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________________ मूल लेखक के दो शब्द बनारस श्री यशोविजय जैन संस्कृत पाठशाला में जब मैं पढ़ रहा था तब की यह बात है अर्थात् आज से करीब ६० बरस पहले की बात है अतः थोड़े विस्तार से कहने की जरूरत महसूस होती है। स्व. श्री विजयधमसूरिजी ने बड़े कड़े परिश्रम से उक्त संस्था काशी में स्थापित की थी । उसमें डॉ० पंडित सुखलालजी, पाइअसद्दमहण्णवो नामक प्राकृत शब्दकोश के रचयिता मेरे सहाध्यायी मित्र स्व० पं० हरगोविंददासजी सेठ और मैं उसी पाठशाला में पढते थे। शुरू में मैंने आचार्य हेमचंद्ररचित सिद्ध हेमशब्दानुशासन लघुवृत्ति को पढ़ा, बाद में उसी व्याकरण की बृहद्वृत्ति को। उस व्याकरण में सात अध्याय तो केवल संस्कृत भाषा के व्याकरणसंबंधी है, आठवाँ अध्याय मात्र प्राकृत भाषा के व्याकरण का है । सात अध्याय पढ़ चुकने के बाद मेरा विचार आठवाँ अध्याय को पढ़ने का हुआ । आठवाँ अध्याय को वहाँ कोई पढ़ाने वाला न था अतः उसके लिए मैं ही अपना अध्यापक बना । जब आठवाँ अध्याय को पढ़ रहा था तब ऐसा अनुभव हुआ कि कोई विशिष्ट कठिन परिश्रम किये बिना ही आठवाँ अध्याय मेरे हस्तगत और कंठाग्र हो गया, फिर तो काशी में ही कई छात्रों को तथा मुनियों को भी उसे भली भांति पढ़ा भी दिया और प्राकृत भाषा मेरे लिए मातृभाषा के समान हो गई। उन दिनों में संस्कृत को सरलता से पढ़ने के लिए स्व. रामकृष्णगोपाल भाण्डारकर महाशय ने संस्कृत मार्गोपदेशिका अंग्रेजी में बनाई थी। उसका गुजराती अनुवाद गुजरात की पाठशालाओं में चलता था। संस्कृत का प्राथमिक अध्ययन मैंने भी इसी पुस्तक द्वारा किया था। इससे मुझे ऐसा विचार आया कि संस्कृत मार्गोपदेशिका की तरह इसी शैली में प्राकृत मागोपदेशिका क्यों न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001702
Book TitlePrakritmargopadeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1968
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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