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________________ ( ३३४ ) अद्यतनभूतकाल भणोम, भणित्था, भणित्थ भणिसु, भणंसु । भविष्यत्काल भणिस्सं, भणेस्सं, भणिस्सामि, भणेस्सामि, भणिहामि, भणेहामि, भणिहिम, भणेहिमि आदि सभी रूप कर्तरिवाच्य के समान समझें ( देखो पाठ १३ ) । क्रियातिपत्ति भणतो, भणमाणो, भणेज्ज, भणेज्जा ( पुंलिंग ) । भणंती, भणमाणी ( स्त्रीलिंग ) । भणता, भणमाणा ( ) प्रेरक भावेप्रयोग और कर्मणिप्रयोग " १. धातु का प्रेरक भावे अथवा कर्मणिप्रयोगी रूप बनाना हो तो मूलधातु के प्रेरणासूचक एकमात्र 'आवि' प्रत्यय लगाकर उस अंग में भावे और कर्मणि प्रयोग के सूचक उक्त ईअ, ईय, अथवा इज्ज प्रत्यय पूर्वोक्त प्रक्रिया के अनुसार लगा लेने चाहिए । अथवा २. प्रेरणासूचक कोई भी प्रत्यय न लगाकर केवल मूलधातु के उपान्त्य 'अ' को 'आ' करके उसके पीछे उक्त ईअ, ईय अथवा इज्ज प्रत्यय पूर्व की भाँति लगा लें । इस प्रकार भी प्रेरक भावे और प्रेरक कर्मणि-प्रयोग के रूप बन सकते हैं । इसके सिवाय अन्य किसी भी रीति से प्रेरकभावे अथवा प्रेरककर्मणि प्रयोग के अंग नहीं बन सकते । Jain Education International 'कर' अंग के रूप करावीअइ ( काराप्यते ) । 'कर् + आवि: करावि + ईअ = करावीअ, करावी - अइ, अए, असि, असे इत्यादि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001702
Book TitlePrakritmargopadeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1968
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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