SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इक्कीसवाँ पाठ व्यञ्जनान्त शब्द प्राकृत में रूपाख्यान के समय कोई भी शब्द व्यञ्जनान्त नहीं रहता । अतः सभी के रूप स्वरान्त की भाँति समझने चाहिए । 'अत्' और 'अन्' अन्त वाले नामों (शब्दों ) के रूप में जो विशेषता है वह इस प्रकार है: नाम के अन्त में वर्तमान कृदन्त-सूचक 'अत्' प्रत्यय के स्थान में 'अंत' तथा मत्वर्थीय 'मत्' प्रत्यय के स्थान में 'मंत : २ अथवा 'वं का व्यवहार होता है । अत्-भवत्-भवंत । गच्छत् — गच्छंत | नॅत | नयत् —नयंत, गमिष्यत् - गमिस्संत । भविष्यत् — भविस्संत । - मत् — भगवत् - भगवंत । गुणवत् - गुणवंत । धनवत् — घणवंत । ज्ञानवत्--- णाणवंत, नाणवंत । नीतिमत् — नीइवंत, णीइवंत । ऋद्धिमत्-- रिद्धिवंत । १. हे० प्रा० व्या० ८।३।१८१ । २. हे० प्रा० व्या० ८।२।१५९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001702
Book TitlePrakritmargopadeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1968
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy