक्षर परिवर्तन
वर्णविज्ञान
शब्दविभाग ... स्वरों का सामान्य परिवर्तन
,, विशेष , . . . असंयुक्त व्यञ्जन का सामान्य परिवर्तन
" संयुक्त व्यञ्जन का सामान्य परिवर्तन
, विशेष शब्दों में विशेष परिवर्तन शब्दों में सर्वथा परिवर्तन आगम लिंगविचार सन्धि समास वैदिक तथा लौकिक संस्कृत भाषा के साथ प्राकृत भाषा की तुलना
एक दूसरी स्पष्टता पाठमाला विभाग
पहला पाठ-वर्तमान काल दूसरा पाठतीसरा पाठ- " चौथा पाठ-अस धातु पाँचवा पाठ तथा मार और प्रश्न
१११-१३६
१३६ १३८-३६४
१३८
१४६ १५३
१५६
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१४ ]
१६२
१७८ १८६
१६३
२०५
।
२३३ २४८ २६२ २७३ २८६ २६६
उपसर्ग'छठा पाठ-अकारान्त शब्द के रूप (पुंलिङ्ग) सातवाँ पाठ-अकारान्त शब्द के रूप (नपुंसकलिङ्ग) आठवाँ पाठ-शब्द नवाँ पाठ-अकारान्त सर्वादि शब्द (पुंलिङ्ग और
नपुंसकलिङ्ग) दसवाँ पाठ-तुम्ह, अम्ह, इम और एअ के रूप ग्यारहवाँ पाठ-भूतकालिक प्रत्यय बारहवाँ पाठ-इकारान्त और उकारान्त पुंलिङ्ग शब्द तेरहवाँ पाठ -भविष्यत्कालिक प्रत्यय चौदहवाँ पाठ-भविष्यत्काल पन्द्रहवाँ पाठ-ऋकारान्त शब्द सोलहवाँ पाठ-विध्यर्थ और आशार्थक प्रत्यय सत्रहवाँ पाठ-विध्यर्थ अठारहवाँ पाठ-आकारान्त, इकारान्त, ईकारान्त
और ऊकारान्त शब्द ( स्त्रीलिङ्ग) उन्नीसवाँ पाठ-प्रेरक प्रत्यय के भेद बीसवाँ पाठ-भावे तथा कर्मणि प्रयोग के प्रत्यय इक्कीसवाँ पाठ-व्यञ्जनान्त शब्द बाईसवाँ पाठ-कुछ नामधातुएँ तेईसवाँ पाठ-विध्यर्थ कृदन्त के उदाहरण चौबीसवाँ पाठ-वर्तमान कृदन्त । पच्चीसवाँ पाठ-संख्यावाचक शब्द छब्बीसा पाठ-भूत कृदन्त प्राकृत शब्दों की सूची
विशेष शब्दों की सूची (१) शुद्धि-पत्रक (२) शब्दकोश का शुद्धि-पत्रक (३) विशेष शब्दों की सूची का शुद्धि-पत्रक
mmmm
३१६ ३३०
રૂપૂe ३६६
३७२ ३७६
३८७
१-७५
७७-८०
དf
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संकेतों का स्पष्टीकरण
संकेत :
घा०-धातु अप०अपभ्रंश क्रि० क्रिया=क्रियापद सं०-संस्कृत शौ० शौरसेनी वै० वैदिक सं० भू० कृ०, सं० कृ०-सम्बन्धक भूत कृदन्त मा०-मागधी पै० पैशाची ना० धा० नामधातु गुज०=गुजराती टि-टिप्पण चूचूलिका प्रा०प्राकृत हे० प्रा० व्या० हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण पा० प्र०पालिप्रकाश नि०-नियम पृ०-पृष्ठ
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। पितरौ वन्दे ।
प्राकृतमार्गोपदेशिका
( अक्षर परिवर्तन-व्याकरणविभाग ) वर्णविज्ञान
" प्राकृत भाषा में प्रयुक्त होनेवाले स्वरों और व्यञ्जनों का परिचय इस प्रकार है
:
स्वर
ह्रस्व
अ
aa
दीर्घ
श्रा
chor 15 W
श्री श्रो
उच्चारण-स्थान
कण्ठ- गला
तालु-तालु श्रोष्ठ- होठ
कण्ठ तथा तालु कण्ठ तथा श्रोष्ठ होठ
१. प्रस्तुत पुस्तक में प्राकृत, पालि, तथा चूलिका-पैशाची और अपभ्रंश भाषा के किया गया है श्रतः प्राकृत भाषा से समझनी चाहिए ।
२. एक्क, तेल्ल श्रादि शब्दों का 'ए' और सोत्त, तोत्त श्रादि
शब्दों का 'श्री' ह्रस्व है ।
शौरसेनी, मागधी, पैशाची, व्याकरण का समावेश उक्त सभी भाषाएँ
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१. प्राकृत-भाषा में स्वरों का प्लुत-उच्चारण नहीं होता है। २. ऋ' तथा तृ स्वर का प्रयोग नहीं होता है । ३. ऐ२ तथा श्री स्वर का प्रयोग नहीं होता है।
व्यञ्जन
उच्चारण-स्थान
कण्ठ तालु
क ख ग घ ङ् च छ ज झ ञ् ट् ठ ड ढ ण त् थ् द् ध् न् प् फ् ब् भ् म्
( क वर्ग) (च वर्ग) (ट वर्ग) (त वर्ग) (प वर्ग )
मूर्धा
दन्त-दाँत अोष्ट-होठ
अन्तस्थअर्धस्वर
LAONLAN
तालु मूर्धा दन्त दन्त अोष्ठ
दन्त
कण्ठ य् ल व
नासिका ङ्ञ् ण न म् ४. प्राकृत-भाषा में कोई भी व्यञ्जन स्वर के बिना क् च ट त प
रूप से अकेला प्रयुक्त नहीं होता। जो व्यञ्जन समान-वर्ग अथवा
१. अपभ्रंश-प्राकृत में '' स्वर का उपयोग होता है। जैसे; तृण, सुकृत श्रादि।
२. केवल 'श्रयि' अव्यय के स्थान पर ही 'ऐ' का प्रयोग होता है। याने 'ए' सम्भावना अथवा कोमल सम्बोधन का सूचक है (हे.
प्रा० व्या० ८।१।१६६। )।
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समान अाकार के होते हैं, वे बिना स्वर के भी संयुक्त रूप से प्रयुक्त होते हैं । समान वर्ग, जैसे :-चक्क, बच्छ, वट्टा, तत्त, पुप्फ, अङ्क, का' मञ्च, कण्ठ, तन्तु, चम्पग श्रादि । समान श्राकार, जैसे :-अय्य, कल्लाण, सच, सिसस
इत्यादि। ५. किसी भी प्रयोग में अकेला स्वर सहित ङ अथवा दोहरा (संयुक्त)
'ङ' प्रयुक्त नहीं होता। ६. सामान्यतःक्य, त्र, प्ल, क्व,स्व ऐसे विजातीय संयुक्त व्यञ्जन प्राकृत
भाषा में प्रयुक्त नहीं होते। लेकिन अपवादरूप से कुछ विजातीयसंयुक्त व्यञ्जन प्राकृत-अपभ्रंश, पालि और मागधी भाषा में प्रयुक्त होते हैं। इसके विषय में उदाहरण-सहित निर्देश व्यञ्जनविकार
के प्रकरण में दिये गये हैं। ७. प्राकृत भाषा में श तथा ष और विसर्ग का प्रयोग बिलकुल
नहीं है। ८. 'ल' व्यञ्जन का प्रयोग पालि तथा पैशाची भाषा में
प्रचलित है। संस्कृत के किस संयुक्त अक्षर के स्थान पर प्राकृत में साधारणतः कौन-सा अक्षर प्रयुक्त होता है। उदाहरणों सहित उनका प्रयोग
इस प्रकार है(१) स्क, क्त, क्य, क्र, क, ल्क, क्ल और क्व के स्थान पर शब्द के - १. शब्द के अन्दर 'ञ' का प्रयोग पालि, मागधी और पैशाची भाषा में प्रचलित है।
२. अय्य ( आर्य) शब्द केवल शौरसेनी और मागधी में ही प्रयुक्त होता है।
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( ४ >
अन्दर डबल 'क' का और शब्द ' के श्रादि में 'क' का प्रयोग होता है । जैसे :- उत्कण्ठा - उक्कण्ठा, मुक्त-मुक्क, वाक्यवक्क, चक्र - चक्क, तर्क - तक, उल्का - उक्का, विक्लव - विक्कव, पक्व पक्क, क्वचित् - कचि, क्वणति - कणति ।
(२) त्ख, ख्य, क्ष, त्क्ष, क्ष्य, ष्क, स्क, स्ख, : ख के बदले क्ख तथा ख होता है । जैसे:- उत्खण्डित - उक्खण्डिन, व्याख्यान - वक्खाण, क्षय -- खय, क्षण-खण, श्रक्षि- क्खि, उत्क्षिप्त - उक्खित्त, लक्ष्य - लक्ख, शुष्क—सुक्ख, श्रास्कन्दति - अक्खंदइ, स्कन्द - खंद, स्खलितखलिन, स्खलन - खल, स्खलति - खलइ, दुःख - दुक्ख । (३) ङ्ग, ग्ण, द्ग, ग्न, ग्म, ग्य, ग्र, र्ग, लग के बदले ग्ग तथा ग का प्रयोग होता है । जैसे :- खड्ग - खग्ग, रुग्ण - रुग्ग, अथवा लुग्ग, मुद्ग - मुग्ग, नग्न- नग्ग, युग्म- जुग्ग, योग्य - जुग्ग, अग्र - अग्ग, ग्रास-गास: ग्रसते-गसते, वर्ग-वग्ग, वल्गा - वग्गा ।
1
:
(४) द्घ, घन, घ्र, र्घ, के स्थान में ग्घ तथा घ होता है । जैसे उद्घाटित - उग्वाडि, विघ्न - विग्ध, शीघ्रम् - सिग्धं, घाण घाण, अर्घ-अग्घ ।
(५) च्य, र्च, श्च, त्य के स्थान पर च्च तथा च होता है । जैसे :अच्युत - अच्चुत्र, च्युत-चुत्र, श्रर्चा - श्रच्चा, निश्चल -निच्चल, सत्य - सच्च, त्याग - चाय, त्यजति - चयइ |
(६) ई, छ, क्ष, त्क्ष, क्ष्म, त्स, थ्य, त्स्य, प्स, श्च के स्थान में च्छ तथा छ होता है । जैसे :- मूर्छा - मुच्छा, कृच्छ्र- किच्छ, क्षेत्र -छेत्त,
१. यहाँ ( इस विभाग में ) दिये गये सभी उदाहरणों में डबल क, क्ख, ग्ग, ग्ध, आदि अक्षरों के प्रयोग के विषय में जो कहा गया है, उनका उपयोग शब्द के अन्दर करना चाहिए और जो इकहरा क, ख, ग, आदि कहा है उसका उपयोग शब्द के आदि में करना चाहिए ।
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( ५ )
श्रक्षि- श्रच्छि, उत्क्षिप्त - उच्छित्त, लक्ष्मी - लच्छी, दमा-छमा, वत्स - वच्छ, मिथ्या - मिच्छा, मत्स्य-मच्छ, लिप्सा - लिच्छा, श्राश्चर्य अच्छेर ।
(७) ब्ज, ज्ञ, ज्र, र्ज, ज्व, द्य, र्य, य्य के स्थान में ज्ज तथा ज होता है। जैसे :- कुब्ज-खुज्ज, सर्वज्ञ - सव्वज्ञ, बज्र - वज्ज, वर्ज्य - वज्ज, गर्जति - गज्जर, प्रज्वलित-पज्जलित, ज्वलित-जलिश्र, विद्याविज्जा, कार्य - कज्ज, शय्या - सेज्जा ।
( ८ ) ध्य, ध्व, ह्य, के स्थान में ज्झ तथा झ होता है । जैसे :- मध्यध्यायति - झायइ, साध्वस
मज्झ, साध्य - सज्झ, ध्यान - झारण,
सज्झस, बाह्य - बज्झ, सह्य-सज्झ ।
(६) र्त के स्थान में ट्ट होता है। जैसे :-नर्तकी नहई |
(१०) ष्ट, ष्ठ, स्थ, स्त, के स्थान में इ तथा ठ होता है। जैसे :-दृष्टिदिडि, गोष्ठी - गोडी, अस्थि-अहि, स्थित-ठिन, स्तम्भ -ठंभ, । (११) र्त तथा र्द के स्थान में ड्डु होता है। जैसे : गर्त - गड्डु, गर्दभ
गड्डह |
:--
(१२) र्ध, द्ध, ग्ध, ब्ध तथा ढ्य के स्थान में डूढ होता है । जैसे अर्ध- अड्ढ, वृद्ध - बुड्ढ, दग्ध - दड्ढ़, स्तब्ध - ठड्ढ, श्रादयअड्ढ ।
(१३) ज्ञ, म्न, न्न, राय, न्य, र्ण, एव, न्व के स्थान में एग तथा ण अथवा न्न तथा न होता है । यथाः- T: - सर्वज्ञ - सव्वणु - सव्वन्नु, यज्ञ -- जरण - जन्न, ज्ञान-खाण-नाण, विज्ञान - विरणाणविन्नाण, प्रद्युम्न - पज्जुराण - पज्जुन्न, प्रसन्न - सराण-प्रसन्न, पुण्य - पुराण - पुन्न, न्याय - गाय - नाय, अन्योऽन्य- श्ररणोरणअन्नोन्न, मन्यते - मरणए - मन्नए, वर्ण-वरण - वन्न, करण-कन्न, अन्वेषण - अण्णेसण - अन्नेसण, अन्वेषयतिअसे - श्रन्नेसे |
कण्व --
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________________
( ६ )
(१४) दण, दम, श्न, ष्ण, स्न, ह्र, ह्न, के स्थान में यह श्रथवा न्ह होता है । यथा : - तीक्ष्ण - तिराह - तिन्ह, सूक्ष्म - सराह, प्रश्न - परह - पन्ह, विष्णु-विरहु-विन्दुः स्नान-रहाण - न्हाण, प्रस्तुत - पण्हु - पन्हु | प्रस्नव- राहव - पन्हव, पूर्वाह्णपुण्वराह - पुन्ह, वह्नि - वरिह - वन्हि ।
(१५) क्त, प्त, त्न, त्म, त्र, त्व, र्त के स्थान में त्त तथा त होता है । जैसे :- भुक्त-भुत्त, सुप्त-सुत्त, पत्नी-पत्ती, श्रात्मा श्रत्ता, त्राण-ताण, शत्रु-सत्तु, स्वंतं, सत्त्व-सत्त, मुहूर्त - मुहुत्त ।
(१६) क्थ, त्र, थ्य, र्थ, स्त, स्थ के स्थान में त्थ तथा थ होता है । जैसे : - सिक्थक- सित्था, तत्र - तत्थ तथ्य - तत्थ, पथ्य - पत्थ, स्तम्भ - थंभ, स्तुति - थुइ, स्थिति - थिति ।
>
(१७) ब्द, द्र, र्द, द्व, के स्थान में द्द तथा द होता है । जैसे :श्रब्द-श्रद्द, भद्र-मद्द, श्रार्द्र - ६, द्वि-दि, द्वैत-दइश्र, श्रद्वैत-अद्दश्र, द्वौ -दो |
1
*---
(१८) ग्ध, ब्ध, र्ध, ध्व, के स्थान में द्ध तथा घ होता है । जैसे स्निग्ध- निद्ध, लब्ध-लद्ध, अर्ध-श्रद्ध, ध्वनति-धरणइ ।
(१६) न्त के स्थान में न्द होता है ( शौरसेनी भाषा में ) । निश्चिन्त - निच्चिन्द, श्रन्तःपुर- श्रन्देउर । महत् - महन्त - महन्द, पन्चत् - पचन्त-पचन्द, प्रभावयत् - पभावन्त - पहावन्द, किन्तु - किन्दु |
(२०) त्प, त्म, प्य, प्र, र्प, ल्प, प्ल, क्म, ड्रम के स्थान में प्प तथा प होता है । जैसे :- उत्पल - उप्पल, आत्मा - अप्पा, प्यायतेपायए, विज्ञप्य - विराणप्प, प्रिय-पिय, प्रिय - श्रप्पिय, अर्पयति अप्पे, अल्प- अप्प, प्लव-पव, विप्लव - विप्पव, प्लवते - पवए, रुक्म-रूप्प, रुक्मिणी- रुप्पणी, कुडमल- कुंपल ।
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________________
७
(२१) त्फ, ष्प, ष्फ, स्प, रूफ के स्थान में प्फ तथा फ होता है। जैसे :--- उत्फुल्ल- उप्फुल्ल, पुष्प - पुप्फ, निष्फल - निष्फल, स्पर्शस्पृशति - फरिसइ, स्फुट-फुड, स्फुरति -फुरद्द,
फंस, स्फुरण - फुरण ।
(२२) द्व, द्व, र्ब, ब्र, र्व, व्र के स्थान में ब्ब तथा ब अथवा व्व तथा व होता है । जैसे :- उद्बन्ध्य - उब्बंधिय, द्वे - वे श्रथवा बे, द्वीनि-विन्नि, वेन्नि अथवा बिन्नि बेन्नि, बर्बर - बब्बर, ब्राह्मण - ब्रम्हण, अब्रह्मण्य - श्रब्ब म्हणण, सर्व सब्च सव्व, व्रजति -त्रयह, व्रज - वज ।
:)
(२३) ग्भ, भ, भ्य, र्भ, भ्र, ह्न के स्थान में ब्भ तथ भ होता है । जैसे :- प्राग्भार - पन्भार, सद्भाव - सन्भाव, सभ्य - सम्भ, गर्भगब्भ, भ्रम-भम, विभ्रम-विन्भम, विह्वल - विब्भल ।
(२४) ग्म, ङ्म, एम, न्म, म्य, र्म, म्र, ल्म के स्थान में म्म तथा म होता है । जैसे -युग्म - जुम्म, दिङ्मुख - दिग्मुह, वाङ्मयवम्मय, षण्मुख - छम्मुह, जन्म-जन्म, मन्मन-मम्मण, गम्यगम्म, सौम्य - सोम्म, धर्म-धम्म, कम्र - कम्म, खेडित- मेडिश्र, जाल्म- जम्म, गुल्म- गुम्म !
(२५) दम, ष्म, स्म, और हा के स्थान में म्ह होता है । जैसे :पदम-पम्ह, ग्रीष्म- गिम्ह, विस्मय-विम्हय, ब्राह्मण - ब्रम्हण |
-:
शब्द विभाग
सभी प्राकृत भाषा में दो प्रकार के शब्द होते हैं— संस्कृतसम और देश्य । जो शब्द संस्कृत भाषा से बिल्कुल अथवा थोड़ी समानता से मिलते-जुलते हैं। वे संस्कृतसम कहलाते हैं और जो शब्द बहुत प्राचीन होने के कारण व्युत्पत्ति की दृष्टि से संस्कृत भाषा के साथ अथवा प्राकृत भाषा के साथ मेल नहीं खाते ( अथवा मिलते-जुलते
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________________
( ८ )
नहीं हैं ) वे देश्य शब्द माने जाते हैं। ये देश्य शब्द बहुत प्राचीन हैं । वेद श्रादि प्राचीन शास्त्रों में, संस्कृतभाषा के साहित्य में तथा कोषों में देश्य शब्दों का प्रयोग बहुलता से हुआ है । देश्य शब्दों में बहुत से अनार्य तथा बहुत से द्राविड़ भाषा के शब्द भी मिले हुए हैं। श्री हेमचन्द्राचार्य ने ऐसे देश्य शब्दों का संग्रह कर 'देशीशब्द-संग्रह ' ( देसी-सह-संग्रह) नाम से एक स्वतंत्र कीश की रचना की है । उन्होंने स्वयं इस कोश की टीका भी लिखी है ।
संस्कृतसम प्राकृत शब्दों के दो प्रकार हैं। कुछ तो संस्कृत से बिल्कुल मिलते हैं, लेकिन कुछ थोड़ी समानता लिये हैं ।
हुए
संस्कृत से मिलते-जुलते नामरूप शब्द
प्राकृत
संसार
दाह
दावानल
नीर
संस्कृत
संसार
दाह
दावानल
नीर
संमोह
संमोह
धूलि
धूलि
समीर
समीर इत्यादि
संस्कृत से मिलते-जुलते क्रियापद
प्राकृत
भेदति
हनति
धाति
मरते
संस्कृत
भेदति
हनति
धाति
मरते इत्यादि
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कुछ समानता लिये हुए नामरूप शब्द
प्राकृत
संस्कृत कणग कनक सुवरण-सुवन्न सुवर्ण विलया. वनिता
गृह इत्थी स्त्री रुक्ख वृक्ष वाणारसी वाराणसी
कुछ मिलते-जुलते क्रियापद कुण ति कृणोति ( तृतीय पुरुष एकवचन) नच्चति नृत्यति पुच्छति
पृच्छति जीहति जिहृति चवति
वन्ति ( प्रयोग में वक्ति) जुज्झति-जुज्झते युध्यते वन्दित्ता वन्दित्वा ( सम्बन्धक भूतकृदन्त) कत्तवे कातवे कर्तवे ( हेत्वर्थक कृदन्त ) करित्तए संस्कृत गुजराती हिन्दी
खडकी खिड़की गर्त
खाडो खड्डु अथवा गडढा
देश्य खडक्की खड्डा
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श्रोज्झरी श्रश्रालि काले ( ? )
गडयडी
गागरी
गर्गरी
छासी
जोवारी
१० )
होजरी
उदर (पेट) एली हेली - वरसादनी एली, बरसाती गड़गड़ाहट कीड़ा गगरी, गागर
गडगडाट
छाछ (मट्ठा)
जुवार, ज्वार (अनाज)
गागर
छाश
जुवार
देश्य शब्दों में तामिल तेलुगु और अरबी-फारसी आदि अनेक भाषाओं के शब्द भी होते हैं |
शब्द रचना
प्राकृत शब्दों को समझने के लिए प्राचीन काल से ही संस्कृत शब्दों के माध्यम से प्राकृत बनाने की जो परम्परा चली आयी है, प्रस्तुत पुस्तक में उसी परम्परा का श्राश्रय लिया गया है ।
स्वरों का सामान्य परिवर्तन
जिन नियमों के साथ नागरी अंक लगे हुए हैं उन्हें सामान्य नियम समझना चाहिये और जिन नियमों के साथ अंग्रेजी क लगाये हुए हैं उन्हें विशेष नियम समझना चाहिए । इसी प्रकार खास-खास भाषाओं के नाम लेकर परिवर्तन के जो नियम बनाये गये .. हैं वे सूचित नियम उन खास भाषाओं के साथ सम्बन्धित हैं और जो नियम किसी विशेष भाषा का नाम लिये बिना अथवा प्राकृत भाषा का नाम लेकर बताये गये हैं वे साधारणतः यहाँ बतायी गयी सभी भाषाओं के साथ सम्बन्ध रखते हैं । परन्तु इन नियमों के प्रयोग करने से पहले अपवादात्मक नियमों की ओर पूरा ध्यान देना
अनिवार्य है ।
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( ११ ) ह्रस्व से दीर्घ
प्राकृत कासव
पास
संस्कृत कश्यप पश्य श्रावश्यक मिश्र विश्राम संस्पर्श अश्व विश्वास दुश्शासन
आवासय मीस वीसाम संफास प्रास वीसास दूसासण
पुष्य
पूस
मणूस
वास
बासा
मनुष्य वर्ष वर्षा कर्षक विष्वक् विष्वाण निषिक्त
कास वीसुं वीसाण नीसित्त कास
कस्य
सस्य
सास
१. हेमचन्द्र-प्राकृत-व्याकरण ८१।४३।
परिवर्तन के विधान को समझने के लिए सभी सूत्रों के अंक दिये गये हैं। अतः सूत्रों के जो-जो उदाहरण यहाँ नहीं दिये गये हैं, वे सभी उदाहरण उन-उन सूत्रों को देखकर समझ लें।
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संस्कृत
प्राकृत विसम्म
वीसंभ उस
ऊस निस्व
नीस विकस्वर
विकासर निस्सह
नीसह (पालि भाषा में भी ऐसा परिवर्तन होता है । जैसे; परामर्श-परामास-देखो पालि-प्रकाश, पृ० ११ टिप्पण )
- दीर्घ से ह्रस्व' संस्कृत
प्राकृत अाम्र
अम्ब ताम्र
तम्ब तीर्थ
तित्थ मुनीन्द्र
मुणिन्द चूर्ण
चुन्न-चुराण
नरिंद म्लेच्छ
मिलिच्छ
मिलिक्ख नीलोत्पल
नीलुप्पल (पालि भाषा में भी दीर्घ का ह्रस्व-ए का 'ई',श्रो का 'उ' तथा औ का 'उ' होता है। देखो, पा० प्र०-पृ०८, नियम ११, पृष्ठ ५५ और पृ० ५)
नरेन्द्र
१. हे० प्रा० व्या० वाश८४।
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श्रा को अ प्रकार पयर पयार प्रचार पयर
पयार प्रहार पहर पहार प्रवाह पवह
पवाह प्रस्ताव
पत्थव पत्थाव यहाँ यह नियम स्मरण में रखना चाहिए कि ये सभी नाम भाववाचक और नरजाति के ही हैं।
इको एक पिष्ट
पिह सिन्दूर
(४)
पे
सेन्दूर
सिंदूर
पिंड
पिण्ड विष्णु
दंड वेण्हु बेल्ल
विण्हु
बिल्व
बिल्ल इन सभी उदाहरणों में 'इकार' संयुक्त अक्षर के पूर्व में आया हुआ है।
(पालि भाषा में भी ऐसा ही विधान है । देखो, पा० प्र० पृ० ३इ=ए)
उको 33
उत्सरति उत्सव
ऊसरइ ऊसव
१. हे० प्रा० व्या० ८.१६८।। २. हे० प्रा० व्या०८११८५%3; ३. हे० प्रा० व्या०८११११४।
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________________
मोत्था
उच्छवसति
ऊससह उच्छवास
ऊसास इन उदाहरणों में 'उ' के पश्चात् त्स अथवा च्छ अाया हुआ है।
उको ओ कुट्टिम
कोट्टिम तुण्ड
तोंड पुद्गल
पोग्गल मुस्ता पुस्तक
पोत्था इन उदाहरणों में 'उ' संयुक्त अक्षर के पूर्व में श्राया हुश्रा है।
( पालि भाषा में इसी प्रकार 'उ' को श्रोकार होता है । देखो, पा० प्र० पृ० ५४--उ-प्रो)
ऋको अर
घय
तण कृत
कय (पालि भाषा में भी 'भू' को 'अ' होता है। देखो, पा०प्र० पृ. १-ऋ-अ)
ऋको उ पितृगृह
पिउघरं मातृगृहम्
माउघरं मातृष्वसा
माउसिया १. हे० प्रा० व्या० ८।१।११६॥ २. हे० प्रा० व्या०८।१।१२६।। ३. हे० प्रा० व्या०८१११३४
घृत
तृण
(6)
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________________
(2)
ऋद्धि
( ११ )
ऋक्ष
सदृश
( १५ )
सदृक्ष
सदृक्
ऋण
ऋषभ
( पालि भाषा में भी 'ऋ' को 'रि' होता है । देखो, पा० प्र० पृष्ठ ३ - ऋ =रि टिप्पण )
सदृश श्रादि शब्दों में दकार लोप करने के बाद जो 'ऋ' शेष रहती है उसको 'रि' होता है ।
क्लुन्न
क्लुस
ॠ को रि
पैशाची भाषा में सरिस ( सदृश ) के बदले सतिस रूप बनता है । इसी प्रकार जारिस ( यादृश ) के बदले यातिस, अन्नारिस ( श्रन्यादृश ) के बदले अन्नातिस आदि रूप बनते हैं ( हे०
प्रा० व्या० ८ | ४ | ३१७ | ) |
( १० )
शैल
कैलास
वैधव्य
रिद्धि
रिच्छ
सरिस
सरिक्ख
सरि
रिण - श्रण
रिसह-उसह
ल को इलि
ऐ को ए
किलिन्न
किलिस
सेल
केलास
वेहव्व
१. हे० प्रा० व्या० ८ ११४०, १४१, १४२. ।
२. हे० प्रा० व्या० ८|१|१४५ | ; ३. हे० प्रा० व्या० ८|१| १४८|
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________________
यौवन
( १६ ) (पालि भाषा में भी 'ऐ' को 'ए' होता है । देखो, पा० प्र०पृ० ३-ऐ-ए) (१२)
औ को श्रो कौशाम्बी
कोसंबी
जोवण कौस्तुभ
कोत्थुह (पालि भाषा में भी 'श्री' को 'श्री' होता है। देखो, पा०प्र० पृ० ५-ौ-ओ)
अपभ्रंश प्राकृत भाषा में स्वरों का परिवर्तन व्यवस्थित रूप से नहीं होता। याने कहीं तो 'श्रा' को 'अ' होता है, कहीं 'ई' को 'ए' होता है, कहीं 'उ' को 'अ' तथा 'श्रा' होता है । 'ऋ' को 'अ', 'इ' तथा 'उ' होता है कहीं 'ऋ' भी रहती है। 'ल' को 'इ' तथा 'इलि' 'ए' को 'इ' तथा 'ई' और 'श्री' को 'श्रो' तथा 'अउ' होता है ।
'श्रा' को 'अ'-काच-कच्चु, काच्चु अथवा काच्च । 'ई' को 'ए'-वीणा-वेण, वीण, वीणा । 'उ' को 'अ' तथा 'श्रा'-बाहु, बाह, बाहा, बाहु । ऋ को 'अ', 'इ', 'उ'-पृष्ठी-पष्ठि, पिठि, पुछि,
___ तृण-तणु, तिणु, तृणु, .
सुकृत-सुकिदु, सुकिउ, सुकृदु । लू को 'इ', 'इलि'-क्लृन्न, किन्नउ, किलिन्नउ । ए को 'इ', 'ई',-लेखा । लिह, लोह, लेह ।
रेखा । श्रौ को 'प्रो' तथा 'अउ'-गौरी, गोरि, गउरि । १. हे० प्रा० व्या० ८।१।१७६; २. हे० प्रा० व्या० ८/४/३२६, ३३०. ।
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________________
( १७ )
अपभ्रंश प्राकृत में किसी भी विभक्ति के थाने के पश्चात् नामरूप तो दीर्घ हो जाता है और दीर्घ हो तो
शब्द का अन्त्य स्वर ह्रस्व हो ह्रस्व हो जाता है । जैसे :
धवल-ढोल्ला
१.
श्यामल-सामला
दीर्घ- दीहा
रेखा-रेह
भणिता - भणि देखिये – हे० प्रा०
----
अभियाति
दक्षिण
प्ररोह
प्रवचन
पुनः
समृद्धि
( श्र को श्रा ) प्रथमा विभक्तिः
(
)
(
को
)
( श्रा को श्र )
( श्र को अ )
व्या० ८|४ | ३३०|
39
--
उत्तम
कतम
स्वरों का विशेष - अपवादिक-परिवर्तन
'' का परिवर्तन
'अ' को """
१
हियाइ
""
दाहिण
पारोह
पावयण
पुना
सामिद्धि
द्वितीया विभक्ति
प्रथमा विभक्ति
२
'अ' को 'इ' "
33
""
( पालि भाषा में भी 'अ' को 'श्री' होता है । देखिये - पा० प्र० पृ०
५२ - श्र=श्रा )
श्रहियाइ
दक्खि
परोह
पत्रयण
पुरा
समिद्धि श्रादि
उत्तिम
कइम
१. हे० प्रा० व्या० ८ | १|४४, ४५ तथा ६५ । २. हे० प्रा० व्या०
८|१|४६, ४७, ४८, ४६ ।
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________________
मरिच
मध्यम
दत्त
अङ्गार
पक्व
( १८ )
मिरिश्र
मज्झिम
दिण्ण
इंगार, अंगार
पिक्क, पक्क णिडाल, गडाल
ललाट
( पालि भाषा में भी 'अ' को 'इ' होता है । देखिये - पा० प्र० पृष्ठ
I
५२-अ=इ । )
'अ' को 'ई' "
हर-हीर,
'अ' को 'उ' "
ध्वनि
झुणि
कृतज्ञ
कयण्णु
( पालि भाषा में भी 'अ' को 'उ' होता है। देखिये -पा० प्र०
पृ० ५२-अ = उ )
हर सं० हीर
'अ' को 'ए'
एत्थ
सेज्जा
वेल्ली सं० वेल्लि ।
कन्दुक
गेंदु
सं०४ गेन्दुक, गिन्दुक ।
( पालि भाषा में भी '' को 'ए' होता है । देखिये - पा० प्र० पृ० ५२ - = ए )
अञ
शय्या
वल्ली
१. हे० प्रा० व्या० ८|१|१| २. हे० प्रा० व्या० ८/१/५२, ५३, ५४, ५५, ५६ । ३. हे० प्रा० व्या० ८ १५७, ५८, ५६, ६० । ४. सं० संस्कृत भाषा ।
पालि सेय्या
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________________
पन
( १६ )
'अ' को 'ओ' नमस्कार
नमोक्कार परस्पर
परोप्पर
पोम्म अर्पयति
ओप्पेह, अप्पेह स्वपिति
सोवइ, सुवह अर्पित
श्रोप्पि, अप्पित्र 'अ' को 'अई'२ विषमय
विसमइत्र सुखमय
सुहमइथ 'अ' को 'आइ3 पुनः पुणाइ, पुणा, पुण न पुनः न उणाइ, न उणा, न उस
_ 'अ' का लोप अरगण रगण अरगण अलाबू लाऊ अलाऊ
श्रा का परिवर्तन 'आ' को 'अ
सामग्र सं० श्यामक। मरहट्ट
श्यामाक महाराष्ट्र
१. हे० प्रा० व्या० ८।१।६१, ६२, ६३, ६४ । २. हे० प्रा० व्या० ८५११५०। ३. हे० प्रा० व्या०८१६५। ४. हे० प्रा० व्या०८१६६। ५. हे० प्रा० व्या० ८।१।६७।६६,७०,७१।
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________________
कालक
कुमार
हालिक
प्राकृत
चामर
आचार्य
निशाकर
खल्वाट
स्त्यान
व', वा
वा
जह,
यथा
तह,
तथा
अहव, अहवा
अथवा
( पालि भाषा में भी 'श्री' को '' होता है। देखिये - पा० प्र० पृ० ५२ - श्रा
)
श्रार्द्र
स्तावक
सास्ना
२० )
कला,
काला
कुमर, कुमार सं० कुमर हलिन, हालिश्र
'आ' को 'ई'
पयय, पायय
चमर, चामर सं० चमर
'आ' को 'इ' '
'आ' को 'उ'
२
जहा
श्रयरि
श्रइरिश्र निसिचर, निसार
तहा
उल्ल
थुवा
सुराहा
खल्लीड
ठीण, थी
१. हे० प्रा० व्या० ८/१/७२,७३ । २. दे० प्रा० व्या० ८ | ११७४ |
३. हे० प्रा० व्या० ८ १७५८२ |
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________________
श्रार्या
श्रसार
( २१ )
'आ' को 'ऊ' "
ग्राह्य
पारापत
द्वार
असहाय्य
पुराकर्म
श्राद्र
'थ' को 'ए' २
अज्जू
ऊसार, श्रासार
मात्र
( पालि भाषा में भी 'आ' को 'ए' होता है । देखिये - पा० प्र०
पृ० ५३ - =ए )
गेज्झ
पारेवा, पाराव
देर, दार
श्रसहेज्ज, असहज्ज
पुरेकम्म, पुराकम्म
मेत्त
'आ' को 'ओ' "
इति
तित्तिरि
पथिन्
श्रोल्ल, अल्ल
इका परिवर्तन
'इ' को 'अ'४
इ
तित्तिर सं० तित्तिर
पह
१. हे० प्रा० व्या० ८ । १/७६, ७७ । २. हे० प्रा० व्या० ८ १७८ .७६, ८०, ८१ । ३. हे० प्रा० व्या० ८१ ८२ ८३ । ४. हे० प्रा० व्या० ८ ११६१, ८८, ८६, ६० ।
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________________
।( २२ ) हरिद्रा
हलद्दा
अंगुश्र, इङ्गुन शिथिल
सढिल, सिढिल . (पालि भाषा में भी 'इ' को 'अ' होता है। देखिये-पालि प्र. पृ. ५३-इ-अ)
'इ' को 'ई" जिहा जीहा (अवेस्ता भाषा में हिज्वा) सिंह
सीह निस्सरति नीसरह, निस्सरह
'इ' को 'न'२ दि दु
उच्छु, इक्खु
नु, णु युधिष्ठिर जहुहिल, जहिहिल द्वितीय दुइल, बिह
द्विगुण . दुउण, बिउण (पालि भाषा में भी 'इ' को 'उ' होता है। देखिये-पा० प्र. पृ. ५३-इ = तथा पृष्ठ ३२ टिप्पण) __'इ' को 'ए'3
. मिरा
केसुश्र, किसुत्र
इक्षु
मेरा
किंशुक
१. हे० प्रा० व्या० ८।१४६२।६३। २. हे० प्रा० व्या०८।१।१४, ६५, ६६ । ३. हे० प्रा० व्या० ८.१८७,८६ ।
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________________
( २३ ) (पालि भाषा में भी 'इ' को 'ए' होता है। देखिये-पा०प्र० पृ० ५३- ए)
'ई' को 'श्रो" द्विवचन
दोवयण विधा
दोहा, दुहा निझर
प्रोन्झर, निझर (पालि भाषा में भी 'इ' को 'श्रो' होता है। देखिये-पा० प्र० पृ. ५३-इ = श्रो)
ई का परिवर्तन
'ई' को 'अ'२
हरीतकी हरडई (पालि हरीटकी) (पालि भाषा में 'ई' को 'अ' होता है। देखिये-पा० प्र० पृ. ५३- श्र)
___ 'ई' को 'आ'3 कश्मीर कम्हार
ई' को 'इ' द्वितीय गभीर
गहिर वीडित विलिश्र
पानीय पाणि, पाणी १. हे० प्रा० व्या० ८।१।६७,६४, ६८। * यहाँ 'न' सहित इ को 'ओ' समझना चाहिये । २. हे० प्रा० व्या० ८1१६६ । ३. हे० प्रा० व्या० ८।१।१००। ४. हे० प्रा० व्या०८।१।१०१ ।
दुइय
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________________
ॐ
जीर्ण
तीर्थ
हीन
विहीन
( २४ )
जीवति
उपनीत
मुकुट
उपरि
'ई' को 'उ'" जुराण, जिराण
'ई' को 'ऊ' "
बिभीतक
पीयूष
नीड
'ई' को 'ए'
जिवर, जीवह उवणिश्र, उवणीश्र
गुडूची
युधिष्ठिर
तूह, तित्थ
हू, हीरण सं० हूण विहूण, विहीण
3
बहेड
पेऊस सं० पेयूष नेड, नोड
उ का परिवर्तन
'उ' को 'अ ' ४
गलोई
जहुट्ठिल
मउड सं० मकुर
वरिं,
उवरिं
गुरुक
गरु, गुरु
( पालि भाषा में 'उ' को 'अ' होता है। देखिये - पा० प्र० पृ० ५३ - उ = - मुकुल - मकुल )
१. हे० प्रा० व्या० ८|१|१०२ । २. हे० प्रा० व्या० ८|१|१०३, १०४ । ३. हे० प्रा० व्या० ८|१|१०५, १०६ । ४. हे० प्रा० व्या० ८|१| १०७, १०८, १०६।
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________________
( २५ )
'उ' को 'इ" पुरुष
पुरिस यास्फ-पुरिशय भ्रुकुटि मिउडि (पालि भाषा में 'उ' को 'इ' होता है। देखिये-पा० प्र० पृ० ५४-उ-इ)
'उ' को 'ई'२ तुन
छी 'उ' को 'अ'3 मुसल
मूसल
सूहव, सुहना 'उ' को 'नो'४ कुतूहल
कोउहल, कुऊहल (पालि भाषा में भी 'उ' को 'श्रो' होता है। देखिये-पा० प्र० पृ० ५४-उ = श्रो)
सुभग
ऊ का परिवर्तन
'अ' को 'अ'
दुकूल दुअल्ल, दुऊल (पालि भाषा में भी 'अ' को 'अ' होता है। देखिये-पा० प्र० ७५५-ऊ-श्र)
१. हे० प्रा० व्या० ८।११०, ११। २. हे० प्रा० व्या० ८११११२। ३. हे० प्रा० व्या०८।११११३, ११५। ४. हे० प्रा० व्या० ८।१।११७। ५. हे० प्रा० व्या० ८।१।११८, ११६ ।
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उड्यूट
भ्रू
हनूमत्
+ कण्डूया
( २६ )
'ऊ' को 'ई' "
उब्वीट,
'ऊ' को 'उ'
कुतूहल
मधूक
नूपुर
कूर्पर
गुडूची
तूण
स्थूणा
उब्बूढ
'ऊ' को 'ए'
भु
हुमन्त
कंडुया
कोउहल, कोऊहल
महुश्र, महू सं० मधुक
नेउर, नूउर
'ऊ' को 'ओ' "
कोप्पर
गलोई
तोण,
थोणा,
( पालि कप्पर )
(पालि गोलोची )
तूण
थूणा
( पालि भाषा में भी 'ऊ' को 'श्री' होता है । देखिये - प्रा० प्र० पृ० ५५- ऊ =श्रो )
१. हे० प्रा० व्या० ८|१|१२० | २. हे० प्रा० व्या०८।१।१२१, १२२/ + यहाँ 'कण्डूय' धातु भी समझना चाहिए । ३. हे० प्रा० व्या० ८|१|१२३ | ४. हे० प्रा० व्या० ८।१।१२४,१२५ ।
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( २७ ) ऋ का परिवर्तन 'ऋ' को 'श्रा"
कासा, किसा माउक्क, मउचण
कृशा
मृदुत्व
'ऋ' को 'इ'२ उत्कृष्ट
उक्किह ऋषि
इसि ऋद्धि
इदि शृगाल
सिनाल हृदय
हिश्रय धृष्ट
घिद्य, घट्ट पृष्ठि
पिडि, पहि बृहस्पति बिहप्फह, बहप्फह मातृष्वसु माइसिश्रा, माउसिश्रा मृगांक
मियंक, मयंक (पालि भाषा में भी 'अ' को 'ई' होता है। देखिये-पा० प्र. पृ०-२, -ह )
पैशाची भाषा में हृदय के बदले हितप रूप बनता है। हृदयहितप । हृदयक, हितपक ।
१. हे० प्रा० व्या०८१११२७। २. हे० प्रा० व्या०८/१११२८, १२६, १३०। ३. हे० प्रा० व्या०८४३१०॥
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( २८ ) 'ऋ' को 'उ"
भ्रातृ
भाउ वृद्ध
वुड्ढ वृदि
वुढि पितृ
पिउ पृथिवी
पुहई मृषा
मुसा, मोसा वृषभ
उसह, वसह बृहस्पति बुहप्फइ, बहप्फा ( पालि भाषा में भी 'ऋ' को 'उ' होता है। देखिये-पा० प्र० पृ०-२, ऋ-3)
'ऋ' को '२ मृषा मूसा, मुसा
'ऋ' को 'ए'3
वृन्त वेंट, विट. (पालि भाषा में भी 'ऋ' को 'ए' होता है। देखिये-पा० प्र० पृ०-३, ऋए)
'ऋ' को 'ओ'४ मृपा
मोसा, मुसा
वोट, विंट १. हे० प्रा० व्या०८१११३१, १३२, १३३, १३५, १३६, १३७, १३८/२. हे० प्रा० व्या०८।१।१३६। ३. हे० प्रा० व्या० ८।१११३६। . ४. हे० प्रा० व्या०८१११३६, १३६ ।
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________________
८.
९.
हस
(
२६ )
'ऋ' को अरि"
श्राहत
वेदना
देवर
'ह' को 'ढि
२
दरिश्र
एका परिवर्तन
'ए' को 'इ'
'ए' को 'ऊ'४
स्तेन
थूण, थे
( पालि भाषा में किसी-किसी शब्द में 'ए' को 'श्री' होता है । द्वेष- दोस, देखिये - पा० प्र० पृ० ५५ - ए = श्रो )
उच्चैस् चै
*श्रादिश्र
१. हे० प्रा० व्या० ८ | १|१४४ । * श्रादृत शब्द के रूप का विकास तरह से होना चाहिए ? ( ? ) ४. हे० प्रा० व्या० ८ | १|१४७ |
विश्ररणा
दिर
ऐ का परिवर्तन
'ऐ' को 'अ"
उच्चन
नीच
२. हे० प्रा० व्या० ८|१|१४३ । श्ररिश्र श्राश्रि आदि इस २. हे० प्रा० व्या० ८|१|१४६ | ५. हे० प्रा० व्या० ८|१|१५४ |
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________________
( ३० )
'ऐ' को 'इ' शनैश्चर
सणिन्छर - सैन्धव
सिंघव सैन्य
सिन्न, सेन्न (पालि भाषा में 'ऐ' को 'इ' होता है। देखिये-पा०प्र० पृ.
'ऐ' को ई२ धैर्य धीर
चैत्यवन्दन चीवंदण, चेइयवंदरा (पालि भाषा में भी 'ऐ' को 'ई' होता है। देखिये-पा. प्र. पृ. ४-ऐ-ई)
'ऐ' को 'आई' चैत्र
चहत्त, चेत्त वैशम्पायन वइसंपायण, वेसंपायण कैलास कइलास, केलास वैर
वहर, वेर दइव्व, देव
ओ का परिवर्तन
'श्री' को भर अन्योन्य
अन्नन्न, अन्नुन्न १. हे० प्रा० न्या०८।१।१४६,१५०। २. हे. प्रा. व्या ८११५५ । ३. हे० प्रा० व्या० ८५११५१, १५२, १५३।४. हे. प्रा० व्या० ८१२१५६।
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अातोद्य
प्रावज, प्राउज मनोहर
मणहर, मणोहर
'ओ' को ' " सोच्छवास सूसास 'ओ' को 'अउ, श्राम
गउन गउ गाश्र, गाई (मादा जाति)
पउर
औ का परिवर्तन 'औ' को 'भ' पौर मौन
मउण गौरव गौड
गउड
कउरव 'श्री' को 'आ४
गारव, गउरव
गउरव
कौरव
गौरव
१. हे० प्रा० व्या०८/१११५७। २. हे० प्रा० व्या० ८।२।१५८ ३. हे० प्रा० व्या० ८।१।१६२। ४. हे० प्रा० व्या० ८।१।१६।
(पालि भाषा में 'श्री' को 'श्रा' होता है। देखिये-पा०प्र० पृ. ५- औ=श्रा; कहीं-कहीं 'श्री' को 'अ' भी हो जाता है। देखियेपा० प्र० पृ. ५-टिप्पण)
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( ३२ )
'औ' को 'उ'' शौद्धोदनि सुद्धोअणि सौवर्णिक सुवरिणश्र दौवारिक
दुवारिश्र सौन्दर्य
सुन्देर कौक्षेयक कुच्छेअय, कोच्छेप्रय (पालि भाषा में 'श्रौं' को 'उ' होता है। देखो-पा० प्र० पृ० ५-औ= उ)
'औ' को 'श्राव'२ नौ
नावा गौ
गावी -:*:
व्यञ्जन का परिवर्तन अन्त्य व्यञ्जन और दो स्वरों के बीच में रहनेवाले (संयुक्त) व्यञ्जन का सामान्य परिवर्तन ।
लोप
(क) शब्द के अन्तिम व्यञ्जन का लोप हो जाता है । तमस्
तम सं० तम तावत्
ताव अन्तर्गत
अन्तग्गय पुनर्
पुण अन्तर-उपरि
अन्तोवरि (पालि भाषा में भी शब्द के अन्तिम व्यञ्जन का लोप हो जाता है: विद्युत्-विज्जु । देखिये-पा० प्र० पृ० ६, नियम ७)
१. हे० प्रा० व्या० ८१।१६०, १६१। २. हे० प्रा० न्या. ८१११६४। ३. हे० प्रा० व्या०८।१।११॥
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________________
( ३३)
( ख ) दो स्वरों के मध्य में आए हुए क, ग, च, ज, त, द, प, ब, य श्रौर व का लोप होता है ' ।
सं०
लोक
प्रा०
लोअ
नगर
शची
गज
रसातल
प्रा०
मयण
नयर
रिउ
सई
विउह
गश्र
विश्रोग
रसायल
वलयाणल
लोप करते समय जहाँ अर्थ भ्रान्ति की सम्भावना हो वहाँ लोप नहीं करना चाहिए। जैसे :- सुकुसुम, प्रयाग, सुगत, सचाप, विजय, सुतार, विदुर, साप, समवाय, देव, दानव श्रादि ।
सं०
मदन
रिपु
विबुध
वियोग
वडवानल
पालि, शौरसेनी मागधी, पैशाची, चूलिका-पैशाची और अपभ्रंश भाषाओं में यह नियम सार्वत्रिक नहीं - सापवाद है । इसे यथास्थान सूचित करेंगे ।
( ख ) के अपवाद
उपर्युक्त लोप का नियम, तथा इस प्रकरण में आनेवाले नियम और जहाँ कोई विशेष विधान सूचित न किया गया हो ऐसे दूसरे भी सामान्य और विशेष नियम पैशाची भाषा में नहीं लगते २ ।
R
पैशाची
मकरकेतु
प्राकृत
मयरकेउ
सगरपुत्तवचन
सयरपुत्तवयण
विजयसेन
विजय से
लपित
लवि
१. हे० प्रा० व्या० ८ १/२७७ । २. हे० प्रा० व्या० ८|४| ३२४ |
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पाप
पाव
श्रायुध
श्राउह आदि
शौरसेनी में दो स्वरों के मध्य में स्थित 'त' को 'द' होता है।
शौरसेनी
कधिद
तदो
पदिखा
मंतिद
संस्कृत
कथित
ततः
प्रतिज्ञा
मन्त्रित
( ३४ )
संस्कृत
जनपद
जानाति
गर्जित
श्रापवादिक नियमों को छोड़ शौरसेनी में जिन परिवर्तनों के नियम बताए गए हैं वे सब मागधी, पैशाची, चूलिका-पैशाची और अपभ्रंश भाषा में भी समझने चाहिए
२
प्राकृत
।
कहि
तों
पड़ण्णा
मंति
( पालि भाषा में भी 'त' को 'द' होता है। देखिये -- पा० प्र० पृ० ५६-त = द )
मागधी भाषा में 'ज' को 'य' होता है । 3
मागधी
यणवद
यादि
गय्यिद
प्राकृत
जणवा
जाणइ
गजिश्र
( पालि भाषा में भी 'ज' को 'य' होता है। देखिये - पा० प्र० पृ० ५७-ज = य )
१. हे० प्रा० व्या० ८|४| २६० । २. हे० प्रा० व्या० ८|४| ३०२, ३२३, ४४६ । ३. हे० प्रा० व्या० ८|४| २६ २२
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( ३५ )
पैशाची भाषा में और चूलिका - पैशाची भाषा में 'त' कायम रहता है तथा 'द' को भी 'त' हो जाता है' ।
सं०
भगवती
मदन
कन्दर्प
दामोदर
( पालि भाषा में 'द' को 'त' होता है | देखिये -- पा० प्र० पृ०
६०–द=त )
नगर
नाग
जीमूत
पै० - चू० पै०
भगवती
मतन
कंतप्प
तामोतर
चूलिका-पैशाची भाषा में 'ग' को 'क', 'ज' को 'च', और 'ब' को 'प' होता है ।
२
सं०
पै०
गिरितट, गिरितट
नगर
नाग
जीमूत
जज्जर
राजा
जर्जर
राजा
बालक
बर्बर
बालक
बब्बर
बंधव
चू०
पै०
प्रा०
भगवई
मयण
कंदप
दामोर
किरितट
नकर
नाक
चीमूत
चच्चर
राचा
पालक
पप्पर
पंथव
प्रा०
गिरितड
नगर, नयर
नाग,
नाय
जीमू
जज्जर
राया
बाला
बब्बर
बंधव
बान्धव
कुछ वैयाकरण मानते हैं
कि चूलिका-पैशाची भाषा में आदि में
१. हे० प्रा० व्या० ८ ४ | ३०७, ३२५ | २. हे० प्रा० व्या० ८|४| ३२५ |
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किरि
( ३६ ) आए हुए वर्गीय तृतीय व्यंजन का प्रथम व्यंजन और चतुर्थ व्यंजन का द्वितीय व्यंजन नहीं होता तथा युज् धातु के 'ज' को भी 'च' नहीं होता। सं० पै० चू० पै० हेमचन्द्र चू० पै० प्रा० गति गति गति कति
गह गिरि . गिरि गिरि
गिरि जीमूत जीमूत जीमूत चीमूत
जीमूत्र ढक्का ढक्का ढका
ढक्का बालक बालक बालक पालक
बालन नियोजित नियोजित नियोजित नियोचित नियोजिश्र
(पालि भाषा में 'ग' को 'क' तथा 'ज' को 'च' होता है। देखिये-पा० प्र० पृ० ५५,५७-गक तथा ज= च ) अपभ्रंश भाषा में किसी-किसी प्रयोग में 'क' को 'ग' होता है ।२
संस्कृत अपभ्रंश प्राकृत विक्षोभकर विच्छोहगर विच्छोहयर
ठक्का
अन्तिम व्यञ्जन को अ कुछ शब्दों में अन्त्य-उपञ्जन को 'अ' होता है । सं०
प्रा०
सरश्र भिषक
मिसन (पालि भिसक्क) १. हे० प्रा० व्या०८।४।३२७। २. हे० प्रा० व्या० ८।४।३६६। ३. हे० प्रा० व्या०८/१।१८।
शरत्
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। सं०
यर
पायाल
गया
प्रजा
( ३७ )
मध्यम व्यञ्जन को य जिसके पूर्व में और अन्त में 'अ' तथा 'या' हो ऐसे 'क','ग','च','ज' आदि के' लोप हो जाने पर शेष बचे 'अ' को 'य' और 'श्रा' को 'या' होता है। जैसे :सं० प्रा०
प्रा० तीर्थकर
पाताल नगर नयर
गदा कचग्रह कयग्गह नयन
नयण पया
। लावण्य लायएण (पालि भाषा में 'क' और 'ज' को भी 'य' होता है । देखिएपा० प्र० पृ० ५६, ५७-क = य, तथा ज = य ) ४. दो स्वरों के बीच में श्राए हुए 'ख', 'घ', 'थ', 'ध' तथा 'भ' को 'ह' होता है। जैसे :मुख-मुह, मेघ-मेह, कथा-कहा, साधु-साहु, सभा-सहा।
अपवाद शौरसेनी भाषा में 'थ' को 'ह' होता है और कहीं 'ध' भी होता है तथा 'ह' को कहीं 'ध' होता है।४।
शौ०
प्रा० नाध, नाह नाह राजपथ
राजपध, राजपह राजपह
सं०
नाथ
( पालि भाषा में 'घ', 'ध' और 'भ' को 'ह' होता है। देखियेपा० प्र० पृ० ५६-घःह, पृ० ६०-ध-ह, पृ० ६२-भह)
१. देखिए-पृ० ३३ लोप (ख)। २. हे० प्रा० व्या०८११८० ३. हे० प्रा० व्या०८/११८७। ४. हे० प्रा० व्या०८/४/२६७ तथा २६८
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________________
( ३८ )
चूलिका - पैशाची भाषा में 'घ' को 'ख', 'झ' को 'छ', 'ड' को 'ट', 'ढ' को 'ठ', 'ध' को 'थ' और 'भ' को 'फ' होता है । '
पै०
सं०
धर्म
मेघ
व्याघ्र
भर्भर
निर्भर
प्रतिमा
तडाग
मण्डल
डमरुक
गाढ
षण्ढ
ढक्का
मधुर
धूलि
बान्धव
रभस
रम्भा
भगवती
ão
चू०
खम्म
मेख
वक्ख
छच्छर
निच्छर
पटिमा
तटाक
मंटल
टमरुक
काठ
संठ
ठक्का
मथुर
थूलि
पंथव
रफस
रम्फा
फकवती
घम्म
मेघ
वग्घ
झज्झर
निज्झर
पतिमा
तडाग
मंडल
डमरुक
गाढ
संद
ढक्का
मधुर
धूलि
बंधव
रभस
रंभा
भगवती
प्रा०
घम्म
मेह
वग्घ
झज्झर
निज्झर, प्रोज्झर
पडिमा
तडाय
मंडल
डमरुश्र
गाढ
संढ
ढक्का
महुर
धूलि
बंधव
( पालि भाषा में 'ब' को 'प' होता है। देखिए -- पा० प्र० पृ० ६२ - ब = प )
१. हे० प्रा० व्या० ८| ४ | ३२५ | २. 'तटाक' शब्द संस्कृत में भी है।
रहस
रंभा
भगवई
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कटक
का
( ३६ ५. दो स्वरों के बीच में पाए हुए 'ट' को 'ड' होता है।
घट-घड, घटते-घडइ, नट-नड, भट-भड ।
(पालि भाषा में 'ट' को 'ड' होता है। देखिए-पा० प्र० पृ. ५८-ट= ड) पैशाची भाषा में 'टु' को 'तु' भी होता है।
सं० पै० प्रा० कुटुम्ब कुतुंब, कुटुंब कुटुंब
कतुत्र, कटुक कडुप पटु पतु, पटु पड्डु ६. दो स्वरों के बीच में श्राए हुए 'ठ' को 'ढ' होता है।
मठ-मढ, कुठार-कुढार, पठति-पढइ । ७. दो स्वरों के बीच में अाए हुए 'ड' को 'ल' होता है।
तडाग-तलाय, गरुड-गरुल, क्रीडति-कीलइ । .. (पालि भाषा में भी 'ड' को 'ळ' होता है और 'ण' को 'न' होता है। देखिए-क्रमशः पा० प्र० पृ० ४३--ड =ळ ; पा० प्र० पृ० ५८-ण = न ) ८. दो स्वरों के बीच में श्राए हुए 'न' को 'ण' नित्य तथा शब्द
के आदि में रहे 'न' को 'ण' विकल्प से होता है।
१. हे० प्रा० व्या०८।१।१६५ । २. हे० प्रा० व्या०८४३११ । ३. हे० प्रा० व्या० ८१११६६ । ४. हे० प्रा० व्या०८२२०२। ५. हे० प्रा० व्या०८।१।२२८, २२६ ।
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________________
( ४० ) सं० प्रा०
सं० प्रा० कनक
कराय . नदी गई, नई वचन वयण
नर णर, नर वदन वयण । नयति णेइ, नेइ
(पालि भाषा में 'ण' को 'न' होता है। देखिए-पा० प्र० "पृ० ६१-न = ण)
पैशाची भाषा में 'ण' को 'न' होता है'। सं० पै० प्रा०
गुण गण गन
गण ___'अ' तथा 'श्रा' के बाद आनेवाले 'प' को२ 'व' ही
होता है। कपिल-कविल, कपाल-कवाल, तपति-तवइ ।
ताप-ताव, पाप-पाव, शाप-साव १०. दो स्वरों के बीच में आए हुए 'प' को 'व' होता है। उपसर्ग-उवसग्ग, उपमा-उवमा, गोपति-गोवइ, प्रदीप-पईंव,
महिपाल-महिवाल । (पालि भाषा में 'प' को 'व' होता है। देखिए-पा० प्र० पृ. ६१, पव)
अपभ्रंश भाषा में 'प' को 'ब' भी होता है।
१. हे० प्रा० व्या०८४/३०६ । २. हे० प्रा० व्या०८११७६ । ३. पृ०३३-लोप (ख) का अपवाद है। ४. हे० प्रा० व्या० वारा२३१ । ५. हे० प्रा० व्या० ८।४।३६६ ।
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________________
सं०
शपथ
प्राο
सबध-सवध
सवह
११.
प्राकृत और अपभ्रंश भाषा में दो स्वरों के बीच में आए हुए 'फ' को 'भ' अथवा 'ह' होता है । '
रेफ-रेभ, रेह | शिफा - सिभा, सिहा । मुक्ताफल-मुत्ताहल । 'मुत्ताभल' नहीं होता है । शफरी-सभरी, सहरी । सफल - सभल, सहल । श्रप० सभला ।
१२.
( ४१ )
अप०
दो स्वरों के मध्य में आए हुए 'ब' को 'व' होता है। * शबल-सवल, अलाबू - श्रलावू (पालि अलापू )
( पालि भाषा में भी 'ब' को 'व' होता है । देखिए - पा० प्र०
कमल
भ्रमर
यथा
पृ० ६२, ब = व )
अपभ्रंश भाषा में दो स्वरों के बीच में श्राए हुए 'म' को विकल्प से 'व' होता है । 3
सं०
कुमर
तथा
अप०
कवल,
भवर, भमर
जिव, जिम
कमल
कुवँर, कुमर तिवँ, तिम
प्रा०
कमल
भमर
१३.
शब्द के श्रादि में 'य' को 'ज' होता है। यज्ञ - जन्न, यशस् - जसो, याति- जाइ । यम-जम, यथा- जहा ।
जह, जहा
कुमर
तह, तहा
१. हे० प्रा० व्या० ८|१|२३६ | तथा ८४३६६ । २. हे० प्रा० व्या० ८|१| २३७ | ३. हे० प्रा० व्या० ८|४ | ३६७ | ४. हे० प्रा० व्या० ८११२४५
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जाण
प्रा०
कल
( ४२ ) (पालि भाषा में भी 'य' को 'ज' होता है। गवय = गवज देखिए-पा० प्र० पृ० ६२) मागधी भाषा में शब्द के श्रादि 'य' का 'य' ही रहता है।'
सं० मा० प्रा० याति यादि जाइ यथा यधा जहा
यान याण मागधी भाषा में 'र' के स्थान में 'ल' होता है । सं० . मागधी
कर विचार विश्राल
विश्रार नर नल
नर चूलिका-पैशाची में 'र' के स्थान में विकल्प से 'ल' होता है।
सं० चू० पै० प्रा०
हर हल, हर हर पैशाची भाषा में 'ल' के स्थान में 'ळ' होता है।
सं० पै० प्रा० कमल कमळ कमल कुल कुळ कुल
शील . सीळ सील १. हे० प्रा० व्या०८४२६२। २. हे० प्रा० व्या०८४२८८ । ३. हे० प्रा० व्या०८४३२६ । ४. हे० प्रा० व्या० ८।४।३०८ ।
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________________
वैदिक भाषा में 'ड' के स्थान में 'ळ' हो जाता है ।
"अग्निमीळे पुरोहितम्" भूग्वेद का प्रारम्भिक छन्द । (पालि भाषा में भी 'ड' को 'ल' हो जाता है। देखिए--पा० प्र० पृ० ४३, ड = ळ) १४. मागधी भाषा को छोड़कर सभी प्राकृत भाषाओं में 'श'
' तथा 'ष' के स्थान में 'स' होता है । कुश-कुस। दश-दस। विशति-विसह। शब्द-सद्द । शोभा-सोहा । कषाय-कसाय । घोष-घोस । निकष-निकस । पण्ड-संड । पौष-पोस । विशेष-विसेस । शेष-सेस । निःशेष-नीसेस ।
मागधी भाषा में 'श', 'ष' तथा 'स' के स्थान में केवल 'श' ही बोला जाता है।
मा० शोभन शोभण
सोहण । श्रुत शुद
सुत्र। सारस
शालश सारस । हंश
हंस ।
पुलिश पुरिस । यदि अनुस्वार से परे 'ह' आया हो तो उसके स्थान में
'घ' भी हो जाता है। सिंह सिंघ, सीह । संहार संघार, संहार । १६ (अपवादनियम को छोड़कर सामान्य प्राकृत में बताए सभी
नियम शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका-पैशाची अोर अप
सं०
प्रा०
पुरुष
१. हे० प्रा० व्या०८/१२६० तथा ८४३०६ । २. हे० प्रा० व्या०८/४/२८८, ३. हे० प्रा० व्या०८।१।२६४ ।
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( ४४ ) भ्रंश भाषा में भी लागू होते हैं । जैसे:-१४ वाँ नियम शौरसेनी, पैशाची, चूलिका-पैशाची और अपभ्रंश में भी लागू होता है।)
शब्द के बीच में स्थित असंयुक्त व्यञ्जन के विशेष परिवर्तन।
'क' का परिवर्तन क' को ख' कर्पर-खप्पर । कील-खील । कीलक-खील
कुब्ज-खुज्ज (खुज्ज-कुबडा)। 'क' को 'ग' अमुक-अमुग । असुक-असुग। आकर्ष-श्रागरिस ।
श्राकार-श्रागार । उपासक-उवासग। एक-एग। एकत्व-एगत्त । कन्दुक-गेन्दुश। सं० गेन्दुक । तीर्थकर-तित्थगर । दुक्ल-दुगुल्ल । मदकल-मयगल ।
मरकत-मरगय । श्रावक-सावग । लोक-लोग। 'क' को 'च' किरात-चिला ( चिलाश्र याने भील )। 'क' को 'भ' शीकर-सीभर, सीबर। .
को 'म' चन्द्रिका-चन्दिमा। सं० चन्द्रिमा । 'क' को 'व' प्रकोष्ठ-पवह, पउह। 'क' को 'ह' चिकुर-चिहुर । सं० चिहुर । निकष-निहस ।
स्फटिक--फलिह । शीकर-सीहर, सीअर । (पालि भाषा में 'क' को 'ख' तथा 'ग' होता है । देखिए-पा० प्र० पृ०५५, कख तथा क-ग)
*जहाँ परिवर्तन का विशेष नियम लागू होता है वहाँ परिवर्तन का सामान्य नियम नहीं लगता ऐसी बात नहीं है। जैसे :-तीर्थकरतित्थयर । लोक-लोभ श्रादि । देखिए-पृ० ३३, सामान्य नियम १. (ख ) तथा पृ० ३७, ३ । १. हे० प्रा० व्या० ८।१।१८१, १८२, १८३, १८४, १८५, १८६ ।
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"ख' का परिवर्तन 'ख' को क शृङ्खला-संकला। शृङ्खल-संकल
___ "ग' का परिवर्तन 'ग' को 'म' भागिनी-भामिणी। सं० भामिनी। पुंनाग-नाम । 'ग' को 'ल' छाग-छाल । सं० छगल । छागी-छाली । 'ग' को 'व' सुभग-सूहव, सुहश्र। दुर्भग-दूहव, दुहन ।
3'च' का परिवर्तन 'च' को 'ज' पिशाची-पिसाजी, पिसाई । 'च' को 'ट' आकुञ्जन-अाउंटण तथा अाउण्टण । 'च' को ल्ल
पिशाच-पिसल्ल, पिसाब। 'च' को 'स'. खचित-खसि, खइन ।' ५. ४'ज' का परिवर्तन ___ 'ज' को 'म' जटिल-झडिल, जडिल । ६.
"ट' का परिवर्तन ___'ट' को 'ढ' कैटभ-केढव । सकट-सयढ । सटा-सढा । 'ट' को 'ल' स्फटिक-कलिहा। चपेटा-चविला, चविडा।
+पाटयति-फालेइ, फाडेइ
१. हे० प्रा० व्या० ८११८६ । २. हे० प्रा० व्या०८।१।१६०, १९१,१६२ । ३. हे० प्रा० व्या० ८।१११६३ । तथा हे० प्रा० व्या० ८।१।१७७ वृत्ति । ४. हे० प्रा० व्या० ८।१।१६४ । ५. हे० प्रा० ब्या. ८१।१६६, १६७, १९८ । देखो पृ० ४४-'क' का परिवर्तन ।+यहाँ पाट धातु समझना चाहिए। अतः इस धातु के सभी रूपों में यह नियम लागू होता है।
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(पालि भाषा में 'ट' को 'ल' तथा 'ळ' दोनों होते हैं। देखिएपालि प्र. पृ० ५८-ट=ल, टळ)
"ठ' का परिवर्तन 3' को 'ल्ल' अङ्कोठ अंकोल्ल 'ठ' को 'ह' पिठर पिहड, पिढर*
"ण' का परिवर्तन 'ण' को ल' वेणु-वेलु, वेणु । वेणुग्गाम-वेलुग्गाम ( बेलगांव )
(पालि भाषा में 'ण' को 'ळ' होता है। देखिए-पा० प्र० पृ. ५८-ण =ळ)
3'त' का परिवर्तन 'च' तुच्छ-चुच्छ, तुच्छ
को 'छ' तुच्छ-छुच्छ, तुच्छ 'त' को 'ट' तगर-टगर
तूबर-टूबर
प्रसर-टसर (पालि भाषा में 'त' को 'ट' होता है । देखिए-पा० प्र० पृ. ५८-तट)
१. हे० प्रा० व्या० ८१।२००, २०१ । * देखिए नियम ६. पृ० ३६ 'ठ' का सामान्य परिवर्तन । २. हे० प्रा० व्या० ८।१।२०३। ३. हे० प्रा० न्या० ८।१।२०४, २०५, २०६, २०७, २०८, २१०, २११, २१२, २१३, २१४, १५६ ।
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( ४७ ) ''को'' पताका-पडाया
प्रति-पडि (पालि पटि ) प्रतिमा-पडिमा प्रतिपत्-पडिवया (पडिवा-तिथि )
प्रतिहार-पडिहार प्रभृति-पहुडि । प्राभृत-पाहुड। बिभीतक–बहेडश्र । मृतक-मड। व्यापृत-वावड। सूत्रकृत-सुत्तगड । श्रुतकृत-सुअगड । हरीतकी-हरडई । अपहृत-अोहड, श्रोहय। अवहृत-अवहड, अवहय । श्राहृत-पाहड, श्राहय । कृत-कड, कय । दुष्कृत-दुक्कड, दुक्कय । मृत-मह, मय । वेतस-वेडिस, वेअस । सुकृत-सुकड, सुकय । हृत-हड, हय । 'त' को 'ण' अतिमुक्तक-श्रणिउतय । गर्मित-गब्भिण । 'त' को 'र' सप्तति-सत्तर। 'त' को 'ल' अतसी-अलसी । सातवाहन-सालाहण । सं० सालवाहन ।
सातवाहनी-सालाहणी । पलित-पलिल, पलिश्र । 'त' को 'व' अातोद्य-श्रावज्ज, अाउज्ज
पीतल-पीवल, पीप्रल 'त' को 'ह' वितस्ति-विहत्यि (पालि भाषा में विदत्थि' होता है । देखिये-पा० प्र० पृ०५६-त-द)
कातर काहल, कायर भरत भरह, भरय मातुलिंग-माहुलिंग, माउलिङ्ग
वसति-वसहि, वसई : जिन शब्दों में 'प्रति' लगा हो उन सभी शब्दों में यह नियम लगता है । जैसे :-प्रतिपत्ति-पडिवत्ति श्रादि ।
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( ४८ )
"थ' का परिवर्तन 'थ' को 'द' प्रथम-पढम । मेथि-मेढि । सं० मेघि । शिथिल
सिढिल । निशीथ-निसीढ, निसीह । पृथिवी- .
पुढवी, पुहवी। (पालि में 'पठवी' होता है । देखिये-पा०प्र० पृ. ५६-५-ठ) 'थ' को 'ध' पृथक्-पिधं, पिहं ।
__ "द' का परिवर्तन 'द' को 'ड' 'दंश्-डंस्। दह-डह् । कदन-कडण, कयण ।
दग्ध-दड्ढ, दड्ढ़ । दण्ड-डंड, दंड । दम्भ-डंभ,
दंभ । दर्भ-डब्भ, दब्भ । दष्ट-डह, दह आदि । (पालि भाषा में 'द' को 'ड' होता है। देखिये-पा० प्र० पृ० ५६-द-ड)
'दित' को 'एण' रुदित-रुण्ण । 'द' को 'ध' 'दीप-धीप, दीप् । '६' को 'र' एकादश-एबारह । द्वादश-बारह ।
त्रयोदश-तेरह । 'कदली-करली ।
गद्गद्-गग्गर । १. हे० प्रा० व्या० ८।१।२१५, २१६, १८८ । २. हे० प्रा० व्या० ८०२१८, २१७, २०६, २२३, २१६, २२०, २२१, २२२, २२४, २२५ । : इस चिह्न वाले शब्द धातु हैं, अतः इन धातुओं के सभी रूपों में यह नियम लगता है। * यहाँ दकार वाले सभी शब्दों को संख्यावाचक समझना चाहिए। जो शब्द संख्यावाचक नहीं है उनको यह नियम नहीं लगता। + यहाँ कदली का अर्थ 'केले का वृक्ष' नहीं है।
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K
१३.
'व' को 'ल'
( पालि भाषा में 'द' को 'ळ' होता है । देखिए - पा० प्र० पृ०
६० - द = ळ )
१४
'द' को 'व'
'द' को 'ह'
१२..
'ध' का परिवर्तन
'घ' को 'ढ' निषध - निसढ । श्रौषध-श्रीसद, श्रीसह ।
'न' को 'ह' 'न' को 'ल'
पृ० ६१ - न ल )
( ४६ )
प्रदीप-पलीव । दोहद - दोहल | कदम्ब-कलंब, कयंब; सं० कलम्ब ।
( पालि भाषा में
'प' को 'फ'
कदर्थित - कवट्टि |
ककुद - कउह |
'न' का परिवर्तन
नापित - हा विश्र, नाविश्र । सं० स्नापक | निम्ब - लिंब, निंब ।
'न' को 'ल' होता है । देखिए – पा० प्र०
'प' का परिवर्तन
पनस - फणस । सं० फनस तथा दास ।
÷पाटू (धातु) फाड् ।
पाटयति- फाडे |
पाटयित्वा - फाडेऊण ।
परुस - फदस । परिखा-फलिहा |
१. हे० प्रा० व्या० ८।१।२२६, २२७ । २. हे० प्रा० व्या० ८|१|२३० । ३. हे० प्रा० व्या० २३२, २३३, २३४, २३५
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१५.
(पालि भाषा में भी 'प' को 'फ' होता है। देखिए -पा० प्र. पृ० ४०--फ) 'प' को 'म' श्रापीड-श्रामेल, श्रावेड।
नीप-नीम, नीव । 'प' को 'व' प्रभूत-बहुत्त । 'प' को 'र' पापर्द्धि-पारद्धि ।
"ब' का परिवर्तन 'ब' को 'भ' विसिनी-भिसिणी
(पालि भाषा में 'ब' को 'भ' होता है। देखिए-पा० प्र० पृ० ६२-ब-भ) ___ 'ब' को 'म' कबन्ध-कमंध, कयंध ।
२'भा का परिवर्तन 'भ' को 'व' कैटभ-केढव ।
3'म' का परिवर्तन 'म' को 'ढ' विषम-विसढ, विसम । 'म' को 'व' मन्मथ-वम्मह ।
अभिमन्यु-अहिवन्नु, अहिमन्नु । 'म' को 'स' भ्रमर-भसल, भमर ; सं० भसल । 'म' को 'अनुनासिक' अतिमुक्तक-अणिउतय ।
कामुक-काउँथ। १. हे० प्रा० व्या० ८११२३८, २३६ । २. हे० प्रा० व्या० ८।११२४० । ३. हे० प्रा० व्या ८१ २४१, २४२, २४३, २४४,१७८ ।
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१८.
चामुण्डा-चाउँडा। यमुना-जउँणा।
य' का परिवर्तन 'य' को 'माह' कतिपय-कइवाह । - (पलि भाषा में 'कतिपयाह' शब्द का 'कतिपाह' रूप बनता है। देखिए-पा० प्र० पृ० ६२-नियम-६४) 'थ' को 'ज' उत्तरोय-उत्तरिज, उत्तरी ।
तृतीय-तइज, तइन। द्वितीय-बिइज, बीअ। करणीय-करणिज, करणी।
पेया-पेजा, पेत्रा। 'य' को 'त' युष्मद्-तुम्ह ।
युष्मदीय-तुम्हकेर।
युष्मादृश-तुम्हारिस । 'य' को 'र' स्नायु-एहारु ।
(पालिभाषा में भी 'य' को 'र' होता है। देखिए-पा० प्र० पृ० ४७-टिप्पण-स्नायु-सिनेरु)
'य' को 'ल' यष्टि-लहि ।
(पालिभाषा में भी 'य' को 'ल' होता है। देखिए-पा० प्र. पृ० ६३-५-ल)
'य' को 'व' कतिपय-कइअव ।
(पालिभाषा में '५' को 'व' होता है। देखिए-पा० प्र० पृ० ६३-य-व)
१. हे० प्रा० व्या० ८।१।२५०, २४८, २४६, २४७, २४६ ।
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( ५२ ) 'य' को 'ह' छाया-छाही, छाया (काही = वृक्ष की छाया ।
छाया = वृक्ष की छाया तथा शरीर की कान्ति)।
'का परिवर्तन 'र' को 'ई' किरि-किडि ; सं० किटि ।
पिढर-पिहड, पिढर।
मेर-मेड; सं० भीरु। 'र' को 'डा' पर्याण-पडायाण, पल्लाण ; सं० पल्ययन । 'र' को 'ण' करवीर-कणवीर ; सं० कणवीर । 'र' को 'ल' अङ्गार-इंगाल ।
करुण-कलुण। चरण-चलण । दरिद्र-दलिद्द । परिघ-फलिह । भ्रमर-भसल, भमर ; सं० भसल । मुखर-मुहल । युधिष्ठिर-जहुहिल । रुग्ण-लुक । वरुण-वलुण । स्थूर-थूल, थोर । हरिद्रा-हलिद्दा इत्यादि । जठर-जढल, जढर।
बठर-बढल, बढर। १. हे० प्रा० व्या० ८।१।२५१, २५२, २५३, २५४, २५५ ।
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( ५३ ) निष्ठुर-निहुल, निडुर।
२'ल' का परिवर्तन ____'ल' को 'ण' ललाट-णलाड, णिलाड (पालि-नलाट)।
लागल-णंगल, लङ्गल (पालि-नांगल)। लाल-णंगूल, लंगूल ।
लाहल-णाहल, लाहल । (पालिभाषा में 'ल' को 'न' होता है। देखिए-पा० प्र० पृ० ६३-ल-न) ___'ल' को 'र' स्थूल-थोर ; सं० स्थूर ।
3'व' का परिवर्तन 'भ' विह्वल-भिन्भल, विब्भल, विहल । '' को 'म' शबर-समर । 'व' को 'म' नीवी-नीमी, नीवी ।
स्वप्न-सिमिण, सुमिण, सिविण ।
४'श' का परिवर्तन 'श' को 'छ' शमी-छमी ।
शाव-छाव १. संस्कृत भाषा में भी 'र' का 'ल' होता है-परिघः-पलिषः । पर्यङ्कः-पल्यङ्कः । कपरिका-कपलिका-सिद्धहेम० सं० व्या० २।३।६६ से २।३।१०४ । २. हे० प्रा० व्या०८/१।२५७, २५६, २५५ । ३. हे० प्रा. व्या० ८।२।५८ । तथा हे० प्रा० व्या०८।२५८, २५६ । ४. हे० प्रा. व्या० ८१।२६५, २६२ ।
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( पालि में ६३ - श = छ )
२३.
२४.
२५.
२६.
'श' को 'ह'
भी 'श' को 'छ' होता है । देखिए - ना० प्र० पृ०
'ष' को 'छ' 'ष' को 'ह'
'ष' को 'ह'
'स' को 'छ'
'स' को 'ह'
( ५४ )
शिरा - किरा, सिरा ( यह शब्द पैशाची भाषा में भी बोला जाता है | )
'ह' को 'र'
प्रत्यूष - पच्चूह, पच्चूस ।
२'स' का परिवर्तन
सप्तपर्ण - छत्तिवण्णो । सुधा-हा । दिवस-दिवह, दिग्रह, दिवस |
'ह' का परिवर्तन
उत्साह - उत्थार, उच्छाह । स्वर सहित व्यञ्जनों का लोप
( यह नियम पैशाची भाषा में भी लगता है । ) 'क' तथा 'का' का लोप व्याकरण-वारण, बायरण | प्राकार-पार, पायार ।
दश - दह, दस । एकादश- एश्रारह, एत्रारस । दशबल - दहबल, दसबल ।
'घ' का परिवर्तन
षट्-छ । षट्पद-पत्र | षष्ठ-छह स्नुषा - सुरहा, सुसा।
पाषाण- पाहाण, पासाण ।
१. हे० प्रा० व्या० ८ १ २६५, २६१, २६२ तथा ८ २ १४ । २. हे० प्रा० व्या० ८ १/२६५, २६३ | ३. हे० प्रा० व्या० ८२४८ । ४. हे० प्रा० व्या०८।१।२६७, २६८, २६६, २७०, २७१ । शब्दान्तर्गत सस्वर व्यंजन के लोप करने की प्रक्रिया यास्कने स्वीकृत की है तथा
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'ग' का लोप प्रागत-श्राश्र, श्रागन । 'ज' का लोप दनुज-दणु, दणुश्र ।
दनुजवध-दणुवह, दणुअवह । भाजन-भाण, भायण ।
राजकुल-राउल, रायउल । 'द', 'दु' तथा पादपीठ-पावीढ, पायवीढ । 'दे' का कोप पादपतन-पावडण, पायवडण ।
उदुम्बर-उंबर, उउंबर; सं० उम्बर ।
दुर्गादेवी-दुग्गावी, दुग्गाएवी अथवा दुग्गादेवी। 'य' का लोप किसलय-किसल, किसलय; सं० किसल ।
काल+प्रायस = कालायस-कालास, कालायस । हृदय-हिश्र, हिन।
सहृदय-सहिश्र, सहिय । 'व' का लोप अवड-अड, अयड ।
श्रावर्तमान-अत्तमाण, श्रावत्तमाण । एवमेव-एमेव, एवमेव । तावत्-ता, ताव । देवकुल-देउल, देवउल । प्रावारक-पार, पावारश्र।
यावत्-जा, जाव । 'वि' का लोप जीवित-जीश्र, जीविश्र। संस्कृतभाषा में भी ऐसी प्रक्रिया संमत है-श्रागताः = श्राताः, दिशावाचक शब्द-यास्क । सं० उदुम्बर-उम्बुरक अथवा उम्बर । सुदत्त-सुत्त । प्रदत्त-प्रत्त ।
|
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( ५६ )
२७.
आदि व्यञ्जन का लोप
जिस शब्द के प्रारम्भ में व्यञ्जन रहता है उसका श्रर्थात् शब्द के श्रादि व्यंजन का कहीं-कहीं लोप' हो जाता है । जैसे :
च-न ।
चिह्न -इंध |
पुनः- उण, उणो ।
१. संयुक्त व्यञ्जनों का सामान्य परिवर्तन पूर्ववर्ती व्यव्जन का लोप
3
कू, ग्, टू, ड्, त्, दू, प्, श्, षू और स व्यञ्जनों का किसी भी संयुक्त व्यञ्जन के पूर्ववर्ती होने पर लोप हो जाता है र और लोप होने के बाद शेष बचा व्यञ्जन यदि शब्द के श्रादि में न हो तभी उनका द्वित्व ( डबल ) होता है । द्वित्व हुआ अक्षर ख्ख, छ्छ, छ, थ्थ और फ्फ हो तो उसके स्थान में क्रमशः क्ख, च्छ, छ, त्थ और प्फ हो जाता है ४ । अगर द्वित्व हुआ अक्षर घ्घ, भझ, द्रु, ध्ध, तथा भभ हो तो उसके स्थान में क्रमशः ग्घ, ज्झ, ड्ढ, दूध, तथा ब्भ हो जाता है । जैसे :
पूर्ववर्ती 'क' का लोप
भुक्त- भुत भुत । मुक्त
-
- मुत - मुत्त । शक्त - सत-सत्त । सिक्थ - सिथ- सिध्थ - सित्थ ।
www
१. हे० प्रा० व्या० ८।१।१७७ । २. हे० प्रा० व्या० ८ २७७ । ३. हे० प्रा० व्या० ८ २८६ । ४. हे० प्रा० व्या० ८२६० |
*इन उदाहरणों में जो अन्तिम रूप है वही प्रयोग में व्यवहार करने योग्य है । बीच का कोई भी रूप प्रयोग में नहीं श्राता है।
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( ५७ )
पूर्ववर्ती 'ग' का लोप दुग्ध-दुध- दुध्ध - दुद्ध |
मुग्ध - मुध - मुध्ध मुद्ध ।
33
""
""
5
""
">
33
35
""
'ट'
'त'
મેં
'द'
'प'
'श'
'स'
"
""
14
""
""
131
""
23
षट्पद - छपत्र - छप्पन |
कट्फल-कफल- कफ्फल, कप्फल ।
खड्ग - खग-खग्ग । षड्ज-सज-सज्ज ।
उपल - उप्पल ।
उत्पल
उत्पाद - उपान - उप्पा
मुद्गर - मुगर - मुग्गर । मुद्ग-मुग- मुग्ग ।
गुप्त- गुत-गुत्त । सुप्त - सुत - सुत्त ।
निश्चल - निचल, निञ्चल - ( पालि - निश्चल ) । श्मशान - मसाण । श्च्योतति - चुश्रइ |
। धात्री धारी' |
श्मश्रु- मस्सु ।
निष्ठुर - निठुर- निठठुर-निठुर ।
शुष्क-सुक-सुक्क । षष्ठ-छठ-छः-छठ । निस्पृह - निपह - निप्पह । स्तव - तव । स्नेह - नेह | स्कन्द - कंद |
( पालि भाषा में भी संयुक्त व्यंजन के पूर्ववर्ती क्, ग् श्रादि व्यंजनों का लोप होता है तथा उनका द्वित्व वगैरह भी प्राकृत भाषा के अनुसार होता है देखिए - पा० प्र० पृ० ४१, २४ (नियम ३० ), २५ (नि० ३१), ३८,५१, २६ (नि० ३२), ३७, ३५, ३६, २८ । और पालि भाषा में श्मश्रु- मस्सु । शुष्क - सुक्ख । स्कन्द - खंद तथा खंध ऐसे प्रयोग होते हैं ) |
परवर्ती व्यञ्जन का लोप
संयुक्त व्यञ्जन के परवर्ती 'म्', 'न्', और 'यू' का लोप हो जाता
१. हे० प्रा० व्या० ८ २२८१ ।
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( ५८ ) है' और लोप होने के पश्चात् शेष बचे व्यञ्जन का तभी द्वित्व होता है यदि वह व्यञ्जन शब्द के श्रादि में न हो। परवर्ती 'म' का लोप युग्म-जुग जुग्ग । स्मर-सर। .
राश्म-रसि-रस्सि । स्मेर-सेर । , 'न' , नग्न-नग-नग्ग । लग्न-लग-लग्ग।
धृष्टद्युम्न-धहज्जुण*। 'य' , कुड्य-कुड-कुड्ड। व्याध-वाह । श्यामा
सामा । चैत्य-चहत्त, चेइन । (पालिभाषा में 'न' तथा 'य' के लोप के लिए देखिए-पा० प्र० पृ० ५० तथा पृ० ४८-( नि० ६६), पृ० २१-( नि० २६ )।
पूर्ववर्ती तथा परवर्ती व्यञ्जन का लोप ब, व, र, ल तथा विसर्ग किसी भी संयुक्त व्यञ्जन के पूर्ववर्ती हो अथवा परवर्ती हो तो उनका लोप हो जाता है और लोप होने के बाद शेष बचे व्यञ्जन का द्वित्व तभी होता है यदि वह शब्द के श्रादि में न हो। पूर्ववर्ती 'ब' का लोप अब्द-श्रद-अद्द* । शब्द-सद-सद्द ।
स्तब्ध-यव-यध्ध-थद्ध और ठम् ।
लुब्धक-धन-लुध्ध-लुद्ध और लोद्धश्र । परवर्ती 'व', ध्वस्त-धत्थ । पक्क-पक्क और पिक्क ।
ध्वज-धमा । वेटक-खेडश्र । वोटक-खोडश्र । १. हे० प्रा० व्या०८।२।७८ । *विशेष सूचना के लिए देखिए पृ० ५६ की टिप्पणी । *'ण' का द्वित्व नहीं होता है । २. हे० प्रा० न्या०८।७६ ।
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( ५६ ) पूर्ववर्ती 'र' का लोप अर्क-अक-अक्क । वर्ग-वग-वग्ग ।
दीर्घ-दिघ-दिघ्य-दिग्ध । वार्ता-वता-वत्ता।
सामर्थ्य-सामथ-सामथ्थ-सामत्थ । परवर्ती 'र', क्रिया-किया । ग्रह-गह । चक्र-चक-चक्क ।
रात्रि-रति-रत्ति । धात्री-घाती और धाई। पूर्ववर्ती 'ल' ,, उल्का-उका-उक्का । वल्कल-वकल-बक्कल । परवर्ती 'ल' ,, विक्लव-विकव-विक्कव । श्लक्ष्ण-सएह । विसर्ग का लोप दुःखित-दुखि-दुख्खिा --दुक्खिथा।
दुःसह-दुसह-दुस्सह । निःसह-निसह-निस्सह।
निःसरइ-निसरइ-निस्सरइ । (पालिभाषा में होने वाले ऐसे रूपान्तरों के लिए देखिएपालिप्रकाश पृ० २६, ३०, ३१ (नि. ३६, ३७), पृ० ३२, ३३ (नि. ३८, ३६), पृ० ३५ (नि० ४२), पृ० १० (नि० १२), पृ० १२ (नि० १५, १६)। । सूचना :-जहाँ पूर्ववर्ती और परवर्ती दोनों प्रकार के व्यञ्जनों के
लोप होने का प्रसंग श्रा जाय वहाँ प्रचलित प्रयोगों को ध्यान में रख कर लोप करना उचित है। जैसेउद्विग्न, द्विगुण, द्वितीय इत्यादि शब्दों में 'दू' में 'द' पूर्ववर्ती है और 'व' परवर्ती है अतः यहाँ 'द्' तथा 'व' दोनों के लोप का प्रसंग है । उद्विग्न का 'उबिग्ग', द्विगुण का 'बिउण' तथा द्वितीय के 'बिईय' प्रयोग बनते हैं इस लिए उन शब्दों में केवल पूर्ववती 'द्' का ही लोप करना चाहिए परवर्ती 'व' का लोप नहीं । 'व' का लोप करने से उद्दिग्ग प्रयोग बनता है और ऐसा प्रयोग विशेषतः नहीं मिलता है। इसलिए 'व' का लोप न करके 'द्' का ही लोप करना उचित है।]
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( ६० )
निम्नलिखित शब्दों में भी यही नियम है :
पूर्ववर्ती 'ल' का लोप कल्मष कमस-कम्मस । शुल्व - सुव-सुव्व । सर्व-सव - सव्व | सार्व-सव - सव्त्र ।
पूर्ववर्ती 'र' परवर्ती 'य' परवर्ती 'व'
"
परवर्ती न
व
""
"
""
""
पूर्ववर्ती तथा परवर्ती का क्रमशः लोप
पूर्ववर्ती 'ग' का लोप उद्विग्न - उत्रिण - उब्विण्ण* ।
'द'
""
.99
33
""
""
""
""
""
केवल 'ज्ञ' के होता है ।' यथा:
""
काव्य-कव-कव्त्र । माल्य - मल-मल्ल । द्विपदि । द्विजाति- दुखाइ ।
द्वार-वार अथवा बार ।
उद्विग्न - उब्विग - उब्विग्ग
द्वार-दार |
ञ तथा 'द्र' के 'र' का लोप विकल्प से
- ज े, उ ।
ज्ञात-जात अथवा णात, गाय ।
ज्ञातव्य-जातन्त्र अथवा गातव्त्र, गायव्व ।
ज्ञाति-जाति
णाति, गाइ ।
ज्ञ
""
ज्ञान-जाण
ज्ञानीय - जाणी *वही पृ० ५६ की * सूचना । १. हे० प्रा० व्या० दारादेश तथा ८० । २. 'जू' तथा 'ञ्' मिलकर 'ज्ञ' बनता है अतः 'ज्ञ' में से 'अ' का लोप होने पर शेष 'ज' बचे, यह स्वाभाविक है । ३. जब 'ज्ञ' में से 'ज्' का लोप हो जाय स्वाभाविक है और बचा हुआ 'ञ', 'ञ' के के रूप में ( अर्थात् अपने मूल रूप में ) श्रा जाता है तब उसका
तब 'ञ्' बचे यह भी रूप में न रह कर 'न'
'ण' होता है देखिए
नियम ८ 'ण' विधान पृ० ३६ ।
""
गाण ।
गाणीश्र ।
""
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( ६१ )
ज्ञानीय- जाणिज
ज्ञापना -जावणा
ज्ञेय - जेय श्रभिज्ञ-हिज,
अल्पज्ञ - श्रप्पज्ज
श्रात्मज्ञ - श्रपज
इङ्गितज्ञ - इंगिश्रज
श्राज्ञा-अजा
दैवज्ञ - देवज
दैवज्ञ - दइवज
प्रज्ञा-पजा
मनोज्ञ-मणोज
संज्ञा -संजा
""
संप्रज्ञ - संपज्ज
सर्वज्ञ
- सव्वज
95
22
""
""
"3
125
""
,,
""
दइव ।
पण्णा ।
मणो ।
मरणा, संगा ।
संपण |
सव्वरा ।
""
( पालि भाषा में भी 'ज्ञ' को 'ज' होता है । देखिए - पा० प्र० पृ० २४ - टिप्पण प्रज्ञान - पजान )
'द्र' के 'र' का लोप
""
""
""
वाणिज ।
गावणा ।
णेय ।
""
हिरणु ।
अपणु ।
अपणु । इंगिry |
श्राणा ।
hary |
चन्द्र - चंद, चन्द्र | रुद्र- रुद्द, रुद्र ।
समुद्र - समुद्द, समुद्र । भद्र-भद्द, भद्र ।
द्रव-दव, द्रव । द्रह - दह, द्रह । द्रुम - दुम, द्रुम ।
अपभ्रंश भाषा में संयुक्त अक्षर में परवर्ती 'र' का लोप विकल्प से होता है । प्रिय-पिउ श्रथवा प्रिउ । प्राकृत भाषा में पिय ।
अः को
२
शब्द के अंत में श्राये हुए 'श्रः' का 'श्री' होता है। जैसे :१. हे० प्रा० व्या० ८|४| ३६८ २. हे० प्रा० व्या० ८|१|३७ ।
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________________
अग्रत:-अग्गतो' । अद्यत:-अजतो । अन्ततः-अंततो। श्रादितःश्रादितो। इतः-इतो। इतः इतः-इदो इदो (शौर०)। कुतःकुतो। कुदो ( शौर०)। ततः-ततो। तदो। तदो तदो। पुरतःपुरतो । पृष्ठतः-पितो । मार्गत:-मग्गतो । सर्वत:-सव्वतो।
__ नाम के रूप जिनः-जिणो । देवः-देवो । भवतः-भवतो। भवन्तः-भवन्तो । भगवन्तः-भगवन्तो । रामः-रामो । सन्तः-संतो इत्यादि ।
'ख' विधान यह बात विशेष ध्यान में रखनी चाहिए कि यहाँ जो जो विधान किये जा रहे हैं उन सब में एक अक्षर के-असंयुक्त अक्षर के-विधान (जैसे ख, च, छ इत्यादि के विधान) शब्द के आदि में अर्थात् शब्द के प्रारम्भ में किये गये हैं और दोहरे (डबल) अक्षर के सभी विधान(जैसे क्ख, ग, ञ्च, च्छ इत्यादि के विधान) शब्द के अन्दर किये गये हैं ऐसा समझना चाहिए । 'क्ष' को 'ख' क्षण-खण (= समय का छोटा भाग)। क्षमा
खमा (= क्षमा याने सहन करना)। क्षय-खत्र। क्षीण-खीण । क्षीर-खीर। वेटक-खेड ।
वोटक-खोड। 'क्ष' को 'क्ख' इक्षु-इक्खु । ऋक्ष-रिक्ख । मक्षिका-मक्खियां ।
लक्षण-लक्खण । १. पृ० ३३ नियम ( ख ) के अनुसार अग्गो , तो, सव्वो ऐसे भी रूप होते हैं । २. पृ० ३४-शौरसेनी भाषा में 'त' का 'द' होता है-इस नियम से अग्गदा, तदो, सव्वदो, पुरदो ऐसे भी रूप होते हैं। ३. हे० प्रा० व्या बारा३ ।
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________________
( ६३ )
मागधी भाषा में 'क्ष' के स्थान में जिह्वामूलीय 'अक्षर
बोला जाता है ।
सं०
यक्ष
राक्षस
'क' २ को 'ख'
'स्क' को 'ख'
'स्क' को 'क्ल'
मा०
य - क
ल कश
रक्खस
निष्क - निक्ख । पुष्कर - पोक्खर । पुष्करिणी - पोक्खरिणी । शुष्क - सुक्ख ।
स्कन्द - खंद | स्कन्ध-खंध |
स्कन्धावार- खंधावार ।
अवस्कन्द- अवक्खंद ।
प्रस्कन्देत् - पक्खंदे |
उपस्कर - उवक्खर ।
उपस्कृत-उवक्खड ।
( पालि भाषा में होता है । देखिए -
अवस्कर - वक्र याने पुरीष = विष्ठा । 'क' को 'क्ख', 'स्क' को 'ख' तथा 'क्ख' प्र० पृ० ३६, ३७ । )
- पा०
मागधी भाषा में जहाँ-जहाँ संयुक्त 'ष' अथवा 'स' श्राता है वहाँ सर्वत्र 'स' ही बोला जाता है । संयुक्त 'ष'
सं
उष्मा
धनुष्खण्ड
कष्ठ
निष्फल
विणु
शष्प
शुष्क
१. हे० प्रा० व्या० ८।४।२६६ ।
प्रा०
जक्ख
३. हे० प्रा० व्या० ८ | ४|२८६ |
मा०
उस्मा
धनुरखंड
कस्ट
निस्फल
विस्नु
शस्प
शुक
२. हे० प्रा० व्या० ८|२|४ |
я то
उम्हा |
धक्खंड |
कह ।
निष्फल ।
विहु |
सप्फ ।
सुक्क ।
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________________
( पालि भाषा में
पृ० ५१ - नि० ६८ ) ।
३.
'त्य' को 'च' 'त्य' को 'च्च' 'त्व' को 'च'
( ६४ )
सं०
मा०
प्रस्खलति
पस्खल दि
बृहस्पति बुहपद
मस्करी
मस्कती
विस्मय
विस्मय
प्रा०
पक्खलइ ।
बुहप्फइ ।
मक्खरी ।
विम्हय ।
हस्ती
हस्ती
हत्थी ।
इस विधान के लिए देखिए - पा० प्र०
-
'च' विधान
त्याग - चाय । त्यागी - चाई । त्यजति - चयइ |
सत्य - सच्च ।
दत्वा - दच्चा । चत्वर - चच्चर |
प्रत्यय - पच्चय । प्रत्यूष - पच्चूह कृत्वा - किच्चा । ज्ञात्वा - णच्चा भुक्त्वा - भोच्चा । श्रुत्वा - सोच्चा । त्य को च, च्च तथा त्व को च, च, होता है । २० तथा पृ० ३४ टिप्पण | ) 'छ' विधान
क्षण - छण ( = उत्सव ) । क्षत-छय ।
।
।
( पालि भाषा में देखिए - पा० प्र० पृ०
४.
