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( ३३५ ) कर-कार + ई = कारीअ-कारी-अइ, अए ( कार्यते )।
कारी-असि, कारो-असे ( कार्यसे )। कर् + आवि = करावि + इज्ज = कराविज्ज-ज्जइ, ज्जए (काराप्यते)। कर् + कार-इज्ज = कारिज्ज-कारि-ज्जइ, ज्जए ( कार्यते )।
___कारि-ज्जसि, ज्जसे ( कार्यसे )। इस प्रकार धातुमात्र से प्रेरकभावे और प्रेरककर्मणि के अंग बनाकर सर्वकाल के रूप उक्त प्रक्रिया से तैयार कर लेने चाहिए।
___ भविष्यत्काल कराविहिइ, कराविहिए, कराविस्सते ( कारापयिष्यते)
( देखिए पाठ तेरहवां ) कराविहिसि, कराविहिसे ( कारापयिष्यसे ) कराविस्सामि, कराविहामि, कराविस्सं ( कारापयिष्ये ) कारिस्सते, कारिहिए ( कारयिष्यते ) इत्यादि।
कुछ अनियमित अंग तथा उसके रूप ( उदाहरण ) मूलधातु-भा० क० का अंग। दरिस्-दीस्'-दीसइ ( दृश्यते ), दीसउ, दोससी, दीसिज्जइ,
दोसिज्जउ । वच्-वुच्च-वुच्चइ ( उच्यते ), वुच्चउ, वुच्चसी, वुच्चिज्जइ,
वुच्चिज्जउ । चिण्-) चिव्व-चिन्वइ (चीयते), प्रे० चिव्वाविइ, चिव्वाविहिइ,
चिम्म-चिम्मइ, प्रे० चिम्माविइ, चिम्माविहिइ ।। १. हे० प्रा० व्या० ८।३।१६१ । दीप और वुच्च ये दोनों अंग केवल
वर्तमान, विध्यर्थ, आज्ञार्थ और ह्यस्तनभूत में ही प्रयुक्त होते हैं। २. हे० प्रा० व्या० ८।४२४२-२४३ । चिब्व से लेकर पूव्व पर्यन्त के
अंग सह्यभेद के सिवाय कहीं भी प्रयुक्त नहीं होते।
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