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________________ ( ५६ ) २७. आदि व्यञ्जन का लोप जिस शब्द के प्रारम्भ में व्यञ्जन रहता है उसका श्रर्थात् शब्द के श्रादि व्यंजन का कहीं-कहीं लोप' हो जाता है । जैसे : च-न । चिह्न -इंध | पुनः- उण, उणो । १. संयुक्त व्यञ्जनों का सामान्य परिवर्तन पूर्ववर्ती व्यव्जन का लोप 3 कू, ग्, टू, ड्, त्, दू, प्, श्, षू और स व्यञ्जनों का किसी भी संयुक्त व्यञ्जन के पूर्ववर्ती होने पर लोप हो जाता है र और लोप होने के बाद शेष बचा व्यञ्जन यदि शब्द के श्रादि में न हो तभी उनका द्वित्व ( डबल ) होता है । द्वित्व हुआ अक्षर ख्ख, छ्छ, छ, थ्थ और फ्फ हो तो उसके स्थान में क्रमशः क्ख, च्छ, छ, त्थ और प्फ हो जाता है ४ । अगर द्वित्व हुआ अक्षर घ्घ, भझ, द्रु, ध्ध, तथा भभ हो तो उसके स्थान में क्रमशः ग्घ, ज्झ, ड्ढ, दूध, तथा ब्भ हो जाता है । जैसे : पूर्ववर्ती 'क' का लोप भुक्त- भुत भुत । मुक्त - - मुत - मुत्त । शक्त - सत-सत्त । सिक्थ - सिथ- सिध्थ - सित्थ । Jain Education International www १. हे० प्रा० व्या० ८।१।१७७ । २. हे० प्रा० व्या० ८ २७७ । ३. हे० प्रा० व्या० ८ २८६ । ४. हे० प्रा० व्या० ८२६० | *इन उदाहरणों में जो अन्तिम रूप है वही प्रयोग में व्यवहार करने योग्य है । बीच का कोई भी रूप प्रयोग में नहीं श्राता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001702
Book TitlePrakritmargopadeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1968
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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