'क्ष' २ को 'छ'
'क्ष' को 'छ'
( पालि भाषा में 'क्ष' को 'क', 'ख', 'क्ख' तथा 'क्ष' को 'च' 'छ' तथा 'च्छ' भी होता है । देखिये पा० प्र० पृ० १७–क्ष–ख, क्ष-च, क्ष-छ, तथा क्ष को झ टिप्पण पृ० १७ । तथा ऋक्ष - श्रच्छ, इक्क । ध्वाङ्ङ्क्ष—धंक | लाक्षा- लाखा देखिए पा० प्र० पृ० १८ । )
क्षमा-छमा (= पृथिवो) । चार-छार | क्षुत-छोश्र । अक्षि- प्रच्छि । इत्तु - उच्छु । उक्षा उच्छा । ऋक्ष-रिच्छ । कुक्षि- कुच्छि ।
१. हे० प्रा० व्या०८/२/१३ तथा १५ | २. हे० प्रा० व्या० ८ २/३ तथा २०, १८, १६ ।
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________________
'थ्व' 'को 'च्छ'
'थ्य' 'को 'च्छ'
( ६५ )
पृथ्वी - पिच्छी ।
पथ्य - पच्छ । पथ्या-पच्छा । मिथ्या-मिच्छा । सामर्थ्य - सामथ्य, सामच्छ ।
'श्च' को 'च्छ' श्राश्चर्य - श्रच्छेर । पश्चात् - पच्छा । पश्चिमपच्छिम । वृश्चिक - विछिन्न ।
'त्स' को 'च्छ' उत्सव - उच्छव । उत्साह - उच्छाह । उत्सुक - उच्छुश्र चिकित्सति - चिइच्छइ । मत्सर-मच्छर । संवत्सरसंवच्छर ।
'प्स' को 'च्छ' अप्सरा - श्रच्छरा । जुगुप्सति - जुगुच्छइ । बिप्सतिलिच्छइ । जुगुप्सा - जुगुच्छा । लिप्सा - लिच्छा । ईप्सति - इच्छइ ।
मागधी भाषा में 'च्छ' के स्थान में 'श्च' प्रयुक्त होता है :
सं०
गच्छ
पिच्छिल
पृच्छति
वत्सल
उच्छल ति तिर्यक्
मा०
गश्च
पिश्चिल
पुश्चदि
वश्चल
उश्चलदि
तिरिश्चि
ЯТО
गच्छ
पिच्छिल
पुच्छइ
वच्छल
( पालि भाषा में 'थ्य' को 'च्छ', 'श्च' को 'च्छ', 'त्स' को 'छ' तथा 'प्स' को 'छ' होता है । देखिये - पा० प्र० पू० २१, ३८, २६ । )
उच्छलइ
तिरिच्छि
१. हे० प्रा० व्या० ८|२| १५ | २. हे० प्रा० व्या० ८।२।२१ । ३. हे० प्रा० व्या० ८/४/२६५ |
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________________
'च' 'ज' 'द्य' को 'ज्ज'
'य्य' को 'ज्ज' 'ये' को 'उज'
'ज' विधान
द्युति - जुइ
। द्योत - जो
।
वैद्य - वेज | मद्य-मज । श्रद्य श्रज । श्रवद्य-श्रवज । शय्या - सेजा । जय्य- जज ।
श्रार्य श्रज । कार्य कज्ज । पर्याप्त-पजत्त । भार्याभजा । मर्यादा-मजाया । श्रार्यपुत्र - श्रजउत्त । शौरसेनी भाषा में 'ये' के स्थान में विकल्प से 'य्य'"
भी बोला
जाता है ।
( ६६ )
सं०
श्रार्यपुत्र
श्रार्य
कार्य
सूर्य
सुय्य, सुज्ज
( मागधी भाषा में 'द्य', 'ज्ज', तथा 'य' के स्थान पर आदि में 'य' और शब्द के अन्दर 'थ्य' ३ बोला जाता है । )
सं०
अद्य
मद्य
विद्याधर
१. हे० प्रा० व्या० ८२।२४
शौ०
श्रय्यउत्त, श्रज्जउत्त
श्रथ्य, श्रज
कथ्य,
कज्ज
३. हे० प्रा० व्या ८|४| २९२ ।
मा०
अय्य
मध्य
विय्याहल
यथा
यधा
कुरु
कले यहि
करेञ्जहि
( पालि भाषा में 'द्य' को अ, ज्ज और य्य भी होता है । देखिए - पा० प्र० पृ० १८ और १६ वें का टिप्पण | पालि भाषा में र्य को यिर, यथवारिय होता है। देखिए - पा० प्र० पृ० १५, १६ । )
९.
Ято
चजउप्त ।
अज्ज ।
कज्ज
सुज्ज ।
विकल्प से
प्रा०
श्रज्ज |
मज ।
विज्जाहर |
जहा
हे० प्रा० व्या० ८४।२६६ |
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________________
( ६७ )
'झ' विधान 'ध्य' को 'झ' ध्वान-माण | ध्यायति-झायइ । 'ध्य'' को 'ज्म' उपाध्याय-उवज्झाय । बध्यते-बज्झइ ।
विन्ध्य-विंझ । साध्य-सज्झ । स्वाध्याय-सज्झाय । 'ह्य' को 'झ' नह्यति-नन्झति । गुह्य-गुज्झ । मह्यं-मझ।
सह्य-सज्झ। 'ह्य" को 'यह' गुह्य-गुटह, गुज्झ । सह्य-सय्ह, सज्झ । 'क्ष' को 'झ' चीण-झीण । क्षीयते-झिजह । 'क्ष' को 'झ' प्रक्षीण-पझोण ।
(पालि भाषा में भी भ्य को झ और ह्य को यह होता है । क्रमशः देखिये-पा०प्र० पृ० १६-ध्य म , ध्य-ज्झ । पा०प्र० पृ. २२ह्य-रह)
'ट' विधान 'त'' को 'दृ' कैवर्त-केवट्ट । नर्तकी-नट्टई । वर्ती-वट्टी ।
वर्तुल-वट्टल । वार्ता-वट्टा। ... ( कुछ शब्दों में 'त' के 'रेफ' का लोप हो जाता है। जैसे :
आवर्तक-आवत्त । मुहूर्त-मुहुत्त । मूर्ति-मुत्ति । धूर्त-धुत्त । कीर्तिकित्ति । कार्तिक-कत्तिक । कर्तरी-कत्तरी इत्यादि )
(पालि भाषा में 'त' को 'ट' होता है। देखिए-प्रा०प्र० पु०५८) शौरसेनी भाषा में किसी-किसी प्रयोग में 'न्त' को 'न्द'५ हो जाता है। जैसे :
१. हे० प्रा० व्या० ८।२।२६ । २. हे० प्रा० व्या० ८।२।१२४ । . ३. हे० प्रा० व्या० ८।२।३। ४. हे० प्रा० व्या०८।२।३०। ५. हे. प्रा० व्या९८४२६१ ।
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________________
८.
'ट'' को 'ट्ठ'
सं०
अन्तःपुर
निश्चिन्त
महान् महन्त
९.
'ज्ञ' " को 'ण'
'ज्ञ' को 'ण'
( ६८ )
शौ०
अन्देउर
निश्चिन्द
महन्द
'ठ' विधान
इष्ट-इट्ठ |
दष्ट- टट्ट |
मुष्टि-मुट्ठि । सृष्टि-सिठि ।
-:
-
श्रनिष्ट- श्रणि ।
दृष्टि-दिट्ठी ।
यष्टि-लट्ठि 1
( श्रपवाद
- इष्टा - इट्टा । उष्ट्र-उष्ट । संदष्ट संदट्ट | ) मागधी भाषा में '' तथा '' के स्थान में 'स्ट' २ बोला जाता है ।
'z' an 'a'
'ष्ठ' को 'स्ट'
я то
श्रन्तेउर ।
निच्चिन्त ।
महन्त ।
कष्ट-कट्ठ ।
पुष्ट-पुट्ठ !
सुराष्ट्र - सुरट्ठ ।
सुष्ठु - शुस्तु, प्रा० सुट्ठ ।
पैशाची भाषा में 'ट' के बदले 'सट' ३ बोला जाता है । कष्ट - कस्ट, प्रा० कट्ठ । दृष्ट दिसट प्रा० दिछ ।
पट्ट -पस्ट, प्रा० पट्ट | भट्टारिका - भस्टालिया, प्रा० भट्टारिया | भट्टिनी - भस्टियो, प्रा० भट्टिणी | कोष्ठागार - कोस्टागाल, प्रा० कोट्ठागार ।
( पालि भाषा में 'ट' को 'ट्ठ' होता है । देखिये पा० प्र० पृ० २६ तथा उसी पृष्ठ का टिप्पण )
'ण' विधान
आज्ञा - श्राणा । ज्ञान - पाण।
विज्ञान - विण्णाण । प्रज्ञा - पण्णा |
१. हे० प्रा० व्या० ८|१३४१ ९. हे० प्रा० व्या० ८/४/२९० | ३. हे० प्रा० व्या० ८|४| ३१४ । ४. हे० प्रा० व्या० ८।२।४२
संज्ञा-संगा ।
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________________
'न' को 'ण्ण' मागधी भाषा में 'ञ' " बोला जाता है तथा पैशाची भाषा में अक्षरों के स्थान में 'ज्ञ' २ बोला जाता है ।
न्य, ग्य, ज्ञ और अ
१
मागधी
पैशाची
""
}
( ६६ )
निम्न - निण्य |
सं०
'न्य' को 'व्' अभिमन्यु
कन्यका
'ण्य' को 'ञ' पुण्य
पुण्याह
पुण्यकर्म
'ज्ञ' को 'ञ'
मागधी 'ञ्ज' को 'ञ' अञ्जलि
धनञ्जय
प्राञ्जल
( पालि भाषा में 'ज्ञ' को 'ण' तथा पा० प्र० प्र० २४ टिप्पण तथा ४८ । भी होता है । देखिये - प्रा० प्र० पृ० 'श्न' को 'ह'
'ष्ण' को 'ह'
'रन' को 'ह'
प्रश्न- परह ।
कृष्ण - कण्ह | जिष्णु - जिन्डु ।
स्नात - रहा
प्रस्तुत - पण्डु
प्रद्युम्न - पज्जुण्ण ।
-इन चार अक्षरों को जगह न्य, ण्य, तथा श-इन तीन
मा०चै०
अभिमञ्जु
कञ्ञका
१, हे० प्रा० व्या० ८|४|२९३ । तथा ३०५ । ३. हे० प्रा० व्या० ८|२|७५ ।
पुञ
पुञ्ञाह
पुञ्ञकम्म
पञ्ञा
प्रज्ञा सर्वज्ञ शव्वञ्ञ सव्वञ्ञ
सव्वषु । अंजलि ।
श्रञलि
प्रा०
धनञ्ञय
प्रा० घणंजय |
पञ्ञल
মাο
पंजल | 'ग्न' को 'न' होता है । देखिए - तथा श, ण्य, और न्य को 'ञ' २३, २४ । )
शिश्न - सिराह ।
विष्णु - बिन्हु । उष्णीष - उरहीस ।
। ज्योत्स्ना - जोरहा |
।
प्रा०
हिमन्नु ।
कन्नका ।
पुण्ण ।
पुण्याह ।
पुराणकम्म ।
पण्या ।
२. हे० प्रा०व्या० ८|४ | ३०३
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________________
( ७० )
जहु - जयहु । वह्नि - वरिह । अपराह्न - श्रवरह । पूर्वाह्न पुग्वराह । तीक्ष्ण - विरह | लक्ष्ण - सह । सूक्ष्म - सह ।
( पैशाची भाषा में स्न के स्थान में 'सिन" बोला जाता है । )
'ह' को 'ह' को 'ह'
'दण' को 'ह' 'दम' को 'ह'
पै०
ЯТО
सिनात
व्हाय
स्नुषा
सिनुसा, सुनुषा
हुसा, सुद्दा !
( पालि भाषा में इस रूपान्तर के लिए देखिये -- क्रमशः प्रा० प्र० पृ० ४६ ( नि० ६३ ) तथा पृ० ४७ श्न = एह, ञ्ह तथा ष्ण-राह पृ० ४८ टिप्पण - तीक्ष्ण-तिरह, तिक्ख, तिक्खिण तथा पृ० ४९ टिप्पणपूर्वाह्न - पुण्वण्ह । )
•
सं०
स्नान
( पालि भाषा में स्नान - सिनान । स्नुषा - सुणिसा, सुण्डा, हुसा ऐसे तीन रूप होते हैं। देखिये- पा० प्र० पृ० ४६ नियम ६३ । )
'थ' विधान
१०
'स्त २' को 'थ'
स्तव - थव, तव । स्तम्भ - थंभ |
स्तब्ध - थद, ठद्ध | स्तुति थुई । स्तोक-थो । स्तोत्र - थोत्त । स्त्यान - थीण ।
'स्व' को 'त्थ' अस्ति - श्रत्थि ।
पर्यस्त - पल्लत्थ, पल्लव | प्रशस्तपसत्थ । प्रस्तर - पत्थर । स्वस्ति-सत्थि । हस्त - हत्थ । ( श्रपवादः - समस्त - समत्त, सम्ब-तब )
(मागधी भाषा में 'र्थ' तथा 'स्थ' के स्थान में 'स्त' ३ बोला जाता है)
१. हे० प्रा० व्या० ८|४| ३१४ । २ है० प्रा० व्या०८।२।४५ | ३. हे० प्रा० व्या० ८|४|२६१ |
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________________
सं०
'र्थ' को 'स्त' अर्थपति
सार्थवाह
'स्थ' को 'स्त' उपस्थित
सुस्थित
'डम" को 'प'
'क्म' को 'प' 'प' २ को 'प्प'
( ७१ )
मा०
श्रस्तवदि
शस्तवाह
उवस्तिद
सुस्तिद
सुहि ।
( पालि भाषा में 'स्त' को 'थ' और 'त्थ' होता है। देखिये - पा०
प्र० पृ० २७ )
११.
'प' विधान
ято
त्थवई ।
सत्थवाह ।
उहि ।
कुड्मल- कुंपल ।
रुक्म- रुप्प | रुक्मिणी- रुपिणी । रुक्मो- रुप्पी, रुच्मी । निष्पाप - निप्पाव । निष्पुंसन- निप्पुंस ।
निष्प्रभ - निष्पह | निष्प्राण - निष्पाण |
परस्पर - परोप्पर । बृहस्पति - बुहप्पर । निष्पृह-निष्पिह |
'स्प' को 'प'
( पालि भाषा में 'हम' को 'डुम' और 'क्म' को 'कुम' होता है । देखिये- पा० प्र० पृ० ४९ कुडमल - कुडुमल अथवा कुटुमल । रुक्मरुकुम तथा रुक्म देखिये, पा० प्र० पृ० ४३ टिप्पण )
१२.
'फ' विधान
'प' ३ को 'फ' निष्पाव- निष्फाव । निष्पेष - निप्फेस | पुष्प - पुण्फ । शष्प-सफ
'स्प' को 'फ'
'स्प' को 'फ' १. हे० प्रा०
व्या० ८ २५२ । २. हे० प्रा० व्या० ८|२|५३ । ३. हे० प्रा० व्या० ८/२/५३ ।
स्पन्दन - फंदण | स्पन्द- फंद | स्पर्धा-फदा । स्पन्दते - फंदए । स्पर्धते - फद्धए ।
प्रतिस्पर्धी - पडिफद्धी । प्रतिस्पर्धा-पडिएफद्धा ।
-
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________________
( पालि भाषा में ष्प को प्फ तथा स्फ को फ और फ होता है | देखिये- पा० प्र० पृ० ३६ )
१३.
"" को 'भ' 'हृ' को 'भ'
'भ' विधान
ह्वान - भाग । हृयते भयए
आह्वान - श्रब्भाण । श्राह्वयते - श्रब्भयते ।
जिह्वा
जिम्मा, जीहा । विह्वल - बिन्भल, भिन्भल, विहल ! ( पालि भाषा में भी ह्न को भ होता है । देखिये - पा० प्र० पृ० पृ० ३५ टिप्पण | )
I
६४ तथा गह्वर- गब्भर
'म' विधान
१४.
'म्म १२ को 'म'
'न्म' को 'म्म'
युग्म - जुम्म, जुग्ग | तिग्म - तिम्म, तिग ।
जन्म - जम्म । मन्मथ - वम्मह । मन्मन-मम्मण ।
( पालि भाषा में ग्म को गुम तथा न्म को म्म होता है । देखिये -
पा० प्र० पृ० क्रमश: ४९ तथा ४६ )
'दम' को 'म्ह'
"" ""
पक्ष्म-पम्ह । पदमल-पहल |
कश्मीर - कम्हार । कुश्मान - कुम्हाण | उष्मा - उम्हा | ग्रीष्म- गिम्ह |
श्रस्मादृश - श्रम्हारिस | विस्मय - विम्य । ब्रह्म - बंम्ह | ब्राह्मण - ब्रम्हण |
ब्रह्मचर्य - बम्हर, बंभवेर । सुझ-सुम्ह ।
( अपभ्रंश भाषा में पूर्वनिर्दिष्ट म्ह के स्थान में 'भ' भो बोला
जाता
1)
'श्म'
'हम' ”
'स्म'
'ह'
""
( ७२ )
प्रतिस्पर्धते - पडिप्फद्धए। बृहस्पति-बुहप्फर, बिहफद्द,
बुहप्पर, बिहप्पर । वनस्पति-वणप्फइ ।
1
""
"
"" ""
१. हे० प्रा० व्या० ८२५७५८ । २. हे० प्रा० व्या० ८ २६२, ६१, ७४ । ३. हे० प्रा० व्या० ८|४|४१२ ।
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________________
सं० अप०
प्रा० ग्रीष्म गिम्ह, गिम्भ गिम्ह श्लेष्म सिम्ह, सिम्भ सिम्ह पक्ष्म पम्ह, पम्भ
पम्ह पक्ष्मल
पम्हल, पम्भल पम्हल । ब्राह्मण
बम्हण, बंभण बम्हण (पालि भाषा में श्म=म्ह, म-म्ह, स्म-म्ह होता है और कहींकहीं श्म और स्म को स्स तथा स होता है। देखिये पा० प्र० पृ० ५०) १५.
'ल्ह' विधान 'ह' को 'ल्ह' कहार-कल्हार । प्रह्लाद-पल्हाश्र ।
(पालि भाषा में 'ह' के बदले 'हिल' बोला जाता है :-हादहिलाद । देखिये-पा० प्र० पृ० ३२) १६. कुछ संयुक्त व्यञ्जनों के मध्य में स्वरों का श्रागम 'क्तके स्थान में 'किल' क्लाम्यति-किलम्मइ । क्लाम्यत्-किलमंत ।
क्लिष्ट-किलि । क्लिन्न-किलिन । क्लेश-किलेस ।
शुक्ल-सुकिल, सुइल । 'ग्ल' के स्थान में 'गिल' ग्लायति-मिलाइ । ग्लान-गिलाण । 'प्ल' के , ,, 'पिल' प्लुष्ट-पिलुह । प्लोष-पिलोस । 'म्ल', , , 'मिल' अम्ल-अंबिल । म्लान-मिलाण ।
म्लायति-मिलाइ । 'श्ल',, , , सिल' श्लेष-सिलेस । श्लेष्मा-सिलिम्हा ।
श्लोक-सिल्लोग । श्लिष्ठ-सिलिह । 'र्य के स्थान में 'रिअ' अथवा 'रिय' याचार्य-प्रायरित्र । मास्भीर्य
गंभीरित्र । गाभीर्य-गहोरिन । ब्रह्मचर्य-बम्हचरिश्र । १. है० प्रा० ग्या०८/२।७६ । २. हे० प्रा० व्या०८।२।१०६ । ३. हे० प्रा० व्या० ८।२।१०७ ।
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________________
भार्या-भारिश्रा । वयं-वरिश्र । वीर्य-वीरित्र । स्थैर्य-थेरिन ।
सूर्य-सरिन । सौन्दर्य-सुंदरिश्र । शौर्य-सोरिम । उपर्युक्त सभी उदाहरणों में 'रिय' भी समझना चाहिए । लेकिन यह विधान व्यापक न होकर प्रयोगानुसारी है देखिए-ज विधान नियम-५। पैशाची भाषा में 'य' के स्थान में 'रिय' भी बोला जाता है।
सं०
पै०
. प्रा० भार्या भारिया, भजा भजा शर' के स्थान में 'रिस' आदर्श-श्रायरिस, श्रायंस । दर्शन-दरिसण,
दसण । सुदर्शन- सुदरिसण, सुदंसण । 'र्ष " " " वर्ष-वरिस, वास । वर्षशत--वरिससय,
वाससय । वर्षा--वरिसा, वासा । 'ह' " " " रिह अहंति-अरिहइ । अर्ह--अरिह । गर्दा-गरिहा ।
बह-बरिह। स्त्रीलिङ्गी पद के संयुक्त व्यञ्जनों में स्वरों का आगम . 'ध्वी' के स्थान में 'घुवी' लध्वी-लघुवी, लहुवी। थ्वी " " " थुवी पृथ्वी-पुथुवी, पुहुवी । द्वो , " " दुवी मृद्री-मिदुवी, मिउवी। न्वी " " , गुवी तन्वी-तणुवी। वी ,,
रुवी गुर्वी-गुरुवी। . ही , , , हुवी बहो-बहवी।
(पालि भाषा में भी कई संयुक्त व्यञ्जनों के बीच में स्वरों का श्रागम होता है। देखिये-पा० प्र० पृ० ४६ (नि०६२), पृ० ३२, पृ० ११, पृ० २६२ स्त्री प्रत्यय ।)
१. हे० प्रा० व्या० ८।४।३१४ । २. हे० प्रा० व्या०८।२।१०५। १०४। ३. हे० प्रा० व्या० बा२११३ ।
For Pin
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________________
(
७५
)
संयुक्त व्यञ्जनों का विशेष परिवर्तन
'क्त' को 'क' मुक्त-मुक्क, मुत्त । शक्त-सक, सत्त ।
रुग्ण-लुक, लुग्ग। 'त्व' "'' मृदुत्व-माउक्क, माउत्तण । " ""
दष्ट-डक्क, दह। [सूचना :-जहाँ दो-दो रूप दिए हैं वहाँ विकल्प से समझना चाहिए।]
(पालि भाषा में भी शक्त-सक्क । प्रतिमुक्त-पतिमुक्क । देखिये-- पा० प्र० पृ० ४१ ( टिप्पणी)। रुग्ण-लुग्ग पृ० ४६ टिप्पण)
कख२ 'पण' को 'क्ख' तीक्ष्ण-तिक्ख, विण्ह देखिये-'' विधान नियम
दण को ण्ह, पृ० ७०। (तीक्ष्ण-तिक्ख, तिण्ह, तिक्खिण देखिए पा०प्र० पृ० ४८ टिप्पण)
३.
'स्त' को 'ख' स्तम्भ-खंभ, यंभ। 'स्थ' " " स्थाणु-खाणु अर्थात् ढूँठ वृक्ष, थाणु ( महादेव)। 'स्फ' को " स्फेटक-खेडश्र । स्फोटक-खोडन । स्फेटिक-खेडि।
ग्ग' 'क्त' को 'ग्ग' रक्त-रग्ग, रत्त ।
१. हे० प्रा० व्या० ८।२। २. हे० प्रा० व्या०८२।३। १. हे० प्रा० व्या० २८,७,६ । ४. हे० प्रा० व्या०८।२।१०।।
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________________
५.
'ल्क' को ''
६.
'त' को 'च'
"
'थ्य' 'च'
و
शुल्क-सुङ्ग, सुंग, सुक्क* ।
( शुल्क - सुंक देखिए पा० प्र० पृ० ३० टिप्पण )
( ७६ )
च
कृत्ति - किच्ची ।
तथ्य-तच्च, तच्छ ।
छ तथा च्छ
स्थगित - छइन, थइन ।
स्पृहा - छिहा | स्पृहावत्- छिहावंत ।
निस्पृह - निच्छिह, निष्पिह |
'स्थ' को 'छ' 'स्प' "
""
'स्प'" "छ'
5.
"न्य' को 'ज्ज', 'ज' श्रभिमन्यु- श्रहिमज्जु, श्रहिमञ्जु, श्रहिमंजु, श्रहिमन्नु । मागधी' में अभिमन्यु - हिमञ्जु ।
( श्रभिमन्यु- श्रभिमञ्जु देखिये -- पा० प्र० पृ० २३ )
ज तथा अ
झा 'न्ध' को 'ज्झा' इन्ध - इज्भाइ । (तृतीय पुरुष, एकवचन, सम् + इन्ध-समिज्झाह
वि + इन्ध - विज्झाइ
४
ञ्चु
७
१०.
१. हे० प्रा०व्या० ८|३|११|| *तुलना कीजिए - हिन्दी - 'चुंगी' से । २. हे० प्रा० ब्या० ८ २ १२,२१ । ३. हे० प्रा० व्या० ८।२।१७, २३ । ४ हे० प्रा० व्या०८/२/२५ । ५. हे० प्रा० व्या० ८|४| २६३ । ६. हे० प्रा० व्या० दाशरद । ७. हे० प्रा० व्या० ८/२/१६ |
"
"
वर्तमानकाल)
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________________
( ७७ )
"श्चि' को 'चु' वृश्चिक-विञ्चुश्र, विंचुअ, विछिन ।
(वृश्चिक-विच्छिक देखिये-पा० प्र० पृ०३८)
'त' को '' पत्तन-पट्टण । मृत्तिका-मट्टिा । वृत्त-वट्ट ।
कथित-कवट्टिन।
पर्यस्त-पल्लट्ट। ( देखिए पा० प्र० पृ०५८ तै–ट्ट, वर्ति-वहि ।)
'स्त' को 'ठ' स्तम्भयते - ठभिजइ (=गतिहीन) । स्तब्ध-ठड।
( याने निस्पंद-गतिहीन, हिन्दी में खडा) स्तम्भ-ठम् , ठंभइ क्रियापद ।
स्तम्भ-ठंभ, खंभ । स्त्यान-ठीण, थोण । 'स्थ' को 'ठ' विसंस्थुल-विसंठुल। 'र्थ' को 'टु' अर्थ- अ (=प्रयोजन ), अत्य ( =धन)।
चतुर्थ-चउह, चउत्थ । 'स्थ' को 'ह' अस्थि -अष्टि ।
(देखिये-पा० प्र० पृ० २७ टिप्पण, परिवस्तव्य-परिवठ्ठव्व । अर्थ-अट्ट, अह देखिये-पा० प्र० पृ० १० टिप्पण । वयःस्थ-वयह, अस्थि-अहि देखिए पा० प्र० पृ० २८ स्थ=ठ तथा पृ० २६ स्थम् । १३. '' को 'ई' गत-गड्ड । गर्ता-गड्डा ।।
१. हे० प्रा० व्या०८।२।२९, ४७ । २. हे० प्रा० व्या०८राह,८, ३२, ३३, ३९ । ३. तुलना-हिन्दी-ठादो-"सूरदास द्वारे ठाडो आंघरो भिखासै”। ४. हे० प्रा० च्या० ८।२।३५,३६,३७ ।
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________________
( ७८ )
.
'द' ,, , कपर्द-कवड्ड । छर्द-छड्डइ ( क्रियापद)।
छर्दि-छड्डि। मर्दित-मड्डि। वितदि-विड्डि । गर्दभ-गड्डह, गद्दह ।
ढ, उढ़ 'ढ' मूर्ध--मुंढा, मुद्ध ।
अर्ध-अडढ़, अद्ध । 'ग्ध' ,,, दग्ध-दड़ । विदग्ध-विअट । 'द्ध' ,, ऋद्धि-इड्डि, इद्धि । वृद्ध-वुड्स, विद्ध । वृद्धि-बुटि ।
श्रद्धा-सड्ढा, सद्धा। 'ब्ध' ,, स्तन्ध-ठड्ढ़ ।
( देखिए-पा० प्र० पृ. ४२-ऋद्धि-बुडिढ़ । वर्धमान-वड्ढमान । अर्ध-अड्ढ । दग्ध-दड्ढ श्रादि । द्ध =ड्ढ़, र्ध= ड्ढ, ग्ध=ड्ढ़ ।
ण्ट, ण्ड, पण 'क्त' को 'ण्ट' वृन्त-वेण्ट अथवा वेंट । तालवृन्त-तालवेण्ट । 'न्द' .. 'ण्ड' कन्दरिका-कण्डलिया। भिन्दिपाल-भिण्डिवाल ।
, 'ण' पञ्चदश-पएणरह । पञ्चाशत्-परणासा। 'त' , 'ण' दत्त-दिगण (जहाँ एण न हो वहाँ दत्त पद समझना
चाहिए । जैसे, दत्तं । परन्तु देवदत्त, चारुदत्त श्रादि
नामों में 'त' का परिवर्तन नहीं होता है।) 'ह' , 'ण' मध्याह्न-मज्झएण, मज्झएह । ( देखिए-पा० प्र० पृ० ५८-वृन्त-वएट-नियम ८५)
स्थ३ 'त्स' को 'स्थ' उत्साह-उत्थाह । ..... १. हे० प्रा० व्या०८२,४१,४०,३९। २. हे० प्रा० ब्या०८ा। ३१, ३८,४३, ८४ तथा ८१४६ । ३. हे० प्रा० व्या० ८।२।४८ ।
१६.
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________________
( ७६ )
'त्म'
श्रध्यात्म - श्रज्झत्थ, श्रज्झम्प ।
" ""
( देखिये - पालि प्र० पृ० ३० टिप्पण उत्साह - उस्साह | )
न्त '
१७.
'a' at 'a'
१८.
'ष्ट' 'द्ध'
35
१९.
'ह्न', 'न्ध'
२०.
'त्म' को 'प'
'स्म' 'प'
'हम' 'फ'
'हम'
'फ'
15
"
मन्यु-मन्तु अथवा मंतु, मन्नु ।
.२
श्राश्लिष्ट - श्रालिद्ध |
न्ध ३
चिह्न - चिन्ध, चिंघ, चिरह ।
चिह्नित - चिन्धिश्र, विधि, चिरिह |
प, फ,
श्रात्मा - अप्पा, अत्ता । श्रात्मानः - श्रप्पाणो, श्रत्ताणो । भस्म - भप्प, भस्स ।
भीष्म- भिप्फ |
श्लेष्मन् - सेफ, सिलिम्ह ।
( समानता - 'ले' और 'ष्म' के बीच में 'अ' का प्रक्षेप करने पर शलेषम - गुजराती में 'सलेखम' )
फ
( श्रात्मा श्रत्ता, श्रातुमा देखिये - पा० प्र० पृ० ५० नियम ५७ । श्लेष्मा - सिलेसुमा, सेम्ह देखिये - पा० प्र० पृ० ४६ । )
-
२१.
'र्ध्व' को 'भ' ऊर्ध्व उब्भ, उद्ध ।
ब्भ, म्ब, म्भ
१. हे० प्रा० व्या० ८२४४ ॥ २. हे० प्रा० व्या० ८ २४६ '३. हे० प्रा० व्या०८।२।५० । ४. हे० प्रा० व्या० ८२ ५१,५४, ५५ । ५. हे० प्रा० व्या० ८ २५, ५६, ६०, ७४ ।
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________________
( ८० ) 'म्र' ,, 'म्ब' आम्र-अम्ब । ताम्र--तम्ब । 'श्म' , 'म्भ' कश्मीर--कम्भार, कम्हार । 'ह्म' , 'म्भ' ब्राह्मण-बम्भण, बम्हण ।
ब्रह्मचर्य--बम्भचेर, बम्हचेर । (अाम्र--अम्ब, ताम्र--तम्ब देखिये-पा०प्र० पृ० १५ नियम १८)
२३.
'त्र' को 'र' धात्री-धारी। 'य' को 'र' श्राश्चर्य-अच्छेर । तूर्य-तूर । धैर्य-धीर, धिज ।
पर्यन्त-पेरन्त, पजंत । ब्रह्मचर्य-बंभचेर ।
शौण्डीर्य-सोंडीर, सं० शौण्डीर । सौन्दर्य-सुंदेर । 'ह' को 'र' उत्साह-उत्थार । 'ह' को 'र' दशाई-दसार ।
( देखिए-पा० प्र० पृ० १४ टिप्पण-धात्री-धाती । पा०प्र० पृ. ४ इस्सेरं, मच्छेरं)
ल, ल्लर 'ण्ड' को 'ल' कूष्माण्ड-कोहल, कोहंड । कूष्माण्डी-कोहली, कोहंडी। 'थ' को 'ल्ल पर्यस्त-पल्लट्ट, पल्लत्थ । पर्याण-पल्लाण, सं० पल्ययन ।
सौकुमार्य-सोगमल्ल, सोश्रमल्ल, सं० सौमाल्य । ... ( देखिए-पा०प्र० पृ० १६ टिप्पण-पर्यस्तिका-पल्लस्थिका श्रादि) २४. 'स्प' को 'स्स' बृहस्पति-बहस्सइ, बहप्फह ।
बनस्पति-बणस्सइ, वणप्फह । ( देखिए-पा० प्र० पृ० ३९, वनस्पति-वनप्पति, नियम ४८) .. १. हे० प्रा० व्या० ८।२।८१, ६६,६४,६३,६५,४८,५। २. हे. प्रा०व्या० ८२।७३,६८। ३' हे० प्रा० व्या० ८।२।६६।
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________________
२५.
२६.
'क्ष' को 'ह'
'ख'
'प'
39
33
"
'ह'
'हम' को 'ह'
33
'ह'
""
""
( ८१ )
१
दक्षिण - दाहिण, दक्खिण ।
दुःख - दुह, दुक्ख । दुःखित - दुहिअ, दुक्खअ ।
बाष्प - बाह ( अ
- अंसु गू०, आँसू ) तथा बाष्प
बप्फ ( =भाफ )
।
कुष्माण्ड - कोहण्ड । कुष्माण्डी - कोहंडी ।
दीर्घ - दीह, दिग्घ ।
तीर्थ - तूह, तित्थ ।
कार्षापण - काहापण ।
""
"
( देखिये- पा० प्र० पृ० ८, दुःख - दुक्ख )
૨
द्विर्भाव'
और 'ह' को छोड़कर इकहरे व्यञ्जन को द्वित्व अपर नाम द्विर्भाव है । यह द्विर्भाव कुछ
कुछ शब्दों में 'र' हो जाता है । द्वित्व का ही शब्दों में नित्य होता है और कुछ में वैकल्पिक । नित्य द्विर्भाव : - ऋजु - उज्जु । तैल- तेल्ल । प्रभूत - बहुत्त । प्रेमपेम 1 मण्डूक-मंडुक्क । यौवन- जुव्वण । विचकिल - बेइल्ल । व्रीडा - विड्डा इत्यादि ।
वैकल्पिक द्विर्भाव :- एक -एक्क, इक्क, एअ, एग। कर्णिकार - कण्णिआर, कणिआर । कुतूहल - कोउहल्ल, को उहल |
चैव. -
चिअ चिचअ, चिअ ।
1
चैव-चेअ, च्चेअ, तुहिक । दैव-दइव्य
तुष्णीक - तुहिक्क,
नख - नक्ख, नह । निहित- निहित्त, निहिअ । नेड्डु, नीड | मूक - मुक्क, मूअ । सेवा - सेव्वा, सेवा ।
१. हे० प्रा० व्या० ८।२।७२, ७०, ७३, ६१, ७१ । २. हे० प्रा० व्या० ८२८६, ६५, ६८, ९७, ६२, ८।१।२२ |
चेअ ।
दइव ।
नीड
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________________
( ८२ )
स्थूल- थुल्ल, थूल । स्थाणु - खण्णु, खाणु । हूत - हुत्त, हू इत्यादि ।
आणाल
सामासिक शब्दों में द्विर्भाव : - आलानस्तम्भ - आणालक्खंभ, खंभ | कुसुमप्रकर - कुसुप्पयर, कुसुमपयर | देवस्तुतिदेव, देवथुइ | नदीग्राम - नइग्गाम, नइगाम ।
हरस्कन्द - हरक्खंद, हरखंद इत्यादि ।
जिस इकहरे व्यञ्जन के पूर्व दीर्घ अथवा अनुस्वार हो तो उसे द्वित्व नहीं होता है । जैसे :
क्षिप्त-छूढ का छुड्ढ नहीं होता है ।
स्पर्श - फास
फस्स "
यत्र - तंस
तस्स 37
27
17
17
संध्या-संज्ञा संझा भी द्विर्भाव की प्रक्रिया है । देखिये पा० प्र०
( पालि भाषा में पृ० १०, नियम १२ । )
२७.
"
31
"
17
शब्दों में विशेष परिवर्तन'
अयस्कार- एक्कार ! आश्चर्य -अच्छअर, अच्छरिअ, अच्छरिज्ज, अच्छरीअ । उदूखल - ओहल, उऊहल । उलूखल - ओक्खल, उलूहल | कमल-केल, कमल । कदलो - केली, कयली । कणिकार - कण्णेर, कणिआर, कण्णिआर । चतुर्गुण - चोग्गुण, चउग्गुण । चतुर्थ - चोत्थ, चउत्थ । चतुर्दश- चोट्स, चउद्दस । चतुर्वार- चोव्वार, चरव्वार । त्रयस्त्रिशत् - तेत्तीसा । त्रयोदश-तेरह |
( पालि में अच्छरिय, अच्छायर देखिये पा० प्र० पृ० ४४ टिप्पण । ) १. प्रा० व्या० ८।१।१६६, १६५, १६७, १६८, १७०, १७१, १७४, १७५ तथा ८|२|६६, ६७ ।
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________________
( देखिये पा० प्र० पृ० ४४ नियम ५७, लवण - लोण तथा पृ० ६२, लयन-लेन । देखिये-- - पा० प्र० पृ० २८ नि० ३४, स्थविर - थेर । )
शब्दों में विविध परिवर्तन
२८.
( ८३ )
त्रयोविंशति - तेवीसा । त्रिशत्-तीसा । नवनीत- नोणीअ, लोणीअ । नवफलिका - नोहलिआ । नवमालिकानोमालिआ । निषण्ण - णुमण्ण । पूगफल - पोप्फल । पूतर - पोर । प्रावरण- पंगुरण, पाउरण, पावरण । बदर- बोर । मयूख -मोह । रुदित-रुण्ण ! लवण - लोण । विचकिल - बेइल्ल । विशति - वीसा । सुकुमार-सोमाल (सं० सोमाल ) । स्थविर - थेर ।
अधस् - हेट्ठ | अप - श्री । अप्सरस् -अच्छरसा, अच्छरा । अयि - ऐ, अइ । अव - ओ | अवधि - ओहि । आयुष्आउस । आरब्ध- आढत्त, आरद्ध । इदानीं - एहि, एता, दाणि, इआणि (शौरसेनी - दाणि) । ईषत् - कूर, ईसि, ईसि । उत - ओ । उप-ऊ, ओ । उपाध्यायऊज्झाय. ओज्झाय, उवज्झाय । उभय- अवह, उवह, उभयो । ककुभ् - कउहा । क्षिप्त-छूढ, खित्त । क्षुध् - छुहा । गृह-घर । गृहस्वामी - घरसामी । गृहपति-गवइ । छुप्त - छिक्क, छत्त तिरिच्छ । त्रस्त - हित्थ, तट्ठ, तत्थ । दुहिता - धूआ, दुहिआ । दंष्ट्रा - दाढ़ा ( सं० दाढा ) |
राजगृह - रायघर ।
।
तिर्यक् - तिरिया,
दिश- दिसा ।
१. हे० प्रा० व्या० ८|२|१४१ | ८ | ११७२ २०, १६६, १७२, ८।२।१२९ । ८|१|१७२,
२० । ८।२।१३८,
१३४ ।
८।४।२७७ ।
१७३ | ८।२।१३८ ।
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________________
( ८४ ) . धनुष्-धणुह, धणु। धृति-दिहि । पदाति-पाइक्क, पयाइ । प्रावृष्-पाउस । पितृष्वसा-पिउच्छा, पिउसिआ । पूर्व-पुरिम, पुव्व ( शौरसेनी-पुरव ) । बहिस्बाहिं, बाहिरं । बृहस्पति-भयस्सइ, बहस्सइ । भगिनीबहिणी, भइणी । मलिन-मइल, मलिण । मातृष्वसा-माउच्छा, माउसिआ। मार्जार-मञ्जर, वञ्जर, मज्जार । वनिता-विलया, वणिआ। विद्रुतविद्दाअ । वृक्ष-रुक्ख, वच्छ । वैडूर्य-वेरुलिय, वेडुज्ज । शुक्ति-सिप्पि, सुत्ति । स्तोक-थेव, थोव, थोक्क, थोम ।
स्त्री-इत्थी, थी। श्मशान-सीआण, सुसाण, मसाण' । 'अपभ्रंश भाषा में निम्नलिखित शब्दों का विशेष परिवर्तन इस प्रकार है :सं० प्रा०
अपभ्रंश अन्यादृश अन्नारिस
अन्नाइस अपरादृश
अवरारिस • अवराइस ( देखिये-पा० प्र० पृ० ५६ नि० ७८, गृह-घर । गृहणी-घरणी । पृ० १६, तिर्यक्-तिरिय । पृ० ३४ टिप्पण, पितृष्वसा-पितुच्छ । पृ० २७, स्तोक-थोक । पृ० ५१ टिप्पण-श्मशान-मसान, मुसान ।)
१. हे० प्रा० व्या० ८।१।२१। ८।२।१२७, ८।१।१७, ८।२।१४४, ८।२।१३८, ८।२।१४३, ८।२।१३६। ८।१।१९, ८।२।१२६, ८।२।१३६, ८।१।२२, ८।२।१३१, ८।२।१३८, ८।१।१६, ८।२।१४२, ८।२।१३५, ८।४।२७०, ८।२।१४०, ८।२।१३७, ८।२।१२६, ८।२।१३८, ८।२।१४२, ८।२।१३२, ८।२।१२८, ८।१।१०७, ८।२।१२७, ८।२।१३३, ८।२।१३८, ८।२।१२५, ८।२।१३०, ८।२।८६ । २. हे० प्रा० व्या० ८।४।४१३, ८।४।४०३, ८।४।४०२, ८।४।४२१ ।
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________________
(
८५
)
ईदृश कीदृश तादृश यादृश वर्त्म · विषण्ण
एरिस केरिस तारिस जारिस वट्ट विसण्ण
अइस, एह कइस, केह तइस, तेह जइस, जेह विच्च
वुन्न
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________________
आगम
कुछ शब्दों के संयुक्त व्यञ्जनों के बीच में स्वरों का आगम होता है। इसे स्वर-प्रक्षेप वा अन्तःस्वरवृद्धि
अथवा स्वर-भक्ति कहते हैं । 'अ का आगमः-अग्नि-अगणि, अग्गि । अर्हन्-अरहंत । कृष्ण
कसण, कण्ह ( अर्थात् काला रंग )।क्ष्मा-छमा । प्लक्षपलक्ख । रत्न-रतन, रयण । शाङ्ग-सारंग । श्लाघासलाहा । स्निग्ध-सणिद्ध । सूक्ष्म-सुहम । स्नेह-सणेह,
नेह ।
इ का आगमः-अर्हत्-अरिहंत । कृत्स्न-कसिण, कण्ह । क्रिया
किरिया, किया। चैत्य-चेइअ । तप्त-तविअ । दिष्टयादिट्ठिआ। भव्य-भविअ, भव । वज्र-वइर, वज्ज । श्री-सिरी। स्निग्ध-सिणिद्ध, निद्ध। स्याद्-सिआ। स्याद्वाद-सिआवाअ । स्पप्न-सिविण, सिमिण, सुमिण । ह्यः-हिओ । ह्री-हिरी।
१. हे० प्रा० व्या० ८।२।१०२, ८।२।१११, ८।२।११०, ८।२।१०१, का२।१०३, ८।२।१०१, ८।२।१००, ८।२।१०१, ८।२।१०९, ८।२।१०१, ८।२।१०२। २. हे० प्रा० व्या० ८।२।१११, ८।२।११०, ८।२।१०४, ८।२।१०७, ८।२।१०५, ८।२।१०४, ८।२।१०७, ८।२।१०५, ८।२।१०४, ८।२११०६, ८।२।१०७, ८।२।१०८, ८१२।१०४ ।
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________________
( ८७ )
'ई का आगम: - ज्या- जीआ ।
* उ का आगमः -- अर्हत्-अरुहंत । छद्म-छउम । द्वार - दुवार, दुआर, दार, देर, वार । पद्म- पउम, पोम्म । मूर्ख - मुरुक्ख, मुक्ख । श्वः - सुवे । स्नुषा - सुनुसा, सुण्हा, ण्हुसा, सुसा । सूक्ष्म - सुहुम, सुहम, सण्ह, सुण्ह । स्र ुघ्न - सुरुग्ध स्व-सुव ।
।
२९. विशेष शब्दों में अनुस्वार का आगमः - अतिमुक्तक - अइमुंत्तय,
अइमुत्तय । अश्रु-अंसु । उपरि-अवर, उवरि । कर्कोटकंकोड । कुड्मल - कुंपल । गुच्छ - गुंछ । गृष्टि- गिठि, गिट्टि । यत्र - तंस, | दर्शन - दंसण, दरिसण | देवनागदेवनाग | पशु-पंसु, परिसु । पुच्छ - पुंछ, पुच्छ । प्रतिश्रुत - पडंसुआ । बुन - बुध । मनस्वि- मणसि । मनस्विनी - मसिणी | मनःशिला - मणंसिला, मणसिला, मणासिला, मणोसिला । मूर्धन् - मुंढ, मुद्ध | मार्जारमंजार, मज्जार । वक्र-वंक, वक्क । वयस्य-वयंस, वयस्स । वृश्चिक - विछिअ, विचुअ । श्मश्रु-मंसु, मस्सु । * शौरसेनी भाषा में णकार का विकल्प से आगमःशो०
सं० युक्तम् इदम्
सदृशम् इदम्
किम् एतद्
एवम् एतद्
प्रा०
जुत्तं इणं सरिसं इणं
कि एअं
एवं एअं
-
जुत्तं णिमं, जुत्तं इणं ।
सरिसं णिमं, सरिसं इणं ।
कि दं, कि एदं ।
एवं
दं, एवं एदं ।
१. हे० प्रा० व्या० ८।२।११५ । २. हे० प्रा० व्या० ८१२११११, ८२११२, ८२।११४, ८।२।११३, ८।२।११४ । ३. हे० प्रा० व्या० १२६ । ४. हे० प्रा० व्या० ८।४।२७६ ।
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________________
( ८८ ) 'अपभ्रंश भाषा में विशेष शब्दों के किसी-किसी प्रयोग में स्वर अथवा व्यञ्जन का आगमःसं० प्रा०
अप० उत्त
वुत्त-'व' का आगम परोप्पर अपरोप्पर-'अ'का आगम
वास-'र' का आगम ३०. 'अक्षरों का व्यत्यय ( व्यतिक्रम ) :
उक्त
परस्पर
व्यास
वास
अचलपुर-अलचपुर । आलान-आणाल । करेणु-कणेरु महाराष्ट्र-मरहट्ठ। लघुक-हलुअ, लहुअ । ललाटणडाल, णलाड । वाराणसी-वाणारसी, सं० वराणसी, वाणारसी, वराणसि । हरिताल-हलिआर, हरिआल । ह्रद-द्रह, हर।
१.हे० प्रा० व्या०८१४।४२१,८।४।४०६, ८।४।३९९ । २. हे० प्रा० व्या० ८।२।११८, ८२।११७, ८।२।११६, ८।२।११९, ८।१।१२२, ८।२। १२३, ८।२।११६, ८।२।१२१, ८२।१२० ।
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________________
नर्मन्
मर्मन्
तमस् तेजस्
उरस्
लिंगविचार कुछ शब्दों के लिंग में जो परिवर्तन होता है वह इस प्रकार है :
जिन शब्दों के अन्त में स् अथवा न हो वे सभी शब्द पुंलिंग में होते हैं।
पु० सं० पु० यशस् जसो जन्मन् जम्मो पयस् पयो
नम्मो तमो
मम्मो तेओ वर्मन् वम्मो
उरो धामन् घामो 'जसो', 'पयो' आदि शब्दों के अन्त में 'ओकार' नर जाति ( पुंलिंग) सूचित करता है। अपवाद :-दामन्-दामं । शर्मन्-सम्मं । चर्मन्-चम्मं । शिरस्-सिरं ।
सुमनस्-सुमणं । प्रावृष-शरद् और तरणि शब्द पुंलिंग में प्रयुक्त होते हैं। प्रावृष्पाउसो। शरद्-सरओ। तरणि-तरणी। 'आँख' अर्थवाले सभी शब्द पुंलिंग में विकल्प से प्रयुक्त होते हैं ।
पुं०
नपुं० अक्षि अक्खी
अक्खि अक्षि अच्छी
সক্তি चक्षु चक्खू
चक्खं
.
१. हे० प्रा० व्या० ८।१।३२, ८।१।३१, ८।१।३३, ८.१३४, ८।११३५ ।
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विद्युत्
छंदो
दुवखं
( ६० ) नयन नयणो
नयणं लोचन लोयणो
लोयणं निम्नलिखित शब्द पुंलिंग में विकल्प से प्रयुक्त होते हैं । वचन वयणो
वयणं विज्जुणा
विज्जुए
( तृतीया विभक्ति) कुल कुलो
कुलं
छंदं माहात्म्य माहप्पो
माहप्पं दुक्खो भाजन भायणो
भायणं निम्नलिखित शब्द नपुंसकलिंग में विकल्प से प्रयुक्त होते हैं।
गुणो देव देवं
देवो
बिन्दू खङ्ग खग्गं
खग्गो मण्डलाग्र मंडलग्गं
मंडलग्गो कररूह कररुहं
करहो वृक्ष रुक्खं
रुक्खो जिन शब्दों के अन्त में भाववाची 'इमा' प्रत्यय हो तो वे शब्द स्त्रीलिंग में विकल्प से प्रयुक्त होते हैं । सं० पुंलिंग
स्त्रीलिंग गरिमन् गरिमा
गरिमा महिमन् महिमा
महिमा निर्लज्जिमन् निल्लज्जिमा
निल्लज्जिमा धुत्तिमा
धुत्तिमा
गुण
गुणं
विन्दु
बिन्दु
धूर्तिमन्
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( ९१ )
अञ्जलि आदि शब्द स्त्रीलिंग में विकल्प से प्रयुक्त होते हैं ।
सं ०
स्त्रीलिंग
अञ्जलि
अंजली
पृष्ठ
अक्षि
प्रश्न
चौर्य
कुक्षि
बलि
निधि
रश्मि
विधि
ग्रन्थि
अंजलि
पिट्ठ
अच्छि
पण्हो
चोरिअ
कुच्छी
बली
निही
रस्सी
विही
गंठी
पिट्टी
अच्छी
पण्हा
चोरिआ
कुच्छी
बली
निही
रस्सी
विही
गंठी
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सन्धि
सन्धि अर्थात् परस्पर मिल जाना, एक दूसरे में मिल जाना अथवा एक दूसरे में छिप जाना ।
प्रथम पद के अन्तिम स्वर और पिछले पद के पूर्व स्वर के मिल जाने पर जो परिवर्तन होता है उसे स्वर-सन्धि कहते हैं ।
पद के अन्दर के व्यञ्जन का अपने पीछे आनेवाले व्यञ्जन के कारण जो परिवर्तन होता है उसे व्यञ्जन सन्धि कहते हैं । जैसे:
कंठ-कण्ठ | चंद-चन्द । कंकण - कङ्कण | संख - सङ्घ । गंगा-गङ्गा आदि ।
अर्धमागधी में संस्कृत की भाँति पृथक्-पृथक् व्यञ्जनों की सन्धि नहीं होती ।
१.
एक पद में सन्धि नहीं होती है' :
प्राकृत भाषा के अनेकानेक शब्द स्वरबहुल होते हैं ऐसे पदों में सन्धि करने से अर्थभ्रम होता है अतः इस भाषा में एक पद में सन्धि नहीं होती है । जैसे:——
नई (नदी), पइ (पति), कइ (कवि), गअ ( गज), गउआ (गो-गाय), काअ (काक), लोअ (लोक), रुइ (रुचि), रइ ( रति) आदि ।
अपवादः – कुछ शब्दों में एक पद में भी स्वरसन्धि हो जाती है ।
जैसे:
१. हे० प्रा० व्या ८।१।४
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वि + ईअ = बीअ वि + इअ =
बिइअ
(
९३)
} द्वितीय ( दूसरा )
काहि } करेगा ( करिष्यति )
काहि + इ = काही
१
"थ + इर = थेर ( वृद्ध = स्थविर )
च + उ + इस = चोद्दस ( चौदह चतुर्दश ) कुम्भ + आर = कुम्भार ( कुम्हार = कुम्भकार ) चक्क + आअ = चक्काअ ( चक्रवाक् = चकवा पक्षी ) सालाहण ( शालिवाहन राजा )
साल + आहण
क्रियापद के स्वर की स्वर परे रहनेपर सन्धि नहीं होती है । जैसे :
होइ + इह = होइ इह । सं० भवति + इह = भवति इह ।
३. 'ई अथवा उ, ऊ' के पश्चात् कोई भी विजातीय स्वर आ जावे तो सन्धि नहीं होती । जैसे :
-
=
-जाइ + अन्ध = जाइअंध ( जाति अन्ध-जात्यन्ध = जन्मान्ध ) ई - पुढवी + आउ पुढवीआउ ( पृथ्वी-प्राप = पृथ्वी और पानी ) उ-बहु + अट्ठि = बहुअट्ठिय ( बहुअस्थिक = बहुत-सी हड्डियोंवाला ) ऊ - बहू + अवगूढ = बहूअवगूढ ( वधू अवगूढ )
४. 'ए और ओ' के बाद स्वर परे होने पर सन्धि नहीं होती । जैसे :
ए - महावीरे + आगच्छइ । एगे + आया । एगे + एवं ।
ओ - अहो + अच्छरियं । गोयमो + आघवेइ ।
आलम + इहि ।
१. देखिये, पिछले उदाहरणों में नियम २७ के अन्तर्गत । २. हे० प्रा० व्या० ८।११८ । ३. हे० प्रा० व्या० ८११६ | ८१६ । ५. हे० प्रा० व्या० ८२११७।
४. हे० प्रा० व्या०
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९४ )
५. दो पदों में भी व्यञ्जन के लोप होने पर शेष स्वरों की सन्धि
नहीं होती' । जैसे :
निशाकर - निसा + अर = निसाबर । निसि + अर = निसिअर ।
रजनीकर - रयणी + अर = रयणीअर । रजनीचर- रयणी + अर = रयणीअर | निशाचर - निसा + अर
गन्धपुटी - गंध + उडी = गंधउडी ।
६.
'अ और आ' के बाद अ और आ रहने पर दीर्घ आकार हो जाता है | जैसे :
( अ + अ = आ । अ + आ आ । आ + अ = आ । आ + आ = आ । ) - जीव + अजीव = जीवाजीव ।
अ
विसम + आयव = विसमायव ( विषम + आतप ) |
निसार । निसि + अर
८. 'उ और ऊ' के बाद जाता है । जैसे :( उ + उ=ऊ । बहू + उदग - बहूदग ।
आ - गंगा + अहिवइ : गंगाहिवइ ।
जउणा + आणयण = जउणाणयण ( यमुना + आनयन ) । ७. 'इ और ई' के परे इ और ई हो तो दीर्घ ईकार हो जाता
है । जैसे :
।
( इ + इ = ई । इ + ई = ई इ - मुणि + इयर = मुनियर । पुहवी + दहि + ईसर = दहीसर ।
ई + इ = ई । ई + ई = ई | ) ईस = पुहवीस | पुहवी + इसि = पुहवीसि ।
उ तथा ऊ रहने पर दीर्घ ऊकार हो
=
१. हे० प्रा० व्या० ८१११८ । १।२।१ । ३. सिद्ध हे० सं० व्या०
निसिअर ।
उ + ऊ=ऊ ऊ + उ = ऊ । ऊ + ऊ = ऊ । ) बहू + उपमा-बहूपमा ।
२. ५. हे० सं० सिद्धहेम० ल० वृ० ११२ ११ ।
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( ६५ )
• सादु + उदग-सादूदग।
बहू + ऊसास-बहूसास ।
बहु + ऊसास बहूसास । ९. स्वर के बाद स्वर रहने पर पूर्वस्वर का लोप भी हो जाता
नर + ईसर-नर + ईसर = नरीसर, नरेसर । तिदस + ईस-तिदस् + ईस=तिदसीस, तिदसेस । निसास + ऊसास-नीसास् + ऊसासनीसासूसास । रमामि + अहं-रमामहं । तम्मि + अंसहर तम्मंसहर । उवलभामि+ अहं = उवलभामहं । देविंद+ अभिवंदिअ = देविदभिवंदिअ ।
ददामि + अहं = ददामहं । ण+ एव = णेव । १०. जहाँ दो स्वर पास-पास आते हों वहाँ कई स्थानों पर
पिछले पद के पहले स्वर का लोप हो जाता है। जैसे :फासे + अहियासए = फासे हियासए। बालो + अवरज्झइ = बालो वरज्झइ ।
एस्संति अणंतसो = एस्संति णंतसो । ११. सर्वनाम सम्बन्धी स्वर अथवा अव्यय सम्बन्धी स्वर पास-.
पास आये हों तो दो में से किसी एक का लोप हो जाता है। जैसे :तुब्भे + इत्थ = तुब्भित्थ । जे + एत्थ = जेत्थ । अम्हे + एत्य = अम्हेत्थ । जइ + अहं = जइहं । जे+ इमे = जेमे । जइ + इमा = जइमा ।
५. हे० प्रा० व्या० ८।१।१० । २. सिद्ध हे० सं० व्या० ११२।२७ ।, इस सूत्र से मिलता-जुलता यह नियम है। ३. हे० प्रा० व्या० ८।११४० ।
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( ६६ ) १२. किसी भी पद के बाद में आये हुए 'अपि' अथवा 'अवि'
अव्यय के 'अ' का विकल्प से लोप होता है। जैसे :'किं + अपि = किंपि, किमवि। केण + अवि = केणवि, केणावि ।
केहं + अपि = कहंपि, कहमवि । १३. किसी भी पद के बाद में आये हुए 'इति' अव्यय के 'इ' का
लोप हो जाता है।
जं + इति = जंति । जुत्तं + इति = जुत्तंति । दि+ इति = दिटुंति । १४. यदि स्वरान्त पद के पश्चात् 'इति' अव्यय आ जाय तो 'इ'
का लोप होने पर 'ति' का डबल (द्वित्व) 'त्ति हो जाता है। तहा + इति = तहत्ति । पुरिसो + इति = पुरिसोत्ति । पिओ + इति=
पिओत्ति । १५. भिन्न-भिन्न पदों में अ अथवा आ से परे इ अथवा ई हो
तो 'ए' (गुण) हो जाता है। न + इच्छतिनेच्छति । जाया + ईस जायेस । वास + इसि वासेसि ।
खट्टा + इह = खट्टेह ( खट्वा + इह )। दिण + ईस= दिणेस । १६. भिन्न-भिन्न पदों में अ और आ के बाद उ अथवा ऊ रहने
पर 'ओ' (गुण) हो जाता है। जैसे :सिहर + उवरि = सिहरोवरि। गंगा + उवरि = गंगोवरि । एग + ऊण = एगोण। वीस + ऊण = वीसोण । पाअ + ऊण = पाओण ।
पउन (तीन पाव ) १७. पद के अन्तिम 'अ' का अनुस्वार होता है।
जलम् = जलं । फलम् = फलं । गिरिम् = गिरि ।
१. हे० प्रा० व्या० ८।११४१ । २-३. हे० प्रा० व्या० ८।१।४२ । ४. देखिये-नियम (२)। ५-६. सि० हे० सं० व्या० १।२।६ । . ७. हे० प्रा० व्या० ८।१।२३ ।
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( ६७ ) अपवादः-वणम्मि-वर्णमि, वणम्मि । १८. यदि पद के अन्तिम 'म्' के पश्चात् स्वर आ जाये तो
उसका विकल्प से अनुस्वार होता है।' उसमम् + अजिअं = उसमं अजिअं, उसममजिअं । नगरम् + आग
च्छइ = नगरं आगच्छइ, नगरमागच्छइ । १९: कुछ शब्दों के अन्तिम व्यञ्जन का अनुस्वार हो जाता
है । जैसे:साक्षात्-सक्खं
पृथक्-पिहं यत्-जं
सम्यक-सम्म तत्-तं
ऋधक्-इहं विष्वक्-वीसुं
ऋधकक्-इहयं २०. ङ, अ, ण तथा न् के बाद व्यञ्जन परे रहने पर अनुस्वार
हो जाता है। जैसे :शङ्ख-सङ्घ, संख। षण्मुख-छण्मुह, छमुह ।
कञ्चुक-कञ्चुअ, कंचुअ। सन्ध्या-संझा। २१. कुछ शब्दों में अनुस्वार का लोप हो जाता है । जैसे :
विंशति-वीसा । एवम्-एवं-एव, एवं । त्रिंशत्-तीसा।
नूनम्-नूनं-नूण, नूणं । संस्कृत-सक्कय (सं० सस्कृत) । इदानीम्-इआणिसंस्कार-सक्कार (सं०सस्कार)। इआणि, इआणि, मांस-मांस, मंस । दाणि, दाणि । मांसल-मासल, मंसल । किम्-किं, कि, किं ।
१. हे० प्रा० व्या० ८।१।२४ । २. हे० प्रा० व्या० ८।१।२४ । ३. हे० प्रा० व्या० ८।१।२५। ४. हे० प्रा० व्या० ८१।२८,२६ ।
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( १८ ) कांस्य-कास, कंस। . संमुख-समुह, संमुह । पांशु-पासु, पंसु । किंशुक-केसुअ, किंसुअ ।
कथम्-कथं, कह, कहं । सिंह-सीह, सिंघ । २२. अनुस्वार के बाद वर्ग के किसी भी व्यञ्जन के परे रहने
पर विकल्प से वर्ग का पाँचवाँ अक्षर हो जाता है। जैसे:पंक-पङ्क, पंक
कंड-कण्ड, कंड संख-सङ्क, संख
संढ-सण्ढ, संढ अंगण-अङ्गण, अंगण अंतर-अन्तर, अंतर लंघण-लवण, लंघण पंथ-पन्थ, पंथ कंचुअ-कञ्चुअ, कंचुअ चंद-चन्द, चंद लंछण-लञ्छण, लंछण बंधु-बन्धु, बंधु अंजन-अजण, अंजण कंप-कम्प, कंप संझा-सञ्झा, संझा गुंफ-गुम्फ, गुंफ कंटअ-कण्टअ, कंटअ कलंब-कलम्ब, कलंब कंठ-कण्ठ,कंठ
आरंभ-आरम्भ, आरंभ २३. कुछ शब्दों में दो पदों के बीच 'म्' का आगम हो जाता
है । जैसे :अन्न + अन्न = अन्नम् अन्न-अन्नमन्न । एग + एग=एगम् एग-एग्गमेग । चित्त + आणंदिय=चित्तम् आणंदिय-चित्तमाणंदिय । - जहा + इसि = जहाम् इसि-जहामिसि । इह + आगअ = इहम् आगअ-इहमागअ । हट्टतुट्ठ + अलंकिअ = हट्ठ तुट्ठम् आलंकिय-हट्टतुट्ठमालंकिय ।
१. हे० प्रा० व्या० ८।१।३० । २. हे० प्रा० व्या० ८।३।१० ।
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(६६ ) अणेगछन्दा + इह = अणेगछंदाम् इह-अणेगछंदामिह ।
जुन्यण + अप्फुण्ण = जुव्वणम् अप्फुण्ण-जुन्धणमप्फुण्ण । २४. कुछ शब्दों का अन्तिम व्यञ्जन लोप होने की अपेक्षा पास
वाले स्वर में ही मिल जाता है। जैसे :किम् + इहं = किमिहं निर् + अन्तर = निरन्तर । यद् + अस्ति = यदत्थि, जदत्थि दुर् + अतिक्रम = दुरतिक्रम ।
पुनर् + अपि = पुणरवि दुर् + अइक्कम = दुरइक्कम । २५. यहाँ सन्धि के जो-जो नियम बताये गये हैं उनका उपयोग
दो पदों में ही करना चाहिये। जहाँ एक से अधिक नियम लागू हों वहाँ प्रचलित प्रयोगों के अनुसार सन्धि करनी चाहिए जिससे अर्थभ्रम न हो । अक्षरपरिवर्तन तथा लोप के नियम का उपयोग करते समय भी अर्थभ्रम न हो इसका ख्याल रखना जरूरी है।
१. स्वरहीनं परेण संयोज्यम् । तथा हे० प्रा० व्या० ८।१।१४ ।
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समास'
समास का अर्थ है संक्षेप याने थोड़े शब्दों में अधिक अर्थ बतानेवाली शैली का नाम समास है । जिसमें लिखना और बोलना कम पड़ता है फिर भी विशेष अर्थ समझने में किसी प्रकार की कोई न्यूनता न रहे ऐसी शैली को खोज में समास शैली की शोध हुई । इस शोध का विकास पण्डितों की शैली में विशेष रूप से हुआ । बोलचाल की लोकभाषा में इस शैली का प्रचार बहुत कम दिखाई देता है । परन्तु जब लोकभाषा केवल साहित्य की भी भाषा बन जाती है तब उसमें भी इसका प्रयोग प्रचुर मात्रा मे होता है ।
'न्याय का अधीश' कहना हो तो समास विहीन शैली में 'नायस्स अधीसो' कहा जाएगा । जब कि समासशैली में 'नायाधीसो' कहा जाएगा अर्थात् जिस अर्थ को बताने के लिए समास विहीन शैली में छः अक्षरों की आवश्यकता पड़ती है उसी अर्थ को बताने के लिए समासशैली में केवल चार अक्षरों से ही काम चल जाता है ।
कहना हो तो देसो" इतना
इसी प्रकार "जिस देश में बहुत से वीर हैं वह देश " समास विहीन शैली में " जम्मि देसे बहवो वीरा सन्ति सो लम्बा वाक्य कहना पड़ता है जब कि उसी अर्थ को बताने के लिए समासशैली में "बहुवीरो देसो" इतने कम अक्षरों से ही काम चल जाता है | अर्थात् जिस अर्थ को बताने के लिए समास विहीन शैली में चौदह अक्षरों की आवश्यकता पड़ती है, उसी अर्थ को संपूर्ण रूप से बताने वाली समासशैली में केवल छः अक्षरों से ही सुन्दर रूपेण काम चल जाता है । समासशैली की यही सब से बड़ी विशेषता है ।
१. सिद्धम० सं० व्या० ३ | १|१ से १६३ - सम्पूर्ण समास प्रकरण ।
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इसके अतिरिक्त समासशैली की और भी अनेक विशेषताएँ हैं जैसे 'अहिणउलं' ( अहिनकुलम् ) में एकवचनी द्वन्द्व समास साँप और नकुल दोनों के जातिगत स्वाभाविक विरोध को प्रकट करता है-जब कि 'देवासुरं' में एकवचनी द्वन्द्व समास देव और असुरों में मात्र विरोध को ही सूचित करता है। ____ इसके अतिरिक्त कई बार जब समास में पूर्वपद की विभक्ति का लोप नहीं होता तब वह किसी अर्थविशेष को बताता है; जैसे 'गेहेसूरो' समास मनुष्य की कायरता को सूचित करता है। "तित्थे कागो अत्थि" यह समास विहीन वाक्य कोई खास विशेष अर्थ नहीं बताता। जबकि 'तित्थकाग' ( तीर्थकाक ) सामासिक वाक्य तीर्थवासी मनुष्य की अधमता बतलाता है । - कहीं-कहीं समास में मध्यमपद के लोप होने पर भी उसका अर्थ बराबर सूचित होता रहता है । जैसे 'झसोदर' सामासिक शब्द का अर्थ "मछलो के पेट की भांति पेट है जिसका" ऐसा होता है। वस्तुतः ऐसा अर्थ बताने के लिए 'झसोदरोदर' ( झस-मछली, उदर-पेट, उदर-पेट) शब्द प्रयुक्त होना चाहिए जब कि इसके बदले केवल 'झसोदर' शब्द ही उक्त अर्थ को पूर्णरूप से बता देता है। इस समास का ही यह एक चमत्कार है। ऐसे समास को 'मध्यमपद-लोपी' समास कहते हैं। इसके अतिरिक्त समासशैली की विशेषता बताने के लिए "दंडादंडी' ( दण्डादण्डि ), केसाकेसी ( केशाकेशि ), अनुरूप ( अणुरूव ), जहासत्ति ( यथाशक्ति ) आदि अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं परन्तु उन सभी उदाहरणों को विस्तारपूर्वक देने का यह स्थान नहीं है।
इस बात का यहाँ विशेष ध्यान रखना चाहिए कि समासों की जो खूबी पण्डिताऊ भाषा में है वह खूबी एक समय की लोकभाषारूप इस प्राकृत भाषा में नहीं । परन्तु जब से यह भाषा भी साहित्यिक भाषा बनी तब से इसके ऊपर भी पण्डितों की भाषा के समासों का प्रभाव पर्याप्त रूप से पड़ा है और इसीलिए यहां समासों की थोड़ी चर्चा करना समुचित है।
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( १०२ )
समास के प्रसिद्ध चार भेद अथवा प्रकार निम्नलिखित हैं १. दंद ( द्वन्द्व ), २. तप्पुरिस ( तत्पुरुष ), ३. बहुब्वीहि ( बहुव्रीहि ), ४. अव्वईभाव ( अव्ययीभाव ) । जिन शब्दों का समास किया जाता है उन्हें अलग-अलग कर देने को विग्रह कहते हैं, विग्रह याने अलग करना ।
१. द्वन्द्व समास :--
द्वन्द्व याने जोड़ा ( युगल ), द्वन्द्व समास के जोड़े में प्रयुक्त दो अथवा दो से भी अधिक शब्दों में कोई मुख्य अथवा गौण नहीं होता अर्थात् द्वन्द्व समास में प्रयुक्त सभी शब्दों को समान मर्यादा है । जैसे :-- - 'मातापिता', 'सगा सम्बन्धी' ये दोनों उदाहरण द्वन्द्व समास के हैं । उसी प्रकार 'पुण्णपावाई', 'जीवाजीवा', 'सुहदुक्खाई', 'सुरासुरा' आदि उदाहरण भी द्वन्द्व समास के हैं । द्वन्द्व समास का विग्रह इस प्रकार है :
पुण्णं च पावं च पुण्णपावाई | जीवा य अजीवा य जीवाजीवा ।
:
सुहं च दुक्खं च सुहदुःखाइं । सुरा य असुरा य सुरासुरा ।
द्वन्द्व समास द्वारा बने शब्द अधिकतर बहुवचन में प्रचलित हैं । इसी प्रकार 'हत्थपाया' ( हस्तपादाः ), 'लाहालाहा' ( लाभालाभा: ), ' सारासार' (सारासारम्), 'देवदाणवगंधण्या' (देवदानवगन्धर्वाः ) आदि । द्वन्द्व समास के विग्रह में य, अ अथवा च प्रयुक्त होता है ।
२. तप्पुरिस समास :
जिस समास का पूर्वपद अपनी विभक्ति के सम्बन्ध से उत्तरपद के साथ मिला हुआ हो वह तत्पुरुष समास कहलाता है । इस समास का पूर्वपद द्वितीया विभक्ति से लेकर सप्तमी विभक्ति तक होता है । पूर्वपद जिस विभक्ति का हो उसी नाम से तत्पुरुष समास कहा जायेगा । जैसे:
HOT WAS
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( १०३ ) बिईया तप्पुरिस ( द्वितीया तत्पुरुष), तईया तप्पुरिस ( तृतीयातत्पुरुष ), चउत्थी तप्पुरिस (चतुर्थी तत्पुरुष), पंचमी तप्पुरिस (पञ्चमी तत्पुरुष ), छट्टो 'तप्पुरिस (षष्ठी तत्पुरुष ) और सत्तमी तप्पुरिस ( सप्तमी तत्पुरुष )।
इन सभी के उदाहरण क्रमशः इस प्रकार हैं। बिईया तप्पुरिस:
इंदियं अतीतो-इंदियातीतो । वीरं अस्सिओ-वीरस्सिओ (वीराश्रितः)। सुहं पत्तो-सुहपत्तो । खणं सुहा-खणसुहा (क्षणसुखा)।
दिवं गतो-दिवंगतो। तईया तप्पुरिसः
ईसरेण कडे-ईसरकडे (ईश्वरकृतः)। मायाए सरिसी-माउसरोसी दयाए जुत्तो-दयाजुत्तो । कुलेण गुणेण सरिसी-कुलगुणसरिसी। गुणेहिं संपन्नो-गुणसंपन्नो । रूवेण समाणा-रूवसमाणा।
रसेण पुण्णं-रसपुण्णं । चउत्थो तप्पुरिस:
लोगाय हितो-लोगहितो । बहुजणस्स हितो-बहुजणहितो।
लोगस्स सुहो-लोगसुहो । थंभाय कटुं-थंभकर्छ । पंचमी तप्पुरिसः
दंसणाओ भट्ठो-दसणभट्ठो । वग्घाओ भयं-बग्घभयं । अन्नाणाओ भयं-अन्नाणभयं । रिणाओ भुत्तो-रिणभुत्तो (भुवतः) ।
संसाराओ भीओ-संसारभीओ। छट्ठी तप्पुरिसः
देवस्स मंदिरं-देवमन्दिरं । लेहस्स साला-लेहसाला । कन्नाए मुहं-कन्नामुहं । विज्जाए ठाणं-विज्जाठाणं ।
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( १०४ ) नरस्स इंदो-नरिन्दो । समाहिणो ठाणं-समाहिठाणं ।
देवस्स इंदो-देविंदो। सत्तमी तत्पुरिसः
कलासु कुसलो-कलाकुसलो । जिणेसु उत्तमो-जिणोत्तमो । बंभणेसु उत्तमो-बंभणोत्तमो । दिएसु उत्तमे-दिओत्तमे नरेसु सेट्ठो-नरसेट्ठो।
उववय समास ( उपपद समास ) तत्पुरुष समास के अन्दर ही समाविष्ट हो जाता है। उववय ( उपपद ) समास में अन्तिम पद कृदन्तसाधित होता है यही इसकी विशेषता है । उववय समास के कुछ उदारहण :
कुंभगार (कुम्भकार) भासगार (भाष्यकार) सव्वण्णु (सर्वज्ञ) निण्णया (निम्नगा) (पादप)
नोयगा
(नीचगा) कच्छव (कच्छप) नम्मया (नर्मदा) अहिव (अधिप) सगडब्भि (स्वकृतभित्) गिहत्थ (गहस्थ) पावनासग (पापनाशक ) सुत्तगार (सूत्रकार) वुत्तिगार (वृत्तिकार) आदि । विशेषण और विशेष्य का समास भी तत्पुरुष के भीतर समा जाता है उसका दूसरा नाम 'कम्मधारय समास' है । उसके उदारहण:- .
पीअं च तं वत्थं च-पीअवत्थं । रत्तो च सो घडो च-रत्तघडो । गोरो च सो वसभो च-गोरवसभो। महंतो च सो वीरो च-महावीरो। वीरो च सो जिणो च-वीरजिणो ।
पायव
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________________
( १०५ )
महंतो च सो रायो च - महारायो । कण्हो च सो पक्खो च- कण्हपक्खो । सुद्धो च सो पक्खो च- सुद्धपक्खो । कभी इस समास में दोनों विशेषण भी होते हैं । रत्तपीअं वत्थं - ( रक्तपीतं वस्त्रम्) । सी उन्हं जलं - (शीतोष्णं जलम् ) ।
कई बार पूर्वपद उपमासूचक होता है । चन्दो इव मुहं - चंदमुहं ।
घणो इव सामो- घणसामो ।
वज्ज इव देहो - वज्जदेहो ( वज्रदेहः) ।
कई बार अन्तिम पद उपमासूचक होता है ।
मूहं चंदो इव - मुहचंदो । जिणो इंदो इव-जिणेंदों ।
कई बार पूर्वपद केवल निश्चयबोधक होता है |
संजम एव धणं - संजमधणं ।
तवोचिअ धणं-तवोधणं ।
पुण्णं चेअ पाहेज्ज - पुण्णपाहेज्जं ( पुण्यपाथेयम्) ।
कम्मधारय समास का प्रथमपद यदि संख्यासूचक हो तो उसको द्विगुसमास कहते हैं ।
नवहं तत्ताणं समाहारो - नवतत्तं ।
चउन्हं कसायाणं समूहो - चउक्सायं ।
तिन्हं लोआणं समूहो - तिलोई ।
तिन्हं लोगाणं समूहो -तिलोगं ।
अभाव या निषेधार्थक 'अ' अथवा 'अण' के साथ संज्ञा शब्दों के समास को नतप्पुरिस ( नञ् तत्पुरुष) समास कहते हैं । जैसे:
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न लोगो - अलोगो ।
न देवो - अदेवो ।
न आयारो - अणायारो ।
( १०६ )
न इटुं - अट्टिं ।
नदि - अदि ।
न इत्थी - अणित्थी ।
( जिस शब्द के आदि में स्वर हो वहीं 'अण' का प्रयोग करना चाहिए ) । प, अइ, अव, परि और नि आदि उपसर्गों के साथ संज्ञा शब्दों के समास को पादितप्पुरिस (प्रादि तत्पुरुष) समास कहते हैं ।
उग्गओ वेलं - उब्वेलो । निग्गओ कासीए - निक्कासि |
पगतो आयरियो - पायरियो | संगतो अत्थो - समत्थो । अइक्कतो पल्लंकं - अइपल्लंको ।
पुणोपवुड्ढो ( पुनःप्रवृद्धः ), अंतभूम आदि भी इसी प्रकार समझना
चाहिए |
३. बहुव्वीहि समास :
इस समास में दो से भी अधिक पदों का उपयोग होता है । 'बहुव्वीहि ' यानी बहुत व्रीहि ( चावल ) हैं जिसके पास ऐसा जो कोई हो वह 'बहुव्वीहि ' कहलाता है | 'बहुव्वोहि' का जैसा अर्थ है वैसा ही इस समास द्वारा तैयार किये हुए शब्दों का अर्थ भी है । तात्पर्य यह है कि इस समास का पूर्वपद अधिकतर, विशेषणरूप अथवा उपमासूचक होता है और प्रथम - पद के पश्चात् आनेवाला पद विशेष्य रूप होता है और समास हो जाने पर जो एक संपूर्ण शब्द तैयार होता है वह भी किसी दूसरे का विशेषण हो होता है । इस समास में प्रयुक्त शब्द प्रधान नही होते, परन्तु उनसे पृथक् अन्य कोई अर्थ प्रधान होता है इसलिए इस समास को अन्यपदार्थ - प्रधान समास भी कहते हैं । उपर्युक्त 'बहुब्वीहि' पद का अर्थ ही इस बात को स्पष्ट करता है । जब इस समास में प्रयुक्त शब्द समान विभक्ति वाले हों तो उसे समानाधिकरण बहुव्वीहि समास कहते हैं और जब शब्द
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... ( १०७ ) अलग-अलग विभक्ति वाले हों तो उसे वहिकरण (व्यधिकरण) बहुव्वीहि कहते हैं। समानाधिकरण बहुव्वीहि के उदाहरण :
आरूढो वाणरो जं रुक्खं सो आरूढवाणरो रुक्खो ( वृक्षः)। जिआणि इंदियाणि जेण सो जिइंदियो मुणी । जिओ कामो जेण सो जिअकामो महादेवो । जिआ परीसहा जेण सो जिअपरीसहो गोयमो । भट्ठो आयारो जस्स सो भट्ठायारो जणो । नट्ठो मोहो जस्स सो नट्ठोमोहो साहू । घोरं बंभचेरं जस्स सो घोरबंभचेरो जंबू । समं चउरंसं संठाणं जस्स सो समचउरंससंठाणो-रामो। कओ अत्थो जस्स सो कयत्थो कण्हो । आसा अंबरं जेसि ते आसंबरा। सेयं अंबरं जेसि ते सेयंबरा। महंता बाहुणो जस्स सो महाबाहू । पंच वत्ताणि जस्स सो पंचवत्तो-सीहो । चत्तारि मुहाणि जस्स सो चउम्मुहो-बम्हा । एगो दंतो जस्स सो एगदंतो-गणेसो। वीरा नरा जम्मि गामे सो गामो वीरणरो।
सुत्तो सिंघो जाए सा सुत्तसीहा गुहा । वधिकरण बहुव्वीहि :
चक्कं पाणिम्मि जस्स सो चक्कपाणी।
गंडीवं करे जस्स सो गंडीवकरो अज्जणो। उपमान जिसके प्रथम पद में है ऐसे बहुव्वीहि के उदाहरण :
मिगनयणाई इव नयणाणि जाए सा मिगनयणा । .
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( १०८ ) इसी प्रकार कमलनयणा, गजाणणो, हंसगमणा, चंदमुही आदि । न बहुव्वीहि :
न-कार सूचक 'अ' और 'अण' के साथ भी बहुव्वीहि समास होता हैं । जैसे :
न अत्थि भयं जस्स सो अभयो। न अत्थि पुत्तो जत्स सो अपुत्तो। न अस्थि नाहो जस्स सो अणाहो। न अत्थि पच्छिमो जस्स सो अपच्छिमो।
न अस्थि उयरं जीए सा अणुयरा । स बहुव्वीहि :
इसी प्रकार सहसूचक 'स' अव्यय के साथ बहुन्वीहि समास होता है। पुत्तेण सह सपुत्तो राया। फलेण सह सफलं । सोसेण सह ससीसो आयरियो। मूलेण सह समूलं । पुण्णेण सह सपुण्णो लोगो । चेलेण सह सचेलं ण्हाणं । पावेण सह सपावो रक्खसो। कलत्तेण सह सकलत्तो नरो। कम्मणा सह सकम्मो नरो।
प, नि, वि, अव, अइ, परि आदि उपसर्गों के साथ जो बहुव्वीहि समास होता है उसे पादिबहुव्वीहि समास कहते हैं :
५ ( पगिटुं ) पुण्णं जस्स सो पपुण्णो जणो नि ( निग्गया ) लज्जा जस्स सो निल्लज्जो वि ( विगओ) धवो जीए सा विधवा अव ( अवगतं ) रूवं जस्स सो अवरूवो (अपूरपः) अइ ( अइक्कंतो) मग्गो जेण सो अइमग्गो रहो परि ( परिगतं ) जलं जाए सा परिजला परिहा ।
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( १०९ )
४. अव्वईभाव समास :
जब युद्ध, अथवा झगड़ा बताने के लिए बराबर क्रिया बतानी हो तब इस समास का उपयोग होता है । जैसे भाषा में प्रचलित ' मारामारी', 'मुक्का-मुक्की' आदि शब्द इस समास के माने जाते हैं । प्रस्तुत में 'केसाकेसि', 'दण्डादण्डि' आदि शब्द हैं । इस समास में जिन दो शब्दों का समास होता है दोनों शब्द बिलकुल एक जैसे होने चाहिए । यही इसकी विशेषता है 'हत्थ' और 'पाय' ऐसे अलग-अलग शब्दों का यह समास नहीं हो सकता । यह समास अव्यय के समान हो माना जाता है |
इसके अतिरिक्त अव्ययों के साथ भी यह समास होता है ।
उव - गुरुणो समोवं उपगुरु ।
अणु - भोयणस्स पच्छा अणुभोयणं ।
अहि (अधि ) -- अप्पंसि अंतो अज्झप्पं । जहा -- सति अणइक्कमिऊण जहासत्ति । जहा -- विहि अणइक्कमिऊण जहाविहि | जहा - जुग्गयं अणइक्कीमऊण जहारिहं पइ - पुरं पुरं पइ पइपुरं ।
समास में अधिकतर प्रथम शब्द के अन्तिम स्वर में ह्रस्व हो तो दीर्घ हो जाता है और दीर्घ हो तो ह्रस्व हो जाता है
។
। जैसे
―
स्व को दीर्घ :
अन्तर्वेदि—अंतावेइ सप्तविंशति—सत्तार्वासा
भुजयन्त्र —भुआयंत, भुअयंत । पतिगृह — पईहर, पइहर ।
वारिमती - वारीमई, वारिभई । वेणुवन - वेलूवण, वेलुवण ।
१. दे० प्रा० व्या० ८|१|४|
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दीर्घ को हस्व :
यमुनातट - जंउणयड, जंउणायड नदीस्रोतस् - नइसोत्त, नईसोत्त गौरीगृह —— गोरिहर, गोरीहर
वधूमुख - बहुमुह, वहूमुह
संस्कृत भाषा में भी समास में ह्रस्व का दीर्घ और दीर्घ का हस्व
होने का विधान पाणिनिकाल से पाया जाता है
का दीर्घ
:
( 180 )
अष्टकपालम् —अष्टाकपालम् ।
अष्टगवम् - अष्टागवम् । अष्टपदः -- अष्टापदः, इत्यादि ।
दीर्घ का ह्रस्व :
दर्शनीया + भार्याः
अता + थ्यम् -- अतथ्यम् ।
पचन्ती + तरा - पचन्तितरा ।
नर्तकी + रूपा नर्तकिरूपा ।
--
दर्शनीयभार्यः ।
स्त्री + तरा — स्त्रितरा, इत्यादि ।
दीर्घका हव - देखिए - काशिका ६।३।३४, ६।३।३, ६।३।४४, ६।३।४५॥ ह्रस्व का दीर्घ - देखिए - काशिका ६।३।११५ से ६।३।१३२, ६।३।४६।
इसके अतिरिक्त इस समास के और भी बहुत से प्रयोग पण्डितों की भाषा में उपलब्ध होते हैं परन्तु उन सबका यहाँ कोई उपयोग नहीं होने से नहीं दिये गये हैं । इस प्रकार समासों के विषय में उपयोगिता की दृष्टि से आवश्यकतानुसार स्पष्टता हो जाती है ।
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वैदिक तथा लौकिक संस्कृत भाषा के साथ
प्राकृत भाषा की तुलना । १. वैदिक संस्कृत और प्राकृत भाषा में अधिक समानता है।
जिस प्रकार वैदिक संस्कृत के धातुओं में किसी प्रकार का गणभेद नहीं है उसी प्रकार प्राकृत भाषा में भी धातुओं में गणभेद नहीं है । जैसे :पाणिनीय धातुरूप वैदिक धातु रूप प्राकृत धातु रूप हन्ति हनति
हनति, हणति शेते शयते
सयते, सयए भिनत्ति भेदति
भेदति, भेदइ म्रियते मरते
मरते, मरए -देखिये, वैदिक प्रक्रिया सू० २।४।७३, ३।४।८५, २।४।७६, ३।४।११७, ऋग्वेद पृ० ४७४ महाराष्ट्र संशोधन मण्डल । वैदिक संस्कृत में और प्राकृत भाषा में आत्मनेपद तथा परस्मैपद का भेद नहीं है। जैसे :पाणि० सं० वै० सं०
प्रा० भा० इच्छाति
इच्छति, इच्छते इच्छति, इच्छते युध्यते
युध्यति, युध्यते जुज्झति, जुज्झते -देखिये, वैदिक प्रक्रिया ३३११८५ । ३. वैदिक संस्कृत के तथा प्राकृत भाषा के क्रियापदों में अन्य
पुरुष का ( तृतीय पुरुष का ) एक वचन 'ए' प्रत्यय लगने से पाणि० सं० 'शेते' के स्थान में वेदों में शये तथा पाणि सं० ईष्टे के स्थान में वेदों में 'ईशे क्रियापद होते हैं। इसी
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( ११२ ) प्रकार प्राकृत भाषा में 'शेते' के स्थान में 'सए' तथा 'ईष्टे' के स्थान में 'ईसे' अथवा -ईसए' प्रयोग होते हैं।
देखिये, वैदिकप्रक्रिया सू० ७।१।१। तथा ऋग्वेद पृ० ४६८ महाराष्ट्र संशोधन मण्डल। ४. वर्तमानकाल, भूतकाल वगैरह कालों की वेदों में तथा
प्राकृत भाषा में कोई नियमिता नहीं है अर्थात् वैदिक क्रियापद में वर्तमान के स्थान में परोक्ष भी होता हैम्रियते के स्थान में ममार-देखिये, वै० प्र० ३।४।६ ।
इसी प्रकार प्राकृत भाषा में परोक्ष के स्थान में वर्तमान का प्रयोग भी होता है-प० प्रेक्षांचक्रे के स्थान में व० पेच्छइ । प० आबभाषे के स्थान में व० आभासइ तथा व० शृणोति के स्थान में भू० सोहीअ--देखिये, हे० व्या० ८।४।४४७। काल के व्यत्यय की तरह वैदिक नामों के रूपों में तथा प्राकृत भाषा के नामों के रूपों में विभक्तियों का भी व्यत्यय होता रहता है। वेदों में और प्राकृत में चतुर्थी विभक्ति के स्थान में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग विहित है। -देखिये वै० प्र० सू० २।३।६२ तथा हैम० प्रा० व्या० ८।३।१३१ ।
वेदों में तृतीया विभक्ति के स्थान में षष्टी विभक्ति का प्रयोग होता है -वै० प्र० २।३।६३ तथा है० प्रा० व्या० ८।३।१३४ । १३५, १३६, १३७ तथा कच्चायण पालिव्याकरण कारककप्प
कां ६, सू० २०, ३६, ३७, ३८, ३६, ४०, ४१, ४२। । ६. सब प्रकार के विधानों में पैदिक व्याकरण में बहुलम् का
व्यवहार होता है। इसी प्रकार प्राकृत भाषा के व्याकरण में सर्वत्र बहुलम् का व्यवहार होता है। देखिये-बहुलं छन्दसि २।४।३९ तथा ७३ ।
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( ११३ ) है० प्रा० व्या० ८।११२ तथा ३ । कच्चायण पालिव्या० नामकप्प.
कांड १, सू० १, संधिकप्प कांड ४, सू० ९।। ७. वैदिक शब्दों में अन्तिम व्यञ्जन का लोप होता है। इसी
प्रकार प्राकृत भाषा में अन्त्यव्यंजन का लोप व्यापक है। वैदिक रूप :
पश्चात्--पश्चा, पश्चार्ध-वै० प्र० ५।३।३३ । उच्चात-उच्चा-तैत्ति० सं० २।३।१४ । नीचात्-नीचा-तैत्ति० सं० ११२।१४ । विद्युत्-विद्यु-अन्त्यलोपः छान्दसः, ऋग्वेद पृ० ४६६ म० सं० म० । युष्मान्-युष्मा-वाज० सं० १११३।१ । शत० ब्रा० ११२।६।
स्य:-स्य-वै० प्र०६।१।१३३ । प्राकृत रूप :
तावत्-ताव। यावत्-जाव। तमस्-तम । चेतस्-चेत, इत्यादि।
___-देखिए पृ० १२ व्यंजन का परिवर्तन-लोप । ८. वैदिक भाषा में 'स्प' को 'प' हो जाता है। प्राकृतिक भाषा में भी स्प को प हो जाता है।
वै० स्पृशन्य-पृशन्य । स्पृहा-पिहा, निस्पृह-निप्पह । --ऋग्वेद पृ० ४६६ म० सं० । -देखिए, पृ० ५७ । पूर्ववर्ती 'स'
का लोप ।
प्रा०
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________________
प्रा.
सह-सध
( ११४ ) ९. 'र' का लोप :वै०
प्रा० अप्रगल्भ-अपगल्भ
क्रिया-किया -तै० सं०. ४।५।६।१। -देखिए पृ० ५९-परवर्ती 'र' का लोप । १०. 'य' का लोप:
वै० त्र्यच:-तृचः
श्याम-साम )-देखिए पृ. ५८-वै० प्र० ६.११३४ । व्याध-वाह परवर्ती व्यंजन का लोप। ११. 'ह' को 'ध' :वै०
प्रा०
इह-इध सहस्थ-सधस्थ ६ व० प्र०६।३९६ । गाह-गाध है
तायह-तायध वहू-वधू नरुक्त पृ० १०१
शृणुहि-शृणुधि--वै० प्र० ६।४।१०२। नियम का अपवाद। १२. 'थ' को 'ध' तथा 'ध' का 'थ' :वै.
प्रा० माधव-माथव
नाथनाध -शत० ब्रा० १।३।३।१०,
देखिए पृ० ३७ चतुर्थ ११, १७ ।
नियम का अपवाद । १३. 'ध' को 'ज' :
प्रा० द्योतिस्-ज्योतिस्
द्युति-जुति -~-अथर्व० सं० ४१३७।१०। उद्योत-उज्जोत निरुक्त पृ० १०१, १२ । -देखिए पृ० ६६, 'ज' विधान ।
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( ११५ ) द्योतते-ज्योतते -निरुक्त पृ० १७०, १६ । अवद्योतयति-अवज्योतयति -शत०ब्रा० १, २, ३, १६ । द्योतय-ज्योतय अवद्योत्य-अवज्योत्य
का० श्री० ४।१४।५। १४. 'ह' को 'घ' तथा 'भ' :
वै० आहृणि-आघृणि।
दाह, दाघ -निरुक्त पृ० ३८२, ३६ । (प्राकृत में ये दोनों शब्द विदेह-विदेघ ।
प्रचलित है।) -शत० ब्रा० १।३।३; १०।११।१२।। मेह-मेघ ।
विह्वल-विन्भल। --निरुक्त पृ० १०१,१।
जिह्वा-जिब्भा। गृहीत-गृभीत। ) गृहाण-गृभाण्य ।
-देखिए पृ० ७२ (वै० प्र० ३।११८४ । 'भ' विधान जहार-जभार । )
प्रा०
१५. 'ड' को 'ल' तथा 'ड' को 'ळ':---- वै.
. प्रा० ईडे-ईळे
ईडे, ईले, ईळे । अहेडमान:-अहेळमानः। अहेळ मानो ।
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दृढ - दृळह |
सोढा-साळहा ।
- वै० प्र० ६ |३ | ११३ ।
प्रयुग-पउग
( ११६ )
१६. अनादिस्थ 'य' तथा 'व' का लोप
वै०
- वा० सं० १५-६ ।
सीमहि
'सिव्' धातु का - ऋ० वे० पृ०
— -
१३५, ३ ।
दळह | सोळहा
देखिए पृ० ३६, नियम ७ तथा पृ० ४२, ४३ ।
१८. 'क' तथा 'च' का लोप :
वै०
-:
प्रा०
पृथुजव:- पृथुज्ञयः
- निरुक्त पृ० ३८३, ४० । (ख) तथा पृ० ३७ नियम ३ । १७. अभूतपूर्व 'र' का आगम :
afar - अधि
।
- निरुक्त पृ० ३८७, ४३ । पृथुजव: - पृथुज्रयः । इन रूपों में अभूतपूर्व 'र' का आगम हो गया है ।
प्रयुग-पउग
पृथुज्वः - इस प्रयोग में 'व' का लोप होकर फिर शेष 'अ' की 'य' श्रुति हुई है जैसे लावण्यलायण्ण । देखिए – पृ० ३३
अपभ्रंश - प्राकृत में व्यास का व्रास तथा चैत्य का चैत्र जैसे रूपों में अभूतपूर्व 'र' का आगम हो गया है । देखिये - नियम २९ आगम - पृ० ८८ ।
Ято
याचामि यामि
कचग्रह- कयग्गह
शची - सई
- निरुक्त पृ० १००, २४१ । अन्तिक - अन्ति
लोक-लोअ
— ऋग्वेद पृ० ४६६ म० सं० 1 - देखिए पृ० ३३ (ख)
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प्रा०
( ११७ ) १९. आन्तर अक्षर का लोप :
वै० शतक्रतवः-शतक्रत्व
राजकुल-राउल पशवे-पश्वे
प्राकार-पार -वै०प्र० ७।३।१७। दुर्गादेवी-दुग्गावो निविविशिरे-निविविध आगत-आय
-ऋ० सं० ८।१०१।१८। -देखिए पृ० ५४, नियम २६ । आगतः-आताः
-निरुक्त पृ० १४२ दिशानाम । २०. संयुक्त व्यञ्जनों के मध्य में स्वरों का आगम :- .
प्रा. तन्वम्-तनुवम्
अर्हन्-अरुहंत -तै० आ० ७।२२।१।। लध्वी-लघुवी स्वर्गः-सुवर्ग:
-तै० आ० ४।२।३ । त्र्यम्बकम्-त्रियम्बकम् आश्चर्य-अच्छरिय
-वै०प्र० ६।४।८६ । विश्वम्-विभुवम्
तन्वी-तणवी सुध्यो-सुधियो
अर्हन्-अरिहंत राश्या-रात्रिया
क्रिया-किरिया सहस्यः-सहस्रियः दिष्टया-दिटिआ
-यजु००। तुरयासु-तुग्रियासु भव्य-भविय -वै० प्र० ४।४।११५। -देखिए पृ० ७३ नियम १६ तथा
पृ० ८६ आगम।
.
