________________
( २१४ )
चय् ( त्यज् ) = त्यागना, छोड़ना, तज देना । चर् ( चर ) चर्वण करना, चबाना, चलना ।
सं + जल् ( सं + ज्वल ) = जलना, तपना, क्रोध करना ।
अणु + तप्प् ( अनु + तप्य् ) = अनुताप करना, पश्चात्ताप करना ।
प + यय् ( प्र + यत् )
= प्रयत्न करना |
अभि + न + क्खम् ( अभि + निष् + क्रम् ) = सदा के लिए घर से निकल जाना, संन्यास लेना ।
परि + हर ( परि + हर् ) = छोड़ना ।
तच्छ् ( तक्ष ) = छीलना, पतला करना ।
अभि + प् + त्थ अभिपत्थ
Jain Education International
} ( अभि + प्र + अर्थ ) = प्रार्थना करना ।
अभि + जाणू ( अभि + ज्ञा ) = पहचानना । खण् ( खन् ) = खोदना, कुरेदना |
परि + च्चय् ( परि + त्यज ) = परित्याग करना ।
वाक्य
आचार्य कुशलता के लिए सतत प्रयास करते हैं । संसार में पाप का बोझ बढ़ता है ।
जैसे-जैसे वासना बढ़ती है वैसे-वैसे लोभ बढ़ता है । युद्ध के समय धैर्य दुर्लभ होता है ।
हम निरर्थक नहीं बोलते ।
भँवरे फूलों पर दौड़ते हैं ।
वृक्ष पानी पीते हैं और ताप सहन करते हैं ।
नमिराज युद्ध को छोड़ता है ।
क्षत्रिय शस्त्र और अस्त्रों से निर्दोष मनुष्यों के मस्तक काटते हैं । छात्र सदैव गुरुकुल में रहते हैं ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org