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________________ द्वि० तृ० च० 9. ष० स० प्र० द्वि० तृ० ( १६६ ) जं ( यम् ) जेण, जेणं (ग्रेन ) जस्स, जास ( यस्मै यस्मै ) जेसि जाण, जाणं जम्हा ( यस्मात् ) जाओ, जाउ यतः > जाओ, जाउ ( यतः ) जाहि, जेहि, जाहिन्तो, जेहितो, जातो, जेसुंतो ( येभ्यः ) के समान होंगे । जेसु, जेसुं ( येषु ) षष्ठी के रूप चतुर्थी विभक्ति जंसि, जस्सि ( यस्मिन् ) जहि, जम्मि, जत्थ ( यत्र ) जाहे, जाला, जईआ★ ( यदा) जे, जा ( यान् ) जेहि, जेहि, जेहिं (यै: ) ज (नपुंसकलिङ्ग) Jain Education International जं (यत्) जाणि, जाई, जाइँ ( यानि ) ( > " "" (,, ) शेष सभी रूप पुंल्लिंग 'ज' के समान चलते हैं । त, ण (तद्, * हे० प्रा० व्या० ८।३।६५ । १. प्राकृत भाषा में 'त' और 'ण' तथा दोनों 'वह' ( ते ) के ( ये येभ्यः ) "" स, सो, से (सः) तं णं (तम् ) तेण, तेणं, तिणा ( तेन ) तेहि, तेहि, तेहिँ; पुंल्लिङ्ग ) तेणे (ते) ते, ता, णे णा ( तान् ) " "" हि, हि, हिँ (तैः ) For Private & Personal Use Only पालि भाषा में 'त' और 'न' अर्थ में प्रयुक्त होते हैं ( हे० प्रा० व्या० www.jainelibrary.org
SR No.001702
Book TitlePrakritmargopadeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1968
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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