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________________
२१. 'ऋ' को 'र' तथा 'उ' :--
वै०
ऋजिष्ठम् - रजिष्ठम्
- वै०
( ११८ )
० प्र० ६|४|१६२ ।
वृन्द- वुन्द
-- निरुक्त पृ० ५३२, अं० १२८ ।
तृ-ततुरिः
गृ-जगुरि:
- वै०प्र० ७|१|१०३ । वृणीत - वुरीत - शु०य०सं० पृ० ६२ मंत्र ८।
कृत- कुट
२२. 'द' को 'ड' :—
वै०
दुर्दभ - दूडभ
- वा० सं० ३,३६ । पुरोदाश-पुरोडाश
- शु० प्रा० ३।४४ |
वै०
प्रा०
ऋद्धि-रिद्धि
० प्र० ३।२।३१ ।
वृन्द-वृन्द
- निरुक्त पृ० ४२२, ७० ।
ऋषभ-उसभ
ऋतु-उतु
वृद्ध-वुड्ढ
- देखिए पृ० १४, १५ नियम - ८, ९ ।
तथा पृ० २७, २८ 'ऋ' का परिवर्तन ।
प्रा०
दण्ड - डंड
दंभ - डंभ
- देखिए - पृ० ४८ नियम ११ 'द' का परिवर्तन ।
२३. 'अव' को 'ओ' तथा 'अय' को ए :
ão श्रवणा - श्रोणा
— तै०ब्रा० ० १.५ - १.४; ५.२.६ ।
प्रा०
अवहसित - ओहसित
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________________
( ११६ )
नयति-नेति अन्तरयति-अन्तरेति
कयल-केल -शत० ब्रा० १.२-३.१८ अयस्कार-एक्कार
४.२०; ३.१.१६ । -देखिए प०८२ नियम २७ : २४. संयुक्त के पूर्व का ह्रस्व :
प्रा० रोदसीप्रा-रोदसिप्रा तीर्थ-तित्थ
-ऋ० सं० १०.०८.१० । ताम्र-तंब अमात्र-अमत्र
-देखिए पृ०-१२ (२)। ऋ० सं० २.३६.४ । २५. 'क्ष' को 'छ' :
प्रा० अक्ष-अच्छ
अक्षि-अच्छि -अथ० सं० ३.४.३ । अक्ष-अच्छ
-देखिए पृ० ६४
नियम ४-'छ विधान २६. अनुस्वार के पूर्व के दीर्घ का ह्रस्व :
प्रा० युवाम्-युवम्
मांस-मंस -ऋ०सं० १११५-६ । मालाम्-मालं २७. विसर्ग का 'ओ' :
प्रा० सः चित्-सो चित् ।
देवः अस्ति-देवो अस्थि । -ऋ० वे० पृ० १११२ म० सं० । पुनः एति-पुणो एति।
वै०
वै०
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________________
( १२० ) संवत्सरः अजायत-संवत्सरो अजायत इत्यादि । देखिए पृ० ६१ --ऋ० सं० १-१९१-१०-११ ।
अः को ओ। आपः अस्मान्-आपो अस्मान्
-वै० प्र०६।१।११७ २८. ह्रस्व को दीर्घ तथा दीर्घ को ह्रस्व :वै०
प्रा० एव, एवा
अहव, अहवा (अथवा) अच्छ, अच्छा
एव, एवा (एव) -वै० प्र०६।३।१३६॥
जह, जहा (यथा) ध, धा,
तह, तहा (तथा) मक्षु, मक्ष
चतुख्त-चाउरंत कु, कू अत्र, अत्रा
परकीय-पारक्क यत्र, यत्रा
--देखिये पृ० १६ तथा पृ० २० । तु, तू
विश्वास-वीसास नु, नू
मनुष्य-मणूस पुरुष, पुरुष
-देखिए पृ० ११ । -वै० प्र० ६३।११३ तथा १३७ । दुर्दभ, दूदभ दुर्लभ, दूळभ
-वा० सं० ३ । ३६ । ऋ० सं० ४।६।८ । दुर्नाश, दूनाश ।
-शु० प्रा० ३४३ । २९. अक्षरों का व्यत्यय:वै०
प्रा० निसृकर्त्य-निष्टय॑ ।
आलान-आणाल।
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________________
— वै०प्र० ३|१|१२३ ॥ कर्तुः - तर्कः ।
-- निरुक्त पृ० १०१-१३ ।
( १२१ )
नमसा - मनसा ।
- ऋग्वेद पृ० ४८६ म०सं०
तङ्ककः-कङ्कतः ।
"तकतेर्गत्यर्थस्य वर्णव्यत्ययेन कङ्कत इति”
वै०
कर्तुम् - कर्तवे ।
- वै० प्र० ३ ४ ६
- ऋग्वेद पृ० ११०६ म० सं० ।
३०. हेत्वर्थ कृदन्त के प्रत्यय में समानता :--
महाराष्ट्र - मरहट्ठ | वाराणसी - वाणारसी ।
- देखिए पृ० ८८ अक्षरों
का व्यत्यय ।
वै०प्र० ३।४१९ सूत्र में 'से', 'सेन्' और 'असे' प्रत्ययों का विधान 'तुम्'
के स्थान में किया गया है ।
प्रा०
कत्तवे, कातवे, कस्तिए । गणेतुये, दक्खिताये
नेतवे निघातवे
एसे
- देखिए पालिप्र० संकीर्णक ०
कृ० पृ० २५८ ।
इस नियम से 'इ' धातु का 'एसे ' ( एतुम् ) रूप होगा ।
३१. (क) क्रियापद के प्रत्ययों में समानता :
वै०
प्रा०
अन्यपुरुष बहुवचन —— दुह् + रे = दुहे । अन्यपुरुष के बहुवचन में 'रे' और 'इरे' प्रत्यय का भी व्यवहार होता है |
– वै०प्र० ७ ११८ ।
गच्छ गच्छ रे, गच्छिरे ।
— हे० प्रा० व्या० ८|३ | १४२ तथा पा० प्र० पृ० १७१ ।
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________________
प्रा.
( १२२ ) (ख) आज्ञार्थसूचक 'इ' प्रत्यय :०
प्रा० बोध् + इ = बोधि। बोध् + इ = बोधि, बोहि ।
सुमर-इ%3D सुमरि ।
-~-देखिये हे० प्रा० व्या० ८।४।३७ । ३२. संज्ञा शब्दों के रूपों में प्रत्ययों की समानता :वै०
प्रा० देवेभिः
देवेभि, देवेहि । -वै०प्र०७१।१०। पतिना
पतिना। -वै०प्र० ११४।६। गोनाम्
गोनं, गुन्नं । -वै० प्र०७।११५७ । युष्मे
तुम्हे । अस्मे
अम्हे । --वै० प्र० ७।१।३९ । त्रीणाम्
तिन्न, तिण्हं। ---वै० प्र०७।११५३ । नावया
नावाय, नावाए। -वै० प्र० ७।११३६ । इतरम्
इतरं -वै प्र०७।१।२६ । वाह + अन = वाहनः वाहणओ, वोल्लण्णआ ('कर्ता' सूचक 'अन' प्रत्यय) इत्यादि । -वै० प्र० ३।२६५,६६ ।
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________________
३३. अनुस्वारलोप :
वै०
मांस-मास
वैदिकग्रामर
कंडिका ८३ - १
३६.
( १२३ )
३४. भूतकाल में आदि में 'अ' का अभाव :
वै०
अमनात्-मथीत्
अरुजन्—रुजन्
रुजोअ
अभूत्-भूत्
भवीअ
- ऋ० वे० पृ० ४६४,४६५ म० सं० ॥
३५. इकारांत शब्द के प्रथमा विभक्ति का बहुवचन :
प्रा०
मांस-मास,
मंस :
- देखिए पृ० ६२
नियम २१
वै०
ЯТО
अत्रिणः
हरिणो
तृजन्तस्य 'अत्तृ' शब्दस्य (प्रथमा बहुवचन) जस: छान्दसः 'इनुड्' आगमः ।
ऋ० वे० पृ० ११३-५ सूत्र मेक्स ०
प्रा०
मथीअ
'कृ' का तथा 'जि' धातु का रूप :
वै०
कृणोति
जेन्यः
- ऋ० वे० पृ० २२६-२२७ । तथा पृ० ४६५ ।
प्रा०
कुणति - हे० प्रा० व्या० ८|४|६५ | जिणइ हे० प्रा० व्या० ८।४।२४१ ।
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________________
३७.
( १२४ )
अकारांत शब्द में लगनेवाला प्रत्यय ईकारान्त में भी
लगता है :
वै०
नद्यैः
—ão ० प्र० ७।१।१०। पाणि० काशिका |
इस रूपमें अकारान्त में
लगनेवाला प्रत्यय ईकारांत
में भी लगा है ।
वै०
दैवा
उमा
वेनन्ता
:
द्विवचन का रूप बहुवचन के समान :
प्रा०
प्राकृतभाषा में द्विवचन होता ही नहीं है । द्विवचन के सब रूप बहुवचन के समान होते हैं- “ द्विवचनस्य बहुबचनम् " - हे० प्रा० व्या० ८|३|१३०
- ऋग्वेद पृ० १३६ - ६ ।
या
दिविस्पृशा
अश्विना
प्रा०
नदीहि - हे० प्रा० व्या० ८|३|१२४
इन्द्रावरुणा
-ऋ० सं० ७१८२।१।४ । मित्रावरुणा
प्राकृत में अकारान्त में लगने वाले प्रत्यय ईकारांत में भी लगते हैं ।
हत्था
पाया
थणया
नयणा, इत्यादि ।
- वै० प्र० ७ ११३९ ।
सृण्या -- ' आकार: छन्दसि द्विवचनादेश: ' - तन्त्रवार्तिक पृ०
१५७, आनन्दाश्रम |
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________________
वै०
( १२५ ) ३८. विभक्तिरहित प्रयोग :
प्रा. आर्द्व चर्मन ।
प्राकृत भाषा में भी अनेक लोहिते चर्मन् । सप्तमी का अप्रयोग । प्रयोग विभक्तिरहित ही परमे व्योमन् ।
पाये जाते हैं। -वै० प्र० ७।१।३६ ।। गय-षष्ठी का बहुवचन
बहुशत- , दळहा द्वितीया का अप्रयोग ।
वीळ
इत्यादि ।'
अभिज्ञ
-ऋ०वे० पृ० ४६४ तथा ४७२ म० सं० । ३९. समान अर्थयुक्त अव्यय :
प्रा० कुह (कुत्र)
कुह (कुत्र) न (उपमासूचक)
णं (उपमासूचक) -ऋ०० पृ० ७३३ म० सं०3 तथा निरुक्त पृ० २२०; तथा ऋ० वे० पृ० ४६०-४६२५२८ म० सं० । दिवेदिवे
दिविदिवि
-हे० प्रा०व्या०८।४।३६६। ४०. संधि का विकल्प :
प्रा० ईषा + अक्षो
पदयोसन्धिर्वा ज्या+इयम्
-हे, प्रा. व्या०८।१।५। पूषा + अविष्टु -वै०प्र० ६।१।१२६ ।
वै०
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________________
प्रा.
( १२६ ) संस्कृत और प्राकृत में स्वरों का
समान परिवर्तन १. 'अ' का लोप:
सं०
अलावू, लावू । देखिए-पृ० १९ 'अ' का लोप। २. 'अ' को 'आ :पति-पाति ।
देखिए-पृ० १७ नि० १। ३. 'अ' को 'इ' :
कन्दुक, गिन्दुक । देखिए-पृ० १७ 'अ' को 'इ'। ४. 'आ' को 'अ' :
कुमार, कुमर फाल, फल
देखिए -पृ० १३ नि० ३ । कलाज्ञ, कलज्ञ) ५. 'इ' को 'अ' :
सं० पेटिक, पेटक
देखिए-पृ० २१ नि० ३॥ ६. 'इ' को 'ए' :
प्रा० मुहिर, मुहेर
देखिए-पृ. २२ 'इ' को 'ए'। गिन्दुक, गेन्दुक
प्रा०
सं०
१. अर्थात् वैयाकरण जिसको अवैदिक संस्कृत कहते हैं ऐसी
प्राचीन पुरोहितों की पंडिताऊ संस्कृतभाषा के शब्दों के साथ भी प्राकृतभाषा के शब्दों की तुलना।
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________________
( १२७ )
प्रा० देखिए-पृ० २४ 'ई' को 'ए'।
७. 'ई' को 'ए' :
सं०
पीयूष, पेयूष ८. 'ऋ' को रि' :
सं०
ऋज, रिज ९. 'ऋ' को 'लु' :
सं० ऋफिड, लुफिड
-
प्रा० देखिए-पृ० १५ नि० (९)।
प्रा०
प्राकृत में भी 'र' का 'ल' होता है। देखिए पृ० ५२ 'र' का परिवर्तन
(१०) 'औ' को 'उ' :
प्रा०
प्रा०
कौतुक, कुतुक । देखिये, पृ० ३२ 'ओ' को 'उ'।
कौङ्कण, कुङ्कण । संस्कृत तथा प्राकृत में व्यंजनों का समान परिवर्तन
अन्यव्यंजन का लोपः
सं० धामन्, धाम महस्, मह तमस्, तम सोमन्, सोम
देखिये, पृ. ३२ नि० (क) रोचिस्, रोचि शोचिस, शोचि चर्मन, चर्म शवस्, शव होमन, होम तपस्, तप
|
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________________
२. 'क' को 'ग' :
सं०
दक,
कन्दुक, गिन्दुक
द्रकट,
द्रगड
काश्मरी, गम्भारी
दग
३. 'ख' को 'ह'
:
मुखल, मुहल (मुसल)
४. 'घ' को ह :
घस्र, हस्र
५. 'द' को ज :―
६. 'ट' को 'ड' :
तडाक
तटाक, पेटा, पेडा
कुटी, कुडी
७. 'ड' को 'ल' :
जड, जल
बिडाल,
( १२८ )
बिलाल
कडत्र,
कलत्र
नाडी, नाली
कडेवर, कलेवर
बलिश
बडिश, बाडिश, बालिश
दुडि, दुलि
ताडक,
तालक
जम्पती, दम्पती (प्राचीन शब्द ) | देखिए पा० प्र० पृ० ५७ ज-द
तथा पृ० ६६ 'ज' विधान ।
प्रा०
देखिये, पृ० ४४ 'क' को 'ग' ।
देखिये, पृ० ३७ नि० ४ ।
देखिए
"
""
>"
देखिए पृ० ३६, नि० ५ ।
देखिए पृ० ३६, नि० है ।
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________________
v
१०.
११.
१२.
१३.
१४.
१५.
१६.
१७.
'ण' को 'ल' :श्लेष्मण, श्लेष्मल
'त' को 'ट' :विकृत, विकट (प्राचीन शब्द )
'त' को 'थ' :पीती, पोथी
( १२ )
'त' को 'र' :
प्रतिदान, परिदान
'थ' को 'ध' :
मथुरा, मधुरा
'द' को 'त' :
बादाम, बाताम
राजादन, राजातन
'प' को 'ब' :
तम्पा, तम्बा
'प' को 'व' :--
कपाट, कवाट
जपा, जवा
पारापत, लिपि, लिवि
पारावत
'भ' को 'ब' :
करम्भ, करम्ब
'म' को 'व' :
श्रमण,
श्रवण
देखिए पृ० ४६ नि० ८ ।
देखिए पृ० ४६ नि० ६ ।
देखिए पा० प्र० पृ० ५६ त थ |
देखिए पृ० ४७ 'त' को 'र' |
देखिए पृ० ३७ नि० ४ - अपवाद ।
देखिए पृ० ३५, पैशाची तथा पालि ।
देखिये पृ० ४६ 'प' का परिवर्तन ।
देखिए पृ० ४० नि० १० ।
दे० पृ० ५० 'भ' का परिवर्तन |
दे० पृ० ५० 'म' का परिवर्तन ।
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________________
१८.
१९.
२०.
२१.
२२.
'य' को 'ज' :
यमन, जमन यानि, जानि
यातु, जातु
यातुधान, जातुधान 'र' को 'ल' :
पुरुष, पुलुष
तरुण, तलुन
क्षुधारु, क्षुधालु शीतारु, शीतालु
राक्षा, लाक्षा
रोम,
लोम
चलन
चरण, ऋफिड, ऋफिल
' व' को 'ब' :
द्वार, बार
'व' को 'म' द्रविड, द्रमिड
( १३० )
यवनी, यमनी
'श' को 'स' :
शूर्प, सूर्प ( प्राचीन शब्द )
काशी, कासी
साक
शाक, शर्करा, सर्करा
दे० पृ० ४१ नि० १३ ॥
दे० पृ० ५३ 'र' का परिवर्तन ।
प्राकृत भाषा में व और ब समान माने जाते हैं । दे० पृ० ४१ नियम १२ ।
दे० पृ० ४० 'व' का परिवर्तन |
दे०
० पृ० ४३ नि० १४ ।
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________________
( १३१ ) शुभ, सुभ शची, सची शनरी, सर्वरी 'ष' को 'श' :अभीषु, अभीशु
दे० पृ० ४३ मागधी ष-श । वेष्या, वेश्या 'ष' को 'स' :वृषी, वृसी चाष, चास
दे० पृ० ४३ नि० १४ । मषी, मसी 'स' को 'श' :सूरि, शूरि स्याल, श्याल
दे० पृ० ४३ मागधी स-श। अस्त्र, अश दासी, दाशी 'ह'को 'घ' :अंह्नि, अङ्घि
दे० पृ० ४३ नि० १५॥ संयुक्त व्यंजन का परिवर्तन 'क' का 'लोप':योक्त्र, योत्र
देखिए पृ० ५६ लोपविधान । 'द' का 'लोप' :कुद्दाल, कुदाल
दे० पृ. ५७ लोपविधान । 'य' का 'लोप :श्याली, शाली
२६.
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________________
( १३२ ) मत्स्य, मत्स
दे० पृ० ५७ परवर्ती व्यंजन सूर्य, तूर
का लोप। चैत्य, चैत्र 'र' का 'लोप' :कुर्कुट, कुक्कुर
दे० पृ० ५६ लोपविधान । कुकुर, कुक्कुर वप्र, वप्प ( बाप =पिता) द्राढिका, दाढिका प्रियाल, पियाल 'ल' का लोप :झल्लरी, झलरी
दे० पृ० ५६ लोपविधान । 'व' का 'लोप' :ऊर्ध्व, ऊर्ध
दे० पृ० ५८ लोपविधान । 'स' का 'लोप' :स्तूप, तूप
दे० पृ० ५७ लोपविधान । 'अनुस्वार का 'लोप' :अम्बा, अब्बा
दे० पृ० ९७ नि० २१ तथा
पा० प्र० पृ० ८२ नि० २५ । स्वर का लोप तथा स्वरसहित मध्यस्थित .
___ व्यंजन का लोप :रसना, रस्ना वासर, वास्र भगिनी, भग्नी
दे० पृ० ५४ नि० २६ । उदुम्बर, उम्बुरक, उम्बर
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________________
( १३३ )
सुदत्त, सुत्त आदत्त, आत्त प्रदत्त, प्रत्त वहनी, वेणी 'अनुस्वार' का 'आगम':भद्र, भन्द्र
दे० पृ० ८७ अनुस्वार का आगम । अत्तिका, अन्तिका लक्षण, लाञ्छन र्थ, भ, म्र, र्ष और ह्र इन संयुक्तव्यंजनों के बीच में अकार तथा इकार का आगम :मनोऽर्थ, मनोरथ कम्र, कमर गर्भ, गरभ .
दे० पृ० ८६ आगम। हर्ष, हरिष वर्षा, वरिषा वर्ष, वरिष पर्षत्, परिषत् दह, दहर 'क्ष' को 'ख' :क्षुल्लक, खुल्लक
दे० पृ० ६२ खविधान। क्षुर, खुर पक्ष, पुख 'क्ष' को 'च्छ' :पक्ष, पिच्छ
दे० पृ० ६४ नि० ४ ॥ क्षुरी, छुरी कक्ष, कच्छ
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( १३४ ) 'त्त को 'दृ':पत्तन, पट्टण
दे० पृ० ६७ नि०७। 'त' को 'ट' :कर्तक, कण्टक
दे० पृ० ५७ नि०७। 'त्स' को 'च्छ' :मत्स, मच्छ
दे० पृ० ६५ नि० ४। गुत्स, गुच्छ 'र' को 'ल' :ह्रीका, हलोका प्रवङ्ग, प्लवङ्ग दे० पृ० ५२ 'र' का परिवर्तन । 'श्च' को 'च्छ' :पश्च, पुच्छ अथवा पिच्छ दे० पृ० ६५ नि० ४ । 'इम' को 'म्भ' :काश्मरी, कम्भारी दे० पृ० ७२ नि० १४
ग्रीष्म, गिम्ह, गिम्भ । 'ष्ट' को 'ढ' :दंष्ट्रिका, दाढिका दे० पृ० ६३ शब्दों में
विविध परिवर्तन। 'र' का 'आगम':पामर, प्रामर
दे० पृ० ८७ नि० २६ चैत्य, चैत्र दाढिका, द्राढिका 'अयू' को 'ओ' :मयूर, मोर
दे० पृ० ८२ शब्दों में विशेष परिवर्तन नि० २७
मयूख-मोह।
२२.
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( १३५ ) २३. 'एक ही शब्द के विविध उदाहरण :
चन्द्र, चन्द, चन्दिर ।। विकुस्र, विकस्र, विक्रस्र। हट्ट, अट्ट। मुसल, मुषल। बुक्कस, पुक्कस, पुत्कस । तविश, तविष, ताविष। वनीपक, वनीयक, वनवक । खोट, खोड, खोर। वराणसी, वाराणसी, वाणारसी। हण्डे, हजे। सुवासिनी, स्ववासिनी। मौक्तिक, मुकुतिक, मकुतिक । मस्तक, मस्तिक। अषाढ, आषाढ । एतश, ऐतश। बिडोजा, बिडोजा। निघण्टु, निघण्टु । नेतु, नेत्र।
दिवोका, दिवौका । यहाँ जो संस्कृत के ये शब्द दिये गए हैं उन सबका उल्लेख प्राचीन संस्कृत कोशों में है। देखिए, अमरकोश, हेमचन्द्र अभिधान-नाममालाकोश, पुरुषोत्तमदेवप्रणीत द्विरूपकोश, शब्दरत्नाकरकोश, शब्दकल्पद्रुकोश इत्यादि ।
विविध परिवर्तनयुक्त वैदिकशब्द तथा संस्कृत के शब्द इसलिए यहाँ दरसाये गए हैं कि इन शब्दों के तथा उनमें हुए परिवर्तनों के साथ
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प्राकृतभाषा के शब्द तथा उनके परिवर्तन कितनी अधिक समानता रखते हैं। इससे यह भी फलित होता है कि वैदिक संस्कृत, पुरोहितों की संस्कृत तथा प्राकृतभाषा-ये तीनों भाषाएँ अंग्रेजी, गुजराती, उड़िया भाषा की तरह सर्वथा स्वतंत्र रूप से नहीं हैं परन्तु भाषा तो एक ही है मात्र उच्चारण का तथा उनकी शैली का ही इसमें भेद है। जैसे; दिल्ली की हिन्दी, अजमेर---मेवाड़ की हिन्दी और साक्षरी हिन्दी-इन तीनों हिन्दी भाषाओं में कोई भेद नहीं है परंतु उनमें बोलने की शैली तथा उच्चारणों का ही भेद है। वाक्यपदीयकार श्रीभर्तृहरि ने कहा है कि
यद् एकं प्रक्रियाभेदैर्बहधा प्रविभज्यते । तद् व्याकरणमागम्य परं ब्रह्माधिगम्यते ॥ २२ ॥
-वाक्यपदीय प्रथम खंड. एक दूसरी स्पष्टताआजकल एक ऐसी कल्पना प्रचलित है कि प्राकृतभाषा नीचों की भाषा है, स्त्रियों की और शूद्रों की भाषा है परन्तु पंडितों की भाषा नहीं।
सचमुच यह कल्पना सच होती तो प्रवरसेन, वाक्पति, शालिवाहन, राजशेखर जैसे धुरंधर वैदिक पांडतों ने इस भाषा में सुंदर से सुंदर काव्य ग्रन्थ न लिखे होते तथा वररुचि, भामह, वाल्मीकि, लक्ष्मीधर, क्रमदीश्वर, मार्कंडेय कात्यायन, सिंहराज इत्यादि वैदिक पंडितों ने इस भाषा के विविध व्याकरण ग्रंथ भी न लिखे होते । सच तो बात यह है कि प्राकृत भाषा आमजनता की भाषा रही इसी कारण इस भाषा का उपयोग सब लोग करते रहे और पंडित लोग भी अपने बच्चों के साथ तथा वृद्ध माता-पिता और अपठित पत्नियों के साथ इसी भाषा से व्यवहार करते रहे, केवल यज्ञादिक विधियों में तथा शास्त्रार्थ-सभा में पुरोहित पंडित प्रचलित भाषा को ही अपने ढंग के उच्चारणों द्वारा बोलते थे और उन्होंने
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१३७ )
ही उसे संस्कृत नाम रख दिया, महर्षि पाणिनि तथा महर्षि भाष्यकार पतंजलि ने तो भाषा का नाम 'संस्कृत' कहा ही नहीं परन्तु केवल भाष्यकार ने ही लौकिक शब्दों के अनुशासन की बात कही है उससे मालूम होता है कि भाष्यकार को भाषा का नाम 'लौकिक' अभिप्रेत था, न कि संस्कृत ।
(
इसके अतिरिक्त अमरकोश, वैजयन्तीकोश; मंखकोश, धनंजयकोश इत्यादि कोशकारों ने भी अपने-अपने कोशों में भी 'संस्कृत शब्दों का कोश करते हैं' ऐसा कहीं भी नहीं दरसाया है । अमरकोश में कहा है कि 'संस्कृत' शब्द के दो अर्थ हैं - १. कृत्रिम, २. लक्षणोपेत - शास्त्र के अनुशासनसहित अर्थात् शास्त्र द्वारा व्यवस्थित : " संस्कृतम् । कृत्रिमे लक्षणोपेते” कां० ३, नानार्थवर्ग इलो० १२५४ अभिधान संग्रह-निर्णयसागर, सन् १८८९ का संस्करण |
P
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पाठमाला-वाक्यरचना विभाग
पहला पाठ
. वर्तमानकाल
एकवचन के पुरुषबोधक' प्रत्यय १. पुरुष- मिरे, ए २. पुरुष-तू सि, से ३. पुरुष-वह ति, ते
धातुहरिस् (हर्ष ) हर्ष होना, प्रसन्न धरिस् (धर्ष ) धसना, धंसना,
होना
घुसना, धृष्ट होना १. पुरुष याने कर्ता अथवा कर्म, ये प्रत्यय जब प्रयोग ‘कर्तरि' होगा
तब कर्ता को सूचित करते हैं और जब प्रयोग 'कर्मणि' होगा तब कर्म को सूचित करते हैं-क्रियापद के साथ जिसका सम्बन्ध सीधा हो-समानाधिकरणरूप हो उसका नाम पुरुष-देवखामि-मैं देखता हूँ अथवा देक्खिज्जामि-उनसे मैं दीख पड़ता हूँ, 'देक्खामि' का 'मैं' के साथ सीधा सम्बन्ध है और 'मैं' कर्ता है, तथा देक्खिज्जामि का भी मैं के साथ सीधा सम्बन्ध है, देक्खिज्जामि का कर्म 'मैं' है पर कर्ता तो 'उनसे' है अर्थात् तृतीयपुरुष है ( हे० प्रा० व्या० ८।३।१४१, १४०, १३६)।
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( १३६ )
२. पालि के शौरसेनी के मागधी के अपभ्रंश के संस्कृत के
प्रत्यय- प्रत्यय- प्रत्यय- प्रत्यय- प्रत्यय१. मि, ए मि, ए मि, ए, उं, मि मि, ए २.सि,
से सि , से शि, शे हि, सि, से सि, से ... ३. ति, ते दि, दे दि, दे दि, दे, इ, ए ति, ते ३. प्रथमपुरुष के एकवचन के इस 'ए' प्रत्यय का प्रयोग विरल होता
है-प्राचीन प्राकृत में-आर्ष प्राकृत में-प्रायः होता है
वन्दे उसभं अजिअं "चतुर्विंशतिस्तव-लोगस्स" सूत्र द्वितीय गाथा । ४. संस्कृत के समान पालि भाषा में धातुओं का गणभेद है तथा आत्मने
पद और परस्मैपद के प्रत्यय भी जुदा-जुदा है (देखो पा० प्र० पृ० १७१ आख्यातकल्प) परन्तु प्राकृतभाषा में वैसा गणभेद नहीं है तथा आत्मनेपद के और परस्मैपद के प्रत्यय भी जुदे-जुदे नहीं हैं परन्तु इन्हीं प्रत्ययों के अन्तर्गत दोनों पदों के प्रत्यय बता दिए हैं। जब शौरसेनी, मागधी, पैशाची, अपभ्रंश में इन प्रत्ययों का उपयोग करना हो तब उस उस भाषा के अक्षरपरिवर्तन के नियम लगाकर करना चाहिए, शौरसेनी वगैरह भाषा के प्रत्यय दूसरे टिप्पण में बता दिए हैं, पैशाचो के प्रत्यय प्राकृत के समान हैं अतः नहीं बताए हैं। शौरसेनी रूप प्राकृत के समान हैं परन्तु तृतीयपुरुष में 'हसदि, हसदे' दो रूप होते हैं। मागधी रूप शौरसेनी के समान हैं परन्तु 'हस्' के स्थान में
'हश्' होगा। पैशाची रूप प्राकृत के समान हैं । अपभ्रंश रूप- १. हसउं, हसमि ।
२. हसहि, हससि, हससे । ३. हसदि, हसदे, हसइ, हसए ।
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________________
रखना
( १४० ) वरिस् ( वर्ष ) बरसना, बरसात, गरिह, (गर्ह, ) गर्हणा करना, होना
निंदा करना करिस् ( कर्ष ) काढ़ना, खोंचना जेम् ( जेम् ) जीमना, भोजन करना मरिस् ( मर्ष ) सहन करना, क्षमा देक्ख (दृश्) देखना, जोहना, आंखों
से देखना घरिस् ( घर्ष ) घिसना
पुच्छ् ( पृच्छ् ) पूछना, प्रश्न करना तुरिय् (तूर्य ) त्वरा करना, उता- पूर (पूर ) पूरा करना, भरना वला करना, जलदी करना
' कर् ( कर् ) करना, बनाना अरिह, ( अर्ह ) पूजना, अर्घना पुरिय ( पूर्य ) पूरना, पूर्ण करना,
वंद । ( वन्द ) वंदन करना, भरना वन्द्)
नमस्कार करना मरिस् (मर्श ) विचारना, विचार- पत् ।
पत् । (पत् ) पड़ना, गिरना। विमर्श करना पड्।
५. हे० प्रा० व्या० ८।३.१४५ । जब धातु के अन्त में 'अ' हो तब ही
से, ते और ए प्रत्यय लगते हैं, 'अ' न हो तो ये प्रत्यय नहीं लगतेठा धातु से ठासे, ठाते, ठाए रूप नहीं होंगे परन्तु ठासि,
ठाति और ठाइ रूप ही बनेंगे। ६. देखिए पृ० ८६ आगम । ७. ( ) इस निशान में दिये हुए सब शब्द (धातु वा संज्ञा शब्द) संस्कृत
भाषा के हैं और मात्र तुलना के लिए बताए हैं। बताए हुए धातु वा संज्ञा शब्द का शौरसेनी, मागधी,पैशाची में प्रयोग करना हो तब उन धातुओं में व संज्ञा शब्दों में उस उस भाषा के अक्षरपरिवर्तन का नियम लगाना जरूरी है।
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( १४१ )
नियम १. मि, ति, न्ति आदि प्रत्ययों को लगाने के पूर्व मूल धातुओं
के अन्त में विकरण 'अ' का प्रयोग होता है। जैसेःवन्द् + ति-वन्द् + अ + ति =वंदति ।।
पुच्छ् + ति-पुच्छ् + अ + ति = पुच्छति । २. प्रथमपुरुष के मकारादि प्रत्ययों के पूर्व आनेवाले 'अ' विकरण का विकल्प से 'आ' होता है। जैसेःवंद् + अ + मि= वंदामि, वंदमि ।
पड़ + अ + मि = पडामि, पडमि । ३. पुरुषबोधक प्रत्यय लगाने के बाद धातु के अंग 'अ' का
विकल्प से 'ए' हो जाता है। जैसे:वंद् + अ + इ = वंदेइ, वंदइ, वन्दए, वन्देए। जाण् + अ + सि = जाणेसि, जाणसि, जाणसे, जणेसे । पुच्छ् + अ + मि = पुच्छेमि, पुच्छामि, पुच्छमि ।
रूपाख्यान १. देवखमि देक्खामि देवखेमि । २. 'देक्ससि देक्खेसि देक्खसे, देवखेसे । ३. "देखइ देखेइ देक्खए, देखेए।
१. हे० प्रा० व्या० ८।४।२३६ । २. हे० प्रा० व्या० ८।३।१५४-१५५ ।
३. हे० प्रा० व्या० ८।३।१५८ । ४. देखिए पृ० १४० टिप्पण ७ । शौरसेनी रूप-२. देक्खशि, देखेशि, देवखशे, देखे । ३. देवखदि, देखेदि, देवखदे, देवखेदे । मगधी रूप-शौरसेनी की तरह समझ लें।
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( १४२ ) ठीक इसी प्रकार शौरसेनी, मागधी तथा अपभ्रंश के रूप भी बना लेने चाहिए। उस भाषा के प्रत्यय तथा रूप के कुछ उदाहरण टिप्पण में भी दिये गये हैं।
भाषान्तर वाक्य वन्दना करता हूँ।
वह घिसता है। धसता हूँ।
वह जानता है। करता हूँ।
वह गिरता है। तू वन्दना करता है।
तू खींचता है। तू जीमता (भोजन करता) है। तू बरसता है। तू हर्ष करता है।
भोजन करता है। वह देखता है।
वह विचार करता है। वह करता है।
वह पूर्ण करता है। वह सहता है।
तू उतावला करता है। मैं घिसता हूँ।
तू निन्दा करता है। मैं गिरता हूँ।
तू पूजता है। मैं पूछता हूँ।
मैं सहता हूँ। मैं करता हूँ। मैं गिरता हूँ 'वंदामि
करते करिससे
जाणेसि हरिसमि
करिससि वरिसति
पूरह प्रथमपुरुष के एकवचन में 'वंदे' रूप भी प्रयोग में आता है। वन्द अ + ए = वंदे। ( संस्कृत में वंदे-मैं वन्दना करता हूँ ) "उसभं अजिअंच वंदे"।
-चतुर्विंशतिस्तव सूत्र गाथा २
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( १४३ )
देवखसि गरिहामि तुरिया अरिहेइ पुच्छामि धरिससि
हरिससि मरिसामि गरिहसि जेमइ धरिसेमि मरिसामि, तुरियेसि ।
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दूसरा पाठ
किसी भी लोक-व्यापक दूसरी भाषा में द्विवचन-सूचक प्रत्यय अलग उपलब्ध नहीं होते। इसी प्रकार लोकव्यापक प्राकृतभाषा में भी द्विवचनदर्शक अलग प्रत्यय नहीं हैं। इसीलिए इस पाठ में एकवचनीय प्रत्ययों के पश्चात् बहुवचनीय प्रत्ययों का ही प्रकरण दिया गया है। परन्तु जब द्विवचन का अर्थ सूचित करना हो तब क्रियापद अथवा संज्ञा शब्द साथ द्वि' शब्द के बहुवचनीय प्राकृतरूपों का उपयोग करना पड़ता है। वे रूप इस प्रकार है :
'दोण्णि, दुण्णि ( द्वीनि ?)
वेण्णि, विण्णि द्वितीया )
दो (द्वौ) दुवे (द्वे)
वे, बे (ढे) प्रयोग :-बे सिव्वामो-हम दोनों सीते हैं ।
प्रथमा तथा
१. 'दु' शब्द के जो रूप ऊपर बताये हैं उसके साथ बिल्कुल मिलते
जुलते रूप आज भी अलग-अलग लोक भाषाओं में प्रचलित हैं। जैसे :वे, बे गुजराती-बे दुण्णि, दोण्णि मराठी-दोन विण्णि, वेण्णि ,,-बन्ने दुवे बंगाली–दुई दो, हिन्दी-दो
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________________
( १४५ ) . वर्तमान काल
बहुवचन के पुरुषबोधक प्रत्यय प्रा०प्र० पालिप्र० शौ०प्र०मा०प्र० १ पु० मो, मु, म' हे मो, मु, में शौरसेनी २ पु० इत्था, है व्हे इत्था, ध, ह के समान ३ पु० न्ति, न्ते, इरे अन्ते, रे न्ति, न्ते, इरे होते है
सं० प्र० मः, महे थ, ध्वे न्ति, न्ते ।
१. हे० प्रा० व्या० ८।३।१४४ । 'मो' प्रत्यय के साथ 'मु' और 'म'
प्रत्यय तथा संस्कृत के 'महे' प्रत्यय की भाँति 'म्ह' प्रत्यय भी
प्रयुक्त होता है-देक्खामो, देक्खामु, देक्खाम, देवखम्ह । २. 'ह' की तरह 'इत्था' प्रत्यय भी प्रयुक्त होता है-बोल्लह, बोल्लित्था
-हे० प्रा० व्या० ८।३।१४३ । ३. "न्ति' की तरह 'न्ते' तथा 'इरे' प्रत्यय भी प्रयोग में आते हैं-करंति
करन्ते, करिरे-हे० प्रा० व्या० ८।३।१४२ । तथा देखिए वैदिक
भाषा के साथ समानता पृ० १२१, नि० ३१ । ४. अपभ्रंश के बहुबचन के प्रत्यय :-१ हुं, मो, मु, म । २ हु, ह, ध,
इत्था । ३ हिं, न्ति, न्ते, इरे।। अपभ्रंश रूपाख्यान का उदाहरण-१ हरिसहुं, हरिसेहुँ, हरिसमो, हरिसामो, हरिसिमो, हरिसेमो, हरिसमु, हरिसामु, हरिसिमु, हरिसेमु, हरिसम, हरिसाम, हरिसिम, हरिसेम, हरिसेज्ज, हरिसिज्ज, हरिसेज्जा, हरिसिज्जा। २ हरिसहु, हरिसेहु, हरिसह, हरिसेह, हरिसध, हरिसेध, हरिसइत्था, हरिसित्था, हरिसेत्था, हरिसेज्ज, हरिसिज्ज, हरिसेज्जा, हरिसिज्जा। ३ हरिसहि, हरिसेहि, हरिसंति, हरिसेंति, हरिसिति, हरिसंते, हरिसेंते, हरिसिते, हरिसइरे, हरिसिरे, हरिसेइरे, हरिसेज्ज, हरिसिज्ज, हरिसेज्जा, हरिसिज्जा ।
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( १४६ )
धातुएँ —
खुब्भ् ( क्षुभ्य' ) क्षुब्ध होना, दीव (दीपू ) दीपना, चमकना,
घबराना
प्रकाशित होना
कुप्प ( कुप्य ) कोप करना, क्रोध
करना, गुस्सा करना,
सिव (सिव्य) सीना लव् (लप्) लप्-लप्
तव् (तत्) तपना,
वेव् (वेप) काँपना
सव् (शप्) शाप देना
करना, व्यर्थ बोलना संतान होना
तप करना,
जव (जप्) जपना, जाप करना । खिव् (क्षप् ) फेंकना । खिप्प (क्षिप्य) फेंकना लुह् ( लुप्य) लोटसा, आलोटना दिप्पू ( दीप्य) दीपना, चमकना, शोभित होना, प्रकाशित होना
गच्छ् (गच्छ्) जाना
बोल्ल (ब्रू ) बोलना
४. प्रथम पुरुष के 'म' से शुरू होने वाले बदुवचनीय प्रत्ययों के पूर्व आये 'अ' का विकल्प से 'इ' ' हो जाता है । जैसे :
3
बोल्ल् + अ + मो बोल्लम, बोल्लामो, बोल्लिमो, बोल्लेमो ।
,
श्री तुलसीकृत रामायण में करहिं नच्चहिं, लहहुं ऐसे अनेक प्रयोग पाये जाते हैं ।
१. देखिए पिछे के पकरण में नियम १. ।
२. देखिए पिछले प्रकरण में नियम-९ । ३. हे० प्रा०व्या० ७।३।१५५ । ४. 'मो' की भाँति 'मु', 'म', तथा 'म्ह' प्रत्ययों के रूप भी इसी प्रकार करने चाहिए जैसे :
बोल्लम, बोल्लामु, बोल्लिमु, बोल्लेमु । बोल्लम, बोल्लाम, बोल्लिम, बोल्लेम । बोल्लम्ह, बोल्लाम्ह | बोल्लिम्ह, बोल्लेम्ह । - दे० पृ० १२ नि०२
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( १४७ )
रूपाख्यान १. पु० बोल्लमो, बोल्लामो, बोल्लिमो, बोल्लेमो २. पु. वोल्लह, बोल्लेह ३. पु० बोल्लंति, बोल्लेति
वाक्य हम सीते हैं।
तुम दोनों बन्दना करते हो । हम वन्दना करते हैं। तुम जाप कहते हो। हम लोटते हैं।
तुम कुपित होते हो। तुम दोनों बोलते हो। तुम घबराते हो। तुम दोनों सीते हो। हम दोनों शोभित होते हैं,चमकते हैं। हम दोनों फेंकते हैं।
वह सीता है। हम दोनों काँपते हैं। मैं काँपता हूँ। बे दोनों शाप देते हैं। मैं फेंकता हूँ। वे दोनों वन्दना करते हैं। तू लोटता है। वे दोनों जाप करते हैं। तू सीता है। मैं जाता हूँ।
तू जाप करता है। वह दीप्त होता है,शोभित होता है, चमकता है, प्रकाशित होता है। बंदामो
वंदेते सविरे
गच्छति
वन्दधे
वन्ददे
१. बोल्ल + अ + इत्था = बोल्लित्था अथवा बोल्लइत्था देखिए पृ० ६५
नि० ९। २. बोल्ल + अ + न्ते = बोल्लन्ते, बोल्ल + अ + इरेबोल्लिरे रूप भी समझना चाहिए । ३. अभ्यास के लिए शौरसेनी के तथा मागधी भाषा के नियम लगाकर ऐसे धातु रूपों के वाक्य बनाना जरूरी है।
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( १४८ )
जीवमो वंदेम वन्दंते
बोल्लामु
वंदह बोल्लमो लवेम दुण्णि लुट्टह बे खिप्पिस्था दो खुब्भिस्था कुप्पेह गच्छम्ह
लुट्टामि कुप्पेह खिवामि बोल्लसि वंदति
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तीसरा पाठ
वर्तमानकाल सर्व पुरुष )ज्ज
सर्व वचन ज्जा 'ज्ज' तथा 'ज्जा' प्रत्ययों के लगने से पूर्व 'अंग' के अन्त्य 'अ' को 'ए' होता है।
वंद् + अ + ज्ज = वंदेज्ज।
वंद् + अ + ज्जा = वंदेज्जा। १. हे० प्रा० व्या० ८।३।१७७ । २. हे० प्रा० व्या० ८।३।१५६ ।
३. पुरुषबोधक प्रत्यय और स्वरान्त धातुओं के बीच में ज्ज तथा ज्जा दोनों में से किसी एक प्रत्यय के लगाने से भी रूप बन सकते हैं। जैसे:हो+इ= हो+ज्ज + इ = होज्जइ अथवा होइ । हो + इ = हो+ज्जा + इ = होज्जाइ अथवा होइ -हे० प्रा० व्या० ८।३।१७८ । विकरण लगने के पश्चात् :हो + अ + इ = हो + अ + ज्ज +इ= होएज्जइ, होअइ। हो+अ + इ = हो + अ + ज्जा + इ=होएज्जाइ, होअइ। होज्जइ अथवा होएज्जइ के साथ श्रीज्ञानेश्वरप्रणीत गीताजी (चौदहवां शतक) में 'अयेक्षिजे', 'मथिजे', 'भोगिजे', 'कीजे', 'किजसी' 'सांडिजे' ऐसे अनेक क्रियापद आते हैं वे तथा होजे, थजे, करज, चालजे, देजे, लेजे इत्यादि वर्तमान में प्रचलित गुजराती भाषा के क्रियापद के रूप बिल्कुल मिलते-जुलते हैं ।
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( १५० ) स्वरान्त धातुएँ :दा (दा)-देना।
ठा (स्था)-स्थिर रहना, ठहरना । वा (वा)-बोना, वपन करना, झा (ध्या)-ध्याना, ध्यान करना।
उगाना। हा (हा)-छोड़ना, त्यागना । पा (पा)-पीना।
बू (ब्रू)-बोलना। गा (गा)-गाना। हो (भू) होना। जा (जा)-जाना। धा (धाव)-दौड़ना। णे
(नी)-ले जाना, पहुँचाना। खा (खाद्)-खाना, भोजन करना।
अकारान्त धातुओं को छोड़कर शेष सभी स्वरान्त धातुओं के अन्त में पुरुषबोधक प्रत्यय लगाने से पहले विकरण 'अ' विकल्प से होता है (हे० प्रा० व्या० ८।४।२४० )। हो+इ=होइ।
हो + अ +इ=होअइ। खा+इ= खाइ।
खा+अ+इ= खाअइ। धा+ इ = धाइ।
धा+अ+ इ = धाअइ । ( अकारान्त धातुओं के अन्त में 'अकार' विद्यमान है। इसलिए उनके बाद विकरण 'अ' दुबारा लगाने की आवश्यकता नहीं है।) अकारान्त धातुएँ :चिइच्छ (चिकित्स)-चिकित्सा करना, शंका करना, अथवा उपाय
करना, उपचार करना । जुउच्छ (जुगुप्स)-घृणा करना अथवा दया करना । अमराय (अमराय)-देव की भाँति रहना । चिइच्छइ । जुउच्छइ । अमरायइ ।
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विना विकरण के रूप :
एकवचन
१. पु० होमि
२. पु० होसि
३. पु० होइ
( १५१ )
रूपाख्यान
विकरण वाले रूप :
१. पु० होअमि, होआमि, होएमि । होअमो, होआमो, होइमो, होएमो ।
२. पु० होअसि, होएसि ।
होमह, होएह ।
३. पु० होअइ, होएइ ।
होअंति, होएंति, होइति ।
सर्व पुरुष सर्व वचन
(विकरण रहित ) ( विकरण वाले)
हम गाते हैं ।
तुम दौड़ते हो ।
वे बोलते हैं ।
वे दोनों खाते हैं । मैं खड़ा हूँ ।
तू ले जाता है ।
हम जाते हैं ।
होज्ज, होज्जा होएज्ज, होएज्जा
बहुवचन
होमो
होह
होंति, हुति ।
तुम
चिकित्सा करते हो । हम देव की भांति रहते हैं ।
वाक्य
तुम पीते हो ।
वे गाते हैं ।
हम दोनों छोड़ते हैं, त्याग करते हैं ।
देते हैं ।
वह बोता है, उगाता है |
हम ले जाते हैं ।
वेले जाते हैं । मैं घृणा करता हूँ ।
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( १५२ )
गाह
होति
जंति
बूमो
धाह गाइ जासि ठामि बूम णेमि
ठाह ठाइत्था हामि णति पामो
बिति
बेजामो झामो गाएसि
देति
बेमिर
खाएमो
१. बू + अ + न्ति = बू + ए +न्ति = बेंति तथा बिति । २. बू+अ+मि= बू+ए+ मि = बेमि । पालिभाषा में 'ब्र' धातु है। उसके रूपएकवचन
बहुवचन १. ब्रूमि २. ब्रूसि
थ ३. ब्रूति, ब्रवीति
ब्रुवन्ति देखिए-पा० प्र० पृ० १७६ ।
ब्रूम
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चौथा पाठ
अस् = विद्यमान होना। अस् धातु के रूप अनियमित है । वे इस प्रकार हैं:एकवचन
बहुवचन १. पु० अम्हि, म्हि (अस्मि ) म्ह, म्हो, मो मु० ( स्मः )
मि, अंसि, अत्थेि ___अस्थि २. पु० सि, असि ( असि ), अस्थि थ (स्थ ), अत्थि ३. पु० अस्थि
अस्थि, संति ( सन्ति )। १. हे० प्रा० व्या० ८।३।१४६, १४७, १४८ ।। २. व्याकरण में 'म्ह' तथा 'म्हो' रूप विहित किये गये हैं परन्तु प्राचीन
आर्ष प्राकृत भाषा में म्हु, मु, मो, ऐसे रूप भी प्राप्त होते हैं । ३. 'अंसि' ( अस्मि ) रूप विशेषतः आर्षप्राकृत में पाया जाता
है और 'अत्थि' रूप सभी पुरुषों और सभी वचनों में प्रयुक्त होता है। ४. अस् धातु के पालि रूपएकव०
बहुव० १. अस्सि, अम्हि
अस्म, अम्ह २. असि, अहि
अत्थ ३. अत्थि
-देखिए पा० प्र० पृ० १७८॥
संति
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( १५४ )
धातुएँ मज्ज् , (मद्य)-मद करना, खुश होना, अभिमान करना । खिज्ज् (खिद्य)-खीझना, खिन्न होना, खेद करना : सं + पज्ज् (सं+पद्य)-प्राप्त होना । नि + प्पज्ज (निष्पद्य) निष्पादन करना, होना। विज्ञ् (विद्य)-विद्यमान होना, उपस्थित होना। जोत्, जोअ (द्योत)-घोतित होना, प्रकाशित होना, देखना। सिज्ज् (स्विद्य)-स्वेद का आना (होना), पसोजना, चिकना होना। दिव्व् (दीव्य)-द्यूत खेलना, क्रीड़ा करना।
वाक्य
तू देता है। वह होता है। हम गाते हैं। तुम दौड़ते हो। वे दोनों खाते हैं। मैं खड़ा हूँ। (तुम) हो। वह जाता है। मैं खुश होता हूँ। वह खेद करता है। वह निष्पादन करता है। वह सम्पादन करता है।
हम दोनों ध्यान करते हैं। तुम पोते हो। वे दोनों खेलते है। पसोजता है। (हम) हैं। विद्यमान है। तुम दो हो। तू दीप्त होता है। हम छोड़ते हैं। मैं जाता हूँ। मैं हूँ। मैं पूर्ण करता हूँ । हम प्रकाशित होते हैं।
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( १५५ )
जंति
जासि ठामि
म्हि
बूम वाइ बे जाम
गाएसि जोतसि जोआमु खिज्जेह बेण्णि संति धाह बूमि संपज्जइ
दो मो
निप्पज्जसे संति सिज्जति मज्जंते
निप्पज्जह असि अत्थि दो मज्जह दोण्णि दिव्वामु बूमो बे खाएमु मज्जेसि
गाइ
असि अम्हि
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१.
पुज्ज् ( पूर्व ) - पूरा करना । धना ।
विज्झ (विध्य ) गिज्झ ( गृध्य ) - ललचाना । कुज्झ ( क्रुध्य ) — क्रोध करना । सिज्झ ( सिध्य ) - सिद्ध होना । नज्झ (नह्य) – बाँधना ।
जुज्झ ( युध्य ) - जूझना, युद्ध करना ।
बोह (बोध) -- बोध होना, जानना, ज्ञान होना ।
वह ( वध ) - वध करना, जान से मारना, प्राणों का हनन करना ।
सोह (शोभ) - शोभना, शोभित होना ।
खाद् खाय्
पाचवाँ पाठ
} (खाद ) —खाना ।
कह (कथ ) —— कहना |
"
कुह ( कुथ) - सड़ना ।
बाह (बाघ) - बाधा करना, अड़चन - रुकावट डालना ।
लिह (लिख) — लिखना ।
•
लहू ( लभ ) - लेना, प्राप्त करना ।
सिलाह ( श्लाघ ) -- श्लाघा करना, सराहना, प्रशंसा करना । सोह, (शोध) --शोधना, शुद्ध करना, साफ करना ।
देखिए पृ० ६६
नियम ८ ।
५ ।
२. पृ० ६७ नियम ६ । ३. पृ० ३७
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( १५७ ) सुज्झ् (शुध्य)-शोधना, साफ करना । धाव,धाय् (धाव)-दौड़ना, भागना ।
वाक्य हम दोनों ध्यान करते हैं। तुम हो। वह वींधता है।
वे हैं। हम ललचाते हैं। तुम दोनों घबराते हो तुम दोनों सड़ते हो। हम हैं । हम वींधते हैं। तुम सुशोभित होते हो। तुम द्योतित होते हो। तुम शोधते हो।
वह जानता है। तुम साफ करते हो। मैं खुश होता हूँ। हम दोनों लिखते हैं। वे दोनों जाते हैं। तुम खींचते हो।
तुम काँपते हो। वह सम्पादन करता है। वे दोनों प्रशंसा करते हैं। वे दोनों निन्दा करते हैं। वह बोता है। तुम दोनों दौड़ते हो। हम होते हैं। मैं गाता हूँ।
हम खेद करते हैं। वह शाप देता है।
वह खड़ा रहता है। वह प्रकाशित होता है। मैं सिद्ध करता हूँ।
कुहंति
सिलाहंति गिज्झम मि कहेमि
झाम होंति दुन्नि बोहेति
जुज्झेम
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बिति
( १५८ ) नज्झसि ठाइ
लिहेज्ज बे सोहामो
सिझंति मुज्झिमु
दो लहेज्जा वेन्नि विज्जति
कुज्झेसि ठाएह
अंसि बे बाहह
धातुएँ बीह' (भी)-भयभीत होना, डरना । छज्ज् ( सज्ज)-छाजना, शोभा देना । वेढ् ( वेष्ट )-वेष्ठन करना, वीटना, लपेटना । कर ( कर )--करना । तर ( तर )-तरना, तैरना। चिण ( चिनु)-चयन करना, चुनना, इकट्ठा करना । डह ( दह )-दग्ध होना, दाझना, जलना । डज्झ् ( दह्य )-दग्ध होना, जलना, जलाना ।
(नम)-नमना, झुकना, प्रणाम करना । चय ( त्यज)-त्यागना, छोड़ना । जिण (जिना)-जीतना । छिद् ( छिनद् )-छेदन करना, फाड़ना। चल ( चल)-चलना। निद् ( निन्द )-निन्दना, निन्दा करना, शिकायत करना ।
न
समानता 'बीह' और 'भी' :- +ह + ई; ब् और ह के मिल जाने से भ और ई के मिलने से 'भी' ।
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( १५६ ) सूस } ( शुष्य')-शोषण करना । सुण ( शृणु )-सुनना। सुमर् ( स्मर)-स्मरण करना, याद करना । गच्छ ( गच्छ )-गति करना, जाना।
( नश्य) नाश होना। गेण्ह (गृह्णा )-ग्रहण करना । नच्च् ( नृत्य )-नाचना । कुण ( कृणु)-करना।
( रूष्य )-रूठना, रोश करना, गुस्सा करना, क्रोध करना । हण ( हन् )-हनना, मारना।
सार और प्रश्न एकवचन
बहुवचन १. पु० वंदमि, वंदामि, वंदेमि। वंदमो, वंदामो, वंदिमो, वंदेमो,
वंदमु, वंदामु, वंदिमु, वंदेमु,
वंदम, वंदाम, वंदिम, वंदेम । २. पु. वंदसि, वंदेसि, बंदसे, वंदह, वंदेह, वंदइत्था, वंदेइत्था, वंदेसे ।
वंदित्था। ३. पु. वंदइ, वंदेइ, वंदए, वंदेए, वंदति, वंदेति, वंदिति, वंदंते, वंदति, वंदेति, वंदते वंदेते। वंदेंते, वंदिते, वंदइरे, वंदेइरे,
वंदिरे ।
रूस्स
सर्व पुरुष
वंदेज्ज, वंदेज्जा
सर्व वचन १. देखिए पृ० ११ नि० १ ।
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( १६० ) स्वरान्त धातुओं के बिना विकरण के रूप :
१. पु० होमि । होमो, होमु, होम। २. पु० होसि । होह, होइत्था । ३. पु० होइ, होति । होंति, हुंति, होन्ति, हुन्ति, होन्ते, हुन्ते,
होइरे। सर्व पुरुष को सोना
सर्व वचन
होज्ज, होज्जा।
बहुवचन
स्वरान्त धातुओं के विकरण वाले रूप :
एकवचन १. पु० होअमि, होआमि, होएमि । होअमो, होआमो, होइमो, होएमो,
होअमु, होआमु, होइमु, होएमु,
होअम, होआम, होइम, होएम । २. पु० होअसि, होएसि, होअसे, होअह, होएह, होअइत्था, होएहोएसे।
इत्था । ३. पु० होअइ, होएइ, होअए, होअंति, होएंति, होइंति, होते,
होएए, होअति, होएति । होअंते, होएते, होअइरे, होएइरे ।
सर्व पुरुष
दोएज्ज, होएज्जा
सर्व वचन
हा
प्रश्न
१. प्राकृत भाषा में कौन-कौन से स्वरों का प्रयोग नहीं होता ? जिन
स्वरों का प्रयोग नहीं होता, उनके स्थान पर कौन-कौन से स्वर प्रयुक्त होते हैं ? उदाहरण सहित समझाओ। २. निम्नलिखित शब्दों के प्राकृत में रूप बताओ?
मृत्तिका, ताम्बूल, कीदृश, दैत्य, पौर, कौमुदी, तमस् , तीर्थकर,
गोष्ठी, नग्न, चन्द्र। ३. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओ।
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( १६१ )
समुद्द, वंक, साहा, पढाइ, साहु, हलद्दा, अंगाल, सद्द, चोद्दह, छट्ट, भायण ।
४. निम्नलिखित संयुक्त व्यंजनों के परिवर्तित रूप उदाहरण सहित बताओ ?
क्ष, त्य, द्य, प्स, ष्ट ।
५. निम्नांकित संयुक्त व्यञ्जन वाले शब्दों के प्राकृत रूपान्तर बताओ ?
ग्रीष्म, स्तम्भ, पुष्प, प्रश्न, मुष्टि, ध्यान, शौण्डोर्य, ऊर्ध्व, तीर्थ, निम्न, कर्तरी ।
६. निम्नलिखित शब्दों में संधि बताओ ?
वासेसि, ददामहं, बहूदगं, पुहवोसो, काही |
७. निम्नलिखित शब्दों में समास समझाओ ?
देवदाणवगंधा, वीतरागो, तित्थयरो, नरिंदो, महावीरो ।
८. दीर्घ को ह्रस्व और ह्रस्व को दीर्घ कब-कब होता है ? उदाहरण सहित समझाओ ।
६. स्वरान्तधातु और व्यञ्जनांतधातु की रूप-साधना में क्या-क्या अन्तर है ?
१०. प्राकृत में द्विवचन है ? वहाँ द्विवचन का अर्थ किस प्रकार सूचित किया जाता है ?
११. प्राकृत भाषा के रूपों के साथ गुजराती भाषा के रूपों का कैसा सम्बन्ध है ?
१२. शौरसेनी, मागधी तथा अपभ्रंश भाषा के परिवर्तन के नियमानुसार प्राकृत भाषा से कहाँ कहाँ भिन्नता है ?
१३. पालि भाषा तथा प्राकृत भाषा के परिवर्तनों में समानता बताओ ?
११
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अप
.
( १६२ )
उवसग्ग ( उपसर्ग उपसर्ग धातु के पूर्व में आकर धातु के मूल अर्थ में न्यूनाधिकता करके विशेष, न्यून, अधिक अथवा भिन्नार्थ बताते हैं । जो इस प्रकार हैं :प (प्र) = आगे, +जाइ पजाइ आगे जाता है।
प+जोतते प्रजोतते विशेष प्रकाशित होता है।
+हरति पहरति प्रहार करता है। परा-सामने, उल्टा, परा + जिणइ पराजिणइ पराजय करता है । ओ ) (अप)-हल्का , ओ+ सरइ अव रहित, नीचे,दूर, अव+ सरइ सरकता है,
अप + सरइ ) दूर हटता है । अप+ अर्थकम् = अवत्थयं-अपार्थक,
व्यर्थ । ओ + माल्यम् = ओमल्लं = निर्माल्य । सं (सम)-इकट्टा, साथ, सं+ गच्छति = संगच्छति = साथ
जाता है। सं+ चिणइ = संचिणइ = संचय
करता है, इकट्ठा करता है। अनु (अनु)-पीछे, समान, अणु + जाइ = अणुजाइ = पीछे
जाता है। अणु , , ,
अणु + करइ- अणुकरइ = अनु
करण करता है। ओ (अव)-नीचे
ओ+ तरह = ओतरइ अवतार लेता है। अव + तरइअवतरइ उतरता है, नीचे जाता है।
अव
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निर् (निर् ) - निरन्तर,
नि
सतत,
रहित
नी
बु ( दुर) — दुष्टता
26g
अभि
अहि
""
,,
( अभि ) - सामने
"
( १६३ )
31
वि - विशेष, नहीं, विपरीत
निर् + इक्खइ = निरिक्खइ = निरीक्षण करता है, देखता है । नि + ज्झरइ = निज्झरइ झरता है । नि + सरइ = नीसरइ = निकलता है । निर् + अंतरं= निरंतरं = निरंतर | निर् + धनः = निद्धणो = निर्धन, गरीब ।
दु + गच्छइ = दुग्ग्गच्छ इ = दुर्गति में जाता है ।
दो + गच्चं = दोगच्चं = दौर्गत्य, दुर्गति ।
दू + हवो = दूहवो = भाग्यहीन, बदनसीब |
अभि + भासइ = अभिभासइ = सामने जाता है ।
अहि + मुहं = अहिमुहं अभिमुख, सामने ।
वि + जाणइ = विजाणइ = विशेष जानता है ( करता है ) | वि + जुंजइ = विजुंजइ : वियुक्त होता है ( करता है ) । अलग होता है ।
वि + कुव्वइ = विकृत करता है ।
१. 'दू' और 'सू' का उपयोग केवल 'हव' (भग) शब्द के पूर्व ही
होता है । देखिए, पू० २३ नियम ५ ।
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जाता है।
( १६४ ) अधि (अधि )-अधिक । अधि + गच्छति = अधिगच्छद =
प्राप्त करता है, जानता है, ऊपर अहि , ,
अधि+ गमो-अहिगमो= अधि
गम, ज्ञान। 'सु (सु)-श्रेष्ठ सु + भासए = अच्छा बोलता है।
सू + हवो सूहवो भाग्यवान । उ (उत् )-ऊँचा उ + गच्छते = उग्गच्छते-ऊँचा ।
जाता है, ऊगता है। अइ (अति)-अतिशय,हदसे बाहर, अइ + सेइ = अइसेइ = अतिशय
. अमर्यादित करता है, अति प्रशंसा करता है । अति , ,
'अइ + गच्छति = अतिगच्छति =
हद से बाहर जाता है। णि ( नि )-निरन्तर, नीचे णि + पडइ = णिपडइ = निरन्तर
गिरता है, नीचे गिरता है। नि . , ,
नि+ पडइ = निपडइ = नीचे
गिरता है, निरन्तर गिरता है। पडि (प्रति)-सामने, समान, पडि + भासए = पडिभासए-सामने
विपरीत बोलता है। पति , . ,
पति + ठाइ=पतिठाइ-पतिष्ठित होता है। परि + ट्ठा = परिट्ठा= प्रतिष्ठा। पडि + मा पडिमा समान आकृति।
पडि + कूलं = पडिकूलं = प्रतिकूल । १. 'परि' यह 'पडि' का ही एक भिन्न उच्चारण है। 'र' और 'ड' का-उच्चारण स्थान भी समान ही है । देखिए,पृ० ५२ नि० १६ 'र' को 'ड'।
परि
,
"
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________________
( १६५ ) परि (परि)-चारों तरफ परि + बुडो= परिवुडो-परिवृत,
चारों ओर से घिरा हुआ। पलि , , पलि + घो = पलिघोपरिघ,घन । अपि (अपि)-भी, उल्टा अवि + हेइ = अविहेइ = ढाँकता है ।
अपि + हेइ = अपिहेइ = ,, पि+हेइ = पिहेइ = , . को + वि = कोवि = कोइ भो। को+ इ = कोइ = , किम् + अवि=किमवि = कुछ भी।
जं+पि = जंपि= जो भी। उ (उप)-पास उव + गच्छइ = पास जाता है ।
ऊ + ज्झायो= ऊज्झायो = उपाध्याय । उव , ,
ओ+ ज्झायो-ओज्झायो ,,
उव + ज्झायो = उवज्झायो = ,, आ-मर्यादा, उल्टा, आ+ वसइ = आवसइ अमुक
मर्यादा में रहता है।
आ + गच्छइ = आता है। उपसर्गों के अर्थ निश्चित नहीं होते। इसीलिए कोइ उपसर्ग धातु के मूल अर्थ से विपरीत अर्थ बताता है, कोई मूल अर्थ को बताता है, कोई
ओ "
"
१. इन सब संस्कृत उपसर्गों में शौरसेनी, मागधी, तथा पैशाची भाषा के
अनुसार परिवर्तन कर लेना चाहिये, जैसे-अति, शौ० अदि । परि, मा० पलि । अभि, पै० अभि। .
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________________
( १६६ )
धातु के मूल अर्थ में कुछ अतिशय अर्थ बताता है और कोई केवल शोभा के लिये ही प्रयोग में आता है- धातु के अर्थ में बिल्कुल परिवर्तन नहीं करनेवाला उपसर्ग 'अपि' है और वह 'भी' अर्थ में अव्यय भी है । इसलिए 'अपि' के उदाहरणों में उसके दोनों प्रकार के प्रयोग दिखाये हैं ।
पुण् ( पुना ) - पवित्र करना ।
थुण् (स्तु) - स्तुति करना ।
वच्च् ( व्रज ) - गति करना, जाना ।
धातुएँ
कुछ ( कुर्द ) -- कूदना ।
अच्च् (अर्च) – अर्चना करना, पूजा करना ।
वड्ढ़ (वर्ध) - बढ़ना ।
भम ( भ्रम ) - भ्रमण करना, घूमना ।
भम्म (भ्राम्य) -
""
भिद् (भिनद् ) - भेदना, टुकड़े-टुकड़े करना ।
T
चिइच्छ ( चिकित्स ) — चिकित्सा करना, रोग का उपचार करना ।
----
लुण्
गंठ्
"
जग्ग् ( जागृ ) -- जागना ।
छिंद् (छिन्द्) - छेदना, चीरना, फाड़ना ।
सिच ( सिञ्च) — सीञ्चना, पीना, तर करना ।
मुंच् ( मुञ्च )
छोड़ना, त्यागना ।
( लुना ) - काटना, लवना |
(ग्रन्थ) -- गाँठना, गूँथना ।
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( १६७ )
गज्ज् (गर्ज ) – गाजना,
गर्जना | मिला ( म्ला ) – म्लान होना, कुम्हला जाना । गिला (ग्ला ) – ग्लानि होना, क्षीण होना ।
वीसर, (वि + स्मर) - विस्मृत होना, भूल जाना । जम्मू ( जन्मन् ) - जन्म लेना, पैदा होना ।
रुव्
( रुद्) - रोना ।
तोल् (तोल ) - तोलना, मापना ।
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छठा पाठ अकारान्त शब्द के रूप ( पुंलिंग)
वीर+
बहव०
प्र०
शब्दः प्रत्यय एकव० वीर + ओ = वीरो (वीरः') वीर + ए-वीरे
वीर + आ =वीरा' (वीराः) .
+तुलना के लिए 'अकारान्त' 'बुद्ध' शब्द के पालिभाषा के एकवचनी रूप :एकवचन
बहुवचन प्र० बुद्धो
बुद्धा (बुद्ध से ) द्वि० बुद्धं तृ० बुद्धेन
बुद्धेहि, बुद्धेभि [किसी-किसी स्थान मे तृतीया के एकवचन में बुद्धसो' रूप भी होता है और तृतीया के एकवचन में कहीं-कहीं 'सा' प्रत्यय भी लगता है-जलसा, बलसा] च० बुद्धाय, बुद्धस्स
बुद्धानं पं० बुद्धा, बुद्धस्मा, बुद्धम्हा बुद्धेहि, बुद्धेभि ष० बुद्धस्स
बुद्धानं स० बुद्धे, बुद्धस्सि, बुद्धम्हि बुद्धेसु सं० बुद्ध !, बुद्धा!
बुद्धा-दे०पा०प्र०पृ०,८५,८६ । १. हे० प्रा० व्या० ८।३।२१ तथा ८।४।२८७, ८।३।४।
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द्वि०
( १६६ ) वीर + म् = वीरं (वीर) वीर + आ = बीरा (वीरान्),
वीर + ए-वीरे
संस्कृत भाषा में 'स्मात्' 'स्मिन्' प्रत्यय मात्र सर्वादि शब्द में ही लगते हैं । प्राकृत भाषा में ये प्रत्यय व्यापक हैं इसी हेतु बुद्धस्मा, वीरंसि जैसे रूप प्राकृत भाषा में प्रचलित हैं ।
शौरसेनी, मागधी, पैशाची भाषा के रूप भी 'वीर' के रूप जैसे ही बनेंगे, विशेषता इस प्रकार है :
पंचमो एकवचन-शौरसेनी-वीरादो, वीरादु । मागधो रूप
प्रथमा एकवचन-'वीले' (मागधी भाषा में पुंलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'वीले' ऐसा एकारान्त रूप होता है, 'वीलो' ऐसा ओकारान्त रूप नहीं होता)।
पंचमी एकवचन-वीलादो, वीलादु ।
षष्ठी , वीलाह, वोलश्श । षष्ठी बहुवचन-वीलाहं, वोलाणं (हे० प्रा०व्या० ८।४।२६६,३००)। पैशाची रूपपंचमी एकवचन-वीरातो, वोरातु । अपभ्रंश रूपों में विशेष भिन्नता है :एकवचन
बहुवचन वीरु, वीरो, वीर, वीरा। वीर, वीरा। वीरु, वीर, वीरा।
वीर, वीरा। वीरें, वीरेण, वीरेणं
वोरेहिं, वीराहिं,
वीरहि। च० वीरस्सु, वीरासु, वीरसु,वीराहो, वीराहं, वीरह, वीर, २. हे० प्रा० व्या० ८।३॥५॥ ३. हे० प्रा० व्या० ८।३।१४ ।
द्वि०
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पं०
( १७० ) तृ. वीर + ऐण = वीरेण (वीरेण), "वोर + एहि वीरेहि (वोरेभिः)
वीरेणं वीरेहि, वीरेहि (वीरैः) वीर + आय = वीराय (वीराय), वीर + ण-वीराण (वीराणाम् ,, वीर + आए = वोराए वीराणं वीर + स्स= वीरस्स (वीरस्य) *वीर + आ =वीरा (वीरात्), वीर + ओ= वीराओ
वीरहो, वीर, वीरा। वीरा । वीराहु, वीरहु, वोराहे, वीरहे। वीराहुं, वीरहुं । वोरस्सु, वीरासु, वोरसु, वीराहो, वीराह, वीरहं । वीरहो, वीर, वीरा। वीरि, वीरे।
वीराहिं, विरहिं । वीरु, वीरो, वीर, वीरा। x वीराहो, वोरहो,
वीर, वीरा। x वैदिक छान्दस-'देवासः' रूप के साथ 'वोराहो' रूप की तुलना हो सकती है।
४. हे० प्रा० व्या० ८।३।६।, ८।३।१४।, ८।१।२७। ५. हे० प्रा० व्या० ८१३७, ८।३।१५। ६. हे० प्रा० व्या० ८।४।४४८१, ८।३।१३१, १३२॥ ७. हे० प्रा० व्या० ८।३।६।, ८।३।१२। * पांचमी विभक्ति में निम्न अधिक रूप बनते हैं : एकवचन
बहुवचन वीर + तो = वोरातो
वीरातो वीर+तु = वोरातु
वीरातु वीर+हि = वीराहि वीर + हिंतो = वीराहितो
वीर + त्तो-वोरत्तो (वीरतः) वीरत्तो (वीरतः) ८. हे० प्रा० व्या० ८।३।८१, ८।३।१२। ९. हे० प्रा० व्या० ८।३।।
वीराहि, वीरेहि,
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( १७१ ) वीर + ओ= वीराओ वीर + उ =वीराउ वीर + उ = वीराउ वीर + हिंतो = वोराहितो,
वीरेहिन्तो (वीरेभ्यः) वीर + सुंतो = वीरासुंतो,
वीरेसुंतो ष० वीर + स्स = वीरस्स (वीरस्य) वीर + ण = वीराण'
(वीराणाम्),
वीराणं स० वीर + ए=वोरेर
वीर + सु-वीरेसु
(वीरेषु), वोर + अंसि = वीरंसि (वोरस्मिन्), वीरेसुं
वीर + म्मि = वीरम्मि १२. सं० वीर ! (वीर !)
वीरा १४ ( वीराः !) वीरा! वीरो!
वीरे ! () इस निशान में बताये हुए संस्कृत रूपों और प्राकृत रूपों के उच्चारणों में नहीं जैसा भेद है। यह भेद रूपों के बोलते ही समझ में आ जाता है । केवल पंचमी विभक्ति में अधिक अनियमित रूप बनते हैं।
तथा १२।१५। १०. हे० प्रा० व्या० ८।३।१०।११. हे० प्रा० क्या० ८।३।६, ८।१।२७। १२. हे० प्रा० व्या० ८।३।११। १३. हे० प्रा० ज्या० ८।३।१५, ८।१।२७। १४. हे० प्रा० व्या० ८।३।३८, तथा ४,१२।
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( १७२ ) रूप बताते समय शब्द (नाम) का मूल अंग और प्रत्यय का अंश दोनों पृथक्-पृथक् बताये गये हैं और उसके साथ ही उस पद्धति से साधित रूप भी अलग-अलग बताये गए हैं । अतः पाठक उक्त पद्धति से ही अकारान्त शब्द के रूप समझ लेंगे।
साधनपद्धति की जानकारी १. प्रथमा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी और सप्तमी विभक्ति के 'स्वरादि
प्रत्यय' तथा पंचमी का केवल 'आ' प्रत्यय लगाने पर अंग के अन्त्य 'अ' का लोप करना चाहिए ( देखिए पृ० ६५ नियम-१)। जैसे :
वोर + ओ=वीरो २. वीर + म् = वोरं (विरं)
वोरम् + अवि - वीरं अवि, वीरमवि, ( देखिये पृ० ६६, ९७; क्रमशः
नियम १७, १८)। ३. तृतीया और षष्ठी विभक्ति के 'ण' तथा सप्तमी विभक्ति के 'सु'
परे रहने पर (आगे) विकल्प से अनुस्वार होता है । वीर + एण = वोरेण, वीरेणं । वीर + ण = बीराण, वीराणं । वीर + सु = बीरेसु, वीरेसुं । तृतीया और सप्तमी विभक्ति के बहुवचनोय प्रत्ययों के पूर्व अकारान्त अंग के अन्त्य 'अ' को 'ए' तथा इकारान्त और उकारान्त अङ्ग के अन्त्य 'इ' तथा 'उ' को दीर्घ हो जाता है । वीर + हि =वीरेहि । रिसि + हि = रिसीही। भाणु + हि = भाणूहि।
वीर + सु = वीरेसु । रिसि + सु = रिसीसु । भाणु + सु = भाणूसु । ५. पञ्चमी के 'ओ', 'उ', हितो' प्रत्ययों के पूर्व स्वरान्त अंग के
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( १७३ )
अन्तिम स्वर को दीर्घ होता है और पञ्चमी के बहुवचन के 'हि', 'हितो', 'सुंतो' प्रत्ययों के पूर्व अकारान्त अंग के अन्त्य 'अ' को 'ए' भ हो जाता है ।
एकवचन
वीर + ओ = वीराओ
वीर + उ = वोराउ
रिसि + ओ भाणु + ओ
=
रिसीओ
भाणूओ
६. षष्ठी के बहुबचन 'ण' से पूर्व अंग के अन्तिम स्वर को दीर्घ होता है ।
वीराण, वीराणं ।
वीर + ण = रिसि + ण =
७. सम्बोधन - ( विभक्ति ) के रूप रहित केवल मूल अंग भी प्रयोग में वीरो ! वीरा ! वीरे ।
: रिसीण ।
बहुवचन
वीर + हि = वीराहि, वीरेहि ।
वोर + हितो = वीराहितो, वीरेहितो । वीर + सुंतो = वीरासुंतो, वीरेसुंतो ।
रिसि + हि = रिसीहि ।
भाणु + ह = भाणूहि ।
रिसि + हितो = रिसीहितो ।
सर्वथा प्रथमा जैसे हैं; विभक्ति देखने को मिलता है । जैसे, वीर !
८. तृतीया विभक्ति के 'हि' प्रत्यय परे नासिक भी होता है । इस प्रकार वीरेहि, वीरेहिं ।
१
९. व रा ( च० ए० ), वीरंसि ( स० ए० ) रूपों का व्यवहार
विशेषतः आर्ष प्राकृत में दिखाई देता है । एकवचन में 'आई' प्रत्यय वाला रूप भी
कई स्थानों में चतुर्थी के उपलब्ध होता है ( हे०
रहने पर अनुस्वार और अनुइसके तीन रूप होते हैं । वीरेहि,
१९. अजिणाए ( अजिनाय ), मंसाए ( मांसाय ), पुच्छाए ( पुच्छाय ) आदि 'आए' प्रत्यय वाले तथा 'लोगंसि', 'कंसि', अगारंसि, सुसाणंसि आदि 'अंसि' प्रत्यय वाले रूप आचारांगादि आर्ष सूत्रों में मिलते हैं ।
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( १७४ ) प्रा० व्या० ८।३।१३३ )-वहाइ (वधाय ), 'आय', 'आए' और 'आई' इन तीनों में विशेष समानता है। 'आइ' प्रत्ययवाला रूप बहत प्रचलित नहीं है। इसीलिए उपर्युक्त रूपों में नहीं बताया गया है। कई स्थानों में 'आए' के बदले 'आते' प्रत्यय भी उपलब्ध होता है अतः 'वीराए' की भाँति 'वीराते' रूप भी आर्ष प्राकृत में
मिलता है। छांदस नियम को तरह चतुर्थी विभक्ति के अर्थ में षष्ठी विभक्ति का उपभोग होता है अतः इन दोनों के समान रूप होते हैं।
पुंलिंग शब्द [ नरजाति ] अरिहंत ( अर्हत् )=बोतराग देव । बाल ( बाल ) = बालक ।
-
२. अरिहंत वगैरह अनेक शब्द समग्र पुस्तक में दिए गए हैं। उन शब्दों को शौरसेनी, मागधी तथा पैशाची के शब्दपरिवर्तन के नियम लगाकर शौरसेनी, मागधो, पैशाची रूप बनाना, बादमें उनके सातों विभक्तियों के रूप बनाने चाहिए ।
अरिहंत का मागधी अलिहंत । णिव का पैशाची निप नयण का , नयन जिण का , जिन जिण का मागधी यिण पुच्छ का
पुश्च पिच्छ का , पिश्च हस्त का , हस्त वदण का पैशाची वतन वात का शौरसेनी वाद
अज्ज का शौरसेनो अय्य । इस प्रकार सब शब्दों में तत्-तत् भाषा के परिवर्तन नियमों का उपयोग करना चाहिए ।
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( १७५ )
हर (हर) = महादेव । बुद्ध (बुद्ध) = बुद्धदेव । मग्ग (मार्ग) = मार्ग (रास्ता)। कलह (कलह) = कलह (झगड़ा)। हत्थ (हस्त)= हाथ। पाय (पाद) = पाद (पैर), पांव, पग । भार (भार) = भार । उवज्झाय (उपाध्याय) = उपाध्याय, अध्यापक, गुरु, ओझा । आयरिय (आचार्य) = सदाचारवान्-चरित्रवान्-गुरु । सिद्ध (सिद्ध) = अदेही, वीतराग । निव (नृप) = नृप, राजा। बुह (बुध)= बुद्धिमान् । पुरिस (पुरुष) = पुरुष । आइच्च (आदित्य) = आदित्य, सूर्य । इंद (इन्द्र) = इन्द्र । चंद (चन्द्र) = चन्द्र । मेह (मेघ) = मेघ, बादल । भारवह (भारवह) = भार उठानेवाला, मजदूर । समुह , समुद्र (समुद्र) = समुद्र । नयण (नयन) = नयन, नेत्र, आँख । कण (कर्ण) = कान । महावीर (महावीर) = महावीर देव । जिण (जिन) = जय पानेवाला-वीतराग । अज्ज (आर्य) = आर्य, सज्जन ।
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( १७६ )
वाक्य (हिन्दी में) बादल मार्ग को सींचते हैं। इन्द्र बुद्धदेव को नमस्कार करता है । बुद्धिमान् पुरुष बालक को पूछता है । आँख से चन्द्र को देखता हूँ। कान से समुद्र को सुनता हूँ। बालक के हाथ में चन्द्र है। कलह को छिन्न कर ( मिटा) दो। सूर्य तपता है। राजा मार्ग को जानता है। सिद्धों को नमस्कार करो। मजदूर लोग मार्ग पर दौड़ते हैं। हम समुद्र में चन्द्र को देखते हैं । बालक उपाध्याय को पूछते हैं । राजा के चरणों में पड़ता हूँ। वीतराग देव ! नमस्कार करता हूँ। दो बालक बोलते हैं। समुद्र गरजते हैं। राजा सुशोभित होता है।
वाक्य (प्राकृत में) नमो अरिहन्ताणं । भारवहो हरं वंदइ।
महावीरो जिणो झाअइ । १. णमो' अथवा 'नमो' के साथ प्रयुक्त शब्द षष्ठी विभक्ति में आते हैं।
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( १७७ ) कण्णेहिं सुमि। नयहिं देवखामु । भारवहा भारं चिणंति । नमो उवज्झायाणं । समुद्दो खुब्भइ । मेहो समुद्रम्मि पडइ । बाला हत्थे धरिसंति। समुई तरह । हत्थेण हरं अच्चेमि। नमो आयरियाणं । आयरियाण पाए नमाम । बाला कुदंति चन्दो वड्ढइ ।
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सातवाँ पाठ
अकारान्त कमल शब्द के रूप ( नपुंसकलिंग )
बहुवचन
एकवचन
до कमल + म् = कमलं (कमलम् )
द्वि०
सं०
11 २
कमल !
द्वि०
३. प्र० एकव ०
कमलं
१. हे० प्रा० व्या० ८|३|२६| २. हे० प्रा० व्या० ८।३।३७ ।
"
० एकव०
कमलं
कमल + णि = कमलाणि' कमल + ई = कमलाइ कमल + इ = कमलाइँ
""
( कसल ! )
77
शेष रूप ( तृतीया से सप्तमी विभक्ति पर्यन्त ) वीर शब्द की भाँति
होते हैं ।
१०. 'णि', 'ङ', 'ई' प्रत्ययों के पूर्व अंग के अन्त्य ह्रस्व स्वर का दीर्घ
हो जाता है । जैसे :
3 कमल + णि= कमलाणि ।
पालि रूप :---
प्र० बहुव ०
"3
द्वि० ० बहुव ०
""
कमला, कमलानि ।
- कमलानि
कमले कमलानि ।
"
37
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________________
( १७९ ) वारि + ई = वारी।
मह + ई = महूई। ११. सम्बोधन के एकवचन में केवल मूल अंग ही प्रयुक्त होता है ।
जैसे, कमल!
४. प्र० एकव०
प्र० बहुव० वारि
वारी, वारीनि। द्वि० एकव०
द्वि० बहुव० वारि
वारी, घारीनि ५. प्र. एकव.
प्र. बहुव.
मधू, मधूनि । द्वि. एकव.
द्वि० बहुव०
मधु, मधूनि । पृ० ८९ में लिंगविचार बताया है सदनुसार सकारांत तथा नकारांत शब्द प्राकृत भाषा में पूंलिंग हो जाते हैं लेकिन पालि भाषा में ये शब्द पुंलिंग होते है तथा नपुंसकलिंग भी। संस्कृत के सकारान्त तथा नकारान्त शब्द प्राकृत भाषा में अन्त्य व्यंजन के लोप होने के बाद स्वरान्त बन जाते हैं (दे० पृ० ३२ लोप०)। स्वरान्त होने से उनके रूप स्वरान्त जैसे समझने चाहिए। पुलिंग प्रकारान्त शब्द का अकारान्त की तरह तथा पुलिंग इकारान्त, उकारान्त का इकारान्त उकारान्त की तरह । नपुंसकलिंगी अकारान्त का कमल की तरह तथा इकारान्त का वारि की तरह और उकारान्त का महु को तरह रूप होते है । मनस्-मण तथा कर्मन्-कम्म के रूपों में थोड़ी विशेषता है।
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( १८० )
शब्द ( नपुंसकलिंग) नयण ( नयन) = नयन, नेत्र, आँख । मत्थय ( मस्तक)= मस्तक, सिर ।
मण-तृतीया एकवचन मणसा ।
पंचमी ,, मणसो। च०० , मणसो ।
सप्तमी , मणसि । पालि में भी 'मन' शब्द के मनसा, मनसो, मनसि रूप होते हैं ।
कर्मन्-कम्मतृ० ए०-कम्मणा, कम्मुणा। च० ष० ए०-कम्मणो, कम्मुणो। पं० ए०-कम्मुणा, कम्मुणो।
स० ए०-कम्मणि । इसी तरह पालि में भी कम्मना, कम्मुना, कम्मुनो, कम्मनि रूप होते हैं। शिरस्-सिर का तृ० ए० में सिरसा रूप भी होता है । ये सब रूप आर्षप्राकृत में प्रचलित हैं । संस्कृत के रूपों में परिवर्तन करने से इन रूपों की सिद्धि करनी सरल है ( हे० प्रा० व्या० शेषं संस्कृतवत् ८।४।४४८)। पालि की विशेष विशेषता के लिए-दे० पा० प्र० पृ० १३५ नं० ६१-६२। अपभ्रंश रूपों की विशेषताकमलं
कमलाइ, कमलई।
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नाण ( ज्ञान ) = ज्ञान ।
चंदण ( चन्दन ) = चन्दन का वृक्ष अथवा लकड़ी ।
णगर, नगर, णयर, नयर ( नगर ) मुह ( मुख ) = मुख । पित्त ( पित्त ) = पित्त ।
सिंग ( शृङ्ग ) = सींग |
फल ( फल ) फल |
प्र० ए०
द्वि० ए०
अपभ्रंश में 'क' प्रत्ययवाला शब्द हो तो उसके रूप इस प्रकार हैं
कमलक कमलअ
कुण्डक
( १८१ )
कमलजं
कमलउँ
= नगर, शहर ।
केलक - केलअ (
केलउं
केलउं
कुंडउ
कुंड
बहुवचन पूर्ववत्
"
= केला )
13
""
( कुण्डा = पानी का कुंडा )
प्रचलित गुजराती — केलुं
कुंडू
71
बहुवचन पूर्ववत्
अपभ्रंश में शब्द (नाम) के रूप :
शब्द का अन्त्य स्वर दीर्घ हो तो ह्रस्व करके तथा ह्रस्व हो तो दीर्घ करके भी रूप बनते हैं । उन रूपों में कोई विभक्ति भी नहीं लगती तथा जैसा शब्द है उसमें कोई परिवर्तन न करके भी रूप बनते हैं अतः विभक्ति लगाने की जरूरत नहीं होती । जैसे— पुंलिंग में वीरा, वीर; नपुंसकलिंग में केला, कुण्डा । हिन्दी में प्रचलित चितारा ( चित्रकर ), केला, जल शब्द से इनकी तुलना की जा सकती है ।
11
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गल
पुच्छ
( १८२ ) वण (वन)= वन। भायण, भाण (भाजन )= भाजन, पात्र । वेर (वैर )= वेर, वैर । वयण (वचन ) = वचन । वयण, वदण( वदन ) = वदन, मुख । मंगल (मङ्गल) = मंगल । पास (पार्श्व ) = पास, नज़दीक । हियय (हृदय ) = हृदय।
(गल )=गला, गर्दन, ।
(पुच्छ )= पूंछ । पिच्छ
(पिच्छ )3D पोंछी। मंस (मांस ) = मांस । अजिन (अजिन ) = अजिन, चमड़ा। भय (भय) = भय, डर । चम्म (चर्म ) = चमड़ा ।
शब्द (पुंलिंग) सोह, सिंघ (सिंह ) = सिंह । वग्घ ( व्याघ्र )= बाघ । सिगाल,सिआल (शृगाल ) = शियाल, सियार । सीआल (शीतकाल ) = शरद् काल । गय
(गज )= गज, हाथी । वसह ( वृषभ ) वृषभ, बैल । ओट्ट ( ओष्ठ )= होठ, ओठ । दन्त
( दन्त )= दांत । (कुम्भकार ) = कुम्हार, कोंहार ।
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कोह
दोस
राग
( १८३ ) चम्मार (चर्मकार ) = चमार । हव्ववाह ( हव्यवाह ) = हव्यवाह, अग्नि ।
(क्रोध ) = क्रोध । लोह (लोभ )= लोभ । दोस ( द्वेष ) = द्वेष ।
( दोष ) = दोष । ( राग ) = राग, आसक्ति ।
धातु (क्रियापद) घड् ( घट्)= घड़ना, गढ़ना, बनाना ।
(जहा) = छोड़ना, त्यागना । जागर (जागर) = जागना ।
(भक्ष ) = भक्षण करना, खाना। जाय (जाय ) = जन्म होना, पैदा होना। परि+कम् ( परिक्रम् ) परिक्रमण करना, प्रदक्षिणा करना,
. चारों तरफ घूमना । इच्छ (इच्छ ) = इच्छा करना । रक्ख ( रक्ष ): रक्षा करना, पालना। वह, (वह) = वपन करना, बोना ।
जहा
भक्ख
विशेषण लंब ( लम्ब) = लम्बा। बज्झ ( बाह्य ) = बाहर का । लण्ह ( श्लक्ष्ण) = छोटा।
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( १८४ )
अव्यय
न ( न ) = नहीं ।
व ( वा ) = वा, अथवा | विणा, विना ( विना )
विना ।
सया, सइ ( सदा ) = सदा, हमेशा ।
सह (सह ) = साथ |
सद्धि ( सार्धम् ) = साथ | निच्चं, णिच्चं ( नित्यम् ) = नित्य |
वाक्य ( हिन्दी में )
वैर से बैर बढ़ता है ।
नगर के पास चन्दन का वन है ।
सिंह अथवा बाघ से शृगाल डरता है । कुम्हार सर्दी में पात्र बनाता है ।
बाघ के सींग नहीं होते ।
अग्नि वन को जलाती है ।
ज्ञान में मंगल है |
महावीर को मस्तक झुकाकर वन्दन करता हूँ । राजा के कान नहीं होते ।
सिंह के हृदय में भय नहीं है ।
वन में हाथी सूंढ़ से फल खाता है ।
मांस के लिए सिंह को मारते हो । दांतो के लिए हाथियों को मारते हैं । बुद्ध के साथ महावीर बोलते हैं । चमड़े के लिए बाघ को मारता है । हाथी बैलों से नहीं डरते ।
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( १८५ ) सिंह की पूंछ लम्बी होती है । आँख में क्रोध को देखता हूँ। सूर्य अथवा चन्द्र नहीं घूमते । बैल सींगो से शोभा पाता है । चमार चमड़े को साफ करता है। मुख से वचन बोलता हूँ। पुरुष पतले होठ से शोभा पाता है। वर्षा नित्य होती है। वर्षा बिना वन सूखते हैं। वाक्य ( प्राकृत में) अजिणाए वहति वग्घे । फलाइ मायणम्मि सोहन्ति । बुहा पुरिसा हियये वेरं न रक्खन्ति । निवो वणेसू सिंघे वा वग्घे वा हणइ । सिंघो फलं न खायइ । चंदणस्स वर्णसि जामि । कुम्मारो नगराओ आगच्छइ । चम्मारो अजिणाए नगरं जाइ । निवस्स मत्थयंमि कमलाणि छज्जन्ति । मत्थयेण वंदामि महावीरं । वणे गए देक्खह । वग्धस्स वा सीहस्स वा सिंगं नस्थि । लोहाओ लोहो वड्ढइ । रागा दोसो जायइ। कोहेण पित्तं कुप्पई।
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आठवाँ पाठ पुंलिंग शब्द
घड
नड
བྷྱཱ ཟླ ཟླ ཟླ ལླཱ ཡྻོ བྷྱཱ ཙྪཱ ཙྪཱ བྷྱཱ ཟླ གླུ
हरिस
( घट ) = घड़ा।
(नट ) = नट, अभिनेता। पडह ( पटह) = ढोल। भड (भट)= भट, शूर, वीर ।
( मोह ) = मोह, मूढ़ता। काय ( काय )= काय, काया, शरीर ।
(शब्द)- शब्द, आवाज़ ।
(हर्ष)-हर्ष, खुशी। मढ
(मठ )= मठ, सन्यासियों का निवास स्थान । सढ (शठ)= शठ, धूर्त । कुढार ( कुठार )=कुठार, कुल्हाड़ी।
(पाठ)= पाठ । समण (श्रमण) = शुद्धि के लिए श्रम करने वाला
सन्त पुरुष । (मोक्ष) = मोक्ष, छुटकारा ।
. ( वेद )= ऋग्वेद आदि चारों वेद । फास (स्पर्श)= स्पर्श । तलाय (तडाग)= तालाव ।
(गरुड ) = गरुड, एक पक्षी। खार, छार (क्षार)= खार ।
पाढ
वेय
ཡྻོ སྒྱུ བྷྱཱ ཡྻོ ཕ ཙྪཱ
गरुल
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________________
( १८७ )
खंघ पोक्खर खय कोस पाण
( स्कन्ध )=स्कन्ध, भाग, मोटी डाली । (पुष्कर )= तालाव । (क्षय ) =क्षय । ( कोश ) = पानी निकालने का कोस, खजाना। (प्राण )= प्राण, जीव । (गन्ध ) गंध ।
(काम)= काम, इच्छा, तृष्णा । __ ( आत्मन् )= आत्मा, स्वयं ।
गंध
काम अप्पाण
जल
गो
)
गुत्त गहण
नपंसकलिंग शब्द
(जल)= जल, पानी । रयय ( रजत ) = रजत, चाँदी। गीत
(गीत) = गीत, गाया हुआ। सीस ( शीर्ष ) = मस्तक, सिर ।
(गोत्र )= गोत्र, वंश ।।
(ग्रहण )= ग्रहण करने का साधन । पञ्जर (पञ्जर )= पिंजड़ा। सील ( शील) = शील, सदाचार ।
. ( लावण्य )= लावण्य, कान्ति । रसायल ( रसातल )= रसातल, पाताल । कुम्पल, कुंपल ( कुड्मल ) = कुंपल, कोंपल, अंकुर । रुप्प ( रुक्म ) = चाँदी। जुम्म, जुग्ग (युग्म) = युग्म, जोड़ा । काम (कर्म) = कर्म, काम, अच्छी-बुरी प्रवृत्ति।
लावण्ण लायण्ण
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________________
दुक्ख
सयढ
( १८८ ) मित्त ( मित्र ) = मित्र।
(दुःख)= दुःख । सुक्ख (सुख ) = सुख । चारित्त ___(चारित्र ) = सच्चारित्र, सद्वर्तन । घाण (घ्राण) = नाक, सूंघने का साधन ।
(शकट )= शकट, गाड़ी, छकड़ा। पद, पय (पद) = पग, चरण, पाद । जुग (युग) = युग, जुमा । छोर, खीर (तीर ) = क्षीर, खीर, दूध । लक्खण, लच्छण( लक्षण ) = लक्षण, चिह्न । छीअ (क्षुत् ) = छींक । खेत्त, छेत्त (क्षेत्र ) = क्षेत्र, खेत, मैदान । सोअ, सोत्त (श्रोत्र ) = श्रोत्र, कान, सुनने का साधन । वीरिय ( वीर्य )= वीर्य, बल, शक्ति ।
संजय
विशेषण ( मूढ ) = मूढ, मोहवाला, अज्ञानी । (पुष्ट)= पुष्ट । ( संयत )= संयम वाला। (पृष्ट )= पूछा हुआ ! ( पण्डित )= पण्डित, शिक्षित,
पतित, तोता, शुक पक्षी । (दुर्लभ ) = दुर्लभ, दुल्लभ, कठिन ।
पण्डित) पंडिअ दुल्लह
|
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________________
नो
च
}
बहिआ - बहिया बज्झओ
अ
य
(च) = और |
( १८६ )
अव्यय
( नो, नहि ) = नहीं । । जहासुतं ( यथासूत्रम् ) = सूत्र के अनुसार ।
( बहिर् ) = बाहर |
( बाह्यतः) = बाहर की ओर
धातु
गवेषणा करना, शोधना ।
ण
पुण
उण
तत्तो (ततः) = उससे । कि ( किम् ) = किसलिए |
गवेस् ( गवेष )
वस् ( बस ) = निवास करना, रहना ।
वय् ( वद ) = बोलना ।
पिब् ( पिब ) = पीना । आ + पिब् आ + पिय् =
=
थोड़ा पीना ।
=
मर्यादा से पीना ।
आ + विय् = किसी प्राणो की हानि न हो इस रीति से चूसना ।
प्र० हाहा
द्वि० हाहां
जय् ( जय ) = जीतना ।
हव्, भव् ( भव ) = होना ।
पढ् ( पठ ) = पढ़ना ।
सोअ, सोच् ( सोच ) = सोचना, विचारना, शोक करना । भण् ( भण) = पढ़ना ।
•
आकारान्त पुंलिंग हाहा शब्द के रूपः
एकव ०
बहुव ०
(पुनः) = पुनः, दुबारा फिर से ।
हाहा
हाहा
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________________
( १९० ) तृ• हाहाण
हाहाहि, हाहाहिं, हाहाहिं च०ष० हाहस्स, हाहे हाहाण, हाहाणं पं० हाहत्तो, हाहासो, हाहतो, हाहासो,
हाहाउ, हाहाहितो हाहाउ, हाहाहितो, हाहासुंतो स. हाहम्मि, हाहंसि हाहासु, हाहासुं संबो० हाहा
हाहा इसी प्रकार गोवा (गोपा), सोमवा (सोमपा),किलालवा (किलालपा) इत्यादि शब्दों के रूप होंगे।
'षड्भाषा चंद्रिका' नामक व्याकरण के नियमानुसार गोवा वगैरह शब्दः । लस्व हो जाते हैं अर्थात् गोव, सोमव, किलालव ऐसे हो जाते हैं तब इन सबके रूप अकारांत 'वीर' शब्द की तरह चलेंगे।
वाक्य (हिन्दी में ) घड़े में तालाब का पानी है। नट ढोल के साथ मार्ग में नाचते हैं । बालक कान्ति से शोभायमान होते हैं। जिन शील की स्तुति करते हैं। कुल्हाड़ी से चन्दन को काटता हूँ। गरुड़ का जोड़ा तालाब में है। बालक छींकते है। क्षेत्र में क्षार तत्व है इसलिए अंकूर जल जाते है। शब्दों का कोश बताता हूँ। कलह से वैर होता है। श्रमण मठ में रहते हैं। तुम खोर पीते हो। बैल जल का मोट खींचते हैं।
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________________
( १९१ ) राजा के भण्डार में चांदी है। पण्डित पुरुष मोक्ष चाहते हैं। तृष्णा से कलह होता है और कलह से द्वेष होता है ।
संयमी श्रमण न तो सुखों से हर्षित होता है और न दुःखों से घबराता ही है।
नट गीत गाते हैं और नाचते हैं। सिंह और बाघ तालाब का पानी पीते हैं। बाघ और सिंह पिंजरे में दौड़ते हैं। बैल के कन्धे पर जुआ शोभा पाता है । पण्डित शील को ढूँढ़ते हैं, लेकिन गोत्र नहीं पूछते । शील का मार्ग दुर्लभ ( कठिन ) है। बालक उपाध्याय से पढ़ता हैं। वीर पुरुष दुःख से शोक नहीं करते।
प्रयोग (प्राकृत में) घाणं गन्धस्स गहणं वयंति । लोहा मोहो जायइ। दुक्खेसुंतो वेया वि न रक्खंति । सोत्तं सदस्स गणं वयंति । दुक्खेहितो बीहंति पंडिता। कायं फासस्स गहणं वयंति । सुक्खेसु मित्तं सुमिरति। समणे महावीरे जयति । मूढो पुणो पुणो बज्झं देक्खइ । पण्डिता खीरं पिबित्था। मूढा कामेसु मुझंति ।
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( १९२ )
चन्दणस्स रसमापिबति ।
अप्पाणी अप्पाणस्स मित्तं किं बहिया मित्तमिच्छसि ।
पुरिसे वीरियं पुण दुल्लहं ।
अप्पा जिणाम संजया । पुट्ठो पंडिओ जहासुतं वदति । पण्डिता पुट्ठा न होंति । अस्स सद्दं सुणह |
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नवाँ पाठ अकारान्त सर्वादि शब्द ( पुंलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग)
सव्व ( सर्व ) ज ( यद् ) त ( तद् )
क (किम् ) अकारान्त सर्वनामों के रूप पुंलिंग में 'वीर' जैसे और नपुंसकलिङ्ग में 'कमल' जैसे होते हैं । उनमें जो विशेषताएँ हैं वे निम्नलिखित हैं:
१. प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में केवल 'सव्वे' ( सर्वे ), 'जे' (ये ), 'ते' ( ते ), 'के' ( के ) होता है अर्थात् अकारान्त सर्वनामों के पुंलिङ्ग में प्रथमा के बहुवचन में 'ए' प्रत्यय होता है ( हे० प्रा० व्या० ८।३।५८ )।
६. षष्ठी के बहुवचन में 'सर्वसि' ( सर्वेषाम् ), 'जेसिं' ( येषाम् ), 'तेसिं' :( तेषाम् ), 'केसिं' (केषाम् ) भी होता है अर्थात् षष्टो के बहुवचन में अकारान्त सर्वनामों के पुंलिङ्ग में 'ण' के अतिरिक्त ‘एसिं' प्रत्यय भी होता है ( हे० प्रा० व्या० ८।३।६२ )। जैसे, सव्व + एसि = सव्वेसि, सव्स + ण = सव्वाण ।
७. सप्तमी के एकवचन में सवस्ति, सम्वहिं ( सर्वस्मिन् ), सम्वत्थ ( सर्वत्र ); जस्सि, जहिं ( यस्मिन् ); जत्थ ( यत्र ); तस्सि, तहिं ( तस्मिन् ); तत्थ ( तत्र ); कस्सि, कहिं ( कस्मिन् ); कत्थ ( कुत्र ); इस प्रकार तीन-तीन रूप बनते हैं। सप्तमी के एकवचन में अकारान्त
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( १९४ )
सर्वनामों के पुंलिङ्ग में 'रिस', 'हि' और 'त्थ' प्रत्ययों ( हे० प्रा० व्या० ८२३१५६ ) के अतिरिक्त पूर्वोक्त 'अंसि' और 'म्मि' प्रत्यय' भी लगते हैं ।
एकव ०
प्र० सव्वे
सर्वः )
द्वि० सव्वं ( सर्वम् )
१. सब्ब शब्द के पालि रूप :
एकव ०
सब्बो
до
द्वि०
तृ०
च०
पं०
ष०
स०
។
सव्व ( सर्व, पुंलिङ्ग)
सब्ब
सब्बेन
Яо
द्वि०
एकव०
सव्वु, सव्त्रो, स, सब्वा
सव्वु, सव्वं, सव्वा
सब्वेण, सभ्येणं सर्व्वे
तृ०
च० ष० सव्वस्सु, सव्वासु, सव्वसु,
सब्बस्स
सब्बस्मा, सब्बम्हा
सब्बस्स
सब्बस्मि, सब्बहि
मागधी में 'शब्द' होगा ।
अपभ्रंश में 'सव्व' तथा 'साह' ( हे० प्रा० व्या० ८ | ४ | ३६६ ) शब्द
प्रचलित हैं ।
,
सव्वहो, सव्वाहो, सव्व, सव्वा
बहुव०
सव्वे (सर्वे )
सव्वे, सव्वा ( सर्वान् )
बहुव ०
सब्बे
सब्बे
सम्बेभि सब्बेहि सब्बेसं, सब्बे सानं
सब्बेभि, सब्बेहि
सब्बेसं,
सब्बेसानं
सब्बेसु
बहुव ०
सब्वे, सव्वं, सव्वा
सव्वं, सव्वा
सहि, सव्वाहि, सम्वहि सव्वहं, सव्वाहं, सव्व,
सव्वा
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( १९५ ) तृ० सव्वेण, सम्वेणं ( सर्वेण ) सव्वेहि, सव्वेहि, सव्वेहि.
