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________________ 'ग' का लोप प्रागत-श्राश्र, श्रागन । 'ज' का लोप दनुज-दणु, दणुश्र । दनुजवध-दणुवह, दणुअवह । भाजन-भाण, भायण । राजकुल-राउल, रायउल । 'द', 'दु' तथा पादपीठ-पावीढ, पायवीढ । 'दे' का कोप पादपतन-पावडण, पायवडण । उदुम्बर-उंबर, उउंबर; सं० उम्बर । दुर्गादेवी-दुग्गावी, दुग्गाएवी अथवा दुग्गादेवी। 'य' का लोप किसलय-किसल, किसलय; सं० किसल । काल+प्रायस = कालायस-कालास, कालायस । हृदय-हिश्र, हिन। सहृदय-सहिश्र, सहिय । 'व' का लोप अवड-अड, अयड । श्रावर्तमान-अत्तमाण, श्रावत्तमाण । एवमेव-एमेव, एवमेव । तावत्-ता, ताव । देवकुल-देउल, देवउल । प्रावारक-पार, पावारश्र। यावत्-जा, जाव । 'वि' का लोप जीवित-जीश्र, जीविश्र। संस्कृतभाषा में भी ऐसी प्रक्रिया संमत है-श्रागताः = श्राताः, दिशावाचक शब्द-यास्क । सं० उदुम्बर-उम्बुरक अथवा उम्बर । सुदत्त-सुत्त । प्रदत्त-प्रत्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001702
Book TitlePrakritmargopadeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1968
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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