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________________ २३६ ) जा सकती है । 'इन्' प्रत्ययान्त शब्दों के सभी रूप लगभग इकारान्त शब्द की भाँति होते हैं । इकारान्त-उकारान्त नपुंसकलिङ्ग इकारान्त-उकारान्त नपुंसकलिङ्ग अंग के तृतीया से सप्तमी पर्यन्त सभी रूप, इकारान्त - उकारान्त पुंलिङ्ग रूपसाधना की भाँति हैं और प्रथमा, द्वितीया तथा सम्बोधन की रूपसाधना अकारान्त नपुंसकलिङ्ग की भांति है । यथा : वारि ( वारि = जल ) प्र०-द्वि० वारि + म् = वारि ( वारि) वारि + णि = वारीणि वारि + इं = वारीइं वार + इँ = वारीइँ सं० वारि ! ( वारि ! ) "" (सूत्रों के लिये देखिये पाठ सातवाँ का प्रारम्भ ) महु ( मधु = प्र० - द्वि० महु + म् = महुं ( मधु ) सं० शहद ) - महु + णि महूणि महु + ई = महूई महु + ई = महूइँ Jain Education International महु ! ( मधु ! ) 91 ( सूत्रों के लिए देखिए पाठ सातवाँ का प्रारम्भ ) चतुर्थी के एकवचन में 'वारिणे', 'वारिस्स'; 'महुणे', 'महुस्स' रूप समझना चाहिए । लेकिन 'वारये', 'महवे' नहीं । "1 39 ( मधूनि ) वारीणि For Private & Personal Use Only इकारान्त और उकारान्त शब्द (पु ंल्लिङ्ग) मुणि ( मुनि ) = मुनि - मनन करने वाला, मौन धारण करनेवाला सन्त । (,, ) www.jainelibrary.org
SR No.001702
Book TitlePrakritmargopadeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1968
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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