( सर्वैः) च० सव्वस्स ( सर्वस्मै )
सम्वेसि, सव्वाअ, सव्वाणं
( सर्वेभ्यः,) पं० सव्वओ
सव्वाओ, सव्वाउ (सर्वतः) सव्वाउ
सव्वाहि, सव्वेहि सव्वम्हा ( सर्वस्मात् ) सव्वाहितो, सब्वेहितो
(सर्वेभ्यः ) ष० सव्वस्स ( सर्वस्य)
सव्वेसि, सव्वाण, सव्वाणं
( सर्वेषाम् ) स० सव्वंसि, सवस्सि, सव्वम्मि सव्वेसु, सव्वेसुं ( सर्वेषु )
(सर्वस्मिन् ) सबहिं, सव्वत्थ (सर्वत्र)
___ सव्व ( नपुंसकलिङ्ग) प्र० सव्वं ( सर्वम् )
सव्वाणि, सव्वाई, सव्वाइँ
(सर्वाणि)
शेष रूप पुंलिङ्ग 'सच' शब्द की भाँति ही चलते हैं।
ज' ( यद् , पुंल्लिङ्ग) प्र० जो, जे ( यः ) जे ( ये ) स० सव्वहां, सव्वाहां सव्वहुं, सव्वाहुं सम्वहिं, सव्वाहिं
सवहिं, सव्वाहिं सब विभक्ति और वचनों में 'सव', 'सव्वा' रूप तो समझना हो;
'साह' शब्द के भी रूप 'सव्व' की तरह समझना चाहिये। १. पालि भाषा में 'ज' नहीं होता परन्तु 'य' होता है तथा मागधी भाषा
में भी 'य' समझना दे० पृ० ३४ मागधी ज-थ ।
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________________
द्वि०
तृ०
च०
9.
ष०
स०
प्र०
द्वि०
तृ०
( १६६ )
जं ( यम् )
जेण, जेणं (ग्रेन )
जस्स, जास ( यस्मै यस्मै ) जेसि जाण, जाणं
जम्हा ( यस्मात् )
जाओ, जाउ यतः >
जाओ, जाउ ( यतः )
जाहि, जेहि, जाहिन्तो, जेहितो, जातो, जेसुंतो ( येभ्यः ) के समान होंगे । जेसु, जेसुं ( येषु )
षष्ठी के रूप चतुर्थी विभक्ति
जंसि, जस्सि ( यस्मिन् )
जहि, जम्मि, जत्थ ( यत्र ) जाहे, जाला, जईआ★ ( यदा)
जे, जा ( यान् ) जेहि, जेहि, जेहिं (यै: )
ज (नपुंसकलिङ्ग)
जं (यत्)
जाणि, जाई, जाइँ ( यानि )
(
>
"
""
(,, ) शेष सभी रूप पुंल्लिंग 'ज' के समान चलते हैं ।
त, ण (तद्,
*
हे० प्रा० व्या० ८।३।६५ ।
१. प्राकृत भाषा में 'त' और 'ण' तथा दोनों 'वह' ( ते ) के
( ये येभ्यः )
""
स, सो, से (सः)
तं णं (तम् )
तेण, तेणं, तिणा ( तेन ) तेहि, तेहि, तेहिँ;
पुंल्लिङ्ग )
तेणे (ते)
ते, ता, णे णा ( तान् )
"
""
हि, हि, हिँ (तैः )
पालि भाषा में 'त' और 'न' अर्थ में प्रयुक्त होते हैं ( हे० प्रा० व्या०
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________________
च०
ष०
स०
( १९७ )
तस्स, तास ( तस्मै, तस्मै ) सिं, तास, तेसि, (तेभ्यः, ते)
ताण, ताणं
ताओ, ताउ ( ततः )
तो, ताओ, ताउ ( ततः ) तम्हा ( तस्मात् ) ताहि, तेहि, ताहितो, तेहितो ( तेभ्यः )
तासुतो, तेसुंतो
जाओ, जाउ
до
चतुर्थी विभक्ति के समान होते हैं ।
तंसि तस्सि तहि
,
तमि ( तस्मिन् ) तत्थ ( तत्र )
'ताहे, ताला, तइआ★ ( तदा )
सि, सि, हि
"
मि, णत्थ
णाओ, गाउ
नाहि, हि
नाहितो, हितो णासुंतो, सुंतो
त (नपुंसकलिंग )
तं ( तत् )
ताण, ताई, ताइँ ( तानि ) ८|३|७० तथा पा० प्र० पृ० १४१ । इसीलिए 'न' के साथ 'ण' के रूप भी बता दिए हैं । 'त' और 'न' तथा 'ण' लिखने में सर्वथा समान हैं इसलिये यह 'ण' तथा 'न' लिपिदोष के कारण कदाचित् प्रचलित हुए हों । ' त्यां' के स्थान में 'न्यां' का प्रयोग गुजराती गोहिलवाडी में प्रचलित ही है ।
१. ये तीनों रूप 'तब ' ( तदा ) अर्थ में ही प्रयुक्त होते हैं ।
* हे० प्रा० व्या० ८|३|६५|
तेसु तेसुं ( तेषु )
सु, सुं
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________________
( १९८ ) णं
णाणि, णाई, णाई . ,, (,) शेष रूप पुंल्लिग 'तत्' शब्द के समान बनते हैं ।
क (किम्, पुंलिङ्ग) को (कः )
के ( के) कं ( कम् )
के, का ( कान् ) केण, केणं, किणा, किण्णा केहि, केहिं, केहि, (केन )
(कै.) कस्स, कास (कस्मै, कस्य) कास, केसि, ( केभ्यः, के ) कम्हा ( कस्मात् ) काओ, काउ किणो, कीस
काहि, केहि काओ, काउ
काहिंतो, केहितो
कासुंतो, केसुंतो चतुर्थी विभक्ति के समान होते हैं । कसि, कस्सि, कहि केसु, केसुं ( केषु) कम्मि ( कस्मिन् ) कत्थ ( कुत्र) 'काहे, काला, कइआ* (कदा)
क (नपुंसकलिङ्ग) प्र-द्वि० किं ( किम् ) काणि, काई, काइँ ( कानि) ('क' के पालिरूप भी इन रूपों के समान हैं, दे० पा०प्र० पृ०१४६)
सर्वनाम शब्द अण्ण, अन्न( अन्य ) = अन्य, दूसरा । १. ये तीनों रूप 'तब' अर्थ में ही प्रयुक्त होते है । * हे० प्रा०व्या० ८।३।६५ ।
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________________
अण्णयर, अन्नयर
अंतर
अवर
अहर
इम
इयर
उत्तर
एण, इक्क, एक्क
एय, एअ
तुम्ह
अम्ह
क
कइम,
कयर
अमु
ज
कतम
( १६६ )
( अन्यतर )
( अंतर ) = अन्दर का,
( अपर ) = अपर, अन्य दूसरा ।
1
( अधर ) = नीचा ।
( इदम् ) = यह ।
दूसरा कोई ।
( इतर ) = कोई अन्य
( उत्तर )
उत्तर दिशा, उत्तर का ।
( एक ) = एक 1
( एतद् ) = यह ।
( युष्मद् ) = तू | ( अस्मद् ) = मैं ।
( किम् ) = कौन ।
( कतम ) = कितना ।
( कतर ) = कौन - सा ।
( अदस् ) = यह ।
( यद् ) = जो ।
आन्तरिक ।
त, ण ( तद् ) = वह ।
दाहिण, दक्खिण (दक्षिण) = दक्षिण, दक्षिण का । 'पुरिम ( पुरा + इम) पहले का, पूर्व । पुव्व ( पूर्व ) = पूर्व, पूर्व का ।
वीस ( विश्व ) = विश्व, सर्व ( सब ) ।
स, सुव (स्व) = स्व, अपना, आत्मा का ।
सम ( सम ) = सब ।
सध्व ( सर्व ) = सर्व, सब ।
१. दे० पृ० ८३ शब्दों में विविध परिवर्तन |
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________________
सिम ( सिम ) = सब ।
सामान्य शब्द
भूअ (भूत) = भूत -- प्राण - जीव, पृथ्वी आदि । सिस्स, सीस ( शिष्य ) = चेला, छात्र, शागिर्द | सिबल ( कृषिबल ) = किसान |
अंक ( अङ्क ) = अंक, गोद | बंधव ( बान्धव ) = भाई-बन्धु | पासा ( प्रासाद ) जीव ( जीव ) = जीव ।
-
( २०० )
ताव (ताप)
बंभण
बम्हण - ( ब्राह्मण ) = ब्राह्यण |
=
प्रसाद, महल |
माहण
कोड ( क्रोड ) = गोद |
उष्णता, गर्मी, धूप
पास ( पास ) = पाश- फांसी, फंदा I दियर (दिनकर ) = सूर्य, लड़का । संसार ( संसार ) = संसार, जगत् ।
नपुंसकलिङ्ग शब्द
अंगण ( अङ्गण ) = आंगन । सीअ ( शीत ) = सर्दी |
खेम ( क्षेम ) = क्षेम, कुशल 1
महब्भय ( महाभय ) = बड़ा भय, महद् भय ।
वत्थ ( वस्त्र ) = वस्त्र |
कट्ठ ( काष्ठ ) = काष्ठ, काठ, लकड़ी ।
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________________
( २०१ ) कम्मबीअ ( कर्मबीज ) कर्मबीज, सदसत्संस्कार का बोज । भोयण (भोजन) = भोजन, आहार । धण (धन) = धन । ताण ( त्राण ) = रक्षण, शरण, आश्रय । घर ( गृह ) = गृह । आउय ( आयुष्य ) = आयुष्य, जिन्दगी, उमर ।
विशेषण पडुप्पन्न ( प्रत्युत्पन्न ) = वर्तमान, ताजा, ठीक समय पर होने वाला। पमत्त ( प्रमत्त )=प्रमत्त, प्रमादी। सम ( सम ) = समान वृत्तिवाला, सदृश । वोयराग, वीयराय ( वीतराग)= जिसमें राग नहीं वह व्यक्ति । सुजह ( सु + हान ) = अनायासेन छोड़ने या त्यागने योग्य । जुन्न ( जीर्ण ) = जीर्ण, पुराना, गला हुआ, फटा हुआ । पिय ( प्रिय )= प्रिय, इष्ट, प्यारा । आसत्त (आसक्त) = आसक्त, मोहो । हम (हत )= वध किया हुआ, नष्ट हुआ, मारा हुआ। आगअ, आगत, आअ ( आगत )= आया हुआ। पिआउय ( प्रियायुष्क )= आयुष्य को प्रिय समझने वाला। उत्तम, उत्तिम ( उत्तम)= उत्तम, श्रेष्ठ । बुद्ध (बुद्ध) = ज्ञानी, बोध पाया हुआ । बद्ध (बद्ध) = बंधा हुआ, बद्ध । सीम (शीत) = शीतल, सर्दी, ठंढक । अधीर ( अधीर )= अधीर, बिना धैर्य का । हंतव्व ( हन्तव्य )= मारने योग्य ।
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( २०२ )
अप्प ( अल्प ) = अल्प, थोड़ा। अणाइअ (अनादिक )= जिसकी आदि नहीं ।
अव्यय कत्तो, कुत्तो, कुओ, कओ (कुतः) = क्यों, कहाँ से, किस ओर से । जहा, जह, ( यथा) = जैसे, यथा, जिस प्रकार । एव, एवं ( एवम् ) = एवं, इस प्रकार । सव्वत्तो, सव्वतो, सव्वओ ( सर्वतः) = सब प्रकार से, चारों ओर से,
__ सर्वतः। तहा, तह ( तथा ) = तथा, वैसे, उस प्रकार से । अन्तो ( अन्तर )= अन्दर । खलु (खलु ) = निश्चय ।
धातुएँ जाण ( ज्ञा)-जानना, मालूम करना, ज्ञात करना । प+ मत्थ् (प्र+ मत्थ् )-मन्यन करना, नाश करना । कील, कोड् ( क्रोड्)-खेलना, क्रीड़ा करना। रम् ( रम् ) = खेलना, रमना, रमाना । गम्, नम् ( नम् )-नमस्कार करना, झुकना। दह, डह, ( दह, )-दग्ध होना, जलना, जलाना। सह ( सह )-सहन करना। पास ( पश्य )-देखना । परि + अट्ट (परि+वर्त)-घूमना, पर्यटन करन' । आ+ इक्ख (पा + चक्ष )-कहना, बोलना ।
वाक्य ( हिन्दी में) सभी को सदा सुख प्रिय है।
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( २०३ )
जो शरीर में आसक्त हैं वे मूढ़ हैं ।
संसार में राग और द्वेष अनादिकाल से हैं ।
मेघ सर्वत्र चारों ओर से बरसते हैं ।
हम दोनों जिसका कपड़ा सीते हैं वह राजा है ।
जैसे अग्नि लकड़ी को जलाती हैं वैसे ही महापुरुष अपने दोषों को
जलाते हैं ।
प्रमादी पुरुष भय से काँपता है ।
उत्तर-पूर्व में शीत है और दक्षिण में ताप है ।
एक भी प्राणी मारने योग्य नहीं ।
सभी बालक गाते हैं ।
सभी किसान सर्दी और गर्मी सहन करते हैं ।
जो किसी प्राणी को मारता नहीं उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।
कौन कहाँ से आया है ?
मनुष्य शरीर की कुशलता के लिए तप करते हैं ।
पण्डित लोग हर्ष से दुःख सहन करते हैं ।
सभी शिष्य आचार्य को मस्तक झुका कर प्रणाम करते हैं ।
मैं सभी के लिए चन्दन घिसता हूँ ।
जो आकुल-व्याकुल हो जाता है वह शूर नहीं ।
बद्ध और आसक्त पुरुष कर्मबीज़ से संसार में चक्र काटते हैं ।
हम दूसरों का कल्याण चाहते हैं ।
वह अपने दोषों को देखता है ।
हाथी से घायल किसान भय से काँपता है |
तुम्हारे आँगन में सभी बालक खेलते हैं ।
जो मूढ़ शिष्य आचार्य के सामने झुकता नहीं वह दुःख सहन
करता है |
वीतराग पुरुष सबमें उत्तम ब्राह्मण है ।
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( २०४ ) वीतराग सभी जीवों को समान दृष्टि से देखता है।
वाक्य (प्राकृत में) जहा जुन्नाई कढाई हबवाहो पमत्थति तहा जुन्ने दोसे समणो दहइ । जस्स मोहो हओ तस्स न होइ दुक्खं ।। शव्वेसि पाणाणं भूआणं दुक्खं महब्भयं ति बेमि । सव्वे पि पाणा न हंतव्वा एवं जे पडुप्पन्ना जिणा ने सव्वे वि आइक्खंति । जे एर्ग जाणइ से सव्वं जाणइ । पमत्तस्स सव्वतो भयं विज्जइ। इअ महावीरो भासते जस्स मोहो न होइ तस्स दुक्खं हयं । एगेसि भाणवाणं आउयं अप्पं खलु । अधीरेहिं पुरिसेहि इमे कामा न सुजहा । पुरिमाओ, दाहिणाओ उत्तराओ वा कत्तो आगओ त्ति न जाणइ जीवो। जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ । समो य जो सव्वेसु भूएसु स वीअरागो । जेहिं बद्धो जीवो संसारे परियट्टइ ते रागा य दोसा य कम्मबोअं । जेण मोहो हओ न सो संसारे परियट्टइ । सब्वे पाणा पियाउअ सुहमिच्छन्ति ।
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दसवाँ पाठ तुम्ह, अम्ह, इम और एअ के रूप :
तुम्ह ( युष्मद् ) = तुम ( तीनों लिङ्ग) एकवचन
बहुवचन प्र० तुं, 'तुम, तं ( त्वम् ) तुम्हे, तुन्भे ( यूयम् )
,, ,, ,, तुमे, तुए
( त्वाम् ), वो (वः) तुम्हे, तुब्भे ( युष्मान् ) तृ० ते, तइ ( त्वया ) तुम्हेहि, तुम्हेहिं, तुम्हेहि,
तुब्भेहि, तुब्भेहिं, तुब्भेहिँ
(युष्माभिः) तुह, तुज्झ, तुव, तुम, तुमाण, तुमाणं ( युष्माकम् ) ते, तुव, तुहं
तुम्हाण, तुम्हाणं ( तव, ते तुभ्यम् ) तुज्झाण, तुज्झाणं
तुम्हाहँ, वो ( वः) पं० तुवत्तो, तुवाओ, तुवाउ तुम्हत्तो, तुम्हाओ, तुम्हाउ, ( त्वत् )
तुम्हाहितो, तुम्हेहितो, तुमत्तो, तुमाओ, तुमाउ तुम्हासुंतो, तुम्हेसुंतो तुज्झत्तो तुज्झाओ तुज्झाउ (युष्मत् ) तुहत्तो, तुहाओ, तुहाउ,
तुम्हत्तो, तुम्हाओ, तुम्हाउ ष०
चतुर्थी के समान होते है। १. देखिए हे. पा० व्या० ८।३।६० से १०४ तक।
च.
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________________
स० तुम्मि, तुवंसि, तुस्सि, तुवेसु, तुवेसुं,
तुमम्मि, तुमंसि, तुमस्सि, तुवसु, तुवसुं, तुमे, तुम्हम्मि, तुम्हंसि, तुमेसु, तुमेसुं, तुम्हस्सि,
तुमसु, तुमसुं, तुम्मि, तइ, तए (त्वयि) तुहसु, तुहसुं,
तुम्हेसु, तुम्हेसुं, तुम्हसु, तुम्हसु,
तुसु, तुसुं(युष्मासु) ('तुम्ह' के पालि रूपों के लिए दे० पा०प्र० पृ० १५१ )
अम्ह ( अस्मद् )= मैं ( तीनों लिङ्ग) एकवचन
बहुवचन 'अहं, अहयं (अहम्) मो, अम्ह, अम्हे, अम्हो (वयम्) ( मागधी-हगे ) ( मागधी-हगे) म्मि, अम्मि, अम्ह, मं, , , , ( माम् )
(अस्मान्), णे ( नः) मइ, मए ( मया) अम्हेहि, अम्हाहि,
अम्ह, अम्हे, णे ( अस्माभिः) मम, मज्झ, मझं, मज्झ, अम्ह, अम्हं अम्हे, ( मह्यम्, मम, मे) अम्हो, अम्हाण, अम्हाणं, ममत्तो, ममाओ, ममाउ णो ( नः ) ( अस्माकम् ) अम्ह, अम्हं, महं ममत्तो, ममाओ, ममाउ ममाहि, ममा ( मत् ) अम्हत्तो, अम्हाओ, अम्हाउ,
( अस्मत् ) १. देखिए, हे० प्रा० व्या० ८।३।६९।७२।७३।७४।७५७७१७८1८१ । २. हे० प्रा० व्या० ८।४।३०१ ।
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________________
*
( २०७ )
चतुर्थी के समान होते हैं ।
मे, ममाइ, मि, मए,
( मयि )
( ' अम्ह' के पालि रूपों के लिए दे० पा० प्र० पृ० १५३ )
इम (इदम्)
ष०
स०
То
द्वि०
तृ०
च०
पं०
ष०
स०
एकव०
अयं, इमो, इमे, (अयम्)
इमं इणं, णं ( इयम् )
1
इमे
इमेणं, इमिणा
णं ( अनेन )
ण
,
=
"
इत्तो, इमाओ, इमाउ इमाहि, इमाहितो, इमा ( अस्मात् )
मइ, अभ्हेसु, ग्रम्हे,
अम्हसु, अम्हसुं ( अस्मासु )
यह (पुंल्लिङ्ग )
बहु ०
इमे (इमे )
इमे इमा, णे, णा ( इमान् )
.
इमेहि, इमेह, इमेि
इस्स, से, अस्स (अस्मै ) सिं, इमेसि, इमाण, इमाणं
( एभ्यः )
एहि, एहि, एहिँ ( एभि: ) णेहि, रोहि, हिँ
चतुर्थी के समान होंगे । इस, इमस्सि, इमम्मि इह, अस्सि ( अस्मिन् ) ('इम्' के पालि रूपों के लिये दे० पा० प्र० पृ० १४४ - १४५ )
'अम्ह' के शेष रूप 'सर्व' की भाँति होंगे ।
इमत्तो, इमाओ, इमाउ, माहि इमेहि ( एभ्यः ) इमाहिती इमेहितो, इमासुंतो इमेसुंतो
इमेसु, इमेसुं, एसु, एसुं ( एषु )
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________________
( २०८ )
प्र०
द्वि०
'इम' (नपुंसकलिंग) एकवचन
बहुवचन इम', इणमो, इदं, (इदम्) इमाणि, इमाई,इमाई (इमानि) शेष रूप पुल्लिङ्ग की भांति । एअ ( एतत् ) = यह (पुल्लिङ्ग) एस, एसो, एसे ( एषः) एए ( एते ) इणं, इणमो एअं ( एतम् ) एए, एआ ( एतान् ) एएण, एएणं ( एतेन ) एएहि, एएहिं, एएहिँ एइणा
( एतैः) से, एअस्स (एतस्मै, एतस्य) सि, एएसि ( एतेभ्यः एते)
एआण, एआणं एत्तो, एत्ताहे,
ए अत्तो, एआओ, एआउ, एअत्तो, एआओ, एआउ एआहि, एएहिं एआहि, एआहितो एआहिंतो, एएहितो, (एतेभ्यः) ( एतस्मात् ) . एआसुतो, एएसुंतो चतुर्थी के समान होते हैं। एत्थ, अयम्मि, ईअम्मि, एएसु, एएसुं एअंसि, एअस्सि, ( एतस्मिन् ) (एतेषु ) एअम्मि
१. देखिए, हे० प्रा० व्या० ८।३७६ । २. देखिए, हे० प्रा० व्या० ८।३।८११८२।८३।८४।८५८६ ।
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( २०९ )
एअ ( नपुंसकलिङ्ग) प्र. एस, एअं, इणं, इणमो (एतत्) एआणि,एआइ, एआई* (एतानि)
द्वि० ,, ,, ,, ,, __ शेष रूप पुंल्लिङ्ग को भाँति होंगे।
सामान्य शब्द दुम (द्रुम) = द्रुम, वृक्ष । भमर (भ्रमर ) = भ्रमर, भंवरा । रस ( रस )= रस । जणय ( जनक ) = जनक, पिता। साव ( शाप) = शाप, श्राप, दुराशीष । भारहर ( भारहर ) = भार वहन करने वाला, मजदूर । लाभ, लाह ( लाभ ) = लाभ । अलाभ, अलाह ( अलाभ ) = अलाभ, लाभ न होना, हानि, घाटा, नुकसान । कयविक्कय ( क्रय-विक्रय) = क्रयविक्रय, खरीदना और बेचना । जम्म (जन्मन् )= जन्म, उत्पत्ति । छत्त ( छात्र ) = छात्र, विद्यार्थी । वद्धमाण ( वर्धमान ) = वर्धमान-महावीर का नाम । पमाद (प्रमाद )प्रमाद, आलस्य, असावधानता । संग ( संग ) = संग, संगति, सोहबत । असमण ( अश्रमण) = अश्रमण, जो श्रमण न हो। तअ ( तेजस् ) = तेज ।
* हे० प्रा० व्या० ८।३।८५ ।
|
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( २१० ) तस (स ) = त्रास पाने पर गति करने वाला प्राणी । थावर ( स्थावर ) = स्थावर, स्थिर रहनेवाला प्राणी, जो गति न कर सके ऐसा प्राणी, पृथ्वी आदि। . एरावण ( एरावण ) ऐरावत, एक हाथी विशेष का नाम, बड़ा हाथी। लोग, लोअ ( लोक ) = लोग-लोक, जगत् । मुहुत्त ( मुहूर्त ) = मुहूर्त, समय, थोड़े समय का नाम । नह ( नभस् )= नभ, आकाश, गगन । महादोस ( महादोष) = महादोष, बड़ा दोष । नास ( नाश) = नाश, अन्त । नास ( न्यास )= न्यास, रखना, स्थापन करना। सूअर ( शूकर ) = सूअर । काल (काल) = काल, समय । खत्तिअ (क्षत्रिय )= क्षत्रिय ( जाति विशेष का नाम)। नमिराय ( नमिराज ) = मिथिला का एक राजर्षि । पन्वय (पर्वत ) = पर्वत, पहाड़ । तव ( तपस् ) = तप, तपश्चर्या । नह ( नख ) = नख, नाखून, नह । अय ( अयस् ) = लोहा । जायतेय (जाततेजस् )= अग्नि । पाय (पाद) = पाद-चौथा ( चतुर्थ ) भाग । उट्ट ( उष्ट्र )= ऊँट ।
नपुंसक शब्द पाव ( पाप ) = पाप । पावग ( पापक ) = पाप । फंदण ( स्पन्दन ) = फरकना, थोड़ा-थोड़ा हिलना।
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( २११ ) जुज्झ, जुद्ध ( युद्ध ) = युद्ध । कारण ( कारण ) = कारण । पय ( पद )= पद, चरण । सत्थ ( शस्त्र )= शस्त्र, हथियार । महाभय, महब्भय ( महाभय ) = बड़ा भय । रय ( रजस् ) = रज, पाप, धूल । अरविंद ( अरविन्द ) = अरविन्द, कमल विशेष । दाण ( दान ) = दान । छत्त ( छत्र )= छत्र, छत्री, छाता । बम्हचेर, बंभचेर ( ब्रह्मचर्य ) = ब्रह्मचर्य, सदाचारवृत्ति, बह्म में परायण रहना। सच्च ( सत्य ) = सत्य । अभयप्पयाण ( अभयप्रदान ) = अभयदान, प्राणियों को निर्भय करना। असाय, असात ( असात)= असाता होना, सुख न होना, दुःख होना। रज्ज ( राज्य ) = राज्य ।। सरण ( शरण )= शरण, आश्रय । धीरत्त (धीरत्व )= धीरत्व, धैर्य, धीरता । पुप्फ (पुष्प) = पुष्प, फूल । अत्थ ( अस्त्र )- अस्त्र, फेंककर मारने का हथियार | सत्थ ( शास्त्र) = शास्त्र । चेइअ ( चैत्य ) = चिता ऊपर बनाया हुआ स्मारक चिह्न-छत्री, चरणपादुका, वृक्ष, कुंड, मूर्ति आदि । साय, सात ( सात )= साता, सुख होना । गुरुकुल ( गुरुकुल ) = सदाचारी गुरुओं का निवासस्थान । सुत्त ( सूत्र ) = सूत्र, छोटा वाक्य ।
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( २१२ )
अव्यय
अलं' ( अलम् ) = बस, पर्याप्त । तओ, तत्तो ( ततः )= उससे, उसके पश्चात् । अरिं, उरि ( उपरि ) = ऊपर । मुसं, मुसा, मूसा, मोसा ( मृषा )=मिथ्या, झूठ, असत्य । हु, खु, खो ( खलु ) = निश्चय । एगया ( एकदा ) = एकदा, एक समय, एक बार । धुवं (ध्र वम् ) = निश्चय । अज्झप्पं, अज्झत्थं ( अध्यात्म ) = आत्मा सम्बन्धि, आंतरिक । सततं, सययं ( सततम् ) = सतत, निरन्तर । इई, इअ, त्ति, ति, इति ( इति ) = इति-इस प्रकार, समाप्ति सूचक अव्यय ।
विशेषण अवज्ज ( अवद्य ) = अवद्य, न कहने योग्य काम-पाप, दोष । अणवज्ज, अनवज्ज ( अनवद्य )= पापरहित निर्दोष । दुरणुचर ( दुरनुचर )= जिसका आचरण कठिन लगे। सुत्त ( सुप्त) = सुप्त, सोया हुआ । सुत्त ( सूक्त )= सुभाषित । वद्धमाण ( वर्धमान) = बढ़ता हुआ।
गढिय ( गृद्ध ) = अतिशय लालची। १. 'अलं' के योग में तृतीया विभक्ति होतो है-'अलं जुद्धेण', 'अलं
तवेणं'। २. 'इति' अव्यय के उपयोग के लिये देखिए पृ० ६६ नि० १३, १४ ।
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( २१३ ) अहम ( अधम ) = अधम, नीच, हलका । जिइंदिय ( जितेन्द्रिय ) = इन्द्रियों को जीतनेवाला। निरद्वय ( निरर्थक )= निरर्थक, व्यर्थ । धीर ( धीर ) = धीर, धैर्यधारी । अणारिय (अनार्य )= अनार्य, आर्य से विपरीत । पिय (प्रिय ) = प्रिय, इष्ट, प्यारा । दुप्पूरिय ( दुष्पूर्य ) = दुष्पूर्य-जो कठिनता से पूरा हो सके । सयल ( सकल ) = सकल, सब, सम्पूर्ण । कुसल ( कुशल ) = कुशल, चतुर । दरतिक्कम (दुरतिक्रम ) = जिसका अतिक्रमण करना कठिन हो । मड, मय ( मृत ) = मृत, मरा हुआ। से? ( श्रेष्ठ )= श्रेष्ठ, उत्तम । दंत ( दान्त )= तृष्णा का दमन करने वाला, शान्त । कड, कय ( कृत) = कृत, किया हुआ। विविह ( विविध ) = विविध, भिन्न-भिन्न प्रकार का।
धातुएँ भास् ( भाष् ) = भाषण करना, बोलना। प + मय ( प्र + माद्य )= प्रमाद करना, आलस्य करना । जुर् ( जुर् ) = जूरना, वियोग से दुःखित होना । तिप्प = ( तिप् ) = देना, झरना, रोना। पिट्ट ( पिट्ट ) = पीटना, मारना, पीड़ा देना । परि + तप्प ( परि + तप्य ) = परिताप पाना, दुःखी होना । सम् + आ + यर् ( सम् + आ + चर ) = आचरण करना । कप्प् ( कल्प ) = आवश्यकता होना, उचित होना। वज्ज् ( वर्ज ) = वर्जन करना, रोकना, छोड़ना ।
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( २१४ )
चय् ( त्यज् ) = त्यागना, छोड़ना, तज देना । चर् ( चर ) चर्वण करना, चबाना, चलना ।
सं + जल् ( सं + ज्वल ) = जलना, तपना, क्रोध करना ।
अणु + तप्प् ( अनु + तप्य् ) = अनुताप करना, पश्चात्ताप करना ।
प + यय् ( प्र + यत् )
= प्रयत्न करना |
अभि + न + क्खम् ( अभि + निष् + क्रम् ) = सदा के लिए घर से निकल जाना, संन्यास लेना ।
परि + हर ( परि + हर् ) = छोड़ना ।
तच्छ् ( तक्ष ) = छीलना, पतला करना ।
अभि + प् + त्थ अभिपत्थ
} ( अभि + प्र + अर्थ ) = प्रार्थना करना ।
अभि + जाणू ( अभि + ज्ञा ) = पहचानना । खण् ( खन् ) = खोदना, कुरेदना |
परि + च्चय् ( परि + त्यज ) = परित्याग करना ।
वाक्य
आचार्य कुशलता के लिए सतत प्रयास करते हैं । संसार में पाप का बोझ बढ़ता है ।
जैसे-जैसे वासना बढ़ती है वैसे-वैसे लोभ बढ़ता है । युद्ध के समय धैर्य दुर्लभ होता है ।
हम निरर्थक नहीं बोलते ।
भँवरे फूलों पर दौड़ते हैं ।
वृक्ष पानी पीते हैं और ताप सहन करते हैं ।
नमिराज युद्ध को छोड़ता है ।
क्षत्रिय शस्त्र और अस्त्रों से निर्दोष मनुष्यों के मस्तक काटते हैं । छात्र सदैव गुरुकुल में रहते हैं ।
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( २१५ ) हम, तुम और वे सभी संसार के पाश को काटते हैं। श्रमण जल से वस्त्र शुद्ध करते हैं-धोते हैं । कुशल पुरुष निर्दोष वचन को उत्तम कहते हैं । तपों में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है। क्षत्रियों का लक्षण धैर्य और वीर्य है। जितेन्द्रिय पुरुष बुद्ध और महावीर की सेवा करते हैं । सभी प्राणी लोभ से पाप के मार्ग पर चलते हैं। धीर क्षत्रिय मनुष्य का कुशल-क्षेम चाहते हैं। तुम धैर्य से लोभ को जीतते हो। वृक्ष बढ़ते और कुम्हलाते हैं इसलिए उनमें जोव है। आचार्य जागते हैं और ध्यान करते हैं। ब्राह्मण और श्रमण शास्त्रों से लड़ते हैं ।
चैत्य में महावीर और बुद्ध की चरण-पादुकाएँ हैं। तप से वृद्धि पाये हुए वर्धमान मनुष्यों के कल्याणार्थ संन्यास लेते हैं। दाँत से लोहे को चबाते हो। उसके आँगन में सूर्य का तेज दीप्त होता है । वह तुम को बार-बार याद करता है। हम महल के ऊपर हैं। हम में वह एक जितेन्द्रिय पण्डित है। तुम इसको बारम्बार वंदना करते हो। वे, तुम और हम दूध पीते हैं । पापी ब्राह्मण सब से हलका है। संसार में कोई किसी का नहीं। तुम अन्तर को जानते हो इसलिए प्रमाद नहीं करते । मेरा भाई शीत से काँपता है । यह ब्राह्मण इन लोगों को शाप देता है ।
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( २१६ ) यह समुद्र क्षुब्ध होता है। . वह और मैं लकड़ियां छीलता हूँ। अधिकतर लोग निरर्थक कोप करते हैं । तुम उसको, मुझको और इसको जीतते हो। सच्चे ब्राह्मण के बिना दूसरा कौन उत्तम है ? जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं बन सकता । संसार में सभी सभी के शरणरूप हैं। संसार में सर्वत्र त्रस और स्थावर जीव हैं। श्रमण पापमय कर्मों का त्याग करता है। श्रमणों में वर्धमान श्रेष्ठ है। दानों में अभयदान श्रेष्ठ है । पाँव से अग्नि को कुचलते हो। नखों से तुम पर्वत को खोदते हो । पुष्पों में अरविन्द श्रेष्ठ है। थोड़ा असत्य भी महाभयंकर है। मजदूर चाँदी के लिए पर्वत को खोदते हैं । पिता की गोद में पुत्र लोटता है।
वाक्य (प्राकृत ) एगो हं नत्थि मे को वि नाहमन्नस्स कस्स वि धीरो वा पण्डितो महत्तमपि नो पमायए । इमे तसा पाणा, इमे थावरा पाणा न हंतव्वा इति सव्वे आयरिया भासंति । अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे विविहेहि दुखेहिं जूरइ ।। तओ से एगया पासेहिं दिव्वइ । कोहेण, मोहेण, लोहेण वा चित्तं खुब्भइ तत्तो अलं तव एएहि ।
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( २१७ )
अयं पुरिसे गढिए सोयइ, जुरइ, तिप्पइ, पिट्टइ, परितप्प | जे अज्झत्थ जाणति ते बहिया वि जाणति ।
अलं बालस्स संगेणं ।
वीराणं भग्गो दुरणुचरो ।
एस लोगे संसारंसि गिज्झइ ।
तं वयं बूम माहणं जो एगमत्रि पाणं न हणेज्जा पुरिसा । तुममेव तुमं मित्तं किं बहिया मित्तमिच्छसि ? जहा अंतो तहा बाहि एवं पासंति पण्डिता । कामा खलु दुरतिकमा ।
असमणा सया सुत्ता, समणा सया जागरंति । कडेहि तो कम्मे हितो केसिमवि न मोक्खो अस्थि । मूढस्स पुरिसस्स संगेण अलं ।
बुद्ध कामे जाइ ।
पावगेण कम्मेण पुणो पुणो कलहो जायति ।
अलं पमादेण कुसलस्स |
पण्डिओ न हरिसेइ, न कुप्पइ ।
पाणाण असतं महब्भयं दुक्खं ।
नत्थि जीवस्स नासोत्ति ।
मूढा अप्पाणे दुप्पूरिए अस्थि
समणाणं कयविक्कयो महादोसो न कप्पइ |
तुम सच्चं समणं तहा सच्चं माहणं न गरिहह । 'पुत्ता में', 'धणं मे', 'मोयणं में' त्ति गढिए पुरिसे मुज्झइ । पुत्ता तव ताणाए नालं तुमं पि तेसि सरणाए नालं होसि । लाभो त्ति न मज्जेज्जा, अलाभो त्ति न सोएज्जा ।
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( २१८ ) सततं मूढे धम्मं 'नाभि-जाणति । जिणा अलोभेण लोभं जयंति । संसारे एगेसि भाणवाणं अप्पं च खलु आउर जहा दुमस्स पुप्फेसु भमरो आवियइ रसं । खत्तिया धम्मेणं जुज्झं जुज्झंति । जहा लाहो, तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढ समणा सर्वसि पाणाणं सुहमिच्छति ।
१. देखिए, सन्धि पृ० ६४, नियम ६, न+ अभिजाणति = नाभिजाणति। २. देखिए, सन्धि पृ० ६७, नियम १८ ।
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ग्यारहवाँ पाठ
भूतकालिक प्रत्यय* स्वरांत धातुओं में लगनेवाले प्रत्यय :
एकवचन - बहुवचन प्र० पु० सी', ही, हीअ ( सीत्') म० पु० , " " "
तृ० पु० , , , " * प्राकृत भाषा में भूतकाल के कोई भेद नहीं है। ह्यस्तनी, अद्यतनी
और परोक्ष-ये तीनों सामान्य भूतकाल में समाविष्ट हो जाते हैं और इन तीनों के प्रत्यय भो समान ही हैं तथा भूतकाल के तीनों पुरुष तथा सब वचनों के प्रत्यय भी समान है। पालि भाषा में तो संस्कृत के समान ‘हियतनी', 'अज्जतनी' और 'परोक्ख'-~ये तीन भेद भूतकाल के हैं तथा इन तीनों के आत्मनेपद तथा परस्मैपद के तीनों पुरुषों तथा सब वचनों के प्रत्यय भिन्न-भिन्न हैं। हियतनी ( ह्यस्तनी ) परस्मैपद के प्रत्यय :एकव०
बहुव० १. पु० अ, अं
म्हा २. पु० ओ, अ
त्थ ३. पु० आ, अ
ऊ, उ, उं आत्मने पद के प्रत्यय :१. पु० ई २. पु० से ३. पु त्थ
म्हसे
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( २२० ) 'पा' धातु के रूप
सर्व पुरुष ) पासी (पा + सी ), पाअसी (पा + अ + सी) सर्व वचन पाही (पा+ही), पाअही ( पा+ अ + ही)
पाहीअ (पा+होअ), पाअहीअ (पा+अ+ हीअ)
अज्जतनी ( अद्यतनी ) परस्मैपद के प्रत्यय :१. पु० इं ( इस, इस्सं ) म्हा, म्ह २. पु. ओ, इ
त्थ ३. पु० ई, इ
उं, इंसु, इसुं, अंसु ___ आत्मने पद के प्रत्यय :
एकव०
बहुव० १. पु० अ २. पु० से ३. पु० आ परोक्ख ( परोक्ष ) परस्मैपद :एकव०
बहव० १. पु० अ २. पु० ए ३. पु० अ आत्मनेपद :१. पु० इ २. पु० त्यो ३. पु० त्थ
भA
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( २२१ )
'हो' धातु के रूप होसी ( हो + सी ) होअही ( हो + अ + सी) होही ( हो + हो) होमही ( हो + अ + ही ) होहीअ ( हो + हीम) होअहीअ ( हो + अ + होअ
.
हियतनी-रूपनिदर्शन :
'भू' धातु परस्मैपद
आत्मनेपद एकव० बहुव० एकव० बहुव० १. पु० अभव, अभवं अभम्हा अभवि अभवम्हसे २. पु० अभवो अभवत्थ अभवसे अभवव्ह ३. पु० अभवा अभवू अभवत्थ अभवत्थु अज्जतनो-रूपनिदर्शन :__ परस्मैपद
आत्मनेपद एकव० बहुव० एकव० बहुव० १. पु० अभवि अभवम्हा, अभविम्ह अभव, अभवं अभविम्हे .. २. पु० अभवो, अभाव अभवित्थ अभविसे अभविव्हे ३. पु० अभवी, अभवि अभवं, अभविसु अभवा, अभवित्थ अभवू परोक्ख-रूपनिदर्शन :परस्मैपद
आत्मनेपद बहुव० एकव०
बहुव० १. पु० बभूव बभूविम्ह
बभूविम्हे २. पु० बभूवे बभूवित्थ बभूवित्थो बभूविव्हो ३. पु० बभूव बभूवु बभूवित्थ बभूविरे
एकव०
बभूवि
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( २२२ ) व्यञ्जनांत धातुओं में लगनेवाले प्रत्यय :
एकवचन - बहुवचन प्र० पु० ईअ ( ईत्)
म० पु०
॥
तृ० पु०
॥
पालि में धातु के आदि में हियतनो, अज्जतनी में भूतकाल सूचक 'अ' का आगम होता है परन्तु प्राकृत में वैसा नहीं होता तथा पालि में परोक्ष भूतकाल में धातु का द्विर्भाव हो जाता है। प्राकृत में वैसा नहीं होता है। पालिरूपों का भूतकाल-संबंधी विशेषताओं के लिए देखिए, पा०प्र० पृ० २०२ तथा २१२ से ११६ तक। यहाँ बताए हुए पालि प्रत्यय तथा प्राकृत प्रत्यय-इन दोनों में विशेष तो नहीं परन्तु साधारण समानता जरूर देखी जाती है।
१. हे० प्रा० व्या० ८।३।१६२। सूत्र में प्रयुक्त भूतकाल का 'सी' और
संस्कृत में प्रयुक्त भूतकाल 'सीत्' प्रत्यय दोनों एक जैसे हैं । 'अधासीत्', 'अघ्रासीत्' आदि संस्कृत रूपों में प्रयुक्त 'सीत्' ( तृतीय पु० एकवचन ) भूतकाल को बताता है लेकिन प्राकृत में वह व्यापक होकर सर्वपुरुष और सर्ववचन बताता है । 'ही' और 'हीअ' ये दोनों प्रत्यय भी 'सी' के साथ ही समानता रखते हैं। हे० प्रा० व्या० ८।३।१६३। के अनुसार 'ईअ' और संस्कृत का .. भूतकाल सूचक 'इत्' दोनों हैं। 'अभाणीत्', 'अवादीत्' आदि संस्कृत क्रियापदों में प्रयुक्त 'ईत्' ( तृ० पु० एकवचन ) भूतकाल को बताता है परन्तु प्राकृत में वह सर्वपुरुष और सर्ववचनों में व्यापक हो जाता है।
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( २२३ )
बंद + वंदीन ( वंद् + ईअ ) हस् + हसोअ ( हस् + ईअ ) कर् + करीअ ( कर् + ईअ )
विशेषतः आर्ष प्राकृत में उपलब्ध प्रत्यय :
( इष्ट' )
प्रायः तृतीय पुरुष त्था एकवचन
इत्था
इत्थ
प्रायः तृतीय पुरुष ) इत्थ बहुवचन
• इंसु
अंसु
प + हार् = पहारित्था पहारेत्था
धातु-रूप
हो होत्या ( हो + त्था ) रोइत्था ( री + इत्था )
री
( इष्ट
( इषुः )
}
( पहार + इत्था )
भुंज् - भुंजित्था ( भुंज् + इत्था )
वि + ह = विहरित्या ( विहर् + इत्था )
१. यह ' इत्थ' और संस्कृत का 'इष्ट' प्रत्यय दोनों समान हैं । इष्ट-इट्ठइत्थ, त्था, अभविष्ट, अजनिष्ट आदि संस्कृत रूपों में प्रयुक्त 'इष्ट' ( तृतीय पु० एकवचन ) भूतकाल का सूचक है । प्राकृत में भी प्रायः यह तृतीय पुरुष एकवचन को सूचित करता है ।
२. 'इंसु' और 'अंसु' तथा संस्कृत का भूतकाल दर्शक 'इषुः ' ये सभी समान हैं । 'अवादिषु :', 'अव्राजिषुः ' आदि संस्कृत क्रियापदों में प्रयुक्त 'इषु: ' ( तृ० पु० बहुव० ) भूतकाल का सूचक है और प्राकृत में भी प्रायः वह उसी काल, पुरुष और वचन को सूचित करता है ।
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( २२४ ) सेव-सेवित्था (सेव् + इत्था ) गच्छ् + गच्छिसु (गच्छ् + इंसु ) पृच्छ्-पुच्छिसु (पुच्छ् + इंसु ) कर-करिंसु ( कर् + इंसु ) नच्च-नच्चिसु ( नच्च् + इंसु) आह,-आहंसु (आह, + अंसु ) कुछ अनियमित रूपः
अस्—होना अत्थि, अहेसि, आसि ( सर्वपुरुष-सर्ववचन)
आसिमो, आसिमु ( आस्म ) रूप कहीं-कहीं आर्ष प्राकृत में प्रथम पुरुष के बहुवचन में उपलब्ध होते हैं । 'वद्' धातु का 'वदीअ' रूप होना चाहिए तथापि आर्ष प्राकृत में इसके बदले 'वदासी' और 'वयासो' रूप उपलब्ध होते हैं। अर्थात् उक्त 'सी' प्रत्यय स्वरान्त धातु में लगाया जाता है, लेकिन आर्ष प्राकृत में कहीं-कहीं व्यञ्जनान्त धातु में भी लगा हुआ मिलता है। वद + सी = वदासी। आर्ष प्राकृत होने से 'वद' को 'वदा' हुआ है।
कर-करना भूतकाल में 'कर' के बदले 'का' भी होता है :
कर + ईअ = करीअ पालि भाषा में अस् धातु के भतकाल में रूप :एकव०
बहुव० १. आसिं
आसिम्ह २. आसि
आसित्थ ३. आसि
आसुं, आसिंसु
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'कर' का 'का' होने पर
}
( २२५ ) का + सी = कासो का + हो = काही का + हीअ = काहीअ
आर्ष प्राकृत में उपलब्ध अन्य अनियमित रूप :
कर्- अकरिस्सं ( अकार्षम् )
कर्= क-अकासी ( अकार्षीत् ) बू - अब्बवी ( अब्रवीत् )
वच - अवोच ( अवोचत् )
İ
अस् - प्रासी, आसि ( आसीत् )
आसिमु (आस्म )
बू - आह ( आह )
बू - आहु (आहु
दृश - अदक्खू ( अद्राक्षुः )
१. पु० एकवच०
३. पु०
"
72 73
""
ܕ
३. पु० बहुवचन
""
3,
""
17 11
१. पु० बहुव० ३. पु० एकव ०
11
31
13
भू अभू ( अभूत अथवा अभुवन् ) एकव० तथा बहुव०
हू अहू
उक्त आर्षरूप संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं की भिन्नता को स्पष्ट रूप से निषेध करते हैं । ये सभी रूप केवल उच्चारणभेद के नमूने हैं। तथा इन आर्ष रूपों के साथ पालि रूप बहुत मिलते-जुलते हैं ।
पलिङ्ग
आरिय (आर्य ) = आर्य, सज्जन ।
णायसुय, णातसुत ( ज्ञातसुत ) ज्ञातवंश का पुत्र - महावीर ।
छगलय ( छाग ) = बकरा |
नायपुत्त, नातपुत्त, णातपुत्त ( ज्ञातपुत्र) = ज्ञातवंश का पुत्र - महावीर । देस ( देश ) = देश ।
मिलिच्छ ( म्लेच्छ ) = म्लेच्छ ( जातिविशेष ) ।
१५
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________________
उच्छाह ( उत्साह )
ऊसव ( उत्सव ) = उत्सव |
अ ( मृग ) = मृग 1, हिरण, पशु ।
= मृगाङ्क, चन्द्र ।
मयंक ( मृगाङ्क ) पज्जुण्ण, पज्जुन ( प्रद्युम्न ) = प्रद्युम्न नामक कृष्ण का पुत्र । वच्छ ( वत्स ) = वत्स, पुत्र, बच्चा ।
उत्साह |
रिच्छ ( ऋक्ष ) = रोछ,
भालू
गोतम, गोयम ( गौतम ) = गौतम गोत्र का मुनि ।
पवंच ( प्रपञ्च ) = प्रपञ्च |
संख ( शंख ) = शंख । कंटग ( कण्टक ) काँटा |
=
( २२६ )
=
पंथ ( पन्थ ) = पथ, मार्ग, रास्ता । कलंब ( कदम्ब ) = कदम्ब का वृक्ष | सप्प (सर्प) = सर्प, साँप ।
मंजार ( मार्जार ) = बिल्ली ।
दुक्काल ( दुष्काल) = दुष्काल |
मह ( मन्मथ ) | = मन को मथनेवाला - कामदेव |
पह ( प्रश्न ) = प्रश्न ।
कण्ह ( कृष्ण ) = कृष्ण भगवान् ।
पहुअ ( प्रस्तुत ) = वात्सल्य से माँ की छाती में दूध भर आना । पुण्वण्ह (पूर्वा) = दिवस का पूर्व भाग ।
हेमन्त ( हेमन्त ) = हेमन्त ऋतु, अगहन और पूस का महीना । मूस, मूस ( मूषक ) = मूषक, चूहा, मूस ( भोजपुरी में ) । पल्हाअ, पल्हाद ( प्रह्लाद ) = प्रह्लाद नामक भक्त, राजपुत्र । मोहणदास ( मोहनदास ) = मोहनदास गांधीजी का नाम । रट्ठधम्म ( राष्ट्रधर्मं ) = राष्ट्रधर्म, देश का हित करनेवाली प्रवृत्ति ।
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________________
( २२७ )
गाम ( ग्राम ) = गाँव ।
देविंद ( देवेन्द्र ) = देवों का इन्द्र- स्वामी |
मोर, मयूर ( मयूर ) = मयूर, मोर ।
हरिएसबल ( हरिकेशबल ) = चण्डाल कुल में पैदा होनेवाला एक जैन मुनि ।
विछिअ ( वृश्चिक ) = बिच्छू, बिच्छी ।
नपुंसकलिङ्ग शब्द
गमण ( गमन ) = गमन करना, जाना ।
पाणीअ, पाणीय ( पानीय ) = पानी, जल, पीने की वस्तु । दुद्ध ( दुग्ध ) = दूध |
=
रायगिह ( राजगृह ) = राजगृह, मगध देश की राजधानी । कुसग्गपुर ( कुशाग्रपुर ) राजगृह का दूसरा नाम । विष्णाण, विन्नाण ( विज्ञान ) - विज्ञान | भारहवास ( भारतवर्ष ) = भारतवर्ष, हिन्दुस्तान | महाविज्जालय ( महाविद्यालय ) = महाविद्यालय, कॉलेज । पाडलि - पुस ( पाटलिपुत्र ) = पाटलिपुत्र, पटना ( शहर ) । चंडालिय ( चाण्डालिक ) = चण्डाल का स्वभाव, क्रोध |
नाण ( ज्ञान ) = ज्ञान |
पवहण ( प्रवहन ) = प्रबहन, बहना । अच्छेर ( आश्चर्य ) = आश्चर्य ।
विशेषण
महिड्डिय, महडिय ( महर्षिक) = ऋद्धिवान् धनाढ्य । वाघायकर ( व्याघातकर ) = व्याघात करनेवाला, विघ्न करनेवाला 11 महन्थ ( महार्घ ) = बहुमूल्य, महँगा, किमती, अधिक कीमतवाला ।
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२२८ )
सग्घ ( स्वर्घ ) = सस्ती | केरिस (कीदृश ) = कैसा |
नवोण, णवोण, ( नवीन ) = नवीन, नया |
अज्जतण, अज्जयण ( श्रद्यतन )
= प्राज का, ताजा ।
सरस ( सरस ) = सरस, अच्छा, रसवाला ।
=
पच्छ ( पथ्य ) = पथ्य -मार्ग में हित करनेवाला, पाथेय । जुगुच्छ ( जुगुप्स ) जुगुप्सा करनेवाला, घृणा करनेवाला । सह, सुहुम, सुखुम ( सूक्ष्म ) = सूक्ष्म, बारीक, छोटा-सा ! सहल ( सफल ) विहल ( विफल ) विलिअ ( व्यलीक ) = झूठ, असत्य |
= सफल ।
= निष्फल ।
पुराण, पुराण ( पुराण ) = पुराना, पुरातन ।
निण्ण, नेण्ण ( निम्न ) = निम्न, नीच । वीलिअ ( व्रीडित ) = लज्जित, शर्मिन्दा |
अव्यय
तेण ( तेन = उस तरफ, उससे 1 जेण ( येन ) = जिस तरफ, जिससे । अवस्सं ( अवश्यं ) = अवश्य ।
1
एव, एवं ( एवम् ) = एवं इस प्रकार | सुट्ठ ( सुष्ठु ) = शोभन, अच्छा, सुन्दर, दुट्ठ ( दुष्ठु ) = खराब, असुन्दर । खिप्पं ( क्षिप्रम् ) = शीघ्र | पच्छा ( पश्चात् ) = अनन्तर, बाद, पीछे । इहेव ( इहैव ) यहीं, यहीं पर ।
असई ( असकृत् ) = अनेकबार, बारंबार ।
अतिशय ।
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________________
( २२९ )
गामाणुग्गामं, गामाणुगामं ( ग्रामानुग्रामम् ) = प्रत्येक गाँव में, गाँव-गाँव में, एक गाँव से दूसरे गाँव में ।
नमो, णमो ( नमः ) = नमस्कार । पगे ( प्रगे ) = प्रातः काल में, सुबह मा (मा) = मा, मत, नहीं ।
धातु
अच्च ( अर्च ) = अर्चना, पूजना ।
उव + दिस् ( उप + दिश् ) = उपदेश करना ।
नच्च् ( नृत्य ) = नृत्य करना, नाचना |
प + हार् ( प्र + धार् ) = धारना, संकल्प करना । ने, णे ( नी ) = ले जाना ।
ले आना ।
-
आ + णे ( आ + नी ) सेव् ( सेव् ) = सेवन करना, सेवा करना ।
हस् ( हस् ) = हँसना ।
पढ् ( पठ् ) = पढ़ना । पुच्छ् ( पृच्छ ) = पूछना | भण् ( भण् ) = पढ़ना, कहना । रीय् ( री ) = निकलना, जाना । वि + हर् (वि + हर् ) = विहरना,
घूमना,
अणु + भव् ( अनु + भव ) = अनुभव करना ।
वाक्य ( हिन्दी )
मैं गाँव में गया और अपने साथ बकरों को ले गया । आर्यपुरुषों ने महावीर को अनेकबार वंदन किया ।
पर्यटन करना,
विहार करना ।
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( २३० )
मेघ बरसा और मयूर नाचे ।
ब्राह्मणों ने पूछा, 'महावीर का शील कैसा है ?" उन्होंने पानी पिया और हमने दूध । कौन नहीं जानता कि पानी नीचे जाता है ?
मैं ज्ञान से क्रोध को अवश्य मारता हूँ । उसने दुष्ट रीति से संकल्प किया ।
हम दोनों ने अच्छी तरह से सेवा की ।
आज का दूध अच्छा था ।
प्रातः और उसके पश्चात् भी बालक आँगन में खेले ।
श्रमण बहुमूल्य वस्त्रों को नहीं छूते ।
लोगों ने ज्ञानार्थ पण्डितों की पूजा की ।
हमने सत्य बोला ।
राजा और इन्द्र विनयपूर्वक बोले ।
मैं और तू महाविद्यालय में गये और राष्ट्रधर्म पढ़ा 1
उसने बहुत अच्छा-अच्छा काम किया और जीवन को सफल किया ।
महावीर हेमन्त ऋतु में निकले ।
जब उसने पूछा तब तुमने झूठ बोला ।
हमने सत्य का जाप किया 1
अनार्यों ने कहा 'सभी प्राणो मारने योग्य हैं लेकिन आर्यों ने कहा
'कोई भी प्राणी मारने योग्य नहीं ।'
मोहनदास महापुरुष ने प्रत्येक गाँव में घूमकर राष्ट्र-धर्म का उपदेश दिया ।
प्रद्युम्न का शिष्य पाटलिपुत्र गया ।
देश में मनुष्यों ने दुष्काल में दुःख भोगा । शरमिन्दे शिष्य हंसते नहीं ।
तुमने शिष्यों से शीघ्र पूछा, झूठ क्यों बोले ?
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( २३१ ) पुराना सब सच्चा है ऐसा भी नहीं और नया सब झूठा है ऐसा भी नहीं। आर्यों को नमस्कार । पूर्वाह्न के समय सूर्य का पूजन किया । हिन्दुस्तानी सस्ता अन्न खाते हैं ।
वाक्य (प्राकृत) बाला धाविसु । मा य चंडालियं कासी'। तवस्स वाघायकरं वयणे वयासी। इमं पण्हं उदाहरित्था । गोयमो समणं महावीरं एवं वयासी । सोलं कहं नायसुतस्स आसी? नमिरायो देविंदमिणमब्बवी। अंगणम्मि बाला मोरा य नच्चिसु । ते पुत्ता जणयं इणं वयणं कहिंसु । वद्धमाणो जिणो अभू । सो दुद्धं पासी। तुमं छगलयं गाम नही। माणवा हसी। जिणा एवं कहिंसु । आसी अम्हे महिड्ढिया । तेणं कालेणं तेणं समयेणं पाडलिपुत्ते नयरे होत्था ।
संस्कृत का ‘मा कार्षीत्' ( अद्यतनभूत तृ० एकव. ) रूप और यह 'मा कासी' रूप बिल्कुल एक जैसे हैं ।
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( २३२ )
जेणेत्र समणे महावीरे तेणेव गोयमो गच्छीअ पुच्छिसु णं समणा माहणा य, सो पुरिसो पाडलिपुत्तं नयरं गमणाए पहारेत्थ ।
रायगिहे नयरे होत्था ।
अहू जिणा, अस्थि जिणा सव्वेवि जिणा धमम्मि सच्चमुत्तमं आहंसु । ते पाणीयं पाहीअ ।
बालो हसीअ । मिच्छा ते एवमाहंसु ।
तुम्हे तत्थ ठाही ।
आसिमु बंधवा दोवि ।
सो इमं वयणमब्बवो |
अस्थि इहे भारहवासे कुसग्गपुरं नाम नगरं ।
सोसे विणयेणं आयरिये सेवित्था ।
तंसि हेमंते नायपुत्ते महावीरे इत्था । जे आरिया ते एवं वयासी ।
समणे महावीरे गामाणुगामं विहरित्था | हरिएसबलो नाम जिइन्दियो समणो आसि' । कि अम्हे असच्चं भासोअ ?
तंसि देसंसि दुक्कालो होसी ।
१. हे० प्रा० व्या० ८|३ | १६४ | देखिए पृ० २२४ = अस् —होना ।
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एकव०
बारहवाँ पाठ इकारान्त और उकारान्त पुंल्लिंग शब्द के रूप :
रिसि* एकवचन
बहुवचन प्र० रिसि = रिसो' ( ऋषिः) रिसि + अउ = रिसउ
रिसि + अओ' = रिसओ
रिस + अयो = रिसयो (ऋषयः) * रिसि शब्द के पालिरूप :
बहुव० प्र० रिसि
रिसी, रिसयो द्वि० रिसि
रिसी, रिसयो त. रिसिना
रिसीहि, रिसिहि, रिसीभि, रिसिभि च० रिसिनो, रिसिस्स रिसीनं पं० रिसिना, रिसिस्मा, रिसोहि, रिसिहि, रिसोभि, रिसिहि
रिसिम्हा ष० रिसिनो, रिसिस्स रिसीनं स० रिसिस्मि, रिसिम्हि रिसीसु, रिसिसु सं० रिसे !, रिसि! रिसो, रिसयो
पालिभाषा में प्रथमा तथा द्वितीया के बहुवचन में प्राकृत के ‘णो' प्रत्यय की तरह 'नो' प्रत्यय भी लगता है-सारमतिनो, सम्मादिट्ठिनो, मिच्छादिट्ठिनो, वजिरबुद्धिनो, अधिपतिनो, जानिपतिनो, सेनापतिनो, गहपतिनो ( देखिए, पा० प्र० पृ० ८४ से ६१ )।
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एकव ०
( २३४ )
रिसि = रिसी
४
द्वि० रिसि+म् = रिसि (ऋषिम् ) रिसि = रिसी ( ऋषीन् ) रिसि + णो = रिक्षिणो
रिसि + हि = रिसीहि, रिसीहि, रिसीहिं (ऋषिभिः )
५
तृ० रिसि + णा = रिसिणा
( ऋषिणा )
बहुव ० रिसि + णो ३ = रिसिणो
3
रिसीण,
च० रिसि + अ = रिसये ( ऋषये ) रिसि + ण = रिसि + स्स = रिसिस्स रिसीणं ( ऋषिभ्यः)
७
रिसि + णो = रिसिणो
11
पालिभाषा में पुंल्लिंग 'सखि' शब्द के विशेष रूप होते हैं । उन रूपों में सखि को कहीं 'सख', कहीं 'सखि' तथा कहीं 'सखार' और कहीं पर 'सखान' ऐसे आदेश होते हैं । प्रथमा के एकवचन में 'सखा' तथा द्वितीया के एकवचन में 'सखारं ' तथा 'सखानं' रूप होते हैं और प्रथमा तथा द्वितीया के बहुवचन में 'सखायो' रूप भी होता है ( देखिए, पा० प्र० पृ० ८६ ) ।
१.
हे० प्रा० व्या० ८|३ | १९| इसके अतिरिक्त अन्य वैयाकरण ह्रस्व इकारान्त तथा उकारान्त के अनुस्वारयुक्त रूप भी प्रथमा के एकवचन में मानते हैं - रिसी, रिसि; भाणू, भाणुं ।
२. हे० प्रा० व्या० ८।३।२० ।
३. हे० प्रा० व्या० ८।३।२२ ।
४. हे० प्रा० व्या० ८|३|५; ८|३|१२४ ।
५.
हे० प्रा० व्या० ८।३।२४ |
६. हे० प्रा० व्या० ८।३।१६।
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________________
( २३५ ) पं० रिसि + त्तो=रिसित्तो रिसि + त्तो = रिसित्तो (ऋषितः)
( ऋषितः) रिसि + ओ =रिसीओ रिसिओ = रिसीओ ( ऋषितः) (ऋषितः) रिसि + उ = रिसीउ रिसि + उ = रिसीउ ( ऋषितः) ( ऋषितः) रिसि + णो=रिसिणो रिसि + हिंतो-रिसीहितो (ऋषिभ्यः) (ऋषितः) रिसि + हिंतो-रिसीहितो रिसि + सुंतो = रिसीसुतो ष० रिसि+स्स = रिसिस्स रिसि + ण = रिसीण,
(ऋषेः) रिसि + णो = रिसिणो रिसिणं ( ऋषीणाम् ) स० रिसि + सि=रिसिसि रिसि + सु=रिसीसु,रिसीसुं (ऋषिषु)
( ऋषो) रिसि + म्मि = रिसिम्मि सं० रिसि =रिसि ! रिसि + अउ = रिसउ ! ( ऋषयः ) रिसी = रिसी ! ( ऋषे!) रिसि + अओ = रिसओ! (ऋषयः)
रिसि + अयो = रिसयो ! (ऋषयः) रिसि + णो = रिसिणो! रिसि = रिसी!
७. हे० प्रा० व्या०८।३।२३ तथा ८।३।१२४ ।
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________________
( २३६ ) *भाणु ( भानु = सूर्य ) एकव.
बहव० प्र. भाणु, भाणू ( भानुः) भाणु + अवो= भाणवो (भानवः)
भाणु + अवे = भाणवे (,) भाणु + अओ= भाणओ (,) भाणु + अउ = भाणउ (,) भाणु + णो= भाणुणो
भाणु % भाणू * भानु शब्द के पालिरूप:___ एकव०
बहुव० प्र० भानु
भानू, भानवो द्वि० भानु
भानू, भानवी तृ० भानुना
भानूहि, भानूभि च० भानुनो, भानुस्स
भानूनं पं० भानुना, भानुस्मा, भानुम्हा भानूहि, भानू भि ष० भानुनो, भानुस्स स० भानुस्मि, भानुम्हि भानूसु सं० भानु
भानू, भानवो, भानवे
-देखिए, पा० प्र० पृ० ६१-६३, ६४ ॥ १. हे० प्रा० व्या० ८।३।२१ सूत्र के द्वारा उकारान्त पुंल्लिग रूप भी
सिद्ध होते हैं। २. 'अवे' प्रत्यय का उपयोग आर्ष प्राकृत में पर्याप्त उपलब्ध होता है ।
भानून
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( २३७ ) द्वि० भाणु + म् = भाj (भानुम् ) भाणु + णो = भाणुणो,
भाणु = भाणू (भानून् ) तृ० भाणु + णा भाणुणा (भानुना) भाणु + हि = भाणूहि,
भाणूहि, भाणूहिँ
( भानुभिः) च० भाणु + अवे = भाणवे भाणु+ ण = भाणूण,
भाणु + णो = भाणुणो भाणूणं (भानुभ्यः ) __ भाणु + स्स = भाणुस्स ( भानवे ) पं० भाणु + त्तो = भाणुत्तो
भाणु + ओ=भाणूमओ भाणूओ ( भानुतः ) भाणु + उ = भाणूउ भाणूउ (,) (भानुतः, भानोः ) भाणु + णो = भाणुणो भाणु + हितो = भागृहितो,
भाणु +हिंतो = भाyहितो भाणूसुंतो (भानुभ्यः) १० भाणु + स्स = भाणुस्स भाणु + ण = भाणूण,
भाणु + णो= भाणुणो (भानोः) भाणूणं ( भानूनाम् ) स० भाणु+सिं = भाणुंसि भाणु + सु = भाणूसु, भाणु + म्मि = भाणुम्मि भाणूसुं (भानुषु )
( भानौ) सं० भाणु = भाणु ! ( भानो ! ) भाणु + अवो = भाणवो ! (भानवः) भाणु = भाणू ! भाणु + अओ= भाणओ ( , )
भाणु + अउ = भाणउ
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( २३८ )
भाणु + णो = भाणुणो
भाणु + भा
अकारान्त शब्द के रूप सिद्ध करने में जो प्रत्यय प्रयुक्त होते हैं;. अधिकतर उन्हीं प्रत्ययों का प्रयोग उपर्युक्त रूपसाधना में किया गया है । सर्वथा नये रूप बहुत थोड़े हैं ।
१. प्रथमा और सम्बोधन के एकवचन तथा बहुवचन में और द्वितीया के बहुवचन में इकारान्त और उकारान्त के मूल अंग केवल दीर्घ होकर प्रयुक्त होते हैं ।
यथा :-रिसि
रिसी; भाणु = भाणू ।
२. स्वरादि प्रत्यय परे रहने पर प्रथमा, सम्बोधन और चतुर्थी के अंग के अन्त्य स्वर का याने अंग का अन्त्य 'इ' अथवा 'उ' का लोप हो जाता है ।
जैसे :- रिसि + अओ = रिस् + अओ = रिसओ
भाणु + अवो = भाण् + अवो = भाणवो रिसि + अये = रिस् + अये = रिसये भाणु + अवे = भाण् + अवे = भाणवे ।
३. नये रूपों में तृतीया एकवचन, 'णो' प्रत्ययवाले सभी रूप और चतुर्थी का एकवचन है। लेकिन वे सभी उपर्युक्त प्रयोग रूपसाधना से समझे जा सकते हैं ।
संस्कृत में 'इन्' प्रत्ययान्त ( दण्डिन्, मालिन् ) शब्दों के प्रथमा - द्वितीयाबहुवचन में तथा पञ्चमी षष्ठी के एकवचन में 'दण्डिनः मालिनः ;' इयदि रूप प्रसिद्ध हैं; इन्हीं रूपों का प्राकृत रूपान्तर 'दंडिगो; मालिणो' होता है । ये सब देखते हुए 'रिसिणो', 'भाणुणों' रूपों की घटना सहज में ही समझी
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२३६ )
जा सकती है । 'इन्' प्रत्ययान्त शब्दों के सभी रूप लगभग इकारान्त शब्द की भाँति होते हैं ।
इकारान्त-उकारान्त नपुंसकलिङ्ग
इकारान्त-उकारान्त नपुंसकलिङ्ग अंग के तृतीया से सप्तमी पर्यन्त सभी रूप, इकारान्त - उकारान्त पुंलिङ्ग रूपसाधना की भाँति हैं और प्रथमा, द्वितीया तथा सम्बोधन की रूपसाधना अकारान्त नपुंसकलिङ्ग की भांति है । यथा :
वारि ( वारि
= जल )
प्र०-द्वि० वारि + म् = वारि ( वारि) वारि + णि = वारीणि
वारि + इं = वारीइं वार + इँ = वारीइँ
सं०
वारि ! ( वारि ! )
""
(सूत्रों के लिये देखिये पाठ सातवाँ का प्रारम्भ )
महु ( मधु =
प्र० - द्वि० महु + म् = महुं ( मधु )
सं०
शहद )
-
महु + णि महूणि महु + ई = महूई महु + ई = महूइँ
महु ! ( मधु ! )
91
( सूत्रों के लिए देखिए पाठ सातवाँ का प्रारम्भ ) चतुर्थी के एकवचन में 'वारिणे', 'वारिस्स'; 'महुणे', 'महुस्स' रूप समझना चाहिए । लेकिन 'वारये', 'महवे' नहीं ।
"1
39
( मधूनि )
वारीणि
इकारान्त और उकारान्त शब्द (पु ंल्लिङ्ग)
मुणि ( मुनि ) = मुनि - मनन करने वाला, मौन धारण करनेवाला
सन्त ।
(,, )
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( २४० ) सउणि ( शकुनि ) = शकुनि-पक्षी। पइ (पति) = पति-स्वामी, मालिक, रक्षक । घरवइ, गहवइ ( गृहपति ) = गृहपति-गृहस्थ, घरका स्वामी। . रिसि, इसि ( ऋषि) = ऋषि, महात्मा । दुक्खदंसि (दुःखदर्शिन् ) = दुःख देखनेवाला, दुःखी पुरुष । भोगि, भोइ ( भोगिन् ) = भोगी, भोग भोगनेवाला, संसारी पुरुष । उदहि ( उदधि ) = समुद्र, उदक-जल धारण करनेवाला, समुद्र । साहु ( साधु ) = साधक, साधु पुरुष, सज्जन, साहुकार । जन्तु ( जन्तु )= जन्तु, प्राणी।। सिसु ( शिशु ) = शिशु; छोटा बच्चा, बालक । मच्चु, मिच्चु ( मृत्यु ) = मृत्यु । बिंदु ( बिन्दु) = बिन्दु । भाणु ( भानु ) = भानु, सूर्य । वाउ, वायु ( वायु) = वायु, पवन । विण्हु ( विष्णु )= विष्णु । हत्थि ( हस्तिन् ) = हाथी। कुलवइ ( कुलपति ) = कुलपति-आचार्य । नरवइ ( नरपति )= नरपति-नरों-पुरुषों का पति = राजा, राजा। भूवइ ( भूपति ) = भूपति-भू-पृथ्वी का पति, राजा । गणवइ ( गणपति )= गणों का पति-गणपति, गणेश । अमुणि ( अमुनि ) = जो मुनि नहीं हो ( बड़-बड़ करने वाला )। कोहदंसि ( क्रोधदर्शिन् ) = क्रोधदर्शी, क्रोधी। भूमिवइ ( भूमिपति ) = भमि का पति-राजा। उवाहि ( उपाधि ) = उपाधि ।। सेट्टि ( श्रेष्ठिन् ) = श्रेष्ठी, सेठ, साहुकार । गम्भदंसि ( गर्भदर्शिन् ) = गर्भ देखने वाला, जन्म लेने वाला।
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( २४१ ) अभोगि, अभोइ ( अभोगिन्) = अभोगी ( योगी )। पक्खि ( पक्षिन् )= पक्षी। सोमित्ति ( सौमित्रि ) = सुमित्रा का पुत्र, लक्ष्मण । भिक्खु ( भिक्षु ) = भिक्षु । चक्खु ( चक्षुष्) = चक्षु, आँख। सयंभु ( स्वयंभू )= स्वयंभू, ब्रह्मा, समुद्र का नाम । संसारहेउ ( संसारहेतु ) संसार बढ़ने का कारण । गुरु (गुरु) = गुरु, माता-पिता आदि गुरुजन । तरु ( तरु) = तरु, वृक्ष । बाहु ( बाहु )= बाहु, भुजा ।
इकारान्त और उकारान्त (नपुंसकलिङ्ग) शब्द अक्खि, अच्छि ( अक्षि ) = आँख । अट्ठि ( अस्थि ) = हड्डो, अस्थि । धणु (धनुष्)= धनुष । जाणु ( जानु ) = घुटना । वारि ( वारि ) = वारि, जल, पानी । जउ ( जतु )= जतु, लाख, लाह । वत्थु ( वस्तु ) = वस्तु, पदार्थ । दहि ( दधि ) = दही । महु ( मधु ) = मधु, शहद। खाणु ( स्थाणु ) = स्थाणु, अचल, दूंठ (वृक्ष)।
अकारान्त (पुल्लिङ्ग ) शब्द बसह ( वृषभ ) - वृषभ, बैल । कोसिअ ( कौशिक ) = कौशिक गोत्र वाला इन्द्र, चण्डकौशिक सर्प ।
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( २४२ ) आहार ( आहार ) = आहार, भोजन । पहाविअ, नाविअ (स्नापयितृ)= नापित, नाई। मअ ( मृग)= मृग, वन्यपशु, हिरण । मार ( मार ) = मार । कुमारवर ( कुमारवर )= श्रेष्ठ कुमार । आहार ( आधार )= आधार । गरुल ( गरुड़ )= गरुड़। रण्णवास ( अरण्यवास)= अरण्यवास, जंगल में रहना। सव्वसंग (सर्वसङ्ग)= सर्व प्रकार का सङ्ग-सम्बन्ध-आसक्ति । महासव ( महास्रब) = पाप का बड़ा मार्ग । महप्पसाय ( महाप्रसाद )=सुप्रसन्न, महाकृपालु । मास ( मास ) = मास, महीना । पक्ख ( पक्ष )= पक्ष-शक्ल पक्ष, कृष्णवक्ष । वेसाह (वैशाख ) = वैशाख मास । उवासग ( उपासक )= उपासक, उपासना करने वाला। कोववर ( कोपपर) = कोप करने में तत्पर, क्रोधी। सोवाग ( श्वपाक )= श्वपाक, चण्डाल ।
अकारान्त (नपुंसकलिङ्ग) शब्द आभरण ( आभरण) = आभरण, आभूषण, गहना। घर (गृह) = गृह, घर । पंजर (पञ्जर )= पञ्जर-हड्डियों का ढाँचा, पिजरा । उदग, उदय ( उदक )= उदक, पानी, जल । हुअ (हुत ) = होम। रूव ( रूप ) = रूव, आकृति । कुल ( कुल ) = कुल।
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( २४३ ) घय (घृत ) - घी। तण ( तृण)= तृण, घास । मित्तत्तण ( मित्रत्व )= मित्रता, दोस्ती, भाई-बन्धुता ।
विशेषण
बुद्ध ( बुद्ध ) = बोध-ज्ञान पाया हुआ, ज्ञानी। हुत (हुत )= हवन किया हुआ। सेट्ठ ( श्रेष्ठ') = श्रेष्ठ, उत्तम। संभूअ ( संभूत ) = हुआ ! चउत्थ । (चतुर्थ ) = चतुर्थ, चौथा । चतुत्थ तिण्ण ( तीर्ण) = तोर्ण, तिरा हुआ। सुत्त ( सुप्त ) = सुप्त, सोया हुआ। अप्पणिय ( आत्मीय) = अपना । पासग ( दर्शक ) = द्रष्टा, समझदार, विचारक । परिसोसिय, परिसोसिअ ( परिशोषित ) = परिशोषित । विइज्ज (द्वितीय) = द्वितीय, दूसरा ।
अव्यय
ताव, ता ( तावत् ) = तब तक । एगया ( एकदा) = एकदा, एकबार । सया ( सदा ) = सदा, हमेशा।
१. उपयोग :-जिसमें श्रेष्ट कहना हो वह शब्द षष्ठी और सप्तमी
विभक्ति में आता है 'पाणीसु सेढे माणवे' अथवा 'पाणोण सेढे माणवे' याने प्राणियों में मनुष्य श्रेष्ठ है।
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( २४४ ) जाव, जा ( यावत् )= जब तक, जो। एत्थ ( अत्र )= यहाँ। चिरं=(चिरम् )= चिरकाल तक ।
धातुएँ अव + मन्न् ( अप + मन् )-अपमान करन.. अ + क्खा ( आ + ख्या)-बोलना, कहना । जाय ( याच् )-याचना करना, माँगना । प+ वय (प्र + वद् )-कहना । पूज, पूअ ( पूज)-पूजना, पूजा करना चय ( त्यज् )-त्यागना, छोड़ना । डस् ( दश् )-डसना, दंशना, डंक मारना । रक्ख (रक्ष )-रक्षा करना, सम्भालना। वि + राअ ( वि + राज्)= विराजमान होना, शोभायमान होना। वि + राज उ + ड्डी (उत् + डी )-उड़ना। नि + मंत् (नि + मन्त्र )-निमन्त्रण देना, बुलाना। जागर् ( जागर् )-जागना । ताल, ताड् ( ताड्)-ताड़न करना, मारना । वि + चर् ( वि+ चर् )-विचरना, घूमना ।
वाक्य (हिन्दी)
एकबार साधु ब्राह्मण के घर गये । भिक्षु उपाधियों को छोड़ते हैं और स्वयंभू का ध्यान करते हैं । अनार्य तप से परिशोषित मुनि का उपहास करते हैं। ब्राह्मणों ने भिक्षओं का अपमान किया।
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( २४५ )
मुनि ! तू संसार से तिरा हुआ है ।
कर्म से उपाधि होती है ।
सभी प्राणियों के प्रति मेरो मित्रता है किसी के साथ वैर नहीं है । अमुनि सदा सोते रहते हैं और मुनि हमेशा जागते रहते हैं । चंडकौशिक सर्प ने श्रमण महावीर को डसा ।
जो क्रोधदर्शी है वह गर्भदर्शी है और जो गर्भदर्शी है वह दुःखदर्शी है । हे पण्डितो ! मैं सब प्रकार से लोभ का त्याग करता हूँ । महावीर ने चण्डकौशिक सर्प और देवेन्द्र दोनों में मित्रता रखी । वायु से वृक्ष काँपे और जल की बूँदें उड़ीं ।
क्या विचारक को उपाधि होती है ?
कौशिक देवेन्द्र ने श्रमण महावीर को पूजा । हाथी ने समुद्र का पानी पिया |
लोभ संसार का हेतु है ।
कोई भी व्यक्ति कुलपति के बैल तथा मृग को नहीं मारता । बैल और मृग घास खाते हैं और मुनि घो पीते हैं ।
महावीर के उपासक सेठ ने वैशाख मास में तप किया ।
सभी आभूषण भाररूप हैं ।
कुलपति ने श्रमण महावीर को कहा - ' कुमारवर ! यहाँ ऋषियों का मठ है ।'
सौमित्रि राम को प्रणाम करता है ।
मुनि आहार के लिए सभी कुलों में जाते है ।
महावीर ग्रीष्म के दूसरे महीने चौथे पक्ष में बुद्ध बने ।
सुप्रसन्न मुनि क्रोधदर्शी नहीं होते ।
यह भिक्षु सेठ के कुल का था ।
हे भिक्षु ! मेरे घर में दूध नहीं, घो नहीं लेकिन पानी है । इस गृहस्थ के दो बालक थे ।
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( २४६ )
उन्होंने हाथ से पिंजरा फेंक दिया। किस को आँखें नहीं हैं ? पक्षी पिंजरे में कांपा और हिला ( सरका )। सेठ ने राजा को और राजा ने गणपति को नमस्कार किया। तुम पानी पीना चाहते हो? मुनियों का पति महावोर राजगृह में बिहार किया।
वाक्य (प्राकृत ) मुणिणो सया जागरंति, अमुणिणो सया सुत्ता संति । 'घयं पिबामि' त्ति साहुस्स णो भवइ । पक्खीसु वा उत्तमे गुरुले विराजइ । मच्चू नरं णेइ हु अंतकाले। गहवइ मुणिणो बुद्धं दिज्ज । भूवइ, घरवइ य दोवि गुरुं वंदंति । महरिसी ! तं पूजयामु । न मुणो रण्णवासेण किंतु णाणेण मुणी होइ । नमो भूमिवइ कयावि न चडालियं कासी । भिक्खू धम्म आइक्खेज्जा । लोहेण जंतुणो दुक्खाणि जायंति । सिसुणो किं किं न छिदिरे ? जहा सयंभू उदहीण सेटे इसीण सेढे तह वद्धमाणे । एगे भिक्खुणो उदगेण मोक्खं पवयंति । सउणी पंजरंसि उड्डेइ । ते उवासगा भिक्खं निमंतयंति ।
१. 'भवई' अर्थात् योग्य होता है ।
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( २४७ )
बहवे गवइणो भिक्खुं वंदते । अन्ने मुणिणो हुए मोक्खं उदाहरति । भिक्खू सव्वसंगे महासवे परिजाणी | भोगिणो संसारे भमोअ, अभोगी चयइ रयं । हत्थी एरावणमाहु सेट्टं ।
एगया पाडलिपुत्तस्स नरवइ ण्हाविओ होत्था । महपसाया इसिणो हवंति ।
न हु मुणी कोववरा हवंति । महासवं संसारहेउ वयंति बुद्धा | बुद्धो भयं मच्चुं च तरीअ । गणवइ हथिस्स सिसुं रक्खीअ ।
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एकवचन
प्र०पु० स्सामि' (ष्यामि)
..
हामि
हिमि स्सं
.४
एकव ०
प्र०पु० स्सामि
म०पु० स्ससि
तू०पु० सति
★ पालि में भविष्यत्काल के प्रत्यय :
परस्मैपद
प्र०पु० हामि
म०पु० हिसि
तृ० पु०
हिति
तेरहवाँ पाठ
भविष्यत्कालिक प्रत्यय *
हिस्सामि
प्र०पु० म०पु० हिस्ससि
तृ०पु० हिस्सति
बहुवचन
सामो (ष्यामः)
२
हामी
हिमो
3
बहुव ०
स्साम
स्सथ
संति
हाम
हित्थ
हिन्ति
हिस्साम
हिस्सथ
हिस्सन्ति
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( २४६
)
म.पु० स्ससि (ष्यसि)
स्ससे (यसे) हिसि हिसे
स्सह ) (ष्यथ) स्सथ हित्था । हिह )(ष्यध्वे) .
आत्मनेपद प्र०पु० सं
स्साम्हे म०पु० स्ससे
स्सव्हे तृ०पु० स्सते
स्सन्ते प्राकृत भाषा के भविष्यत्काल के "हिति' वगैरह हकारादि प्रत्यय व्यापक हैं, परन्तु पालिभाषा में ये हकारादि प्रत्यय व्यापक नहीं हैं। शौरसेनी तथा मागधी में भविष्यत्काल के प्रत्यय :एकव०
बहुव० प्र०पु० सं, स्सिमि
स्सिमो, स्सिमु, स्सिम म.पु० स्सिसि, स्सिले
स्सिह, स्सिध, स्सिइत्था तृ०पु० स्सिदि, स्सिदे
स्सिंति, स्सिंते, स्सिइरे ____इन्हीं प्रत्ययों में 'स' के स्थान में 'श' करने से मागधी के प्रत्यय हो जाते हैं।
शौरसेनी रूप :प्र०पु० भणिस्सं, भणिस्सिमि
भणिस्सिमो, भणिस्सिमु,
भणिस्सिम म०पु० भणिस्सिसि, भणिस्सिसे
भणिस्सिह, भणिस्सिध,
भणिस्सिइत्था तृ.पु० भणिस्सिदि, भणिस्सिदे भणिस्सिति, भणिस्सिते,
भणिस्सिइरे
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हिइरे
( २५० ) तृपु० स्सइ) (ष्यति)
स्संति ) (ष्यन्ति) स्सति
स्संते (ष्यन्ते) स्सए ((ष्यते) स्सते. हिइ
हिंति हिति
हिते हिए हिते
मागधी रूप :-- प्र०पु० भणिश्शं, भणिश्शिमि, म०पु० भणिश्शिशि, भणिश्शिशे तृपु० भणिश्शिदि,भणिश्शिदे इत्यादि रूप मागधी भाषा के परिवर्तन
नियमानुसार होंगे। पैशाची रूप बनाने के लिए तृतीय पुरुष के एकवचन में केवल 'एव्य' प्रत्यय लगाना चाहिए। जैसे, हुव्-एय्य = हुवेय्य ( भविष्यति ); बाकी रूप शौरसेनी की तरह या प्राकृत की तरह होंगे। ( देखिये-हे० प्रा० व्या० ८।४।३२०) अपभ्रंश में भविष्यतकाल के प्रत्यय :
एकव. प्र.पु. सउं, स्सिङ, समि, स्सिमि सहुं, स्सिहुं
समो, स्सिमो समु, स्सिम
सम, स्सिम म०पु० सहि, स्सिहि
सहु, स्सिहु, सधु, सिधु ससि, स्सिसि
सह, स्सिह ससे, स्सिसे
सध, स्सिध सइत्था, स्सिइत्था
बहुव०
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सर्व पुरुष - सर्ववचनः ज्ज, ज्जा"
भविष्यत्काल के प्रत्यय लगाने से पूर्व धातु के अंग के अन्तिम 'अ' को 'ए' और 'इ' होते हैं ।
६
भण् + अ = भण + स्सामि = भणेस्सामि, भणिस्सामि इत्यादि ।
तृ०पु० सदि, सदे
स्सिदि,
स्सिदे
सई, सए
स्सिइ, स्सिए
म०पु० भणिसहि, भणेसहि
( २५१ )
अपभ्रंश में 'भण' धातु के रूप :
एकव ०
प्र०पु० भणिसउं, भणेसउं भणिस्सिउं, भणेस्सिउं भणिसमि, भणेसभि भणिसिमि, भणेसिमि
तृ०पु० भणिसदि, भणेसदि
सहि, संति
संते, सइरे
सिहि, स्सिति
रिसते, स्सिइरे
भणिसिहि, भणेस्सिहि
भणिससि, भणेससि, भणिस्सिसि, भणेस्सिसि भणिससे, भणेससे, भणिस्सिसे, भणेस्सिसे
भणिसदे, भणेस दे भणिस्सिदि, भणेस्सिदि
भणिस्सिदे, भणेस्सिदे
भणिसइ, भणेसइ, भणिसए, भणेस ए भणिस्सिइ, भणेस्सिए भणेस्सिइ, भणेस्सिए
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( २५२ ) भण ( भण) धातु ( = कहना, पढ़ना)
भविष्यत्काल में रूप :
एकव०
बहुव० प्र.पु०
भणिस्सामि, भणेस्सामि भणिस्सामो, भणेस्सामो भणिहामि, भणेहामि
भणिस्सामु', भणेस्सामु भणिहिमि, भणेहिमि
भणिस्साम', भणेस्साम भणिस्सं, भणेस्सं
भणिहामो, भणेहामो भणिहाम', भणेहामु भणिहाम', भणेहाम भणिहिमो, भणेहिमो भणिहिमु', भणेहिमु
भणिहिम', भणेहिम इसी प्रकार सब पुरुषों में बहुवचन के भी रूप होंगे। । प्राचीन गुजराती के भणेश, करेश, ( प्रथमपुरुष ) वगैरह रूप इन रूपों के साथ तुलनीय हैं । १. हे० प्रा० व्या० ८।३।१६७ । २. हे० प्रा० व्या० ८।३।१६७ । ३. हे० प्रा० व्या० ८।३।१६६ । ४. हे० प्रा० व्या० ८।३।१६६ । ५. हे० प्रा० व्या० ८।३।१७७ । ६. हे० प्रा० व्या.. ८।३।१५७ । १. बारहवें पाठ में भविष्यत्काल-प्रथमपुरुष के बहुवचन में जो ‘स्सामो',
'हामो' और 'हिमो' तीन प्रत्यय बताए है उनके अतिरिक्त 'स्सामु, स्साम, हामु, हाम , हिमु, हिम' आदि प्रत्यय भी उपलब्ध होते हैं । अतएव उन प्रत्ययों वाले रूप भी ऊपर बता दिये गये हैं।
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म०पु० भणिस्ससि, भणेस सि
भणिस्स से, भणेस्स से भणिहिसि भणेहिसि भणिहिसे, भणेहिसे
( २५३ )
तृ०पु० भणिस्सइ, भणेस्सइ
भणेस्सति
भणिस्सति, भणिस्सए, भणेस्सए
भणिस्सते, भणेस्सते
भणिहिइ,
भणेहिइ
भणिहिति, भणेहिति भणिहिए, भणेहिए भणिहिते, भणेहिते सर्वपुरुष सर्ववचन
"
भणेज्ज, भणेज्जा
भणिस्सह,
भणे सह
भणिस्सथ, भणेस्तथ
भणिहित्या, भणेहित्था भणिहि भणेहिह
१. अग्गि, अग्गिनि, गिनि ।
भणिस्संति, भणेस्संति
भणिस्संते,
भणे संते
भणिहिति भणेहिति
भणिहिते, भणेहिते भणिहिरे, भणेहिइरे
sarरान्त और उकारान्त शब्द
१
अग्गि अग्नि = अग्नि, आग, वह्नि ।
गणि ( गणित ) - गण - समूह की रक्षा - देख-भाल करनेवाला आचार्य ।
गिहि ( गृहिन् ) = गृहस्थ |
मणि ( मणि) = मणि ।
सव्वण्णु ( सर्वज्ञ ) = सर्वज्ञ, सब कुछ जाननेवाला ।
किसाणु ( कृशानु ) = अग्नि |
जण्डु ( जह्न ) = सगर के पुत्र का नाम ।
♡
भिक्खु ( भिक्षु ) = भिक्षु |
-दे० पा० प्र० पृ० ७ ।
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( २५४ ) उच्छु ( इक्षु ) = इक्षु-गन्ना, ईख, उख ( भोजपुरी में )। महेसि ( महा + ऋषि ) = महर्षि-व्यासादि महर्षि । मेहावि ( मेधाविन् ) = मेधावी, बुद्धिमान् । वणप्फइ, वणस्सइ ( वनस्पति ) = वनस्पति । करेणु ( करेणु ) = हाथी। कुंथु ( कुन्थु ) = 'कुंथुवा' इस नाम का कोई छोटा त्रीन्द्रिय जीव । रायरिसि ( राज + ऋषि = राजर्षि ) = राजर्षि-जनक आदि । जीवाउ ( जीवातु) = जीवन की औषध । कवि ( कवि ) = कवि, कविता रचनेवाला। कवि ( कपि )= कपि, बन्दर, वानर । चाइ ( त्यागिन् )= त्यागी । नमि ( नमि ) = 'नमि' इस नाम का एक राजर्षि । पाणि ( पाणि )=पाणि, हाथ, हस्त । पाणि (प्राणिन् )= प्राणी, जीव । बंभयारि ( ब्रह्मचारिन् )= ब्रह्मचारी । कमंडलु ( कमण्डलु ) = कमण्डलु । मंतु ( मन्तु ) = अपराध । जंबु ( जम्बु)=जामुन का वृक्ष । विडवि ( विटपिन् ) = शाखा-डाल वाला पेड़, वृक्ष । साणु ( सानु ) = शिखर।। बंधु ( बन्धु ) = बन्धु, भाई, सगा-सम्बन्धो । पोलु ( पीलु ) = पीलु का वृक्ष । ऊरु ( ऊरु ) = जंघा । पावासु ( प्रवासिन् ) = प्रवासी ।
विशेषण कयण्णु ( कृतज्ञ ) = कृतज्ञ, कदरदान, कदर करनेवाला ।
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( २५५ ) गुरु ( गुरु ) = गुरु-भारी, बड़ा । लहु ( लघु) = लघु, हलका, छोटा । मिउ ( मृदु) = मृदु, कोमल, नरम । दुहि ( दुःखिन् ) = दुःखी । दुग्गंधि ( दुर्गन्धिन् ) = दुर्गन्धवाला, दुर्गन्धित, दुर्गधि । चारु ( चारु ) = चारु, सुन्दर । सुहि ( सुखिन् ) = सुखो। साउ ( स्वादु ) = स्वादु, स्वादिष्ट । दिग्घाउ ( दीर्घायुष )= दीर्घायु, दीर्घ आयुष्य वाला। सुइ (शुचि ) = शुचि, पवित्र । सुगन्धि (सुगन्धिन् )= सुगन्धित, सुन्दर गन्ध वाला। बहु ( बहु )=बहुत । गामणि ( ग्रामणी ) = गाँव का मुखिया, ग्राम का अग्रणी-नेता।
सामान्य शब्द (पुल्लिंग) जर ( ज्वर )= ज्वर, बुखार, जर ( भोजपुरी में)। अंब ( आम्र )= आम । कोकिल, कोइल ( कोकिल ) कोयल, कोइल ( भोजपुरी में ) । तिल (तिल ) = तिल । वाणिज्जार ( वाणिज्यकार ) = वाणिज्यकार, व्यापारी, बनिजारा । कांबलिअ ( काम्बलिक )= कम्बलों को बेचनेवाला या ओढ़नेवाला। मोचिअ ( मौचिक ) = मोची, जूता सोने-बनाने वाला । कु बि ( कुटुंबिन् ) = कुटुम्बी । कोडुबिअ ( कौटुम्बिक ) = कुटुम्वी, राजा का काम-काज करनेवाला। साड ( शाट )- साड़ी, धोती। शाडय ( शाटक )= साड़ी, धोती।
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( २५६ ) सोरहिअ ( सोरभिक ) = सुगन्धित वस्तुएं-तैलादि बेचनेवाला । कस ( कश ) = चाबुक, कोड़ा। लोहार (लोहकार ) = लोहार। सोवण्णिय ( सौवणिक )= सुनार, सोनार । गंधिअ ( गान्धिक ) = गन्ध वाली वस्तुएँ बेचनेवाला, गंधी, गांधी। सुत्तहार ( सूत्रहार )= तरखान, नाटक का मुख्य पात्र, बढ़ई । तेलिअ ( तैलिक )= तेली, तेल बेचने वाला । मालिअ ( मालिक ) = माली, माला बेचने वाला। दोसिम (दौष्यिक ) = दोशी, दूष्य-- रेशमी वस्त्र बेचनेवाला। उण्हाण ( ऊष्णकाल ) = ग्रीष्म काल । सीआल ( शीतकाल ) = शीतकाल, ठंढ का समय । तंबोलिअ ( ताम्बूलिक ) = तंबोली, ताम्बुल-पान बेचने वाला। दण्ड (दण्ड ) - दण्ड; लाठी-लकड़ी या बांस का डण्डा । जोइसिअ ( ज्योतिषिक) = ज्योतिषी ( जोशी ) । साडवि, सालवि ( शाटविन् )= साड़ी बुननेवाला । मणिआर ( मणिकार ) = जौहरी, मणियार–कांच का सामान
बेचनेवाला, मनिहार । सामान्य शब्द (नपुंसकलिङ्ग) लोह ( लोह )= लोहा । वाणिज्ज ( वाणिज्य ) = व्यापार । तेल ( तैल ) = तेल। तंबोल ( ताबूल )= ताम्बूल, नागर वेल का पत्ता, पान (खानेवाला
पान )। मलोर ( मलयचीर ) = मलय देशका कोमल और बारीक वस्त्र । पगरक्ख ( पदकरक्ष ) = पगरखा, पैर की रक्षा करनेवाला जता
चप्पल आदि ।
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वत्थ ( वस्त्र ) = वस्त्र |
पट्टोल ( पट्टकूल ) = पटोल, वस्त्र-विशेष, पटोर ( भोजपुरी में ) । खित्त, खेत्त ( क्षेत्र ) = क्षेत्र, खेत ।
महिलानयर (मिथिला नगर ) = मिथिला नगरी । घरचोला ( घर में पहनने की गुजरात की धोती विशेष ) ।
घरचोल ( गृहचोल )
w
( २५७ )
पम्हपड ( पक्ष्मपट ) = पक्ष्म - बरौंनो के जैसा बारीक वस्त्र | कंटयरक्ख (कण्टकरक्ष) = कण्टकों - कांटों से रक्षा करनेवाला - जूता ।
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कंबल ( कम्बल ) = कम्बल |
चेल ( चेल ) = चेल, वस्त्र ।
बीअ ( बीज ) = बोज ।
जीवण ( जीवन ) = जीवन, जिन्दगी ।
पायताण ( पादत्राण ) = पादत्राण, जूता ।
वित्त, वेत्त ( वेत्र ) = बेंत, नेत्तर को लाठी ( बेंत ) ।
सुवण्ण (सुवर्ण) = सुवर्ण, सोना ।
रयय ( रजत ) = रजत,
मट्ठ ( मृष्ट )
१७
रूप्प ( रुक्म ) = रूपा,
चांदी |
रूप्प ( रौप्य ) = रूपा का, चाँदी का |
लोमपड ( लोमपट, रोमपट ) = रोओं का वस्त्र, लोई ।
पन्ह ( पक्ष्मन् ) = आँख को बरौंनी, पलक की कोर के बाल |
नेड्डु, णेड्डु ( नीड ) = नीड, निलय, घोंसला ।
सामान्य शब्द ( विशेषण )
घट्ट ( घृष्ट ) = घिसा हुआ, प्रमार्जित किया हुआ, कोमल और मुलायम किया हुआ ।
चाँदी |
माँजा हुआ, शुद्ध ।
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( २५८ ) अंतिम ( अन्तिक ) = अन्तिक, नजदीक, पास । चंड ( चण्ड) प्रचण्ड, क्रोधी। लहुअ, हलुअ ( लघुक )= लघु, हलका, छोटा । नाय ( ज्ञात ) = ज्ञात, प्रसिद्ध । अम्हारिस ( अस्मादृश) = हमारे जैसा । सचेलय ( सचेलक)= वस्त्र वाला, वस्त्रधारी । अचेलय, अएलय ( अचेलक ) = बिना वस्त्र का, नग्न, दिगम्बर ।
अव्यय
सव्वत्थ ( सर्वत्र ) = सर्वत्र, सब स्थानों में । मज्झे ( मध्ये ) = मध्य में, बीच में, में। जं ( यत् ) = जो। सक्खं ( साक्षात् ) = साक्षात् , प्रत्यक्ष । सययं ( सततम् ) = सतत, निरन्तर । अह ( अथ )=प्रारम्भ सूचक अव्यय, शुरू । मणा, मणयं ( मनाक् ) = थोड़ा, इषत्, न्यूनता सूचक । सइ ( सदा ) = सदा, हमेशा । अभिक्खणं ( अभिक्षणम् ) = क्षण-क्षण, बारंबार । अहुणा ( अधुना ) = अब, अभी ।
घातुएँ मुंज् ( युञ्ज )=जोड़ना, संयुक्त करना, सम्बन्धित करना । सोह ( शोध् ) = सोधना, शुद्ध करना । सिव्व (सीव्य ) = सीना । हण ( हन् ) = मारना । मन्न् ( मन् ) = मानना, स्वीकार करना ।
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( २५६ ) ओप्प ( अर्प) = पॉलिश करना, पानी चढ़ाना, चमक देना। पवस् ( प्र + वस् ) = प्रवास करना । उचिट्ठ ( उप + तिष्ठ ) = उपस्थित रहना, सेवा में हाज़िर रहना। ताव (ताप् )= तपना, तप्त करना । विक्के ( वि + क्री ) = बेचना, विक्रय करना। अप्प, ओप्प ( अर्पय् )= अर्पण करना, देना । पोल्, पीड् (पोड्) = पोड़ना, पोलना, पेरना। फल (फल )= फलना, फुलना। चित् (चिन्त् )= चिन्ता करना । वीसर् ( वि + स्मर )= विस्मरण करना, भूल जाना। संहर् ( सं + स्मर) = स्मरण करना, याद करना। खण् ( खन् )= खोदना । पाव ( प्र + आप )=प्राप्त करना, पाना । वक्खाण ( वि + आ + ख्यान )= व्याख्यान करना, विस्तार से कहना,
प्रसिद्धि प्राप्त करना। अणुसास् ( अनु + शास् ) = शिक्षा देना, समझाना । संबुज्झ ( सं + बुध्य )= समझना, बोध प्राप्त करना। वण ( वन )=बुनना। कूज् , कूअ ( कूज् )= कुहू कुहू करना, फॅजना ।
वाक्य (हिन्दी) कुम्हार का कुल भी उत्तम होगा। व्यापारी गाँव-गाँव में प्रवास करेगा और वस्तुएँ बेचेगा। बढ़ई लकड़ियां छोलेगा और तत्पश्चात् गढ़ेगा । गृहस्थ ब्राह्मणों और साधुओं को अन्न देंगे। श्रमण महावीर कुम्हार और मोचो को धर्म समझायेंगे।
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( २६० ) सुगन्धित वस्तुएँ बेचनेवाला सुगन्धित वस्तुओं की प्रशंसा करेगा। मोची मेरे लिए जूता सीयेगा । कुशल तैराक अपने दोनों हाथों से तालाब को तैरेगा ( पार करेगा )। कम्बल बेचनेवाले के शरीर के ऊपर कम्बल और लोई शोभेगी। ग्रीष्म के दिनों में आम के पेड़ पर कोयल कुहकह करेगी। गुरु विद्यार्थियों को उनका पाठ समझायेंगे। तेलो तिलों को पेरेंगे और तेल बेचेंगे। सुनार सोना और चाँदी के आभूषण गढ़ेगा और उनको साफ करेगा। लुहार लोहे को गढ़ेगा। नमि विद्यार्थियों और ऋषियों को मुद्ग ( मूंगी) देगा। साड़ियाँ बेचनेवाला पटोलां, मलीर और घरचोला वेचेगा। धर्म मेरे दुःखी जीवन का औषध बनेगा। मैं चन्द्रमा को पर्वत के शिखर पर से देखूगा । बन्दर आम के वृक्ष पर कूदेंगे। ग्रीष्म में सूर्य का तेज प्रचण्ड होगा। तमौली पान बेचेगा और हम खायेंगे। . आचार्य विद्यार्थियों के बीच शोभा पायेगा। यह आम का वृक्ष शीतकाल में फलेगा। तुम दोनों दयालु और कृतज्ञ होगे । ऋषि कमण्डलु से शोभते हैं। जो अपने भोगों को त्याग देंगे, लोग उनको त्यागी कहेंगे । सुनार मेरे आभूषणों पर पालिश करेगा। कितनी ही वनस्पतियाँ ग्रीष्म में फलेंगी उनको तू खायेगा। किसान खेत को बारंबार खोदेगा (जोतेगा या कोड़ेगा )। अब मैं पान खाऊँगा, वह अपना पाठ समझेगा और तुम पानी पीओगे।
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( २६१ )
वाक्य (प्राकृत) विज्जत्थी भिक्खू य सया गुरुं उवचिट्ठिस्सइ । गुरुणमंतिए सीसो उरुणा सह उरुं न जुंजिस्सइ । मिउं पि गुरुं सीसा चण्डं पकरंति । हत्थीसु एरावणं नायमाहु । मक्चू णरं णेइ हु अन्तकाले । रिसो रायरिसि इमं वयणमब्बवी । सम्वे साहुणो, गुरुणो अनुसासणं कल्लाणं मनिस्संति । 'अहं अचेलए सचेलए वा' इइ भिक्खू न चितिस्सइ । सव्वे जणा अंबस्स तरुं वक्खाणिस्संति । मज्झे मज्झे तुं बोल्लिस्ससि । तुमे नचिस्सह, सो य गाइस्सति । वाणिज्जारा अम्हे गामे गामे वाणिज्ज करेहामो वत्थूइं च विक्के हिमु । अम्हे लोहारा लोहं ताविस्सामु तस्स च सत्याणि घडेहिमो। माहणा पाणिणो पाणे न हणिस्संति । अह अम्हे समणं वा माहणं वा निमंतिस्सामो। सो सक्खं मूढो किमवि न सुंबुज्झिहिइ । तुमं वत्थं सिव्विस्ससि, अहं च पट्टोलं वणिस्सं । अहं सोवण्णिओ सुवण्णं सोहिहामि तस्स च आभरणाई घडिहिमि । आसी भिक्खू जिइन्दियो। दण्डेहि, वित्तेहि, कसेहि चेव अणारिया तं रिसिं तालयंति । ताहे सो कुलवतो समणं महावीरं अणुसासति, भणति य कुमारवर !
