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________________ ( २४४ ) जाव, जा ( यावत् )= जब तक, जो। एत्थ ( अत्र )= यहाँ। चिरं=(चिरम् )= चिरकाल तक । धातुएँ अव + मन्न् ( अप + मन् )-अपमान करन.. अ + क्खा ( आ + ख्या)-बोलना, कहना । जाय ( याच् )-याचना करना, माँगना । प+ वय (प्र + वद् )-कहना । पूज, पूअ ( पूज)-पूजना, पूजा करना चय ( त्यज् )-त्यागना, छोड़ना । डस् ( दश् )-डसना, दंशना, डंक मारना । रक्ख (रक्ष )-रक्षा करना, सम्भालना। वि + राअ ( वि + राज्)= विराजमान होना, शोभायमान होना। वि + राज उ + ड्डी (उत् + डी )-उड़ना। नि + मंत् (नि + मन्त्र )-निमन्त्रण देना, बुलाना। जागर् ( जागर् )-जागना । ताल, ताड् ( ताड्)-ताड़न करना, मारना । वि + चर् ( वि+ चर् )-विचरना, घूमना । वाक्य (हिन्दी) एकबार साधु ब्राह्मण के घर गये । भिक्षु उपाधियों को छोड़ते हैं और स्वयंभू का ध्यान करते हैं । अनार्य तप से परिशोषित मुनि का उपहास करते हैं। ब्राह्मणों ने भिक्षओं का अपमान किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001702
Book TitlePrakritmargopadeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1968
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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