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________________ ( २९० ) सं + जल् (सं + ज्वल ) = जलना, क्रोध करना । उव + आस ( उव + आस ) भा ( भी ) = डरना, भयभीत होना । खल् + ( स्खल् ) = स्खलित होना, अपने स्थान से भ्रष्ट होना । नि + धुण् ( निर् + धुना ) = झाड़ना, झपटना । " वस् ( वस् ) = रहना, बसना । प + माय ( प्र + माद्य) = प्रमाद करना, आलस्य करना । = उपासना करना । वि + णस्स् (वि + नश्य ) = नष्ट होना, नाश होना, बिगड़ना । आ + लोट्ट ( आ + लुटय ) = आलोटना, लोटना । १. उपर्युक्त सभी प्रत्यय लगाने से पूर्व धातु के अन्त्य 'अ' को 'ए' विकल्प से होता है। जैसे के अकारान्त अंग हस् + उ — हस् + अ +उ = हसेउ, हसउ हस् + मोहस् + अ + मो हसेमो, = हसमो ( 'अ' विकरण के लिए देखिए पाठ १, नि० १ ) । २. प्रथम पुरुष के प्रत्यय लगाने से पूर्व धातु के अकारान्त अंग के अन्त्य 'अ' को 'आ' तथा 'इ' विकल्प से होती है । जैसे Jain Education International ― हस् + मु - हस् + अ + सु = हसामु, हसिम, हसमु, 1 ३. अकारान्त अंग में लगने वाले 'हि' प्रत्यय का प्रायः लोप' होता है और कहीं-कहीं इस अंग के अन्त्य 'अ' को 'आ' भी होता है । जैसे हस् + अ + हि = हस, गच्छ् + अ + हि = गच्छाहि । ४. कहीं-कहीं तृतीय पुरुष के एकवचन 'उ' अथवा 'तु' प्रत्यय १. हे० प्रा० व्या० ८।३।१७५ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001702
Book TitlePrakritmargopadeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1968
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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