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________________ इसके अतिरिक्त समासशैली की और भी अनेक विशेषताएँ हैं जैसे 'अहिणउलं' ( अहिनकुलम् ) में एकवचनी द्वन्द्व समास साँप और नकुल दोनों के जातिगत स्वाभाविक विरोध को प्रकट करता है-जब कि 'देवासुरं' में एकवचनी द्वन्द्व समास देव और असुरों में मात्र विरोध को ही सूचित करता है। ____ इसके अतिरिक्त कई बार जब समास में पूर्वपद की विभक्ति का लोप नहीं होता तब वह किसी अर्थविशेष को बताता है; जैसे 'गेहेसूरो' समास मनुष्य की कायरता को सूचित करता है। "तित्थे कागो अत्थि" यह समास विहीन वाक्य कोई खास विशेष अर्थ नहीं बताता। जबकि 'तित्थकाग' ( तीर्थकाक ) सामासिक वाक्य तीर्थवासी मनुष्य की अधमता बतलाता है । - कहीं-कहीं समास में मध्यमपद के लोप होने पर भी उसका अर्थ बराबर सूचित होता रहता है । जैसे 'झसोदर' सामासिक शब्द का अर्थ "मछलो के पेट की भांति पेट है जिसका" ऐसा होता है। वस्तुतः ऐसा अर्थ बताने के लिए 'झसोदरोदर' ( झस-मछली, उदर-पेट, उदर-पेट) शब्द प्रयुक्त होना चाहिए जब कि इसके बदले केवल 'झसोदर' शब्द ही उक्त अर्थ को पूर्णरूप से बता देता है। इस समास का ही यह एक चमत्कार है। ऐसे समास को 'मध्यमपद-लोपी' समास कहते हैं। इसके अतिरिक्त समासशैली की विशेषता बताने के लिए "दंडादंडी' ( दण्डादण्डि ), केसाकेसी ( केशाकेशि ), अनुरूप ( अणुरूव ), जहासत्ति ( यथाशक्ति ) आदि अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं परन्तु उन सभी उदाहरणों को विस्तारपूर्वक देने का यह स्थान नहीं है। इस बात का यहाँ विशेष ध्यान रखना चाहिए कि समासों की जो खूबी पण्डिताऊ भाषा में है वह खूबी एक समय की लोकभाषारूप इस प्राकृत भाषा में नहीं । परन्तु जब से यह भाषा भी साहित्यिक भाषा बनी तब से इसके ऊपर भी पण्डितों की भाषा के समासों का प्रभाव पर्याप्त रूप से पड़ा है और इसीलिए यहां समासों की थोड़ी चर्चा करना समुचित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001702
Book TitlePrakritmargopadeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1968
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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