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________________ दृढ - दृळह | सोढा-साळहा । - वै० प्र० ६ |३ | ११३ । प्रयुग-पउग ( ११६ ) १६. अनादिस्थ 'य' तथा 'व' का लोप वै० - वा० सं० १५-६ । सीमहि 'सिव्' धातु का - ऋ० वे० पृ० — - १३५, ३ । Jain Education International दळह | सोळहा देखिए पृ० ३६, नियम ७ तथा पृ० ४२, ४३ । १८. 'क' तथा 'च' का लोप : वै० -: प्रा० पृथुजव:- पृथुज्ञयः - निरुक्त पृ० ३८३, ४० । (ख) तथा पृ० ३७ नियम ३ । १७. अभूतपूर्व 'र' का आगम : afar - अधि । - निरुक्त पृ० ३८७, ४३ । पृथुजव: - पृथुज्रयः । इन रूपों में अभूतपूर्व 'र' का आगम हो गया है । प्रयुग-पउग पृथुज्वः - इस प्रयोग में 'व' का लोप होकर फिर शेष 'अ' की 'य' श्रुति हुई है जैसे लावण्यलायण्ण । देखिए – पृ० ३३ अपभ्रंश - प्राकृत में व्यास का व्रास तथा चैत्य का चैत्र जैसे रूपों में अभूतपूर्व 'र' का आगम हो गया है । देखिये - नियम २९ आगम - पृ० ८८ । Ято याचामि यामि कचग्रह- कयग्गह शची - सई - निरुक्त पृ० १००, २४१ । अन्तिक - अन्ति लोक-लोअ — ऋग्वेद पृ० ४६६ म० सं० 1 - देखिए पृ० ३३ (ख) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001702
Book TitlePrakritmargopadeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1968
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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