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________________ ( १०४ ) नरस्स इंदो-नरिन्दो । समाहिणो ठाणं-समाहिठाणं । देवस्स इंदो-देविंदो। सत्तमी तत्पुरिसः कलासु कुसलो-कलाकुसलो । जिणेसु उत्तमो-जिणोत्तमो । बंभणेसु उत्तमो-बंभणोत्तमो । दिएसु उत्तमे-दिओत्तमे नरेसु सेट्ठो-नरसेट्ठो। उववय समास ( उपपद समास ) तत्पुरुष समास के अन्दर ही समाविष्ट हो जाता है। उववय ( उपपद ) समास में अन्तिम पद कृदन्तसाधित होता है यही इसकी विशेषता है । उववय समास के कुछ उदारहण : कुंभगार (कुम्भकार) भासगार (भाष्यकार) सव्वण्णु (सर्वज्ञ) निण्णया (निम्नगा) (पादप) नोयगा (नीचगा) कच्छव (कच्छप) नम्मया (नर्मदा) अहिव (अधिप) सगडब्भि (स्वकृतभित्) गिहत्थ (गहस्थ) पावनासग (पापनाशक ) सुत्तगार (सूत्रकार) वुत्तिगार (वृत्तिकार) आदि । विशेषण और विशेष्य का समास भी तत्पुरुष के भीतर समा जाता है उसका दूसरा नाम 'कम्मधारय समास' है । उसके उदारहण:- . पीअं च तं वत्थं च-पीअवत्थं । रत्तो च सो घडो च-रत्तघडो । गोरो च सो वसभो च-गोरवसभो। महंतो च सो वीरो च-महावीरो। वीरो च सो जिणो च-वीरजिणो । पायव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001702
Book TitlePrakritmargopadeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1968
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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