सउणी ताव अप्पणियं नेडु रक्खति । रायरिसिम्मि, नमिम्मि निवखंते मिहिलानयरे सव्वत्थ सोगो आसी।
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चौदहवाँ पाठ
भविष्यत्काल स्वरान्त धातु के भविष्यत्काल के रूप साधने के लिए तृतीय पाठ में केवल स्वरान्त धातु के लिए जो विशेष साधनिका बताई है उसी का उपयोग करना चाहिए।
अंगों की समझ विकरणविहीन विकरणयुक्त हो*
हो पाअ
ने हो, पा, ने का रूप ( उदाहरण ) प्र०पु० होस्सं होइस्स होएस्सं ,,, पास्सं पाइस्सं पाएस्सं ,, ,, नेस्सं नेइस्सं नेएस्सं
कुछ अनियमित रूप
कर भविष्यत्काल में 'कर' के बदले 'का' भी प्रयुक्त होता है और * पालि भाषा में 'हू (भू ) धातु के हू, हे, हो-ये तीन रूप होते हैं,
प्राकृत में 'हे' नहीं होता ( देखिए, पा० प्र० पृ० २०५ )। १. हे० प्रा० व्या० ८।४।२१४ ।
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( २६३ )
उसके सभी रूप स्वरान्त धातु के समान होते हैं । प्रथम पुरुष के एकवचन में' उसका 'काह' रूप भी होता है । जैसे—
तृ०पु० काहिइ, द्वि०पु० काहिसि, प्र०पु० काहिमि, 'काहें' इत्यादि ( पालि - काहिति, काहति - देखिए पा० प्र० पृ० २०६ । ) ।
दा
'दा' धातु के भविष्यत्काल सम्बन्धी सभी रूप स्वरान्त धातु की भाँति होते हैं । केवल प्रथमपुरुष के एकवचन में ' 'दाह' रूप अधिक बनता है । जैसे—
तृ०पु० दाहिइ, द्वि०पु० दाहिसि, प्र०पु० दाहिमि, 'दाहं' आदि ।
3
सोच्छ ( श्रोष्य ) = सुनना ।
१. हे० प्रा० व्या० ८|३ | १७० ।
२. हे० प्रा० व्या० ५।३।१७० | पालि-दस्सति । ददिस्सति, दज्जिस्सति इत्यादि 'दा' के रूप- पा० प्र० पृ० २०४ ।
३. हे० प्रा० व्या० ८।३।१७२ | पालि—
दिस ( दशू ) --
दक्खिति
दक्खिस्सति
दक्खति
परिसस्सति
सक ( शक् ) - सक्खिस्सति
चच
चक्खति
जा ( इया ) -
जस्सति
जानिस्सति
जि
जेस्सति
जिनिस्सति
की ( क्री ) -
केसति
किणिस्सति
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( २६४ ) रोच्छ ( रोत्स्य) = रोना । मोच्छ ( मोक्ष्य) = छोड़ना, मुक्त करना ।
मुच-- मोक्खति भुजभोक्खति वसवच्छति रुदरुच्छति रोदिस्सति लभलच्छति लभिस्सति गमगच्छिस्सति गमिस्सति छिदछेच्छति छिन्दिस्सति
सु (श्रु )सोस्सति सुणिस्सति गह ( ग्रह )गहिस्सति गहेस्सति गहिस्सति
इत्यादि। -देखिए पा० प्र० पृ० २०६-२०६ ।
रुन्धिस्सति जनजायिस्सति जनिस्सति
|
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( २६५ )
भोच्छ ( भोक्ष्य ) = भोजन करना, भोगना । वोच्छ ( वक्ष्य ) = कहना, बोलना । वेच्छ ( वेत्स्य ) = जानना, अनुभव करना । भेच्छ ( भेत्स्य ) = भेदना, टुकड़ा करना । छेच्छ ( छेत्स्य ) = छेदना | दच्छ ( द्रक्ष्य ) = देखना ।
गच्छ ( गंस्य ) = जाना, प्राप्त करना ।
केवल उपर्युक्त दस धातुओं में 'हि' आदि हिमो, हिम, हिइ आदि ) प्रत्यय लगाने से पूर्व उनके विकल्प से लुप्त हो जाता है । जैसे
――――
सोच्छ + हिमि = सोच्छिमि सोच्छेमि, सोच्छिहिमि, सोच्छे हिमि
आदि ।
इन दस धातुओं के प्रथम पुरुष एकवचन में अनुस्वार वाला एक रूप अधिक होता है । जैसे
सोच्छं, वेच्छं दच्छं ।
सोच्छिस्सं वेच्छिस्सं दच्छिस्सं आदि ।
शेष सबकी साधनिका 'भण' धातु के समान है ।
'सोच्छ' का रूप ( उदाहरण )
प्र० पु०
सोच्छं
सोच्छिस्सं
सोच्छे सं
म० पृ० सोच्छिसि
सोच्छि
केवल एकवचन में
सोच्छिमि
सोच्छेमि
सोच्छिहिमि
सोच्छे हिम
सोच्छेसि
सोच्छे से
सोच्छिस्सामि
सोच्छे सामि
सोच्छिहामि
सोच्छेहामि
सोच्छ हिसि सोच्छिहिसे
(हिमि, हिसि, आदि का 'हि
सोच्छे हिसि
सोच्छे हि
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( २६६ ) तृ० पु० सोच्छिइ सोच्छेइ सोच्छिहिइ सोच्छेहिइ
सोच्छिए सोच्छेए सोच्छिहिए सोच्छेहिए इत्यादि । आर्ष प्राकृत में उपलब्ध कुछ अन्य अनियमित रूप
( मोक्ष्यामः )-मोक्खामो । ( भविष्यति )-भविस्सइ ।। ( करिष्यति )-करिस्सइ । (चरिष्यति )-चरिस्सइ । (भविष्यामि)-भविस्सामि । (भू-भो + ष्यामि )-होक्खामि ।
अमु ( अदस् = यह ) शब्द के रूप ( पुल्लिंग)
एकव०
बहुव०
प्र.
अह' । (असौ)
अमुणो प्रमू
(अमी)
।
अम' असो
द्वि० अK (अमुम् ) अमुणो । अमून्
अमू । स० अयम्मि ) ( अमुष्मिन् ) अमूसु ! ( अमीषु )
इअम्मि अमुम्मि
. अमूसुं । शेष सभी रूप 'भाणु' शब्द की भाँति चलेंगे।
१. हे० प्रा० व्या० ८।३।८७ । २. हे० प्रा० व्या० ८।३।८८ । ३. सं. 'असो' रूप के अन्त्य 'औ' को 'ओ' करने से यह रूप बनता है। ४. हे० प्रा० व्या० ८।३।८९ ।
..
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( २६७ )
अमु ( अदस् = यह ) शब्द के रूप ( नपुंसकलिङ्ग)
एकव ०
अह, अमु ( अद: ) ( >
बहुव ०
अमूणि, अमूई, अमूइँ
до
द्वि०
19
""
"
73
शेष रूप 'अम्' शब्द की भांति होंगे ।
इकारान्त और उकारान्त शब्द (पुंल्लिङ्ग)
सारहि ( सारथि ) = सारथि, रथ चलानेवाला ।
वरदंसि ( वरदशिन् ) = श्रेष्ठ रीति से देखनेवाला । माराभिशंकि ( माराभिशंकिन् ) = मार - तृष्णा से शंकित - भयभीत रहनेवाला, दूर रहनेवाला ।
77
वाहि ( व्याधि ) = व्याधि, रोग | महासढि ( महाश्रद्धिन् ) = महती श्रद्धा वाला, तवस्सि ( तपस्विन् ) = तपस्वी |
( श्रमूनि )
(
>
ܙܕ
उवाहि ( उपाधि ) = उपाधि, प्रपञ्च, जञ्जाल । जन्तु ( जन्तु ) = जन्तु, प्राणी, जीव-जन्तु । जोगि ( योगिन् ) = योगो |
केसरि ( केसरिन् ) = केसरी, सिह ।
मंति ( मन्त्रिन् ) = मन्त्री |
चक्कवट्टि ( चक्रवर्तिन् ) = चक्रवर्ती, राजा ।
पवासि ( प्रवासिन् ) = प्रवास करने वाला, प्रवासी, पहु ( प्रभु ) प्रभु, प्रभावशाली, समर्थ 1
तंतु ( तन्तु ) = तन्तु, धागा ।
महातवस्ति ( महातपस्विन् ) = महातपस्वी ।
समत्तदसि (सम्यक्त्वदर्शिन् ) = सत्य को देखने, समझने और आचरण
करनेवाला |
""
अचल श्रद्धावान् ।
यात्री 1
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( २६८ )
पसु (पशु) = पशु । विहु (विधु ) = विधु, चन्द्र । वसु ( वसु )= वसु, धन, पवित्र मनुष्य । संभु ( शम्भु ) = शंभु, सुख का स्थान, महादेव । संकु ( शङ्क) = शंकु-कीला, खीला ।
सामान्य शब्द (पुल्लिङ्ग) मग ( मार्ग )= मार्ग, रास्ता । मार ( मार )= मारनेवालो-तृष्णा । दुस्सीस (दुझिशष्य )= दुष्ट शिष्य, दुष्ट विद्यार्थी । दुस्सिस्स . ववहारिअ ( व्यावहारिक )= व्यापारी । थेर ( स्थविर ) = स्थिर बुद्धि वाला, वयोवृद्ध सन्त । गग्ग ( गार्य )= गर्ग का पुत्र-गार्य-एक ऋषि । वेवाहिअ ( वैवाहिक ) = लड़के अथवा लड़की के ससुरालवाले । ववहार ( व्यवहार ) = व्यवहार । कंसआर, कंसार ( कांस्यकार ) = कसेरा, ठठेरा, बर्तन बेचनेवाला । लेहसालिअ ( लेखशालिक ) = पाठशाला में पढ़नेवाला विद्यार्थी। सुमिण, सिमिण, सुविण, सिविण ( स्वप्न )= स्वप्न । गणहर, गणधर ( गणधर ) = गणधर, गण-समूह की व्यवस्था करने
वाला आचार्य । अणागम, अनागम ( अन् + आगम ) = न आना, अनागम । कण्ण ( कर्ण) = कर्ण, कान । विराग (विराग ) = वैराग्य, अनासक्ति, उदासीन वृत्ति । विप्परियास ( विपर्यास )= विपर्यास, भ्रान्ति, विपरीतता । सढ ( शठ )=शठ, धूर्त ।
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( २६६ )
सामान्य शब्द ( नपुंसकलिङ्ग) रूप ( रूप ) = रूप-वस्तु-पदार्थ । कम्म ( कर्मन् ) = कर्म-पाप-पुण्य को प्रवृत्ति । जाण ( यान) = यान, वाहन, गाड़ो। मच्चुमुह ( मृत्युमुख )= मृत्यु-मुख, मौत का मुँह । जुम्म, जुग्ग (युग्म )= युग्म, जोड़ा, जुगल । छणपअ, छणपय (क्षणपद ) = हिंसा का स्थान । मरण ( मरण ) = मृत्यु, मौत । धम्मजाण (धर्मयान ) = धर्मरूपी वाहन । महब्भय ( महाभय )= महाभय । पुच्छ ( पुच्छ ) = पूँछ ।
विशेषण
तिम्म, तिग्ग ( तिग्म )= तीक्ष्ण, तेज । पुण्ण ( पुण्य ) = पुण्य, पवित्र काम । पंत (प्रान्त )= अन्त का, शेष, बचा हुआ । विब्भल, विहल ( विह्वल ) = विह्वल, घबराया हुआ। जोइअ, जोइय ( योजित ) = जुड़ा हुआ, जोड़ा हुआ : डज्झमाण ( दह्यमान )= जला हुआ। पुण्ण (पूर्ण) = पूर्ण, भरा हुआ, सम्पत्ति वाला। तुच्छ ( तुच्छ ) = तुच्छ, रंक, अधूरा । पन्नत्त ( प्रज्ञप्त), प्रज्ञप्त, बताया हुआ, कहा हुप्रा । लक्ख, लूह ( रुक्ष )= रूखा, बिना आसक्ति का। सीलभूअ ( शीलभूत ) = शीलभूत, सदाचाररूप, सदाचारी।
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( २७० )
अव्यय
इत्थं ( इत्थम् ) = इस प्रकार |
तु ( तु ) = तो ।
इह ( इह ) = यहाँ ।
दाणि, दाणि, इयाणि, इयाणि ( इदानीम् ) = अब इस समय,
आजकल ।
ईसि, ईसि ( ईषत् ) = ईषत्, थोड़ा, संकेतमात्र ।
एअं ( एतत् ) = यह ।
उप्पि, अवरि, उर्वार, उवरि ( उपरि )
धातुएँ
वि + हर् (वि + हर् ) = विहार करना, घूमना, पर्यटन करना ।
डस् ( दंश् ) = डसना, दंश मारना ।
प्र + गब्भ ( प्र + गल्भ ) = प्रगल्भ होना, शेखी मारना, बढ़-बढ़ कर बात करना ।
अपने
- देव की भाँति रहना, = अमर को अमर समझना ।
अइ + वाअ ( अति + पात ) = अतिपात करना, नाश करना । वि + सीअ (वि + षीद ) = विषाद पाना, खेद करना, खिन्न होना ।
अमराय, अमरा ( अमराय )
= ऊपर ।
कत्थ ( कत्थ ) = कहना |
फुट्ट ( स्फुट ) = स्फुट होना, खिलना ।
वि + चिन्त् (वि + चिन्त ) = चिन्तन करना, सोचना ।
विघ् ( विध्य ) = बोंधना, छेदना, भेदन करना ।
उ + क्कुद्द ( उत् + कूर्द ) = ऊँचा कूदना |
भज्ज्, भंज् ( भञ्ज )
=
= भाँगना, तोड़ना, फोड़ना ।
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( २७१ )
अव + सीअ ( अव + सोद ) = अवसाद पाना, खेद पाना । लिप्प् ( लिप्य ) = लेप करना ।
सं + जम् ( सं + यम ) = संयम करना |
पडि + कूल ( प्रति + कूल ) प्रतिकूल, विपरीत होना ।
सर् ( स्मर् ) = स्मरण करना ।
प + मुच्च ( प्र + मुच्य ) = प्रमुक्त होना, बिलकुल छूट जाना । सेव् ( सेव् ) = सेवन करना ।
विज्ज् ( विज्ज् ) = विद्यमान रहना, उपस्थित होना । हिंस् (हिंस् ) = हिंसा करना, जीव मारना | उव + इ ( उप + इ ) = पास जाना, प्राप्त करना ।
वाक्य ( हिन्दी )
पण्डितजन हर्षित नहीं होंगे और कोप भी नहीं करेंगे । हम दोनों आचार्य से इस प्रकार बारम्बार कहेंगे । यह विद्यार्थी बड़ाई नहीं करेगा अपितु संयम रखेगा । मैं यह सत्य कह दूँगा ।
गाड़ीवान बैलों को सम्भालेगा और गाड़ी में जोतेगा । तपस्वी योगो व्याधियों से नहीं डरेगा |
गार्ग्य मुनि गणधर बनेगा ।
वन का सिंह जंगली हाथी के मस्तक को छेदेगा ।
आचार्य पुर्ण और तुच्छ दोनों को धर्म कहेगा ।
'सभी को जीवन प्रिय है' ऐसा कौन अनुभव नहीं करेगा ?
दुष्ट शिष्य नहीं पढ़ेंगे अपितु निरंतर अपनी बड़ाई करेंगे और कूदेंगे ।
वाक्य ( प्राकृत )
समणे महावीरे जहा पुण्णस्स कत्थिहिइ तहा तुच्छस्स कत्थिहिए । धम्मं वेच्छं ।
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( २७२ ) सुवं भोच्छं। एगे डसइ पुच्छम्मि, एगे विधइ अभिक्खणं । दुक्खं महब्भयं ति वोच्छ । जिणस्स वयणाई कण्णेहिं सोच्छं । दाणं दाह, पुण्णं काहं ततो य दुक्खं छेच्छं । रूवेसु विरागं गच्छं । धम्मेण मरणाओ मोच्छं । जेहिं अहं विसीएस्सामि तेहिं कयावि सुविणे वि न रोच्छं । सोलभूओ मुणी जगे विहरिस्सइ । अह सो सारही विचितेहिइ। वीरो भडो जुद्धं काहिइ । रायगिरं गच्छं, महावीरं वंदिस्सं । गुरुणो सच्चमाहसु। अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ । तुमं किं किं पावं, पुण्णं च कासी । सढे उक्कुद्दिहिए पगब्भिस्सति य । तस्स मुहं दच्छं तेण य सुहं पाविस्सं । वीरे छणपएण ईसिमवि न लिपिहिइ । जं वोच्छं तं सोच्छिसे । नाऽणागमो मच्चुमुहस्स अस्थि । तवेण पावाई भेच्छं । महासीड्ढ अमरायइ।
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पन्द्रहवाँ पाठ
ऋकारान्त शब्द ऋकारान्त शब्दों ( नामों) के दो प्रकार हैं। उनमें कुछ ऋकारान्त शब्द सम्बम्धसूचक विशेष्यरूप हैं तथा कुछ केवल विशेषणरूप हैं। सम्बन्धसूचक विशेष्यरूप-जामातृ, पितृ, भ्रातृ आदि । केवल विशेषणरूप-कर्तृ, दातृ, भर्तृ आदि ।
ऋकारान्त ( सम्बन्धसूचक-विशेष्यरूप) शब्द १. प्रथमा और द्वितीया के एकवचन को छोड़कर सब विभक्तियों में सम्बन्धसूचक विशेष्यरूप ऋकारान्त शब्द के अन्त्य 'ऋ' को विकल्प से 'उ' होता है ( देखिए, हे० प्रा० व्या० ८।३।४४।)। जैसे-पितृ = पितु, पिउ । जामात-जामातु, जामाउ । भ्रातृ = भातु, भाउ । . २. सम्बन्धसूचक विशेष्यरूप ऋकारान्त शब्द के अन्त्य 'ऋ' को सब विभक्तियों में 'अर' होता है ( देखिए, हे० प्रा० व्या० ८।३।४७ )। जैसे-पितृ = पितर, पियर । जामातृ = जामातर, जामायर । भ्रातृ = भातर, भायर ।
३. केवल प्रथमा के एकवचन में उक्त शब्द के अन्त्य 'ऋ' को 'आ' विकल्प से होता है ( देखिए, हे० प्रा० व्या० ८।३।४८)। जैसे-पितृ = पिता, पिया। जामातृ = जामाता, जामाया । भ्रातृ-भाता, भाया।
४. केवल सम्बोधन के एकवचन में इन शब्दों ( नामों) के अन्त्य 'ऋ' को 'अ' और 'अरं' दोनों विकल्प से होते हैं। जैसे-पितृ = पित ! पितरं ! पितरो ! पितरा ! पिय ! पियरं ! पियरो ! पियरा !
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( २७४ )
जामातृ =जामात ! जामातरं ! जामातरो ! जामातरा!
जामाय ! जामायरं ! जामायरो ! जामायरा ! मातृ = मात ! मातरं ! मातरो! मातरा !
माय ! मायरं ! मायरो ! मायरा ।
ऋकारान्त विशेषण-सूचक सम्बन्धसूचक विशेष्यरूप ऋकारान्त शब्दों में पहला और तीसरा नियम लगता है, विशेषणरूप ऋकारान्त शब्द में भी वही लगता है। जैसेदातृ = दातु, दाउ, कर्तृ = कत्तु, भर्तृ = भत्तु इत्यादि प्रथम नियम के अनुसार।
दाता, दाया; कत्ता, भत्ता दूसरे नियम के अनुसार। २. विशेषणरूप ऋकारान्त शब्द के अन्त्य 'ऋ' को सभी विभक्तियों में
'आर' होता है ( देखिए हे० प्रा० व्या० ८।३।४५) । जैसे-दातृ =
दातार, दायार, कर्तृ = कत्तार, भर्तृ = भत्तार। ३. केवल सम्बोधन के एकवचन में विशेषणरूप ऋकारान्त शब्दों के 'ऋ'
को 'अ' विकल्प से होता है (देखिए हे० प्रा० व्या० ८।३।३९)। जैसेदातृ = दाय ! दायार ! दायारो ! दायारा ! कर्त= कत्त ! कत्तार ! कत्तारो ! कत्तारा ! भर्तृ= भत्त ! भत्तार ! भत्तारो ! भत्तारा !
उक्त दोनों प्रकार के ऋकारान्त शब्द उपर्युक्त साधनिका के अनुसार प्रथमा से सप्तमी पर्यन्त सभी विभक्तियों में अकारान्त और उकारान्त बनते हैं। अतः इसके अकारान्त अंग के रूप 'वीर' शब्द की भाँति और उकारान्त अंग के रूप 'भाणु' शब्द की भांति होंगे।
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( २७५ )
पिउ, पितु, पिअर, पितर ( पितृ - पिता) शब्द के रूप
एकवचन
प्र० पिअरो, पिआ (पिता)
पितरो
१. 'पितु' के रूप 'पिउ' के समान होंगे तथा 'पितर' के रूप 'पिअर' के
समान चलेंगे |
एकव ०
प्र०
पिता
द्वि० पितरं
तृ० पितरा,
पं०
ऋपितु शब्द के पालि भाषा में रूप
बहुव ०
पितरो
च० पितु, पितुनो,
पितुना (पित्या, पेत्या )
स०
सं०
पितुस्स
पितरा,
पितुना
ष० पितु, पितुंनो,
बहुवचन
पिअरा, पितरा ( पितरः )
पितुणो, पिउणो, पिअवो, पिअओ
पिअउ, पिऊ, पितृ
पितुस्स
पितरि
पित ! पिता !
पितरो, पितरे
पितरेहि, पितरेभि
पितृहि, पितृभि पितानं
पितरानं,
पितूनं पितुनं पितरेहि, पितरेभि
t
पितु हि पितृभि पितरानं, पितानं
2
>
पितूनं पितुन्नं पितरेसु, पितृसु पितुसु
पितरो !
- देखिए पा० प्र० पृ० ९४
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च०
( २७६ ) : द्वि० पिअरं,
पिअरे, पिअरा, पिउणो, पितरं ( पितरं ) पिउ ( पितॄन् ) पिअरेण, पिप्ररेणं, पिअरेहि, पिअरेहि, पिअरेहि पितरेण, पितरेणं पिऊहि, पिऊहिं, पिऊहिं पिउणा, पितुना
( पितृभिः ) (पित्रा) पिअरस्स,
पिअराण, पिअराणं पिउणो, पिउस्स
पिऊण, पिऊणं ( पितृभ्यः) (पित्रे) पं० पिअराओ,
पियराओ, पिअराउ पिअराउ
पिअराहि, पिअरेहि पिअरा,
पिअराहिंतो, पिअरेहितो पिउणो
पिअरासुंतो, पिअरेसुंतो पिऊओ, पिऊत
पिऊओ, पिऊउ ( पितृतः पितुः ) पिऊहितो पिअसुंतो
( पितृभ्यः, पितृतः) ष० पिअरस्स,
पिअराण, पिअराणं पिउणो, पिउस्स, पिऊण, पिऊणं ( पितणाम् )
(पितुः) स० पिअरंसि, पिअरम्मि, पिअरेसु, पिअरेसुं
पिअरे,
पिउंसि, पिउंम्मि (पितरि) पिऊसु, पिऊसुं ( पितृषु) सं० पिअरं! पिअ ! ( पितः) पिउणो ! पिअवो ! पिअओ !
पिअरो! पिअरा! पिअर! पिअउ, पिऊ
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( २७७ ) 'दाउ, दायार* (दात = दाता) शब्द के रूप (पुल्लिंग) प्र० दायारो, दातारो, दाया दायारा, दाउणो, दायवो, दायओ, ( दाता)
दाऊ ( दातारः) द्वि० दायारं
दायारे, दायारा, दातारं ( दातारम् ) दाउणो, दाऊ, ( दातन् ) तृ० दायारेण, दायारेणं, दायारेहि, दायारेहि, दायारेहिँ
दातारेण, दाउणा दाऊहि, दाऊहिं, दाऊहिँ
दातुणा ( दात्रा) ( दातृभिः ) च० दायारस्स
दायाराण, दायाराणं दाउणो, दाउस्स ( दात्रे) दाऊण, दाऊणं ( दातृभ्यः )
एकव.
'दातु शब्द के पालि रूप
बहुव० प्र०. दाता
दातारो द्वि० दातारं
दातारो, दातारे तृ० दातारा, दातुना
दातारेहि, दातारेभि च० दातु, दातुनो, दातुस्स दातारानं, दातानं, दातूनं पं. दातारा
दातारेहि, दातारेभि ष० दातु, दातुनो, दातुस्स दातारानं, दातानं, दातूनं स० दातरि
दातारेसु, दातूसु सं० दात, दाता!
दातारो!
-देखिए पा० प्र० पृ० ६६ __ * प्राकृत में 'दातार' शब्द के भी रूप 'दायार' के समान होते है तथा
'दातु' शब्द के भी रूप 'दाउ' के समान होते हैं।
,
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( २७८ )
पं० दायराओ, दायाराउ दायाराओ, दायाराउ दायरा
दायाराहि, दायारेहि दाऊणो, दाऊओ, दाऊउ दायाराहितो, दायारेहितो ( दातृतः दातुः) दायारासुंतो, दयारेसुंतो
दाऊणो, दाऊउ ( दातृतः )
दाउहितो, दाऊसुंतो (दातृभ्यः) ष० दायारस्स, दाउणो दायाराण, दायाराणं
दाउस्स ( दातुः) दाऊण, दाऊणं ( दातणाम् ) स० दायारंसि, दायारम्मि दायारेसु, दायारेसुं
दायारे ( दातरि )
दाउंसि, दाउम्मि दाऊसु, दाऊसुं ( दातृषु) सं० दायार ! दाय ! ( दातः) दायारा! ( दातारः) दायारो! दायारा! दाउणो, दायबो, दायओ
दायउ, दाऊ (पिआ, पिअरं आदि रूपों में 'आ' तथा 'अ' के स्थान में 'या' और 'य' भी उपलब्ध होता है । जैसे-पिआ, पिया, पिअरं, पियरं, पिअरे, पियरे इत्यादि ।)
सम्बन्धवाचक ऋकारान्त (पुंलिङ्ग) अंग भाउ, भायर ( भ्रातृ ) = भाई पिउ, पियर ( पितृ) = पिता जामाउ, जामायर (जामातृ)= जामाता
विशेषणवाचक ऋकारान्त (पुलिङ्ग) अंग दाउ, दायार (दातृ) = दाता, भत्तु, भत्तार (भर्तृ) = भर्ता-भरणदातारं
पोषण करनेवाला,
भरि कत्त, कत्र ( कर्तृ) = कर्ता, करनेवाला ।
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( २७६ )
ऋकारान्त (नपुंसकलिङ्ग) अंग
ऋकारान्त के 'कत्तार' इत्यादि आकारान्त अंग के रूप प्रथमा और द्वितीया विभक्तियों में 'कमल' की भाँति तथा 'कत्तु' आदि उकारान्त अंग के रूप केवल प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'महु' की भति होते हैं, शेष सम्बोधनसहित सभी रूप पुंल्लिङ्ग रूपों के समान समझें । जैसे-
अकारान्त अंग- दायार के रूप
प्र० दायारं
द्वि० दायारं
सं० दाय! दायार !
दायाराणि, दायाराई, दायाराइँ
दायाराणि
""
शेष सभी पुंलिङ्ग रूपों की भाँति होंगे । उकारान्त अंग एकवचन में प्रयुक्त भहीं होता ।
द्वि० सुपिअरं, सुपितरं सं० सुपिअरं ! सुपिअर ! सुपिअ !
33
( देखिए पाठ १५ वाँ, नि० १ )
प्र०-द्वि० } दाऊणि, दाऊई, दाऊइँ, दातृणि, दातू, दातूइँ (दातृणि)
33
अकारान्त अंग — सुपिअर ( = सुपितृ ) शब्द के रूप
-
प्र० सुपिअरं, सुपितरं
""
"
13
37
सुपिअराणि, सुपिअराई, सुपिअराई सुपितराणि, सुपितराई, सुपितराई
37
39
""
उकारान्त अंग - सुपिड ( = सुपितृ ) के रूप
प्र०-द्वि० ) सुपिऊणि, सुपिऊई, सुपिऊइँ, सुपितॄणि ( सुपित णि )
}
सं०
17
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( २८० ) सामान्य शब्द (पुलिङ्ग)
कुविख, कुच्छि ( कुक्षि ) = कुक्षि, कोख । वाणिअ ( वाणिज )= वैश्य, बनिया । धणि (धनिन् ) = धनपति, धनी । वहिणीवइ ( भगिनिपति ) = भगिनिपति, बहन का पति, जीजा,
बहनोई। आस ( अश्व ) = अश्व, घोड़ा । पोट्टिय (पृष्ठिक ) = पीठ ऊपर वहन करनेवाला महादेव का नन्दी। कवड्ड ( कपर्द) = कौड़ी। गड्डह, गद्दह ( गदंभ ) = गर्दभ, गधा । उट्ट ( उष्ट )= ऊँट । वच्छ ( वत्स )= वत्स, गाय का बछड़ा, बेटा । वच्छयर ( वत्सतर)= घोड़े का बच्चा, बछेड़ा । अंध, अंधल ( अन्ध ) = अन्धा । देवर ( देवर )= देवर । जेठू ( ज्येष्ठ )= ज्येष्ठ । रुक्ख (वृक्ष)-वृक्ष, रूख । अग्गि ( अग्नि )= अग्नि । रस्सि ( रश्मि ) = लगाम, रश्मि, सूर्य की किरण । झुणि (ध्वनि )= ध्वनि, आवाज़ । अच्चि (अचिस् )= अग्नि की ज्वाला । मरहट्ट ( महाराष्ट्र)= महाराष्ट्र, दक्षिण भारत का एक देश, मराठा। मरहट्ठीअ ( महाराष्ट्रीय ) = महाराष्ट्र का निवासी । मूअ ( मूक) = गूंगा। घोडअ ( घोडक ) = घोड़ा।
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( २८१ ) तुरंगम ( तुरंगम )= घोड़ा। अक्क ( अर्क )= सूर्य, आक का झाड़, अकवन । नग्ग ( नग्न )= नग्न, नंगा, बदमाश, निर्लज्ज । सुरट्ठ ( सुराष्ट्र) = सोरठ देश । सुरट्ठीअ, सोरट्ठोअ ( सुराष्ट्रीय )= सोरठ देश का निवासी। .
सामान्य शब्द (नपुंसकलिङ्ग)
अंसु ( अश्रु ) = आँसू । लोहिअ (लोहित ) = लाल, रक्त । सथिल्ल, सत्थि ( सक्थि ) = जंघा। तालु ( तालु) = तालु। दारु ( दारु )= लकड़ी। दुवार, बार ( द्वार ) = द्वार, दरवाजा । णडाल (ललाट ) ललाट, मस्तक । भाल ( मस्तक ) = भाल, ललाट, मस्तक । वरिस ( वर्ष )= वर्ष । दिण (दिन )= दिन । जोन्त्रण ( योवन )- यौवन । दोवेल्ल, दीवतेल्ल ( दोपतेल ) = दीपक जलाने का तेल । कोहल ( कूष्माण्ड )=पेठा । दहण ( दहन )= अग्नि । धन्न ( धान्य ) = धान्य। तेल्ल ( तैल) तेल। तंब = ( ताम्र )= ताम्बा, एक धातु । कंजिय ( काजिक )= कांजी।
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( २८२ )
संख्यासूचक विशेषण
पढम (प्रथम)= प्रथम, पहला । बिइय, बिइज्ज, दुइय, दुइज्ज (द्वितीय ) = द्वितीय, दूसरा । तइय, तइज्ज (तृतीय) = तृतीय, तीसरा । चउत्थ ( चतुर्थ )= चतुर्थ, चौथा । पञ्चम ( पञ्चम)= पाँचवाँ । छ? ( षष्ठ )= छठा। सत्तम ( सप्तम )= सातवाँ । अट्ठम ( अष्टम ) = आठवाँ । नवम ( नवम )= नवाँ। दसम ( दशम ) = दसवाँ । सवाय ( सपाद )= सवाया, सवा । दियड्ढ, दिवड्ढ ( द्वितीया ) = डेढ़, एक और आधा। अड्ढीय, अड्ढाइअ, अड्ढाइज्ज ( अर्धतृतीय )= ढाई, दो और आधा। अधुट्ठ ( अर्धचतुर्थ ) = ऊंठ, ऊंठा-साढ़े तीन, तीन और आधा। पाय (पाद) = पाव-चौथा भाग, चौथाई, चतुर्थांश । अद्ध, अड्ढ ( अर्ध )= अर्ध, आधा । पाऊण ( पादोन )= पौन, पोन भाग ।
अव्यय
अहव', अहवा ( अथवा )= अथवा । अवस्सं ( अवश्यम् )= अवश्य, जरूर ।
१. उपयोग--'एत्थ तुमं अहवा सो आगच्छउ' अर्थात् यहाँ तू अथवा
वह आवे ।
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( २८३ )
अत्थं ( अस्तम् ) = अस्त होना, छिपना, लोप होना । एगया ( एकदा )= एकदा, एक बार । कहि, कहिं ( कुत्र) = कहाँ। आम ( आम )= आम, 'हाँ' सूचक अव्यय । अंतो ( अंतर )= अभ्यन्तर, अन्दर । इओ ( इतः )= इससे, यहाँ से वाक्य, का आरम्भ । केवलं ( केवलम् ) = केवल, सिर्फ । तहि, तहिं ( तत्र ) = वहाँ ।
धातुएँ अच्चे ( अति + इ ) = अतीत, व्यतीत होना, पार पाना । पडि + वज्ज् ( प्रति + पद्य ) = पाना, स्वीकार करना । कोव ( कोप) = क्रोध करना, कराना । आ + गम् ( आ + गम् ) = आना । अहि +8 (अधि + स्था)= अधिष्ठान पाना, ऊपरी स्थान प्राप्त करना। एस् ( एष )= एषणा करना, शोधना। परि + व्वय् ( परि + व्वय् ) = परिव्रज्या लेना, बन्धनरहित होकर
चारो ओर पर्यटन करना। सं+प + आउण् (सम् + प्र + आप् + नु)= सम्यक् प्रकार से पाना। आ + यय् ( आ + दय) = आदान करना, ग्रहण करना। परि + देव ( परि + दिव) = खेद करना । वि+ हड्। (वि + घट )= बिगड़ना, छिन्न-भिन्न होना, नाश होना। वि+ घड्। प+क्खाल (प्र+क्षाल)-प्रक्षालन करना, धोना । सम् + आ = समा+रंभ ( सम् +आ+रम्भ )= समारम्भ करना,
मारना। णि + बिज्ज ( निर् + वेद् ) = निर्वेद पाना, विरक्त होना ।
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( १८४ )
वाक्य (हिन्दी) उनका गधा रंगा हुआ है। घोड़ा, बैल ( नंदो ) और ऊँट धान्य खायेंगे। हमारे बहनोई का लड़का प्रतिवर्ष धन पायेगा। तुम्हारे भाई ने अपने जामाता को सवाई भाग दिया। अढ़ाई वर्ष साढ़े तीन मास डेढ़ दिन में हम आयेंगे। तुम्हारा जामाता दिन-प्रतिदिन विरक्त होता जाता है इसलिए तुम्हारा कुटुम्ब खेद पाता है। वह पाँचवें अथवा आठवें दिन जायेगा। मुनि ने मृत्यु को पार किया । हम पिता जी को कुपित नहीं करेंगे। चौथे के अन्दर साढ़े तीन हैं । हम शब्द बोलेंगे। अग्नि को ज्वाला में तेल गिरेगा। सातवें वर्ष उस दाता ने सारा धन दे दिया ।
वाक्य ( प्राकृत ) सुरटीआ कोहं न काहिति । तुम्हें सोरट्ठोए धोडए बक्खाणेह । सोवपिणओ दहणंसि तंबं खिवित्था । भूओ केवलं कंजिरं पाहिइ । दुवारंसि कोहलं पडिहिइ । गड्डहो तुरंगमो य दोन्नि भायरा संति । दिणे दिणे तुमं आसं च पक्खालिस्सं । तेल्लेण दोवा दीहिति ।
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( २८५ >
सो तुज्झ भाया तस्स जामाऊहिं सह गच्छीअ । तस्स पिउणो भाउणो य जोव्वणं विघडीअ । मरहट्ठीआ लोहं चयंति ।
सत्तमंसि वरिसंसि आगमिस्सं ।
मम भाउणो भालं विसालमत्थि । तस्स छट्टो भायरो न परिव्वयिहिए । अहं बिइज्जे दिने दोवेल्लं पाएहिमि । मम बहीणीवई एगया धणं संपाउणित्था । पिअ ! मम वयणं न सुणिहिसि ?
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मो
सोलहवाँ पाठ
आज्ञार्थक प्रत्यय एकवचन
बहुवचन प्र०पु० मु म०पु० सु, हि (स्व, हि) ह (ध्वम् )
इज्जसु, इज्जहि, इज्जे तृपु० उ, तु (तु)
न्तु ( अन्तु ) पालि भाषा में आज्ञार्थक को 'पंचमी' के नाम से पहिचानते हैं । संस्कृत में श्री हेमचन्द्राचार्य ने भी यही नाम स्वीकार किये हैं परन्तु पाणिनीय व्याकरण में आज्ञार्थ को 'लोट् कहते हैं। पुरन्त प्राकृत में ये ही प्रत्यय आज्ञार्थ में तथा विध्यर्थ में समान रीति से उपयोग में आते हैं (देखिए हे० प्रा० व्या० ८।२।१७३ तथा १७६; हे० प्रा० व्या० ८।३।१७५) ।
बहुव०
* पालि में 'पंचमी' के प्रत्यय :
परस्मैपद एकवच० प्र.पु० मि म०पु० हि तृ०पु० तु
आत्मनेपद प्र०पु० ए म०पु० स्सु तृ०पु० तं
HN
अंतु
आमसे
अंतं
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( २८७ )
इच्छा - सूचन, विधि, निमन्त्रण, आमन्त्रण, अधीष्ट, संप्रश्न, प्रार्थना, प्रैष, अनुज्ञा, अवसर और अधीष्टि-इन अर्थों को सूचित करने के लिए विध्यर्थक और आज्ञार्थक प्रत्ययों का प्रयोग होता है । ये प्रयोग निम्नोक्त प्रकार से हैं
१. इच्छा सूचन — मैं चाहता हूँ वह भोजन करें
'इच्छामि स भुञ्जउ '
'भू' धातु के रूप
प्र०पु०
भवामि
म०पु० भव, भवाहि
तृ०पु० भवतु
'भू' धातु के रूप :
प्र०पु० भवे
म०पु० भवस्सु तृ०पु० भवतं
परस्मैपद
आत्मनेपद
'अस्' धातु के रूप :
प्र०पु० अस्मि, अम्हि म०पु० आहि
तृ०पु० अत्थु
भवाम
भवथ
भवंतु
-:
भवामसे
भवहो
भवंतं
अस्म, अम्ह
संतु
- देखिए पा० प्र० पृ० १६१, १६२ ।
शौरसेनी प्रत्यय की विशेषता
'तु' के स्थान में 'दु' का प्रयोग होता है । जैसे:-- जीव + दु = जीवदु; मर + दु = मरदु । अन्य सब प्रत्यय प्राकृत के समान हैं । परन्तु प्राकृत
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( २८८ ) २. विधि-किसी को प्रेरणा करना । जैसे-वह वस्त्र सीए 'सो वत्थं सिव्वउ'। ३. निमन्त्रण-प्रेरणा करने पर भी प्रवृत्ति न करने वाला-दोष का
प्रत्ययों में जहाँ 'ह' है वहाँ शौरसेनी में 'ध' कर देना चाहिए। जैसे'हसहि'-शौरसेनी हसधि; 'हमह'-शौरसेनी 'हसध' इत्यादि ।
अपभ्रंश भाषा के सब प्रत्यय शौरसेनी के समान हैं परन्तु मध्यम पुरुष के एकवचन में जो प्रत्यय अधिक हैं वे इस प्रकार है :
इ, उ, ए, सु। अपभ्रंश के रूप :एकव०
बहुव० प्र.पु. हरिसमु, हरिसामु, हरिसेमु हरिसमो, हरिसामो, हरिसेमो म.पु. हरिससु, हरिसेसु
हरिसह, हरिसहे हरिसिज्जसु, हरिसेज्जसु हरिसध, हरिसधे हरिसिज्जहि, हरिसेज्जेहि हरिसाहि, हरिसहि हरिसिज्जे, हरिसेज्जे
हरिस, हरिसि, हरिसु, हरिसे तृपु० हरिसदु, हरिसदे, हरिसउ, हरिसंतु, हरिसेंतु, हरिसिंतु
हरिसेउ प्राकृत के हरिसिज्जसु, हरिसिज्जहि, हरिसिज्जे प्रयोगों का मागधी रूप बनाने पर 'हरिस्' का 'हलिश्' हो जाएगा तथा इज्जसु, इज्जहि, इज्जे प्रत्यय का इय्यशु, इय्यधि, इय्ये-ऐसा परिवर्तन हो जाएगा ( देखिए पृ० ३४ तथा पृ० ६६ नि० ५ ) । प्राकृत रूपों में मागधी भाषा के नियमानुसार परिवर्तन करके सब रूप बना लें।
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( २८६ )
भागीदार हो ऐसी प्रेरणा-निमन्त्रण होता है। जैसे-दो बार सन्ध्या करो “दुवेलं संझं कुणउ"।
४. आमन्त्रण-प्रेरणा करने पर भी प्रवृत्ति करना या न करना उसकी इच्छा पर निर्भर रहे ऐसी प्रेरणा। यहां बैठो "एत्थ उवविसउ"।
५. अधीष्ट-मादर प्रेरणा-व्रत का पालन करो "वयं पालउ" ।
६. संप्रश्न-एक प्रकार की धारणा । जैसे-क्या मैं व्याकरण पढूँ अथवा आगम "किं अहं वागरणं पढामु उअ आगमं पढामु"।
७. प्रार्थना-याचना, प्रार्थना-मेरो प्रार्थना है मैं आगम पर्दू "पत्थणा मम आगमं पढामु" ।
८. प्रैष-तिरस्कारपूर्वक प्रेरणा-घड़ा बनाओ "घडं कुणउ"।
९. अनुज्ञा-नियुक्त करना-तुम को नियुक्त किया है, घड़ा बनाओ "भवं हि अणुन्नाओ घडं कुणउ"।
१०. अवसर-समय-तुम्हारे काम का समय हो गया है इसलिए घड़ा बनाओ "भवओ अवसरो घडं कुणउ" ।
११. अधीष्टि-सम्मानपूर्वक प्रेरणा-तुम पण्डित हो, व्रत की रक्षा करो "भवं पण्डिओ वयं रक्खउ"।
धातुएँ वज्ज ( वर्ज )= वर्जना, त्याग देना, निरोध करना । छिंद ( छिन्द् ) = छेदना, छिन्न करना, अलग करना । लभ ( लभ् ) = पाना, प्राप्त करना । गवेस् ( गवेषु ) = गवेषणा करना, शोधना, खोज करना । वि + किर , वि + इर ( वि + किर ) = बिखेरना, फैलाना, छिटना। वि + प + जह ( वि + प्र + जहा ) = त्याग करना, दूर करना । कुव्व् ( कुरु ) = करना, बनाना। पसस् , पास् ( दृश्-पश्य )= देखना।
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( २९० )
सं + जल् (सं + ज्वल ) = जलना, क्रोध करना ।
उव + आस ( उव + आस ) भा ( भी ) = डरना, भयभीत होना ।
खल् + ( स्खल् ) = स्खलित होना, अपने स्थान से भ्रष्ट होना ।
नि + धुण् ( निर् + धुना ) = झाड़ना, झपटना ।
"
वस् ( वस् ) = रहना, बसना ।
प + माय ( प्र + माद्य) = प्रमाद करना, आलस्य करना ।
= उपासना करना ।
वि + णस्स् (वि + नश्य ) = नष्ट होना, नाश होना, बिगड़ना । आ + लोट्ट ( आ + लुटय ) = आलोटना, लोटना । १. उपर्युक्त सभी प्रत्यय लगाने से पूर्व धातु
के अन्त्य 'अ' को 'ए' विकल्प से होता है। जैसे
के अकारान्त अंग
हस् + उ — हस् + अ +उ = हसेउ, हसउ हस् + मोहस् + अ + मो
हसेमो,
=
हसमो
( 'अ' विकरण के लिए देखिए पाठ १, नि० १ ) ।
२. प्रथम पुरुष के प्रत्यय लगाने से पूर्व धातु के अकारान्त अंग के अन्त्य 'अ' को 'आ' तथा 'इ' विकल्प से होती है । जैसे
―
हस् + मु - हस् + अ + सु = हसामु, हसिम, हसमु, 1
३. अकारान्त अंग में लगने वाले 'हि' प्रत्यय का प्रायः लोप' होता है और कहीं-कहीं इस अंग के अन्त्य 'अ' को 'आ' भी होता है । जैसे
हस् + अ + हि = हस, गच्छ् + अ + हि = गच्छाहि ।
४. कहीं-कहीं तृतीय पुरुष के एकवचन 'उ' अथवा 'तु' प्रत्यय
१. हे० प्रा० व्या० ८।३।१७५ ।
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(
२९१ )
लगने से पूर्व धातु के अंग अन्त्य 'अ' को 'आ' भी उपलब्ध होता है । जैसेसुण् + अ + उ = सुणाउ, सुणउ, सुणेउ । जिस धातु के अन्त में आ, इ वगैरह स्वर हों उसको इन्जसु, इज्जहि, और इज्जे प्रत्यय नहीं लगते । जैसेठा, री वगैरह धातु में ये प्रत्यय नहीं लगाते परन्तु जब विकरण 'अ' लगने से ठाअ, रीअ होगा तब उनमें ये प्रत्यय लगते हैं।
'हस' धातु के रूप एकवचन
बहुवचन प्र०पु० हसमु, हसामु
हसमो, हसामो हसिमु, हसेमु. हसिमो, हसेमो म०पु० हससु, हसेसु, हसेज्जसु हसह, हसेह
हसाहि, हसहि, हसेज्जहि
हसेज्जे, हस तृ०पु० हसउ, हसेउ हसंतु, हसेतु हसिंतु
हसतु, हसेतु सर्वपुरुष-सर्ववचन । हसेज्ज, हसेज्जा ( ज्ज, ज्जा के लिए देखिए
पाठ ३) १४वें पाठ में बताये हुए नियम के अनुसार प्रत्येक स्वरान्त धातु के विकरण वाले तथा बिना विकरण के अंग बनाने के लिए और तैयार हुए अंगों द्वारा प्रस्तुत विध्यर्थ तथा आज्ञार्थ के रूप साध लेना चाहिए। जैसे
हो (विकरणरहित रूप ) एकवचन प्र०पु० होम
होमो
बहुवचन
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प्र०पु० होअमु
आ
होइमु
होम
म०पु० होअसु
होएस
( २९२ )
होअ ( विकरणवाले रूप )
होएज्जसु
होआह
होह
होएज्जहि
होएज्जे
होअ
होमो
होमो
असंजम ( असंयम ) = असंयम | अप्प (आत्मन् ) आत्मा, स्वयं, आप | चित्त ( चित्र ) = एक सारथि का नाम । वोज्झ ( वह्य ) = भार, बोझा ।
भारय ( भारक ) = भार उठाने वाला ।
होइमो
होएमो
इस प्रकार 'हो' इत्यादि सभी स्वरान्त घातुओं के अंग बनाकर 'त्रिध्यर्थ' और 'आज्ञार्थ' सभी रूप साध लें ।
हो अह होएह
सामान्य शब्द (पुंलिङ्ग)
आयरिय ( आचार्य ) = आचार्य, धर्मगुरु, विद्यागुरु ।
पाण ( प्राण ) = प्राण 1
पाणि ( प्राणिन् ) = प्राणी, जीवधारी ।
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. २९३ ) हरिण ( हरिण ) = मृग, हिरण । दाडिम ( दाडिम) = अनार । तिल ( तिल )= तिल । छेअ ( छेद )=छिद्र, ( अन्त, सिरा)। बोक्कड ( बर्कर ) = बकरा । गब्भ ( गर्भ ) = गर्भ-मध्य भाग । पायय (पादक ) = पाया-नींव । वंसअ ( वंशक )= बांस, वंश, बाँसुरी ।
नपुंसकलिङ्ग सावज्ज ( सावद्य )=पाप प्रवृत्ति । सासुरय ( श्वाशुरक ) = ससुराल । निवाण ( निपान ) = जलाशय । विहाण ( विभान ) = प्रातः काल, प्रभात । अंडय ( अण्डक )= अण्डा । पल्लाण (पर्याण )=पलान । सल्ल ( शल्य )= शल्य। चउव्वट्टय (चतुर्वर्त्मक ) = चौक, चौरस्ता। चेण्ह ( चिह्न) = चिह्न। छिद्दय ( छिद्रक ) छिद्र, विवर । मोत्तिय ( मौक्तिक ) = मुक्ता, मोती। अमिअ ( अमृत )= अमृत । घय (घृत )= घी। लण्ह ( श्लक्ष्ण )= छोटा, सूक्ष्म । पोस (प्रोत )= पिरोया हुआ, प्रोत । पत्त ( प्राप्त )=प्राप्त ।
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( २९४ )
चउरंस, चउरस्स ( चतुरस्र )=चौरस, चतुष्कोण । नेहालु (स्नेहालु) = स्नेही, स्नेहवाला । छाहिल्ल, छायालु ( छायालु)= छाया वाला। जडालु ( जटाल )= जटा वाला, जटाधारी । रसाल, रसालु ( रसालु) = रसाल, रस वाला। रत्त ( रक्त ) = रक्त, लाल, रंगा हुआ। ठड्ढ ( स्तब्ध )= स्तब्ध, स्तम्भित, ठंढा । तिण्ह ( तीक्ष्ण )= तीक्ष्ण, तेज । अहिनव ( अभिनव ) = अभिनव, नया । उच्चिट्ठ ( उच्छिष्ट )= जूठा। तंस ( व्यस्र )= त्रिकोण ।
अव्यय णवर ( केवल )= केवल । णाणा ( नाना)= नाना प्रकार, विविध । बहिद्धा ( बहिर्धा )= बाहर । तहिं ( तत्र )= वहाँ । जहिं ( यत्र )= जहाँ। कहिं ( कुत्र ) = कहाँ।
वाक्य (हिन्दी) अण्डे को मत खाओ। वह पाप प्रवृत्ति न करे। हे चित्र ! जाओ और मृग को खोजो । मुनि असंयम से विरत रहे । तू चौक में जा और अनार ला ।
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( २९५ )
स्वयं अपने को खोज, बाहर मत घूम ।
उसके सभी शल्य नाश हो जायें ।
हे ब्राह्मण ! बकरे का होम न कर तिल का होम कर ।
सब जीवों के साथ प्रेम करो ।
प्राणी के प्राण मत हरो ।
घोड़े के ऊपर जीन रख ।
वाक्य ( प्राकृत )
सावज्जं वज्जउ मुणी । ण कोव आयरियं ।
न हण पाणिणो पाणे ।
संनिहि न कुण माहणो ।
संवुडो निक्षुणा पावस्स रजं ।
सव्वं गंथं कहलं च विप्पजहाहि भिक्खू !
कि नाम होज्ज तं कम्मयं जेणाहं णाणा दुक्खं न गच्छेज्जा ।
गच्छाहि गं तुमं चित्ता !
वित्तण ताणं न लहे पत्ते ।
उत्तमठ्ठे गवेसउ ।
वसामु गुरुकुले निच्चं ।
असंजमं णवरं न सेवेज्जा । भिक्खू न कमवि छिंदेह |
बालस्स बालत्त पस्स । बालाणं मरणं असइ भवेज्ज ।
सुयं अहिट्टिज्जा । गोयम ! समयं मा पमायउ ।
अवि एवं विणस्सउ अन्नपाणं । नय, णं दाहामु तुमं नियंठा ।
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सत्रहवाँ पाठ निम्नलिखित प्रत्यय भी विशेषतः विध्यर्थ के हैं। एकव०
बहुव० प्र.पु० जामि
ज्जामो म०पु० ज्जासि, ज्जसि
ज्जाह १. पालिभाषा में विध्यर्थ को सप्तमी कहते हैं और संस्कृत में भी
आचार्य हेमचन्द्र ने 'सप्तमी' नाम को स्वीकार किया है । पाणिनीय
व्याकरण में सप्तमी को विधिलिङ्कहते हैं। पालि में सप्तमी-विध्यर्थ-के प्रत्यय:
परस्मैपद एकव०
बहुव० प्र०पु० एय्यामि, ए
एय्याम म०पु० एय्यासि, ए
एय्याथ तृ०पु० एय्य, ए
एय्युं
आत्मनेपद प्र०पु० एय्यं, ए--
एय्याम्हे म०पु० एथो
एय्यव्हो तृ०पु० एथ
एरं 'अस्' धातु के विध्यर्थ रूपप्र०पु० अस्सं
अस्साम म०पु० अस्स
अस्सथ तृ०पु० अस्स, सिया
अस्सु, सियुं १६वें पाठ में अपभ्रंश के आज्ञार्थ प्रत्यय बताए हैं वही प्रत्यय विध्यर्थ में भी उपयोग में आते हैं और धातु के रूप भी वैसे ही होते है ( दे० पृ० २८८।)
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( २९७ ) तृपु० ज्जए, ए, एय, ज्ज, ज्जा, ज्ज, ज्जा सर्वपुरुष ) ज्जइ सर्ववचन)
'ज्ज' अथवा 'ज्जा' प्रत्ययों से पूर्व धातु के अन्त्य 'अ' को 'इ' और 'ए' होता है। जैसे
'हस्' धातु का रूप एकव०
बहुव० प्र०पु० हसिज्जामि, हसेज्जामि हसिज्जामो, हप्तेज्जामो म०पु० हसिज्जासि, हसेज्जासि, हसिज्जाह, हसेज्जाह
हसिज्जसि, हसेज्जसि तृ०पु० हसिज्जए
हसिज्ज, हसेज्ज हसे, हसेय,हसिज्ज, हसेज्ज हसिज्जा, हसेज्जा
हसिज्जा, हसेज्जा सर्वपुरुष । हसिज्जइ, हसेज्जइ सर्ववचन ।
'हो' धातु का विकरणवाला 'होम' रूप ( अंग ) बनता है और उसके रूप 'हस्' धातु के समान ही होते हैं। इसी प्रकार विकरणवाले सभी स्वरान्त धातु के रूप समझ लेने चाहिए । विकरण रहित 'हो' धातु के रूपप्र.पु. होज्जामि
होज्जामो म०पु० होज्जासि, होज्जसि होज्जाह तृ०पु० होज्जए, होए होज्ज, होज्जा
होएय, होज्ज, होज्जा सर्वपुरुष होज्जा, होएज्जइ) ( विकरणवाले) सर्ववचन । होइज्जइ.
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( २९८ ) आर्ष प्राकृत में प्रयुक्त कुछ अन्य अनियमित रूप- . (कुर्यात् , कुर्याः )-कुज्जा। (निदध्यात् )-निहे। ( अभितापयेत् )-अभितावे । ( अभिभाषेत )-अभिभासे । ( लभेत)-लहे। (स्यात् )-सिया, सिआ (आच्छिन्द्यात् )-अच्छे ( आभिन्द्यात् )-अब्भे (हन्यात् )-हणिया ।
यदि क्रियापद के साथ निम्नलिखित शब्दों का सम्बन्ध हो तो इस पाठ में बताये विध्यर्थ प्रत्ययों का प्रयोग हो सकता है । जैसे
उअ (अव्यय )-उअ कुज्जा = चाहता हूँ वह करे । अवि
अवि भुजिज्ज - खाय भी । श्रद्धा अथवा सम्भावना अर्थ वाले धातु का प्रयोग :सद्दह (धातु )-'सद्दहामि सो पाढं पढिज्ज'-श्रद्धा रखता हूँ वह पाठ पढ़े।
'सम्भावेमि तुमं न जुज्झिज्जसि'--सम्भावना करता हूँ तू नहीं लड़े।
'ज' के साथ कालवाचक कोई भी शब्द हो तो वहां विध्यर्थक प्रत्ययों का प्रयोग होता है । जैसे--
'कालो जं भणिज्जामि'--समय है मैं पहूँ। 'वेला जं गाएज्जसि'--समय है तू गा।
जहाँ एक क्रिया दूसरी क्रिया का कारण हो वहाँ भी इस पाठ में बताए विध्यर्थ प्रत्ययों का प्रयोग होता है । जैसे
'जई गुरुं उवासेय सत्थन्तं गच्छेय'--"यदि गुरु की उपासना करे तो शास्त्र का अन्त पावे"।
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( २९९ )
धातुएँ उव + णी ( उप+नी )--पास ले जाना । पच्च + प्पिण् ( प्रति + अर्पण प्रत्यर्पण)-वापिस देना, लोटाना,
अर्पण करना । पडि+नी, पडि + णी (प्रति + नी )-वापस देना, बदले में देना । वर् (वृ)-स्वीकार करना, वरदान लेना। वाव् ( वाप् )-बोना, वपन करवाना । तूर् ( त्वर )-जल्दी करना, त्वरा करना। सं+ दिस् ( सम् + दिश् )-संदेशा देना, सूचना करना। उव + दस् ( उप + दर्श)-दिखाना, पास जाकर बताना। अणु + जाण् , अनु + जाणा ( अनु + जाना)-अनुज्ञा देना, सम्मति
देना। सं+वड्ढ् (सम् + वध्)-संवर्धन करना, पोषण करना, सम्भालना। चिण (चिनु)-चुनना, इकठ्ठा करना।
क्रियातिपत्ति परस्पर सांकेतिक दो वाक्यों का जब एक संयुक्त वाक्य बना हो और दोनों क्रियाओं में कोई केवल सांकेतिक क्रिया जैसो अशक्य-सी प्रतीत होती
१. क्रियातिपत्ति को पालि में कालातिपत्ति कहते हैं। पालि में क्रियातिपत्ति के प्रत्यय इस प्रकार हैंपरस्मैपद
आत्मनेपद एकव० बहुव० एकव० बहुव० प्र०पु० स्सं स्सम्हा स्सं
स्साम्हसे म.पु० स्से
स्ससे तृ.पु. स्सा स्संसु स्सथ
स्सथ
स्सव्हे स्सिसु
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( ३०० ) हो तो वहाँ क्रियातिपत्ति का प्रयोग होता है। क्रियतिपत्ति याने क्रिया को अतिपत्ति-असंभवितता को ही सूचित करने के लिए क्रियातिपत्ति का उपयोग होता है।
प्रत्यय सर्वपुरुष ) न्तो, माणो, ज्ज, ज्जा। सर्ववचन ( देखिए हे० प्रा० व्या० ८।३।१७९ तथा १८०)।
पुल्लिंग उदाहरण एकवचन भण-भणंतो, भणमाणो हो-होअंतो, होअमाणो
होतो, होमाणो
बहुवचन भणंता, भणमाणा होता, होअमाणा
पालिमें 'अंभवि' तथा 'भवि' धातु के रूप :प्र०पु० अभविस्सं
अभविस्सम्हा, अभविस्सम्ह म०पु० अभविस्से, भविस्स अभविस्स, अभविस्सथ तृ०पु० अभविस्सा, अभविस्स अभविस्संसु, भविस्संसु
इसी प्रकार 'अभवि' अथवा 'भवि' धातु से आत्मनेपद के प्रत्ययों को लगाकर रूप बना लें।
शौरसेनी, मागधी तथा अपभ्रंश के रूप प्राकृत के समान होंगे। शौरसेनी में तथा मागधी वगैरह में :पुं० स्त्री०
नपुं० होन्दो होन्दी
होन्दं इत्यादि रूप होंगे। पैशाची में होन्तो होन्ती
होन्तं
इत्यादि रूप बनेंगे।
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.. ( ३०१ ) स्त्रीलिंग
नपुंसक भणतो, भणंता
भणंतं, भणमाणं भणमाणी, भमाणा
होतं, होतं होअंती, होता, होती, होता होअमाणं, होमाणं होअमाणी, होअमाणा, होमाणी, होमाणा भण्-भणेज्ज, भणेज्जा हो-होएज्ज, होएज्जा, होज्ज, होज्जा
स्त्रीलिंग में 'न्तो', 'न्ता' तथा माणी' और 'माणा' प्रत्यय लगाये जाते हैं। इस प्रकार के क्रियातिपत्ति के बहुवचनीय प्रयाग बहुत कम उपलब्ध होते हैं तथा प्रथमा विभक्ति में ही इनका प्रयोग होता है, अन्य विभक्तियों में नहीं।
वाक्य (हिन्दी) मुनि पाप को बरजे । आचार्य को कुपित मत करो। खेत में बीज बोओ। धार्मिक काम के लिए जल्दी कर । चाहता हूँ, वह धर्म के लिए धन का प्रयोग करे । पुत्र पढ़े तो पण्डित बने ( क्रियातिपत्ति ) । श्रद्धा रखता हूँ वह सत्य वचन बोले । समय है में धन इकट्ठा करूं। चाहता हूँ तू अच्छे काम के लिए सम्मति दे । गुरु के पास शिष्य को ले जा। तुझ को व्रत के लिए सूचित करूँ ?
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( ३०२ )
वाक्य ( प्राकृत )
वत्तेण ताणं न लभे पत्ते । वसे गुरुकुले निच्चं । उत्तम गवेसए ।
गोमा ! समयं मा पमायए । न कोवए आयरियं ।
संनिहि न कुव्विज्जा । संवुडो निधुणे पावस्स मलं । बालाणं मरणं असई भवे ।
सावज्जं वज्जए मुणी । दीवी होंतो तथा अंधयारो नस्संतो । सव्वं गंथं कलहं च विप्पजय भिक्खू । रावणो सोलं रक्खंतो तया रामो तं रक्खंतो ।
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अठारहवाँ पाठ अकारान्त, इकारान्त, ईकारान्त और ऊकारान्त शब्द
_( स्त्रीलिङ्ग) प्राकृत में आकारान्त शब्द ( नाम ) दो प्रकार के हैं। कुछ आकारान्त शब्दों का मूलरूप अकारान्त होता है, लेकिन स्त्रीलिंग के कारण आकारान्त हो जाता है। जबकि कुछ आकारान्त शब्दों का मूलरूप प्रकृति से आकारान्त नहीं होता, परन्तु व्याकरण के किसी विशेष नियम के कारण आकारान्त हो जाता है।
नीचे दोनों प्रकार के आकारान्त शब्दों के रूप दिए गए हैं । जो शब्द मूलतः अकारान्त नहीं है, उसका सम्बोधन का एकवचन प्रथमा विभक्ति जैसा ही होता है। लेकिन जो मूल से अकारान्त हैं उनके सम्बोधन के एकवचन में अन्त्य 'आ' को 'ए' हो जाता है ( देखिए, हे० प्रा० व्या० ८।३।४१)। इन दोनों प्रकार के शब्दों के रूपों में दूसरा कोई भेद नहीं है। जैसेननान्दृ नणंदा
हे नणंदा ! अप्सरस्
अच्छरसा हे अच्छरसा! सरिया
हे सरिया ! सरिआ
हे सरिआ ! वाच्
हे वाया ! माल माला
हे माले ! हे माला ! रम रमा
हे रमे ! हे रमा !
हे कान्ते ! हे कान्ता ! | देवत देवता
हे देवते ! हे देवता! | मेघ मेघा
हे मेहे ! हे मेधा !
सरित्
वाया
मल
कान्ता
अकारान्त कान्त
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( ३०४ ) *माला ( मूल अकारान्त ) शब्द के रूपएकवचन
वहुवचन प्र० माला = माला ( माला ) माला' + उ = मालाउ
माला + ओ = मालाओ
माला' = माला ( मालाः) द्वि० माला + म् = मालं (मालाम् ) माला + उ = मालाउ
माला + ओ-मालाओ
माला - माला ( मालाः) तृ० माला + अ = मालाअ माला + हिमालाहि(मालाभिः
माला +इ=मालाइ माला + हिं = मालाहिं माला + ए = मालाए (मालया) माला + हिँ = मालाहिँ
®पालि में माला के रूप
एकव० प्र० माला द्वि० मालं तृ०,च०, पं०,०, मालाय
बहुव० माला, मालायो
मालाहि, मालाभि ( तृ० ) मालानं (च० ष० ) मालाहि, मालाभि (पं० )
स०
मालासु
मालायं माले!
माला, मालायो !
१. हे० प्रा० व्या० ८।३।२७ । २. हे० प्रा० व्या० ८।३।३६ तथा
८।३।५। ३. हे० प्रा० व्या० ८।३।२९ ।
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( ३०५ )
च० माला + अ = मालाअ
माला + ण = मालाण
(मालाभ्यः) माला+इ= मालाइ
माला+णं = मालाणं माला + ए = मालाए (मालायै) 'माला + अ = माला (मालायाः ) माला+इ = मालाइ माला + ए = मालाए माला + हितो = मालाहिंतो माला + हिंतो = मालाहितो
- ( मालाभ्यः)
माला + सुतो = मालासुंतो ष० माला + अ = मालाअ
माला + ण = मालाण
( मालानाम् ) माला + इ = मालाइ (मालायाः) माला + णं = मालाणं माला + ए = मालाए
स० माला + अ =मालाअ (मालायाम्) माला+सु= मालासु माला+इ= मालाइ
माला + सुं = मालासुं माला + ए = मालाए
( मालासु)
सं० माला = माले ! (हे माले !)
माला = माला !
माला + उ = मालाउ ! माला+ओ = मालाओ! माला = माला ! ( मालाः)
१. पञ्चमी विभक्ति में अकारान्त शब्द में लगने वाले 'उ, ओ, तो और
तो' प्रत्यय यहाँ पर बताये सभी नामों में भी लगते हैं। जैसेमालाउ, मालाओ, मालातो, मालत्तो ।
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( ३०६ )
'वाया' ( वाक् ) मूल अकारान्त नहीं है ) शब्द के सभी रूप माला जैसे ही होते हैं । इसकी विशेषता केवल सम्बोधन में ही है । " हे वाया !" ऐसा एक ही रूप बनता है । 'वाये !' 'वाया !' ऐसे दो रूप नहीं ।
до
बुद्धी ( बुद्धि: )
द्वि० बुद्धि (बुद्धिम् )
तु० बुद्धीअ
*इकारान्त 'बुद्धि'
बुद्धीहि
बुद्धि + आ = बुद्धीआ (बुद्धया) बुद्धीहि, बुद्धीs, बुद्धीए
प्र०
द्वि०
तृ ०, च०,
"
पं०, प०,
स०
स०
सं०
शब्द के रूप
बुद्धि + उ = बुद्धीउ
बुद्धि + ओ = बुद्धीओ ( बुद्धयः ) बुद्धि = बुद्धी
* पालि में ह्रस्व इकारान्त रत्ति (रात्रि ) का रूप -
रत्ती, रत्तियो
रत्ति
रति
रतिया
रत्तियं
रत्ति !
बुद्धि + उ = बुद्धीउ
बुद्धि + ओ = बुद्धीओ बुद्धि = बुद्धी ( बुद्धी: )
१
बुद्धीहिं ( बुद्धिभिः )
""
रक्तीहि रत्तीभि ( तृ० पं० ) रत्तीनं ( च० ष० )
"
रत्तीसु
रत्ती, रतियो !
१. हे० प्रा० व्या० ८।३।२७ । २. हे० प्रा० व्या० ८१३१५ । ३. हे० प्रा० व्या० ८।३।२७ । ४. हे० प्रा० व्या० ८।३।२६ |
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________________
( ३०७ ) च० बुद्धीअ, बुद्धीआ
बुद्धीण, बुद्धीणं ( बुद्धिभ्यः) बुद्धीइ ( बुद्धय ) बुद्धीए (बुद्धये)
बुद्धीअ'
बुद्धीआ ( बुद्धयाः) बुद्धोइ बुद्धीए (बुद्धेः) बुद्धोहितो
बुद्धीहितो, बुद्धीसुतो (बुद्धिभ्यः) ष० बुद्धोअ, बुद्धीआ
बुद्धीण, बुद्धीणं (बुद्धीनाम् ) (बुद्धयाः) बुद्धीइ, बुद्धीए
(बुद्धेः) स० बुद्धीअ, बुद्धोआ
बुद्धीसु, बुद्धीसुं ( बुद्धिषु ) ( बुद्धयाम् )
बुद्धीइ, बुद्धीए ( बुद्धौ) सं० बुद्धी, बुद्धि ! ( बुद्धेः !) बुद्धोउ, बुद्धीओ, बुद्धी !
(बुद्धयः) ईकारान्त 'नदी' शब्द के रूप प्र. नदी ( नदी)
नदो + आ = नदीआर नदीउ, नदीओ
नदी, ( नद्यः) १. देखिए पृ० ३०५; टिप्पणी १-बुद्धीउ, बुद्धीओ, बुद्धित्तो। * पालि में दीर्घ ईकारान्त 'नदी' शब्द के रूपएकव०
बहुव० प्र० नदी
नदी, नदियो, नज्जो द्वि० नदि, नदियं
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( ३०८ ) द्वि० नदि ( नदोम् ) नदीआ, नदोउ
नदीओ, नदी ( नदीः) तृ० नदीअ', नदोआ नदीहि, नदीहिं, नदीहिँ ( नद्या)
( नदोभिः ) नदीइ, नदोए च० नदीअ, नदोआ नदीण, नदीणं ( नदीभ्यः )
नदोइ, नदीए
( नद्यै ) पं० नदी, नदोआ
नदोइ, नदीए, नदीहिंतो नदीहितो, नदीसुतो ( नदीभ्यः )
( नद्याः ) ष० नदीअ, नदीआ
नदोण, नदीणं ( नदीनाम् ) ( नद्याः ) नदीइ, नदीए
तृ०, च०, ) नदिया, नज्जा पं०, १०,
नदोहि, नदोभि ( तृ० पं०) नदीनं ( च० ष०)
स० नज्ज
नदीसू सं० नदि !
नदी, नदियो, नज्जो! २. हे० प्रा० व्या० ८।३।२८ । ३. हे० प्रा० व्या० ८।३।२७ । ४. हे० प्रा० व्या० ८।३।३६ तथा ८।३।५ । ५. हे० प्रा० व्या० ८।३।२६ । ६. देखिए पृ० ३०५ टिप्पण-१ नदीउ, नदोओ, नदित्तो।
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________________
स०
नदीआ
नदीअ, नदी, नदीए
( नद्याम् ) सं० नदि' ! ( नदि ! )
१
एकवचन
प्र० घेणू ( धेनुः )
3
द्वि० घेणुं ( धेनुम् )
तृ० घेणूअ घेण्आ
до
द्वि०
नदीआ, नदीउ
नदीओ, नदी ! ( नद्य:
उकारान्त 'घेणु' ( धेनु ) शब्द के रूप
3
१. हे० प्रा० व्या० ८३१४२ ।
1
घेणूड घेणू ( धेन्वा )
( ३०९ )
तृ०, च०
ष०
एकवचन
धेनु
नदीसु, नदीसुं ( नदीषु )
धेनुंं
धेनुया
बहुवचन घेणू, वेणूओ
घेणू ( धेनत्र : )
3
पालि में ह्रस्व उकारान्त 'धेनु' शब्द के रूप
ओ
1
धेणू ( धेनू : )
हि, हि
हिँ ( धेनुभि: )
बहुवचन धेनू, धेनुयो
>
स०
सं०
धेनु !
२. हे० प्रा० व्या० ८।३।२७ । ३ हे० प्रा० व्या० ८ ३३५ |
४. हे० प्रा० व्या० ८।३।२९ |
"
29
१
धेनूहि धेनूभि ( तु०पं० ) धेनूनं ( च० ० ) धेनूसु (स० ) धेनू, धेनुयो !
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________________
पं०
( ३१० ) च० घेणूअ, घेणूआ
घेणूण, घेणूणं ( धेनुभ्यः) घेणूइ, घेणूए (धेनवे, धेन्वै) घेणूअ, धेणूआ (धेन्वाः , धेनोः ) घेणइ, धेणूए घेणूउ', घेणूओ घेणुत्तो, धेहितो धेहितो, घेणुसुतो (धेनुभ्यः) धेणूअ, धेणूआ घेणूइ, (धेन्वाः, धेनोः) धेणूण, घेणूणं ( धेनूनाम् )
धेणूए स० घेणूत्र,
घेणूसु, धेणू सुं धेणूआ
(धेनुषु ) धेणूइ, धेणूए ( धेन्वाम् , धेनौ) सं० घेणू, घेणु (धेनो !) घेणूउ, घेणूओ, धेणू (धेनवः)
ऊकारान्त 'वहू' ( वधू ) शब्द के रूप* प्र० बहू (वधूः )
वहूउ, बहूओं वहू ( वध्व: )
१. देखिए पृ० ३०५ टि० १। २. हे० प्रा० व्या० ८।३।३८ । *पालि में दीर्घ ऊकारान्त 'वधू' के रूपएकवचन
बहुवचन वधू
वधू, वधुयो द्वि० वधू
प्र०
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________________
प०, ष०,
( ३११ ) द्वि० वडं ( वधूम् ) वहूउ, बहूओ', बहू (वधूः) तृ० वहू, वहूआ
वहूहि, वहूहिं वहूइ, वहूए
वहूहिँ, ( वधूभिः) च. वहू, वहूआ
वहूण, वहूणं ( वधूभ्यः ) वहूइ, वहूए ( वध्व) वहूअ, वहूआ वहूइ, वहूए वहूउ , बहूओ वहुत्तो, वहूहितो
वहूहितो, वहूसुंतो (वधूभ्यः) तृ०, च०, वधुया
वधूहि, वधूभि (तृ.) वधूनं (च००)
वधूसु (स०) सं० वधु !
वधू, वधुयो! पालि भाषा में इत्थी ( स्त्री ), मातु (मातृ), धोतु ( दुहित ), गावी (गो) वगैरह स्त्रीलिंगी शब्दों के विशेष रूप होते हैं ( देखिए पा० प्र०
पृ० १०५, १०८, ११०)।
'गो' शब्द को प्राकृत भाषा में 'गउ' तथा 'गाअ' जैसे दो रूप होते हैं ( हे० प्रा० व्या० ८।१।१५८ )। उसमें 'गउ' का पुंलिंग में 'भाणु' जैसे रूप होते हैं, स्त्रीलिंग में 'धेणु' जैसे रूप होंगे । 'गाअ' का पुंलिंग में 'वीर' जैसे रूप बनेंगे तथा स्त्रीलिंग में 'गा' का 'गाई' अथवा 'गाआ' परिवर्तन होगा, 'गाई' का नदो जैसे रूप समझे तथा 'गाआ' का 'माला' जैसे रूप बना लें। ३. हे० प्रा० व्या० ८।१।११। ४. हे० प्रा० व्या० ८।३।२७ । ५. हे० प्रा० व्या० ८।३।३६ तथा ५ । ६. हे० प्रा० व्या० ८।३।५। ७. हे० प्रा० व्या० ८।३।२६ । ८. देखिए प० ३०५ टि० १ ।
7.44
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वहूण, वहूणं ( वधूनान् )
वहूअ, बहूआ
वसु, बहुसुं ( वधूषु )
१
हू, बहू ( वध्वाम् ) 'वहु ! ( वधु ! )
सं०
बहूओ, वहुउ, बहू ! ( वध्वः
>
शब्द का अंग और प्रत्यय का अंश दोनों पृथक्-पृथक् करके बता दिये हैं तथा उससे साधित प्रत्येक रूप भी अलग-अलग बताये गये हैं ।
आकारान्त, इकारान्त, ईकारान्त, उकारान्त तथा उकारान्त स्त्रीलिंगवाचक शब्दों के सभी रूप एक जैसे हैं । उनमें भेद नहींवत् है । अतः मूल अंग और प्रत्ययों के विभाग को पद्धति एक हो स्थान पर समझा दी है ।
ष०
1
स०
( ३१२ )
बहूअ,
वहूआ
वहूइ, बहूए ( वध्वा: )
दीर्घ ईकारान्त शब्दों की प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में केवल एक “आ” प्रत्यय ही विशेष - नया प्रयुक्त होता है । आकारान्त को छोड़ उक्त सभी शब्दों को तृतीया से सप्तमी पर्यन्त एकवचन में 'आ' प्रत्यय अधिक लगता है । उक्त रूप हो इस परिवर्तन का साक्षी है ।
यद्यपि इन चारों प्रकार के शब्दों के सभी रूप एक समान हैं तथापि संस्कृत रूपों के साथ तुलना करने के लिए तथा विशेष स्पष्ट करने के लिए उनके सभी रूप ( कोष्ठक चिह्न में ) बता दिये हैं । इन रूपों से प्रचलित भाषा के रूपों की भी समानता का भान हो जाता है ।
१. 'तो' और 'म्' प्रत्ययों के सिवाय अन्य सभी प्रत्ययों के परे रहते शब्द के अंग का स्वर दीर्घ हो जाता है । जैसे'बुद्धिओ', 'घेणओ' ।
२. 'म्' प्रत्यय परे रहते अंग का पूर्व स्वर हस्व हो जाता है । जैसे- 'नदि', 'बहु' ।
३. जहाँ केवल मूल अंग का हीं प्रयोग करना हो वहाँ उसे दीर्घ करके प्रयुक्त करना चाहिए। जैसे- 'बुद्धी', 'घेणू' ।
१. हे० प्रा० व्या० ८।३।४२ ।
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( ३१३ ) ४. इकारान्त तथा उकारान्त के सम्बोधन के एकवचन में विकल्प से दीर्घ होता है । जैसे-'बुद्धि !' 'बुद्धी !' 'धेणु !' 'धेणू'!
५. ईकारान्त तथा ऊकारान्त के सम्बोधन के एकवचन में ह्रस्व होता है । जैसे—'नदि !' 'वहु !'
आकारान्त शब्द
सद्धा ( श्रद्धा )=श्रद्धा, विश्वास । मेहा ( मेधा )= मेधा-धारणा शक्तिवाली बुद्धि । पण्णा (प्रज्ञा )= प्रज्ञा-बुद्धि । सण्णा ( संज्ञा ) = संज्ञा, नाम । संझा ( सन्ध्या ) = सन्ध्या, सायंकाल । वंझा ( वन्ध्या)= वन्ध्या, अपत्यहीन । भुक्खा ( बुभुक्षा )= भूख । तिसा ( तृषा )= प्यास, लालच । तण्हा ( तृष्णा ) = तृष्णा । सुण्हा, ण्हुसा ( स्नुषा ) = स्नुषा-पुत्रवधू । पुच्छा ( पृच्छा )-प्रश्न । चिन्ता ( चिन्ता )= चिन्ता । आणा (आज्ञा )= आज्ञा । छुहा ( क्षुधा) = भूख । कउहा ( ककुभा )= दिशा । निसा (निशा )= निशा, रात्रि। दिसा (दिशा) = दिशा ।
१. हे० प्रा० व्या० ८।१११७ । २. हे० प्रा० व्या० ८।१।२१ । ३. हे० प्रा० व्या० ८।१।१६ ।
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( ३१४ नावा (नौका) = नौका, नाव । गउआ ( गोका ) = गाय । सलाया ( शलाका)= सलाई, शलाका । मट्टिया ( मृत्तिका ) = मिट्टी । मच्छिआ, मक्खिा ( मक्षिका)= मक्षिका, मवखो, मछलो । कलिआ (कलिका )= कली। विज्जुला ( विद्युत् )= बिजली । जिब्भा, जीहा ( जिह्वा ) = जिह्वा, जीभ । अच्छरसा' ( अप्सरस् )= अप्सरा । आसिसा ( आशिष् ) = आशीर्वाद । धूआ (दुहिता) = दुहिता, पुत्री, लड़की। नणंदा ( ननान्दृ) = ननन्द, पति को बहिन, ननद पिउच्छा', पिउसिआ ( पितृष्वसा) = फूआ, पिता की बहिन । माउच्छा ,माउसिआ ( मातृष्वसा)= मासी, मौसी, माता की बहन। बाहा (बाहु ) = बाहु, हाथ । माआ (मातृ)= माता, जननी । माअरा, मायरा ( मातृ ) = देवी, माता । ससा ( स्वसृ )= बहिन । वाया ( वाच ) = वाचा, वाणी । सरिआ , सरिया ( सरित् ) = सरिता, नदी । पाडिवा, पाडिवया ( प्रतिपदा)= प्रतिपदा, एकम ।
१. हे० प्रा० व्या० ८।१।२०। २. हे० प्रा० व्या० ८।३।३५ । ३. हे० प्रा० व्या० ८।२।१२६ । ४. हे० प्रा० व्या० ८।३।३५ । ५. हे० प्रा० व्या० ८।२।१४२ । ६. हे० प्रा० व्या० ८।१।३६ । ७. हे० प्रा० व्या० ८।३।४६ । ८. हे० प्रा० व्या० ८।१।१५ ।
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( ३१५ )
१
गिरा ( गिर् ) = गिरा, वाणी ।
१
पुरा ( पुर् ) = पुरी - नगर, नगरी ।
संपया, संप ( संपदा ) = सम्पत्ति |
चंदिआ, चंद्रिका ( चंद्रिका ) = चाँदनी, चन्द्रमा की ज्योति, चाँदी ।
चन्दिमा ( चन्द्रिका ) = चन्द्र की चांदनी ।
रच्छा ( रथ्या ) = रथ चलने योग्य मार्ग, गली, बाजार |
[ निर्देश - ' अच्छरसा' से लेकर 'संपआ' पर्यन्त शब्दों का मूल
आकारान्त नहीं है । इसका ध्यान विशेष रखें । ]
जुत्ति ( युक्ति) = युक्ति - योजना ।
|
रत्ति ( रात्रि ) = रात्रि, रात ।
माइ ( मातृ ) = माता | भूमि (भूमि) = भूमि, पृथ्वी ।
जुवइ ( युवति) = युवति, जवान स्त्री ।
धूलि ( धूलि ) = धूल ।
रइ ( रति ) = रति, प्रेम, राग ।
1
मइ ( मति ) = मति, बुद्धि । दिहि, धि ( घृति ) = धृति, धैर्य । सिप्पि ( शुक्ति) = सीप | सत्ति (शक्ति) = शक्ति, बल । सति ( स्मृति ) = स्मृति याद । दित्ति ( दीप्ति ) = दीप्ति - तेज |
पंति ( पक्ति ) क्ति, कतार, लाइन ।
थुइ ( स्तुति ) = स्तुति ।
कयली ( कदली ) = केला |
हे० प्रा० व्या० ८|१|१६|
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नारी ( नारी ) = नारी, स्त्री । रयणी ( रजनी ) = रात्रि | राई ( रात्री ) = रात्रि |
धाई ( धात्री ) = धात्री, धाया, दाई । कुमारी ( कुमारी ) = कुमारी, कुंवारी | तरुणी ( तरुणी ) = तरुण स्त्री | समणी ( श्रमणो ) = साध्वी । साहुवी, साहुणो = ( साध्वी ) साध्वी । तणुवी ( तन्वी ) = पतली स्त्रो | इत्थी, थी (स्त्री) स्त्री | कित्ति ( कोर्ति) = कीर्ति, यश । सिद्धि ( सिद्धि ) = सिद्धि | रिद्धि ( ऋद्धि) = ऋद्धि, संपत्ति । संति ( शान्ति ) = शान्ति |
कान्ति, तेज ।
कंति ( कान्ति ) खंति ( क्षान्ति ) कति ( कान्ति ) गउ ( गो ) = गाय |
( ३१६ )
= क्षमा ।
= इच्छा, अभिलाषा ।
कच्छु ( कच्छू ) = खुजली, खाज, रोग विशेष । विज्जु ( विद्युत् ) = बिजली |
उज्जु ( ऋजु ) = ऋजु, सरल |
माउ ( मातृ ) = माता ।
चोंच ।
दद्दु ( दद्रु ) = दाद, क्षुद्र कुष्ठरोग । चंचु ( चञ्चु ) गाई (गो) = गाय | वावी ( वापी) = वावली |
=
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(
३१७ )
बहिणी ( भगिनी ) = भगिनी, बहिन । वाराणसी, वाणारसी (वाराणसी) = वाराणसी, बनारस नगर । पिच्छी ( पृथ्वी)= पृथ्वी। पुहवी ( पृथ्वी ) = पृथ्वी । साडी ( शाटी ) = साड़ी। मित्तो ( मैत्री ) = मित्रता । अज्जू ( आर्या ) = सास । कणेरु ( करेणु )= हस्तिनी, हथिनी, मादा हाथी । कक्कंधू ( कर्कन्धू )=बेर । अलाऊ, लाऊ ( अलाबू ) = तुम्बड़ी, लौकी, लउकी । वहू ( वधू ) = वधू , वहू।
वाक्य (हिन्दी) उसकी जीह्वा पर अमृत है और तेरी जीह्वा पर गरल । उसकी सास मुझे आशीर्वाद देगी कि तुम्हारा कल्याण हो। गाय और हथिनो फूलों की माला से शोभेगी। कीर्ति और कार्य की सिद्धि के लिए प्रयत्न करो। जो विवेक नहीं जानता वह पशु है । हे भगिनि! तू इस ढंग से बैठ कि सलाई तेरी ननद की आँख को न लगे। आज प्रतिपदा है अतः ब्राह्मण नहीं पढ़ेंगे। पुत्र पढ़े तो पण्डित बने ( क्रियातिपत्ति )। ज्योतिषी ने कहा "अभी आकाश में बिजली चमकेगी।
वाक्य ( प्राकृत ) अच्चेइ कालो तुरंति राईओ वरेहि वरं । हे धूआ ! जहेब देवस्स वट्टिज्जासि तहेव पइणो वट्टिज्जासि ।
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( ३१८ )
खमह जं मए अवरद्धं । दीवो होतो तया अंधयारो नस्संतो। वच्च, देहि से संदेसं, मा रुयह । गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया । आहारमिच्छे मियमेसणिज्ज । समणो गिहाइं न कुन्विज्जा । खंति सेवेज्ज पंडिए। मिश्र कालेण भक्खए । तुम्हे गच्छंतो तया अम्हे गच्छमाणा । तओ तस्स मा माहि । उठेह, वच्चामो। अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबन्धं करेह । पवहणं जुत्तमेव उवणेहि । संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जं अम्हाणं कज्जं ।
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*
प्रत्यय
१
'अ, ए ( अ ) आव, आवे ( आपय ) ।
मूल धातु में 'अ', 'ए', 'आव' और 'आवे' प्रत्यय लगाने से प्रेरक अंग बनता है । जैसे
उन्नीसवाँ पाठ
प्रेरक प्रत्यय के भेद
पालिभाषा में प्राकृत के समान प्रेरक प्रत्यय लगाते हैं, विशेषता यह है कि 'आव' के स्थान में 'आप' तथा 'आवे' के स्थान में 'आपे प्रयय लगते हैं ।
पालि रूप
एकवचन
प्र०पु० कारेमि
म०पु० कारेसि
तृ०पु० कारेति
प्र०पु० कारयामि
म०पु० कारयसि
तृ०पु० कारयति
प्र०पु० कारापेमि
म०पु० कारापेसि
तृ०पु० कारापेति
अथवा
अथवा
बहुवचन
कारेम
कारेथ
कारेंति
कारयाम
कारयथ
कारयन्ति
कारापेम
कारापेथ
कारापैंति
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( ३२० ) कर् + अ = कार
कर् + आव = कराव कर् + ए = कारे
कर + आवे = करावे १. मूल धातु की उपधा के-उपान्त्य के-इकार को प्रायः 'ए' और उकार को 'ओ' हो जाता है ( देखिए हे० प्रा० व्या० ८।४।२३७)। जैसे
विस् + वेस् = वेसइ, वेसेइ, वेसावइ, वेसावेइ ।
दुह् +दोह = दोहइ, दोहेइ, दोहावहि, दोहावेइ । २. उपधा में गुरु या दीर्घ स्वर वाले धातु हों तो उसमें उपर्युक्त प्रत्ययों के अतिरिक्त 'अवि' प्रत्यय भी लगता है ( देखिए हे० प्रा० व्या० ८।३।१५०) । जैसे
चूम् + अ = चूसइ, चूसेइ, चूसावइ, चूसावेइ, चूसविइ ।
तूस्-तूसविअं, तोसि ( तोषितम् )। ३. 'अ' जऔर 'ए' प्रत्यय परे रहते धातु के उपान्त्य 'अ' को 'आ' होता है ( देखिए हे० प्रा० व्या० ८।३।१५३ ।)। जैसे
खम् खाम खामइ खम् खामे खामेइ
अथवा प्र०पु० कारापयामि
कारापयाम म०पु० कारापयसि
कारापयथ तृ.पु. कारापयति
कारापयंति गुह का गृहयति इत्यादि दुस का दूसयति ,, हन का घातयति, प्रा० घातेति
-देखिए पा० प्र० पृ० २२६-२२६ १. हे० प्रा० व्या० ८।३।१४६ ।
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७२
( ३२१ ) ४. केवल 'भम' धातु का प्रेरक अंग 'भमाड' (भम् + आड) बनता है ( देखिए हे० प्रा० व्या० ८।३।१५१ )। जैसेभम् + अ = भामइ,
भम् + ए = भामेइ भम् + आव-भमावइ भम् + आवे = भमावेइ
भम् + अड = भमाडइ, भमाडेइ ५. आर्ष प्राकृत में कहीं-कहीं प्रेरणासूचक 'अवे' प्रत्यय का प्रयोग भी उपलब्ध होता है। 'अवे' प्रत्यय परे रहते धातु के उपान्त्य 'अ' को 'आ' होता है। जैसे
कर् + अवे = कारवे ( कारापय )--कारवेइ ( कारापयति )
इस प्रकार धातु मात्र में प्रेरक अंग लगाकर उसके साथ अमुक काल और अमुक पुरुष-बोधक प्रत्यय लंगाने से उनके हर प्रकार के रूप तैयार होते हैं । इन रूपों को सिद्ध करने को प्रक्रिया पिछले पाठों में बताई गयी है तथापि यहाँ उदाहरण रूप से एक-एक रूप बता दिया गया है । प्रेरक अंग के वर्तमानकालिक रूपएकवचन
बहुवचन खाम-खाममि
खाममो, खामामो खामामि
खामिमो खामेमि
खामेमो खामे-खामेमि
खामेमो खमाव-खमावमि, खमावामि
खमावमो, खमावामो खमामि
खमाविमो, खमावेमो
इत्यादि। सर्वपुरुष ) खामेज्ज, खामेज्जा सर्ववचन खमावेज्ज, खमावेज्जा
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( ३२२ ) भूतकालिक रूपखामसी, खामही, खामहीम खामंसु, खामिसु, खामित्थ खामेसी, खामेही, खामेहोस खमावसी,खमावही, खमावहीम खमावंसु, खमाविसु, खमावित्थ खमावेसी, खमावेही, खमावेही ( ये सभी रूप सर्वपुरुष-सर्ववचन में प्रयुक्त होते हैं ।) भविष्यत्काल में केवल एकवचन के रूपखाम-खामिस्सं खामेस्सं
खामिस्सामि, खामेस्सामि
खामिहामि, खामेहामि खामे-खामेस्सं, खामेस्सामि, खामेहामि, खामेहिमि खमाव-खमाविस्सं, खमावेस्सं
खमाविस्सामि, खमावेस्सामि, खमाविहामि, खमावेहामि
खमाविहिमि, खमावेहिमि खमावे-खमावेस्सं, खमावेस्सामि
खमावेहामि, खमावेहिमि सर्वपुरुष) खाम-खामेज्ज, खामेज्जा सर्ववचन) खमाव-खमावेज्ज, खमावेज्जा।
आज्ञार्थ खाम-खममु, खामामु, खामिमु, खामेमु खामे-खामेसु, खामेहि, खामे खमाव-खमावउ, खमावतु खमावे-खमावेउ, खमावेतु .
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( ३२३ )
विध्यर्थ खाम-खामिज्जामि, खामेज्जामि खामे-खामेज्जसि, खामिज्जसि खमाव-खमाविज्जइ, खमावेज्जइ खमावे-खमावेज्जइ, खमाविज्जइ खाम-खामिज्जइ, खामेज्जइ ( सर्वपुरुष-सर्ववचन ) ।
क्रियातिपत्ति खाम-खामंतो, खातो, खामितो'
खाममाणो, खामेमाणो खामे-खातो, खामितो, खामेमाणो खमाव-खमावंतो, खमातो, खमावितो, खमावमाणो, खमावेमाणो खमावे-खमातो, खमावितो, खमावेमाणो
इस प्रकार प्रत्येक प्रेरक अंग में सब प्रकार के पुरुषबोधक प्रत्यय लगाकर उनके विविध रूप सिद्ध कर लेना चाहिए।
प्रेरक सह्यभेद तथा सब प्रकार के प्रेरक कृदन्त बनाने हों तब भी प्रेरक अंग में हो तत्तत् सह्यभेदी और कृदन्त के प्रत्यय जोड़ कर रूप सिद्ध करें। सह्यभेद आदि के प्रत्ययों की प्रक्रिया अगले पाठों में आनेवाली है।
धातुएँ उव + दंस ( उप + दर्शय )= दिखाना, पास जाकर बताना। आ + सार (आ+स्, सार ) = इधर-उधर फैलाना, ले जाना । अ+क्खोड् ( आ + क्षोद् ) = खोदना, काटना ।
अ+ल्लव ( उद्+लप) = बोलना। १. हे० प्रा० व्या० ८।३।३२ के अनुसार स्त्रीलिंग में 'खामंती',
खाममाणी रूप होते हैं।
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( ३२४
कील् ( क्रोड् ) = क्रीडा करना,
खेलना ।
छोल्ल् ( तक्ष् ) = छीलना, छोलना, लकड़ी आदि के ऊपरी अंश ( खुरदुरा अंश ) छीलना, चिकना करना ।
ताव् ( तापय् ) = तपाना |
झाम् ( दह् ) जलाना, दाह देना, दग्ध करना । किण् (क्री ) खरीदना ।
आ + ढा ( आ + दृ ) आदर करना, मानना । प + न्नव् ( प्र + ज्ञापय् ) प्रज्ञापित करना, बताना ।
प्रोच्चर, कथय् ) = कहना | = व्युच्चर्, कथय् ) = कहना |
सं + घ् ( कथ् ) कहना | पज्जर् ( प्र + उत् + चर् वज्जर् (वि + उत् + चर् : चव् ( वच् ) = कहना । जंप ( जल्प ) पिसुण् ( पिसुनय ) = चुगली करना, निन्दा करना ।
मुण् ( ज्ञा, मुण् ) = जानना |
पिज्ज् (पा) = पीना ।
उंघ् ( उद् + घ्रा, नि + द्रा ) = निद्रा लेना, ऊंघना, झपकी लेना, नींद में इस तरह साँस लेना कि नाक से घर-घर की ध्वनि हो ।
अब्भुत्त् ( अवभृथ ) = स्नान करना ।
उ + ठ्ठ ( उत् + स्था ) उठना ।
छाय, छाअ (छाद् ) = ढाँपना, ढकना, छिपाना ।
मेलव् ( मेलय् ) = मिलाना, एक में करना ।
जाव् ( याप् ) = व्यतीत करना, यापन करना ।
आ + भोय ( आ + भोगय् ) = ध्यानपूर्वक देखना, जानना । परि+णि + व्वा ( परि + निर् + वा ) = शान्त होना । अग्घ ( अर्घ ) = मूल्य करवाना ।
| = जल्पना, बकवास करना, बोलना, कहना ।
**
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( ३२५ )
दक्खव् ( दृश् ) = दिखाना, कहकर बताना ।
प+णाम् ( प्र + णाम् ) = देना, सेवा में अर्ज करना । ओ + ग्गाल् ( उद् + गार ) = उगलना, लोहा तथा सोना चांदी को प्रवाही करना - ओगालना । आ + रोव् ( आ + रोप ) = आरोपित करना । मर, मल् ( स्मर् ) = स्मरण करना । चय् ( शक् ) = शकना, खाना ।
जीह ( जिही ) = लज्जित करना ।
अण्ह ( अश्ना ) = अशन करना, भोजन करना, खाना ।
= आरम्भ करना ।
आ + ढव् ( आ + रभू ) चुक्क् ( च्युतक ) = चूकना, भ्रष्ट होना । पुलो, पुलम ( प्र + लोक् ) प्रलोकना, देखना | पुलआम ( पुलकाय ) = पुलकित होना । वलग्ग ( विलग्न ) = चिपक जाना, लिपट जाना । प + क्खाल् ( प + क्षाल् ) = प्रक्षालन करना, धोना । सिह, ( स्पृह ) = चाहना, स्पृहा करना ।
प+ ट्ठव् ( प्र + स्था प् ) = प्रस्थान करवाना,
भेजना |
वि + ण्णव (वि + ज्ञप् ) = विज्ञापन करना, आज्ञा देना ।
अल्लिव ( अर्पय् ) = अर्पण करना ।
ओम्वाल् ( उत् + प्लाव ) = प्लावित करना ।
गोल ( रोमन्थय्, वि + उद् + गार ) = व्युद्गार, जुगाली करना । परि + आल् ( परि + वार् ) = परिवृत्त करना, लपेटना ।
पयल्ल ( प्र + सर ) = फैलना |
नी + हर् (निर् + सर् ) = निकलना ।
समार् ( सम् + आ + रच् ) सूड्, सूर् ( षूद् ) = सूदना, नाश करना ।
सँवारना, शुद्ध करना ।
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( ३२६ >
गढ ( घट ) = गढ़ना ।
जम्भा ( जृम्भ ) = जंभाई या उबासी लेना ।
तुवर् (त्वर् ) = त्वरा करना, जल्दी करना । पेच्छ् ( प्र + ईक्ष ) = देखना |
चोप्पड् (
क्ष् ) = चोपड़ना, घी, तेल वगैरह लगाना ।
( अभि + लष ) = अभिलाषा करना, इच्छा करना ।
अहि + लेख अहि + लंघ
चड् ( चट् ) = चढ़ना, वृक्ष पर चढ़ना, ऊपर चढ़ना |
नि + क्खा } ( नि + क्षाल् ) = निखारना, साफ करना, कपड़े आदि
+ क्वार्
धोना
वि + च्छल् (वि + क्षल ) = धोना ।
सामान्य शब्द (पुंल्लिङ्ग )
खग्ग ( खड्ग ) = खड्ग, तलवार । उप्पा ( उत्पाद ) = उत्पादन, उत्पत्ति | रस्सि ( रश्मि ) = घोड़े की लगाम । मुइंग, मिइंग ( मृदङ्ग ) = मृदंग विचुअ ( वृश्चिक ) = बिच्छू । भिंग (भृङ्ग ) = भृंग, भ्रमर । सिंगार ( शृङ्गार ) = श्रृंगार |
=
निव (नृप ) = नृप, राजा ।
छप्पअ, छप्पय ( षट्पद ) = भ्रमर, भँवरा ।
जामाउअ ( जामातृक ) जामाता, लड़की का पति ।
मग्गु ( मद्गु ) = एक प्रकार की मछली ।
सज्ज ( षड्ज) = षड्ज - स्वर विशेष, संगीत के सात स्वरों में एक
स्वर ।
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( ३२७ ) इसि (ऋषि): ऋषि । तव ( स्तव ) = स्तुति, स्तवन । नेह ( स्नेह )=स्नेह, प्रीति । सर (स्मर)= स्मर, कामदेव । पाउस (प्रावृष)-वर्षा ऋतु, बरसात । वुत्तंत ( वृत्तान्त )= वृत्तान्त, समाचार । नत्तुअ, नत्तिअ ( नप्तृक )= नप्तृक, नाती, लड़की का लड़का। वुड्ढ ( वृद्ध ) = वृद्ध, बूढ़ा व्यक्ति । कंद ( स्कन्द )= स्कन्द, कार्तिकेय । हरिबंद ( हरिश्चन्द ) = हरिश्चन्द्र राजा ।
नपुंसकलिङ्ग दुद्ध ( दुग्ध)= दूध । सित्थ (सिक्थ ) = एक कण मात्र ।
आमलय ( आमलक ) = आँवला । बिबय (बिम्बक )= प्रतिबिंब । कुंडलय ( कुण्डलक) = कुण्डल । उप्पल ( उत्पल ) = उत्पल, कमल । मसाण ( श्मशान )= श्मशान, मसान । अहिन्नाण ( अभिज्ञान )= अभिज्ञान, निशानी, वह चिन्ह जिसे
देखकर पूर्व की घटना का स्मरण होना, स्मृति-चिन्ह । चम्म (चर्मन् )= चमड़ा, चाम । पुट्ठय (पृष्ठक ) = पीठ अथवा पूठा ।
स्त्रीलिंग गोट्ठी ( गोष्ठो ) = गोष्ठी । विठ्ठि, वेट्ठि (विष्टि) = बेगार उतारना, अभिरुचि से काम न करना।
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( ३२८ ) धत्ती (धात्री) = धात्री, धाय । किवा ( कृपा) = कृपा। घिणा ( घृणा)= घृणा। सामा (श्यामा)= श्यामा नायिका, युवती स्त्री । गोरी ( गौरी ) = गौरी, पार्वती, गोरी स्त्री। रेखा, रेहा, लेहा ( रेखा ) 3 रेखा-लकीर । किया ( क्रिया ) = क्रिया-विधि-विधान । किसरा ( कृसरा ) = खिचड़ी। समिद्धि ( समृद्धि )= समृद्धि ।
विशेषण मुत्त ( मुक्त) = मुक्त, स्वतन्त्र, बंधनहीन । सत्त (शक्त )= शक्त, समर्थ, शक्तिमान् । भुत्त ( भुक्त ) = भुक्त-उपभुक्त । नग्ग ( नग्न )= नग्न, नंगा । निठुर ( निष्ठुर )= निष्ठुर, कठोर, निर्दयो। छ8 (षष्ठ) = छठा। सत्त ( सक्त )= सक्त, आसक्त । किलिन्न ( क्लुन्न ) = भीगा हुआ, आर्द्र । निच्चल ( निश्चल ) = निश्चल । गुत्त (गुप्त)= गुप्त, सुरक्षित । सुत्त ( सुप्त ) = सोया हुआ। मुद्ध ( मुग्ध )= मुग्ध ।
वाक्य (हिन्दी) दुर्जन पुरुष स्त्री को भ्रष्ट करवाता है। माता ने बालक को स्नान करवाया।
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( ३२९ ) नौकर बच्चों को खेलायेंगे । बढ़ई लकड़ी को छीलते तो चिकनी होती। राजा ने घी खरीदवाया। गोपाल पशु को पानी पिलाए । भाई बहिन को ससुराल भेजता है । माता पुत्री के लिए आभूषण गढ़वायेगी। वह अच्छे-अच्छे कार्यों से कीति फैलाता है। सेठ चौमासा ( चतुर्मास ) के पहले घर को साफ करवायेंगे।
वाक्य (प्राकृत) सेट्ठी सरीरम्मि तेल्लं चोप्पडावइ । निवो कुमारं हथिम्मि चडाविहिइ । भिच्चो भिक्खूणं दाणं अल्लिवावसी । इत्थोओ वेज्जस्स सरीरं देक्खावंति । माया पुत्तं मिट्ठे किसरं अण्हावेदिइ । नणंदा पुत्ति उंघावंती' तया पुत्ती न रुवंती। विज्जत्थी अन्नं विज्जत्थि विहाणम्मि उद्रावेइ । गुरू सीसं पणामावइ । महावोरो गोयमं सरावइ । गोयमो लोगे धम्म सुणावइ ।
१. क्रियातिपत्ति का स्त्रीलिङ्गी रूप है।
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बीसहाँ पाठ भावे तथा कर्मणि-प्रयोग के प्रत्यय -
ईअ, ईय, इज्ज ( य )-( देखिए हे० प्रा० व्या० ८।३।१६० ) । * पालिभाषा में भावे तथा कर्माण प्रयोग के प्रत्यय इस प्रकार हैं
य, इय, ईय। इन प्रत्ययों के लगने के बाद 'ति' 'ते' आदि पुरुषबोधक प्रत्यय लगाने से निम्नोक्त रूप बनते हैं। 'य' लगाने के बाद अक्षरपरिवर्तन के नियमानुसार 'य' का लोप होता है और शेष व्यंजन का द्विर्भाव होता है। तुस्-तुस्यते -तुस्सते, तुसियति पुच्छ्-पुच्छ्यते-पुच्छते, पुच्छियति मह-महीयति मथ्-मथोयति-देखिए पा० प्र० पू० २३४ । पैशाची भाषा में कर्म में तथा भाव में 'इय्य' प्रत्यय लगता है।
-देखिए हे० प्रा० व्या० ८।४।३१५ । गा+ इय्य+ ते % गिय्यते ( गीयते)। दा+ इय्य + ते = दिय्यते ( दीयते )। रम् + इय्य + ते = रमिय्यते ( रम्यते )।
पठ + इय्य + ते = पठिय्यते ( पठ्यते )। मात्र 'कृ' धातु को 'ईर' प्रत्यय लगता है
कृ + ईर + ते= कोरते । कृ + ईर + माणो=कीरमाणो ।
-देखिए हे० प्रा० व्या० ८।३१६ ।
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( ३३१ ) किसी भी धातु का भावप्रधान अथवा कर्म-प्रधान अंग बनाना हो तो उसके साथ 'ई', 'ईय' और 'इज्ज' इन तीन प्रत्ययों में से कोई एक प्रत्यय लगाना चाहिए।
ये तीनों प्रत्यय केवल वर्तमानकाल, विध्यर्थ, आज्ञार्थ और ह्यस्तनभूतकाल में ही प्रयुक्त हो सकते हैं । अतः भविष्यत्काल तथा क्रियातिपत्ति आदि अर्थ में भावे और कर्मणि प्रयोग, कर्तरि-प्रयोग की भांति ही समझने चाहिए।
भाव-याने क्रिया, जो प्रयोग मुख्यत: क्रिया को ही बताता है वह भावेप्रयोग होता है।
भावप्रयोग अकर्मक धातुओं से बनता है। हिन्दी व्याकरण में 'रोना, पैदा होना, सोना, ऊंघना, लज्जित होना' आदि धातुएँ ही अकर्मक रूप से प्रसिद्ध हैं । जबकि यहाँ जिस धातु के प्रयोग में कर्म न हो अथवा अध्याहार में कर्म हो, वह सकर्मक धातु भो अकर्मक माना जाता है। इसीलिए खाना, पीना देखना, गढ़ना, करना आदि सकर्मक धातुएँ भी कर्म की अविवक्षा की अपेक्षा से अकर्मक रूप से प्रयुक्त होते हैं। इन दोनों प्रकार के अकर्मक धातुओं का भावेप्रयोग होता है।
जिसे कर्ता क्रिया द्वारा विशेष रूप से चाहता है वह कर्म-छोटी-बड़ी सभी क्रियाओं का फल । जो प्रयोग कर्म को ही सूचित करता है वह कर्मणिप्रयोग कहलाता है। भावे और कर्मणि प्रयोग के अंग
भावसूचक अंग बीह-बीहीअ, बीहिज्ज
खा-खाईअ, खाइज्ज उंघ-उंघीअ, उंधिज्ज
তল-তলীল, কলিতল कह-कहीअ, कहिज्ज
बुड्ड-बुड्डीअ, बुड्डिज्ज बोल्ल-बोल्लीम, बोल्लिज्ज हो-होईअ, होइज्ज।
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( ३३२ )
कर्मसूचक अंग पा-पाईअ, पाइज्च ।
कड्ढ-कड्ढीअ, कढिडज्ज। दा-दाईअ, दाइज्ज ।
घड्-घडोय, घडिज्ज। झा-झाईअ, झाइज्ज ।
खा-खाइय, खाइज्ज । ला-लाईय, लाइज्ज ।
कह-कहोय, कहिज्ज। पढ्-पढीय, पढिज्ज ।
बोल्ल-बोलीय, बोल्लिज्ज । इस प्रकार धातुमात्र के भाववाची और कर्मवाची अंग बना लेने चाहिए और तैयार हुए इस अंग में वर्तमान आदि कालवाचक तथा पुरुषबोधक प्रत्यय लगाकर उसके रूप सिद्ध कर लें।
वर्तमानकालिक
भावप्रधान ( उदाहरण) बोहीअइ, बोहिज्जइ ( भीयते )। बीह + ईअ +इ=बीही-अइ, एइ, अए, एए । बीह + इज्ज + इ = बीही,-ज्जइ, ज्जेइ, ज्जए, ज्जेए । बीहीएज्ज, बोहीएज्जा । सर्वपुरुष-सर्ववचन में। बीहिज्जेज्ज, बीहिज्जेज्जा
भावप्रधान प्रयोगों में भाव-क्रिया ही मुख्य होती है। प्रथम अथवा द्वितीय पुरुष का प्रयोग इसमें सम्भव नहीं है। इसी प्रकार दो-तीन अथवा इससे अधिक संख्या का प्रयोग भी इसमें नहीं होता। अतः साधारणतः भावेप्रयोग तीसरे पुरुष के एकवचन द्वारा व्यवहार में आता है।
कर्मप्रधान भणीयइ, भणिज्जइ गंथो ( भण्यते ग्रन्थः )। भण् + ईअ + इ = भणो-अइ, एइ, अए, एए । भण् + इज्ज + इ = भणि-ज्जइ, उजए, ज्जेए ।
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भणीयंति गंथा ( भण्यन्ते ग्रन्थाः )
भणिज्जंति ।
( ३३३ )
भण् + ई + न्ति = भणी-यंति, यति, यंते, येते, यइरे, येइरे भण् + इज्ज + न्तिभणिज्जंति, ज्जेति, -ज्जंते, ज्जेते, ज्जइरे, ज्जेइरे ।: सर्वपुरुष भणीएज्ज, भणिज्जेज्ज ।
सर्ववचन
पुच्छीयसि तुमं ( पृच्छयसे त्वम् ) ।
पुच्छिज्जसि
पुच्छ् + ई + सि = पुच्छी-यसि, येसि, यसे, येसे । पुच्छ् + इज्ज + सि : पुच्छि-ज्जसि, ज्जेसि, ज्जेसे I पुच्छीयामि । पुच्छिज्जामि अहं ( पृच्छये अहम् ) । पुच्छ् + ई + मि = पुच्छी-यमि, यामि, येमि । पुच्छ + इज्ज + मि पुच्छि ज्जमि, ज्जामि, ज्जेमि । सर्वपुरुष पुच्छीयेज्ज, पुच्छीयेज्जा सर्ववचन पुच्छिज्जेज्ज, पुच्छिज्जेज जा ।
आज्ञार्थ
पुच्छी-यउ येउ, पुच्छि ज्जउ
ज्जेउ ।
,
पुच्छी-यंतु, येंतु पुच्छि - ज्जंतु ज्जेतु ।
•
विध्यर्थ
पुच्छ् + ई = पुच्छी यिज्जामि, पुच्छीयेज्जामि ( अहं पृच्छयेय ) |
पुच्छी यिज्जामो पुच्छीयेज्जामो ( वयं पृच्छयेमहि ) |
ह्यस्तनभूतकाल
?
,
भण्---भणीअसी, भणीअही, भणीअहीअ, भणीयइत्था, भणीयइत्थ, भणीइंसु, भणीअंसु, भणिज्जसी, भणिज्जही, भणिज्जहीअ, भणिज्जइत्था, भणिज्जइत्थ भणिज्जिसु भणिज्जंसु ।
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( ३३४ )
अद्यतनभूतकाल
भणोम, भणित्था, भणित्थ भणिसु, भणंसु ।
भविष्यत्काल
भणिस्सं, भणेस्सं, भणिस्सामि, भणेस्सामि, भणिहामि, भणेहामि, भणिहिम, भणेहिमि आदि सभी रूप कर्तरिवाच्य के समान समझें ( देखो पाठ १३ ) ।
क्रियातिपत्ति
भणतो, भणमाणो, भणेज्ज, भणेज्जा ( पुंलिंग ) । भणंती, भणमाणी ( स्त्रीलिंग ) ।
भणता, भणमाणा (
)
प्रेरक भावेप्रयोग और कर्मणिप्रयोग
"
१. धातु का प्रेरक भावे अथवा कर्मणिप्रयोगी रूप बनाना हो तो मूलधातु के प्रेरणासूचक एकमात्र 'आवि' प्रत्यय लगाकर उस अंग में भावे और कर्मणि प्रयोग के सूचक उक्त ईअ, ईय, अथवा इज्ज प्रत्यय पूर्वोक्त प्रक्रिया के अनुसार लगा लेने चाहिए ।
अथवा
२. प्रेरणासूचक कोई भी प्रत्यय न लगाकर केवल मूलधातु के उपान्त्य 'अ' को 'आ' करके उसके पीछे उक्त ईअ, ईय अथवा इज्ज प्रत्यय पूर्व की भाँति लगा लें । इस प्रकार भी प्रेरक भावे और प्रेरक कर्मणि-प्रयोग के रूप बन सकते हैं । इसके सिवाय अन्य किसी भी रीति से प्रेरकभावे अथवा प्रेरककर्मणि प्रयोग के अंग नहीं बन सकते ।
'कर' अंग के रूप
करावीअइ ( काराप्यते ) । 'कर् + आवि:
करावि + ईअ = करावीअ, करावी - अइ, अए, असि,
असे इत्यादि ।
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________________
( ३३५ ) कर-कार + ई = कारीअ-कारी-अइ, अए ( कार्यते )।
कारी-असि, कारो-असे ( कार्यसे )। कर् + आवि = करावि + इज्ज = कराविज्ज-ज्जइ, ज्जए (काराप्यते)। कर् + कार-इज्ज = कारिज्ज-कारि-ज्जइ, ज्जए ( कार्यते )।
___कारि-ज्जसि, ज्जसे ( कार्यसे )। इस प्रकार धातुमात्र से प्रेरकभावे और प्रेरककर्मणि के अंग बनाकर सर्वकाल के रूप उक्त प्रक्रिया से तैयार कर लेने चाहिए।
___ भविष्यत्काल कराविहिइ, कराविहिए, कराविस्सते ( कारापयिष्यते)
( देखिए पाठ तेरहवां ) कराविहिसि, कराविहिसे ( कारापयिष्यसे ) कराविस्सामि, कराविहामि, कराविस्सं ( कारापयिष्ये ) कारिस्सते, कारिहिए ( कारयिष्यते ) इत्यादि।
कुछ अनियमित अंग तथा उसके रूप ( उदाहरण ) मूलधातु-भा० क० का अंग। दरिस्-दीस्'-दीसइ ( दृश्यते ), दीसउ, दोससी, दीसिज्जइ,
दोसिज्जउ । वच्-वुच्च-वुच्चइ ( उच्यते ), वुच्चउ, वुच्चसी, वुच्चिज्जइ,
वुच्चिज्जउ । चिण्-) चिव्व-चिन्वइ (चीयते), प्रे० चिव्वाविइ, चिव्वाविहिइ,
चिम्म-चिम्मइ, प्रे० चिम्माविइ, चिम्माविहिइ ।। १. हे० प्रा० व्या० ८।३।१६१ । दीप और वुच्च ये दोनों अंग केवल
वर्तमान, विध्यर्थ, आज्ञार्थ और ह्यस्तनभूत में ही प्रयुक्त होते हैं। २. हे० प्रा० व्या० ८।४२४२-२४३ । चिब्व से लेकर पूव्व पर्यन्त के
अंग सह्यभेद के सिवाय कहीं भी प्रयुक्त नहीं होते।
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________________
( ३३६ )
२
हण् - हम्म - हम्मइ ( हन्यते ), हम्मावि, हम्माविहिर । खण् -- खम्म - खम्मए ( खन्यते ), खम्मावि, खम्माविहि । दुह - दुब्भ - दुब्भते ( दुह्यते ), दुम्भाविइ, दुभाविहिर । -लिब्भ-लिब्भए ( लिह्यते ), लिब्भाविइ, लिब्भाविहिइ । वह — वुब्भ - वुब्भए ( उह्यते ), वुब्भावि, वुभाविहिइ । रुंभ - रुब्भ - रुब्भए ( रुध्यते ), रुब्भाविइ, रुब्भाविहिइ ।
૧
लिह
२
3
डह
- डज्झ - डज्झए ( दह्यते ), डज्झाविइ, उज्झाविहिइ ।
बंधु
- बज्झ - बज्झए ( बध्यते ), बज्झाविइ, बज्झाविहिइ । सं + रुध्-संरुज्झ - संरुज्झए (संरुध्यते), संरुज्झाविइ, संरुज्झाविहिइ । अणु + रुध्— अणुरुज्झ - अणुरुज्झए ( अनुरुध्यते ),
अणुरुज्झाविइ, अणुरुज्झा विहि । उव + रुध्—उवरुज्झ उवरुज्झए ( उपरुध्यते ), उवरुज्झाविइ, उवरुज्झाविहि ।
गम्
1- गम्म - गम्मए ( गम्यते ), गम्माबिइ, गम्माविहिइ । हस्———हस्स-हस्सते ( हस्यते ), हस्साविइ, हस्साविहिह । भण्- भण्ण - भण्णते ( भण्यते ), भण्णाविइ, भण्णाविहिइ । छप्, छ- छुप-छुप्पते ( छुप्यते =स्पृश्यते), छुप्पावि, छुप्पाविहिइ । रूव्- - रून्व - रूव्वए ( रुद्यते ), रूख्त्राविइ, रूव्वाविहिइ | लभ्-लब्भ - लब्भए ( लभ्यते ), लब्भाविइ, लब्भाविहि । कथ्———कत्थ- कत्थते ( कथ्यते ), कत्थाविइ, कत्थाविहिइ । भुंज्—भुज्ज-भुज्जते ( भुज्यते ), भुज्जाविइ, भुज्जाविहिइ । हर् — हीर - हीरते ( ह्रियते ), हीराविइ, हीराविहिर ।
७
१. हे० प्रा० व्या० ८।४।२४४ । २. हे० प्रा० व्या० ८।४।२४५ । ३. हे० प्रा० व्या० ८।४।२४६ । ४. हे० प्रा० व्या० ८|४|२४७ || ५. हे० प्रा० व्या० ८|४| २४८ | ६. हे० प्रा० व्या० ८४।२४६ ७. हे० प्रा० व्या ० ८।४।२५० ।
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( ३३७ ) तर्-तीर्-तोरते ( तीर्यते ) तीराविइ, तीराविहिइ । कर्-कोर-कोरते ( क्रियते ) कोराविइ, कीराविहिइ । जर्-जोर-जोरते ( जीर्यते ) जोराविइ, जीराविहिइ । अज्ज्'-विढप्प-विढप्पते ( अज्यंते ) विढप्पाविइ, विढप्पाविहिइ । जाण-णज्ज-णज्जते ( ज्ञायते ) णज्जाविइ, णज्जाविहिइ। .
णव-(णवते) णवाविइ, णव्वाविहिइ। *वि + आ + हर्वाह-वाहिप्पते ( व्याह्रियते ) वाहिप्पाविइ,
वाहिप्पाविहिए। गह, -घेप्प-घेप्पते ( गृह्यते ) घेप्पाविइ, घेप्पाविहिइ । छिव-छिप्प-छिप्पते ( स्पृश्यते ) छिप्पाविइ, छिप्पाविहिइ । सिच्-सिप्प-सिप्पते ( सिच्यते ) सिप्पाविइ, सिप्पाविहिइ । निह -, , (स्निह्यते) जिर्ण-जिव्व-जिन्वते ( जोयते ) जिव्वाविइ, जिव्वाविहिइ। सुण-सुव्व-सुव्वते (श्रूयते ) सुवाविइ, सुवाविहिइ । हुण्-हुब्व-हुन्वते ( हूयते ) हुव्वाविइ, हुन्वाविहिइ । थुण्-थुन्व-थुव्वते ( स्तूयते ) थुवाविइ, थुब्बाविहिइ । लुण्-लुव-लुन्वते ( लूयते ) लुब्वाविइ, लुब्वाविहिइ । धुण्-धुव्व-धुव्वते (धूयते ) धुम्बाविइ, धुव्वाविहिए ।
पुण्-पुत्र-पुव्वते ( पूयते ) पुवाविइ, पुवाविहिइ । १. हे० प्रा० व्या० ८।४।२५१ । 'विढप्प' यह अंग 'अर्ज' धातु के अर्थ में
प्रयुक्त होता है लेकिन उसका मूलस्वरूप 'अर्ज' में नहीं, 'अर्ज'
'अज्ज' और विढप्प में परस्पर कोई समानता नहीं उपलब्ध होतो । २. हे० प्रा० व्या० ८।४।२५२ । ३. हे० प्रा० व्या० ८।४।२५३ । ४. हे० प्रा० व्या० ८।४।२५६ । ५. हे० प्र० व्या० ८।४।२५७। ६. हे० प्रा० व्या० ८।४।२५५ । ७. हे० प्रा• व्या० ८।४।२५४ । ८. हे० प्रा० व्या० ८।४।२४२।
२२
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________________
( ३३८ )
*स्त्रीलिङ्ग सर्वादि शब्द 'सव्वी' 'सव्वा' 'ती' 'ता' 'जी' 'जा' 'को' 'का' 'इमी' 'इमा' 'एई' 'एमा' और 'अमु' इत्यादि स्त्रीलिंगी सर्वादि शब्दों के रूप 'माला', 'नदी' (? घेणु ) की भाँति होते हैं।
विशेषता यह है। णी.णा (तत् का स्त्री० ता) शब्द के रूप प्र० सा ( सा) तोआ, तोउ, तीओ, ती।
ताउ, ताओ, ता ( ताः) द्वि० तं ( ताम् ) तीआ, तीउ, तीओ, ती
___णं . ताउ, ताओ, ता ( ताः ) तृ० तोअ, तोआ' तीई, तीए, तीहि, तीहिं, तोहि ।
ताअ, ताई, ताए, ( तया) ताहि, ताहिं, ताहि ।
च०) से२
तास, तिस्सा, तीसे ष०) (तस्यै, तस्याः )
तीअ, तोआ, तीइ, तीए तेसि ( तासाम् )
ताअ, ताइ, ताए ताण, ताणं ( तानाम् ? ) स० ताहि ( तस्याम् ) तासु, तासुं ( तासु)
तीअ, तोआ, तोइ, तोए ।
ताअ, ताइ, ताए। ‘णी' और 'णा' के रूप भी 'ती' और 'ता' के समान ही होते हैं ।
* स्त्रीलिंगी 'सर्व' आदि शब्दों के पालिरूप के लिए देखिए पा० प्र. पृ० १४०, १४३, १४५, १४७, १५० वगैरह ।
१. हे० प्रा० व्या० ८।३।२६। २. हे० प्रा० व्या० ८।३।६२।६४ । ३. हे० प्रा० व्या० ८।३।८१ । ४. हे० प्रा० व्या० ८।३।६० ।
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до
द्वि० जं (याम् )
च०
जीसे
ष० ) ( यस्यै, यस्याः ) } जास से जिस्सा,
स०
प्र०
( ३३६ )
जा ( या )
जी, जा ( यत् का स्त्री० या ) शब्द के रूप जीआ, जीउ, जीओ, जी । जाउ, जाओ, जा ( याः )
(,,)
जाणं ( यासाम् )
द्वि०
स०
जीअ, जीआ, जीइ, जीए ।
कं ( काम् )
च०
किस्सा, कोसे, कास ष० ) ( कस्यै, कस्याः )
जाण,
जाअ, जाइ, जाए ।
जाहिं (यस्याम् )
जीअ, जीआ, जीइ, जीए, जासुं
जाअ, जाइ, जाए ।
"
की, का ( किम् का स्त्री० का ) शब्द के रूप
का ( का )
कीआ, कीउ, कीओ, की ।
काउ, काओ, का ( का: )
(,)
कीअ, कीम, कोइ, कीए ।
93
"
काअ, काइ, काए ।
काहि
कीअ, कीआ, कोइ, कीए काअ, काइ, काए ( कस्याम् )
"
( यानाम् ? )
(या)
"
काण, काणं ( काम्यः, कासाम् )
कीसु, कीसुं
,
कासु, कासुं ( कासु )
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________________
( ३४० )
इमा, इमी ( इदम् का स्त्री० इमा ) शब्द का रूप
до
तृ० इमीअ, इमीआ, इमीइ, इमीए इमाम, इमाइ, इमाए ( अनया )
च०
ष०
एकव ०
इम, इमा, इमी ( इयम् )
प्र०
१
- इमीअ, इमीआ, इमीइ, इमीए इमाअ, इमाइ, इमाए ( अस्यै )
एसा, एस, इणं, इणमो
( एषा )
3
इमीण, इमोर्ण
इमाण,
इमाणं
( आभ्य:, आसाम् )
एआ, एई ( एतत् का स्त्री० एता ) का रूप
च०
० एइन, एईआ, एईई, एईए
एआअ, एआइ, एआए ( एतस्मै, एतस्याः )
बहुव०
इमीका, इमीउ, इमीओ इमाउ, इमाओ, इमा (इमा: ) इमीहि इमोहि, इमीहिं
इमाहि, इमाहिं, इमाहिं आहि, आहि, आहिँ (आभिः)
२
सि
एईआ, एईउ, एईओ, एई एआउ, एआओ, एआ ( एताः ) सि ( एतासाम् ) एई, एई
एआण, एआणं ( एतानाम् ? )
( उक्त रूपों में ईकारान्त और आकारान्त अंग के सभी रूप नहीं दिए गए हैं लेकिन वे सभी इसी पद्धति से समझ लें । )
१. हे० प्रा० व्या० ८।३।६२।६४ । २. हे० प्रा० व्या० ८ ३३८१ । ३. हे० प्रा० व्या० ८।३।८१ ।
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________________
बहुव०
( ३४१ ) अमु ( अदस ) शब्द के रूप एकव० प्र० अह', अमू
अमूउ, अमूओ, अमू ( अमूः) शेष रूप 'धेणु' की भाँति होंगे।
सामान्य शब्द केवट्ट ( कैवर्त ) = केवट, खेवट, नोका चलानेवाला। जट्ट ( जर्त )) = एक जाति, जाट, कृषक, किसान जाति के लोग। धुत्त (धूर्त ) = धूर्त, शठ, वंचक । मुहुत्त ( मुहूर्त) = मुहूर्त । सय्ह ( सह्य) = सह्याद्रि, एक पर्वत विशेष । गुय्ह ( गुह्य) = गुह्यक-यक्ष, गुह्य--गुप्त, गूढ़ । सव्वज्ज ( सर्वज्ञ) = सर्वज्ञ, सब को जाननेवाला । देवज्ज ( दैवज्ञ ) = देव-भाग्य को जाननेवाला। किलेस (क्लेश) = क्लेश, कलह । पिलोस (प्लोष ) = प्लोष-दाह, दहन । कलाव ( कलाप) = कलाप-समूह । साव (शाप) = श्राप, शाप । सवह (शपथ) = शपथ, सौगन्ध । पल्हाम (प्रह्लाद ) = 'प्रह्लाद' नामक एक राजकुमार । आल्हाअ, आल्हाद (आह्लाद ) = आह्लाद, आनन्द । पज्ज (प्राज्ञ ) = प्राज्ञ, बुद्धिमान् । सिलोग, सिलोम (श्लोक) = श्लोक, कीर्ति । सिलिम्ह ( श्लेष्मन् )= श्लेष्म, कफ ।
१. हे० प्रा० व्या० ८।३।८७।८८८६ ।
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( ३४२ ) • कासव ( काश्यप) = कश्यप गोत्र का ऋषि-ऋषभदेव अथवा
महावीर स्वामी। कविल ( कपिल ) = कपिल ऋषि।
वाक्य (हिन्दी) केवट से सरोवर तिरा जाता है। पिता द्वारा प्रह्लाद बाँधा जाता है । कश्यप द्वारा चण्डाल स्पर्श किया जाता है । राजा द्वारा कीति इकट्ठी की जाती है। कपिल द्वारा तत्त्व कहा जाता है। ऋषभदेव द्वारा धर्म कहा जाता है। सर्वज्ञ द्वारा क्लेश जीते जाते हैं । उसके द्वारा शास्त्र सुनाया जाता है। जिसके द्वारा बकरा होमा जाता है उसके द्वारा धर्म नही जाना जाता।
वाक्य (प्राकृत) निवेण सत्तुणो जिब्वंति । गोवालेण गउओ दुब्भते । भारवहेहिं भारो वुब्भए । दायारेण दाणेण पुण्णाइ लब्भंते। मुणिणा संजमो धप्पते । मालाआरेण जलेण उज्जाणाणि सिप्पते । कसिबलेण तणाई लूव्वंति । सोयारेहि मत्थयाई घुम्वंते । वद्धमाणेण मम घरं पुन्वते । बालेण गामो गम्मइ । बालेहि हस्सइ।
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इक्कीसवाँ पाठ
व्यञ्जनान्त शब्द
प्राकृत में रूपाख्यान के समय कोई भी शब्द व्यञ्जनान्त नहीं रहता । अतः सभी के रूप स्वरान्त की भाँति समझने चाहिए । 'अत्' और 'अन्' अन्त वाले नामों (शब्दों ) के रूप में जो विशेषता है वह इस प्रकार है: नाम के अन्त में वर्तमान कृदन्त-सूचक 'अत्' प्रत्यय के स्थान में 'अंत' तथा मत्वर्थीय 'मत्' प्रत्यय के स्थान में 'मंत
:
२
अथवा 'वं
का
व्यवहार होता है ।
अत्-भवत्-भवंत ।
गच्छत् — गच्छंत |
नॅत |
नयत् —नयंत, गमिष्यत् - गमिस्संत ।
भविष्यत् — भविस्संत ।
-
मत् — भगवत् - भगवंत ।
गुणवत् - गुणवंत । धनवत् — घणवंत ।
ज्ञानवत्--- णाणवंत, नाणवंत ।
नीतिमत् — नीइवंत, णीइवंत । ऋद्धिमत्-- रिद्धिवंत ।
१. हे० प्रा० व्या० ८।३।१८१ । २. हे० प्रा० व्या० ८।२।१५९ ।
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________________
( ३४४ )
'अन्त' प्रत्ययान्त नामों के सभी रूप अकारान्त नाम ( शब्द ) की भाँति होते हैं :
भगवंतो, भगवंतं, भगवंतेण इत्यादि रूप 'वीर' की भाँति समझने
चाहिए ।
'अत्' प्रत्ययान्त नामों के कुछ अनियमित रूप
भगवत्
१
भगवं ' ( भगवान् )
भगवंतो ( भगवन्तः )
भगवता, भगवया ( भगवता ) भगवतो, भगवओं ( भगवतः )
भगवं रे !, भयवं !, भयव ! (हे भगवन् ! )
प्र० ए०
प्र० व०
तृ० ए०
ष० ए०
सं० ए०
भवत् भवं ? ( भवान् )
प्र० ए०
प्र० ब० भवतो ( भवन्तः )
द्वि० ए०
भवंतं ( भवन्तम् )
द्वि० ब० ) भवतो (भवत: ) भवओ
ऽ
भवता ( भवता )
भवया
तृ० ए०
ष० ब० ) भवतो ( भवतः
>
· भवओ ( भवयाण ( भवताम् )
"
ष० ब०
'अन्' प्रत्ययान्त नामों के 'अन्' को विकल्प से 'आण' होता है ( हे० प्रा० व्या० ८|३|५६ | ) | जैसे -
१. हे० प्रा० व्या० ८।४।२६५ । २. हे० प्रा० व्या० ८|४|२६४| ३. हे० प्रा० व्या० ८।४।२६५ ।
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( ३४५ ) अध्वन्-[ अध्व + अन् = अद्ध + आण = अद्धाण ] अद्धाण, अद्ध । आत्मन्-अप्पाण, अप्प, अत्ताण, अत्त । उक्षन्-उच्छाण, उच्छ, उक्खाण, उक्ख । ग्रावन्-गावाण, गाव । युवन्-जुवाण, जुव । तक्षन्त च्छाण, तच्छ, तक्खाण, तक्ख । पूषन्-पूसाण, पूस । ब्रह्मन्-बम्हाण, बम्ह । मघवन्-मघवाण, मघव । मूर्धन्-~मुद्धाण, मुद्ध । राजन्-रायाण, राय। श्वन्-साण, स। सुकमन्-सुकम्माण, सुकम्म । इन सब नामों के रूप अकारान्त नाम की भाँति बना लेना चाहिए :अद्धाणो, अद्धाणं, अद्धाणेण । अद्धो, अद्धं, अद्वेण । साणो, साणं, साणेण । सो, सं, सेण । रायाणो, रायाणं, रायाणेण । रायो, रायं, रायेण इत्यादि।
जब नाम ( शब्द ) के अन्तिम 'अन्' को 'आण' नहीं होता तब उनके कुछ अन्य रूप भी बनते हैं ।
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( ३४६ ) *'राय' (राजन् ) शब्द के रूप एकव०
बहुव० प्र. *राया' (राजा) राइणो', रायाणो' (राजानः) द्वि० राइणं ( राजानं ) , , रणो (राज्ञः)
* पालि भाषा में राजन् वगैरह शब्दों के रूप थोड़े भिन्न होते हैं । जैसे--प्राकृत में 'राय' शब्द है वैसे पालि में 'राज' शब्द है । पालि में 'राज' शब्द के रूप अकारान्त के समान होते हैं । राजा
राजानो राजानं, राजं
राजानो राजेन
राजेभि, राजेहि इत्यादि। प्राकृत में जहाँ 'रण्णा' जैसे दो णकारवाले रूप होते हैं वहाँ पालि में रञा, रञो ऐसे दो 'ञ' कार वाले रूप होंगे और प्राकृत में जहाँ राइणा, राइणो इत्यादिक 'इ' कार वाले रूप होते हैं वहाँ पालि में राजिना, राजिनो इत्यादि रूप बनेंगे और तृ० बहु० राजूभि तथा च०-५० बहुवचन में राजूनं, रखं सप्तमी के एकवचन में राजिनि, बहुव० में राजुसु इत्यादिक रूप होते हैं ( देखिए पा० प्र० पृ० १२३ )।
पालि में अत्त, अत्तन, अत्तान ( आत्मन् ) के रूप अकारान्त 'बुद्ध' के समान होते हैं । विशेषता यह है कि द्वि० ब० अत्तानो, तृ० ए० अत्तना, च०-५० ए० अत्तनो, च०-५० ब० अत्तानं, स० ए० अत्तनि ऐसे रूप भी होते हैं।
ब्रह्म, ब्रह्म (ब्रह्मन् ) के रूप :प्र० ब्रह्मा, ब्रह्मानो द्वि० ब्रह्मानं ,
तृ० ब्रह्म ना इत्यादि होते हैं। पालि में 'ब्रह्म के रूप उकारान्त की तरह होंगे।
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________________
तृ०
च०
ष०
राइणा रणा ( राज्ञा )
( ३४७
1
पं० राइणो, रण्णो ( राज्ञः )
राइणो, रण्णो ( राज्ञ: )
)
राइणो, रण्णो + ( राज्ञः ) राईणं', राईण,
राइणं ( राज्ञाम् )
७
राईहि, राईहि, राईहिँ
९
राइतो राईतो, राईओ
राईड ( राजतः )
राहि, राईहितो ( राजभ्यः )
राईणं, ( राज्ञाम् )
राईण
इ
1
ܘܪ
९
( राजभिः )
की तरह
समझें ।
अद्ध, अद्धु ( अध्वन् ) के रूप पालि में ब्रह्म, ब्रह्म इसी प्रकार युवान, युव ( युवन् ); स, सान ( श्वन् ) के रूपों के लिए पा० प्र० पृ० १२५ से १२७ तक देख लें और पुम, पुमु ( पुमन् ) के रूप के लिए भी देखिए पा० प्र० पृ० १३०-१३१ ।
÷ मागधी में 'लाया', 'लाइणो', 'लायाणो' इत्यादि रूप होंगे ।
+ पैशाची में 'रण्णा' के स्थान में 'राचिना', 'रण्णो' के स्थान में राचिनो' रूप भी होता है ( हे० प्रा० व्या० ८|४|३०४ ) और प्राकृत में जहाँ 'पण' - दोण कारयुक्त रूप है वहाँ पैशाची में 'ज्ञ' - दो नकार युक्त रूप होता है ( हे० प्रा० व्या० ८|४ | ३०३ ) ।
१. हे० प्रा० व्या० ८।३।४६ । २. हे० प्रा० व्या० ८।३।५०।५२ । ३. हे० प्रा० व्या० ८।३।५० । ४. हे० प्रा० व्या० ८ ३।५३ । ५. हे० प्रा० व्या० ८ | २|४२ । तथा ८ । १ । ३७ | यह 'रण्णो' रूप 'राज्ञः ' शब्द से सिद्ध करना । ६. हे० प्रा० व्या० ८।३।५१।५२ तथा ५५ । ७. हे० प्रा० व्या० ८|३|५४ । ८. हे० प्रा० व्या० ८।३।५०।५२ तथा ५५ । ६. हे० प्रा० व्या० ८।३।५४ । तथा ५३ । १०. हे० प्रा० व्या० ८।३।५४ ।
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( ३४८ ) स० राइंसि", राइम्मि ( राज्ञि) राइसु, राईसुं ( राजसु ) :: सं० हे राया ! (हे राजन् ! ) राइणो, रायाणो (राजानः) अत्त अथवा अप्प ( आत्मन् = आत्मा) शब्द के रूप प्र० अप्पा, अत्ता ( आत्मा) अप्पाणो ( आत्मानः) द्वि० अप्पिणं", अत्ताणं (आत्मानम्) , ( , ) तृ० अप्पणिआ'", अप्पणइआ अप्पेहि, अप्पेहि, अप्पेहि अप्पणा, ( आत्मना)
(आत्मभिः) अत्तणा च०) अप्पाणो ( आत्मनः) अप्पिणं ( आत्मनाम् ) ष. अत्तणो पं० अप्पाणो ( आत्मनः) अप्पत्तो, अप्पतो (मात्मतः)
इत्यादि। 'पूस' ( पूषन् = इन्द्र, सूर्य ) शब्द के रूप प्र. पूसा (पूषा)
पूसाणो ( पूषणः) द्वि० पूसिणं (पूषणं)
, (पूष्णः ) तृ० पूषणा ( पूष्णा) पूसहि, पूसहि, पूसहि (पूषभिः) च० । पूसाणो ( पूष्णः) पूसिणं (पूष्णाम् ) ष०
पूसत्तो, पूसतो ( पूषतः )
इत्यादि ।
११. हे० प्रा० व्या० ८।३।५२ । १२. हे० प्रा० व्या० ८।३।५४ । १३. हे० प्रा० व्या० ८।३१४९ ।। १४. हे० प्रा० व्या० ८।३।५३ । १५. हे० प्रा० व्या० ८।३।५७ ।
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प्र० मघवं', मघवा ( मघवा )
( ३४९ )
मघव, महव ( मघवन् ) शब्द के रूप मघवाणो ( मघवन्तः ) इत्यादि 'पूसा' की भाँति ।
एकवचन
प्र०
द्वि० इणं
तृ०
च०
ष०
पं०
णा
णो
}"
णो
रूप की प्रक्रिया
प्रत्यय
बहुवचन
णो
स० +
णो
+ इस चिह्न वाले अर्थात् प्रथमा और सम्बोधन के एकवचन में राय, पूस, मघव, आदि नामों के अन्त्य स्वर को दीर्घ होता है।
:--
राय = : राया, मघव = मघवा, पूस = पूसा ।
'णा' प्रत्यय को छोड़ 'ण'कारादि प्रत्यय परे रहने पर पूस आदि शब्दों के अन्त्य स्वर को दीर्घ होता है :
पूस + णो = पूसाणो, राय + णो रायाणो ।
राय + णा = राइणा, रण्णा । राय + णो = राइणो, रण्णो ।
१. हे० प्रा० व्या० ८।४।२६५ ।
इणं
=
अपवाद
प्रथमा और सम्बोधन के सिवाय णकारादि प्रत्यय परे रहने पर 'राय' के स्थान में 'राई' और 'रण' का उपयोग होता है । जैसे
Add
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( ३५० ) प्रथमा और सम्बोधन के बहुचन में 'णो' प्रत्यय लगने पर 'राय' के स्थान में केवल 'राई' का ही उपयोग होता है । - 'इणं' प्रत्यय परे रहने पर 'राय' के 'य' कार का लोप हो जाता है। जैसे
राय + इणं = राइणं ( राजानम् )
राय + इणं = राइणं ( राज्ञाम् ) संकेत:-राइ + ण = राईण, राईणं इन रूपों में 'इणं' प्रत्यय नहीं है बल्कि षष्ठी बहुवचन का 'ण' प्रत्यय है ।
'अन्' प्रत्ययान्त किसी-किसी शब्द को तृतीया के एकवचन में 'उणा' और पञ्चमी तथा षष्ठी के एकवचन में 'उणो' प्रत्यय लगता है। जैसे :
कम्म (कर्मन्) कम्म + उणा = कम्मुणा ( कर्मणः )। कम्म + उणो= कम्मुणो ( कर्मणः )।
कुछ अनियमित रूप मणसा (मनसा ) मणसो ( मनसः) मणसि ( मनसि) मणसि ( मनसि ) वयसा ( वचसा) सिरसा ( शिरसा) कायसा ( कायेन ) कालधम्मुणा ( कालधर्मेण)
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( ३५१ )
* 'तद्धित' प्रत्ययों का उदाहरण
1
१
१. ' उसका यह ' -- इस अर्थ में 'केर' प्रत्यय लगता है । जैसेअम्ह + केरं = अम्हकेरं ' ( अस्माकं इदम् - अस्मदीयम् ) = हमारा | तुम्ह + केरं = तुम्हकेरं ( युष्माकम् - इदम् = युष्मदीयम् ) = तुम्हारा । पर + केरं = परकेरं ( परस्य इदम् = परकीयम् ) = पराया |
राय + के रं = रायकेरं ( राज्ञः इदम् = राजकीयम् ) = राजा का । २. 'तत्र भवं' – 'उसमें होने वाला' अर्थ में 'इल्ल' और 'उल्ल' प्रत्ययों का उपयोग होता है। जैसे
---
गाम + इल्ल = गामिल्लं ( ग्रामे भवं = ग्राम में होनेवाला । घर + इल्ल = घरिल्लं ( गृहे भवं ) = घरेलू, घर में होने वाला । अप्प + उल्ल = अप्पुल्लं ( आत्मनि भवं ) = आत्मा में होनेवाला । नयरं + उल्ल = नयरुल्लं ( नगरे भवं ) = नगर में होनेवाला । ३. 'इव'' उसके जैसा' अर्थ में 'व्व' प्रत्यय का उपयोग होता है । यथा :
महुर व पाडलिपुते पासाया ( मथुरावत् पाटलिपुत्रे प्रासादा: ) । ४. 'इमा'', 'त्त', 'त्तण' प्रत्यय 'भाव' अर्थ का सूचक है । जैसे
पीणा + इमा = पीणिमा ( पोनिमा- पीनत्वम् ) = पीनत्व, पीनता, मोटापा, मोटापन |
* पालि भाषा में तद्धित प्रत्ययों की समझ के लिए संकीर्णकल्प में आया हुआ 'तद्धित' का प्रकरण देखना चाहिए ( देखिए पा० प्र० पृ० २५-२६१ ) ।
१. हे० प्रा० व्या० ८।२।१४७ । २. हे० प्रा० व्या० ८।२।१६३ ।
३. ८।२।१५० । ४. हे० प्रा० व्या०८।२।१५४ ।
★ 'भाव' अर्थ में पालि में भी 'त्तन' प्रत्यय होता है ।
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( ३५२ ) देव + त = देवत्तं ( देवत्वम् ) = देवफ्ना , देवत्वं । . बाल + तग = बालत्तगं (बालत्व) = बचपन, शिशुस्व, वालव ।
५. 'बार' *अर्थ को बताने के लिए 'हुत्तं" और 'खुत्तो' प्रत्यय का उपयोग होता है । जैसे :
एग + हुत्तं = एगहुत्तं ( एककृत्व:-एकवारम् )= एक बार । ति+हुसं = तिहुत्तं ( त्रिकृत्व:-त्रिवारम् )= तीन बार । ति + खुत्तो = तिखुत्तो ( त्रिकृत्वः ,,) ,,
तिक्खुत्तो ६. आल', आलु, इत्त, इर, इल्ल, उल्ल', मण, मंत और वंत आदि प्रत्यय 'वाले' अर्थ को प्रकट करते हैं। जैसे:आल-रस + आल = रसाल ( रसवान् )= रसवाला ।
जटा + आल = जटाल ( जटावान् ) = जटाओं वाला। आलु-दया + आलु = दयालु ( दयालुः) = दयालु, दयावाला ।
लज्जा+ आलु = लज्जालु ( लज्जालुः) = लज्जावाला। इत्त - मान + इत्त = माणइत्तो (मानवान्) = मानवान, मानवाला। इर -- रेहा + इर = रेहिरो ( रेखावान् ) = रेखावान, रेखावाला ।
गव्व + इर = गम्विरो (गर्ववान् ) = गर्ववान, गर्ववाला । इल्ल-सोभा + इल्ल = सोभिल्लो ( शोभावान् )= शोभावान् ।
*'बार' अर्थ में 'क्खंत्तु" प्रत्यय होता है जैसे-द्विक्खत्तु-दो बार । आर्ष प्राकृत में 'हुत्तं' का प्रयोग कम दीखता है परन्तु 'क्खुत्तो' का प्रयोग अधिक होता है । जैसे-दुक्खुत्तो (दो बार), तिक्खुत्तो ( तीन बार ) ऐसे रूप होते हैं।
१. हे० प्रा० व्या० ८।२।१५८ । २. हे० प्रा० व्या०८।२।१५९ ।
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( ३५३ )
उल्ल-सद्द + उल्ल =सद्दल्लो ( शब्दवान् ) =शब्दवान् , शब्दवाला । मण-धण+मण =धणमणो ( धनवान् ) =धनवान ।
सोहा + मण = सोहामणो (शोभावान्) =सुहावना, शोभावान् ।
बोहा+मण = बोहामणो (भयवान्) =भयावना, भय वाला । मंत-धो+मंत=धीमंतो ( धीमान् ) =धीमंत, बुद्धिमान् । वंत-भत्ति + वंत = भत्तिवंतो ( भक्तिमान् ) =भक्तिवंत । ७. 'तो'प्रत्यय पञ्चमी विभक्ति को सूचित करता है। सव्व + तो सव्वत्तो ( सर्वतः ) =सब प्रकार से, सब ओर से । क +त्तोकत्तो ( कुतः) =कहाँ से, किससे । ज+त्तो = जत्तो ( यतः ) =जहाँ से, जिससे । त+त्तो= तत्तो ( ततः) =वहाँ से, उससे । इ+ त्तो= इत्तो ( इतः) =यहाँ से, इससे ।
८. 'हि', 'ह' और 'त्थ' प्रत्यय सप्तमी के अर्थ सूचित करते हैं । जैसे :
ज + हि = जहि ( यत्र ) = यहाँ। . ज+ह = जह , " ज + त्थ = जत्थ ( यत्र) , त + हि = तहि ( तत्र) = वहाँ । त+ह =तह , " त+त्थ = तत्थ , " क + हि = कहि ( कुत्र) = कहाँ । क+ह = कह ,
. क+स्थ = कत्थ ( कुत्र)"
१. हे० प्रा० व्या ८।२।१६० । २. हे० प्रा० व्या० ८।२।१६१ । २३
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( ३५४ ) ९. 'उसका तेल'' इस अर्थ में 'एल्ल' ( तैल२) प्रत्यय का प्रयोग होता है । जैसे :कडुअ + एल्ल = कडुएल्लं ( कटुकस्य तैलम्-कटुकतैलं ) = कडुवा
तेल, सरसों का तेल । दीव + एल्ल = दीवेल्लं ( दीपस्य तैलम्-दीपतैलम् ) = दीपक का तेल। एरंड + एल्ल = एरंडेल्लं (एरण्डस्य तैलम्-एरण्ड तैलम् ) = एरण्डी
का तेल । धूप + एल्ल = धूपेल्लं (धूपस्य तैलम्-धूपतैलम् ) =धूपयुक्त तेल ।
१०. 'स्वार्थ' अर्थ को सूचित करने के लिए 'अ', 'इल्ल' और 'उल्ल' प्रत्यय का व्यवहार विकल्प से होता है । जैसे:
चन्द्र + अ = चन्द्रओ, चन्द्रो ( चन्द्रकः ) = चाँद, चन्द्रमा।
पल्लव + इल्ल = पल्लविल्लो, पल्लवो (पल्लवक:)= पल्ला, किनारा। हत्थ + उल्ल = हत्थुल्लो, हत्थो ( हस्तकः ) = हाथ ।
११. कुछ अनियमित तद्धित :एक्क + सि = एक्कसि । एक्क + सि = एक्कसि ( एकदा ) = एक समय । एक्क + इआ = एक्कइआ ) भ्र + मया = भुमया ) (भ्रूः ) = भौंह । भ्र + मया = भमया )
१. हे० प्रा० व्या० ८।२।१५५ । २. दीपस्य तैलं-'दीपतैलं' शब्द में 'तैल' शब्द ही किसी समय अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व खोकर प्रत्यय बना होगा । इसीलिए भाषा में ( गुजराती भाषा में ) 'पेल' में तैल शब्द समा गया है तो भी 'धूपेल तेल' शब्द का व्यवहार होता है।
३. हे० प्रा० व्या० ८।२।१६४। ४. हे० प्रा० व्या० ८।२।१६२ । ५. हे० प्रा० व्या० ८।२।१६७ ।
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( ३५५ )
१
सण + इ =
सणिअं ( शनैः ) धीरे-धीरे ।
२
उवरि + ल्ल = अवरिल्लो ( उपरितन: ) = ऊपर का ।
3
ज + एत्तिअ = जेत्तिअं ज + एत्तिल = जेत्तिलं ज + एद्दह = जेद्दहं
( यावत् ) = जितना ।
त + एत्तिअ = तेत्तिअं त + एत्तिल = तेत्तिलं त + एद्दह = तेद्दहं
क + एत्तिअ = केत्तिअं
क + एत्तिल = केत्तिलं क + एद्दह = के द्दहं
एत + एत्तिअ = एत्तिअं एत + एत्तिल = एत्तिल्लं एत + एद्दह = एद्दहं
तुम्ह + एच्चय
牮
सव्वंग' + इअ =
|
=
हर
तावत् } = उतना ।
( कियत् )
=
( एतावत् )
( इयत् )
प + क्क = परक्कं, पारक्क ( परकीयम् ) = पराया ।
राय + क्क = रायक्क ( राजकीयम् ) = राजा का, राज का ।
अम्ह + एच्चय
हमारा |
अम्हेच्चयं ( अस्मदीयम् ) तुम्हेच्चयं ( युष्मदीयम् )
सव्वंगिअं ( सर्वाङ्गीणम् ) = सर्वाङ्गीण, सब अंगों
में व्याप्त ।
७
पह + इअ = पहिओ ( पथिकः )
कितना ।
= इतना |
33
पथिक ।
१. हे० प्रा० व्या० ८।२।१६८ । २. हे० प्रा० व्या० ८।२।१६६ । ३. हे० प्रा० व्या० ८।२।१५७ ।
४. हे० प्रा० व्या० ८।२।१४८ । ५. हे० प्रा० व्या० ८।२।१४६ । ६. हे० प्रा० व्या० ८।२।१५१ । ७. हे० प्रा० ८।२।१५२ ।
= तुम्हारा |
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( ३५६ ) अप्पणिय = अप्पणयं ( आत्मीयम् ) = अपना ।
__कुछ वैकल्पिक रूप नव' + ल्ल = नवल्लो, नवो ( नवक: ) = नया, नवीन । एक+ल्ल + एकल्लो, एक्को ( एककः ) = एक, अकेला । मनाक् + अयं = मणयं । ___ + इयं = मणियं (मनाक् ) = थोडा, इषत् । मिस्स + आलिअ = मीसालिअं, मोसं (मिश्रम् ) = मिश्र-मिला
___ हुआ, मसाले वाला आदि । दीघ + र = दोघरं, दोघं, दिग्धं, ( दोघं ) = दीर्घ, लम्बा। विज्जु + ल = विज्जुला (विद्युत् ) = बिजली। पत्त + ल = पत्तलं, पत्त ( पत्रम् )= पत्तल, पत्ता। पोत + ल = पीअलं, पीतलं, पीवलं, पीअं (पीतम् ) = पोला । अन्ध + ल = अंधलो ( अन्धः) = अन्धा ।
तद्धितान्त शब्द धणि ( धनिन् ) = धनी, धनाढ्य, साहुकार, श्रीमंत । अत्थिन ( आर्थिक ) = आर्थिक, अर्थ सम्बन्धी । आरिस ( आर्ष ) = ऋषिओं द्वारा भाषित, कहा हुआ। मईय ( मदीय )= मेरा। कोसेय ( कौशेय) = कौशेय, रेश्मी वस्त्र । हेट्ठिल ( अधस्तनः)= नीचे का। जया ( यदा ) = जब ।
१. हे० प्रा० व्या० ८।२।१५३ । २. हे० प्रा० व्या० ८।२।१६५ । ३. हे० प्रा० व्या० ८।२।१६६ । ४. हे० प्रा० व्या० ८।२।१७० । ५. हे. प्रा. व्या० ८।२।१७१ । ६.हे० प्रा० च्या. ८।२।१७३ ।
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( ३५७ ) अण्णया ( अन्यदा )= अन्य समय में । तवस्सि (तपस्विन् ) = तपस्वी । मणंसि ( मनस्विन् ) = मनस्वी, बुद्धिमान् । काणीण (कानोन) = कन्या का पुत्र-व्यास ऋषि । वम्मय ( वाङ्मय ) = वाङ्मय, शास्त्र । पिआमह ( पितामह ) = दादा, पिता का पिता । उवरिल्ल ( उपरितन ) = ऊपर का । कया ( कदा) = कब । सव्वया ( सर्वदा) = हमेशा, सर्वदा, सदैव । रायण्ण ( राजन्य ) = राजपुत्र, राजकुमार । अत्थिा ( आस्तिक ) = आस्तिक, ईश्वर को माननेवाला । भिक्ख (भैक्ष)= भिक्षा । नाहिअ, नत्थिा ( नाहिक-नास्तिक ) = नास्तिक, पाप-पुण्य को
नहीं माननेवाला। पोणया ( पीनता ) = पुष्टता, मोटापा । मायामह ( मातामह ) = नाना, माता का पिता । सम्वहा ( सर्वथा) - सब प्रकार से । तया ( तदा ) = तब ।
वाक्य (हिन्दी)
प्रजा के दुःख से दुःखो राजा द्वारा एकबार भोजन किया जाता है। वहां पराये बालकों द्वारा रोया जाता है। . घरेलू वस्तु आँखों द्वारा देखी जाती है। मुनि द्वारा मधु खाया नहीं जाता। वह मन, वचन और काया से किसी को नहीं मारता। जीव कर्म द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होता है ।
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मेरे द्वारा रोया जाता है और तेरे द्वारा हसा जाता है । गुरु द्वारा शिष्य को ग्रन्थ पढ़ाया जाता है। भील द्वारा पर्वत जलाया जाता है। महावीर द्वारा समभाव के साथ धर्म कहा जाता है।
वाक्य (प्राकृत) अप्पणा अप्पा लगभई। रण्णा रज्ज भुज्जइ। राईहि पयाण दुहाणि लुब्वंति । तीए पइणा सह सिप्पते । मघवाणो बंभणेहि थुक्वंति । अस्थिएण अत्थो चिम्मई । आरिसाणि वयणाणि कविलेण वच्चंति । राइणा सहाए कोसेयं परिहिज्जइ । इत्थीए मत्थयम्मि धूपेल्ल दोसइ। . सक्खं खु दोसइ तत्रविसेसो । न दीसइ जाइविसेसो को वि।
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बाइसवाँ पाठ
कुछ नाम धातुएँ - संस्कृत में प्रेरक प्रक्रिया के अतिरिक्त और भी अनेक प्रक्रियाएँ हैं। जैसे सन्नन्त', यङन्त, यङ्लुबन्त और नामधातु प्रक्रिया । परन्तु प्राकृत में इनके लिए कोई विशेष विधान नहीं है । आर्ष प्राकृत में इन प्रक्रियाओं के कुछेक रूप अवश्य उपलब्ध होते हैं। अतः वर्ण-विकार अथवा उच्चारणभेद के नियमों द्वारा उन्हें सिद्ध कर लेना चाहिए। सन्नन्त-सुस्सूसइ ( शुश्रूषति )=सुनने की इच्छा करता है, शुश्रूषा
सेवा करता है।
वीमंसा ( मीमांसा) =विचार करना। यन्त-लालप्पइ (लालप्यते) = लप-लप करता है, बकवास करता है। यङ्लुगन्त-चंकमइ (चंक्रमीति ) = चंक्रमण करता है, घूमता
रहता है।
चंकमणं (चक्रमणम् ) = चंक्रमण-घूमा-घूमा करता है। - नाम धातु-गरुआइ ( गुरुकायते ) = गुरु की भांति रहता है ।
गरुआअइ (,,) = गुरु के जैसा दिखावा करता है । अमराइ ) ( अमरायते )= अमर-देववत् आचरण अमराअइ करता है, अपने आपको देव समझता है। तमाइ । (तमायते ) = तम-अंधेरा जैसा है, अंधेरा तमाअइ करता है।
१. पालि में भी सन्नंत, यङत, यङ्लुबंत तथा नामधातु के रूपों के लिए देखिए पा० प्र० पृ० २२९-२३३ ।
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( ३६० ) धूमाइ । (धूमायते ) = धूआँ निकालता है, धुएँ धूमाअइ का उद्वमन करता है । सुहाइ । ( सुखायते) = सुख का अनुभव होता है, सुहाअइ अच्छा लगता है। सद्दाइ ) ( शब्दायते ) - शब्द करता है।
सद्दाअ) नामधातु के उक्त संस्कृत रूपों में जो 'य' दिखाई देता है प्राकृत में उसका विकल्प से लोप हो जाता है। यह नियम केवल नामधातु में ही लगता है।
हेत्वर्थ'कृदन्त* मूल धातु में 'तु' और 'तए'२ प्रत्यय लगाने पर हेत्वर्थ कृदन्त रूप बनते हैं।
१. हे० प्रा० व्या ८॥३॥१३८ ।
* पालि में धातु को 'तुं' तथा 'तवे' प्रत्यय लगाने से हेत्वर्थ कृदन्त बनते हैं ( देखिए पा० प्र० पृ० २५७ )। जैसे
पा० कत्तु प्रा० कातुं पा० कत्तवे प्रा० करित्तए इत्यादि ।
हेत्वर्थ कृदन्त के 'तु' प्रत्यय के स्थान में शौरसेनी सौर मागधी में 'दु' प्रत्यय होता है तथा पैशाची में तो 'तु' प्रत्यय हो लगता है। जैसे :
शौरसेनी-हस् = + Q= हसि, मागधी-हश + दु= हशिदूं पैशाचो-हस् + तुं = हसितुं ।
२. हेत्वर्थ कृदन्त बनाने के लिए वैदिक संस्कृत में 'तवे' प्रत्यय का उपयोग होता है । प्राकृत का 'त्तए' और वैदिक 'तवे' प्रत्यय बिल्कुल समान है। 'त्तए' प्रत्यय वाले रूप आर्ष प्राकृत में विशेषतः उपलब्ध होते हैं ।
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( ३६१ )
'तुं' और 'त' प्रत्यय परे रहने पर पूर्व के 'अ' को 'इ' अथवा 'ए'
होता है । तुं -
भण् + तुं— {
हो + तुं
{
चय् + एवं चयेवं ( त्यक्तुम् )
दा + एवं = देवं ( दातुम् )
=
२
भणितुं भणेतुं
मणिउँ', भणेउं, होतुं, होइउं ) होउ, होउ }
चर् + एवि पाउ+ एवि :
8. अपभ्रंश भाषा में धातु को
एप्पिणु, एवि, एविणु इसमें से कोई प्रत्यय लगाने से हेत्वर्थ कृदन्त बनते है । जैसे --
1
}
=
:
चरेवि ( चरितुम् )
( भवितुं ) = होने के लिए ।
'
भुंज् + अण = भुंजण ( भोक्तुमु ) कर् + अ = करण ( कर्तुम् ) सेव् + अ = सेवणहं ( सेवितुम् ) भुज् + अहं = भुंजणहं ( भोक्तुम् ) मुंच् + अणहि = मुंचहि ( मोक्तुम् सुव् + अर्णाहि = सुबर्णाह ( स्वप्तुम् ) कर् + एप्पि = करेपि ( कर्तुम् ) जि + एप्पि = जे प ( जेतुम् ) कर् + एप्पिणु = करेपिणु ( कर्तुम् ) बोल्ल + एपि बोल्लेपिणु ( वक्तुम् )
( भणितुं ) = पढ़ने के लिए ।
एवं अण, अणहं, अहि, एप्पि,
"
: पालेवि ( पालयितुम् )
=
१. हे० प्रा० व्या० ८।३।१५७ । २. व्यंजनान्त धातु के अन्त में 'अ' हमेशा होता है और स्वरान्त धातु के अन्त में 'अ' विकल्प से होता है । यह एक साधारण नियम है । जैसे
mn
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( ३६२ )
प्रेरक हेत्वर्थ कृदन्त ( मूलधातु के प्रेरक अंग बनाने के लिए देखिए पाठ १९वां ) भण्-भणावि + तुं = भणावितुं (भणापयितुम् ) = पढ़ाने के लिए।
भणाविउ
कर् + त्तए = करित्तए, करेत्तए ( कर्तवे-कर्तुम् ) = करने के लिए। गम् + त्तए = गमित्तए, गमेत्तए ( गन्तवे, गन्तुम् ) = जाने के लिए। आहर् + त्तए = आहरित्तए, आहरेत्तए (आहर्तवे, आहर्तुम् ) = आहार
करने के लिए। दल + त्तए = दलइत्तए, दलएत्तए ( दातवे-दातुम् ) = देने के लिए। ( आहरित्तए के बदले 'आहारित्तए' रूप भी उपलब्ध होता है और 'दल+त्तए' में 'अइ' का आगम होता है।) हो+त्तए = होइत्तए, होएत्तए (भवितवे-भवितुं ) = होने के लिए। हो + त्तए = होत्तए ( भवितवे-भवितुं ) = होने के लिए। सुस्सूस + तए = सुस्सूसित्तए, सुस्सूसेत्तए ( शुश्रूषितवे-शुश्रूषितुम् )
शुश्रूषा करने के लिए। चंकम +त्तए = चंकमित्तए । ( चंक्रमितवे-चङ्क्रमितुम् ) चंक्रमण
चंकमेत्तए करने के लिए। भण-भणावि + त्तए = भणा वित्तए । (भणापयितवे-भणापयितुम्)=
पढ़ाने के लिए। अनियमित हेत्वर्थ कृदन्त कर् + तुं = कातुं, काउं, कटुं, कटु ( कर्तुम् ) = करने के लिए। भण् + तुं - भण + तुं = भणितुं, भणेतुं हो + तुं-होअ + तुं = होइतुं, होएतुं हो+तु
होतुं
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________________
( ३६३ )
गेण्ह + तुं = घेतुं ( ग्रहीतुं) = ग्रहण करने लिए। दरिस् + तुं = ददर्छ ( द्रष्टुम् ) = देखने के लिए। भुज् + तुं = मोत्तु ( भोक्तुम् ) = भोगने के लिए, खाने के लिए। मुञ्च् + तुं = मात्तु (मोक्तुम्) = मुक्त होने के लिए, छूटने के लिए। रुद् + तुं = रोत्तु ( रोदितुम् ) = रोने के लिए। वच् + तुं = वोत्तु ( वक्तुम् ) = बोलने के लिए । लह + तुं = लद्ध ( लब्धम् ) = लेने के लिए, प्राप्त करने के लिए। रुध् + तुं = रोद्ध ( रोद्धम् ) = रोकने के लिए, निरोध करने के लिए। युध् + तुं = योधु,! ( योद्धम् ) = युद्ध करने के लिए। __ जोद्ध
सम्बन्धक भूतकृदन्त* मूल धातु में तुं', तूण, तुआण, अ, इत्ता, इत्ताण, आय और आए (इन आठ प्रत्ययों में से कोई एक ) प्रत्यय लगाने पर सम्बन्धक भूतकृदन्त
* पालि में धातु को 'त्वा', त्वान' तथा 'तून' प्रत्यय तथा 'य' - प्रत्यय लगाने से सम्बन्धक भूतकृदन्त के रूप बनते हैं। जैसे
पालि करित्वा प्रा० करित्ता । पालि-हसित्वान प्रा० सित्ताण ।
, कत्तन प्रा० कातून । ,, आदाय प्रा० आदाय ( देखिए पा० प्र० पृ० २५५ से २५६ )। शौरसेनी तथा मागधो भाषा में सम्बन्धक भूतकृदन्त के सूचक 'इय,' और 'दूण' प्रत्यय हैं। जैसे
हो + इय = हविय प्रा० होत्ता सं० भूत्वा हो + दूण = होदूण पढ + इय - पढिय पढित्ता सं० पठित्वा पढ + दूण = पढिदूण " .
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( ३६४ ) बनता है । 'तु' इत्यादि पहले चार प्रत्यय परे रहने पर पूर्व के 'अ' को 'इ' और 'ए' विकल्प से होते हैं। ___'तूण', 'तुआण' और 'इत्ताण' प्रत्यय के 'ण' के ऊपर अनुस्वार विकल्प से होता है । जैसे-तूण, तूणं, तुआण, तुआणं, इत्ताण, इत्ताणं ।
हस् + तुं-ई हसितुं, हसेतुं । ( हसित्वा ) = हंसकर ।
। हसिउ, हसे हो + अ + तुं-होइतुं, होएतुं ? ( भूत्वा ) = होकर ।
होइउं, होएउंड हो + तुं - होतुं, होउं ( भूत्वा ) = होकर। तूणहस्+तूण - 5 हसितूण, हसेतूण । (हसित्वा ) = हंसकर ।
हरिऊण, हसेऊण )
* पालि में सम्बन्ध भूतकृदन्त के उदाहरण
रम् + इय = रमिय प्रा० रंता सं० रन्त्वा
रम् + दूण = रंदूण , पैशाची भाषा में 'दूण' के स्थान पर 'तून' प्रत्यय होता है । जैसे
गम् + तून = गंतून ( गत्वा ) हस् + तून = हसितून ( हसित्वा)
पढ्+तून = पढितून (पठित्वा ) अपभ्रंश भाषा में इ, इउ, इवि, अवि, एप्पि, एप्पिणु, एवि, एविणु इनमें से कोई भी प्रत्यय लगाने से सम्बन्धक भूतकृदन्त बनता है । जैसे
लह, + इ = लहि ( लब्ध्वा ) कर् + इउ = करिउ ( कृत्वा)
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( ३६५ )
हो + अ + तूण = होइतूण, होएतून हाइऊण, होऊन
हो + तूण = होतूण, होतूणं होऊण,
होऊणं
=
तुआण
हस् + तुआण = हसितुआण, हसेतुआ } ( हसित्वा) = हँसकर
=
}
9
कर् + इवि
कर् + अवि
कर + एप्पि
कर् + एपिणु कर् + एवि
= करेवि (,, )
कर + एविणु = करेविणु (,, )
}
SPORNER
29
( भूत्वा ) = होकर
करिवि (,, ) करवि (,, ) करेपि (,, ) करेप्पिणु (,, )
अपवाद
शौरसेनी में सिर्फ 'कृ' धातु का तथा 'गम्' धातु का सम्बन्धक भूतकृदन्त 'कडुअ' तथा 'गडुअ' होता है |
( भूत्वा ) = होकर
संस्कृत में जहां 'ष्ट्वा' होता है तो वहीं पैशाची में दून तथा त्थून प्रत्यय होता है । जैसे
नष्ट्वा पैशाची - नद्धून, नत्थून
तष्ट्वा
-
- तद्धून, तत्थून ।
अपभ्रंश में केवल 'गम्' धातु का सम्बन्धक भूतकृदन्त का रूप 'गम्पि' और 'गपिणु' भी होते हैं ।
१. हे० प्रा० व्या० ८ २ १४६ । २. हे० प्रा० व्या० ८ ११२७ ।
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( ३६६ ) हो + अ + तुआण = होइतुआण, होएतुआण! ( भूत्वा ) = होकर
होइउआण, होएउआण) हो + तुआण = होतु आण, होउआण ( भूत्वा ) = होकर . अहस् + अ = हसिअ, हसेअ ( हसित्वा) = हँसकर हो+अ+ अ =होइअ, होएअ (भूत्वा) = होकर हो+अ = हो इत्ताहस् + इत्ता = हसित्ता, हसेत्ता ( हसित्वा ) = हँसकर इत्ताणहस् + इत्ताण = हसित्ताण, हसेत्ताण ( हसित्वा ) हँसकर
आयगह + आय = गहाय ( गृहीत्वा )= ग्रहण करके
आएआय + आए = आयाए ( आदाय ) = ग्रहण करके संपेह + आए = संपेहाए ( संप्रेक्ष्य ) = खूब विचार करके ( 'आय' और 'आए' प्रत्यय का उपयोग जैन आगमों की भाषा में प्रायः उपलब्ध होता है । ) इसी प्रकार सुस्सूसितुं, सुस्सूसितूण, सुस्सूसितुआण, सुस्सूसिअ, सुस्सूसित्ता, सुस्सूसित्ताण ( शुश्रूषित्वा = शुश्रूषा करके ); चंकमि+ तु-मितूण-मितुआण, मिअ, मित्ता, मित्ताण ( चंक्रमित्वा = चंक्रमण करके ) इत्यादि रूप भी समझ लें।
प्रेरक सम्बन्धक भूतकृदन्त भणावि + तुं-वितूण-वितुआण, विअ, वित्ता-वित्ताण (भणापयित्वा)
=पढ़वा कर हासि + तुं = सितूण, सितुआण, सिअ, सित्ता, सित्ताण (हासयित्वा)
=हंसा कर
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( ३६७ ) अनियमित सम्बन्धक भूतकृदन्त कर् + तुंकातुं', काउं, कटु कर् + तण = कातूण, काऊण
( कृत्वा )= करके कर + तुआण = काउआण, कातुआण ) गह, + तुं = घेत्तु ,, + तूण = घेत्तूण, घेत्तणं
. ( गृहीत्वा )= ग्रहण करके ,, + तुआण = घेत्तुआण, घेत्तुआणं). दरिस + तुं = द?', दटुं " तूण = दळूण, दळूणं
( दृष्ट्वा ) = देखकर तुआण = दळुआण, दळुआणं ) भुङ्ग्+तुं = भोत्तु
) (भुक्त्वा ) = भोजन करके, " तूण = भोत्तण, भोत्तणं
खा कर, भोग कर। तुयाण = भौत्तुआण, भोत्तुआणं ) मुञ्च् + तुं = मोत्तु
( मुक्त्वा ) = छोड़ कर, " तण = मोतूण, मोत्तणं
त्याग कर। , तुआण = मौत्तुआण, मोत्तुआणं ) इसी प्रकार
'रुद्' ऊपर से रोत्-रोत्तु, रोत्तूण, रोत्तुआण, ( रुदित्वा) = रोकर; 'वच्' धातु से वोत्-वोत्तु, बोत्तूण, वोत्तुआण, ( उक्त्वा ) = बोल कर; 'वंद्' धातु से वंदितुं, वंदित्तु ( वन्दित्वा ) = वन्दना करके; 'कर' से कटु, कटु ( कृत्वा ) = करके ।
(निर्देश :-'वंदित्तु" और 'कटुं' में 'तु के ऊपर का अनुस्वार लोप भी हो जाता है।)
१. हे० प्रा० व्या० ८।४।२१४ । २. हे० प्रा० व्या. ८।४।२१०। ३. हे० प्रा० व्या० ८।४।२१३ । ४. हे . प्रा. व्या० ८।४।२१२। ५. हे० प्रा० व्या० ८।२।१४६ ।
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( ३६८ ) आयाय ( आदाय ) = ग्रहण करके गच्चा, गत्ता ( गत्वा ) = जाकर किच्चा, किच्चाण ( कृत्वा ) = करके नच्चा, नच्चाण ( ज्ञात्वा ) = जान कर नत्ता ( नत्वा )= नम कर, झुककर बुज्झा (बुवा) = जान कर भोच्चा ( भुक्त्वा ) = खा कर, भोग कर मत्ता, मच्चा ( मत्वा ) = मान कर वंदिता ( वन्दित्वा ) = वन्दना करके विप्पजहाय ( विप्रजहाय, विप्रहाय ) = त्याग कर, छोड़कर सोच्चा (श्रुत्वा ) = सुनकर सुत्ता ( सुप्त्वा ) = सोकर आहच्च ( आहत्य ) = आघात करके, पछाड़कर साहट्ट ( संहृत्य ) = संहार करके, बलात्कार करके हंता ( हत्वा ) = मार कर आहटु ( आहृत्य) = आहार करके परिन्नाय ( परिज्ञाय ) = जानकर चिच्चा, चेच्चा, चइत्ता ( त्यक्त्वा ) = छोड़कर निहाय ( निधाय) = स्थापित कर पिहाय ( पिधाय) = ढाँक कर परिच्चज्ज ( परित्यज्य ) = परित्याग करके, छोड़कर अभिभूय ( अभिभूय ) = अभिभव करके, तिरस्कार करके पडिबुज्झ (प्रतिबुध्य ) = प्रतिबोध पाकर ।
उच्चारणभेद से उत्पन्न इन सभो अनियमित रूपों की साधनिका -संस्कृत रूपों द्वारा हो समझी जा सकती है। इसके अतिरिक्त अन्य अनेक अनियमित रूप भी संस्कृत की तरह समझ लें।
|
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तेइसवाँ पाठ विध्यर्थ करन्त* के उदाहरण
मूलधातु में तिब्व, अपोप, अथवा अणिज्ज प्रत्यय लगाने से विध्यर्थ कृदन्त बनते हैं। तव्व प्रत्यय के पूर्व 'अ' को 'इ' और 'ए'' होता है।
तव्व
हस् + तव्व-हसितव्वं, हसेतव्वं (हसितव्यम् ) = हंसना चाहिए,
__ हसिअव्वं, हसेअव्वं । - हंसने योग्य । हो + तब्व-होइतब्वं, होएतव्वं (भवितव्यम् ) = होने योग्य, होइअव्वं, होएअव्वं
- होना चाहिए। होतव्वं, होयव्वं, होमव्वं ) ना + तब्य - नातव्वं, नायव्वं ( ज्ञातव्यम् ) = जानने योग्य,
जानना चाहिए। *पालि भाषा में तन्व, अनीय और 'य' प्रत्यय लग कर धातु का कृत्य प्रत्ययांत रूप बनता है । जैसे, भवितव्वं । सयनीयं । कारियं । तथा देय्यं, मेय्यं, मेतव्वं, मातव्वं, कच्चं (कृत्यम्), भच्चो (भृत्यः वगैरह रूप होते हैं ( दे० पा० प्र० पृ० २५४ )। अपभ्रंश भाषा में 'तब्ब' के स्थान में 'इएव्व', 'एव्व' तथा 'एवा' प्रत्यय का उपयोग होता है। जैसे---
कर + इएव्वउं-करिएव्वउं ( कर्तव्यम् ); सह + एव्वउं-सहेन्वउं (सोढव्यम्); जग्ग + एवा-जग्गेवा (जागरितव्यम्)। १. हे० प्रा० व्या० ८।३।१५७ ।
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( ३५४ ) चिव + तव्व-चिन्वितव्वं, चिव्वेतव्वं ( चेतव्यम् ) = इकट्ठा करने
चिन्विअव्वं, चिव्वेअव्वं योग्य, इकट्ठा करना चाहिए। अणीअ, अरिणअहस् + अणीप्र-हसणीनं, हसणोयं । (हसनीयम्) = हँसने योग्य, हस + अणि-हसणिज्ज हँसना चाहिये।
प्ररक विध्यर्थं कृदन्त हसावि + तव्व-हसावितव्वं )
च। (हसावयितव्यम्) = हँसाने योग्य, हँसाना हसाविअव्वं (ह
हसावियव्वं । चाहिए। हसावि + प्रणीअ हसावणीअं, हसावरणीय ? (हसापनीयम्) हसावि + अणिज्ज । हसावरिपज्ज
- इसी प्रकार वयणीयं, वयणिज्जं, करणीयं, करणिज्ज, सुस्सूसितव्वं, चंकमितव्वं, सुस्सूसणिज्जं, सुस्सूसणीयं इत्यादि रूप समझ लेना चाहिये।
अनियमित विध्यर्थ कृदन्त कज्ज (कार्यम्) = करने योग्य । किच्चं (कृत्यम्) = कृत्य । गेज्झ (ग्राह्यम्) = ग्रहण करने योग्य । गुज्झं (गुह्यम्) = छुपाने योग्य, गुप्त रखने योग्य । वज (वय॑म्) = वर्जने योग्य, निरोध करने योग्य । अवज्ज (अवद्यम्। = नहीं बोलने योग्य, पाप । बच्चं (वाच्यम्) = बोलने योग्य । वक्क (वाक्यम्)= कहने योग्य, वाक्य । कातव्वं ). काव्य (कर्तव्यम्) = कर्तव्य, करने योग्य । काअव्वं ) जन्न (जन्यम्। =जन्य, पैदाहोने योग्य ।।
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( ३५५ )
भिच्चो (भृत्यः ) ■ भृत्य, नौकर ।
भज्जा ( भार्या) = भार्या, भरण-पोषण करने योग्य स्त्री । अज्जो ( श्रर्यः) = श्रर्य - वैश्य - स्वामी । अज्जो ( श्रार्यः) = आर्य ।
पच्चं ( पाच्यम् ) == पचने योग्य |
भव्वं (भव्यम् = होने योग्य |
घेतव्वं ( ग्रहीतव्यम् ) = ग्रहण करने योग्य ।
वोत्तव्यं ( वक्तव्यम्) - कहने योग्य ।
रोत्तव्वं ( रुदितव्यम् ) = रुदन करने योग्य, रोने योग्य । भोत्तव्वं (भोक्तव्यम् ) = भोजन करने योग्य; भोगने योग्य । मोत्तव्वं (मोक्तव्यम्) • छोड़ने योग्य । दव्वं (द्रष्टव्यम् ) = देखने योग्य ।
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चौबीसवाँ पाठ
वर्तमान कृदन्त मूल धातु में 'न्त', 'माण' और 'ई' प्रत्यय लगाने से उसके वर्तमान कृदन्त रूप बनते हैं । परन्तु 'ई' प्रत्यय केवल स्त्रीलिङ्ग में ही प्रयुक्त होता है। 'न्त', 'माण' और 'ई' प्रत्यय परे रहते पूर्व के 'अ' को विकल्प से 'ए' होता है। न्तभए + न्त-भवंतो, भणेतो, भरिणतो, (भएन्) = पढ़ता हुआ।
भणंत, भणेतं, भरिंगतं (भणन्) = पढ़ता हुआ। भणंतो', भणेती, भणिती, (भणन्ती)= पढ़ती हुई।
भयंता, भणेता, भरिणता' (भणन्ती) = ,, ,, हो + अ + न्त-होघेतो, होएंतो, होइंतो (भवन्) = होता हुआ ।
होतो, हुंतो होतं, होतं, होइंतं (भवत्) = होता हुआ। होतं, हुतं होअंती, होएंती, होइंती (भवन्ती) = होतो हुई। होअंता, होएंता, होइता ( ,, )= , होती, होता हुती, हुता
१. हे० प्रा० व्या० ८।३।१८१६ तथा १८२ ।
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( ३५७ )
माणभण् = माण-भणमाणो, भणेमाणो (भणमानः) = पढ़ता हुआ।
भणमाणं, भरणेमाणं (भणमानम्) = पढ़ता हुआ । भणमापी, भणेमाणी (भणमांना) = पढ़ती हुई।
भणमाणा, भरणेमाणा हो + अ + माण-होप्रमाणो, होएमाणो, (भवमानः)= होता हुआ ।
होमाणो. होप्रमाणं, होएमाणं, (भवमानम्। =होता हुआ।
होमाणं होप्रमाणी, होएमापी) होप्रमाणा, होएमाणा : (भवमाना) = होती हुई। होमाणी, होमाणा )
ई
भए + ई-भणई, भणेई (भणन्ती) = पढ़ती हुई।
हो + प्र-ई-होमई, होएई,होई (भवन्ती) होती हुई। ... इसी प्रकार कर्तरि प्रेरक अंग, सामान्य भावे अंग, सामान्य कर्मणि अंग तथा प्रेरक भावे और कर्मणि अंग को उक्त तीनों प्रत्ययों में से एक लगाने से उसके वर्तमान कृदन्त बनते हैं। कर्तरि प्रेरक वर्तमान कृदन्त.. करावि + अ+ न्त-करावंतो, करावेतो (कारापयन्) = करवाता हुआ।
कार + न्त-कारंतो, कारेंतो (कारयन्) = करावि + क + माण-करावमाणो, करावेमापो (कारापयमाणः), कार + मारण-कारमाणो, कारेमाणो (कार्यमाणः) . , .
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( ३५८ ) सामान्य भावे वर्तमान कृदन्तभण् + इज्ज + न्त-भणिज्जतं भण् + इज्ज + मारण-भणज्जप माख ((भण्यमानम्)=पढ़ा जाता भरण + ई+न्त-भरपीमंत
हिमा, पढ़ने में आने वाला। भए + ई+माणं--भणीप्रमण ). सामान्य कर्मणि वर्तमान कृदन्त. भणोघेतो, भरिपज्जंतो गंथो (भण्यमानः ग्रन्थः)= पढ़ा जाता हुअा ग्रंथ।। भणीप्रमाणो, भणिज्जमाणो सिलोगो (भण्यमानः श्लोकः) = पढ़ा
जाता हुआ श्लोक। भणिज्जतो, भरणीअंती गाहा (भण्यमाना गाथा)=
पढ़ी जाती हुई गाथा। भणिज्जमाणी, भरणीप्रमापी पंती (भण्यमाना पङ्क्ति) ,, पंक्ति
भरिणज्जई, भणोई प्रेरक भावेभरणाविज्जतं (भखाप्यमानम्) = पढ़ाया जाता हुआ, पढ़ाने में आने .
