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________________ ( ३५७ ) अण्णया ( अन्यदा )= अन्य समय में । तवस्सि (तपस्विन् ) = तपस्वी । मणंसि ( मनस्विन् ) = मनस्वी, बुद्धिमान् । काणीण (कानोन) = कन्या का पुत्र-व्यास ऋषि । वम्मय ( वाङ्मय ) = वाङ्मय, शास्त्र । पिआमह ( पितामह ) = दादा, पिता का पिता । उवरिल्ल ( उपरितन ) = ऊपर का । कया ( कदा) = कब । सव्वया ( सर्वदा) = हमेशा, सर्वदा, सदैव । रायण्ण ( राजन्य ) = राजपुत्र, राजकुमार । अत्थिा ( आस्तिक ) = आस्तिक, ईश्वर को माननेवाला । भिक्ख (भैक्ष)= भिक्षा । नाहिअ, नत्थिा ( नाहिक-नास्तिक ) = नास्तिक, पाप-पुण्य को नहीं माननेवाला। पोणया ( पीनता ) = पुष्टता, मोटापा । मायामह ( मातामह ) = नाना, माता का पिता । सम्वहा ( सर्वथा) - सब प्रकार से । तया ( तदा ) = तब । वाक्य (हिन्दी) प्रजा के दुःख से दुःखो राजा द्वारा एकबार भोजन किया जाता है। वहां पराये बालकों द्वारा रोया जाता है। . घरेलू वस्तु आँखों द्वारा देखी जाती है। मुनि द्वारा मधु खाया नहीं जाता। वह मन, वचन और काया से किसी को नहीं मारता। जीव कर्म द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001702
Book TitlePrakritmargopadeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1968
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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