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________________ ( १७३ ) अन्तिम स्वर को दीर्घ होता है और पञ्चमी के बहुवचन के 'हि', 'हितो', 'सुंतो' प्रत्ययों के पूर्व अकारान्त अंग के अन्त्य 'अ' को 'ए' भ हो जाता है । एकवचन वीर + ओ = वीराओ वीर + उ = वोराउ रिसि + ओ भाणु + ओ = रिसीओ भाणूओ ६. षष्ठी के बहुबचन 'ण' से पूर्व अंग के अन्तिम स्वर को दीर्घ होता है । वीराण, वीराणं । वीर + ण = रिसि + ण = ७. सम्बोधन - ( विभक्ति ) के रूप रहित केवल मूल अंग भी प्रयोग में वीरो ! वीरा ! वीरे । : रिसीण । बहुवचन वीर + हि = वीराहि, वीरेहि । वोर + हितो = वीराहितो, वीरेहितो । वीर + सुंतो = वीरासुंतो, वीरेसुंतो । रिसि + हि = रिसीहि । भाणु + ह = भाणूहि । रिसि + हितो = रिसीहितो । सर्वथा प्रथमा जैसे हैं; विभक्ति देखने को मिलता है । जैसे, वीर ! ८. तृतीया विभक्ति के 'हि' प्रत्यय परे नासिक भी होता है । इस प्रकार वीरेहि, वीरेहिं । १ ९. व रा ( च० ए० ), वीरंसि ( स० ए० ) रूपों का व्यवहार विशेषतः आर्ष प्राकृत में दिखाई देता है । एकवचन में 'आई' प्रत्यय वाला रूप भी कई स्थानों में चतुर्थी के उपलब्ध होता है ( हे० Jain Education International रहने पर अनुस्वार और अनुइसके तीन रूप होते हैं । वीरेहि, १९. अजिणाए ( अजिनाय ), मंसाए ( मांसाय ), पुच्छाए ( पुच्छाय ) आदि 'आए' प्रत्यय वाले तथा 'लोगंसि', 'कंसि', अगारंसि, सुसाणंसि आदि 'अंसि' प्रत्यय वाले रूप आचारांगादि आर्ष सूत्रों में मिलते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001702
Book TitlePrakritmargopadeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1968
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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