वाला। भणाविअंतं, इत्यादि । प्रेरक कर्मणि
भणाविज्जतो मुणी (भरणाप्यमानः मुनिः) = पढ़ाया जाता हुआ मुनि । भणाविज्जमाणो भणाविश्रतो भणावीप्रमाणो भणाविज्जती साहुणी (भणाप्यमाना साध्वी ) = पढ़ाई जाती
हुई साध्वी। भणाविज्जमाणा भरणावीनंती भरणावीप्रमारणा
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( ३५६ ) भरणाविज्जई
भरणावीमई, इत्यादि। इसी प्रकार :
सुस्सूसंतो (शुश्रूषन्), चंकमतो (चक्रमन् ।,
सुस्सूसमाणो (शुश्र षमाणः), चंकममाणो (चक्रममाणः), सुस्सूसिज्जन्तो )
. चंकमिजतो. )
... चंकमिज्जमाणो ( ( चंङ्क्रम्यसुस्सूपीअतो सुस्सूसोप्रमाणो
चंकमीप्रमाणो) इत्यादि रूप समझ लेना चाहिये।
सुस्सूसिज्जमाणा (शश्र ष्यमाण:)
कमोग्रतो
माणः ।
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पच्चीसवाँ पाठ
संख्यावाचक शब्द जिन शब्दों द्वारा संख्या का बोध होता है वे संख्यावाचक शब्द कहे जाते हैं । ऐसे शब्द अकारान्त, प्राकारान्त , इकारान्त और उकारान्त भो होते हैं । विशेषण रूप होने से इन शब्दों का लिङ्ग निश्चित नहीं होता। इसलिए इन शब्दों के लिङ्ग, वचन और विभक्ति विशेष्य के अनुसार होते हैं। संख्यावाचक प्रकारान्त, इकारान्त, और उकारान्त नामों के रूप आगे बतायी गयी रीति के अनुसार समझ लें। तथा यह भी ध्यान रहे कि 'दु' शब्द से लेकर 'अट्ठारस' शब्द तक के सब शब्द के रूप बहुवचन में होते हैं । खास विशेषता इस प्रकार है:
'एक' से लेकर 'अट्ठारस' (अष्टादश) पर्यन्त संख्यावाचक शब्दों के षष्ठी के बहुवचन में 'एह'' और 'एहं' प्रत्यय क्रमशः लगते हैं :
एग + एह = एगण्ह, एग + एहं = एगण्हं । उभय + एह = उभयण्ह, उभय + एहं = उभयण्हं । ति+ राह = तिरह, ति + एहं - तिराहं । दु+ एह = दुण्ह,
दु+ रहं = दुरह। कति + एह-कतिण्ह, कति + एहं = कतिराहं ।
इक्क, एक्क, एग, एअ (एक) शब्दों के पुल्लिग रूप 'सव्व' की भाँति होते हैं। स्त्रीलिंग के रूप 'सव्वा' की भाँति और नपुंसकलिंग रूप नपुंसकलिङ्गी 'सव्व' की भाँति होते हैं । १. हे० प्रा० व्या० ।३।१२३ । पालि में 'नं' प्रत्यय लगता है देखिए
पा० प्र० १० १५५ ।
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( ३६१ )
'सव्व' के षष्टी के बहुवचन की भाँति इसमें (एग शब्द में) भी 'एसि' प्रत्यय लगता है ।
एग + एसि = एगेसि इत्यादि ।
उभ, उह (उभ) शब्द के रूप बहुवचन में ही होते हैं और वे सभी रूप 'सव्व' की भाँति होंगे ।
'उभ' शब्द के रूप
प्र०
द्वि०
तृ
च०- ष०
पं०
स०
उभे ।
उभे, उभा ।
उभेहि, उभेहिं, उभेहिँ ।
उभण्ह, उभरहं ।
उभत्तो, उभाश्रो, उभाउ
उभाहि, उभेहि
उभाहितो, उभेहिंतो
उभासुंतो, उभेसुंतो
उभेसुं, उभेसु
(द्वि) के तीनों लिङ्गों में रूप
२
दु
प्रo - द्वि० दुवे, दोरिण, दुरिण ।
१. पालि में 'उभ' शब्द के रूप :प्र० - द्वि० उभो, उभे I
तृ० - पं० उभोहि, उभोभि, उभेहि, उभेभि ।
च० - ष० उभिभं ।
स०
उभी, उभे ।
— दे० पा० प्र० पृ० १५५ संख्या शब्द ।
२. पालि भाषा में द्वि' वगैरह संख्यावाचक शब्दों के रूप थोड़े जुदे - जुदे
होते हैं । जैसे
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( ३६२ ) वेरिण, विरिण। दो, वे अथवा बे। दोहि, दोहिं, दोहिँ वेहि, वेहिं, वेहिँ अथवा
बेहि, बेहिं, बेहि। च०-५० दोण्ह, दोण्हं, दुण्ह, दुराह 'वेण्ह, वेण्हं, विण्ह, विण्हं
द्वि-बहुवचन प्र०-द्वि. दुवे, द्वे तृ०-५० द्वीहि, द्वीभि च०-ष० दुविन्नं, द्विन्न स० द्वीसु
ति ( त्रि) पुलिंग
स्त्रोलिंग नपुंसक लिंग प्र०-द्वि० तयो
तिस्सो
तीरिण तृ०-५० तोहि, तोभि तीहि, तीभि तीहि, तीभि च०-५० तिरुणं, तिणन्नं तिस्सन्न तिराणं, तिरपन्नं स० तीसु
तीसु __ चतु ( चतुर् ) प्र०-द्वि० चत्तारो, चतुरो चतस्सो चत्तारि तृ०-५० चतूहि, चतूभि चतूहि, चतूभि चतूहि, चतूभि च०-५० चतुन्नं
चतस्सन्नं
चतून्नं स० चतूसु
चतूसु
चतूसु १. इन रूपो में 'व' के स्थान में 'ब' भी बोला जाता है।
तीसु
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पं०
स०
( ३६३ )
दुत्तो, दोश्रो, दोउ, दोहितो, दोसुंतो वित्तो, वे, वेउ, वेहितों, वेसुंतों दोसु, दोसुं, वेसु, वेसुं ।
'ति' (त्रि ) तीनों लिङ्गों के रूप
प्र० - द्वि० तिरिरण
च० तथा ष० तिरह, तिरहं
शेष रूप 'रिसि' शब्द के बहुवचन के रूपों की भाँति समझ लें । 'चउ' (चतुर्) तीनों लिङ्गों में रूप
प्र० - द्वि चत्तारो ( चत्वारः), चउरो (चतुरः), चत्तारि ( चत्वारि ) तृ० - चऊहि, चऊहि, चऊहिँ
चहि, चउहिं, चउहिँ
च०- ष० चउरह, चउर
शेष सभी रूप 'भारण' शब्द की भाँति होंगे । 'पंच' (पञ्चन्) तीनों लिङ्गों में रूप
प्र० - द्वि० पंच
तृ० - पंचेहि, पंचेहि, पंचेहि
पंचहि पंचहि पचहिं
च० तथा ष० - पंचरह, पंचराहं ( पालि - पंचन्तं )
शेष सभी रूप 'वीर' शब्द के बहुवचन के रूपों जैसे हैं ।
इसी प्रकार निम्नलिखित सभो शब्दों के रूप 'पञ्च' शब्द की
भाँति होंगे-
छ ( षट् ) = छः
सत्त (सप्तन् ) = सात - सप्त
= भाठ-भ्रष्ट
अट्ठ (अष्टन्) नव ( नवन् )
= नव
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________________
दह, दस (दशन् ) दत
=
( ३६४ )
1
एआरह, एगारह, एारस ( एकादश ) दुवांसल, बारस, बारह ( द्वादश) = बारह, तेरस, तेरह (त्रयोदश) = तेरह, त्रयोदश
चोट्स, चोद्दह, चउदस, चउद्दह ( चतुर्दश) = चौदह, चतुर्दश परस, परासरह (पञ्चदश) = पन्द्रह, पञ्चदश सोलस, सोलह ( षोडश) = षोडश, सोलह
सत्तरस, सत्तरह (सप्तदश) = सत्रह सप्तदश
अट्ठारस, अट्ठारह (अष्टादश) = अठारह, अष्टादश ।
'कइ' ( कति = कितना ) शब्द के रूप
कई, करणो इत्यादि
प्र० - द्वि च० तथा ष० – कइरह, कइहं
-
शेष रूप 'रिसि' के बहुवचन की भाँति होते हैं । नीचे बताये गये शब्दों में आकारान्त शब्द के रूप 'माला' की भाँति और इकारान्त शब्द के रूप 'बुद्धि' की भाँति होते हैं ।
वीसा ( एकोनविंशति ) वीसा ( विंशति) = बीस ।
1
एकादश, ग्यारह
द्वादश
उन्नीस ।
इक्क बोसा, एक्कवीसा } (एकविंशति) = इक्कीस (एक-बीस) ।
बावीसा ( द्वाविंशति) = बाईस ( बावीस ) ।
तेवीसा ( त्रयोविंशति) = तेइस (वीस ) | चउवीसा } (चतुर्विंशति) ===चौबीस । चोवीसा
पणवीसा (पञ्चविंशति) = पच्चीस ।
छवीसा ( षड्विंशति) = छब्बीस |
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( ३६५ ) सत्तावीसा (सप्तविंशति) = सत्ताईस अट्ठावीसा, अट्ठवीसा, अडवीसा (अष्टविंशति)=प्राइस एगणतीसा (एकोनत्रिशत्) = उन्तीस तीसा (त्रिंशत्) = तीस एगतीसा, एक्कतोसा, इक्कतोसा (एकत्रिंशत्)= एकतीस बत्तीसा (द्वात्रिंशत्) = बत्तीस तेत्तीसा, तित्तीसा (त्रयस्त्रिशत्) = तैत्तीस चउत्तोसा, चोत्तोसा (चतुस्त्रिशत्) = चउत्तोस, चौंतीस पणतीसा (पञ्चत्रिंशत्) = पैंतीस छत्तोसा षट्त्रिंशत्) = छत्तीस सत्ततीसा (सप्तत्रिंशत् = सैंतीस अट्टतीसा, अडतीसा (अष्टत्रिंशत्) = अड़तीस एगणचत्तालिसा (एकोनचत्वारिंशत्)=उन्तालिस (ऊनचालीस) चत्तालिसा, चत्ताला (चत्वारिंशत्)= चालीस एगचत्तालिसा, इक्कचत्तालिसा, एक्कचत्तालिसा, इगयाला (एकचत्वा
रिंशत्) = इकतालीस (एकतालीस) बेप्रालिसा, बेबाला, दुचत्तालिसा (द्विचत्वारिंशत्) = बेयालीस तिचत्तालिसा, तेश्रालिसा, लेाला (त्रिचत्वारिंशत्) = तैंतालीस चउचत्तालिसा, चोप्रालिसा, चोप्राला, चउपाला (चतुश्चत्वा
- रिंशत्)= चौवालीस पणचत्तालिसा, पणयाला (पञ्चचत्वारिंशत्) = पैंतालिस छचत्तालिसा, छायाला (षट्चत्वारिंशत्) = छियालीस सत्तचत्तालिसा, सगयाला (सप्तचत्वारिंशत्) =सैंतालीस अट्ठचत्तालिसा, अडयाला (अष्टचत्वारिंशत्) =अड़तालीस एगणपण्णासा (एकोनचत्वारिंशत्) = उनचास पण्णासा (पञ्चाशत्) = पचास
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( ३६६ )
बावराणा
एगपण्णासा, इक्कपण्णासा, एक्कपण्णासा (एकपञ्चाशत्) एगावराणा (एकपञ्चाशत्)=एक्यावन
६ (द्विपञ्चाशत्) = बावन तेवण्णा, तिपण्णासा (त्रिपञ्चाशत्) = त्रिपन चोवरणा, चउपरापासा (चतुष्पञ्चाशत्) = चौवन पणपण्णा, पणपण्णासा, पञ्चावरणा (पञ्चपञ्चाशत्) =पचपन छप्पराणा, छप्पएखासा (षट्पञ्चाशत्) = छप्पन सत्तावन्ना, सत्तपण्णासा (सप्तपञ्चाशत्) = सत्तावन पट्ठावन्ना, अडवन्ना, अट्ठपण्णासा (अष्टपञ्चाशत्)= अट्ठावन एगूणसट्ठि । एकोनषष्टि)= उनसठ सट्टि (षष्टि)= साठ एगसट्ठि, इगसट्टि (एकषष्टि)= इकसठ बासट्ठि, बिसट्ठि (द्वि-षष्टि) =बासठ तेसट्ठि (त्रिषष्टि) = त्रसठ, त्रिसठ चउसट्टि, चोसट्ठि (चतुष्षष्टि) = चौसठ पणसट्ठि (पञ्चषष्टि) = पैंसठ छासट्ठि (षट्षष्टि) = छियासठ सत्तसट्ठि (सप्तसष्टि) = सड़सठ अडसट्ठि, अट्ठसट्ठि (अष्टषष्टि) = अड़सठ एगूणसत्तरि (एकोनसप्तति) = उनहत्तर सत्तरि (सप्तति) = सत्तर इक्कसत्तरि, इक्कहत्तरि (एकसप्तति) = इकहत्तर, एकहत्तर बा (बि) स (ह) त्तरि (द्विसप्तति)=बहत्तर बावत्तरि तिसत्तरि (त्रिसप्तति)= तिहत्तर, तेहत्तर
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________________
( ३६७ )
चोसत्तरि, चउसत्तरि ( चतुस्सप्तति) = चौहत्तर, चोहत्तर पण सत्तरि, परणसत्तरि ( पञ्चसप्तति) = पचहत्तर छसत्तरि ( षट्सप्तति) = बेहत्तर, छिहत्तर सत्तसत्तरि (सप्तसप्तति) = सतहत्तर अट्ठसत्तरि, अडत्तरि ( श्रष्टसप्तति) = अठहत्तर एगूणासी ( एकोनाशीति) = उन्नासी
असीर (अशीति) = अस्सी
एगासीइ (एकाशीति) = इक्यासी
बासी इ ( द्वयाशीति) = बयासी
तेसीइ तेरासीइ
} (त्र्यशीति) = तिरासी
चउरासीइ, चोरासीइ ( चतुरशीति) = चौरासी पण सीइ, पञ्चासीइ ( पञ्चाशीति) = पचासी छासीइ (षडशीति) = छियासी
सत्तासीर ( सप्ताशीति) = सत्तासी अट्ठासी ( श्रष्टाशीति) = अट्ठासी नवासीइ ( नवाशीति) = नवासी एगुणनवइ ( एकोननवति) = नवासी नवइ, एवइ ( नवति ) = नब्बे
एगणवइ, इगणवइ (एकनवति) = इक्यानबे बाणवइ द्विनवति) = बानवे
तेवइ ( त्रिनवति) = तिरानबे चउणवइ, चोणवइ (चतुर्नवति) = चौरानबे पंचवइ, पण्णणवइ ( पञ्चनवति) = पंचानबे छण्णव (षण्णवति) = छियानबे
सत्त (ता, वइ (सप्तनवति) = सत्तानवे
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________________
( ३६८ ) अट्ठणवइ, अडणवइ (अष्टनवति) = अट्ठानबे । ण न)वरणवइ (नवनवति) = निन्यानबे एगूणसय ‘एकोनशत) सय (शत) = एक सौ दुसय (द्विशत) = दो सौ तिसय (त्रिशत) तीन सौ बे सयाई (द्व शते ) = दो सौ तिरिण सयाई (त्रीणि शतानि) = तीन सौ चत्तारि सयाई (चत्वारि शतानि) = चार सौ सहस्स . सहस्र) = हजार बे सहस्साई (द्वसहस्र) = दो हजार तिएणि सहस्साई (त्रोणि सहस्राणि) = तीन हजार चत्तारि सहस्साई (चत्वारिसहस्रारिण) = चार हजार दह सहस्स (दश सहस्र) = दस हजार अयुअ, अयुत (अयुत) = अयुत, दस हजार लक्ख (लक्ष) = लाख दस लक्ख, दह लक्ख (दशलक्ष) = दस लाख पउप्र, पउत, पयुम (प्रयुत) = प्रयुत, दस लाख कोडि (कोटि) = कोटि, करोड़ कोडाकोडि (कोटाकोटि) = काटोकोटि, करोड़ को करोड़ से गुनने पर
जो संख्या लब्ध हो वह । उपर्युक्त सभी शब्द सामान्यतः एकवचन में प्रयुक्त' होते हैं उनके उपयोग को दो रोतियाँ इस प्रकार है :-जब 'बीस मनुष्य ऐसा कहना होता है तब 'बोसं मणुस्सा' अथवा 'वोसा मणुस्साणं' अर्थात् 'बीस मनुष्य', 'मनुष्यों को बोस संख्या' इस प्रकार इसके दो प्रकार के प्रयोग होते हैं।
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________________
( ३८५ )
जब उपर्युक्त संख्यावाचक शब्द 'बोस' अथवा 'पचास' ऐसे अपनी-अपनी मात्र एकसंख्या सूचित करते हों तो वे एकवचन में प्रयुक्त होते हैं और जब 'बहुत बीस', 'बहुत पचास'; इस प्रकार अपनी अनेकता बताते हों तब बहुवचन में आते हैं ।
वाक्य (हिन्दी)
उस आचार्य के छप्पन शिष्य हैं लेकिन उनमें एक अथवा दो हो अच्छे हैं ।
चन्द्र सोलह कलाओं से शोभित होता है ।
प्राचीन काल में पुरुष बहत्तर कलाएँ और स्त्री चौसठ कलाएँ
सोखती थीं ।
उसने गुरु से पन्द्रह प्रश्न पूछे ।
तुमने अठत्तर ब्राह्मणों को धन दिया ।
1
आजकल श्रावक और साधु बारह अङ्गों को पढ़ते हैं ।
ब्राह्मणों से चौदह विद्याएँ सीखी जाती हैं ।
महीने में तोस दिन होते हैं ।
पाँच मनुष्यों में (पञ्चों में ) परमेश्वर बास करता है । मैंने निन्यानबे मुनियों को वन्दन किया ।
वाक्य ( प्राकृत )
पंचराहं वयाणं पढमं वयं ( व्रतम् ) पसंसिज्जइ । चत्तारो कसाया दुक्खाई देंति ।
दस बाला निसाए पढति ।
वत्थाई निक्खारंति ।
बारह इत्थी अट्ठारस जणा छत्तोसाहितो चोरहितो न बीहेंति । घणस्स कोडीए वि न सन्तोसो होइ ।
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( ३८६ )
तस्स घरे पोत्थयाखं सत्तरी दीसइ ।
सण दुसगं विढविज्जइ ।
गोsहं नत्थि मे कोऽवि ।
फॉ० २५
सव्वे संतु निरामया ।
सब्वे सुहिणो हो ।
सब्वे भद्दाईं पासन्तु । न होत्था को वि दुहिश्रो ।
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छब्बीसवाँ पाठ
भूत कृदन्त - मूल धातु में 'त' अथवा 'अ' और शौरसेनी तथा मागधी में 'द' प्रत्यय लगाने पर भूत कृदन्त रूप बनते हैं। इन दोनों प्रत्ययों के परे रहने पर पूर्व के 'अ' को 'इ' होता है। जैसे
गम् +अ+त = गमितो
गम् + + अ = गमिग्रो (शौ०मा० गमिदो) (गतः) गया हुआ। भावे
गमितं गमिश्र, (गतम्) = गति, जाना। कर्मरिणगमितो गामो ) ।
। (गतः ग्रामः) = गया हुआ गाँव । प्रेरक
करावितो (शौ० मा० कराविदो) (कारापितः) = करवाया कारिनो (शौ० मा० कारिदो) (कारितः) " हुआ
अनियमित भूत कृदन्त गयं' (गतम्) = गया हुआ, जाना। मयं (मतम्) = माना हुआ, मानना, मत, अभिप्राय । कड (कृतम्) = किया हुआ, करना। हडं (हृतम्) = हरण किया हुआ, हरण करना।'
मडं (मृतम्) = मरा हुआ, मरना । १. हे० प्रा० व्या० ८।३।१५६ ।
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( ३८८ )
जिज (जितम्) = जीता हुआ, जीतना । तत्तं (तप्तम्) = तपा हुअा, तपना कयं (कृतम्) = किया हुआ, करना ।
: (दृष्टम्) = देखा हुअा, देखना । मिलाणं, मिलानं (म्लानम्) = कुम्हलाया हुअा, म्लान हुअा, म्लान । अक्खायं (आख्यातम्) = कहा हुआ, कहना । निहियं । निहितम्) = स्थापित किया हुआ, स्थापित करना।
आणत्तं (प्राज्ञप्तम्) = प्राज्ञा किया हुआ, आज्ञा। संखयं (संस्कृतम्) = संस्कार, संस्कृत किया हुआ। सक्कयं (संस्कृतम्) = संस्कृत । आकुटुं (प्राक्रुष्टम्) =आक्रोश किया हुअा, आक्रोश । विणटुं (विनष्टम्) = विनष्ट, विनाश । पणटुं (प्रपष्टम्) = प्रनष्ट, नाश । मळं (मृष्टम्)= शुद्ध, शोधन हयं (हतम्) = हत हुआ, मारना। जायं (जातम्) = पैदा हुआ, होना। गिलारणं, गिलानं (ग्लानम्) = ग्लान हुआ, ग्लान । परूविश्र (प्ररूपितम्) = प्ररूपित किया हुआ, प्ररूपण करना । ठियं (स्थितम्) = स्थित, स्थान । पिहियं (पिहितम्) = ढका हुआ, ढंकना। पएणत्तं, पन्नत्तं (प्रज्ञपितम्) प्रज्ञापित, प्रज्ञापन करना। पत्रवियं (प्रज्ञपितम) किलिट्ठ (क्लिष्टम्) = क्लेश युक्त, क्लिष्ट । सुयं (स्मृतम्) = स्मरण किया हुआ, स्मरण । सुयं (श्रुतम्) = सुना हुआ सुनना । संसर्ल्ड (संसृष्टम्) = संसर्ग युक्त, संसर्ग।
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( ३८६ ) घट्ट (घृष्टम्)=घिसा हुआ, घिसना ।
उच्चारण भेद से बने हुए इन अनेक रूपों को साधनिका वर्णविक नियम द्वारा समझ लें।
भविष्यत्कृदन्त धातु में ‘स्सन्त' अथवा 'स्संत' तथा 'इस्सन्त अथवा 'इस्संत' लगाने से भविष्यत्कृदंत रूप बनते हैं। इसी प्रकार 'स्समा'ण' और 'इस्समा प्रत्यय लगाने से भविष्यत्कृदंत रूप बनते हैं...ऐसे अकारांत नामों के रूप पंलिंग में 'वीर' के समान होते हैं तथा नपंसलिंग में 'फल' के समान रूप बनते हैं।
धातु में 'स्सई' तथा 'इस्सई' प्रत्यय लगाने से तथा 'स्सन्त' अथवा स्संत' प्रत्यय का ‘स्सन्ता' तथा 'स्सन्ती' बनाने से अथवा 'स्संता' तथा 'स्संतो' बनाने से स्त्रीलिंगी भविष्यत्कृदंत बनते हैं । इसी प्रकार 'इस्संती' तथा 'इस्संता' वगैरह प्रत्यय भी होते हैं तथा 'रसमारणा', 'स्समायो'. 'इस्समाणा', 'इस्समाणी' प्रत्यय भी बनते हैं।
। उक्त प्रत्ययों में जो प्रत्यय प्राकारांत हैं उससे युक्त नामों के रूप 'माला' जैसे समझ लें तथा जो प्रत्यय ईकारांत है उससे युक्त नामों के रूप 'नदी' जैसे समझ लें।
उदाहरण - हो धातुपंलिंग-होस्संतो ) (भविष्यन ) = होता होगा
होस्समायो । नपुंसकलिंग-होस्संतं ।( भविष्यत् ) ,,
होस्समारणं । स्त्रीलिंग --- होरसई ) ( भविष्यन्ती ) = होती होगी
होईस्सई होस्सन्ती । होस्सन्ता होस्समारणी । होस्समारणा )
|
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________________
( ३६० )
कर् धातु -
पुं० - करिस्तो ( करिष्यन्ः ) = करता होगा | करिस्समाणो ( करिष्यमाणः )
ु
नपुं करिस्तं ( करिष्यत् ) करिस्मा ( करिष्यमाणम् )
—-
स्त्री० - करिस्सई करिस्संती करिस्संता
इत्यादि सब रूप समझ लेवें ।
स्त्री
01
"
"
) ( करिष्यन्ती ) = करती होगी ।
करिस्समाणी ( करिष्यमाणा ) करिस्समाणा
"3
प्रेरक भविष्यत्कृदन्त
पुं० - कराविस्संतो ( कारापयिष्यन् ) = करवाता होगा | -कराविस्समाणो ( कारापयिष्यमाणः )
""
नपुं० – कराविस्तं ( कारापयिष्यत् )
कराविस्समाणं (कारापयिष्यमाणम् )
इत्यादिक रूप भी समझ लेवें ।
71
ܙ,
कराविस्तृत) } ( कारापयिष्यन्तो ) = करवाती होगी।
कराविस्समाणा ( कारापयिष्यमाणा )
""
"
कर्तृ दर्शक कृदन्त
१
मूल धातु में 'इर' " प्रत्यय लगाने पर कतदर्शक कृदन्त बनते हैं ।
जैसे -
हस् + इर हसिरो ( हसनशीलः) = हँसने वाला ।
१. हे० प्रा० व्या० ८।२।१४५ ।
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( ३६१ )
नव् + इर-नविरो (नम्रः-नमनशोलः) = झुकने वाला नमन शील, हसिरा, हसिरी (हसनशीला) = हँसनेवाली । नविरा, नविरो, इत्यादि (नम्रा-नमनशोला) = नमनशीला । इसी प्रकार नपुं० हसिरं, नविरं रूप भी समझ लेवें।
अनियमित कर्ट दर्शक कृदन्त पायगो, पायप्रो (पाचकः)= पकाने वाला, रसोइया । नायगो, नायगो (नायकः) = नायक, नेता, नेतृत्व करने वाला। नेपा, नेता (नेता)= विज्ज (विद्वान्) = विद्वान् । कत्ता (कर्ता)= कर्ता। विकत्ता (विकर्ता) = विकार करने वाला। वत्ता (वक्ता) = वक्ता-बोलने वाला । हंता (हन्ता) = हन्ता, मारने वाला। छेत्ता (छेत्ता) = छेदन करने वाला। भेत्ता (भेत्ता) = भेदन करने वाला। कुम्भारो (कुम्भकारः) = कुम्हार । कम्मगरो (कर्मकरः) = काम करने वाला, श्रमिक । भारहरो (भारहरः) = भार उठाने वाला, मजदूर । थपंधयो स्तनंधयः) = बालक, मां के स्तन से दूध पीने वाला बच्चा,
- छोटा बच्चा। परंतवो (परंतपः) = शत्रु को तपाने वाला, प्रतापी । लेहरो (लेखकः) = लेखक, इत्यादि ।
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( ३६२ )
अव्यय
अग्गे (अग्रे ) = श्रागे, पूर्व । कट्टु (अकृत्वा) = न करके | ईव, प्रतीव (अतीव ) = प्रतीव - विशेष । अग्गश्रो ( अग्रतः ) == आगे से |
अश्रो, तो ( अतः ) = प्रतः, इस लिए रामराणं (अन्योऽन्यम् ) परस्पर । प्रत्थं (प्रस्तम्) = अस्त होना | प्रत्थु (अस्तु) = हो ।
श्रद्धा (श्रद्धा) = समय ।
अण ( नञ् - अन ) = निषेध, विपरीत |
ग्रराणहा ( अन्यथा ) = अन्यथा, नहीं तो ।
अ ंतरं (अनन्तरम् ) = इसके बाद, ग्रन्तर रहित- तुरंत । अदुवा, अदुव (अथवा ) = श्रथवा ।
अभी ।
प्रहुणा ( अधुना ) = अब, अप्पेव (ग्रप्येव ) = संशय |
ग्रभितो ( श्रभितः ) = चारों ओर ।
अम्मो (आश्चर्यम् ) = आश्चर्य ।
अलं (अलम् ) = अलं, बस, प्रर्याप्त, निषेध |
अवस्सं (अवश्यम् । = अवश्य ।
असई (असकृत् ) = अनेक बार, बारम्बार । उप्पि अवरिं, उवरि ( उपरि ) = ऊपर | हत्ता ( ग्रधस्तात् ) = नीचे |
श्राहच्च ( श्राहत्य) = बलात्कार । इस्रो, इतो ( इत: ) = इस तरफ, इधर से ।
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( ३६३ :) इहरा (इतरथा) = अन्यथा, नहीं तो। ईसिं (ईषत्) = थोड़ा। उत्तरसुवे (उत्तरश्वः)=भावि, परसों, आगामी दिन के बाद का दिन । एगया (एकदा) = एक बार-एक समय । एगंततो (एकान्ततः)= एकान्त रूप से अथवा एक पक्षीय । एत्थ (अत्र) =अत्र, यहाँ, इधर । कल्लं (कल्यम्) = कल । कह, कहं (कथम्) = किस प्रकार, क्यों ? .. कालाप्रो (कालतः) = काल से, समय से। .. केवच्चिरं (कियच्चिरम् = कितने लंबे काल तक । केत्रच्चिरेण (कियच्चिरेण) = कितने लम्बे समय से ।
वाक्य (हिन्दी) मूर्ख मनुष्य बड़बड़ (लबलब) करता है। राजा ने हंस कर लोगों को नमन किया। मैं पापों का निरोध करने लिए उतावला हुआ। महावीर को देखने के लिए लोगों द्वारा दौड़ा जाता है। भोगों को भोग-भोग कर उनके द्वारा खेद पाया जाता है। तत्त्व को जानकर विद्वान् द्वारा मुक्त हुना जाता है। प्रह्लादकुमार प्रजा के दुःखों को समझ कर उनका सेवक हुआ। जगत् में तभी (सब कुछ) हंसने जैसा है और रोने जैसा भी। पुण्य इकट्ठा करने योग्य है और पाप जलाने योग्य है । वह पढ़ता-पढ़ता सोता है । पढ़ाया जाता हुआ प ठ उसके द्वारा सुना जाता है।
वाक्य (प्राकृत) सज्जणो सत्थवयणं सोच्चा सद्दहइ ।
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( ३६४ )
मणूसा पुण्णं किच्चा देवा होति । पावं परिच्चज्ज साहू हिं सव्वं कीरइ । इंदो महावीरं वंदित्ता श्रुणइ । अवस्सं वोत्तव्वं वयंति महाणुभावा । दटठव्वं पासंति देक्खिरा नरा। नविरो बालो पियरं पणमइ । पायमेणा ईसिं अन्नं पत्थिज्जइ। एगया एवं मए सुयं जं, महावीरेण एवं कहियं । पयारणं पालणेण पावं पिण्टुं पुराणं च जायं ।
॥ समत्तं इथं पोत्थयं ॥
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________________
अंब
१६४
२५५ ७३
प्राकृत शब्दों को सूची __ शब्द अर्थ पृष्ठांक शब्द अर्थ पृष्ठांक
अंडय
૨૬૩ अंततो अंत-छेवट
६२ अ% और
५६, १८६
अंतर अंतर-दुराव-दुरीपन ६८, १६६ अइ
१६४ अंति
२५८ अइमुंतय माधवी लता अथवा
अंतो
२८३ अइमुतय तिनिश का वृक्ष ८७
अंध ।
२८० अइवाअ (धा०)
२७०
अंधला अइस ( अप०) ऐसा
८५ अइसेइ (क्रि०)
अंबिल=अम्ल-खट्टा
३६२ अएलय-विना वस्त्र का
अक-सूर्य अथवा आक का नग्न-ऐलक २५८
पेड़ ५६, २८१ अओ
३६२ अक्खि । =आँख
८६ अंक
२०० अक्खी अंकोल्ल-अंकोठ का वृक्ष ४६ अक्खोड
३२३ अंगण=आंगन
१८, अङ्गण=आंगन अंगार-अंगार-जलता
अनि (सं०) पैर हुआ कोयला १८ अगणि=आग-अग्नि अंगुअ=इंगुदी का वृक्ष
अग्गओ अंजण अंजन-आँख में लगाने
अन्गतो
आगे से ६२, ३६२ का काजल
अग्गदो (शौ०)) अंजलि ! =अंजलि-हाथ जोड़ना ६६ अग्गि-आग-अग्नि ८६, २५३, २८० अंजलो ६१ अग्गिनि (पालि) ,
२५३
अईव
३६२
अक?
६८
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________________
शब्द
अग्गे
..
अर्थ
अग्य
अचेलय
अच्च् (वा० )
अच्चि=आँच
अबे (धा० )
अच्छ (वै०)=आँख अथवा इंद्रिय ११६
८२
अच्छअर= आश्चर्य अच्छायर (पालि )
८२
अच्छरसा
अच्छरसा= अप्सरा
अच्छरा=अप्सरा |अच्छरिअ=आश्चर्य
अच्छरिज्ज
अच्छरियं अच्छारिय अछचरीभ
अच्छिं-आंख
""
33
"
""
""
""
( २ )
पृष्ठांक
३६२
३२४
२५८
१६६, २२६
२८०
२८३
$3
अच्छ अच्छी अच्छे ( क्रिया० ) अच्छेर = आश्चर्य
अजिण
अजीव = अजीव-जीव नहीं अज्ज=आज
३०३
३१४
६५
८२
८२
६३
८२, ११७
८२
८६, ६१
६४, ११६, २४१
८६, ६१
२६८
६५, ८०, २२७
१८२
शब्द
अर्थ अज्जउत्त= आर्यपुत्र
अज्जतण
अज्जतो आज से -आज कल
अज्जयण
अज्जा-आज्ञा
अज्जू =आर्या-सास-श्वश्रू २१, ३१७
अज्जो
३७१
अज्झत्थं
२१२ ७६
२१२
७६
हद
६६
अज्झत्थ= अध्यात्म
अज्झष्पं
अज्झप्प= अध्यात्म
अञ्जण= अंजन
अञ्जलि= अंजलि
अट्ट (सं० ) = हट्ट - हाट-दुकान
अह = प्रयोजन
अट्ठ-आठ
अट्टचत्तालिसा
अट्ठणवद्द
अहतीसा
अपण्णासा
अहम
अट्ठवीसा
अत्तरि
अट्ठारस
૨૪ ६६, १७५ अट्ठारह
पृष्ठांक
६६
२२८
६२
२२८
६१
१३५
७७
३७६
३८१
३८४
३८१
३८२
२८२
३८१
६८३
३८०
३८०
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________________
शब्द
अट्ठावन्ना
अट्ठावीसा
अट्ठासीइ अडि=अस्थि-हड्डी
अड= कुंआ-कूप
अडणवइ
अडतीसा
अडयाला
अडवन्ना
अडवीसा
अडसहि
अडहत्तरि
. अड्ढ = श्रर्ध-आधा
अड्ढाइअ
अड्ढाइज्ज अडदीय
अण
अनंतरं
अर्थ
अणवज्ज
अणाइअ
79
अणिट्ठ = अनिष्ट- अप्रिय
अणु
अणागम
अणारिय
अणिजंतय देखो 'अइमुत्तय'
अणिउँतय
( ३ )
पृष्ठांक
३८२
३८९
३८३
७७, २४१
५५
३८४
६८१
३८१
३८२
३८१
३८२
३८३
७८, २८२
२८२
२८२
२८२
३६२
३६२
२१२
२०२
२६८
२१३
४७
५०
६८
१६२
शब्द
अर्थ
अणुकरइ ( क्रिया० )
अणुजाइ
अणुज
अणुतप्
अणुभ
""
अणुरूव= रूपानुसार
अणुसास् (वा० ) अगछंदा = अनेक छंद युक्त
अण्ण
अण्णमण्णं
""
""
""
अण्णयर
अण्णया
अण्णहा
अण्ह
अतसी = अलसी - तीसी
अति
अतिगच्छति ( क्रिया० )
अतीव
अतो
अत्तमाण = आवर्तन करता हुआ
अत्ता=आत्मा
अत्ताणो= आत्माएँ
अत्थं
अत्थ=अर्थ-धन
अत्थवई=अर्थपति-धनपति
अस्थि- अस्ति- है
पृष्ठांक
१६२
१६२
२६६
२१४
२२६
१०१
२५६
६६
१६८
३६२
१६६
३५७
३६२
३२५
४७
१६४
१६४
३६२
३६२
५५,
७६
७६
२८३, ३६२
७७, २११
७१
७०
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
अस्थिअ
अर्थ
अत्थु
अदुव
अदुवा अद्द= आई- गिला
अद्ध=आधा
अद्धा
अद्भुट्ठ
अधि
अधिगच्छइ ( क्रि०)
अधीर
अनवज
अनागम
अनु
अनुजाणा (घा० )
अन्तग्गय = अन्तर्गत- अंदर आया
हुआ अन्तिका= अत्तिका -बड़ी बहिन
अन्न
अन्नन्न= अन्योन्य- परस्पर
अन्नमन्न
३५६, ३५७
३६२
( नाटक )
अन्ते उर = अन्तःपुर - राजस्त्रियों
रानियों का निवास
अन्तोवरि= अंदर और ऊपर अन्देउर (शौ० ) = अन्तःपुर
39
>
पृष्ठांक शब्द
अन्नयर
७८,२८२
३६२
२८२
१६४
१६४
२०१
२१२
३६२
३६२
५८
२६८
१६२
२६६
३२
१३३
६८
३३
६८
१६८
३०
ह८
अर्थ
अन्नाइस=अन्य जैसा
अन्नारिस
अन्नुन्न=अन्योन्य
अप
अपरोप्पर परस्पर
अपसरइ ( क्रि०)
अपि
अपिइ ( क्रि० )
अप्प
33
अप्पज्ज= आत्मज्ञ अथवा अल्पज्ञ
अप्पणिय
अप्पण्णु = आत्मज्ञ अथवाअ ल्पज्ञ अप्पा = आत्मा - आपा- आप
अप्पाण= आत्मा - अपन लोग अप्पाणो = आत्माएँ - 3 अप्पिअ=अर्पित
अप्पेइ ( क्रि० ) = अर्पण करता है
अप्पेव
अग्भाण=आह्वान
अब्भुत (घा० )
अन्भे ( क्रि०)
अभयप्पयाण
अभि
पृष्ठांक
१६६
८४
८४
३०
१६२
१६५
१६५
२०२, २५६, २६२
६.१
בל
- अपन लोग
१६२
१८७
७६
१६
१६.
३६२.
अब्बा - अंबा - माता
१३२
अब्भयते (क्रि०)=आह्वान करता है ७२
७२
२४३
६१
७६
३२४
२६८.
२११
१६३
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५ )
पृष्ठांक शब्द
२५८
२१४
२६८
३६२
अभिनिक्खम (घा० )
२१४
२१४
अभिपत्थ (घा० ) अभिभासह ( क्रि०)
१६३
अभिभासे ( क्रि०)
२६८
अभिभूय (सं० कृ०)
३६८
अभिमञ्जु (मा० पै० ) = अभिमन्यु ६६, ७६
अभीशु (सं०)
१३१
अमरा (ना० वा० )
२७०
अमराय ( ना० वा० )
१५०, २७०
अमिअ
२६३
अमु
१६६
૪૪
अर्थ
शब्द
अभिक्खणं
अभिजाण (घा० )
अभितावे ( क्रि०)
अभितो
अमुग=अमुक
अम्ब= आम का पेड़ अथवा फल
अम्मो
अम्ह
अम्हारिस = हमारी जैसा
अम्हे=हम
अय
अयड=अवट-कुँआ
अयुअ
अयुत अय्य (शौ ० ) = आर्य
८०
३६२
१६६
७२, २५८
अर्थ
पृष्ठांक
अय्यउत्त (शौ० ) = आर्यपुत्र (नाटक) ६६
१६
२११
अरण्ण= अरण्य
अरविंद
अरहंत = वीतराग अथवा पूजनीय
व्यक्ति
अरिह= पूजनीय अथवा योग्य
अरिहइ ( क्रि० )
अरिहंत = देखो 'अरहंत'
अरिह
अरुहंत = देखो 'अरहंत' अलं
अलचपुर = महाराष्ट्र
अलसी= अलसी
अलाऊ = लौकी - तुंबा
अलापू (पालि)
अलाभ
अलावू
अलाह
अल्ल आर्द्र-गिला
अल्लवू (घा० ) अल्लिबू (घा०)
अव
८६,११७
१४०
८७, ११७२१२, ३६२ के एक नगर
का नाम
देखो 'अलाऊ'
""
२१०
પૂ ३८४ अवक्खंद= छावनी अथवा सैन्य
३८४
.६६
८६
७४
७४
४७
१६, ३१७
४१
२०६
४ १
२०६.
२१
द्वारा घेरा
अवक्खर= गुज० ओखर - विष्ठा
३२३
३२५
१६२
६३
६३
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ
शब्द
अवज= अवद्य - पाप
अवड= कुँआ
अवतरइ ( क्रि० )
अवत्थयं
अवमन्न ( धा० )
अवर
अवरण्ह = अपराह्न - दिन का पिछला
33
पृष्ठांक
६५,२१२,३७०
भाग
७०
अवराइस (अप० ) = दूसरे के जैसा ८४
अवरारिस=
८४
""
अवरिं= ऊपर २४,८७, २१२, २७०, ३६२
अवसरइ ( क्रि० )
१६२
२७१
अवसीअ ( धा० ) अवस्सं
२२८, २८२, ३१२
अवह उभय-दो
८३
अवहंड=अवहृत
४७
अवहय=
४७
अवि
१६५, २६८, ३२०
अविहे ( क्रि० )
१६५
१०२
१३१
३६२
२६२
असमण
२०६
असहज्ज = असहाय्य - सहाय रहित २१
असहेज्ज=
२१.
अव्वईभाव
अश्र ( सं० ) = अंश - कोना
असई
असंजम
")
( ६ )
५५
१६२
१६२
२४४
१६६
अह
अहत्ता
शब्द
असात
असाय
असीइ
असुक=अमुक
असुग
"
अस्तवदी ( मा० ) = अर्थपति
धनवान्
अर्थ
अहम
अहर
अहव= अथवा
अहवा=
अहि
अहिगमो
अहिज = अभिज्ञ - कुशल
अहिठ (वा० )
""
29
39
: पष्ठांक
२११
२११
३८३
४४
૪૪
अहिणउलं= अहिनकुलम् - स्वाभाविक
वैर का सूचक
अहिष्ण= अभिश- कुशल
अहिन्नव
अहिनाण
अहिमंजु= अभिमन्यु
अहिमञ्जु =
अहिमन्नु = अहिमुहं
२१३
१६६
२०, १२०, २८२ २०, १२०, २८२
१६३, १६४
१६४
६१
२८३
७१
२५८
३६२
१०१
६१
२६४
३२७
७६
७६
५०, ६६, ७६
१६३
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ
शब्द
अहियाइ= शत्रु
अहिलंखू ( घा० )
अहिलंधू (घा० )
अहिवन्नु =भिमन्यु
अहुणा
अहेळमानो (सं०)
अहो = अहो-आश्चर्यसूचक
( ७ )
पृष्ठांक शब्द
१७
३२६
३२६
પૂ
२५८, ३६२
११५
६३
आ
आ= मर्यादा अथवा अभिविधि १६५ आअ=आगत-आया हुआ ५५,२०१ आइक्खु (धा० )
२०२
१७५.
२०
आइच आइरिअ=आचार्य आउंटण = आकुञ्चन - संकोच आउज=आतोद्य- - बाजा आउण्टण = आकुञ्चन-संकोच
૪૫
३१, ४७
४५
आउय
२०१
आउस= आयुष्- वय मर्यादा- उमर ८३
आउह=आयुध-शस्त्र
३४
आगअ = आगत-आया हुआ ५५,
२०१
२०१
२८३
४९
४४
आगत
आगम् (धा० ) आगरिस= खींचाव - आकर्षण
आगार= आकार
1.
अर्थ
आडिअ ( टि० ) - आहत - आदर
पात्र
आढत्त = आरब्ध- जिसका प्रारम्भ
किया हो
आढव् ( घा० )
आढा
आदिअ=आहत - आदरपात्र
आणा = अज्ञा-आन आणाल= हाथी को बांधने का
आणे ( घा०
रहसा
आणालक्खंभ- हाथी को बांधने का खंभा
३२५.
३२४.
२६.
६१, ६८, ३१३
')
श्रातुमा ( पालि ) = आत्मा
आत्त ( सं० ) = आदत्त- गृहीत
पृष्ठांक
आदितो = आदि से प्रारंभ से
आपिबू ( घा० )
आपियू ( धा० )
आपीड = मस्तक का भूषण
आभरण
आभोय
आम
. आमलय
आमेल = मस्तक का भूषण
आय=आया- आगत
२६
८३.
८८, १२०
८२
२२६
७६
१३३
६२
१८६
१८६
૫૦
२४२
३२८
२८३
३२७
५०
११७
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
अर्थ
आययू ( धा० ) आयंस- आदर्श-दर्पण आयरिअ=आचार्य
.
आयरिय आयरिस=आदर्श
आया=आत्मा
आयाय
आरद्ध=आरब्ध
आरिय
आरिस
आरोव ( घा० )
आलक्खिम ( क्रि० ) = देखते हैं
जानते हैं
आलिद्ध = आश्लिष्ट
आलोह ( धा० )
आवज = आतोद्य - बाजा
૭૪
२०, ७३
१७५, २६२
७४
हुआ
( ८ )
पृष्ठांक शब्द
२८३ आसिसा
वाला
आवत्तमाण= आवर्तन करता
आवत्तअ=आवर्तक- आवर्तन करने
३६८
८३
आक्सर ( क्रि० )
आविय् ( वा०
>
आवेड = मस्तक का आभूषण
भास
आसत्त
आवार = वेग से जलदृष्टि २१,
२२५
३५६
३२५
२६०
३१, ४७
६३
७६
६७
५५
१६५
१८६
૫૦
२८०
२०१
. ३२३
आहच्च
आहटूड
आहड=आहृत
आहय = "
आहार
आहियाइ=शत्रु
इआणि=अभी इआणि=
इ= अपि-भी
इअ = इति - इस प्रकार,
सूचक
इद्द
इओ
33
अर्थ
इ
इंगिअण्णु = इङ्गितज्ञ
इंद
=चिन्ह-चिह्न
इक-एक
इकचत्तालिसा इकतीसा
इंगार= अंगार
इंगाल = अंगार
इंगिअ = इङ्गितज्ञ - संकेत को
जानने वाला
पृष्ठांक
३१४
३६८, ३६२
३६८
४७
४७
समाप्ति
२४२
१७
१६५
२१, २१२
८३, ६७
६७
२१२
३६२
१८
५२
६१
६१
१७५
५६
८१, १६६, ३७६
३८१
३८१
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
mr
३७
शब्द अर्थ इक्कपण्णासा इक्कवीसा इक्कसत्तरि इकहत्तर " इक्खु-इक्षु-ईख-सेलडी
इंगुअइंगुदी का वृक्ष इगणवह इगयाला इगसहि इच्छ ( धा०) इच्छह ( क्रि०) इन्भाइ (,)
पृष्ठांक शब्द अर्थ पृष्ठांक ३८२ इसि-ऋषि २७, ३२७, २४० ३८० इस्सेरं ( पालि )-ऐश्वर्य ३८२ इहंधक-सत्य
१७ ३८२ इह-इह-इधर २२, ६२ इहयं-ऋधकक्-सत्य २२ इहरा
३६३ ३८३ इहेव
२२८ ३८१ ईळे =स्तुति करता हूँ ११५
ईळे ( वै०, पै०, ईडे सं०) ११५ ईसि ईषत्-थोड़ा ८३, ३६३ ईसि ,
६७
mr
mm
उ-उत्-ऊपर १६४, १६५ इड्डि-ऋद्धि-संपत्ति ७८ उअ
२६८ इण्हि अभी
६३ उउंबरगूलर का पेड़ ५५ इति इति
२१, २१२ उऊहल=ओखली-चावल आदि को इतो इधर से, इस तरफ से ६२, ३६२ कूटने का साधन ८२ इत्थं इस प्रकार से
२७० उंघिज्जा ( क्रि०) सोया हुआ ३३१ इत्थी स्त्री
८४, ३१६ उंघीअ (क्रि०) , इदो इदो ( शौ०) इतः इतः-इस उंघ (धा०)
३२४, ३३१ तरफ से इस तरफ से ६२ उंबरगूलरका पेड़
५५ इनिऋद्धि २७, ७८ उक्का-उल्का-लूका
પૂe इध ( शौ०) इह-इधर ३७, ११४ उकिट-उत्कृष्ट
१६६, २०८ उस्कुद्द (घा०) इयर
१६६ उगच्छते (क्रि०)
१६४
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठांक
२४२.
७६
( १०) शब्द अर्थ
पृष्ठांक शब्द अर्थ उच्चअ ऊँचा २६ उत्थार-उत्साह
५४,८० उच्चिद् (धा०) २६४ उत्थाह% ,
७८ उच्छलइ (क्रि०) ऊछलता है ६५ उदग
२४२ उच्छव-उत्सव
उदय उच्छा-उक्षन्-बैल
उदहि
२४०. उच्छाह-उत्साह ५४, ६५, २२६ उदूखल-ओखली-खाँड़ने का उच्छु-ईख २२, ६४, २५४
साधन उद्दिग्ग-उद्विग्न
५६ उच्छुअ-उत्सुक
६५
उद्ध-ऊर्ध्व-ऊपर उज्जु रिजु-सरल ८१, ३१६ उज्जोत-उद्योत
उप्पल उत्पल-कमल ५७, ३२७ उट्ट-ऊँट
उप्पाअ-उत्पाद-उत्पत्ति ५७, ३२६ ६८, २१०, २८० उप्पि
३६२ उठ (घा.)
३२४ उप्पि
२७० उड्डी (धा०)
उन्म ऊर्व
७६ उण=पुनः-फिर से
उभयो उभय
८३ उणो=
५५ अम्बराल
उम्बर गूलर का पेड़ ५५, १३२ उहाल3उष्ण काल-गरमी का ।
उम्बुरक , ५५, १३२ मौसम २५६ उम्हा उष्मा-गरमी ६३, ७२ उण्हीस-पगड़ी, मुकुट
उरो-उर-छाती उत-देखो
८३
उलूहल=ओखली उतु-ऋतु
११८
उल्ल-आर्द्र-गीला उत्त-उक्त-कहा हुआ
८८ उव उत्तम २०१ उवह (धा०)
२७१ उत्तरसुवे ३६३ उवचि (धा०)
२५६ उत्तरिज उत्तरीय वस्त्र
उवक्खड-उपस्कृत-मसाला वगैरह डाल उत्तरीअ=
५१ कर रसोई को संस्कारना ६३ उत्तिम उत्तम
१७, २०१ उवक्खर सामान
५६, १८६
६६
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
र
( ११ ) शब्द अर्थ पृष्ठांक शब्द अर्थ पृष्ठांक उवज्झाय-उपाध्याय ६७, ८३, १७५ उन्बूढ ,
२६ उवछिअउपस्थित-हाजिर ७१ उश्चलदि (मा० क्रि०)-उछलता है ६५ उवणिअ=उपनीत-समीप में लाया उसमबेल अथवा ऋषभदेव ११८
हुआ २४ उसभमजिअं ऋषभ और अजित उवणी (धा०)
२६६
नाम के तीर्थकर ६७ उवणीअ समीप में लाया हुआ २४ उस ऋषभदेव अथवा बैल उवदंस् (धा०) २६६३२३ उस्मा (मा०) उष्मा-गरमो ६३ उपदिस (धा०)
२२६ उस्साह (पालि)-उत्साह उवमा उपमा-तुलना
४० उवरिं ऊपर २४, २१२, २७० उपरि ८७, २७०, ३६२
ऊज्झाय-उपाध्याय उवरिल्ल
ऊज्झायो उवलभामहं उपलभे अहम्-मैं ऊरु-जंघा-जांघ
२५४ पाता हूँ १५ ऊर्ध (सं०)
१३२ उवसग्ग-उपसर्ग-क्रियापद के
ऊसव सहायक शब्द ४०, १६२ ऊसार वेग से जलवृष्ठि उवस्तिद (मा०) उपस्थित-हाजिर ७१
ऋ उवह उभय-दोनों
८३
ऋफिल (सं०) विशेष संज्ञा १३० उवास् (धा०)
२६० उवासग-उपासक-श्रावक, उपासना - करने वाला ४४, २४२ एअं
२७० उवाहि
२४०, २६७ एअ-एक ८१, १६६, ३७६ उबिग्ग=उद्देग युक्त ५६,६० एआरस-एकादश-ग्यारह ५४, ३८० उविण्ण-उद्वेग युक्त
६० एआरह , ४८, ५४, ३८० उच्चीद-धारण किया हुआ
एक-एक ८१, १६६, ३७६ पहना हुआ २६ एकचत्तालिसा
३५७
१६५.
--
7
1.
|
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १२ )
शब्द
पृष्ठांक शब्द
एकतीसा
३८१
एकपण्णासा
३८२
reater
३८०
एक्कार = अयस्कार- लोहार ८२, ११६
४४, ८१, ३७६
३८१
एग= एक
एगचत्तालिसा
एगणत्रइ
एगंततो
एगतीसा
एगपण्णासा
एगया
एगवीसा
एगसहि
एगारह
एगत्त= एकपना - एकत्व, एकता
प्रेम
गावण्णा
एगासीह
अर्थ
एगूणचत्तालिसा
एगुणतीसा
एगूणनवर
४४
३८२
२१२, २४३, २८३, ३६३
३८०
एगूणपण्णासा
एगूणवीसा
गूणसहि
एगूणस तरि
एगूणसय
३८३
३६२
३८१
३८२
३८०
३८२
३८३
३८१
३८१
३८३
३८१
३८०
३८२
३८२
३८४
एगूणासीइ
एगे=एक
एगोण = एक कम
एगमेग=प्रत्येक
एत्ता=अभी
एत्थ = इधर
एहि = अभी
एरावण
एरिस= ऐसा
एमेव = एवमेव ऐसा ही -
Mitten
एय
अर्थ
एवं = ऐसा
एवं एअं- ऐसा यह
एवं णेदं ( शौ० ) ऐसा यह
एव = ऐसा अथवा निश्चय
एवा (वै० ),
एस् ( धा० )
एस्वंति णंतसो = अनन्तवार
आवेंगे- पावेंगे
एह = ( अप० ) ऐसा
८३
१८, २४४, ३६३
८३ ५५
१६६
२१०
ओ
ओग्गाल (घा०)
पृष्ठांक
३८३
६३
६६
६८
८५
६७, २२८
८७
८७
६७, १२०,
२०२, २२८
१२०
२८३
ओ= देखो, निकट ८२, १६२, १६५ ओक्खल = ओखली - खांडने का
साधन
ह५
८५.
८२
३२५
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१
१८२
१६२
शब्द अर्थ पष्ठांक शब्द अर्थ पृष्ठांक ओझर निर्भर-पर्वत से
कहअव=कितना पानी का झरण २३, ३८
कइम-कितनावाँ १७, १६६ ओझाय=उपाध्याय-ओझा ८३
कहलास-कैलास ओज्झायो= , १६५
कहवाह-कितना
कइस=(अप०) कैसा ओह ओष्ठ-होठ
कउरव कौरव ओतरइ ( क्रि०)
१६२
कउह=बैल के कंधे का कुब्बड़ ४६ ओप्पिअ ओप किया हुआ
कउहा=दिशा
८३, ३१३ चमकदार किया हुआ १६
कंकण-कंगन-हाथ का आभूषण ६२ ओप्पेइ ( क्रि०)
१६
कंकोड-कंकोडा (शाक) ८७ ओप्प् ( धा०)
२५६
कंचुअकोट जैसा पहिरने का वस्त्र,कंचुक, ओमल्लं
__अचकन अथवा चोली ६७,६८ ओम्वाल ( धा०) ३२५
कंजिय
२८१ ओल्ल=ओला-गिला
कंटअ-कंटक
१८ ओसद ओसड-औषध
२२६ ओसरइ ( क्रि०)
कंटयरक्ख
२५७ ओसह औषध
कंठ-कंठ-गला
६२,६८ ओहड अपहृत
कंड-काण्ड-वृक्ष की शाखा ९८ ओहय= ,
४७ कंडुया कंडु-खुजली
२६ ओहल=ओखली-गु० खाँडणी ८२
कंतप्प (पै०, चू० पै०)-कंदर्पओहसित=उपहास किया हुआ ११८
कामदेव ओहि अवधि-मर्यादा ८३
कंति
३१६ कंद कंद-मूल
५७, ३२७
कंदप्प-कामदेव कइ (चू० पै०) गति ३६ कंगकंपन, कांपना
६८ कह कवि ६२ कंबल कम्बल
२५७
४६
कंग
१६२
४६
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
or ur w ०५ wr.११००
कत्तो कत्थ
शब्द अर्थ पृष्ठांक शब्द अर्थ पृष्ठांक कंस='कांसा' ऐक धातु विशेष ६८ कण्ह-कृष्ण-विशेष नाम, कंसआर
२६८ काला वर्ण ६६, ८६, २२६ कंसार
२६८ कतम कक्कंधू
कतिपयाह (पालि) कितना कण्ठ-कंठ-गला . . ६२,६८ ___ कतिपाह (पालि) कच्छ-कांख
१३३ कतिम=कितनावाँ अथवा बहुत
में से कौन ३६, ३१६ कज कार्य-काज
६६ कतुअ (१०) कडुआ कज्जं
३७० कत्तरी कैंची कह-कष्ट, काष्ठ-लकड़ी ६३,६८, २००
कत्तिअ-कार्तिक मास कड-कृत-किया हुआ ४७, २१३
२०२ • कडण-व्याकुलता : ४८ कडुअ%कडुआ
कथं कैसे, किस प्रकार, क्यों ९८ कड्ट (धा०)
कधिद (शौ०) कहा हुआ कणय-कनक-सोना
कन्नका कन्या कणवीर-कनेर का पेड़ कणियार ,
८२ कपरिका(सं०)-पुस्तक रखने का एक कणेरु हथिनी ८८, ३१७
५३
उपकरण कण्टक
१३४ . कपलिका (सं०),, कण्डलिया कंदरा-गुफा
७८
कप्पर-खप्पर कण्डूया खुजली
कप्प् (धा०) -कण्डुय् अथवा कंडूय (धा०)
कप्फल-कायफल - एक औषध ५७ खुजलाना २६ कमंडलु
२५४ १७५, २६८ कमंध-रुंड-मस्तक रहित देह कणिआर कनेर का वृक्ष ८१, ८२ कमळ (१०) कमल कण्णेर
८२ कमर (सं०)-सुन्दर-कमनीय १३३
२१३
कण्ण
४२
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
'कमल= कमल
-कम्भार= कश्मीर देश
अर्थ
कम्म
कम्मवीअ
कम्भारी (सं० ) = शीवण नाम का पेड़-मधुपर्णिका १३४
१८८१, २६६
२०१
६०
पृष्ठांक
४१, ४२, ८२
८०
कम्मस= कल्मष - पाप
'कम्हार = कश्मीर देश २३, ७२,८०
कयंध = रुड - मस्तक रहित देह
कयंत्र = कदंब का वृक्ष
कय= किया हुआ कयग्गह = कचग्रह- बालों का
पकड़ना
कयर
कयली = केला का गाछ
कयविककय
( १५ )
कयण = व्याकुलता
कयण्णु = कृतज्ञ - किये हुए उपकार
को जानने वाला
૪૨
४७, २१३
३७, ११६
४८
कया
-काज
-कय्य (शौ० ) = कार्य --- करणिज्ज करणीय-करने योग्य करणीअकरणीय-करने योग्य
५०
करम्ब= दही और भात का बना हुआ खाने का पदार्थ
.कररूह = नख
१८, २५४
१६६
८२, ३१५
૨૦૨
३५७
६६
५१
५१
१२६
६०
शब्द
अर्थ
करली = केला का गाछ
करिस् (धा० )
करे जहि ( क्रि० ) = तू कर
करेणु हथिनी
पृष्ठांक
४८
१४०
६६
८८, २५४
१४०, १५८
४२
कलअ = काला - श्याम
२०
कलज्ञ (सं० ) = कला का ज्ञाता
: १२६
कलत्र (सं० ) = स्त्री
१२८
कलंब= कदंब का वृक्ष ४६, ६८, २२६
१७५
३१४
५२
६६
१२८
३६३
७३
४६
कर (घा० )
कल ( मा० ) = कर - हाथ
कलह
कलिआ
कलुग=करुण
कलेय्यहि ( मा० क्रि० ) = तू कर
कलेवर = कलेवर - शरीर
कल्लं
कल्हार = सफेद कमल
कट्टि = कदर्थित पीड़ित
कवट्टिअ= कबड्ड=बड़ी कौड़ी
कवल (अप०) = कमल
कवाट (सं० ) = कपाट
कवाल = कपाल - भाल प्रदेश
कवि
""
कविल= कपिल - भूरा रंग
कव्वकाव्य
कस
७७
७८, २८०
४१
१२६
४०
२५४
४०
६०
२५.६
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठांक
३६३
५५
५.
३७
काही
"
( १६ ) शब्द अर्थ पृष्ठांक शब्द अर्थ कसट (पै०) कष्ट ६८ काल
२१० कसण-काला रंग
कालअ%Dकाला कसाय-क्रोध, लोभ, वगैरह कषाय ४३ कालाओ कसिण-काला रंग
कालायस काला लोहा कसिबल
२००
कालास " कस्ट ( मा०) कष्ट
कास-कांस्य-कांसा धातु विशेष ६८ कह=किस प्रकार, क्यों
२७ कासा-कृश-दुर्बल स्त्री १८, १६३
कासी काशी-बनारस कह , ९८, ३३१, ३६३
काहल-कायर कहंपि-कथमपि-किसी भी प्रकार से ६६
काहीपण-कर्षापण-सुवर्ण का सिक्का ८१ कहमवि ,
काहिइ(क्रि०) करेगा
६३ कहा-कथा-वार्ता
६३ कहि
२८३ कि-क्या, क्यों कहि २८३, २६४ कि एन्क्या यह
८७ कहिअ-कथित-कहा हुआ ३४ किंणेदं (शौ०), कह (धा०) १५६, ३३२ किं पि-कुछ भी काअ-काक-काग-कौआ६२ किंसुअ-पलाश का फूल काअव्वं
३७०
अथवा वृक्ष २२,६८ काउँअ-कामुक-लंपट ५० कि क्या, क्यों
६७ कांबलिअ २५५ किच्चं
३७० काठ ( चू० पै०) गाढ-गाढ़ा ३८ । किच्चा-कृत्वा-करके काणीण ३५७ किच्चाण
३६८ कातव्वं
३७० किच्ची चमड़ा काम
१८७ किटि (सं०) सूअर काय
१८६ किडि-सूअर कायव्वं ३७० कित्ति कीर्ति
६७, ३१६ कारण २११ किण (धा०)
३२४
७.
m
m
mr
७५
પૂ૨
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठांक
००
হা অর্থ पृष्ठांक शब्द . अर्थ किमवि-कुछ भी६६, १६५ कुंडलय
३२७. किमिहं-क्या इधर ६६ कुंथु
२५४ किया-क्रिया ५६, ८६, ११४, ३२८
कुंपल कलिका ७१,८७, १८७ किरि (चू० पै०) गिरि-पर्वत ३६
कुंभगार-कुम्हार
१०४
कुक्कुर (सं०) कुत्ता . १३२ किरि-सूअर
५२ कुक्ति
२८० किरितट (चू० पै०) गिरितट ३५ किरिया=क्रिया-प्रवृति
कुङ्कण (सं०) कोकण देश १२७. ८६, ११७
कुग्छि-कोख-पेट ६४, २८० किलमंत-क्लम-खेद पाता हुआ ७३ किलम्मइ खेद पाता है
कुच्छी %3D , . ७३
कुच्छेअय-तलवार किलालव किलालवा
कुज्ज'कुब्ज' नाम का फूल-शत-
- पत्रिका का.फूल किलिह-क्लेश पाया हुआ ७३
कुज्झ (धा.)
१५६ किलिन्न-गिला ७३, ३२८ कुटुंब (पै०)कुटुंब किलेस-क्लेश
कुटुमल ( पालि )-कलिका . ७१ किवा
३२८ कुडी कुटी-कोठरी किसरा
३२८ कुडुब-कुटुंब-परिवार ३६ किसल=किसलय-नूतन अंकुर
कुडुबि-कुटुंब वाला २५५ किसलय%3 ॥
५५
कुडुमल (पालि ) कलिका. किसा-कृश-दुर्बल स्त्री २७
कुड्ड-भीत
५८ किसाणु
कुढार-कुठार कीड ( धा०) २०२ कुळ (पै०)=कुल
४२ कील ___२०२, ३२४ कुण् (धा०) कीलइ-खेल करता है-क्रीडा कुतुक ( सं०) कौतुक १२७. करता है
३६ कुतुंब (पै०) कुटुंब-परिवार ३६ कुऊहल-कुतूहल
२५ कुतो कहाँ से
१२८
२५३
१५६
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ
शब्द
कुत्तो
कुदाल (सं०) = कुद्दाल कुंदो (शौ० ) = कहाँ से
कुंछ (धा०)
कुप्पू (घा०)
कुमारवर = उत्तम कुमार
कुमारी
कुमर = कुमार, कुंवारा २०, ४१, १२६
२४२
कुम्पल
कुम्भार= कुम्हार
कुल=कुल
कुलवह = कुलपति गुरुकुल का आचार्य
कुवर (अप० ) = कुमार कुव्व् (घा०)
( १८ )
कुसग्गापुर = राजगृह का दूसरा
नाम
पृष्ठांक
२०२
१३१
६२
१६६
१४६
३१६
१८७
६२, १८२
""
४२, २४२
२४०
४१
२८६
कुसल
कुसुमपयर = फूलों का समूह
कुसुमप्पयर= कुह (वै०) = कहाँ
अकुह् (घा०)
कूअ
कूज् (घा०) कूर = ईषत् - थोड़ा
के. ढव= कैटभ नाम का राक्षस ४५, ५०
२२७
२१३
८२
८१
१२५
१५६
२५६
२५६
८३
शब्द
अर्थ
hura = किसी भी प्रकार से
केणावि =
केरिस-कैसा
केल= केला का फल
केलास = कैलास
केली = केला का गाछ - पेड़
"
केवच्चिरं
केवञ्चिरेण
केवट्ट = मच्छीमार, मछली मार
केवलं
केसरि
केस केसी = एक दूसरे के वालों को
खींच-खींच कर लड़ना १०१
केसुअ = पलाश का - केसुद्धा का
फूल वा वृक्ष
केह (अप० ) = कैसा
--
कोइ
को उहल = कुतूहल
को उहल्ल=
कोडि
कोहु बिअ
पृष्ठांक
६६
६६
ट्यू २२८
८२, ११६ :
३०
८२
३६३.
३६३
६७
२८३
२६७
19
को ऊहल =
""
कोकिल = कोयल
कोच्छे अय = तलवार
को हागार = कोठार
कोडाको डि
२२, ६८
ट्यू
१६५
२५, २६, ८१
८१
२६
२५५
३२
६८
३८४
३८४
२५५
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
अर्थ
कोप्पर हाथ का मध्य भाग
कोव
कोववर
कोवि
कोस
कोसिअ
कोसे
कोस्टागाल ( मा० ) = कोठार
कोह
कोहंड = कोहला - कोहड़ा
कोहंडी = कोड़े की लता
को हण्ड - कोहड़ा
कोहदंसि
कोहलको हँदा कोहली = कोहँड़े की लता दुधालु (सं० )= भूखा
ख
खअ = क्षय - विनाश
खइअ =जड़ा हुआ
खंति
( १६ )
पृष्ठांक शब्द
खंद=महादेव का पुत्र संघ (पालि)
खंध =भाग
खंधावार = छावनी, लश्कर का
पड़ाव
२६
२८३
२४२
१६५
१८७
२४१
३५६
8
६८
१८३
८०
८०, ८१
८१
२४०
८०, २८१
בס
१३०
६२
४५
३१६
५७, ६३
५७, ६३
१८८७
६३
खंभ=खंभा
खग्र्ग= तलवार
खग्ग=
खग्गो =
""
अर्थ
खण-क्षण-समय
खण (घा० )
"3
खट्टेह= खट्टा+इह = खट्टेह-इधर
खटिया
पृष्ठांक ७५, ७७
६०
स्वसिअ =जड़ा हुआ
खा ( धा० )
खाद् (घा० )
खाय ( धा०
>
खार
५७, ३२६
६०
खमा=क्षमा - सहन करना
खम्म = ( चू० पै० ) = गरमी
खय
खल
खलु
खल्लीड = खल्वाट - वह जिसके
माथे में केश न हो
खाणु-ठूंठा वृक्ष खिज्ज् ( घा० ) खित्त= फेंका हुआ
२१४, २५६.
खण्णु-ठूंठा वृक्ष - पत्ता रहित वृक्ष ८२
खत्तिअ
२१०
खप्पर= खप्पर
४४
६२
३८
१८८७
२६०
२०२
६६
६२
२०
૧૪
- १५०
१५६
१५६
१८६
७५, ८२, २४१
१५४ ८३, २५७
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ
शब्द
खिष्पं
विप्पू ( धा० )
खिव् ( धा० ) खीण क्षीण
खीरक्षीर - दूध
खील= खीला - खूंट
खीलअ="
खु
खुज्ज=कूबढ़ा खुब्भ् ( घा० )
खुर
खुल्लक (सं० )=छोटा
खेडअ = नाश करने वाला
खेडअ = एक प्रकार का विष
खेडिअ = नाशवंत
खेत्त
खेम
खो
खोड (सं० ) = लंगड़ा खोडअ = फोड़ा
खोर (सं०) = लंगड़ा
गअ = गज-हाथी
गइ=गति
गड-गाय - गौ
ग
( २० )
पृष्ठांक
२२८
१४६
१४६
६२
६२, १८८
૪૪
४४
२१२
૪૪
१४६
१३३
१३३
७५
५८, ६२
७५
१८८, २५७
२००
२१२
१३५
५८, ६२, ७५
१३५
३३, ६२
३६
३१, ३१६
शब्द
गउअ = गाय
गउआ= गो-गाय
अर्थ
गउड = गौड देश
गउरव - गौरव - उन्नति
गंठी=गांठ
गंठ् (वा० )
गंध=गंध
गंगा=गंगा नदी
गंगा हिवइ= समुद्र
गंगो वरि - गंगा + उवरि=गंगा के
तीर पर
गंधउडी = 'गंधपुटि' नाम की क्रीड़ा - खेल
गंधिअ
गंभीरिअ=गांभीर्य
गग्ग
गग्गर = गद्गद होना
गच्चा
गच्छ ( क्रि० ) = ( तूं ) जा
गच्छ् (घा० )
गज्जि अ= गर्जित-गर्जना
गज्ज्
गड्डह=गवा गड्डा=खड्डा-गड्ढा
गढ़ (वा० )
गढ़िय
पृष्ठांक
३१.
२, ३१४
३१.
३१
६२.
૨૪
६६.
६१
१६६
१८७
६.
२५६
७३
२६८
४८
३६८
६५
१४६, १५६
३४
१६७
७८, २८०
७७
३२६
२१२
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
-गणव
२३ ७३
२६३
गा
४७ गाना
( २१ ) अर्थ पृष्ठांक शब्द अर्थ पृष्ठांक गणघर
२६८ गवज (पालि)=गवय-गो जैसा पशु ४२
२४० गवेस् (धा०) १८६, २८६ गणहर
२६८ गश्च (क्रि०) (मा०)='तू' जा ६५ गणि
२५३ गह-ग्रह-मंगल, शनि वगैरह ५६,२६४ गत्ता ३६८ गण
१८७ गद्दह-गधा ७८, २८० गहवइ-सूर्य
८३, २४० गन (पै०)-गण-समूह ४० गहिर गम्भीर
गहीरिअ गांभीर्य गन्मदेसि २४०
१५० गमिण गर्मित-अंतर्गत
गाअ-गो-गाय-गौ गभीर-गंभीर २३ गाई
३१, ३१६ २२७ गाढ=गाढ-सघन
३८ गम्भारी-मधुपर्णिका-शीवण
गाम नाम का पेड़ १२८ गामणि
२५५ १८२ गारव-गौरव गया
३७ गावी-गो-गाय-गौ गय्यिद (मा०) गर्जित-गर्जन ____३४ गिठी एक बार बच्चा का प्रसव गरभ (सं०)=गर्भ
१३३ करने वाली गौ-गाय ८७ गरिमा गौरव १० गिज्झ (घा.)
१५६ गरिहा गाँ-निन्दा
७४ गिठि एक बार बच्चा का प्रसव गरिह (घा.)
१४० करने वाली गौ-गाय ८७ गरुअ-गुरु २४ गिनि (पालि)
२५३ गरुड-गरुड
३६ गिन्दुक(सं. प्रा०)-गेंद १८,१२६,१२८ गरुल-गरुड ३६, १८६, २४२ गिम्भ ग्रीष्म समय-गरमी का गल १८२ मौसम
७३, १३४ गलोई गिलोई २४, २६ गिम्ह ,
७२,७३
गमण
२२७
गय
|
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२७
२२६
गोतम गोयम
२६
२५३
( २२ ) शब्द अर्थ पृष्ठांक शब्द अर्थ पृष्ठांक गिरा
३१५ गोही गिरि पर्वत को गिरितट पर्वत के समीप का स्थान ३५
२२६ गिरितड=
गोयमो गिला (धा० ) " १६७ गोरी
३२८ गिलाइ ( क्रि०) ग्लान होता है ७३ । गोलोची गिलोई गिलाण=ग्लान-चिंता से उदास ७३ । गोव
१६० गिहि
गोवई-गोपति-साँढ गी
. १८७ गोवा-गोपा-गोपाल १६० गीत
१८७ गुंछ-गुच्छा-पुष्प का गुच्छा ८७ गुंफ-गूंथना १८ घट्ट
૨૫૭ गुज्झ-गुह्य-गुप्त ६७ घड-घड़ा
३६, १८६ गुज्झ
३७० घडइ (क्रि. ) गढ़ता है ३६ गुत्त गुप्त-सुरक्षित ५७, १८७, ३२८ घड् ( धा० )
१८३ गुन (पै०)-गुण-संतोष वगैरह गुण ४० घम्म (पै० तथा प्रा०) घाम-गरमी ३८
२४३ गुरुअ-गुरु
. २४ घरघर ८३, ८४, २०१, २४२
घरचोलघरचोला नाम का गुरुवी भारी-वजनदार ७४ वस्त्र जो सौराष्ट्र में प्रसिद्ध हैं ८४ गेंदुअ-गेंद
घरणी-स्त्री गेज्म-ग्राह्य-ग्रहण करने योग्य २१ घरवह
२४० गेझ ,
३७० घरसामी-घर का स्वामी गेह (धा० ) १५६ घाण
१८८ गेन्दुअ-गेंद-दडा
घिणा
३२८ गेन्दुक (सं०) १८,४४, १२६ घेत्तब
२५५
घय
गुरुकुल
२११
८४
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
घोडअ
घोस= घोष - आवाज
अर्थ
च=और
चइत्त=चैत्र मास चइत्त = चैत्य -धर्मवीर और कर्मवीर
चइत्ता
चउ
चउआला
चउग्गुण=चौगुना चउचत्तालिसा
चउट्ठ=चौथा
चउणवइ
चउत्तीसा
की चिता पर बना स्मारक ५८
३६८
३७६
३८१
८२
३८१
७७
३८३
३८१
चउत्थ = चौथा ७७, ८१, २४३, २८२
१०३
चउत्थी चउदस-चौदह
८२, ३८०
च उद्दह
चउपण्णासा
चउरंस
चिउरासीह
चवीसा
( २३ )
पृष्ठांक शब्द
२८०
४३
५६, १.६
३०
च उव्वट्टय
चउव्वार = चार बार चार दफे
चट्ठि
चउसत्तरि
चंचु
चंड
चंद
चंद्र
अर्थ
चंडालिय
}
= चंदा ६१, ६२, ६८, १७५
चंदण
चंदिआ
चंद्रिका
चक्क = चक्र - गाड़ी का पहिया
चक्कट्ट
चक्काअ = चक्रवाक पक्षी
चड् ( धा० )
चतुरंत=चार अंत-चार छोर
चतुत्थ
चत्तारि साइं
चत्तारि सहस्साइं
३८०
३८२
२६४
३८३
३८०
चन्द (सं० ) - चंद्र
२६३
चन्दिमा = चंद्रिका
८२
चन्दिर (सं० )
३८२
चमर=चामर
पृष्ठांक
३८३
३१६
चत्ताला
चत्तालिसा
२५७
२२७
चक्खु
२४१
चच्चर ( चू० पै० ) = जर्जर - जीर्ण ३५
चच्चर = चौक
१८१
३१५
३१५
पूह
२६७
&
३५, ६४
३२६
१२
२४३
३८४
३८४
३८१
३८१
६२, १३५
४४, ३१५
१३५
२०
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
चम्मार
२६२
२४४
चविला=
"
( २४ ) शब्द अर्थ पृष्ठांक शब्द अर्थ पृष्ठांक चम्म
१८२, ३२७ चिण ( धा०) १५८, २९६ १८३ चिण्ह-चिह्न
७६ चयइ ( क्रि०)
६४ चिहिअ चिह्नित-चिह्न युक्त ७६ चय (धा०) १५८, २१४, ३२५ चित्तचित्र चर् (धा०)
२१४ चित्तमाणंदिय=चित्त आनन्दित १८ 'चलण-पैर-पाउ-पग
५२ चिन्ता चिंता-चिंतन चलन ( सं०)= , १३० चिन्ध चिह्न
७६ चल (धा०) १५८ चिन्धिअ-चिह्नित
७६ चविडा-चपेटा-थप्पड़-चप्पत ४५ चिरं
४५ चिलाअ-किरात-भील-आदिवासी ४४ चव् ( धा०)
३२४ चिहुर-केश-बाल चाइ
२५४ चीमृत ( चू० पै ) मेघ ३५, चाई त्यागी
६४ चीवंदण-चैत्यवंदन चाउँडा-चामुंडा देवी __५१ चुअह ( क्रि०) चूता है ५७ चाउरंत=चारअंत-चार छोर १२० चुक्क (धा० )=चुकना-भलना ३२५ 'चाय-त्याग
६४ चुच्छ-तुच्छ चारित्त
१८८ चेअ-निश्चय सूचक चारु
चेइअ चैत्य ५८,८६, २११ चास (सं० )
१३१ चेइयवंदण चैत्यवंदन । चिअनिश्चय सूचक
चेच्चा
३६८ चिहच्छ (धा०) १५० चेह
२६३ चिइच्छह ( क्रि०)
६५ चेतचित्त चित् (धा०).
२५६ चेत्त चैत्र मास चिंध चिह्न
७६ चेल चिंधि-चिह्नित-चिह्न-युक्त ७६ चैत्र चैत्य ११६, १३२, १३४ चिच्चा ३६८ चोआला
३८१
।
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
चोत्तीसा
NO
.
.
( २५ ) शब्द अर्थ पृष्टांक शब्द अर्थ पृष्ठांक चोआलिसा
३८१ छह ५४, ५७, २८२, ३२८ चोग्गुग ८२ छठी=षष्टी विभक्ति
१०३ चोणवह ३८३ छड्डइ ( क्रि०)
७८ ३८१ छड्डि-वमन चोत्थ-चौथा
८२ छण उत्सव चोद्दस ८२, ६३, ३८० छणपत्र
२६६ चोप्पड ( धा०) ३२६ छणपय
२६६ चोरासीइ ३८३ छण्णवह
३८३ चोरिअ चोरी करना
छण्मुह=षण्मुख-महादेव का पुत्र ६७ चोरिआ=
छत्त-छत्र-छत्री २८६, २११ चोवण्णा
छत्तिवण्णो-सप्तपर्ण-छतिवनका वृक्ष ५४ चोवीसा चोव्वार-चार बार
छप्पअभ्रमर ५४, ५७, ३२६ चोसहि
३८२ छप्पय
३२६ चोसत्तरि
छप्पण्णा
३८२ च्चिअनिश्चय सूचक
छप्पण्णासा
३८२ च्चेअ= "
छमा पृथ्वी
६४, ८६ छमी-शमी का पेड़
छय-क्षत-घाव छ-संख्या विशेष ५४, ३७६ छन्वीना
३८० छह-छादित-स्थगित-ढंका हुआ ७६ छसत्तरि
३८३ छचत्तालिसा
३८१ छाअ छच्छर ( चू० पै० ) जर्जर जीर्ण ३८ छाय
३२४ छज्ज (घा० )
१५८ छाया छाया-वृक्ष की छाया પૂર छगलबकरा ५ छायाला
३८१ छगलय%" २२५ छार-क्षार
६४, १८६
UUS
छत्तीसा
AAAAA
३
५३
mr
३२४
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
छाल= बकरा
छाली = बकरी
छाव = बच्चा
छासहि
छासीइ
अर्थ
छाहिल
छाही वृक्ष की छाया
छिंदू (वा० )
छिक=छुआ हुआ छिदय-छिद्र छड़ी-छेद
छिरा=नस
छिहा = स्पृहा
छिहावंत = स्पृहा वाला
छीअलक
छीर=क्षीर
छुच्छ = तुच्छ
छुत्त-छुआ हुआ
छुरी=कुरी
छेत्त = क्षेत्र
छोल्लू ( वा० )
छुहा=भूख
छुहा= सुधा-चूना
छूट = चिप्स - फेंका हुआ
छेअ
( २६ )
पृष्ठांक शब्द
४५
૪૫
५३
३८२
३८३
१५८, १६६, २८६
८३
२६४
५ २
७६
२५,६४, १८८
१८८
८३
૫૪
७६ जंपू ( धा० )
जंबु
४६
८३
१३३
८३, ३१३
૪
८२, ८३
२६३
१८८
३२४
अर्थ
ज=जो
जहमा - जइ + इमा=जो यह
जइस (अप०) = जैसा
जइहं - जइ + अहं = जो मैं
जउ
এ
पृष्ठांक
२४१
जउँणा-यमुना नदी
५१
जउणाणयण= यमुना का आनयन ६४ = जो, कारण यह है कि ६७, २५८ जंति = यत्+इति=जो इस प्रकार जंपि=यद् + अपि =जो भी
६६
१६६
६५
$3
ट्यू
પૂ.
जक्ख= यक्ष
जग्ग् ( धा० )
जज्ज=जय्य-1 - जितने योग्य - जय पाने
१६५
३२४
२५४
६३
१६६
योग्य
जज्जर = जर्जर - जीर्ण
जडिल = जटा वाला
जडालु - :
जटर- जठर
जणवअं = जनपद - देश
३४
ज०हु = जह्नु नाम का क्षत्रिय ७०, २५३
६६
३५
४५.
२६४
५२
जरथ = यत्र - जहाँ - जिधर
६५, १६३
जदस्थि= यद् + अस्ति यदस्ति = जो है ६६
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
पृष्ठांक
जन्तु
२४०
जन्न-यज्ञ
४१, ३७०
जम-यम-नरक में दंड देने वाला
यम
अर्थ
जमन' (सं०)
जम्पति= दंपती
जम्भा ( घा० )
जम्म=जन्म जम्मू ( घा० )
जया
ज्यू
जर
जल = जड़
जवा=जपा का फूल - अड़हुल का
फूल
( २७ )
शब्द
जहि = जहाँ - निधर
४१
१३०
१२८
.३२६
७२, २०६
१६७
३५६
१८६
२५५
१२८, १८७
१२६
जवू ( धा० )
१४६
मह - यथा - जैसा २०, ४१, १२०, २०२
✩
जहा = जैसा २०, ४१, ४२, ६६,
१२०,
१८२, २०२
२२
२२, २४, ५२
जहिद्विल= युधिष्ठिर जहुट्ठिल= जहा मिसि - यथा + ऋषि ऋषियों की
33
योग्यतानुसार जहासत्ति= यथाशक्ति-शक्ति के
अनुसार
जहासुतं = जैसा सुना वैसा
६८
पृष्ठांक
१९३, २६४
जा=जब तक
५५,
१५०, २४४
जाह ( क्रि० ) = जाता है
४१, ४२
जाइअंध = जन्म से अंधा
६ ३
जागर ( घा० )
१८३, २४४
जाणू ( वा० ) ४२, ६०, २०२, २६६
जाणइ ( क्रि० ) = वह जानता है
३०
जाणय
जाणु
जात=जाना हुआ
जातव्व = जानने योग्य
जाति= ज्ञाति
जातु=राक्षस
जातुधान=,,
जानि= यानि - जो जो वस्तु
जामाउअ
जाय
जायते य
अर्थ
जाय् (धा० जारिस = जैसा
२१०
जायेस=जाया+ईस=जायेस - पति ६६.
)
२४४
जावू जिइंदिय
जाव= जब तक
जावणा-ज्ञापना - विदित
करना
१०१
१८६
२०६
२४१
६०
६०
६०
१३०
१३०
१३०
३२६.
१८३
८५.
५५, ११३, २४४
६१
३२४
२१३
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४
११४
८७
( २८ ) शब्द अर्थ पृष्ठांक शब्द अर्थ पृष्टांक जिण
१७५ जुगुच्छइ ( क्रि०)-जुगुप्सा करता जिण ( घा०)
१५८
है-घृणा करता है ६५ जिण्ण जीर्ण-जीर्ण हुआ
जुगुच्छा-जुगुप्सा-घृणा ६५ जिण्हु जितने का स्वभाव वाला ६६ जुग्गजोड़ी ५८, ७२, १८७, २६६ जिब्मा जीभ ७२, ११५, ३१४ झुंज (धा०)
२५८ जिम ( अप०) जैसा ४१ जुज्म
२११ जिव ( अप )= ,
४१ जुज्झ ( धा०)
१५६ जिवइ ( क्रि०)जीता है-जीवन
जुण्ण जीर्ण-जुना-पुराना धारण करता है २४ जुति-द्युति-प्रकाश जीअ जीवित-जीवन ५५ जुत्तं इणं-युक्त यह जीआ-ज्या-धनुष की डोरी ८७ जुत्तति-जुत्तं इति=युक्त इस प्रकार ६६ जीमूअ मेघ - ३५, ३६ जुत्तं णिमं ( शौ० ) युक्त यह ८७ जीव २००
३१५ जीवइ ( क्रि० )-जीता है-जीवन
२१० धारण करता है २४ जुन्न
२०१ जीवण
२५७
जुम्म जोड़ी .७२, १८७, २६६ जीनाजीव-जीव और अजीव १०२
जुर् ( धा०)
२१३ जीवाउ
जुवई
३१५ जीविअ जीवन
५५
जुब्बण यौवन-जवानी ८१ जीह (धा०)
३२५ जुवणमप्फुण्ण-यौवनम् आपूर्ण जीहाजीभ २२, ७२, ३१४
___ भरा हुआ यौवन ६६ जुइ-द्युति ६५
२८० जुउच्छ ( घा०)
१५०
जेमे-जे+इमे-ये इमे जो ये ६५ जुग-जुआ-धुंसरी-धुरी १८८ जेम् (धा०)
१४० जुगु (घा०)
२२८ जेय-ज्ञेय-जानने योग्य
जुत्ति
२५४
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांक
८५
.
( २६ ) शब्द अर्थ पृष्ठांक शब्द अर्थ जेह ( अप० ) जैसा
टसर एक प्रकार का सूत ४६ जोअ-द्योत-प्रकाश ६६ टूवर दाढी-मूंछ न हो वैसा ४६ जोइअ जोइसिस
२५६ जोगि
२६७ जोण्हा ज्योत्स्ना-चंद्र की चंद्रिका ६६
ठंभ-स्तंभ-थंभा
७७ जोत् (धा० ) प्रकाश करना १५४
ठंभह ( क्रि०) वह स्तब्ध होता जोव्वण-यौवन-जवानी २८१
है-गति रहित है ७७. ठंभिजइ ( क्रि० ) = गति रहित
होना ७७
ठं ( धा०) गति न करनाझज्झर-झन्झर-घड़ा, झंझर झडिल-जटावाला
खड़ा रहना ७७ झलरी ( सं० ) झालर १३२ ठक्का (चू० पै०)-ढक्का-डंका--- झसोदर मछली के समान चम
नगाड़ा ७७, ७८ . कीले पेटवाला १०१ ठड्ड-ठाढ़ा-खड़ा
२६४ झा (धा०) १५० ठद्ध-ठाढा-खड़ा
५८, ७० झाण ध्यान ६७ ठा (धा०)
१५० झाम् (धा०)
३२४ ठीण जमा हुआ घी २०, ७७. झायइ ( क्रि०) ध्यान करता है ६७ झिजइ (कि० )-क्षय पाता है ६७ झीण क्षीण-क्षय पाया हुआ ६७ ।। डंड-दंड-डंडा ४८, ११८ झुणि ध्वनि-शब्द १८, २८० डंभ दंभ-कपट ४८, ११८
डंस ( धा० ) डसना डक्क-इंसा हुआ
७५ टगर तगर का सुगंधी काष्ठ ४६ । टमरुक (चू० पै.)= ड, ३८ ड डसा हुआ
डज्झमाण
२६६
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठांक
णवर
६.
४८
२६४
»
०
( ३० ) शब्द . अर्थ . पृष्ठांक शब्द अर्थ. डड्ड-जला हुआ ४८ णवणवह
३८४ डब्भ-डाभ-दर्भ ४८
२६४ डमरुअ-डमरू-शिवजी का डमरू ३८ __णवीण
२२८ डमरुक (१०)
३८ गाइ-ज्ञाति डर-भय-डर
णाण ज्ञान
६०, ६८ डस् (धा०) २४४, २७० .. णाणा इह (धा०)-जलना ४८, १५८, २०२
णाणिज्ज जानने योग्य . णाणिअ=
णातजाना हुआ ढक्का (पै० ) डंका-नगाड़ा ३८ णातपुत्त
२२५ ढोल्ला ( अप० )=धव-पति
णातव्वजानने योग्य णाति-ज्ञाति
णाय-जाना हुआ गंउपमासूचक अव्यय - १२५ णायव्व-जानने योग्य णई नदी
णायसुय गंगल हल
५३
णावणा-ज्ञापन करना . ६१ गंगूल=पुंछ
णाहल=विशेष जाति का म्लेच्छ ५३ णनिषेध १८६
१६४ ण वह - १६६ णिच्च
१८४ गर
१८१ णिडाल ललाट णचा जान करके
६४ णिपडा (क्रि०) गडाल ललाट १८,८८, २८१ णिलाड ललाट गम् (धा)
- २०२ णी (धा०) णयर
- १८१ ण-नीचे गर-नर-पुरुष णलाड ललाट
५३,८८ णमन्न
३८३ णे (धा०) १५०, २२६
४०
२२५
WW.
१८
४
१५०
२२
४० णमण्ण
निषण्ण-बैठा हुआ ८३
वह
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
३
८
M
U
W
२४३
शब्द अर्थ पृष्ठांक शब्द अर्थ पृष्ठांक इ क्रि०) ले जाता है ४० तञ्च तथ्य-सच्चा डु
२५७ तच्छ , णेय-जानने योग्य
तच्छ (धा०)
२१४ । हाअ-न्हाया हुआ ६६, ७० तटाक (चू० पै०) तलाव * हारु स्नायु-शरीर के स्नायु ५१ तह (सं०) त्रस्त-त्रास पाया हुआ ८३ हाविअनापित-स्नापित-स्नान . तडाक (सं०) तलाव १२८ . कराने वाला-हजाम ४६, २४२ तडाग (पै०),
३८ पहुसा-पुत्रवधू ७०, ८७, ३१३ तडाय= "
तण-तृण-घास
तणुवी-पतली-कृश ७४, ११७, ३१६ त २०६ तण्हा
३१३ तहअ तीसरा
ततो-ततः-तब से-बाद से ६२ तहज्ज-तीसरा ५१, २८२.. ततो
१८६, २१२ तइय= २८२ तत्थ-तहां
८३, १६३ तईया-तीसरी
... १०३ तदो (शौ०)-ततः-तब से ३४, ६२ तओन्तत:-बाद से-तब से ३४, ६२ : तदो तदो (शौ०)-ततः ततः ६२ तं-तत्-वह
. ६७ तप (सं०)-तप-तपश्चर्या १२७ तंतु-तंतु-सूत
२६७ तप्पुरिस तत्पुरुष-समास १०२ तंब तांबा ७०, ११६, २८१ ।। तम अंधेरा - ३२, ११३, १२७ तंबोल-तांबूल-तंबोल-पान २५६ तम्ब-तांबा
८० तंबोलिअ-तंबोली-तमोली- ... ... तम्बा (सं०) गउ-गौ-गाय . . १२६
तंबोल-पान बेचने वाला २५६ तम्मंसहर-तम्मि+अंसहर उसमें तंस-त्रांसा-तिन कोण वाला ८२, . भाग लेने वाला ६५ ८७, २६४ तया
३५७ १६६ तरणि-सूरज तगर तगर का सुगंधी काष्ठ ४६ तरणी ,
८६
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ
शब्द तरु
( ३२ ) पृष्ठांक शब्द अर्थ २४१ तालवेण्ट पंखा
“पष्टांक
तरुणी
२८१
३८१
तर् (धा०) १५८ ताल (धा०)
२४४ तलाय-तलाव . . ३६, १८५ ताव-ताप
४०, २००. तलुन (सं.)-तरुण-जवान १३० ताव=तब तक ५५, ११३, २४३ तव-तप-तपश्चर्या
२१० ताव ( धा०) २५६, ३२४ तव-स्तवन-स्तुति ४ , ७०, ३२७ ताविष (सं) स्वर्ग १३५ तवा ( क्रि०) ४० ताहि
१६७ तवस्सि तपस्वी २६७, ३५ ति
२१२, ३७६ तविअ-तपा हुआ ८६ तिक्ख-तीक्ष्ण
७०, ७५ तविष ( सं० ) स्वर्ग १३५ तिक्विण ( पालि) ७०, ७५ तव (धा०).
१४६ तिग्ग-तेज-तीक्ष्ण ७२, २६६ तस
२१० तिचत्तालिसा तस्सि
१६३ तिण्ण तह-तथा-तीस प्रकार २०, ४१, १२० । तिणि सयाई
३८४ तहत्ति ६६ तिणि सहस्साई
३८४ तहा , २०, ४१ तिह-तीना-तीक्ष्ण ७०, ७५, २६४ तहि ।
२८३ तित्तिरतित्तिर पक्षी तहिं
१६३, २८३, २६४ तित्तिरि, तातावत्-तब तक ५५, २४३ तित्तीसा
३८१ ताड् (धा० )
२४४
तित्थ तीर्थ-नदी का घाट २४, ८१, ताण
२०१ तामोतर (चू० पै०) ३५ तित्थकाग-तीर्थ में कौवा जैसा १०१ तायध ( शौ० ) रक्षा करो ११४ तित्थगरतीर्थकर तारिस-तैसा
तित्ययर= , ३७, ४४ तालक (सं०)-ताड़न करने वाला १२८ तिदसीस-इन्द्र
२१
२१
१५६
|
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
m
शब्द
तिदसेस= इन्द्र तिपण्णासा
त्ति
तीसा
अर्थ
तिप्पू ( धा० ) तिम ( अप० ) तैसा - तथा
तिम्म= तीक्ष्ण
तिरिन्छ तिर्यक् तीरछा
तिरिच्छि= faizar (arfoo)=,,
तिरिया =
39
तिरिश्चि ( मा० ) =,,
तिल तिवँ (अप) - तैसा
तिसय
तिसत्तरि
तिसा
"
तु
तुच्छ
तुहिक = मौन रखने वाला
तुहिक =
ह५
३८२
२१३
४१
७२, २६६
८३
६५
८४
८३
६५
२५५, २६३
४१
३८४
३८२
३१३
२१२
८३, ६७, ३८ १
२७०
२६६
८१
८१
तेलिअ
६५
तेल्ल
५१, १६६
तेवण्णा
५१
तेवीसा
५१
तेस
२८१
तेसीइ
"
तुम्भित्थ= तुन्भ + इत्थ= तुम इधर
तुम्ह= तुम
तुम्हकेर = तुम्हारा तुम्हारिस = तुम्हारे जैसा तुरंगम=घोड़ा
( ३३ )
पृष्ठांक शब्द
अर्थ.
तुरिय् (धा० )
तुवर् ( धा० )
तूण = बाणों को रखने का थैलाभाथा, तरकश
तूप ( सं० ) = स्तूप - थूभ - स्मारक
स्तंभ
तूबर = दाढी मूँछ न हो वैसा
तूर (सं० )
तूर तूर्य-बाजा
पृष्ठांक
१४०
३२६
तूर् ( धा० )
तूह तीर्थ नदी का घाट
ते आला
तेआलिसा
ते ओ= तेज
तेणवइ
तेत्तीसा
तेरस
तेरह
तेरासीइ
तेल
२६
१३२
४६
१३२
८०
२६६
२४, ८१
३८१
३८१
दह
३८३
८२, ३८१
३८०
४८, ८२, ३८०
३८३
२५६
२५६
८१, २८१
३८२
८३, ३८०
३८२
३८३
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
4
शब्द
अर्थ
सोण = त्राणों को रखने का थैला
भाथा, तरकश
तोल् ( धा० )
थइअ = ढका हुआ
थंभ=थंभा
थद्ध-स्तन्त्र
थव=स्तुति थागु = महादेव
थ
थुई थुई = स्तुति
थुण ( घा० )
थुल्ल = स्थूल - मोटा
थुवअ = स्तुति करने वाला थूण = चोर
( ३४ )
पृष्ठांक
यावर
श्री-स्त्री
थीण = कठिन - जमा हुआ २०, ७०,
थूणा=खूँटी, खंभा
थूल = स्थूल - मोटा
थूलि ( चू० पै० ) =धूलि-धूल
थेण= चोर
थेर= वयोवृद्ध थेरिअ = स्थिरता
थेव= थोड़ा
२६
१६७
७६
७०, ७५,
५८, ७०
७०
७५
२१०
८४
७७
३१५
७०
१६६
८२
२०
२६
२६
५२, ८१
३८
२६
८३, ६३, २६८
७४
८४
शब्द
थोअ = थोड़ा
थोक =
थोक्क=
39
थोणा = खूंटी, खंभा
थोत्त= स्तोत्र
"
अर्थ
थोर स्थूल-मोटा
थो - =थोड़ा
दइवण्णु=
39
दइ० - दैव- अदृष्ट - नसीब
द
दइव - दैव- अदृष्ट - नसीच, भाग्य
दइवज्ज = देव को जानने वाला
दंड-डंडा
दंडादंडी = परस्पर डंडा द्वारा
किया हुआ युद्ध
दंभ दंभ-कपट
|दंसण = दर्शन - देखना
दक्खव ( धा० ) दक्खिण = दक्ष
दग (सं० ) = पानी
दच्चा=देकर
पृष्ठांक
७०, ८४
८
१०१
दंत
२१३
दंद - द्वन्द्व - समास का एक भेद १०२
४८
४७, ८७
३२५
१७, ८, १६६
१२८
६४
४८, ६८, ७५
३७१
दट्ठ =डंसा हुआ
दहव्वं
८४
२६
७०
५२, ५३
८४
८१
६१
६१
३०, ८१
४८
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ
शब्द
दड्ढ=जला हुआ चळह (पालि ) = दृढ
दणु=राक्षस-दानव
दणुअ = राक्षस-दावन
दणु अवह=दानव का वन
दणुत्रह=
दण्ड
दद्दु
दन्त
""
दब्भ=दर्भ - डाभ दरिअ = दर्पयुक्त - छका हुआ दरिसण दर्शन - देखना
दलिद्द-दरिद्र - आलसी दव = प्रवाही - रस वाला पदार्थ
दस-दस - संख्या विशेष
दसबल = बुद्ध भगवान्
दसम
दस लक्ख
दसार= वासुदेव
दह-पानी का कुण्ड झील
दह = दस संख्या
दहण
दहर (सं० ) = छोटा -दभ्र
दह लक्ख
दह सहस्स
-दहि
( ३५ )
पृष्ठांक शब्द
७८
११६
५५
५५
५५
५५
२५६
३१६
१८२
४८
२६
७४,८७
५२
६१
५४, ३८०
४५
२८२
३८४
८०
६१
५४, ३८०
२८१
दहीसर = मलाई
दह् ( घा० )
दा
अर्थ
दाडिम= अनार
दाघ = दाह - जलना
दाढा=दाढ
दाढिका="
दाण
दाणि= अभी-संप्रति
दाणि=
"
दामोअर = दामोदर = कृष्ण
दार-दार-द्वार- दरवाजा २१,
दाद
दाशी (सं० ) = दासी
दाह- दाह - जलना
दाहिण= दक्षिण- दक्ष दाहिण= दाँया, दक्षिण तरफ
पृष्ठांक
६४
४८, २०२
१५०
२६३
११५
८३
१३२, १३४
२११
दिअह=दिवस
दिग्ध = दीर्घ- लंबा
१३३
३८४
३८४
२४१
दिअ = हाथी
६०
दिअर = देवर = पतिका छोटा भाई २६
૪
८३, ६७
६७
दिट्ठि=दृष्टि-नजर
२५
६०, ८७
२८१
१३१
११५
१७, ८१
१६६
पू६-८१
२५५
दिग्घाउ=लंबी आयुवाला दिति - दिह + इति - देखा हुआ ६६ दिविआ = मंगल वा हर्ष का सूचक
८६, ११७
६८
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
दिण
अर्थ
दिणयर
दिणेस = सूर्य
दिण्ण-दिना दिया हुआ
दित्ति दिप्पू ( धा० ) दियड=डेढ़-१|| संख्या
दीवतेल्ल
वेल्ल
दिव= दिवस = दिवस
दिवह - दिह-दिवस
दिविदिवि ( अप० ) = रोजरोज
नित्य
97
दिव्व् (धा० )
दिसट ( पै० )=देखा हुआ
दिसा-दिशा
दिहि=धैर्य-धृति
दीव् ( घा० )
दीह = दीर्घ- लंबा
( ३६ )
पृष्ठांक शब्द
२८१
दुअल्ल - दुकूल - कपडा दुआइ-द्विजाति- ब्राह्मण
२००
६६
१८, ७८
दुआर= दार-द्वार - दरवाजा
दुइ अ= दूसरा
३१५
१४६
२८२
२८२
૫૪
५४
१२५
१५४
६८
८३)
३१३
८४, ३१५
दीहा ( अप० ) = दीर्घ
१७
दु= दो -२ संख्या २२, १६३, ३१७
२५
६०
८७
२२
२८१
२८१
१४६
८१
दुइज्ज=दूसरा
दुइय = "
दुरण - द्विगुण- दुगुना
दुऊल=कपडा
दुक्कड = दुष्कृत - पाप
दुकय=
दुकाल
दुक्ख
दुक्खदंसि
दुक्खि अ = दुःखी
दुगुल्ल=कपड़ा
दुग्गंधि
दुग्गच्छइ
दुग्गाएवी = दुर्गा देवी
दुग्गादेवी==
1
दुग्गावी = दुचत्तालिसा
दुठु
दुणि
दुद्ध=दूध
दुपण्णासा
दुष्पूरिय
अर्थ
दुरणुचर दुरतिकम
"
५५
५५, ११७
३८१
२२८
११४
५७, २२७, ३२७
३८२
२१३
दुम= वृक्ष
६.१, २०६
दुरइक्कम=नहीं टाला जा सके ऐसा ६६
पृष्ठांक
२८२
२३, २८२
93
२२.
૫
४७
४७
२२६
८१, १८८
२४०
५६, ८१
४४
२५५
१६३
२१२
२१३
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
अर्थ
दुलि (सं० ) = कछुआ
दुल्लह
दुवार = द्वार- दरवाजा
दुवारिअ = द्वारपाल
दुवालस
दुवे
दुसय
दुस्सह - असह्य - कष्ट से सह्य
दुस्सस्स
दुस्सीस
दुह=दुःख
दुहअ = दुर्भग-अभागा
दुहा = दो प्रकार
दुहि
दुहिअ = दुःखी
दुहिआ=लड़की
दू
दूहव = असुन्दर - कमनसीब
दूहवो =
देउल = देवालय
देक्खु (धा० >
देर= द्वार - दरवाजा
देवउल= देवालय
देवज्ज = दैव
ज- देवज्ञ-भाग्य ज्ञाता
देवष्णु=
देवत
""
""
( ३७ )
शब्द
अर्थ
देवत्थुइ = देव की स्तुति
देवथुइ =
"
देवदाणवगंधव्वा = देव, दानव और
गंधर्व
पृष्ठांक
१२८
२८८
८७, २८१
३२
३८०
१४४
३८४
५६
२६८
२६८
८१
૪૫
२३
२५५
८१
८३
१६३
४५
१६३
५५
१४०
२१, ८७
५५
६१
६१
३८३
१०२
देवर = देवर - पति का छोटा भाई १८०
देविंद
२२६
देव-दैव-भाग्य
देस
दो
पृष्ठांक
८२
८२
दोगच्चं
दोणि
दोवयण द्विवचन
दोस ( पालि ) = द्वेष
दोसिअ = दोशी- कपड़ा बेचनेवाला
साथ नगाड़ा बजाना द्रमिड (सं० ) = द्रविड़ देश
द्रह - भील - पानी का कुंड
ध
बजाज
दोहल - दोहद-गर्भिणी स्त्री की अभिलाषा
दोहा - द्विधा - दो प्रकार
द्रगड ( सं० ) = नौबत - शहनाई के
धअ = ध्वज-भंडा
धंक ( पालि ) = कौआ-टंक
३०
२२५
१४४
१६३
१४४
२३
२६, १८३
२५६
४६
२३
१२८
१३०
दर्द
५८
६४
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाम
२७
( ३८ ) शब्द अर्थ पृष्ठांक शब्द अर्थ पृष्ठांक धज्जुण=राजा द्रुपद के पुत्र का घिज्ज-धैर्य
___ ५८ घिट्ट धृष्ट-बेशरम घण
२०१ धीप् (धा० )=दीपना-प्रकाशना ४८ धणंजय अर्जुन
६६ धीर-धैर्य धणि २८०, ३५३ धीरत्त
२११ धणु धनुष
८४, २०१ धुत्त धूर्त घणुक्खंड-धनुष का भाग
धुत्तिमा धूर्तता घणुह धनुष ८४ धुवं
२१२ धत्ती धात्री-धाई माता - ३२८ धूआ=लड़की ८३, ३१४ धत्थ-ध्वस्त-ध्वंस पाया हुआ ५८ धूलि (पै० तथा प्रा०) ३८, ३१५ धनञ्जय ( मा० तथा प्रा०) अर्जुन ६६ धनुस्खंड ( मा०) धनुष का भाग ६३ घन्न
१८२ नइगाम=नदी और गाँव अथवा धम्मजाण
२६६
नदी के पास का गाँव ८२ घय
२३६
नइग्गाम धरिस् (धा० ) १३८, १४० नई-नदी धा (धा०) १५०, १५७ नउणन पुन:-फिर नहीं धाई-धाई माता-बच्चों को दूध नउणा-न पुनः,
पिलाने वाली माता ५६, ३१६ न उणाइन पुनः , घाती ,
५६, ८० नकर (चू० पै०)-नगर ३५ धाम ( सं०) घर
१२७ नक्खनख धामो ,
८६ नगर-नगर-शहर ३५, १८१ घाय ( धा०)
१५७ नग्ग-नंगा ५८, २८१, ३२८ धारी-धाई माता ५७, ८० नच्चा
३६८ धाव् (धा०) १५७ नचाण
३६८ धिइ
३१५ नच्च (धा०) १५६, २२६
१८४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
अर्थ
नज्झति ( क्रि० ) बाँधता है
नज्भू ( घा० )
नई = नर्तकी - नाचनेवाली
नड=नट
नणंदा = ननद- पति की बहन
नत्ता
नत्तिअ
नत्तुअ
नत्थिअ
नमि
नमिराय
नरवह
नरीसर= नरेश्वर - राजा
नरेसर=
"
नल ( मा० ) = पुरुष
नलाट
नव
नवइ
नवफलिका = एक लता
३२७
३२७
३५७
२५४
२१०
नमोक्कार=नमस्कार
१६
नम् ( धा० )
१५८, २०२
नयण = नयन - आंख ३७, १७५, १८०
नयर नगर
३३, ३५, ३७, १८१
२४०
नवम नवासी इ
( ३६ )
पृष्ठांक शब्द
नवीण
६७
१५६
६७
३६, १८६
३०३, ३१४
३६८
हह्यू
४२
५३
३७६
३८३
८३
२८२
३८३
नाय
नायपुत्त
नारी
अर्थ
नवू ( घा० )
नहस ( घा० )
नह= नख- नाखून
२१०
नह= नभ- आकाश नांगल ( पालि० ) = हल
५३
नाग (पै० तथा प्रा० ) = नाग लोक ३५
नाण
१८१, २२७
नातपुत्त
२२५
नाव (शौ० ) = नाथ - स्वामी ३७, ११४ नाय=नाक-नाग लोक
३
२५८
२२५
३१६
नाली
नावा= नौका
नाविअ =नाविक - नाव चलाने
वाला नाविअ = नापित-हजाम
नास
नासू ( घा० )
नाह=नाथ - स्वामी
नाहिअ
नि=निरन्तर अथवा रहित
निंदू ( घा० )
पृष्ठांक
२२८
१५८
१५६
८१
१२८
३२, ३१४
૪૨
२४२
२१०
१५६
३७
३७
२२,
१६३, १६४
१५८
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनाज
( ४० ) शब्द अर्थ पृष्ठांक शब्द अर्थ पृष्ठांक निंब-नीम का वृक्ष
४६ निप्पह-प्रभा रहित-निस्तेज ७१ निकस-कसौटी का पत्थर ४३ निप्याव-वल्ल-वाल नाम का निक्ख=निष्क-सुवर्ण मुद्रा निखार (धा०)
३२६ निप्पिह-निस्पृह ७१, ७६ निक्खाल (धा०)
निप्पुसण-पोछना-मार्जन करना ७१ निच्चं
१८४ निप्फल=निष्फल-व्यर्थ ६३ निचल=निश्चल ५७, ३२८ निप्फाव-बल्ल-वाल नाम का अनाज ७१ निच्चिन्त निश्चित
६५ ।। निप्फेस पीसना निच्छर (चू० पै०) निर्भर- निमंत् (धा०)
२४४ पानी की झरना ३८ नियोचित ( चू० पै०) नियोजित ३६ निच्छिह-निस्पृह-स्पृहा रहित
नियोजिअ%3
, ३६ अनासक्त
७६ ।
निरकृय निज्भर झरन-पानी का झरना निरंतरं
२३, २८ निरन्तर सतत निझरह
निरिक्खइ ( क्रि०) १६३ निठुर=निष्ठुर-क्रूर ५३, ५७ निर्
१६३ निहल= "
निल्लज्जिमा=निर्लज्जता-बेशरमाई १० निण्ण-छोटा अथवा नीचा स्थान ६६ निव
१७५, ३२६ निद्ध-स्नेह युक्त ८२ निवाण
२६३ निद्धणो
१६३ निश्चिन्द ( शौ०) निश्चित ६८ निधुण (धा०)
२६. निसढ इस नाम का पर्वत निधातवे स्थापित करने के लिए १२१ निसरह ( क्रि० ) निन्द् (धा०)
१५८ निसा निपडइ ( क्रि०)
१६४ निसाअर चंद्र निप्पज्ज ( धा०)
१५४ निसाअर-राक्षस निप्पह-निस्पृह
५७, ११३ निसिअर-चंद्र
Mmmm
४६
६४
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
आभरण-गहना
uuurur
ने
४४
२४
शब्द अर्थ पृष्ठांक शब्द अर्थ पृष्ठांक निसिअर-राक्षस
६४ निसीढ-मध्य रात्री
४८ नूणं निश्चित .. निसीह
४८ नूण- " निस्फल ( मा० ) निष्फल-व्यर्थ ६३ ने ( धा०)
२२६, २६२ निस्सरह ( क्रि०) २२, ५६ निस्सह मन्द
नेह ( क्रि०)
४० निहस कसौटी का पत्थर
ने उर=पायल-स्त्री के पाँव का निहाय
३६८ आभूषण आभूषण
२६ निहिअ-निहित-स्थापित
नेच्छति-न+इच्छति वह नहीं निहित्त
८१
चाहता है , निही निधि-भंडार
नेड-पक्षी का घोंसला निहे ( क्रि०)
नेड्ड= "
८१, २५७
नेति ( क्रि०) वह ले जाता है ११६ नीच-नीचा
नेह-स्नेह ५७, ८६, ३१७ नीड-पक्षी का घोंसला
नेहालु
२६४ नीप-कदंब का पेड़ नीम ,
नोणीअ-मक्खन नीमी घाघरे की नाड़ी, नीबी ५३
नोमालिआ वसंती-नेवारी-लता ८३ नीव-कदंब का पेड़
नोहलिआ विशेष लता ८२ नीवी-घाघरे की नाड़ी नीसरह
२२, १६३ प . नीसासूसास = निश्वास और पइ-पति
६२, २४० उच्छ्वास ६५ पइण्णा-प्रतिज्ञा
३४ नौसेसचाकी नहीं-सब ४३ पईव-प्रदीप-दिया नीहर् (धा०) नूउर-पायल-स्त्री के पाँव का एक पउग
नी
१८
१८६
५०
.
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१६२
४०
पउ
|
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--------------------------------------------------------------------------
________________
m
1 mr
पंचम
शब्द अर्थ पृष्ठांक शब्द अर्थ पृष्ठांक पउह-हाथ का पहुँचा-कलाई और पक्खलइ ( क्रि० )-वह स्वलित केहुनी के बीच का भाग ४४
होता है ६४ पउत
६८४ पक्खाल (धा०) २८३, ३२५ पउम-पद्म-कमल
पक्खि
२४१ पउर-प्रचुर-अधिक ३१ पङ्क=पंक-कादव
ह८ पंक=पंक-कादव, कांदो १८ पगरक्ख
२५६ पंगुरणप्रावरण-वस्त्र
८२ पच्च-पकाने योग्य पंच
३७६ पच्चप्पिण (धा०) पंचणवह
३८३ पच्चय-विश्वास २८२ पच्चूस-प्रातःकाल
५४ पंचमी-पांचवीं १०३ पच्चूह% ,
५४, ६४ पंचावण्णा ३८२ पच्छ-पथ्य
६५, २२८ पंचासीह ३८३ पच्छा-पीछे
६५, २२८ पंजर
पच्छिम-पश्चिम-अंतिम ६५ पंजल-सरल
पजान ( पालि )-विशेष ज्ञान । पंडिअ
१८८
पज्जत-पर्यंत २६६
पज्जत्त-पूरा पंति
पज्जर् (घा.)
३२४ पंथ=पंथ-रास्ता ६८, १२६
पज्जा-प्रज्ञा-बुद्धि पंथव (चू० पै०)बांधव
पज्जुण्ण-प्रद्युम्न-कृष्ण का पुत्र भाई ३५, ३८
६६, २२६ यं सुपरशु-फरसा-फरसी
पझीण-प्रक्षीण-विशेष क्षीण ६७ पंसु-धूल ६८ पञ्जर
१८७ पक्क पका हुआ १८, ५८ पञल ( मा० ) सरल-निष्कपट ६६ पक्ख
२४२ पआ ( मा० तथा पै० ) प्रज्ञापक्खंदे-गिरे-प्रवेश करे
२४२ ६६
पंत
८७
६६
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठांक
४७
سم
२०१
سم
२५७
पडह
३८२
४७
शब्द अर्थ पृष्ठांक शब्द अर्थ पटि ( पालि )-प्रति-प्रति ४७ पडिहार-प्रतिहार-द्वारपाल पटिमा ( चू० पै० )-प्रतिमा- पडपटु-चतुर
सादृश्य ६८ पडुप्पन्न पट्ट-पट्टा
पड ( धा० )
१४० पट्टण शहर-पाटण ७७, १३४ पढइ ( क्रि० )=पठता है पट्टोल-दोनों तरफ समान छाप
पढम-पहिला
४८, २८२ वाला वस्त्र
पढ् (धा०) पट्टव ( धा)
२२६ ३२५
पणवत्तालिसा पटिपीठ
३८१
पणतीसा __ डंसुआ प्रतिध्वनि-पडछंदा ८७
३८१ पणपणा १८६
३८२ पडाया पताका-छोटी धजा
पणपण्णासा पडायाण-घोड़े का साज ५२ पणयाला
३८१ पडि-प्रति
पणवीसा पडिकूलं प्रतिकूल
१६४ पडिकूल २७० पणसहि
३८२ पडिणी (घा.)
२६६ पणसत्तरि पडिप्फद्धए क्रि०) स्पर्धा करता है ७२ पणसीइ पडिप्फद्धा प्रतिस्पर्धा
पणाम् (घा.) पडिप्फद्धी= ,
पण्डित-पंडित
१८८ पडिबुज्झ ( धा०)
पण्णवइ
३८३ पडिभासए ( क्रि०)
पण्णरस
३८० पडिमा प्रतिमा ३८, ४७, १६४
पण्णरह
७८, ३८० पपडिवज्ज् (धा०) २८३ पडिवत्ति-प्रतिपत्ति-सेवा ४७
पण्णसत्तरि
३८३ पडिवया-प्रतिपदा-पडवा तिथि
पण्णा-प्रज्ञा-बुद्धि ६१,६८,६६, ३१३ प्रथम तिथि-परिवा
पण्णासा
७८, ३८१
३८०
पणस-फणस-कटहल
४६
३८३
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الله
७१
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७१
३६८
१६४
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Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
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OTTOR
.
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.
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६६,
३८
or
२१५
no
(५
८४
शब्द अर्थ पृष्ठांक शब्द अर्थ पृष्ठांक पहप्रश्न
६६, २२६ पम्भल-सुन्दर पक्ष्म वाला ७३ पण्हा प्रश्न
६६ पम्ह=पक्षम, आँख की बरौनी ७२, ७३ पण्हुअ-स्त्री के स्तन से झरा
पम्ह= "
२५७ हुआ दूध २२६ पम्हपड=महीन वस्त्र
२५७ पण्हो प्रश्न
६१ पम्हल-सुन्दर पक्ष्म वाला ७२, ७३ पति
पय
८८, २११ पतिठाइ ( क्रि०) १६४ पयय-प्राकृत
२०. पतिमा (१०) प्रतिमा
पयय् (धा०) पतिमुक क (पालि)-प्रतिमुक्त
पयल्ल (धा०) मुक्त
पया-प्रजा यतु (२०) पटु-चतुर ३६ पयाइ-पदाति-पैदल सेना पत् (धा०)
१४० पयुअ पत्त-पाया हुआ
२६३ परा पत्थर-पत्थर
१६४, १६५ पद
१८८ परिअट्ट (धा०) पदिण्णा (शौ०)-प्रतिज्ञा
परिआल (धा०)
३२५ पन्नत्त
२६६ परिक्कम् (धा०) पन्नव (धा०)
३२४ परिखा-खाई पप्पर (चू० पै०) बर्बर-जंगली ३५ परिघ एक आयुध
५२, ५३ पमत्त २०१ परिच्चज्ज
३६८ पमत्थ् धा०)
२०२ परिच्चय् (धा०) पमय
२१३ परिट्ठा (घा.) पमाद
२०६ परिणिव्वा (धा०) पमाय २६० परितप्प (धा०)
२१३ पमुच्च (धा०)
२७१ परिदान (सं.) पम्भक्ष्म पापण-आँख के बाल ७३ परिदेव (धा०)
२८३
is w
७०
परि
૨૦૨
३४
wir ar V
१
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Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठांक
३६८
१७
२५४
२२७
२६७
८७
६४
w
( ४५ ) शब्द अर्थ
पृष्ठांक शब्द अर्थ परिन्नाय
पवयण%Dप्रवचन परिवहन (पालि) ७७ पवय् (धा०)
२४४ परिवुडो
१६५ पवस् (धा०) परिव्वय् (धा०)
२८३
पवहण परिषत् (सं०)
१३३
पवासि परिसु-कुल्हाड़-कुठार
पन्वय
२१० परिसोसिअ
२४३ पसत्थ-प्रशस्त परिसोसिय
२४३ पस्स् (धा०)
२८६ परिहर् (धा०) २१४ पसु
२६८ परुस कठोर
४६ पस्खलदि (मा० क्रि०) स्खलित परोप्पर परस्पर १६, ७१,८८
होता है परोह अंकुर
पस्ट (मा०)=पट्ट-पट्टा पलक्ख-पिप्पल वृक्ष
पहपंथ-मार्ग पलि
पहार
२२६ पलिअ-श्वेत केश
४७ पलिघ-परिघ
पहुडि-प्रभृति-वगैरह
५३ पलिघो= ,
पा (धा०)
१५०, २६२
पाअ पलिल श्वेत केश
२६२ पलीव-प्रदीप
१ पाइक्क पदाति-पैदल सेना ८४ पल्ल-उलटा पलटा
८३ पाउरण=प्रावरण-कपड़ा
७०, ७७, ८० पल्लत्थ= "
७०, ८० पाउस पावस-वर्षा ऋतु ८४, ३२७ पल्लस्थिका पलथी
पाउसो= ,
८६ पल्लाणघोड़े का साज ५२,८०, २६३ ।। पाऊण
२८२ पल्हाअप्रह्लाद ७३, २२६ पाओण-पौना-ol पल्हाद ,
२२६ पाट (धा०) पवह प्रकोष्ठ-हाथ का पहुँचा ४४ पाडलिपुत्त
२२७
s
८६
१६५
w
०
०.
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
पृष्ठांक
१८६
।
अर्थ पृष्ठांक शब्द अर्थ पादिवआ ३१४ पावग
२१० पाडिवया
३१४ पावडण-पाय लागन पाद
पावयणप्रवचन
१७ पाण
१८७, २६२ पावरण-कपड़ा, वस्त्र पाणि
२५४, २६२ पावारअओढ़ने का कपड़ा पाणिअ-पानी
पावासु-प्रवासी
२५४ पाणीअ%,
२३, २२७ पावीढ=पावीठा-पैर रखने का ५५ पाणीय= , २२७ पाव (धा०)
રહ पाति (सं०) पति-स्वामी १२६ पास
१८२, २००, २०२ पाय १७५, २१०, २८२ पासग
२४३ पायत्ताण २५७ पासाण
પૂ૪ पायय-प्राकृत २०, २६३ पासाय
२०० पायवडण=पाय लागन ५५ पासुधूल
६८ पायवीढ=पादपीठ-पावीठा ५५ पाहाण-पाषाण
५४ पायार-प्रचार अथवा प्रकार ५४ पाहुड-भेट-उपहार, पाहुर ४७ पायालपाताल पार-प्राकार-किला ५४, ११७ पिआउय
२०१ पारअ=ओढ़ने का कपड़ा ५५ पिआमह पारक-दूसरे का
१२० पिउ-पिता
२८ पारद्धि=पारधी-शिकारी ५० पिउ (अप०)=प्रिय पारावअ-परेवा पक्षी, कबूतर २१
पिउच्छा-फूआ-पिता की बहिन ८४,
३१४ पारावत
१२६ पिउसिआ=पिता की बहिन, फूआ ८४ पारेवअ ,
२१ पिओत्ति-पिओ इति ६ पारोह-अंकुर
१७ पिक्क पका हुआ १८, ५८ पालक (चू० पै०) बालक ३५, ३६ पिच्छ-पक्ष अथवा पीछी १३३, १३४, पाव-पाप ३४, ४०, २१०
१८२
१६५
રૂ૫૭
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--------------------------------------------------------------------------
________________
३६८
مه
له
पीणया
< mmmM
पिढर= .
( ४७ ) হা अर्थ
पृष्ठांक शब्द अर्थ पृष्ठांक पिच्छिल-चिकना ६५ पिहा स्पृहा
११३ पिच्छी-पृथ्वी
५५, ३१७ पिहाय पिज्ज (धा०)
पिहेइ (क्रि.)
१६५ पिट्ट (धा०)
पीअल पीला
४७ पिठं=पीठ
पड् 'धा०)
२५६
३५७ पिठनो-पीछे से पिटिठ पीठ
१२६ पीथी (सं०) घोड़ा
२७ पिट्ठी पीठ
ર૧૪ पीलु पील् (धा०)
રક્ષણ पिठर-थाली
पीवल-पीला
४६, ५२ पितुच्छा=पिता की बहिन-बूआ ८४
पुंछ-पूछ, दुम
पुंनाम नागकेसर का वृक्ष ४५
१८१ पि, जुदा-अलग
पुक्कस मनुष्य की एक पिछड़ी ४८
हुई जाति पिब् (धा०)
१८६ पुङ्खबाण का पुंख
१३३ पिय-प्रिय ६१,२०१,
पुच्छ (सं० तथा प्रा०)-पूंछ ८७, १३४, पियाल-रायण का वृक्ष
१८२, २६६ पिलुट्ठ जला हुआ
पुच्छह (क्रि०) पिलोस जलना
पुच्छा पिश्चिल ( मा० )चिकना ६५ पच्छ (धा०)
१४०, २२६ पिसाअ-पिशाच
पुज्ज् (धा०)
१५६ पिसाई पिशाची ।
पुञ्ज (मा० पै०)=पुण्य पिसाजी ,,
४५ पुकम्म (मा० पै०)=पुण्य कर्म ६६ पिसल्ल=पिशाच
पुञआह (मा० पै०)-पुण्य दिवस ६६ पिसुण ( धा०) ३२४ . पुट-पुष्ट
६८ पिह-जुदा जुदा-अलग ४८, ६७ पुट्ठ-पुछा हुआ
१८८ हड-थाली
४६, ५२ पुठ्ठय पूठा अथवा पीठ ३२७
पित्त
१३५
१३२
७३
WWWW
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
३२५
पुणो
,
( ४८ ) अर्थ पृष्ठांक शब्द अर्थ पृष्ठांक पुढवी-पृथ्वी
४८ पुरिशय (सं०)-पुरुष २५ पुढवीआउ=पृथ्वी और पानी ६३ पुरिस= , २५, ४३, १७५ पुण-फिर-पुनः
१७, १६ पुरिसो पुणरवि= ,,
१६ पुरिसोत्तिः-पुरुष इति पुणा= "
१७, १६ पुरेकम्म-पहिले होने वाला कार्य पुणाइ- ,
। ३६ पुलअ (धा.) । १८६ पुलआअ (धा०)
३२५ पुण्ण (धा०)
१६६ पुलिश (मा०)=पुरुष पुण्ण पुण्य ६६, २६६ पुलिष (सं०) ,
१३० पुण्णकम्म-पुण्य कर्म ६६ पुलोअ (धा०)
३२५ पुण्णपावाइं=पुण्य और पाप १०२ पुत्र-पूर्व
८४, १६६ पुण्णाहपुण्य दिवस
६६ पुव्वण्ह-दिवस का पूर्व भाग ७०, २२६ पुत्कस (सं०) मनुष्य की पिछड़ी हुई पुश्चदि (कि० मा०) वह पूछता है ६५ जाति १३५ पुहईपृथ्वी
२८ पुथुवी पृथ्वी
पुहवी%3D ,
४८, ३१७ पुप्फ-पुष्प-फूल ७१, २११ पुहवीस-पृथ्वी का स्वामी १४ पुरतो आगे
पुहवीसि=पृथ्वी का ऋषि पुरदो (शौ०)
६२ पुहुवी-पृथ्वी अथवा विस्तार युक्त ७४ पुख-पूर्व दिशा ८४. पूअ (धा०)
२४४ पुरा
३१५ पूगफल-सुपारी पुराअण २२८ पूज् (धा०)
२४४ पुराण
२२८
पूतर पानी में रहनेवाला 'पूरा' पुराकम्म=पहिले होनेवाला कार्य २१ नाम का सूक्ष्म जंतु ८३ पुरिम-पूर्व में हुआ-पूर्व का ८४ पूर् (धा०) पुरिम ,
१६६ पेआ=पीने योग्य पुरिय् (धा०)
१४० पेऊस पीयूष-ताजा दूध .. २४
७४
६२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
(
४६
)
२२६
१२७
शब्द अर्थ पृष्ठाङ्क शब्द अर्थ पृष्ठाङ्क पगब्भ (धा०)
२७० पेच्छ (धा०)
३२६
फंद् (धा०) स्पंदन करनापेजा-पीने योग्य
५१
हिलना पेटक (सं०)-समूह
फंदए (क्रि०) वह हिलता है ७१ पेडा=पेटी-संदूक
१२८ फंदण स्पंदन-हिलना ७१, २७० पेम्म=प्रेम-स्नेह
८१ फकवती (चू० पै०)-भगवती ३८ पेया पीने योग्य
फणस पनस-कटहल या कटहल . पेयूष-ताजा दूध २४,
का पेड़ पेरन्त-पर्यंत-वहाँ तक
फद्धए (क्रि०) वह स्पर्धा करता है ७१ पोअ
२६३
फद्धा स्पर्धा पोक्खर-कमल अथवा पानी ६३,१८७
फनसपनस-कटहल
फरुस कठोर पोक्खरिणी बनाया हुआ
फलं छोटा तालाब पोठिय
फल
१२६, १८१ पोप्फल=पूंगीफल-सुपारी
फलिह स्फटिक रत्न ४४, ४५ पोम्म पद्म-कमल
फलिह-लोहे की कील लगी १६, ८७
हुई लाठी ५२ पोर=पानी में रहनेवाला 'पूरा'
फलिहा-खुदी हुई खाई नामक छोटा जन्तु ८३
फल (धा०) पोस-पूस का महीना ४३
फाडेइ (क्रि०)=पाटता है-फाड़ता है . प्रत्त (सं०) दिया हुआ ५५, १३३
४५, ४६ प्रवङ्ग (सं०)=बंदर १३४
फाडे ऊण-पाट करके-फाड़ करके . ४६
फाड् (धा०) पाटना-फाड़ना ४६ प्रामर (सं.)-संस्कारहीन-बर्बर १३४
बबर १३४ फालेइ (धा०) पाटता है-फाड़ता है प्रिउ (अप०) प्रिय
६६
२८०
प्लव
|
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--------------------------------------------------------------------------
________________
- ( ५० )
६१
शब्द अर्थ पृष्ठाङ्क शब्द अर्थ पृष्ठाङ्क फास-स्पर्श
८२, १८६ बम्हण-ब्राह्मण ७२, ७३, ८०, २०७ फासे हियासए-फासे+अहियासए= बरिह मोर के पीछ-पंख-पाँख ७४
अच्छे-बुरे स्पर्शों को बलिश मछली को फंसाने का सहन करता है ६५
काँटा १२८ फुट्ट (धा०)
२७०
बहप्फइ-बृहस्पति-बीफे २७, २८,८०
बहस्सइ= , , ८०,८४ बंधव-भाई-स्वजन ३५, ३८, २००
बहि आ
१८६ बंधु%3D , ६८,२१४ बहिणीबहिन
८४, ३१७ बभचेर ब्रह्मचर्य-सदाचार ७२, ८०, बहिणीवह
२८. २१० बहिदा
૨૯૪ बंभणब्राह्मण ७३, २०० बहिया
१८६ बंभयारि ब्रह्मचारी
२५४ बझबाह्य-बाहर का १८३ बहुअट्ठियअधिक हड्डी युक्त ६३ बज्झइ(क्रि०) बांधा जाता है ६७ ।। बहुत्त-बहुत
५०, ८१ बज्झओ
१८६ बहुवी-बहुत-(नारी जाति में बढर=मूर्ख विद्यार्थी
५२
प्रयुक्त) ७४ बदर-बेर का फल वा वृक्ष
बहुव्वीहिबहुव्रीहि नाम का समास १०२ बत्तीसा
बहू अवगूड-बहू से आलिंगित ६३ बद्ध
२०१ बहूदगबहुत पानी वाला ६४ बप्फबाफ-गरमी अथवा भाफ ८१ बहूपमा बहू की उपमा ६४ बब्बर बर्बर-संस्कारहीन
बहूसास-बहू का उच्छ्वास बम्भण-ब्राह्मण
बहेडअ-बहेड़ा
२४, ४७ बम्ह ब्रह्म-परमात्मा ७२ बाणवइ
३८३ बम्हचरिअ-ब्रह्मचर्य ७३ बाताम (सं० )
१२६ बम्हचेर , ७२,८०, २११ बार द्वार ६०, १३०, २८१
WWWW
।
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
बारस
बारह = गणनात्मक - संख्या
विशेष
चावण्णा
बावत्तरि
बावीसा
बासहि
बासत्तरि
बासी
बाह=आंसू
बाहा
बाहि= बाहर
बाहिरं=
-बालअ=बालक
बालिश (सं० ) = मूर्ख
बालो वरज्झइ = बालक अपराध
करता है
अर्थ
""
बाहु
चाह (वा० )
बिइय=
बिईय
बिइअ = दूसरा चिइज्ज-बीजा- दूसरा
"
""
बिईया = दूसरी चिउण = द्विगुण - दुगुना बिंदु=बिंदु-बिंदी
( ५१ )
पृष्ठाङ्क
३८०
४८, ३८०
३५
१२८
૫
३८२
३८२
३८०
३८२
३८२
३८३
८१
३१४
८४
८४
२४१
१५६
२२, ६२
५१, २८२
२८२
५६
शब्द
अर्थ
पृष्ठाङ्क
बिन्दु = दी
६०
बिब्भल = विह्वल - व्याकुल ७२, ११५ विभीतक ( सं० ) = बहेड़ा का फल या वृक्ष बिलाल (सं० ) = बिलाव - बिल्ली १२८
४७
बिसहि
३८२
बिसिनी = कमल की लता
बिहत्तर
बिहफ इ = बृहस्पति-बीफे
२७, ७२
बीअ = बीज
२४७
बीअ=दूसरा
६३
बीलिअ
२२८
बीहू ( धा० )
१५८
बुंध = वृक्ष के नीचे का भाग- थड ८७
बुझा
६६८
बुद्ध
बुह
बुहप्पइ=बृहस्पति
बुहप्फइ= 39 बुहरुपदि ( मा० ) =
बू
१७५, २०१, २४३
१७५ ७१, ७२
२८, ६४, ७२
६४
५०.
३८२
"
आला
बेआलिसा
बेइल्ल बेल की लता - मोगरे की
१५०
३८१
३८१
१०३
लता
८१, ८३
२२, ५६ बेलगाँव = वेणुग्राम- जहाँ बाँस अधिक
२४०
होते हैं वह गाँव
४६
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६६ १८२
४७
( ५२ ) शब्द अर्थ ' पृष्ठाङ्क शब्द अर्थ पृष्ठाक बेसायाई ३८४ मप्प भस्म
७६ बेसहस्साई
३८४ भम् (धा०) बोक्कड
२६३ भमर भौंरा ४१, ५०, ५२, २०६ बोधि (वै० =तू जान १२२ भाम् (धा०) बोर=बेर का फल वा वृक्ष
भय बोल्ल
१४६ भएय (क्रि०) वह आह्वान बोहि-तू जान
१२२
करता है बोह (धा०)
भयस्सई-बृहस्पति भरय-भरत राजा
भरह= ॥ भइणी बहिन-भगिनी
भवर (अप०)=भौंरा भुंज् (धा०)
भविअ भव्य भक्ख् (धा०)
१८३
भव्व भव्य भगवईभगवती ३५, ३८ भव्वं
३७१ भगवती ,
३५, ३८ भसल (प्रा० तथा सं०)=भौंरा ५०, ५२ भग्नी (सं० =बहिन
१३२
भस्टिणी (मा०) भट्टिनी भज्जा=भार्या-स्त्री ६६, ७४, ३७१
भस्स-भस्म
७६ भज्ज (धा०)
भा (धा०)
२६० भट्टारिया भट्टारिका
भाउ=भाई भैया भट्टिणी ,
भागिनी स्त्री भड-सुभट-योद्धा ३६, १८६
भाण-भाजन-भाँडा ५५, १८२ भणिअ कहा हुआ-पढ़ा हुआ १७
भाण=आह्वान
૭૨ भाणु
२४० भण् (धा०)
१८६, २२६ भामिणी-स्त्री भद्द भद्र-अच्छा
६१ भायण=भाजन, बरतन ५५, १८२ भन्द्र (सं०)= "
१३३ भार
२७०
७०
२८
भणिता%3
"
१७५
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
भारय
भारवह
भारहर
भारहवास
भारिआ = भार्या -स्त्री
भारिया=
अर्थ
"1
भिंग
भिंद्
भिक्ख
भिक्खु
भिच्चो
भाल
भास (घा० )
भिउडि= भृकुटि - आँख के ऊपर
का भाग
मिसक्क (पालि)
भिसिणी = कमल की वेल-नाल |भीरु = डरपोक
भुक्खा खाया हुआ भुक्त= भुक्त भोगा हुआ
( ५३ )
ପୃଥ୍ବୀ ଜ୍ଞ
२६२
१७५
२०६
२२७
७४
३५७
२४१, २५३
३७१
भिण्डिवाल = एक प्रकार का शस्त्र ७८
भिष्फ= भीष्म
७६
भिब्भल= विह्वल-व्याकुल ५३, ७२ भिसअ=वैद्य
३६
३६
भु= भ्रू- आँख के ऊपर के कपाल का भाग, भौंह
७४
२८१
२१३
२५
३२६
१६६
५०
५२
२६
३१३
५६, ३२८
शब्द
भूअ
भूमि
भूमिवइ
भूवइ
भेड = भेड
भेर=
भोइ
भोगि
"3
भोच्चा=भोग करके अथवा
भोजन करके
भोत्तव्वं
भोयण
अर्थं
म
मअ
मइ
मइल = मलिन - मैला
मईय
मउड=मुकुट
मउण= मौन - चूप रहना
मउत्तण= मार्दव= कोमलता
""
पृष्ठाङ्क
२००
३१५
२४०
२४०
५२
५२
२४०
२४०
६४, ३६८
३७१
२०१
मंगल
मंजार = बिलाव = बिल्ली
मंटल (चू० पै० ) = मंडल - समूह
मंडल =
मंडुक्क= मेंढक
२२६, २४२
३१५
८४
३५६
२४
३१
२७
१८२
८७, २२६
३८
३८
८१
Page #467
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५४ )
३१४
शब्द अर्थ पृष्ठाङ्क शब्द अर्थ । पृष्ठाङ्क मंति
२६७ मज्झण्ण-मध्याह्न-दुपहर ७८ मंतिअ-मंत्रणा किया हुआ ३४ ।। मज्झण्ह- "
७८ मंतिद (शौ०)= , ३४ __ मज्झिम-मध्यम-बीच का १८ मंतु अपराध ७६, २५४ मज्झे
२५८ मंस-मांस १७, ११६, १८२ मञ्जर बिलाव-बिल्ली
८४ मंसल-पुष्ट
६७ मट्टि आ मिट्टी मंसु-दाढ़ी-मूछ
८७ मट्टिया , मकुल-कलिका २४ मह
२५७ मक्खरीदंडी-एक प्रकार का मड-मरा हुआ ४७, २१३ संन्यासी ६४ मडअ%D ,
४७ मक्खिआ माखी-मक्खी ६२, ३१४ मड्डिअमर्दन किया हुआ ७८ मच्चा
३६८ मढ=मठ-संन्यासी का निवास ३६,१८६ मच्चु
२४० मणंसिणी बुद्धिमती मच्चुमुह
२६६ मणसिला-एक प्रकार का धातु ८७ मच्छ (सं०)= मच्छी
मणंसि
३५७ मच्छर-मत्सर मात्सर्य ६५ मणंसि-बुद्धिमान् मच्छिआ-माखी-माँछी-मक्खी ३१४ । मणयं मच्छेरं-मात्सर्य
मणसिला एक प्रकार का धातुमग्ग १७५, २६८
मनसिल ८७ मग्गतो-पीछ ६२ मणहर=मनोहर
३१ मग्गु ३२६
२५८ मज्ज-मद्य
मणासिला एक प्रकार का धातुमज्जाया मर्यादा
मनसिल मज्जार=बिलाव-बिल्ली ८४, ८७ मणिआर
२५६ मज्ज -( धा०) १५४ मणूस-मनुष्य
१२०
८७
२१८
मणा
Page #468
--------------------------------------------------------------------------
________________
(
५५ )
पृष्ठाङ्क
२६६
२८०
२५६
शब्द अर्थ पृष्ठाङ्क शब्द अर्थ मणोज्ज-सुन्दर ६१ मर् (धा०)
३२५ मगोण्ण= ,
मरगय-मरकत नामक रत्न मणोसिला-एक प्रकार का धातु ८७ मरण मणोहर=मनोहर-सुन्दर ३१ मरहठ्ठ=महाराष्ट्र देश १६,८८, १२१, मतन (चू० तथा चू० पै०)-मदन
२८० कामदेव ३५ मरहट्ठीय मत्ता
मरिस् ( धा०)
१४० मत्थय-मस्तक-माथा-सिर १८० मल (धा०)
३२५ मत्स ( सं० )-मछली-मच्छी १३२ मलिण=मलिन-मैला मथुर (चू० पै०)=मधुर
मलीर मथ (धा०)
मसाण
५७, ८४, ३२७ मधुर-मधुर
३८ मसान (पाली) मधुरा ( सं०)
१२६ मसी (सं०) मनोरथ ( सं० )-मन का अर्थ- मस्कली दंड रखने वाला
मन का विचार १३३ मस्सु = दाढी-मू छ मन्तु अपराध
७६ मस्तु (पाली), मन्नु %3D , ७६ मह ( स० ) तेज
१२७ मन्न् (धा०) २५८ महग्ध
२२७ मम्मण=ममणना-गुनगुनाना ७२ महड्डिय मयंक-चन्द्र
२७, २२६ महन्त = मोटा-बड़ा मयगल-मदभर हाथी
महन्द (शौ०), मय-मरा हुआ ४७, २१३ महप्पसाय
२४२ मयण-मदन-कामदेव ३२, ३५ महरूमय २००, २११, २६६ मयरकेउ
महातवस्सि
२६७ मयूर=मोर
महादोस
२१० मय्य ( मा० )=मद्य
महाभय
२११
is m
ur
२२७
६६
६८
२७७
Page #469
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५६ )
२४२
४०
२४२
२४१
६७
माहण
शब्द अर्थ पृष्ठाङ्क शब्द अर्थ पृष्ठाङ्क महाविजालय
२२७ मांस-मांस
६७, ११६ महावीर
१७५ मायरा महासड्ढि २६७ मायामह
३५७ महासव
मार
२४२, २६८ महिड्डिय
૨૨૭ माराभिसंकि महिमा महिमा-गौरव
मालिअ
२५६ महिवाल राजा
मास महु
मासल=पुष्ट-मोटा
२०० महुअ-महुआ का पेड़ अथवा महुआ
माहुलिंग-बीजौरा का फल वा गाछ ४७ महुर-मधुर ३८ मिइंग
३२६ महूअ-महुअ का पेड़ अथवा
मिउ
२६ मिउवी कोमल-मृदु-मृद्वी महेसि ૨૫૪ मिच्चु-मृत्यु-मीच
२४० २२६ मिच्छा असत्य-मिथ्या नाअरा ३१४ मित्त
१८८ माआ
३१४ मित्तत्तण माइ
३१५ मित्ती माइसिआ मौसी-माता की बहिन २७ मिदुवी कोमल-मृद्वी ___७४ माउ
३१६ मियंक-चन्द्रमा मा उक्क मृदुत्व-मार्दव २७, ७५ मिरा-मर्यादा माउच्छा=मौसी ८४, ३१४ मिरिअ मिर्चा माउत्तण मृदुत्व-मार्दव ७५ मिला (धा०) माउलिंग-बीजौरा का फल वा गाछ ४७ मिलाइ (क्रि०)=मुरझाता हैमाउसिआ मौसी २७, ८४, ३१४
कुम्हलाता है ७३
७४
महुआ
मा
P
१६७
Page #470
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५७ )
अर्थ
मुंच
१२६
८१
मूढ
१८ २२६
शब्द अर्थ पृष्ठाङ्क शब्द
पृष्ठाङ्क मिलाण-कुम्हलाया हुआ
मुसं
२१२ मुरझाया हुआ ७३ मुसल-मूसल
२५ २२५ मुसा असत्य
२८, २१२ मिहिलानयर
२५७ मुसान (पालि)-श्मशान मुइंग
३२६ मुह-मुख-वदन। ३७, १८१
१६६ मुहलवाचाल-बकनेवाला ५२ मुंढ-मूर्धा-मस्तक-सिर
मुहल-मुसल
૫ ૨ मुंढा= " ७८ मुहुत्त
६७, २१० मुकुतिक (सं०)=मौक्तिक-मोती १३५ मुहेर ( सं० )-मूर्ख मुक्तक-मुक्त-मुका हुआ-घुटा हुआ ७५ मूत्र-गूंगा।
८१, २८० मुक्क-मूक-मूंगा-गूंगा मुक्त-मूर्ख
८७ मूस मुग्गर-मोगरे का फूल ५७ मूसय
२२६ मुगा=मूंग नाम का धान्य ५७ मूसा असत्य-मृषा २८, २१२ मुठि-मूठी
६८ मेख ( चू० पै०) मेघ मुणि
२६६ मेघ (पै० )-मेघ ३८, ३०२ मुणियर ( मुणि+इयर )-मुनि मेघ-मेघ
से जुदा मनुष्य ६४ मेटि-आधाररूप मुण (धा०) जानना-मानना ३२४ मेत्त मात्र केवल मुत्त-मुक्त-घुटा हुआ ५६, ७५, ३२८ मेथि आधाररूप मुत्ताहल-मोती .
४१ मेरा-मर्यादा मुत्ति-मूर्ति-प्रतिबिंब ६७ मेलव् (धा०)
३२४ मुद्धा-माथा ७८,८७ मेह-मेघ
३७, ३८, १७५ मुध्धमुग्ध-मोह युक्त ५७, ३२८ मेहा
३१३ मुरुक्ख-मूर्ख ८७ मेहावि
२५६ मुषल (सं०)-मुसल १३५ मोक्ख
१८६
Page #471
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
मोचिअ
मोत्तव्वं
मोत्तिय
अर्थ
मोर (सं० ) = मोर - मयूर
मोर
मोसा = असत्य मोह=किरण
मोह मोह - मूढता मोहनदास
( ५८ )
पृष्ठाङ्क
२५५
३७१
२६३
१३४
२२७
२८, २१२
८३
१८६
२२६
य
यक ( मा० )=यक्ष यणवद ( मा० ) - देश
यधा ( मा० ) यमनी ( सं० ) = यवनी स्त्री
४२
याण ( मा० )=यान - वाहन यादि (शौ० क्रि० ) = वह जानता है ३४
४२
यादि ( मा० ) = वह जाता है योत्र (सं० ) = बैल को गाड़ी या हल में जोड़ाने के लिए जुए में पड़ी रहसी आदि का बंधनजोता - (गु० ) जोतर
६३
३४
४२, ६६
१३०
१३१
रइ=प्रेम
२, ३१५
रंभा= रंभा - एक अप्सरा का नाम ३८
शब्द
रक्ख् ( धा० )
रक्खस= राक्षस
रंग्ग= रंगा हुआ
रच्छा
रज्ज
रहधम्म
रण्ण= अरण्य
रण्णवास
रतन = रत्न
रत्त-रंगा हुआ
रत्ति=रात्रि
रफस ( चू० पै० )=वेग
रभस=
रय
रयण= रत्न
रयणी
रयणीअर
अर्थ
रयय
रस
रसायल
रसाल
रसालु
३८
३८
रम् (धा० )
२०२
रम्फा ( चू० पै० ) = रंभा - अप्सरा ३८
रम्भा=
>>
पृष्ठाङ्क
१८३, २४४
८३
"
७५
३१५
२११
२२६
१६
२४२
८६
७५, २८४
५६, ३१५
३८
२११
८६
३१६
६४
१८७, २५७
२०६
३३, १८७
२६४
२६४
Page #472
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५६
)
w gw ug i
रुक्ख
१
शब्द अर्थ पृष्ठाङ्क शब्द अर्थ पृष्ठाङ्क रस्ना ( सं० )-रसना-जीभ १३२ रुइरुचि रस्सि
५८, २८०, ३२६ रुकुम ( पालि )-चाँदी रस्सी रस्मि-किरण
६१ रुक्म ( पालि ) ,, रहस-वेग
८४, २८० राई
३१६ रुच्मी विशेष नाम राउल-राजकुल
रुण्ण रुदन
४८, ८३ राग
१८३ रुद्द रौद्र-रुद्र-भयानक राचा ( चू० पै ) राजा ३५ रुव(धा० )
१६७ राजपध ( शौ० ) राजमार्ग
रुप्प-चाँदी
७१, १८७, २५७
७१. राजपह= ३७ रूप्पणी रुक्मिणी
७१ राजातन (सं० ) राजादन, खिन्नी रुपी विशेष नाम या खिरनी का पेड़
२४२, २६६ अथवा फल १२६ रूस् (धा०)
१५६ रायउल-राजकुल ५५ रूम् ( धा) .
१५६ रायगिह २२७ रेखा
३२८ रायघर-राजगृह नगर
८३ रेभ-(प्रा०, अप०) रेफ ४१ रायण्ण
३५७ रेह-रेफ रायरिसि २.४ रेहा
३२८ राया राजा
३५ रोचि( सं० ) किरण रिउ शत्रु
३३ रोत्तव्वं रिक्ख-नक्षत्र
६२
६४, २२६ रिज (सं०)
१२७ लंगूल-पूंछ रिद्धि
११८, ३१६ लघण-लंघन रिसि
२४० लंछण लांछन-निशान, कलंक १८ १२ लंच लम्बा
१२७.
रिच्छ-"
گر
m
m
U
रीय
१८३
Page #473
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८
( ६० ) शब्द अर्थ पृष्ठाङ्क शब्द अर्थ पृष्ठाङ्क ल-कश=( मा० )-राक्षस ६३ लावू-लौकी
१२६ लक्ख २६६, ३८४ लाह
२०६ लक्खण लक्षण
६२, १८८ लाहल=विशेष प्रकार का म्लेच्छ ५३ लग्ग लगा हुआ
५८ लाहालाहा-लाभ और अलाभ १०२ लघुक
८८ लिंब-नीम का पेड़ लघुवी
७४, ११७ लिच्छइ=( क्रि० )-लाभ पाना लङ्गल
चाहता है लच्छणलक्षण
१८८ लिच्छा लाभ पाने की इच्छा ६५ लटिलाठी ५१, ६८ लिप्प ( धा० )
२७१ लण्हलघु-बहुत छोटा
लिवि=लिपि-अक्षर १२६ लम् = ( धा०) २८६ लिह=(धा०)
१५६ लवण-नमक-नोन-नून
लुक्क बीमार
५२, ७५ लविभबोला हुआ
लुग्गबीमार
७५ लव्=( धा०)
१४६ लुण् (धा०) लहु
लुअलालची-लंपट लहुअ छोटा ८८, २५८ लुट् (धा०)
१४६ लहुवी-छोटी
२६६ लहे ( क्रि० )=पाया जाय २६८ लूफिड ( सं० )=विशेष नाम १२७ लह (धा०)
लेहसालिम
२६८ लाऊ=लौकी १६, ३१७ लेहा
३२८ लाक्षा (सं०)
लोअ ३३, ६२, ११६, २१० लाखा ( पालि० )=लाख ६४ लोग
४४, २१० लाञ्छन= लांछन-चिह्न, कलंक १३३ लोडअलालची-लंपट लाभ
२०६ लोण नमक-नून-नोन ८३ लायण्ण लावण्य ३७, ११६, १८७ लोणीअ मक्खन लावण्ण%3D ,
१८७ लोम ( सं० ) रोम
१५६
।
__Jain.Education International
Page #474
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोह
३७०
२
( ६१ ) शब्द अर्थ पृष्ठाङ्क शब्द अर्थ पृष्ठाङ्क लोमपड २५७ वच्छ-वत्स
२२६, २८० १८३, २५६ वच्छयर
२८० लोहार
२५६ वच्छल-वत्सल लोहि
२८१ वज्ज
वज्ज-वज्र
वज्ज ( धा० ) २१३, २८६ ___२०, १८४ वज्जर (धा०)
३२४ वहर-वैर-शत्रुता
वञ्जर=बिलाव-मार्जार वहर-वज्र
वट्ट-मार्ग वइसंपायण विशेष नाम
वट्ट-वृत्त-गोलाकार वंक-वक्र-वांका-टेढा
वट्टाबात वंझा
३१३ वट्टि (पालि)-बत्ती-वाटवंदित्ता
बाती वंद् (धाe)
वट्टी वाट-दीप की वाट-बत्ती ६७ वंस
२६३ वटुल-गोलकार वक्क टेढा-वांका
वड्ड (घा०)
१६६ वक वाक्य
३७०
वड्डमान (पालि) =बढ़ता हुआ ७८ वक्कल=पेड़ की छाल से बना वस्त्र ५६
वढल-जड वक्ख (चू०पै०)-व्याघ्र
१८२ वक्वाण( धा०)
वणप्फइ
७२,८०, २५४ वग्ग वर्ग
પૂe
वणम्मि-वन में वग्गोल ( धा०)
३२५ वणस्सइ
२५४ वग्धव्याघ्र
३८८, १८२ वणिआ-स्त्री वच्च ३७० वण (धा०)
२५६ वच्च (धा०)
१६६ वहि वह्नि-आग वच्छ-वृक्ष
८४ वत्ता वार्ता-बात-कहानी ५६
१४०
वण
२५६
६७
Page #475
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ६२ )
२६८
अर्थ
पृष्ठाङ्क शब्द अर्थ पृष्ठाक वत्थ
२००, २५७ वलयाणलवडवानल-समुद्र में वत्थु
२४१
रहने वाला अग्नि ३२ वदण १८२ वलुण वरुण
પૂર वद्माण २०६, २१२ वल्ली वेल
१८ वनवक ( सं० ) याचक १३५ वव् ( धा०)
१८३ वनीयक (सं० ) ,
ववहार
२६८ वन्द् (धा०)
ववहारिअ वप्प ( सं० )बाप-पिता १३२ वश्चल (मा०) वत्सल-प्रेमी ६५ . वम्मय ३५७ वस् (धा०)
२६० वम्मह
५०, ७२, २२६ वसइ रहने का मकान वयंस मित्र
८७ वसह
२८, १८२, २४१ वयह ( पालि ) वृद्ध
७७ वसहि रहने का मकान । ४७ वयण ४०, १८२ वसु
२६८ वयण वचन ४० वस् (धा०)
१८६ वयस्स-मित्र
८७ वहू वय् (धा०) १८६ वह (धा०)
१५६ वरदंसि २६७ वा
२०, १५० वरिअ-उत्तम ७४ वाड
२४० वरिष ( सं० वर्ष
वाघायकर
२२७, ३०३ वरिषा (सं०) बरसात की मौसम १३३ वाणारसी ८८, १२१, १३५, ३१७ वरिस वर्ष ७३ वाणिअ
२८० वरिससय सौ वर्ष ७४ वाणिज्ज
२५६ वरिसा=बरसात की मौसम ७४ वाणिज्जार
२५ वरिस् (धा०) १४०, १८१ वायरण व्याकरण
५४ वर् (धा०)
२६६ वाया वलग्ग् ( धा०) ३२५ वायु
२४०
३१७
३१४
|
Page #476
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
वार= दरवाजा
चारण= व्याकरण
वाराणसी
वारि वात्रण = क्रियायुक्त
वावी
बाबू
वास-वर्ष
अर्थ
वासव्यास मुनि
वासस्य = सौ बरस वासा=बरसात की मौसम
वासेसि= व्यास ऋषि
वास ( 2 ) = दिन
चाह=शिकारी
वाहि
वि
विअड्ढ=पंडित
विअड्डि= हवन की वेदिका
विअणा=वेदना
विआर=विचार
विआल(मा०) =
विइज्ज
विउह= पंडित
विओग=वियोग
विंचुअ विछि
""
( ६३ )
ପୃଥe
६०, ८७
૫૪
८८, ३१७
२४१
४७
३१६
२६६
७४
८८
૪
७८
२६
४२
४२
२४३
३३
३३
७७, ८७, ३२६
६५, ७७, ८७, २२७
शब्द
वि= विध्य पर्वत
विट = पत्र और पुष्प का बंधन
विघ् ( घा० )
विकट (वै० सं० ) = विकार
अर्थ
पाया हुआ
विकस ( सं ) = विकसित
विकिर् ( धा० )
विकुव्वइ ( क्रि० )
विक्कव = बेचैन
७४
६६ विघडू ( धा० )
१३२
५८, ११४
२६७
१६३, १६५
७८
विक्के ( धा० )
विक्रस्र (सं० ) = विकसित
विच किल = बेला का फूल
विचर् ( धा० ) विचिन्त् (घा० )
विच्च ( अप० ) = बीच में
विच्छल् ( धा० )
विच्छिक (पालि )
विच्छाहगर ( अप० ) = विक्षोभ
विच्छोहयर =
विजण = पंखा
विजय सेण= विशेष नाम
पृष्ठाङ्क
६७
"9
करने वाला ३६
३६
३३
३३
विजाणइ ( क्रि० )
१६३
विजुंजइ ( क्रि० )
१६३
विजाहर = विद्यावर नाम की जाति ६६
२८
२७०
१२६
१३५
२८६
१६३
५६
२५६
१३५
२८३
८१, ८३
२४४
२४४
८५.
३२६
७७
Page #477
--------------------------------------------------------------------------
________________
विज्जु
२६८
२६८
२३
२२८
शब्द अर्थ पृष्ठाङ्क शब्द अर्थ
पृष्ठाक ३२, ३१६ विप्परियास विज्जुए बिजली से
विमल
५३, २६६ विज्जुणा, ६० विम्हय-विस्मय
६४, १२ विज्जुला
विय्याहल (मा० ) विद्याधर नाम विज्ञ् (धा०) १५४, २७१
की जाति ६६ विज्झाइ ( क्रि०) विशेष दाप्ति
विराअ ( धा०)
२४४ करता है ७६ विराग विज्झ ( धा०)
१५६ विराज् (धा०) विहि
३२७ विलया स्त्री विडवि
२५४ विलिअ-असत्य विड्डा-शरम-लज्जा
८१ विलिअ-लज्जित विणस्स् (धा०)
विविह
२१३
विसइ ( क्रि०) प्रवेश करता है ४३ विण्णव (धा०)
विसंठुल-अव्यवस्थित विण्णाण
६८, २२७ विसढ=सम नहीं-विषम विणि दो संख्या
विसण्ण खेद पाया हुआ
६३, २४० विसम-विषम वित्त
२५७ विसमइअ-विषमय-जहरिला विदस्थि ( पालि )-बीता-बारह विसमायव-विषम आतप
अंगुल का परिमाण ४७ विसीअ( धा०) विद्दाअ-विनष्ट
विसेस विशेष विद्धवृद्ध-बूढा ७८ विस् (धा०)
३२० विना
१८४ विस्नु ( मा० ) विष्णु विप्पजह (धा०)
२८६ विस्मय ( मा० )-विस्मय विपजहाय
३६८ विहड् ( धा०)
२६० १८४
विणा
३२५
७७
१४४
विण्हु
६४
२७
०००
rw U
२८३
Page #478
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
अर्थ
विहस्थि - बीता - बारह अंगुल
विहप्पइ = बृहस्पति विहर ( घा०
>
विहल = विफल
विहल= विहल
विहाण
विही-विधि
विहीण = विशेष हीन
विहु
विहूण = विशेष हीन
वीअदूसरा
वीयराग
वीयराय
वीरिअ=शक्ति वीरिय=
"3"
वीस = विश्व- समग्र
वीसर
वीसा = बीस - २० संख्या
का परिमाण ४७
७२
२२६, २७०
बुड्ढ वुडट = वृद्धि - बढ़ना
वुत्त=कहा हुआ
( ६५ )
पृष्ठाङ्क शब्द
वृत्तंत्त
वुन्द ( सं० ) = समूह
वुन्न ( अप० ) = विषाद पाया
हुआ
वृसी (सं० ) = ऋषि को बैठने
२२८
५३, ७२, ३६६
२६३
६१
२४
२६८
२४
वीसास = विश्वास
वीसुं = विष्वक्- सत्र ओर से
वीसोण= बीस कम
५१
२०१
२०१
७४
१८८
१६६
१६७, २५६
८३, ६७,
३८०
२०
६७
६६
२८,७८, ११८, ३२७
२८, ७८,
दद
का आसन
वे अस= वेतस - बेंत का वृक्ष
= पत्र और फूल का बंधन
वेण्ट }
वेज = वैद्य
वेटि
वेडिस = बेंत का वृक्ष
डुबर्य रन
અર્થ
वेर= वैंर
वेरुलिय= वैदुर्य रत्न
वेलु = बाँस
वेलुग्गाम= बाँसों का गाँव
वेल्लि=लता
वेल्ली =
39
पृष्ठाङ्क
३२७
११८
૪
वेट ( घा० )
१५८
वेणी (सं० ) = प्रवाह
१३३
१४४
वेण्ण= दो -२ संख्या वेणुग्गाम= बेलगाँव - बाँसों का गाँव ४६
वेतस = बेंत का वृक्ष
वेत्त = बेंत
वेय
८५
१३१
४७
२८, ७८
६६
३०७
४७
४७
२५७
१८६
३०, १८२
८४
४६
४६
१८
१८
Page #479
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
अर्थ
वैवाहिअ = समधी - वर-कन्या के -पिता
माता
वेवू ( धा० )
वेश्या (सं० ) वेसंपायण = नाम विशेष
वेसाह= वैशाख मास
वोट = पत्र और फूल का बंधन
२६८
१४६
१३१
३०
२४२
२८
२६२
३७१
त्रास ( अप० ) = व्यास मुनि ८८, ११६
श
वोज्झ
वोत्तव्वं
शव (सं० )
शव्ञ ( मा० ) = सर्वज्ञ शप ( मा० ) = कुमुद शालश ( मा० ) = सारस पक्षी शाली (सं० ) = पत्नी की बहन शीताल (सं० ) = शीतता युक्त शुद ( मा० ) = सुना शुक्र ( मा० ) = शुष्क
हुआ
( ६६ )
पृष्ठाङ्क
शुद्ध ( मा० ) = अच्छा
सूरि (सं० ) = पंडित शोचि (सं० ) = प्रकाश शोभण ( मा० ) = शोभन श्याल ( सं० ) =साला =त्नी का
भाई
१२.७
६६
६३
४३
१३१
१३०
४३
६३
६८
१३१
१२७
४३
१३१
शब्द
अर्थ
पृष्ठाङ्क
श्रवण ( सं० ) = श्रमण
१२६
श्लेष्मल ( सं० )=श्लेष्म युक्त १२६
स
स
सइ
सई-इंद्राणी
सउणि
सं
संकल= सिकड़ी नाम का आभूषण ४५
संकला = सांकल
४५
संकु
संख
संग
संगच्छति ( क्रि०)
संघार = संहार = विनाश
संघ (धा० )
संचिणइ ( क्रि०)
संजम् (धा० )
संजय
संजल ( घा० )
संजा = संज्ञा - समझना
संज्झा=संध्या
२६८
६२, ६७, ६८, २२६
२०६.
१६२
४३
३२४
१६२
२७०
१८८
२६०, २१४
६१
८२
८२, ६७, ६८, ३१३
३८
४३
संझा
संठ (चू० पै०)=सांढ
संड=
१६६
१८४, २५८
३३, ११६
२४०
१६२
""
Page #480
--------------------------------------------------------------------------
________________
संति
संदिस
६७
३८२
शब्द अर्थ पृष्ठाङ्क शब्द अर्थ पृष्ठाङ्क सढ साँढ़ ३८, १८ सगयाला
३८१ संणा-सान-समझना ६१.६२ सगरपुत्तवचन-सगर के पुत्र का
वचन संद-दंश लगा हुआ-डसा हुआ- सग्ध
२२८ काटा हुआ ६८ सची (सं०)
१३१ २६६ सचेलय
२५१ संपआ ३१५ सच्च
६४, २११ संपज्ज=संप्रज्ञ-विशेष ज्ञानी
सज्ज
५७, ३२६ संपज्ज (धा०)
१५४
सज्झ-साधने योग्य संपण्ण=संप्रज्ञ-विशेष ज्ञानी
सज्झाय= स्वाध्याय संख्या
३१५ सट्टि संपाउण (धा०)
२८३ सड्ढा श्रद्धा-विश्वास संबुझ (धा०) २५६ सढ
१८६, २६८ संभु
२६८ सढा जटा अथवा केसर-सिंह
२४३ आदि के गर्दन की बाल ४५ संमुह सामने
६८ सढिल=शिथिल-ढीला संबच्छर वर्ष
६६ सणिच्छर-शनैश्चर संवड्ढ (धा.) २६६ । सणिद्ध-स्नेह युक्त
८६ संसार
२०० सह स्नेह संसारहेउ २४१ सण्णा
६१, ३१३ संहर् (धा०)
२५६ रह ५६, ७०,८७, २२८ संहार-संहार-विनाश
सततं
२१२ सक्क-सक्त
___ ७५ सति सक्कार-संस्कार
६७ सत्त-शक्ति वाला ५६, ३२८ सक्खं
६७, २५८ सत्त-सात-७ संख्या ३७६ सङ्ख-शंख ६७ सत्तचत्तालिसा
३८१
संभू
३१५
W
W
20
Page #481
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
सत्तणवइ
सत्ततीसा
सत्तपण्णासा
सत्तम
सत्तमी
सत्तर-सत्तर-७० संख्या
सत्तरस
सत्तरह
सत्तारे
सत्तसहि
सत्तसत्तरि
अर्थ
सद्द
सद्दह (घा० )
सद्धा
सद्धि
सप्प
सत्ताण वह
सत्तावन्ना
सत्तावीसा
सत्ताठीह
सत्ति
सत्थ
सत्थवाह = संघ का नायक सत्थि = स्वस्ति- शुभ आशीर्वाद
सत्थि
सथिल्ल
( ६८ )
पृष्ठाङ्क
३८८३
३८१
३८२
२८२
१०३
४७
३८०
३८०
३८२
३८२
३८३
३८३
३८२
३८१
३८१
३१५
२११
७१
७०
२८१
२८१
४३, ५८, १८६
२६८
७८, ३१३
१८८४
२२६
शब्द
सप्फ= कुमुद
सबघ ( अप० ) = शपथ
समरी=मछली
अर्थ
सभल= सफल
सभलअ ( अप० ) = सफल
समवाय = समूह
समायर् (धा०)
समार् (घा० )
समारंभ
सम
समण
समणी
समत्त = समस्त - समग्र
समत्तदंसि = शबर - किरात-भील
अनार्य जति का मनुष्य
समिज्झाइ ( क्रि० ) = अच्छी तरह
से दीप्तिमान है
समिद्धि
समुद्द= समुद्र - दरिया
समुद्र =
99
समुह सामने
सय
सयद
सयंभु
सययं
पृष्ठाङ्क
६३, ७१
४१.
४१
४१.
४१.
१६६, २०१
१८६
३१६
७००
५३
३३
२१३.
३२५:
२८३
७६:
१७, ३२८:
६१, १७५.
१७५
६८
३८४
४५, १८८:
२४१
२१२, २५८
Page #482
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
अर्थ
सयरपुत्तवयण= सगर-पुत्र का वचन
सयल
सया
सय्ह = सहन करने योग्य
सर
सरअ = शरद ऋतु
सरओ=
सरण
सरस
सरहि
सरिआ
""
सरिया
सरिसं इणं - यह सरिखा है
सर् (वा० )
सर्करा (सं० )
सर्वरी (सं० )
सलाया
सलाहा = श्लाघा=प्रसंशा
( ६६ )
सल
सवध ( अप० ) = शपथ-सौगंध
सवल = चित्रविचित्र
सवह = शपथ - सौगंध
सवाय
सव ( घा० )
सव्व
पृष्ठाङ्क
३३
२१३
२४३
६७
५८, ३२७
३६
Ε
२११
२२८
२६७
३१४
३१४
८७
२७०
१३०
१३१
३१४
८६
२६३
४१
४१
४१
२८२
१४६
६०, १६६
शब्द
सव्वओ
सव्वज्ज= सर्वज्ञ
सव्त्रञ्ञ ( पै० )=सर्वज्ञ
सव्वण्णु
सव्वतो - सब तरफ से अथवा सब
रीति से
सव्वदो ( शौ० ) =
सव्वत्थ
सव्वया
सव्वसंग
सव्वहा
अर्थ
सह् ( घा०
साउ
·)
साक
साड
साडवि
साडी
सा
ससा
सह
सहरी = मछली
सहल
सहस्स
सहा=सभा
सहिअ = सहृदय - पंडित
सहिअय "
पृष्ठाङ्क
६२
६१
६६
६१, ६६, २५३
39
६२
६२
२५८
३५७
२४२
३५७
३१४
१८४
४१
४१, २२८
३८४
३७
२०२
२५५
१३०
२५५
२५६
३१७
૫૪
Page #483
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ
सिंघ
८६
( ७० ) शब्द अर्थ
पृष्ठाङ्क शब्द सात
२११ साहुणी सादूदग-मधुर जल
६५ साहुवी साम
११४ सिआ ( क्रि०)-हो-होवे २६८. सामअ साँवा नाम का धान्य १६ सिआ-किसी रीति से-किसी। सामच्छ-सामर्थ्य-शक्ति ६५ अपेक्षा से सामत्थ%, ५ह सिआल
२७, १८२ सामला-श्यामा-षोडशी युवति १७ सिआवाअ-स्याद्वाद-सापेक्षवाद ८६ सामा= , ५८, ३२८ सिंग
१८१ सामिद्धि-समृद्धि-संपत्ति
सिंगार
३२६ साय २११
४३, ६८, १८२ सारंगधनुष
सिंच ( धा०)
१६६ सारस सारस पक्षी
सिंधव-सैंधव नमक अथवा सारासार=सार और असार १०२
सिंध देश का घोड़ा सालवाहन शालिवाहन नाम का
सिगाल
१८२ सिज्ज (धा०)
१५४ सालवि
२५६
सिज्म ( धा०) सालाहण=शालिवाहन नाम का
सिट्ठि-सेठ राजा ४७, ६३ | सिढिल ढीला
२२, ४८ सालाहणी शालिवाहन की रचित
सिणिग्ध-स्नेह युक्त कविता
४७ सिण्ह छोटा अथवा कोमल ६६ साव-शाप-आक्रोश ४०, २०६ सित्थ-धान्य का कण ५६, ३२७ सावग-श्रावक-सरावगी
१७५ २६३ सिद्धि सासुरय
२६३ सिनात (पै०)-शरीर से वा मन साहट्ट ( सं० भू० कृ० ) ३६८ से स्नान किया हुआ ७०
३७, २४० सिनान (पालि ) स्नान
mm
४७
१५६
सिद्ध
सावज्ज
साहु
Page #484
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ
शब्द
सिनुसा ( पै० )=पुत्रवधू
सिनेरु ( पालि ) = स्नायु
सिन्न= लश्कर
सिप्पि
सिभा = वृक्ष का जटामय मूल
सिम
सिमिण
सिम्भ= श्लेष्म सिया ( क्रि० )
सिरान्नस
सिलेसुमा (पालि )
सिलोग=श्लोक सिविण
सिव्व (घा० )
सिसु
सिस्स
सिह
सिरी=श्री- लक्ष्मी
सिलाहू (वा० )
सिलिट्ठ = श्लिष्ट - चिपका हुआ
सिलिम्ह= श्लेष्म
सिलिम्हा=
"
सिलेस - श्लेष - चिपकना
( ७१ )
७०
५१
३०
८४, ३१५
४१
पृष्ठाङ्क
२००
५३, ८६, २६८
७३
२६८
५.४
८६
१५६
७३
७६
सिहरोवरि=शिखर के ऊपर
सिहा = वृक्ष का जटामय मूल
सीअ
७६
७३
५३, २६८
१४६, २५८
२४०
२००
३२५
६६
अर्थ
शब्द
|सीअर = जल के कण
सीआण = श्मशान
सीआल
सीभर = जल के कण
सीळ (पै०)= सदाचार
सील
४१
२००, २०१
७३. सुइ
७३
सीलभूअ
सीस
सीह
सीहर= जल के कण
सु
सुअ = शास्त्र अथवा सुना हुआ सुअगड=श्रुतकृत-सुनकर किया
हुआ
सुइल=सफेद
सुंक = चुंगी -
४४
८४
१८२, १५६
४४
४२
१८७
२६६
१८७, २००
२२, ४३, ६८, १८२
४४
१६४
૪૨
-राज कर
"
सुंग= | सुंदरिअ=सुन्दरता
सुंदर=
"
सुकड = अच्छा कार्य
सुकय= सुकिल=सफेद
सुकुमार = कोमल
सुक्क
सुक्ख= सूखा हुआ
""
पृष्ठाङ्क
४७
२५५
७३
७६
७६
७४
८०
४७
४७
७३
८३.
५७, ६३
५७, ६२
Page #485
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७२ )
८४.
७४
७६
- G Mm
सुमिण
शब्द . अर्थ पृष्ठाङ्क शब्द अर्थ
पृष्ठाङ्क सुक्ख-सुख
१८८ सुत्ति-सीप सुखुम
२२८ सुदंसण-सुदर्शन सुगत-बुद्ध भगवान्
३३ सुद रसण= , सुगन्धि
२५५ सुद्धोअणि बुद्ध भगवान् सुङ्ग-चुंगी-राजा का कर
सुनुषा (पै०)पुत्रवधू सुजह
२०१
सुनुसा= " सुज्ज-सूरज
सुन्देर-सुन्दरता सुभ (सं०) शुभ
१३१ सुज्झ ( धा०) १५७
१६४ सुटिअ-सुस्थित
सुभासए ७१
१२२ सुट्छु
सुमरि (क्रि०) याद कर
६८, २२८ सुणिसा ( पालि ) = पुत्रवधू
१५६ सुमर (घा.)
७० सुण (धा० )
५३, ८६, २६८ १५४ सुण्ह बहुत छोटा
सुम्ह=एक देश का नाम
सुय्य (शौ०) सूरज सुण्हा ५४, ७०, ८७, ३१३
सुर
६८, २८१ सुण्हा=गाय का गलकंबल २०
२८१ सुतगड-सूत्रकृतांग नाम का
सुरुग्ध-एक गाँव का नाम अथवा .. जैन अंग आगम
देश का नाम ८७ सुतार=सुगम रीति से उतरने
सुव-अपना अथवा अपन ८७, १६६ योग्य-घाट
सुवइ (क्रि०) सोता है १६ सुत्त-सूत्र-छोटा सा वचन २११
२५७ सुत्त (सं०) अच्छी रीति से
सुवण्णिअ-सोनी-सुनार-सोना दिया हुआ ५५, १३३, २१२
गढ़ने वाला सुत्त ५७, २१२, २४३, ३२८ सुविण
२६८ सुत्तहार
२५६ सुवे आने वाला कल-आने सुत्ता (सं० भू० कृ०) ३६८ वाला दिन
सुरही
४७
सुवण्ण
३२
Page #486
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७३ )
१४
शब्द अर्थ सुन्व-रस्सी सुमा-पुत्रवधू सुसाण-श्मशान सुस्तिद (मा०)सुस्थित सुस्स् (धा०) सुहअ%सुन्दर सुहम बहुत छोटा सुहमहअ-सुखी सुहुम बहुत छोटा
W X N or m ०७
is
०
as
०
is
m
पृष्ठाङ्क शब्द अर्थ
पृष्ठाङ्क सेय्या (पालि)=बिछौना ५४,८७ सेर-विकसित
५८ ८४ सेव (धा०)
२२६, २७१ ७१ सेव्वा सेवा १५६ सेसम्बाकी २५, ४५ सोंडीरबल ८६,८७ सोअ कान १६ सोअ (घा.)
१८६ ८७, २२८ सोअमल्ल सुकुमारता
२५५ सोगमल्ल, १६३, १६४ सोच् (धा०)
१८६ २१० सोच्चा (सं० भू० कृ०) ६४, ३६८ ३२५ सोळ हा (वै०) सहन करनेवाला ११६ ७४ सोत्त=कान
१८८ રૂછ્યું सोम (सं०)
१२७ १३० सोमव सोमरस को पीने वाला १६० १५६ सोमवा= , सोमाल-सुकुमार
८३ २५, ४५ सोमित्ति लक्ष्मण-राम का भाई २४१ सोरद्वीअ
२८१ १८ ६६ सोरहिअ
२५६ २१३, २४३ सोरिअ-शूरता-वीरता
७४ २४० सोलस
३८० सोलह
३८० सोवइ (क्रि०)-सोता है ७४ सोवणिय
२५६
०
१६०
०
सूअर सूड् (धा०) सूरिअ सूरज सूर् (धा०) सूर्प (सं०) सूस (धा०) सूसासे उच्छवास सहित सूहव सुंदर सुहवो, सेज्जा=बिछौना . सेह सेहि सेन=सेना सेफ-श्लेष्म सेम्ह (पालि)=श्लेष्म
३१
१६४
७६
Page #487
--------------------------------------------------------------------------
________________
ان
الف
و
لله
ह
w
G
हरिण
हस
( ७४ ) शब्द . अर्थ पृष्ठाङ्क शब्द
अर्थ
पृष्ठाङ्क सोवाग २४२
४२, १७५ सोहण शोभा देनेवाला ४३ . हर- जलाशय सोहा शोभा
हरक्खद-महादेव और कार्तिकेय ८२ सोह (धा०) १५६, २५८
हरखंदस्थूर (स०) स्थूल-मोटा
हरडई-हरड, हरे २३, ४७
हरिअंद ह
२०१ हारआल-हरताल हतव्व २०१ हरिएसबल
२२७ हंता (सं० भू० कृ०)
२६३ हश (मा०) हंस
४३ हरिष (सं०) ४२ हरिस
१८६ १३५ हरिस् (धा०) १३८, २८८ हतुट्टमलंकिय हर्षित, तुष्ट और
हरीटकी (पालि)=हरड, हरें अलंकृत ९८ हड-हरण किया हुआ-उठा लिया।
हल (मा०) महादेव हुआ
हलद्दा-हल्दी, हरदी, हर्दी हणिया (क्रि०)
२१८
हलिअ-हल चलाने वाला हणुमन्त=विशेष नाम-हनुमान २६ हलिआर हरताल हण् (धा०) १५६, २५८ हलिद्दा-हल्दी, हर्दी हत्थ ७०, १७५ हलिश् (मा० धा०)
२८८ हत्थपाया १०२ हलुअ
८८, २५८ २४० हव (धा०)
१८६ हत्थी हाथी ६४ हव्ववाह
१८३ हय-हरण किया हुआ-उठा लिया हस् (धा०) २२६, २६७
४७ हस्ती (मा०) हाथी
"
हजे
४७
हत्थि
हुआ
Page #488
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठाङ्क २१२ २४२ २४३
हुत
ام
हिअअ%D" हिअय% ,
و
( ७५ ) शब्द अर्थ पृष्ठाङ्क शब्द अर्थ हस्र (सं०)
१२८ हु हा (धा०)
१५० हुआ हालिअ हल चलाने वाला हिअ हृदय
५५ हुत्त आहूत-आकारित
बुलाया गया
२७ हुसा (पालि)=पुत्रवधू हिओ=बीता हुआ कल का दिन ८६ हूअ=आहूत-आकारितहिंस् (धा०)
२७१
बुलाया गया हितप (पै०) हृदय
२७ हूण-हीन हितपक (पै०),
२७ हे नीचे हिस्थ-त्रास पाया हुआ ८३ हेहिल्ल हियय
१८२ हेमन्त हिरी-लज्जा
हो (धा०) हिलाद-आनन्द
७३ होइइह इधर होता है हीण हीन
२४ होम होम हीर-महादेव
१८ हलीका (सं०) लज्जा
لم
»
سة
mm
३५६
३
२२६
x
१२७
१३४
|
Page #489
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #490
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशेष शब्दों की सूची
पृष्ठाङ्क शब्द
पृष्ठाङ्क १३७
अंक
= r Mu
१० अर्धमागधी
२८७.
२,६६, २०२, २२८
१०२ ६२
२१६
शब्द
अभिधान-संग्रह
अमरकोश अंग
२३८, २६२
अरबी अंग्रेजी अंतःस्थ
अर्धस्वर अकारान्त
१७८
अवसर अक्षर
३, ६२, ६३
अव्यय अजमेर
अव्ययीभाव अज्जतनी
असंयुक्त अद्यतनी
२१६ अघीष्ट
२८७ आगम अधीष्टि
२८७ आचार्य अनार्य
आज्ञा अनिवार्य
আয়াখ अनुज्ञा
२८७ आत्मनेपद अनुशासन
१३७ आपवादिक अनुस्वार
४३, ६७ आमंत्रण अपभ्रंश १, २, ३, १६, १७, ३३, आर्ष
३४, ३६, ४०, ४१, ४३, ४४, ६१, ७२, १३६,२५१, इच्छा
७३, ७४, ८६.
२६६
२८६.
२११, १३६, २४६
१७
२८७ १३६, २२३
२८७
अपवाद
३३, ३७, ६८, ८६
उड़िया
१३६
Page #491
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७८ ) पृष्ठाङ्क शब्द ३२० १०४ चूलिका-पैचाशी
शब्द उपधा उपपदसमास उपसर्ग उपान्त्य
पृष्ठाङ्क
१, ३३, ३४, ३५, ३८, ४२,
४३, ४४
&
ऋग्वेद
जिह्वामूलीय
ओष्ठ
a
कठ
तत्पुरुष तद्धित तामिल तालु
तुलसी
तेलगु
कच्चायण कर्म कम्मधारय कात्यायन कृदत कोष क्रमदीश्वर क्रियातिपत्ति क्रियापद
३४३, ३६०, ३६६
द
दंत
दाँत दिल्ली
للع
२६६, ३२३ ८, ६, १८२
दीर्घ
१, ११, १२, ३२०
___ ७, ८, ९, १०
गला गुजराती
देशी-शब्द-संग्रह देश्य देसी-सह-संगह द्राविड़ द्वंद्व
६, १३६
३२०
Page #492
--------------------------------------------------------------------------
________________
(
७६
)
द्वित्व द्विर्भाव
पृष्ठाङ्क शब्द
पृष्ठाङ्क ५६, ५७, ५८ प्राकृत १११, १२७, २४६ ८१, ८२ प्राचीन गुजराती
२५२ प्रार्थना
२८७ प्रेरक
३१६ __ ४५, २०२, २२६ प्रेष
२८७
धनंजयकोश धातु
१०२
१०५ बहुव्रीहि ६०, १७८, २२७
or
an
नञ्तत्पुरुष नपुंसकलिंग नरजाति नागरी नाम नामधातु नासिका निमंत्रण
भविष्यत् भामह
८, ६२, ३०३
o m Norm
m
भाव
३५४
भूतकाल
२१६
२८७
१३७
पतंजलि परस्मैपद
१३६, २४६, ३६०
परोक्ष
मखकोश
महर्षि १३६,
मागधी मार्कण्डेय
मेवाड़ १३७,
राजशेखर
रामायण ६०, १६८, २२५
रूपाख्यान १३६, ३५०, ३६०
२१६ १३६ लक्ष्मीधर १५६ लिंग
Mor ur m
पाणिनि पालि पुरोहित पुलिंग पैशाची प्रत्यय प्रवरसेन 'प्रश्न
m mr. omowo or or
१४१
Page #493
--------------------------------------------------------------------------
________________
(
८०
)
१३६.
लिंगविचार लोकभाषा लोप लौकिक
पृष्ठाङ्क शब्द
पृष्ठाङ्क ८९ शालिवाहन १०० शौरसेनी ८७, १३६, २४६, ३६० ६६
.
३७६
الس
वररुचि वर्तमानकाल वाक्पतिराज
१२
२८७ १२७, १३७, १३६
१००, १०२ १६३, १६८
वाक्य
संख्यावाचक १३६ संधि
संप्रश्न १३६ संस्कृत २२६ समास १३८ सर्वनाम
सार
सिंहराज २६६, ३२३, ३६६ स्त्रीलिङ्ग १८३, ३०१, २२७ स्वर
s
१५६
m
वाक्यरचना वाल्मीकि विधि विध्यर्थ विशेषण वैजयंतीकोश वैदिक व्यंजन
ur ov 6
२३०
ho
२११
व्यत्यय
१११, ३६०
हियतनी
हेत्वर्थ १२० २६६, ३०३
हेमचन्द्र
हेमचन्द्राचार्य ३१३ शस्तनी
व्याकरण
श
m
शब्द
Page #494
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठ
(१) शुद्धि-पत्रक १. कुछ स्थान पर धातु व्यञ्जनान्त नहीं छपे हैं; वहाँ धातु को
व्यञ्जनान्त समझ लेना चाहिए । २. पुंल्लिङ्ग को सब जगह पुंलिङ्ग समझना चाहिए। ३. पुस्तक में अनेक स्थान पर अनुस्वार स्पष्ट रूप से नहीं छपे हैं ।
अशुद्ध २ दूसरा टिप्पण याने 'ए'
यह 'ऐ' ३ नंबर (८) ल ५ नंबर (१२) बुड्ड ७ नंबर (२३) तथ ७ शब्दविभाग हैं। गडढा
गड्ढा एली, वरसाती कीडा एली-निरन्तर बरसात
जिन नियमों के साथ इत्यादि से लेकर समझना चाहिए। यहाँ तक का
भाग निकाल दें। हस्व से दीर्घ
(१) ह्रस्व से दीर्घ पुना
पुणा यास्फ
यास्क 'अ' को 'ए' 'अ' को 'ए' तथा 'इ' नूउर
नू उर, निउर विजण,
व्यजन, पृ० ५५, ५७ पृ० ५६, ५७ में भी
2 2 4 8 ބޫތް
Page #495
--------------------------------------------------------------------------
________________
[
२
]
अशुद्ध
४४ ४८ नियम ११
दह
४८ टिप्पण में
१६
खुज
खुज्ज *जब 'कुब्ज' शब्द 'पुष्प वाचक हो तब उसका 'कुज' रूप बनाना । ऐसा
टिप्पण बढ़ाना। चिलाअ याने चिलाअ%3
दह दभ । दुष्ट - दम। 8 दर-डर । दष्ट
8 भय अर्थ में ही 'डर' रूप बनता है। ऐसा
टिप्पण बढ़ाना। समझना
समझने (नि० २६)
(नि० २५) धात्री-धाती धात्री-धती-धत्ती प्राकृत भाषा में पिया प्राकृत भाषा में पिय । अः को ओर पालि भाषा में ऐसे होने
वाले रूपांतरों के लिए देखिए--पालिप्रकाश पृ० ३०, ३१ (नि०३६, ३७); पृ० ३२, ३३ (नि० ३८, ३६); पृ० ३५ (नि० ४२); पृ० १० (नि० १२), पृ. १२,१३ (नि० १५, १६)।
अः को ओर करेञ्जहि
करेजहि वठि।)
वट्टि ।)
दद
७७
Page #496
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठ
७७
७७
F F F F F F f
८२
८२
८२
८३ नि० २८
८३
८३
८४
८६
८७
८७
६१
૨૪
६ नि० १२
ม
६६ नि० १७
६७
६८ नि० २३
६८
हद
१०७
११०
१११
१२०
23
[ ५३ ]
अशुद्ध
ठड्ढ | (याने
हिन्दी में खड़ा )
में द्विर्भाव कुसुप्पयर, कमल-केल, कमल |
• विविध
तिरिया
तिरिच्छ मसाण
1
अपभ्रंश भाषा में
स्पप्न
अइमुत्तय,
मणसि ।
पिट्टी
मुनियर |
केहं +
'अ' का
वर्णामि,
एग्गमेग |
आलं
तुङमाल
नोमोहो
पाणिनिकाल से
इच्छाति
चतुखत
शुद्ध ठड्डनिस्पंद
व्यापक हिन्दी में ठाढ़ाखड़ा )
में बैकल्पिक द्विर्भाव
कुसुमप्पयर,
कदल
सर्वथा
तिरिय
तिरिच्छि
मसान' | ( देखिए- पा०
१
- केल, कयल ।
प्र० से मुसान ) तक का सारा उल्लेख | इसके
बाद अलग पैरे ग्राफ में होना चाहिए २ अपभ्रंश
भाषा में
स्वप्न
अइमुतय,
मसि ।
पिट्ठी
मुणीयर |
कह +
'म्' का
वर्णमि,
एगमेग ।
अलं
तुमलं
नमोहो पाणिनि के काल से
इच्छति
चतुरंत
Page #497
--------------------------------------------------------------------------
________________
]
।
पृष्ठ १२२ नि० ३२ १३६ १३७
[ ८४ অয় संज्ञा वैदिक पांडतोने महर्षि पणिनि उतावला करना जलदी करना पूजना, अर्चना
शुद्ध कितनेक वैदिक पंडितों ने महर्षि पाणिनि उतावला होना जल्दी करना पूजना-अर्चना-अर्चन करना निकालना-काढना, खींचना, खेडना तू उतावला होता भाषा में तपना, संताप खिव (क्षिप)
१४०
काटना
१४२ १४४
१४६
१४६
१४६
दीव
१४६ १४७
खींचना तू उतावला करता दूसरी भाषा में तपना, संतान खिव् (क्षप्) दीव लुह (लुप्य) बदुवचनीय हम लोटते जाप कहते तू लोटता जीवमो बेजामो नि+प्पज्ज घोतित होना पाचवा सिलाह सूस
१४७ १४८ १५२ १५४ १५४ १५६ १५६
लुट्ट ( लुटय ) बहुवचनीय हम आलोटते जाप करते तू आलोटता जविमो बे जामो नि+पज्ज द्योतित होना पाँचवाँ सिलाह सूस
१५६
Page #498
--------------------------------------------------------------------------
________________
[
८५
]
पृष्ठ
१५६ १५६ १५६
रूस्
१५८
१६३
१६६
१७२
१७२
१७३
अशुद्ध
शुद्ध सुस्स
सुस्स् नस्स
नस्स् रूस रूस्स
रूस्स सामने जाता है। सामने बोलता है। (वीर)
(वीरम्) वीर+ओ-वीरो वीर+ओ=वीरो, वीर+ए
वीरे वीर+मूवीरं (वीर) वीर+म् वीर ( वीरं ) 'हि' प्रत्यय परे रहने पर 'हि' प्रत्यय को छांदस नियम की तरह छांदस भाषा की तरह
चतुर्थी प्राकृत भाषा में भी चतुर्थी उपभोग
उपयोग (फसल !)
(कमल !) १०, 'णि 'ड' १०, 'णि', 'ई' महु+इ-महूइ महु+इ-महूइँ अजिन
अजिण
वव . मायणम्मि
भायणम्मि कुम्मारो
कुम्हारो मत्थयेण
भत्थएण कुप्पई।
कुप्पइ। तुत्
चुत पतित, तोता, शुक पक्षी । तोता पण्डित ।
सोय ......पंडिता ।
....... 'पंडिता ?
१७८ १७८
१७६
१८२
वह
१८३ १८५
१८५ १८५ १८५ १८८ १८६ १६१
सो
Page #499
--------------------------------------------------------------------------
________________
[
८६ ]
१६४
अशुद्ध प्र० सव्वे च० सम्वाअ
शुद्ध प्र० सव्वो, सवे च० सव्वाण
तेषाम् )
१६६
DU W www 0 0 0
२००
२००
२०४
२०४
२०५
२०५
२०६
२१७ २१७
२१७ २१७
एण, इक्क
एग, इक्क प्रसाद, महल
प्रासाद, महल ब्राह्यण ।
ब्राह्मण । शवेसि पाणाणं सव्वेसिं पाणाणं भाणवाणं
माणवाणं (त्वाम्), वो (व:) (त्वाम्) तुम्हे, तुब्भे, (युष्मान्) तुम्हे, तुब्भे (युष्मान् ),
वो (व:) प्र. अहं
प्र० हं, अहं वीराणं भग्गो वीराणं मग्गो न हणज्जा पुारसा ।। न हणज्जा । तुममेव तुमं पुरिसा ! तुममेव तुम कडेहिंन्तो कम्मे हितों कडे हिंतो कम्महितो 'मोयणं मे
'भोयणं मे ... भाणवाणं.'खलु .. 'माणवाणं. • 'खलु आउ
आउयं।
पवदा । हियतनी
हीयत्तनी वयणे वयासी। वयणं वयासी। मार (मार) = मार । भार (भार) = भार | अपमान कर
अपमान करना। मुनियों का पति महावीर मुनियों के पति महावीर ने . . 'बुद्धं दिज्ज। .. 'दुद दिज्ज । गणवइ
गणवई
२१७ २१८
पवड्द
२१६
२३१
२४२
२४४ २४६ २४६ २४७
Page #500
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ]
२५५
कुटुम्बी
२५६
पृष्ठ
अशुद्ध २५५
दुहि (दुःलिन् ) = दु दुहि (दुःखिन् )-दुःखी । પૂછ્યું कु कुंबि
कुडुंबि कोडुबिभ (कौटुम्बिक) कोडुबिअ (कौटुम्बिक)=
कुटुम्वी
सुत्तहार (सूत्रहार) सुत्तहार (सूत्रधार) ૫૭. पट्टोल (पट्टकूल)=पटोल पट्टोल (पट्टकूल) पटोला
नाम का कपड़ा २५७ महिलानयर
मिहिला नयर २५७ रूप
रुप्प २५७ रुप्प
रुप २५८
अचेलय, अएलय (अचे- अचेलय, अएलय (अचेलक)=बिना वस्त्र का लक) ऐलक, बिना
वस्त्र का २५८
थोड़ा, इषत् थोड़ा, ईषत् २६०
मुद्ग (मूंगी) मुद्ग (मूग) तमौली पान... तम्बोली पान ..
गुरुणमंतिए... गुरूणमंतिए... २६१ मक्चू ...
मच्चू .. २६१
गुरुणो अनुसासणं... गुरुणो अणुसासणं... २६१
तुमे नचिस्सह... तुमे नच्चिस्सह... २६३
'काहे' इत्यादि 'काहं' इत्यादि २६३ टिप्पण, ३ दिस (दश) दिस दृश) " ". जा (हया)
जा (या) जानिस्सति
जाइस्सति द्वि० अह, अमु द्वि० अह, अमुं माराभिशंकि माराभिसंकि रूप
रूव २६६
डझमाण (दह्यमान) डज्झमाण (दह्यमान) जला हुभा।
जलता हुआ।
२६०
२६१
.
,
२."
२६७
२६७
२६६
Page #501
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठ
२६६
२७०
२७०
२७०
२७१
२७२
२७२
२७२
२७२
२७८
२८०
२८१
२८.१
२८३
२८३
२८४
२८५
२८६
२८६
२८६
२८६
६३
२६४
२६८
२६६
अशुद्ध
लक्ख, लूह ( रुक्ष )
प्र + गब्भ
विघ् (विंध्य )
उपि
पुर्ण
सुवं भोच्छंं ।
गुरुणो सच्चमासु ।
तवेण पावाइं भच्छं ।
महासीड़
दायरा
पुलिङ्ग
[]
(सुराष्ट्रीय)
कोहल ( कुष्माण्ड ) =
१८४
मम बहीणीवई...
आज्ञार्थक प्रत्यय
पुरन्त
• छिटना |
पसस
कोहल ( कुष्माण्ड ) =
पेठा
कोहड़ा
यहाँ से वाक्य, का आरंभ यहाँ से, वाक्य का आरंभ
( परि + व्ययू )
(परि + व्रज्)
छेअ (छेद ) = छिद्र
( अन्त, सिरा)
अहिनव
शुद्ध
सद्दह
उव + दस्
लक्ख, लूह ( रूक्ष)
प + गब्भ
विघ् (विध्य)
उपि
पूर्ण
सुहं भोच्छं । गुरुणो सच्चमाहंसु । तवेण पावाइं भेच्छं ।
महा षड्ढी
।
दायारा
पुंलिङ्ग
(सौराष्ट्रीय )
२८४
मम बहिणीवई
विध्यर्थ और आज्ञार्थक
प्रत्यय
परन्तु
...छिटना ।
पस्स
छेअ (छेद) = अन्त
अहिणव सद्दह
उव + दंस्
Page #502
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठ
३०१
३०१
३०२
३०२
३०३
३०३
३०६
३१२
३१४
३१६
३१६
३१६
३१८
३१६
३२०, ३.
३२१
३२३
३२३
३२४
३२४
३२५
३२५
३२५
३२७
३३०
अशुद्ध
वरजे ।
[ ८ ]
तुझ को..
बत्तेण
तथा
अकारान्त
हे मेघा !
(वाक् ) मूल अकारान्त नहीं है)
बुद्धिओ
फूआ
कति
कच्छु (कच्छू)
वावली
खंति
मूल धातु में
'अ' जौर
'भम' धातु का
आ+सार् (आ+स्-सार)
अ+ल्लव्
झाम् (दह्)
सं+ध् ( कथ् )
लज्जित करना
वलग्ग (बिलग्न )
(प्र+सर)
(हरिश्चन्द)
बीहाँ
शुद्ध
वर्जे |
तुझे..
वित्तेण
तया
आकारान्त
हे महा !
(वाक्-मूल आकारान्त नहीं है)
बुद्धीओ
फफी
कंति
कच्छु (कच्छु)
वावडी
खंति
मूल धातु को
'अ' और
'भम्' धातु का
आ + सार (आ+सार)
उ+ल्लव
झाम (ध्मा ?, दह् )
सं+घ् (कथ्)
लज्जित होना
वलग्ग् (वि+लग्न)
(प्र+सर्)
(हरिश्चन्द्र)
बीसवाँ
.
Page #503
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ६० ]
पृष्ठ
३३१
سہ
३३७
३४२ ३४२
३४८
३५३
३५६ ३५६ ३५६ ३६३ ३६३ ३६८ ,
अशुद्ध व्याकरण में 'रीना' व्याकरण में 'रोना' लजिज पाइज्च ।
पाइज्ज । णव्व-(गव्वते) णव्व-णवते सिच
सिंच लूव्वंति।
लुव्वंति। घुव्वंते
धुव्वंते नयत
नयंत राइसु
राईसु सहल्लो
सदुल्लो सण + इअ-सणिअं सण इअं-सणिअं
हेछिल्ल घूमा-घूमा करता है। घूम-घूम करता है। अपने आपकी... अपने आपको.. गेण्ह + तु-घेतुं गेह + तु=घेत्तु मुञ्च + तुमात्तु मुञ्च् + तु =मोत्तु वंदिता
वंदित्ता पृष्ठ ३५३ से ३६८ दूसरी दफे यहाँ ३६६ मे ३८४ समछपा है।
झना। हसणोयं
हसणीयं काव्य
कायव्वं
घेत्तव्वं मूल धातु में मूल धातु को होइता
होइंता हुती, हुता हुंती, हुंता करावि +क+माण करावि + अ+माण
३७०
घेतव्वं
३७२ ३७२ ३७२
Page #504
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ६१]
पृष्ठ
३८०
३८२
त्रेपन
अशुद्ध ३७४
भणज्जणमाल भगिज्जमाण ३७१
भणीअमंण भणीअमाणं ३७४
पढा जाता हुिआ, पढा जाता हुआ, ३८० दुवांसल
दुवालस इक्क वीसा इक्कवीसा दुपंण्णासा
दुपण्णासा ३८२
त्रिपन ३८४
सहस्स सहस्त्र) सहस्स ( सहस्र) ३८४
प्रयुक्त होते हैं प्रयुक्त होते हैं । ३६४
पायमेणा इसिं अन्नं पायगेण इसिं अन्नं
पस्थिज्जइ। पयिज्जइ। ३६४
'पिणटठं. "विणठं (२) शब्दकोश का शद्धि-पत्रक १ अहमुतय
अइमुत्तय १ अंतर अंतर
अंतर-अंतर अंजलो
अंजली ३ अगुजाण्ण
अणुजाण ३ अण्ड
अण्ह(धा०) ४ अनुजाण्णा (धा०) अणुजाण (घा०) ४. अन्तिका अत्तिका अन्तिका, अत्तिका (सं०)४ अथवा अल्पज्ञ
अथवा अल्पज्ञ अब्बा-अंबा
अब्बा, अम्बा (सं०)६ अहिनव
अहिणव १० उप्पि
उप्पि १० उम्भ ऊर्व
उम्भ ऊर्ध्व
www
<
Page #505
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठ
अशुद्ध
उम्बुरक=
१०
१३ कइ
१३ कैंसा
१४ बहुत में से
१५.
कर रूह
१६
कर्षापण
१७ किलमत
१७ कूअ
५४
२२ गोलोची = गिलोई
२७ जुगुच् = (धा०)
२७ जुंज
२७ जुत्तति
२६ टमरुक (चू० पै०) =ड
[ ६२ ]
३१ तओं
३३ तिरिया (पालि)
३५ दाढिका
३५ दिव+इति
३७ देवत
३६
नवफलिका ३६ नाली
४० निष्पुसण पोछना
४१ नोहलिया दर
४२ पखाल (घा० )
४३ पट्टोल= वस्त्र
४३
डंसुआ
शुद्ध
उम्बुरक ( सं ) ==
कति
कैसा
बहुत में से
कररुह
कार्षापण
किलमंत
कूअ ( घा० )
૪૫
गोलोची (पालि ) = गिलोई
जुगुच्छ ( घा० )
जुं
जुत्तंति
टमरुक (चू० पै०)=डमरू
तओ
तिरिय (पालि )
दादिका (सं० ) =
दिन + इति
देवता
नवफलिका (सं० ) = नाली (सं० ) =
निष्पुंसण = पड़ना
नोहलिया ....८३
पखाल् (वा० )
पट्टोल = एक प्रकार का वस्त्र, पडंसुआ
पटोला
Page #506
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठ
अशुद्ध
४३ पपडिवज्ज् (घा० )
४७ हड
४८ पुलिष (सं०) ५० बभचेर
५१ बृ
५२ बेसायाई ५२ बेसहस्सा इं ५२ बोल्ल्
५२ भग्नी (सं०
५२ भणिता
५२ भएय
५२
५४ पीछ
५६ मिइग
५७
५८
भागिनी=स्त्री
मुइग
रभस
५८ रम्भा
५६ लघण
५६
६१
६३ वावण
रीयू ६२
गोलकार
६४ विशेष दासि
६५ वीसर
६७ सद
६७ सहि
[ ६३ ]
शुद्ध
पडिवज्जू (धा० )
पिहड
पुलुष (सं०) बभचेर
बू (घा०) बेसाई
बेसहरुसाई
बोल्लू (घा०)
भग्नी (सं०)
भणिता (सं० )
भयए
भागिनी (सं० ) = स्त्री
पीछे
मिइंग
मुइंग
रभस (पै०)
रम्भा (स० )
लंघण
=२२६
गोलाकार
वावड
विशेष दीप्ति
वीसर् (धा० )
संद
सहि
Page #507
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ६४ ]
पृष्ठ अशुद्ध
शुद्ध ६७ सढा जटा अथवा सढा जटा अथवा सिंह आदि की
केसर-सिंह आदि केसरा-गर्दन के बाल
के गर्दन की बाल ६८ समत्तदंसि-शबर-किरात- समत्तदंसि २६७
भील-अनार्य जाति का समर-शबर-किरात-भील-अनार्य मनुष्य
__ जाति का मनुष्य ५३ ७१ राज-कर
राजकर ७२ सुदारसण
सुदरिसण ७२ सुभासद
सुभासए (क्रि.) ७३ सुह
सुहि ७३ सूसासे
सूसास ७३ सोरद्वीअ
सोरही ७४ साहण
सोहण ७४ हतब
हंतव्व ७४ हश ७४ हस
हंस ७४ हरक्खद
हरक्खद ७४ हरिअद
हरिअंद
हंश
(३) विशेष शब्दों को सूची का शुद्धि-पत्रक ७८ कठ ७८ कृदत
कृत ८. हियतनी
हीयत्तनी
कंठ
Page #508
--------------------------------------------------------------------------
________________